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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१३२ १४-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर परमोपकारी जीवहितैषी परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी दादा गुरुवर के पावन चरणों को हृदय में विराजमान कर त्रिकाल नमस्कार करता हूँ। हे गुरुवर! जब आप मौजमाबाद से धमाना होते हुए चौरू पहुँचे और चौरू में पाँच दिन का प्रवास किया था। उस प्रवास के दौरान का एक संस्मरण वहाँ के श्री लक्ष्मण जी कासलीवाल ने बताया सो आपको बता रहा हूँ- औषधदान के प्रेरक दादागुरु ‘‘चौरू में जैन समाज के लगभग ५० घर थे। शाम को पूरी समाज मन्दिरजी में जाती थी और गुरु महाराज की आरती करती थी। उसके बाद मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बच्चों को बालबोध भाग पढ़ाया करते थे। सुबह गुरु महाराज का प्रवचन होता था। दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। उसी समय गुरु महाराज के आशीर्वाद से एवं उनके ही सान्निध्य में जैन समाज ने आयुर्वेदिक औषधालय स्थापित किया एवं प्रारम्भ किया था। जिसमें वैद्यराज द्वारकाप्रसाद जी को नियुक्त किया गया था। गुरु महाराज ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान करके कहा था- बिना कोई कारण के छोड़कर नहीं जाना' और समाज को कहा था-'वैद्य जी का पूरा-पूरा ध्यान रखना' तब से आज तक औषधालय चल रहा है।' इस प्रकार हे गुरुवर! आपने भारतीय संस्कृति की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति से औषध दान करने के लिए आशीर्वाद प्रदान कर जैन समाज को पुण्यार्जन करने का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे करुणानिधान गुरुवर के आरोग्यधाम चरणों में कोटि-कोटि वंदन करते हुए। आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१३१ १३-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर कलिकाल जिनमुद्रा धारक परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के जगत्शरण चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! शास्त्रों में पढ़ा करते हैं कि चतुर्थकाल में मुनियों के दर्शन आशीर्वाद से संसारी प्राणियों के दु:ख-दर्द दूर हो जाया करते थे किन्तु पंचमकाल में भी जो सच्ची निर्दोष आगमयुक्त साधना करता है। तो उनके दर्शन भी मंगलकारी होते हैं। यह आज हम अनुभव कर रहे हैं। आपका आशीर्वाद जिसे मिल जाता उसकी मनोकामना शीघ्र पूर्ण हो जाती। इस सम्बन्ध में कई बातें हमने आपके भक्तों से सुनी हैं। दूदू के उम्मेदमल जी छाबड़ा ने १२-०२-२०१८ को संस्मरण सुनाया वह मैं आपको बता रहा हूँ- गुरु आशीर्वाद ने शिष्य की मनोकामना पूर्ण की ‘‘मौजमाबाद में एक दिन मुनि श्री विवेकसागर जी ने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से कहा कि मेरी सिद्धक्षेत्र की वंदना करने की प्रबल भावना हो रही है। तब गुरुवर बोले-‘राजस्थान में सिद्धक्षेत्र हैं नहीं। मध्यप्रांत में हैं जो काफी दूर हैं।' तो विवेकसागर जी बोले- 'मैं धीरे-धीरे विहार कर वंदना कर लूँगा| जब तक मैं सिद्धक्षेत्र की वंदना नहीं कर लूँगा तब तक मैं गेहूँ से बने भोजन का त्याग करता हूँ। हे गुरुदेव! आप आशीर्वाद प्रदान करें मेरी सिद्धक्षेत्र की वंदना सकुशल हो जाये।' तब गुरुवर ने योग्य मुहूर्त बताया और आशीर्वाद दिया। मुनि श्री विवेकसागर जी ने आशीर्वाद लेकर विहार किया। संघस्थ साधु थोड़ी दूर छोड़ने गए। इस तरह गुरु आशीष से मुनि विवेकसागर जी महाराज की सिद्धक्षेत्र सोनागिरि जी की यात्रा सकुशल पूर्ण हुई।'' इस तरह और भी लोगों ने इस प्रसंग के संस्मरण सुनाये किन्तु वे फिर कभी लिखूंगा। मौजमाबाद के प्रवास में एक और बड़ी प्रभावना हुई जिसके बारे में वहाँ के बड़जात्या जी ने बताया- मौजमाबाद में धर्म-ध्यान की प्रभावना “जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज संघ सहित मौजमाबाद आये थे तब १९ अप्रैल को महावीर जयंती का महामहोत्सव संघ सान्निध्य में मनाया गया था। सुबह रथोत्सव हुआ फिर कलशाभिषेक हुए थे और दोपहर में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का केशलोंच हुआ। इस अवसर पर क्षुल्लक सिद्धसागर जी एवं मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का मार्मिक प्रवचन हुआ। इसके बाद परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का प्रवचन हुआ था एवं रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ था। उस समय संघ का प्रवास बड़े मन्दिरजी में था। मुनि विद्यासागर जी महाराज दोपहर में छोटे बहरे (तलघर) में ही सामायिक करते थे। दो-तीन बार तो रात्रि में भी वहीं ध्यान लगाकर बैठे रहे।” इस सम्बन्ध में अप्रैल १९७० ‘जैन गजट' में समाचार प्रकाशित हुए। इस तरह आपके पदकमल गाँव-गाँव नगर-नगर नये-नये इतिहास को गढ़ते हुए जैन संस्कृति के संस्कारों को प्रसारित करते रहे और आपके अन्तेवासिन् लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी मानो अपने तीन उद्देश्य सेवा-स्वाध्यायसाधना' को हर स्थिति-परिस्थिति में साधने में लगे हों। ऐसे ऐतिहासिक पदचिह्नों को त्रिकाल स्मरणपूर्वक वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१३० १२-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आकाशसम निरालम्बी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के मांगलिक चरणों में मंगल हेतु नमस्कार नमस्कार नमस्कार... हे गुरुवर! दूदू से आप ककराला होते हुए मौजमाबाद पहुँचे तब के बारे में श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- जनगणना में नाम के साथ जैन लिखें आचार्य गुरुवर एवं मुनि श्री विद्यासागर जी के केशलोंच हुए तब एक वक्ता ने कहा कि अगले वर्ष जनगणना होने वाली है। सभी लोग नाम के साथ जैन लिखें जिससे जैन समाज की संख्या का सही-सही आकलन होगा। तब गुरुवर ने अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में कहा- ‘सभी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नाम के साथ जैन लिखें जिससे अपनी समाज का बाहुल्य दिखे और एकता संगठन दिखे। जैन शब्द पर तो गौरव होना चाहिए क्योंकि यह शब्द तो ‘जिन भगवान से बना है। जो शाश्वत हैं अतः जैन शब्द भी शाश्वत है। बाकी गोत्र तो देशज शब्द हैं, स्थान विशेष से बने हैं, जो शाश्वत नहीं। समाज बचेगी तो संस्कृति बचेगी।'' इस सम्बन्ध में उन्होंने मुझे एक जैन गजट' १६-०४-१९७0 की कटिंग दी। जिसमें इस प्रकार संक्षिप्त में समाचार प्रकाशित थे- केशलोंच एवं रथयात्रा ‘‘मौजमाबाद-यहाँ ५ अप्रैल को रथयात्रा एवं आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी का केशलोंच हुआ। एकत्रित जनसमुदाय के बीच १९७१ में होने वाली जनगणना के समय कालम नं. १ में जैन शब्द लिखाने हेतु निवेदन किया गया। इस अवसर पर