यों तो ख्यात था पूर्व से ही
शहर ‘अजमेर
इन दिनों विशेष प्रसिद्धि पा गया
संसार के मानचित्र पर;
क्योंकि मुनि द्वय का समागम हो गया
युगल रवि शशि का प्रकाश
हर कोई अपनी आँखों में
समेट लेना चाहता,
पर हर आँखों पर 'आई फ्लू' ने
अपना प्रभाव जमा लिया।
क्रोध किये बिना ही
आँखें लाल-लाल हो आयीं
एक के बाद एक
सभी की बारी आयी।
शिष्य मुनि की आँखें
जलते अंगारों-सी ।
दुःसह पीड़ा देने लगीं
दो महीने बीत गये।
गुरू-मुख से शास्त्र सुनते
उन्हीं के समीप बैठे रहते,
एकांतर उपवास रखते
मेरू से अकंप रहते।
चिकित्सक ने कहा-लगाना पड़ेगा चश्मा
पर वे ठहरे दृढ़ संकल्पी महात्मा
ज्ञात थी उन्हें
विज्ञान की क्षुद्रता और धर्म की महानता!
छोटे से डबरे को खलबला देती
दो-चार मीन ही,
पर कहाँ परवाह करता
सैकड़ों मगरमच्छों की भी
विराट रत्नाकर वह!!
इसीलिए
तर्क न करके
सतर्क रहते...
जानते थे वे कि
विज्ञान ने
विराट को अणु बना दिया
और धर्म ने
लघु को प्रभु बना दिया।
दोनों में आखिर कौन है महान
जो क्षुद्र को श्रेष्ठ बना दे वह
या
जो श्रेष्ठ को क्षुद्र बना दे वह?
इस तरह वंद्य-निंद्य की पहचान कर
गुरु-चरणों को निरखकर
वीतराग-विज्ञान पर
विश्वास रखकर
असाता को दे दी विदाई।
तन को एकान्तता
मन को एकाग्रता
वचन को मौन साधना से
मिलती है शांति,
सहज अवतरित होती है तब
आत्मानंद की अनुभूति
अनुभव की अमराइयों से
गूंजती हैं अंतराकाश में
श्राव्य मधुर कविताएँ।
सुखद आनंद के क्षणों में
बनता है अनुभवी कवि
दुखद विरह-वेदना के पलों में
बनता है लौकिक कवि।
सच है
‘बन जाता है तब मानव कवि
जब संसार रुलाता उसको
तभी ढूंढ़ता वह 'अपनों' को
पर ठुकरा देते जब वे भी
व्यथा सुनाता है निज मन को
पर जब उसकी कायरता पर
मुस्काता है उसका मन भी।
बन जाता है तब मानव कवि।
यहाँ तो आत्मानुभवी कवि की
बात ही निराली थी,
पा भेदज्ञानी गुरू की सन्निधि
हर पल दीवाली थी।
तभी प्रथम कविता उभरी...
श्रीज्ञानसागर गुरू-स्तुति के रूप में
फिर तो आचार्य शांतिसागरजी
‘वीरसागरजी' और 'शिवसागरजी' की
हो गई स्तुति तैयार...
नित प्रतिदिन नई-नई भावानुभूति से
अध्यात्म की गहराई में,
शब्द तैरते रहते तरह-तरह के
पिरोकर उन्हें
तैयार हो जाती आत्मिक कविता।
जो कोई धीमान् प्रज्ञावान पढ़ता उसे
भर जाता आनंद से,
यों ज्ञान-समंदर में डूब-डूब
आगम मोती चुनते-चुनते
समय बीतता पता न चलता
श्री मुनिवर का...
विद्या का भंडार भरता रहता...।
ज्ञान की यही तो गरिमा है।
जिनवाणी ने गायी इसकी महिमा है,
तभी तो वे
ज्ञानी गुरु-संग छाया की भाँति ।
विहार करते
अंतर में निज ज्ञान-गुण-बाग में
विचरण करते।
पहुँचे नसीराबाद
वहीं दर्शनार्थ आये
‘सोनीजी’ साथ में समाज
गणमान्यों ने किया निवेदन
“आचार्यपद' ग्रहण करने का
पाना है जिन्हें मात्र शिवपद
वे भला कैसे चाह सकते?
फिर भी अति आग्रह करने पर
संघ की सम्मति से
संघ की सन्निधि में
आचार्यपद पर श्री ज्ञानसिंधु मुनिवर को
होना पड़ा आसीन...
हर्षोल्लास से धर्म प्रभावना पूर्वक
समारोह मनाया गया,
स्वर्णाक्षरों से लिखा एक और पृष्ठ
सात फरवरी उन्नीस सौ उनहत्तर का
इतिहास में जुड़ गया।