स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है
स्वार्थपरता सर्वनाश की जड़ है
ऊपर लिखा गया है कि मनुष्य का जीवन एक सहयोगी जीवन है। उसे अपने आपको उपयोगी साबित करने के लिये औरों का साथ अवश्यम्भावी है, जैसे कि धागों के साथ में मिलकर चादर कहलाता है और मूल्यवान बनता है। अकेला धागा किसी गिनती में नहीं आता, वैसे ही मनुष्य भी अन्य मनुष्यों के साथ में अपना संबंध स्थापित करके शोभावान बनता है। यानी कि अपना व्यक्तित्व सुचारू करने के लिये मनुष्य को सामाजिकता की जरूरत होती है। अत: प्रत्येक मानव का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने आपके लिये जितना सुभीता चाह रहा हो उससे भी कहीं अधिक सुभीता औरों के लिये देने और दिलवाने की चेष्टा करे। परन्तु आज हम देख रहे हैं कि आज के मानव की गति इससे विलक्षण है। वह समाज में रहकर भी समाज की कोई परवाह नहीं करता है, उसे तो सिर्फ अपने आपकी ही चिन्ता रहती है। भूख लगी कि रोटियों की तलाश में दौड़ता है, प्यास लगी तो पानी-पीना चाहता है। जहां खाना-खाया, पानी-पीया और मस्त ! फिर लेट लगाने की सोचता है। क्या वह यह भी सोचता है कि कोई और भी भूखा होगा? बल्कि आप खा चुका हो और रोटियां शेष बच रही हों एवं भूखा भिखारी सम्मुख में खड़ा होकर खाने के लिये मांग रहा हो तो भी उसे न देकर आप ही उन्हें शाम को खा लेने की सोचता है।
कहो भला ऐसे खुदगर्जी का भी कहीं कोई ठीक ठिकाना है? जिसका कि शिकार आज का अधिकांश मानव है। अपनी दो रोटियों में से एक चौथाई रोटी भी किसी को दे दें सो तो बहुत ऊँची बात है प्रत्त्युत यह तो दूसरे के हक की रोटी को भी छीन कर हड़प जाना चाहता है। इसी खुदगर्जी की आग में आज का मानव स्वयं जलकर भस्म होता हुआ देखा जा रहा है।
एक समय की बात है कि एक साधु को मार्ग में गमन करते हुये चार बटोही मिले। साधु ने कहा भाइयो! इधर मत जाना क्योंकि इधर थोड़ी दूर आगे जाकर वहां पर मौत है। किन्तु उसके कहने पर उन लोगों ने कोई ध्यान नहीं दिया। अपनी धुन में आगे को चल दिये। कुछ दूर जाकर देखा तो अशरफियों का ढेर पड़ा था। उसे देखकर वे बड़े खुश हुये, बोले कि उस साधु के कहने को मान कर हम लोग वहीं रुक जाते तो यह निधान कहां पाते ! इसीलिए तो हम कहते हैं कि इन साधुओं के कहने में कोई न आवे। खैर! अपने को चलते-चलते कई दिन हो गये हैं, भूख सता रही है, अत: इन में से एक अशरफी ले जाकर एक आदमी इस पास वाले गांव में से मिठाई ले आवे। उसे खाकर, फिर इन शेष अशरिफयों के बराबर चार हिस्से करके एक-एक हिस्सा लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को चलेंगे।
अब जो मिठाई लेने गया उसने सोचा कि मैं तो यहीं पर खालू और अब शेष मिठाई में जहर मिला कर ले चलूं ताकि इसे खाते ही सब मर जावें ताकि सब अशरफियां मेरे ही लिए रह जावें। उधर अन्य लोगों ने विचार किया कि आते ही उसे मार डालना चाहिये ताकि इन धन के तीन हिस्से ही करने पड़े एवं जब वह आया तो उन तीनों ने उसके माथे पर लट्ठ जमाया, जिससे वह मर गया और उसकी लाई हुई मिठाई को खाकर वे तीनों भी मर गये। अशरफियां वहां ही पड़ी रह गई।
बन्धुओं ! यही हाल आज हम लोगों का हो रहा है। हम बांटकर खाना नहीं जानते, सिर्फ अपना ही मतलब गांठना चाहते हैं। और इस खुदगर्जी के पीछे मगरूर होकर सन्तों, महन्तों की वाणी को भुला बैठते हैं।
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