श्री १०५ क्षुल्लक सिद्धसागर जी एवं १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज का सारगर्भित उपदेश हुआ। अंत में आचार्य महाराज ने शुभाशीर्वाद दिया। (पदमचंद बड़जात्या)'' इस प्रकार आप धर्म-समाज-संस्कृति की रक्षार्थ अपने चिंतन से समाज को जागृत करते रहते थे। यही कार्य आज मेरे गुरुवर कर रहे हैं। दीपचंद जी छाबड़ा ने मौजमाबाद के २८ दिवसीय प्रवास का एक और संस्मरण सुनाया जिसे आपको सुनाने में मुझे गर्व महसूस हो रहा है कि मेरे गुरु ज्ञान विनय में कितने निष्णात थे- शास्त्रीय चर्चाओं में समय का पता नहीं चलता ‘‘परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज जब संघ सहित मौजमाबाद पहुँचे तब वहाँ पर श्री १०५ क्षुल्लक श्री सिद्धसागर जी महाराज जो झाबुआ मध्यप्रदेश के थे (उन्होंने आचार्य श्री १०८ वीरसागर जी महाराज से विक्रम संवत् १९९५ में सिद्धवरकूट मध्यप्रदेश में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी) वे विराजमान थे। उन्होंने संघ की आगवानी की थी और प्रतिदिन गुरु महाराज से तत्त्वचर्चा करते थे। एक दिन मध्याह्नकाल में मुनिवर श्री विद्यासागर जी महाराज ने साधक क्षुल्लक सिद्धसागर जी महाराज की प्रशंसा करते हुए कहा- आप बहुत संतोषी-शांत एवं गम्भीर स्वभावी हैं, आपका शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा है। अब तो आपको परिग्रह का आलम्बन छोड़कर स्वानुभूति का रसास्वादन करना चाहिए।' मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी प्रतिदिन क्षुल्लक जी से शास्त्रीय चर्चायें करते रहते थे। कभी-कभी तो समय कम पड़ जाता था। उनकी चर्चाओं में समय कैसे बीत जाता पता ही नहीं पड़ता। गुरु महाराज ठीक समय पर आवश्यक करते थे, तो जैसे ही वे निकलते तब समय पर ध्यान जाता कि इसका समय हो गया।" इस प्रकार आप अपने आवश्यकों के पालन में सावधान थे और मेरे गुरुवर, ज्ञानी की पहचान कर उनसे ज्ञान की चर्चा करने में सचेत रहते। ऐसे सम्यग्ज्ञानी गुरु-शिष्य के पावन चरणों में प्रणति निवेदित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१२९ ११-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सम्यक्त्व विशुद्धिधारक आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के चरणों में सम्यक्त्व विशुद्धिवृद्धिंगत हो इस हेतु त्रिकाल वंदना करता हूँ... हे गुरुवर! आपमें सम्यक्त्व का प्रभावना अंग फलता-फूलता सबको सुवासित करता। आपका सान्निध्य पाकर समाज धर्मप्रभावना का कोई भी अवसर चूकती नहीं थी। इस सम्बन्ध में श्रीमान् उम्मेदमल जी छाबड़ा दूदू ने बताया- छोटे-छोटे गाँव में धर्म प्रभावना आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज साली से साखून, पड़ासोली, रामनगर, हरसोली में प्रभावना करते हुए छप्या गए। छप्या में ६ घर की समाज की भक्ति ने १६ दिन रोका। वहाँ पर मन्दिर जी में नवीन वेदी बनकर तैयार थी। उस पर श्री जी को विराजमान करना था। तो समाज ने गुरुजी से निवेदन किया कि आपके सान्निध्य में वेदीप्रतिष्ठा करना चाहते हैं। तो गुरुजी ने आशीर्वाद प्रदान कर दिया। वेदीप्रतिष्ठा सानंद सम्पन्न हुई। संघ के सान्निध्य में जुलूस निकला, आस-पास की समाज आयी, प्रीतिभोज हुआ, प्रतिदिन तीनों महाराजों का प्रवचन होता और अच्छी प्रभावना हुई। इसी प्रकार दूदू में भी संघ सान्निध्य में महाप्रभावना का इतिहास रचा गया। जिसे लोग आज तक भूले नहीं हैं। ज्ञानसागर जी महाराज छप्या से दूदू पधारे, तो ३५ घर की समाज ने भव्य आगवानी की लगभग १ माह का प्रवास रहा। होली के बाद दूसरे दिन मौजमाबाद की तरफ विहार कर गए थे। दूदू प्रवासकाल में दो जुलूस निकले और मुनि विद्यासागर जी एवं ऐलक सन्मतिसागर जी के केशलोंच की जानकारी २-३ दिन पहले हो जाने से चारों तरफ समाचार भेज दिया गया था। तो आस-पास के २५-३० गाँवों से बहुत अधिक भीड़ मुनि श्री विद्यासागर जी के केशलोंच देखने आयी। इससे पहले और भी साधुओं के केशलोंच हुए किन्तु इतनी भीड़ नहीं आयी, जितनी मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के केशलोंच देखने आयी । कारण कि बाल ब्रह्मचारी युवा मनोज्ञ मुनि घुंघराले काले बालों को कैसे उखाड़ते हैं यह कौतूहल का विषय होता था । १000-१२00 लोगों का उस दिन भोज हुआ था। यह केशलोंच समारोह राजकीय विद्यालय के मैदान में हुआ था। इस कारण अजैन जनता भी खूब आई थी।" इस कार्यक्रम की खबर को ‘जैन गजट' में १२ मार्च १९७० को प्रकाशित की गई। वह इस प्रकार है- श्रद्धाञ्जलि दिवस एवं केशलोंच समारोह “दूदू ग्राम में पूज्य आचार्य १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संघ सहित फाल्गुन ३ को २४ फर. मंगलवार को पदार्पण हुआ। तब से इस गाँव में महती धर्म प्रभावना हो रही है। पूज्य स्वर्गीय आचार्य प्रवर १०८ श्री शिवसागर जी महाराज का स्वर्गारोहण दिवस गत फाल्गुन कृष्णा अमावस्या ता. ७ मार्च १९७0 शनिवार उनके प्रथम शिष्य चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति आचार्य १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में मनाया गया। सर्वप्रथम गाजे-बाजे के साथ श्री १००८ जिनेन्द्र भगवान की सवारी व पूज्य श्री का फोटो सहित जुलूस दिगम्बर जैन धर्मशाला में आया जहाँ पर पहले से ही चौसठ ऋद्धि मण्डल विधान पूजन का आयोजन था। पूजन के पश्चात् स्व. पूज्य आचार्य श्री को श्रद्धांजलि अर्पित की गई । ब्रह्मचारी श्री प्यारेलाल जी बड़जात्या अजमेर तथा बाल ब्रह्मचारी श्री दीपचंद जी ने आचार्य श्री के चरणकमलों में हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की। मुनिराज १०८ श्री विवेकसागर जी व १०८ श्री विद्यासागर जी के बाद पूज्य आचार्य श्री ने अपने गुरुवर्य के चरणारविंद में विनयपूर्वक हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करते हुये उनके जीवन पर विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला। फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा वी.