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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संवेगभाव


संयम स्वर्ण महोत्सव

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संवेगभाव

 

महात्मा लोगों ने निर्णय कर बताया है कि शरीर भिन्न है तो शरीरी उससे भिन्न। शरीरी चेतन और अमूर्तिक है तो शरीर जड़ और मूर्तिक, पुद्गल परमाणुओं का पिंड, जिसको कि यह चेतन अपनी कार्यकुशलता दिखाने के लिए धारण किये हुए है। जैसे बढ़ई वसोला लिए हुए रहता है काठ छीलने के लिये, सो भोंटा हो जाने पर उसे पाषाण पर घिसकर तीक्ष्ण बनाता है और उसमें लगा हुआ बैंता अगर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो तो दूसरा बदलकर रखता है। वैसे ही उपासक भी अपने इस शरीर से भगवद्भजन और समाज सेवा सरीखे कार्य किया करता है। अतः समय पर समुचित भोजन तथा वस्त्रों द्वारा इसे सम्पोषण भी देता है। परन्तु उसका यह शरीर भगवद्भजन सरीखे पुनीततम कार्य में सहायक न होकर प्रत्युत उसके विरुद्ध पड़ता हो तो बेकार समझकर उपासक भी इससे उदासीन होकर रहता है।

 

राजा पुष्पपाल की लड़की मदनसुन्दरी जो कि आर्यिकाजी के पास पढ़ी थी। वह जब विवाह योग्य हुई तो पिता ने पूछा, बेटी कहो! तुम्हारा विवाह किस नवयुवक के साथ में किया जावे? लड़की ने कहा- हे भगवन् ! यह भी कोई सवाल है? मैं इसके बारे में क्या कहूं? आप जैसा भी उचित समझे उसी की सेवा में मुझे तो अर्पण कर दें, मेरे लिये तो वही सिर का सेहरा होगा। इस पर चिढ़कर राजा ने उसका विवाह श्रीपाल कोढ़िया के साथ कर दिया।

 

यह बात मंत्री मुसाहिब आदि को बहुत बुरी लगी, अत: वे सब बोले कि प्रभो ! ऐसा न कीजिये। परन्तु मदनसुन्दरी बोली कि आप लोग इस आदर्श कार्य में व्यर्थ ही क्यों रोड़ा अटका रहे हैं। पिताजी तो बहुत ही अच्छा कर रहे हैं जो कि इन महाशय की सेवा करने का मुझे अवसर प्रदान कर रहे हैं। वस्तुत: शरीर तो आप लोगों का और मेरा भी सभी का ऐसा ही है जैसा कि इन महाशय का है। सिर्फ हम लोगों को लुभाने के लिये हमारे शरीरों पर चमड़ी लिपटी हुई है, किन्तु इनके शरीर की चमड़ी में छेद हो गये हैं ताकि भीतर की चीज बाहर में दीखने लगी रही है और कोई अन्तर नहीं है। अतएव इनकी सेवा करके मुझे मेरा जन्म सफल कर लेने दीजिये। भगवान आपका भला करेंगे।

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