सं. २४९६ रविवार ८ मार्च १९७० को ग्राम के बाहर बाल ब्रह्मचारी मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज व ऐलक श्री १०५ सन्मतिसागर जी महाराज जी का केशलोंच हुआ। जुलूस १००८ श्री जिनेन्द्र प्रभु के रथ में विराजमान कर विशाल पण्डाल में पहुँचा। पंडित श्री हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री ब्यावर, पंडित चम्पालाल जी नसीराबाद व ब्रह्मचारी श्री दीपचंद जी आदि के भाषण हुए। तत्पश्चात् मुनिराज विद्यासागर जी का भाषण व अन्त में पूज्य आचार्य श्री का आशीर्वादात्मक प्रवचन होकर श्रीजी की सवारी गाजे-बाजे के साथ मन्दिरजी में पहुँची। बालकों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के लिए आचार्य श्री ज्ञानसागर दिगम्बर जैन पाठशाला की स्थापना की गई। इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी का दीक्षोपरान्त ७वां केशलोंच महती प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ। हे गुरुवर! आप श्री का संघ जहाँ भी जाता वहाँ धर्म प्रभावना के साथ-साथ सम्यग्ज्ञान की प्रभावना भी होती जाती। दूदू में आपकी प्रेरणा से आचार्य श्री ज्ञानसागर दिगम्बर जैन पाठशाला में अध्यापन का कार्य मास्टर भंवरलाल जी बोहरा ने सम्भाला। दूदू प्रवास के दो संस्मरण और लिख रहा हूँ। जो मुझे दूदू के उम्मेदमल छाबड़ा जी ने १२-०२२०१८ को सुनाये- मुनि श्री विद्यासागर जी ज्ञान का अवसर न चूकते “आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज जब संघ सहित दूदू में प्रवास कर रहे थे। तब प्रतिदिन मैं रात्रि में वैयावृत्य के समय पर पुराने कवियों की जकड़ियाँ (भजन) सुनाया करता था। उनको विद्यासागर जी महाराज बड़े ध्यान से सुनते और प्रसन्न होते थे। जिन शब्दों का अर्थ उन्हें समझ में नहीं आता था तब दूसरे दिन सुबह जब मैं मन्दिर जाता, उन्हें नमोऽस्तु करता तो वे बड़े उत्साह के साथ उन शब्दों का अर्थ पूछते थे। इस तरह वे अपना हिन्दी का ज्ञान मजबूत बनाते रहते थे। पुराने कवियों में दौलतरामकृत, भूधरदासकृत, रामकृष्णकृत, जिनदासकृत आदि जकड़ियों को सुनाते थे। मनोविनोदी मुनि श्री विद्यासागर “एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी शाम की सामायिक खुले में कर रहे थे। उस समय शाम को ठण्डक हो जाया करती थी और ठण्डी हवा चला करती थी। तो दूसरे दिन हमने निवेदन किया-महाराज! अभी शाम को खुले में ठण्डक हो जाती है और जाती हुई ठण्ड से बचना चाहिए क्योंकि यह रोग का कारण होती है, ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' तो हँसते हुए विद्यासागर जी बोले-' धनमाद्यं खलु गृहस्थधर्मसाधनम्।' यह सुनकर गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को भी हँसी आ गयी।" इस प्रकार आपके लाड़ले शिष्य सतत ज्ञानार्जन में लगे रहते और उनका विकासशील ज्ञान उनके प्रवचन, तत्त्वचर्चा, व्यवहार में परिलक्षित होता। ऐसे ज्ञानी गुरु-शिष्य के चरणों में निज सम्यग्ज्ञान के विकास हेतु त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-१२८ १०-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सिद्धान्तसागर में अवगाहित परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पुनीत चरणों में कोटिशः नमस्कार करता हूँ... हे गुरुवर! आप जब साली ग्राम में प्रवास कर रहे थे तब का एक संस्मरण साली के आपके अनन्य भक्त श्रीमान् पदमचंद बड़जात्या जी ने १२-०२-२०१८ को सुनाया वह मैं आपको बता रहा हूँ- मुनि विद्यासागर जी ने अंग्रेजी में आरती कराई हम बच्चे लोग मुनि विद्यासागर जी महाराज के पास बैठते थे तो हम लोगों को वे ज्ञान की बातें सिखाया करते थे। एक दिन उन्होंने भगवान की आरती अंग्रेजी में बनाई और हम लोगों को सिखाई। फिर दूसरे दिन हम लोग रटकर गए। तो उन्होंने वह आरती कराई थी। जब तक वे साली में रहे तब तक रोज हम लोग उनके साथ वह आरती पढ़ते थे।" इस तरह मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बच्चों के साथ मनोविनोद में भी ज्ञान की बातें करते थे। जो बड़े-बड़े अंग्रेजी लिखने-पढ़ने-बोलने वाले भी नहीं कर पाते थे, अंग्रेजी में पोयम बनाने का वह कार्य आपके प्रतिभावान् शिष्य कर देते थे। इसी प्रकार हिन्दी भाषा को अच्छी बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते थे। आपके संकेतानुसार उन्होंने बच्चों को माध्यम बनाया और जैसा कि ज्ञान बाँटने से ज्ञान बढ़ता है इस बात को आपसे सीखकर बच्चों के साथ समय साझा करना शुरु कर दिया। इस सम्बन्ध में हरसौली के राजकुमार जी दोसी ने १२-०२-२०१८ को बताया- मुनि विद्यासागर जी ने लगाई बच्चों की कक्षा ‘‘हमारे गाँव में जब मुनि विद्यासागर जी आये थे तब उनके साथ में उनके गुरु ज्ञानसागर जी महाराज और गुरु भाई मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज (मरवा वाले) एवं २-३ ऐलक, क्षुल्लक भी थे। तब हम छोटे थे लगभग १०-१२ वर्ष के। उस समय हमारे गाँव में एक बैण्ड पार्टी थी जो बाहर भी जाती थी। काफी प्रसिद्ध पार्टी थी। उस पार्टी को आगवानी में बुलाया गया था। संघ का ५-६ दिन का प्रवास रहा। सुबह गुरु महाराज ज्ञानसागर जी का प्रवचन होता था। दोपहर में मुनि श्री विवेकसागर जी, मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। मुनि श्री विद्यासागर जी हम बच्चों को देखकर मुस्कुरा देते थे। शाम को गुरु महाराज ने हम बच्चों से कहा-“जाओ विद्यासागर जी के पास बैठो और मुनि श्री विद्यासागर जी को कहा- इनको ‘ज्ञान प्रबोध' पुस्तक पढ़ाओ।' तब हम लोग मन्दिर जी से पुस्तक लेकर आये। हम १०-१२ बच्चों को प्रतिदिन शाम को उस पुस्तक में से २४ तीर्थंकर भगवानों के नाम-चिह्न, बारह भावना, मेरी भावना पढ़ाते और अर्थ समझाते थे। जब गाँव से उनका विहार हुआ तो जाते समय कहा- ‘रोज पढ़ना, याद हो जायेगा।' मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के वे शब्द आज तक कानों में गूंजते हैं। तब हम बच्चे रोज पढ़ते रहे। तब से आज तक वे सब पाठ याद हैं। पूरा संघ मन्दिरजी की कोठड़ी में रहता था। शाम को हम बच्चे विद्यासागर जी महाराज के साथ चारा (प्याल) को कोठड़ी में बिछाते थे। बच्चे बाहर से प्याल लाते और विद्यासागर जी महाराज अपने वयोवृद्ध गुरुवर के निमित्त प्याल में पिच्छी लगाकर बिछाते जाते थे।'' इस तरह मुनि विद्यासागर जी महाराज अपने सेवाकर्तव्य का पालन करते और आपके संकेतानुसार बच्चों को संस्कार देते। जिससे उनकी हिन्दी अच्छी होती चली गई। यह तो आपने भी महसूस किया ही होगा। ऐसे पुरुषार्थशील गुरु-शिष्य को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-१२७ ०९-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर जगत के आश्रयभूत आचरण के धारक आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के जगत्पूज्य चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आप सदा चारित्रधारी साधुओं की आठों शुद्धियों को चिन्तन-मनन-आचरण करते थे। आगम प्रणीत चारित्र में आपकी अटूट निष्ठा थी। इस सम्बन्ध में दूदू के उम्मेदमल जी छाबड़ा (मरवा) ने १२-०२-२०१८ को ज्ञानोदय में तीर्थ पर बताया- छोटे-छोटे ग्रामों में प्रभावना ‘‘आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का जैसा नाम था वैसा ही काम था। वे मात्र शाब्दिक ज्ञान के धनी नहीं थे। वरन् भावज्ञान से ओत-प्रोत थे। यही कारण है कि उनका ज्ञान आचरण में बोलता था। विहार में भी अपनी चर्या-क्रिया में परिवर्तन नहीं करते थे। मरवा से विहार करके छोटा नरैना गए, वहाँ से साली ग्राम गए, साली में गुरुदेव ने ८ घर की समाज की भक्ति को देखते हुए १८ दिन का प्रवास किया। एक दिन भयंकर ठण्ड में भी केशलोंच किया तब मन्दिरजी में जैन-अजैन जनता समा नहीं रही थी और प्रतिदिन तीनों मुनिराजों के प्रवचन होते थे।" धन्य हैं आप गुरुवर! जो ऊपर से नारियल की तरह कठोर चर्या और भीतर से किसमिस की तरह मधुर व्यवहार करते। आपके पावन चरणकमलों की त्रिकाल वंदना करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. पत्र क्रमांक-१२६ 0८-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर श्रेष्ठ वंश के सुवंशज प.पू. दादागुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के जगत्पूज्य चरणों की त्रिकाल वंदना करता हूँ... हे गुरुवर ! जब आपने रूपनगढ़ से मरवा ग्राम की ओर विहार किया। तो समाचार द्रुतगति से फैल गया और तब मरवा में विचित्र स्थिति बन गई। इस सम्बन्ध में उम्मेदमल जी छाबड़ा (मरवा) दूदू ने १२०२-२०१८ को बताया। वह मैं आपको बता रहा हूँ- ग्रामीण जनों ने की आगवानी ‘‘जैसे ही मरवा में समाचार मिला तब चार घर की जैन समाज ने आगवानी की तैयारी की। तो ग्रामीण लोगों में समाचार फैल गया-‘गाँव के हवेली वाले सेठ जी उदयलाल जी छाबड़ा के पुत्र लक्ष्मीनारायण जो दिगम्बर साधु बन गए हैं, वे आ रहे हैं। उनके गुरु महाराज भी आ रहे हैं।' तब ग्रामवासी भी ग्राम के बाहर एकत्रित हो गए। ढोल बजाते हुए, लोकगीत गाते हुए, नाचते हुए उन्होंने ग्राम में प्रवेश कराया। सभी ने संघ को साष्टांग प्रणाम किया। २-३ दिन के प्रवास में प्रतिदिन सुबह और दोपहर में प्रवचन होते ग्रामवासी भी सुनने आते। सुबह आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का और दोपहर में मुनि विवेकसागर जी एवं मुनि विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन होता था। प्रवचनों के प्रभाव से सभी ने अण्डा, मछली, मांस, नशा का त्याग किया।nप्रथम दिन पूरे संघ के छहों साधुओं का आहार हमारे घर (लक्ष्मीनारायण जी के घर में किशनगढ़ वालों ने चौका लगाया था) में हुआ था।" इस प्रकार आपका संघ जहाँ भी जाता वहाँ पर धर्म संस्कार और प्रभावना की छाप छोड़ता। जिनका चरित्र दर्शकों के मन में श्रद्धा-विनय-भक्ति प्रकट करता । ऐसे चारित्र विभूषण गुरुवर की त्रिवेणी ज्ञानधारा को नमस्कार करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. पत्र क्रमांक-१२५ ०७-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर प्रतिपल यात्रित, ज्ञानमूर्ति परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्रीचरणों में प्रतिक्षण नमोऽस्तु करता हूँ.. हे गुरुवर! आप ही वास्तव में चल रहे हैं, जग तो स्थिर है। इस ओर से उस ओर जाने के लिए कितने लोग पुरुषार्थ कर पाते हैं। आपके समान विरले ही हो पाते हैं। सन् १९७० में आप गुरु-शिष्यों ने मोक्षमार्ग में कितना फासला तय किया है, उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत कर रहा हूँ, इसकी खोजबीन में मुझे रूपनगढ़ के गंगवाल जी, दूदू के उम्मेदमल जी छाबड़ा, दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी), रेनवाल के गुणसागर आदि से सहयोग प्राप्त हुआ है- . इस तरह हे गुरुवर! जर्जरकायी चरण आपकी मोक्ष मंजिल की दूरियाँ कम करते रहे। सात राजू की दूरी में से सन् १९७० ने लगभग २६७६४८ कदमों के द्वारा २०४ कि.मी. और कम कर दिए। अनथक बढ़ते कदम एक दिन मंजिल में विश्राम पायेंगे और तब उन परमपूज्य चरणों के अनुरागी हम पोते शिष्य उनकी शाश्वत शरण में अवगाहित हो परमानन्द में निमग्न हो जायेंगे। मेरी भावना शीघ्र पूर्ण हो। इस आशा से अनन्त प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  9. पत्र क्रमांक-१२४ ०६-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर प्रातःस्मरणीय माँ भारती के सुविज्ञ पुत्र जिनश्रुत उपासक ज्ञानमूर्ति परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन-अभिनन्दन-नमन करता हूँ... हे गुरुवर ! असीम ज्ञान पर्याय के द्वारा आप गुरु-शिष्य के असीम गुणों के बारे में कितना भी जानो वह प्यास बढ़ाता ही जाता है। फिर भी जितना मन्थन कर पा रहा हूँ। उससे आत्मगौरव एवं आत्माह्लाद की अनुभूति वृद्धिंगत होती ही जा रही है। वह एक दिन पूर्णता को प्राप्त होकर आपसे मिला देगी। इस विश्वास के साथ जितना तत्त्व खोजता जा रहा हूँ, वह आप तक प्रेषित करता जा रहा हूँ। उसमें यदि कोई भूल-चूक हो तो हे गुरुवर ! इस नादान शिष्य को क्षमा प्रदान कर गल्तियों को महसूस कराईयेगा और मेरी दृष्टि/लेखनी को अवश्य सुधराईयेगा। आपकी प्रसन्नता ही मेरी शक्ति है। हे गुरुवर! आपने श्रेष्ठतम शिक्षक के रूप में जीवन-विज्ञान एवं मोक्षमार्गी ज्ञान की समस्त कला आयामों से अपने लाड़ले शिष्य के व्यक्तित्व को संवारा है। उसे आत्मिक रूप से परिपूर्ण करने में अपना मौलिक योगदान दिया है और अपने से भी बेहतर बनाने का पुरुषार्थ कर आपने अपनी दिव्यता का परिचय दिया है। आपकी ज्ञानदान की कला कुशलता ने मुनि श्री विद्यासागर जी की अन्र्तचेतना में सम्यग्ज्ञान को अनावृत किया है। फलस्वरूप सर्वज्ञ ज्ञान की सर्व विद्या में निष्णात असाधारण प्रतिभावान श्रेष्ठ शिक्षक की पीठ पर पीठासीन हैं। जो आपकी ही तरह शिष्यों में मोक्षमार्ग के ज्ञान-विज्ञान की परतों को उघाड़कर गाथाओं/श्लोकों/सूत्रों/टीकाओं के मर्म को स्थापित कर रहे हैं। ऐसे परमसत्य के अन्वेषक, शुद्ध सत्यार्थी शिष्य की आत्मशोध यात्रा में हे तात्! आपने पल-पल अपने अनुभवों का स्पर्श कराया है। उस यात्रा की खोजबीन में मुझे सन् १९७0 के अध्यायों के कुछ अंश हस्तगत हुए वे आपको क्रमशः प्रेषित करूंगा। उपाध्याय पर्यायी गुरु-शिष्य की लोकोत्तर शिक्षा को करबद्ध विनयांजली समर्पित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  10. पत्र क्रमांक-१२३ ०५-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अपूर्ण से पूर्णत्व के कर्म में सदा निरत गुरुचरणों की सदा वंदना करता हूँ.. हे गुरुवर! जब आपने १४-१२-१९६९ को सोनी नसियाँ से विहार कर लोहागल, चाचियावास, ऊँटड़ा, रलावता, सुरसुरा होते हुए रूपनगढ़ विहार किया था। तब का एक संस्मरण महावीर जी गंगवाल रूपनगढ़ वालों ने सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ- मनोविनोद से थकान दूर ऊँटड़ा से रलावता कच्चा रास्ता था, पगडंडियों का रास्ता था और कटीली झाड़ियों एवं कंकड़ भरा रास्ता था। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का स्वास्थ ठीक नहीं होने से उस रास्ते पर थोड़ी दूर चलने के बाद हम युवाओं ने उन्हें अपने हाथों की डोली पर उठा कर ले गए थे। रास्ते में कई जगह काँटे लगे। मुनि विद्यासागर जी बार-बार पूछते अभी और कितना चलना है। तो हम लोग कहते बस थोड़ा ही रह गया है। तो वे कहते-चक्कर-चक्कर-चक्कर मत देओ, चक्कर आ जाएँगे और हँसने लगते।'' इस तरह मार्ग की थकान को मुनि विद्यासागर जी हँसकर के मन परिवर्तन करके दूर कर देते थे। लगभग १८ दिसम्बर १९६९ को रूपनगढ़ में आपश्री संघ की भव्य आगवानी हुई और लगभग १६-१७ दिन का प्रवास महोत्सव जैसा व्यतीत हुआ। इस सम्बन्ध में रूपनगढ़ के महावीर जी गंगवाल जी ने १५-०२-२०१८ को बताया रूपनगढ़ में प्रतिदिन महोत्सव जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज रूपनगढ़ पधारे तो उनके संघ में बा.ब्र. सर्वप्रिय मुनि श्री विद्यासागर जी एवं नव दीक्षित मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज के समाचार से रूपनगढ़ में अति उत्साह के साथ आगवानी की तैयारी हुई और भव्य आगवानी कराई। प्रतिदिन पड़गाहन के समय नगर में महोत्सव जैसा माहौल हो जाता था। प्रतिदिन सुबह गुरु महाराज का प्रवचन होता था और दोपहर में मुनि श्री विवेकसागर जी एवं मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। बड़े मन्दिर में वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। यह वेदी कजौड़ीमल जी ने बनवाई थी। अंत में रथोत्सव हुआ जिसमें आस-पास के नगर गाँव से बहु संख्या में भक्त लोग उपस्थित हुए थे। एक दिन आचार्य महाराज का केशलोंच हुआ जिसमें सर सेठ भागचंद जी साहब को आमन्त्रित किया गया था। केशलोंच के दौरान उनका मार्मिक भाषण हुआ था। हे गुरुवर! रूपनगढ़ के प्रवास के दौरान का एक संस्मरण वहाँ के श्री कैलाशचंद जी लुहाड़िया ने १५-०२-२०१८ को सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ गुरुवर में चेहरा पढ़ने की कला “रूपनगढ़ प्रवास के दौरान एक दिन हमारे घर में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का आहार चल रहा था तब पड़ौसी किशनलाल जी अजमेरा आहार देने के लिए आए। तब गुरुवर ने उन्हें देखा और देखने के बाद जैसे ही वे आहार देने के लिए आगे आए तो गुरुवर ने सिर हिलाकर मना कर दिया। आहार के पश्चात् उन्होंने पूछा तब गुरुवर बोले- आप बीड़ी पीते हैं।' तब किशनलाल जी पश्चाताप करने लगे और तत्काल उठकर गए और अपनी दुकान पर जाकर बीड़ी का बंडल निकालकर तोड़कर फेंक दिया और वापिस आकर मन्दिर जी में महाराज श्री को कहा- ‘महाराज! आज से मैं बीड़ी का आजीवन त्याग करता हूँ।' तब गुरु महाराज बोले- अब तुम दान देने के पात्र हो' और महाराज से आशीर्वाद लेकर चले गए। दूसरे दिन उन्होंने आहार दिया। इस प्रकार गुरुदेव लोगों के चेहरे पढ़ लिया करते थे। लगभग ४ जनवरी १९७0 को गुरु महाराज ने विहार कर दिया। पूरी जैन समाज और नगर की अन्य समाज भी बहुत दूर तक विदाई देने गई थी। पूरे नगर में नव-युवा सुन्दर मुनि की चर्चा होती रही।" इस प्रकार वर्ष १९६९ का स्वर्णिम इतिहास आप गुरु-शिष्य की लगभग ८४०९६०० श्वासों की साधना से टाँका गया। जो हम शिष्यानुशिष्यों के लिए एक आदर्श बन मार्ग का पाथेय स्वरूप उपलब्ध हुआ। आपका शिष्यानुशिष्य भजन (तर्ज—तुमसे लागी लगन ले लो अपनी शरण पारस प्यारा) तुम हो तारण तरण, भव की पीड़ा हरण, मुनिवर प्यारा, तुमको शत शत है वन्दन हमारा। तुमरे दर्शन हैं पाये, जियरा आज लहाये, हरष अपारा, तुमको शत शत है वन्दन हमारा। ज्ञान सिन्धु हो गुणगण अगारा, तुमरी महिमा का पाया न पारा, ज्ञान मोती लुटा, मिथ्यातम को हटा, दुःख निवारा, तुमको शत शत है वन्दन हमारा ।।१।। विद्याधर आप हो विद्यासागर, युक्त पूरण विवेक तपोधर, ज्ञान दिनमान बन ज्योतिर्मय करते मन, हर अंधियारा, तुमको शत शत है वन्दन हमारा ।।२।। करते शरणागतों को पवित्तर सन्मति दाय हो सुख सागर, संभव है तुम शरन, शिव रमा का मिलन, करुणा गारा, तुमको शत शत है वन्दन हमारा ।।३।। तप की मूरत हो चरित विभूषण, करते ध्याता की आशा को पूरण, जग से जी भर गया, ‘प्रभु' कर दो दया, देय सहारा, तुमको शत शत है वन्दन हमारा ॥४॥ (श्रद्धा सुमन-चतुर्थ पुष्य, रचयिता-प्रभुदयाल जैन, वीर नि. सं. २४९५)
  11. पत्र क्रमांक-१२२ ०४-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अध्यात्मवादी, आन्तरिक दृष्टिकोण, जीवित समयसार गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ...। हे गुरुवर! आप इतने निर्मोही थे कि आप अपने विशेष भक्त सर सेठ भागचंद जी सोनी, पं. विद्याकुमार जी सेठी, पं. हेमचंद जी शास्त्री, कजोड़ीमल जी अजमेरा आदि की भक्ति एवं निवेदन को तो गौण करते ही थे साथ में अपने शरीर के प्रति भी निरीह थे। आप न तो भयंकर गर्मी देखते और न भयंकर सर्दी अपितु आगम के अनुसार आहार-विहार-निहार-व्यवहार करते । मुझे दीपचंद जी (नांदसी) ने इस सम्बन्ध में १८-१२-१९६९ ‘जैन गजट' की एक कटिंग दी जिसमें प्रभुदयाल जी जैन का समाचार इस प्रकार छपा- आचार्य संघ का विहार अजमेर-श्री परमपूज्य १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का १४-१२-१९६९ को रूपनगढ़ की ओर विहार हो गया। विहार के पूर्व श्री सेठ साहब भागचंद जी सा. सोनी की नसियाँ जी में जैन नरनारियों ने एकत्रित होकर आचार्य श्री के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित की आचार्य श्री जी के मार्मिक उपदेश के बाद लगभग १:३० बजे संघ का विहार हुआ। सभी जन समूह संघ के साथ ५ मील तक गया।'' इस तरह आप-‘बहता पानी रमता जोगी' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए भक्तों के निवेदन को सुनकर मुस्कुराते हुए। दिसम्बर माह की कड़ाके की शीतलहर के बीच आगे बढ़ गए । निर्मोही, निर्बध को कोई नहीं बाँध सका। ऐसे अनियत विहारी के चरणों में कोटिशः नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  12. पत्र क्रमांक-१२१ ०२-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आगम चक्षुधारक परमपूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की त्रिकाल वंदना करता हुआ... हे गुरुवर! सन् १९६९ केसरगंज अजमेर चातुर्मास ज्ञान-ध्यान-तपमय सानन्द सम्पन्न हुआ। चातुर्मास के अन्तिम चरण के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- भगवान महावीर का मनाया निर्वाण महोत्सव ‘कार्तिक वदी चतुर्दशी के दिन गुरु महाराज के साथ संघ ने वार्षिक प्रतिक्रमण किया और अमावस्या के दिन प्रात:काल अबाल-वृद्ध नर-नारी सभी-जन मन्दिर जी में एकत्रित हो गए और भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण महोत्सव मनाया। आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में सर्वप्रथम भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा का अभिषेक हुआ, उसके बाद भगवान महावीर स्वामी की पूजा हुई। तत्पश्चात् निर्वाणकाण्ड पढ़ा और सभी ने अपने घर से बनाकर लाये लाडूओं को भक्तिभाव से चढ़ाया। फिर समाज के गणमान्य प्रतिष्ठित लोगों ने आचार्य श्री को श्रीफल समर्पित कर निवेदन किया कि अष्टाह्निका पर्व में सिद्धचक्र मण्डल विधान का सान्निध्य एवं आशीर्वाद प्रदान करें। सरल स्वभावी गुरुदेव ने श्रावकों के पुण्यार्जन हेतु आशीर्वाद प्रदान किया। गुरु सान्निध्य में सिद्धचक्र महामण्डल विधान १६ नवम्बर कार्तिक शुक्ल सप्तमी रविवार से २३ नवम्बर कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा रविवार तक सिद्धचक्र महामण्डल पूजा-विधान सानन्द सम्पन्न हुआ और कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी २२ नवम्बर शनिवार के दिन संघ ने उपवास किया एवं चातुर्मास निष्ठापन की क्रियाएँ कीं और बंधन मुक्त हो गए। विधान में प्रात: आचार्य श्री का प्रवचन और दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन होता था। विधान पूर्ण होने पर धर्मप्रभावना शोभायात्रा निकली, जिसमें आचार्य श्री जी ससंघ सम्मिलित हुए। पिच्छिका परिवर्तन समारोह अष्टाह्निका विधान के सानन्द सम्पन्न होने पर जुलूस के बाद प्रवचन सभा में समाज के अध्यक्ष जी ने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नवीन पिच्छिकाएँ भेंट कीं फिर आचार्य महाराज ने क्रमशः मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को, ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज को, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज को एवं अन्य संघ के दो क्षुल्लक महाराज जिन्होंने साथ में चातुर्मास किया था उन्हें भी नवीन पिच्छिकाएँ दीं। आचार्य श्री जी ने अपनी पुरानी पिच्छिका केसरगंज के एक श्रावक को दी और मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की पुरानी पिच्छिका मास्टर साहब निहालचंद जी बड़जात्या को दी। शेष पिच्छिकायें भी केसरगंज के श्रावकों को दीं। गुरु-शिष्य मिलन इस तरह १९६९ केसरगंज में चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ और मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज नसीराबाद में चातुर्मास करके लगभग २५ नवम्बर को केसरगंज पधारे। तब मुनि श्री विद्यासागर जी, ऐलक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी आदि और संघस्थ ब्रह्मचारीगण उनकी अगवानी करने हेतु थोड़े दूर तक गए। मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को पिच्छी उठाकर नमोऽस्तु किया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने भी पिच्छी उठाकर प्रतिनमोऽस्तु किया। हम सभी ने भी मुनि श्री विवेकसागर जी को नमोऽस्तु किया एवं केसरगंज समाज ने बैण्ड-बाजों के साथ केसरगंज में प्रवेश कराया। मन्दिर पहुँचकर भगवान के दर्शन किए फिर गुरुदेव आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के कक्ष में जाकर मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज ने नमोऽस्तु किया और गुरुभक्ति की तदुपरान्त उन्होंने गुरु के चरणस्पर्श किए। तब गुरुवर ने अपने दोनों हाथ विवेकसागर जी महाराज के सिर पर रखे। फिर कुशलक्षेम की वार्ता हुई। श्रद्धा-भक्ति और वात्सल्यपूर्ण वातावरण में दर्शकों के नयन गीले हो गए।'' केसरगंज से हुआ विहार : श्रद्धा के मोती चमक उठे हे गुरुदेव! आपने जब २५ नवम्बर १९६९ को केसरगंज अजमेर से विहार किया तब के बारे में संघस्थ ब्रह्मचारी दीपचंद छाबड़ा जी (नांदसी) ने बताया“ जैसे ही गुरुदेव ने हम सब को बुलाया तो हम सभी ने मन्दिर जी में जाकर दर्शन किए और फिर गुरुदेव ने विहार कर दिया। समाचार फैलते ही समाज एकत्रित हो गई और सभी लोग गुरुदेव को निवेदन करने लगे-महाराज शीतकाल में यहीं पर विराजिये, किन्तु गुरुदेव मुस्कुराते रहे और आगे बढ़ते रहे। सभी की आँखों में श्रद्धा के मोती चमक रहे थे। केसरगंज से सोनी नसियाँ की ओर गुरुदेव बढ़ते चले गए।" इससे सम्बन्धित ‘जैन गजट' ११-१२-१९६९ की एक कटिंग दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने मुझे दी। जिसमें कजौड़ीमल जी अजमेरा ने इस प्रकार समाचार प्रकाशित कराया- धर्म प्रभावना ‘‘अजमेर-परमपूज्य आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज ससंघ केसरगंज से विहार कर श्री सेठ साहब भागचंद जी सोनी जी की नसियाँ में पधार गए हैं। आचार्य श्री द्वारा दीक्षित शिष्य श्री १०८ विवेकसागर जी महाराज भी नसीराबाद में चातुर्मास पूर्णकर संघ में आ गए हैं। नसियाँ में प्रतिदिन प्रात:काल व मध्याह्न में पूज्य मुनिराज श्री विद्यासागर जी एवं श्री विवेकसागर जी का मार्मिक प्रवचन होता है। यहाँ महती धर्मप्रभावना हो रही है।'' इस तरह महत् प्रभावना के साथ एवं ज्ञान-ध्यान-तप साधना के साथ वर्षायोग सानंद सम्पन्न हुआ। यह जानकर अत्यन्त गौरव का अनुभव हुआ कि मेरे दादागुरु और मेरे गुरु ने आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी आचार्य समन्तभद्र स्वामी की मूल संघ परम्परा की साधना को जीवित रख श्रमण संस्कृति को विश्वस्त कर दिया कि पंचमकाल के अन्तिम समय तक इसी तरह जिन धर्म ध्वज फहराती रहेगी। ऐसे आगमानुसार चलने वाले गुरुजनों के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  13. पत्र क्रमांक-१२० ०१-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर त्रय परमेष्ठी पदों पर शोभायमान दादा गुरुवरश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पूज्यपाद कमलों की पूजा-वंदना-अर्चना-करता हूँ... हे गुरुवर! केसरगंज चातुर्मास के उस विशेष दिवस के बारे में लिख रहा हूँ, जब मुनि श्री विद्यासागर जी अस्वस्थ हुए और फिर आपश्री के चरणों का चमत्कार हुआ और वे स्वस्थ हो गए। इस सम्बन्ध में सदलगा से पधारे विद्याधर जी के अग्रज श्री महावीर जी अष्टगे ने मुझे १२-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- गुरु महाराज के चरणों का प्रभाव जब हम लोग केसरगंज चातुर्मास के दौरान वहाँ गए तब एक दिन स्कूल में बहुत जनसमुदाय के बीच मंच पर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने केशलोंच किया, उस समय गर्मी भी बहुत अधिक थी। मुनि श्री विद्यासागर जी को शाम को ज्वर चढ़ गया। रात में वे गुरु महाराज के चरणों के निकट सोये सुबह तक वह ज्वर गायब हो गया। यह गुरु महाराज के चरणों का प्रभाव हमने साक्षात् देखा है।'' इस प्रकार आपकी शुद्ध तपस्या के प्रभाव से चमत्कार होते रहे हैं। केशलोंच महोत्सव के सम्बन्ध में मुझे दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २०१५ भीलवाड़ा में बताया और जैन गजट' २७-११-१९६९ की कटिंग दी जो आपको बता रहा हूँ- मुनि विद्यासागर जी का पाँचवाँ केशलोंच ‘‘केसरगंज चातुर्मास के समय १६ नवम्बर के दिन स्थानीय राजकीय मोईनिया इस्लामिया उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्रांगण में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का एवं ऐलक श्री सन्मतिसागर जी महाराज का केशलोंच हुआ। मुनि श्री विद्यासागर जी का यह दीक्षोपरान्त पाँचवाँ केशलोंच था। तब पं. हेमचंद जी शास्त्री एवं पं. श्री हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री ब्यावर एवं श्रीमान् सर सेठ भागचंद जी सोनी के ओजस्वी भाषण हुए इस पुनीत अवसर पर श्री १००८ पार्श्वनाथ दिग. जैसवाल जैन मन्दिर जी केसरगंज में श्री सिद्धचक्र मण्डल विधान की स्थापना पं. हीरालाल जी ब्यावर के द्वारा कराई गई।" केशलोंच के पश्चात् प्रभुदयाल जी ने भजन गाये उसके पश्चात् प्रभुदयाल जी कवि गीतकार गायक ने स्वरचित बालब्रह्मचारी आचार्य श्री शान्तिसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी आचार्य श्री वीरसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी आचार्य श्री शिवसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी आचार्य श्री ज्ञानसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी मुनि श्री विद्यासागर जी, ऐसे पंचबालयति मुनि महाराजों की समुच्चय पूजा गाई और कजौड़ीमल जी अजमेरा, कैलाशचंद जी पाटनी, छगनलाल जी पाटनी, निहालचंद जी बडजात्या मास्टर साहब, केसरगंज के श्रीपति जी, मांगीलाल जी, कन्हैयालाल जी, कुट्टीमल जी आदि महानुभावों ने मुनि भक्ति में अष्ट अर्घ्य चढ़ाये और मूलचंद जी चांदीवाल पूजा के दौरान भाव नृत्य प्रस्तुत करते रहे। उस समय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के गृहस्थ अवस्था के परिवार ने भी अर्थ्य चढाये थे और उनके गृहस्थ अवस्था के दोनों छोटे भाई अनन्तनाथ एवं शान्तिनाथ ने कविवर प्रभुदयाल जी के रचित भजन अपने स्वरों में गाये थे।" उपरोक्त पंचबालयति पूजा और अनन्तनाथ व शान्तिनाथ के द्वारा गाया गया गीत मुझे अजमेर निवासी श्रीमान् निर्मल जी गंगवाल ने सन् १९६८ में श्री दिगम्बर जैन आगम सेवक मण्डल द्वारा प्रकाशित ‘श्रद्धासुमन' द्वितीय पुष्प नामक पुस्तक में से लाकर दिया। वह आपके स्मरणार्थ यहाँ पर दे रहा हूँ- पंचबालयति (मुनीश्वर) पूजा स्थापना दोहा-रत्नत्रय की ज्योति थे, जैन धर्म के ताज। योगीन्दर चूड़ामणि, शान्तिसिन्धु ऋषिराज ॥ वीर शिरोमणि हैं हुए, वीरसिन्धु महाराज। चारित्तर चूड़ामणि, तपोमूर्ति ऋषिराज ॥ चालक हैं चारित्र रथ, अरु भव जलधि जहाज। सौम्यमूर्ति, तपके धनी, शिवसागर महाराज ॥ ज्ञानमूर्ति, भूषण चरित, ज्ञानसिन्धु गुणवन्त । परमशान्त, करुणानिधि, मुनिवर महिमावन्त ।। मूरत हैं चारित्र की, विद्याधर छविवन्त। विद्यासागर ब्रह्ममय, रहें सदा जयवन्त ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वराः! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वराः! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वराः! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट्। अथाष्टक शीतल निर्मल जल लाय, झारी कनक भरूं। मम जन्म-जरा नस जाय, तुम पद भेंट करूं ।। श्री शान्ति-वीर-शिव-ज्ञान, विद्यासागर जी। नमूं पंच बाल मुनिराय, शीश नवाकर जी ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। चन्दन कर्पूर मंगाय, केशर संग घसे, तव चरणन देत चढ़ाय, भव आताप नसे। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा। उज्ज्वल अक्षत ऋषिराज, लाकर थाल भरूं। अक्षय पद पावन काज, तुम पद पुंज करूं। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्योऽक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा। बहुभांति सुमन मंगवाय, अर्पण चरण करूं। मम काम रोग नस जाय, गुरुवर अरज करूं। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा। यह क्षुधा रोग की ज्वाल, करती पीड़ित है। नाशन हित व्यञ्जन थाल, तुम पद अर्पित है। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। उर तिमिर मोह अज्ञान, भव-भव वास किया। अब प्रगटे ज्योतिज्ञान, दीपक हाथ लिया। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। ले धूप गन्ध से पूर, अगनि में खेऊँ। हों अष्ट करम चकचूर, तुम पद मैं सेऊँ। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्योऽष्ट कर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। केला नारंगी आम, श्रीफल भेंट करूं। तुम चरण जपूँ सुख धाम, शिव को जाय वरूँ। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा। वसु द्रव्य सजा भर थार, अर्घ चढ़ावत हूँ। दो निज स्वरूप सुखकार, मैं शरणागत हूँ। श्री शान्ति...॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्योऽनर्व्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा। जयमाल दोहा-पंच बाल मुनिराय की, अब वर जयमाल। गुण गण विधि जानूं नहीं, गुरुवर गुणकी माल ।। श्रद्धा सुमन संजोय कर, गूंथी है यह माल। रही भूल विसरायकर, करना क्षमा कृपाल ॥ पद्धरि छन्द जय जय जय श्री शान्तिसिन्धु, तुम दयावान थे विश्वबंधु। अध्यात्म ज्योति गुण रत्न सिन्धु, मिथ्यातम नाशन पूर्ण इन्दु ॥१॥ लिया सत्यवती उर जन्म आय, दिया भोज नगर पावन बनाय। पितु भीमगौड़ नयनन निहार, सतगौड़ नाम दिया हर्ष धार ॥२॥ वैराग्य जगा शिशुकाल मांय, सिद्ध सिंधु पास लिया शील जाय। क्षुल्लक हुए ग्राम उत्तर मांय, लिया ऐलक पद गिरनार जाय ॥३॥ गुरु गुणनसिंधु यरनाल ग्राम, मुनिवर दीक्षा लीनी ललाम। थे प्रभापुंज और धर्म सूर्य, बजवा दिया जग में धर्म तूर्य ॥४॥ पारंगत थे सिद्धान्त मांय, साम्राज्य धर्म नायक कहाय। चारित्र ज्योति जग में जगाय, चारित्र चक्रवर्ती कहाय ॥५॥ आतम चिन्तन महिमा बताय, शिवमार्ग सुगम दीना बनाय। आदर्श रखा संसार मांय, कुंथलगिरि सल्लेखन लहाय ॥६॥ आचार्य देव सानिध्य पाय, श्री वीर, कुंथु, नमिसागराय। नेमी, सुधर्म, पायसागराय, समन्त भद्र योगीश्वराय ॥७॥ हुए शिष्य सभी गुण गण निधान, चारित्र पुंज थे वर्धमान। निर्भीक, वीर, केहरि समान, थे चन्द्रसिन्धु अनुपम महान् ॥८॥ जय वीर शिरोमणि वीरसिंधु, तुम धर्म प्रवर्तक करुणासिंधु। दक्षिण दिशि सुंदर ईर ग्राम, लिया जन्म रामसुख जी के धाम ॥९॥ भागू सुत प्रगटे हीरालाल, फिर बढ़ने लगे जिमि चन्द्र बाल। फिर जान लिया तुम जग असार, और जाय लिया व्रत शील धार ।।१०।। गुरु शान्तिसिन्धु के करन दर्श, कोन्नूर ग्राम पहुँचे सहर्ष। गुरु वचनामृत डाला प्रभाव, दीक्षा धरने के जगे भाव ॥११॥ बने क्षुल्लक, फिर मुनिपद को धार, किया भ्रमण सकल भारत मंझार। लाखों जन को शिवमग बताय, लीनी समाधि खान्याँ में जाय ॥१२॥ चूडामणि चारित छत्रछाय, शिव-धर्म-पद्म-जयसागराय। सन्मति और श्री श्रुतसागराय दीक्षित हो धर्म का यश बढ़ाय ॥१३॥ जय गुरुवर शिवसिन्धु सुजान, चालक जो चारित रथ महान्। गुरु क्षमाशील और विनयवान, जो तप तपते आगम प्रमान ॥१४॥ लिया जन्म गाँव अड़गांव मांय, श्रेष्ठी नेमीचन्द सुत कहाय। दगडाबाई की कोख मांय, प्रगटे थे हीरालाल आय ॥१५॥ पढ़ लिख हो जगसे उदासीन, सप्तम प्रतिमा गुरु पास लीन। बने क्षुल्लक सिद्धवर कूट जाय, शिवसागर लीना नाम पाय ॥१६॥ गुरु वीर संग नागौर आय, निर्ग्रन्थ रूप लीना सजाय। आचार्य पट्ट शोभा बढ़ाय, दिये ज्ञान-वृषभ मुनिवर बनाय ॥१७॥ दीक्षित किये भव्य-सुपार्श्वसिन्धु, श्रेयांस-अजित और सुबुद्धि सिन्धु । कर भ्रमण नगर और ग्राम-ग्राम, फहराते धर्म ध्वज सभी ठाम ॥१८॥ जय ज्ञानसिंधु गुण गण निधान, हैं शान्ति शिरोमणि शीलवान। चारित्र विभूषण निरभिमान, हैं ज्ञानमूर्ति करुणानिधान ॥१९॥ देवी घृतवरी की कोख आय, लिया जन्म ग्राम राणोली मांय। जिन तात चतुर्भुज मन को भाय, भूरामल नाम है जिन रखाय ॥२०॥ अट्ठारह वर्ष ब्रह्मचर्य धार, जिन शास्त्र पठन करते हैं भार। श्री वीर सिन्धु सान्निध्य पाय, पद क्षुल्लक-ऐलक लिया जाय ॥२१॥ मुनि दीक्षा शिवसिन्धु से पाय, शिवसाधन अनुरत जो गहाय। मुनि संघ मांय उवझाय रूप, बहु जन काढे भव अंध कूप ॥२२॥ जय विद्यासागर शीलवन्त, सुर नर तुमरे पद को नमन्त। चारित्रमूर्ति, छवि परमशान्त, मुखमण्डल राजे चन्द्रकान्त ॥२३॥ तुम ग्राम सदलगा जन्म लीन, माँ श्रीमंती घर आनंद कीन। तुम पितर मल्लप्पा प्यार मान, विद्याधर नाम दिया सुजान ॥२४॥ कर शान्तिसिन्धु आचार्य दर्श, वैराग्य जगा था नवम वर्ष । श्री देशभूषण के पास जाय, लिया शील जैपुर चूलगिरि मांय ॥२५॥ फिर ज्ञानसिन्धु मुनि निकट आय, कर पठन शास्त्र मुनिपद लहाय। तिथि पंचम सुदी आषाढ़ आय, दो हजार पचीस की साल मांय ॥२६॥ दिया अजयमेरु पावन बनाय, हर्षे थे इन्द्र कलशा दुराय। दीक्षा लीनी बाईस वर्ष, करते हैं कठिनतम तप सहर्ष ॥२७॥ तुम धन्य-धन्य मुनिगण अपार, तुम पद को वन्दन बार-बार । चारित्रधार तुमने वहाय, दिया महीतल को पावन बनाय ॥२८॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः पूर्णार्थ्य निर्वपामीति स्वाहा। दोहा-पंच बाल मुनिराय को, ध्यादें जो भर चाव। ‘प्रभु' भव से तिर जायेंगे, चढ़ चारित्तर नाव । इत्याशीर्वादः विद्याधर के अनुज भ्राताओं ने गाया भजन : विद्याधर से विद्यासागर जब खिल गया था ज्ञान उपवन, इ क बाल ब्रह्मचारी के मन । बही धर्म की शीतल पवन, और वैराग्य की फूटी किरन ॥ लेय दीक्षा बन गये विद्याधर विद्यासागर जी ।। त्याग परिग्रह धारा, वेश दिगम्बर, किया जग से किनारा, घरबार तजकर, धन्य श्रीमंती के नंदन, भविजन के आनंद कंदन करता तुमको जग वंदन, चरणों में आय आय, शीश नवाकर जी। लेय दीक्षा...॥१॥ मोह ममता भी त्यागी, मन लिया वशकर, काम सुभट भी मारा, इन्द्रियाँ जयकर, धन्य मल्लप्पा नंदन, दर्शन से हो मनरंजन, गाता जग तुमरे गुनगन, आरती गाय गाय पूज रचाकर जी। ले य दीक्षा...॥२॥ शान्ति-सिन्धु ने गाँव, शेडवाल माईं, वैराग्य ज्योति नवें, बरस जगाई, जैपुर नगर मांई, देशभूषण ऋषिराई, प्रतिज्ञा शील कराई, लीनी शरण फिर, आय ज्ञानसागर जी। लेय दीक्षा...॥३॥ शान्ति अनन्त जिनके महावीर भ्राता, भगिनी सुवर्णा जिनकी दूजी हैं शांता, तोड़ा सबही से नाता, नाता ये जग भटकाता, जग में नहीं सुख और साता, पाने अक्षयपद, ठानी शिव माँय जाकरजी। लेय दीक्षा...॥४॥ भूमि सदलगा जन्मे, पावन बनाई, निर्ग्रन्थ दीक्षा लीनी, अजमेर माई, उम्र बाईस के माई, कुल की कीरत चमकाई, महिमा जिन धर्म बढ़ाई, इन्द्र भी हरषे थे, दुराय नीर गागर जी। लेय दीक्षा...॥५॥ रूप बालक वत् जिन अविकारी, शांत सलोनी छवि, है अतिप्यारी, चारित गगन के तारे, भविजन के मन उजियारे, निज पर के हैं हितकारे, चारित्र मूरत ‘प्रभु', धर्म दिवाकर जी। लेय दीक्षा...॥६॥ उपरोक्त केशलोंच महोत्सव को स्मरण कर मैं भी भावार्घ समर्पित करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. पत्र क्रमांक-११९ २९-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सर्वज्ञसार के व्याख्याता आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरण सन्निधि की चाह पूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.... हे गुरुवर! सदलगा जिला बेलगाँव का वह परिवार जहाँ से विद्याधर ज्ञान प्राप्ति की राह पर निकला और ज्ञान का सागर पा गया। उसकी इस खोज का लाभ लेने के लिए पूरा परिवार ही इस वर्ष भी समाचार पाकर केसरगंज अजमेर चातुर्मास में अक्टूबर माह में आपका ज्ञानामृत पाने और नवदीक्षित मुनिराज की ज्ञानानुभूति सुनने के लिए आया। इस सम्बन्ध में विद्याधर जी के बड़े भ्राता श्री महावीर जी अष्टगे ने १२-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ- अष्टगे परिवार ने किया आहारदान का पुण्यार्जन "सन् १९६९ में पूरे परिवार के भाव गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पुनः दर्शन एवं उपदेश सुनने का हुआ और मुनि श्री विद्यासागर जी से ज्ञान की बातें सुनने की इच्छा हुई। तब माँ बोली-मात्र दर्शन और प्रवचन सुनने के लिए ऐसे ही जाएँगे क्या? इतने सारे लोग जाएँगे और किसी के यहाँ भोजन करेंगे यह ठीक नहीं। अतः सामग्री लेकर ही चलेंगे। शुद्ध भोजन करेंगे एवं आहारदान भी देंगे। तब पूरी तैयारी के साथ अजमेर आये। केसरगंज में एक परिवार वालों ने हम लोगों को एक कमरा दिया वहाँ पर माता और बहनों ने शुद्ध भोजन बनाना शुरु किया। प्रतिदिन एक-एक साधु को पड़गाहन कर आहारदान देते। बहुत ही आनंद पाते।" मूल में भूल ‘सुबह प्रतिदिन आचार्य श्री ज्ञानसागर जी गुरु महाराज का प्रवचन सुनने मिलता और दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन सुनने मिलता था। एक रविवार के दिन दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन बहुत ही मार्मिक हुआ। उस दिन का विषय था- ‘मूल में भूल'। 'इस प्रवचन के विषय पर आपके लाड़ले शिष्य ने अपने जीवन में प्रथम हिन्दी काव्य रचना कर डाली यह कविता मुझे ब्राह्मी विद्याश्रम जबलपुर से प्राप्त मेरे गुरु की पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि से प्राप्त हुई सो आपको बता रहा हूँ- बड़ी विचित्र समस्या आ खड़ी है इस समाज में जैन, विषयान्धीभूत पामरों में चलता है झगड़ा दिन रैन। समयसारादि सब सारों को पढ़ तथा बगल में रखते, फिर भी वंचित रहते ज्ञान से अतः उलझन में पड़ते ॥१॥ एक दूसरों को परस्पर में बताते हैं अज्ञानी, सोचता हूँ मम मन में खेद ये सबही हैं अज्ञानी। यद्यपि आत्म द्रव्य का भाई ज्ञान प्रौढ़ है स्वभाव, लेकिन चिर से स्वभाव तज परिणत हुआ है रूप विभाव ।।२।। चराचर जीव राशि भाई भागों में चार हैं निबद्ध, कुज्ञानी अथ च अज्ञानी, ज्ञानी फिर है ज्ञायक सिद्ध। अहर्निश विषय पान से क्लान्त और मानते उसे इष्ट, सदाचार तथा धर्मामृत को समझते वे सदा कष्ट ॥३॥ विषयों में न्यूनता कुछ देख हाय क्या यह हुआ अनिष्ट, सहर्ष जीवन के बीच आ कौन शल्य सा हुआ प्रविष्ट । नहला-धुलाकर खूब खिलाकर शरीर को बनाते पुष्ट, आत्मा, देह दोनों में भेद अहो वे न मानते दुष्ट ॥४॥ इन दुष्कर्मों से कलंकित जो हैं उसे समझ कुज्ञानी, सजग हो पढ़ो अब कौन युत है संज्ञा से इस अज्ञानी। आतम तथा जड़ दोनों को जानता है वह भिन्न-भिन्न, किन्तु जड़ में अनिष्ट विवर्त्त देख होता है खिन्न-खिन्न ॥५॥ नीति न्यायमार्गारूढ़ हो नित्य चलाता है जीवन, अरु भक्ष्याभक्ष्य का जरूर विचार रखता है निशिदिन। सुरूप हो या कुरूप अपनी अंगना का पान करता, किन्तु पर स्त्री को माँ, या बहिन समान है समझता ॥६॥ उदाहरण के हैं स्वीकरणीय सुन भरत चक्री यहाँ, था अज्ञानी अतः छोड़ा अनुज पर रण में चक्र यहाँ। चार हजार कम लाख स्त्रियाँ सुभोग्य थीं उनके वहाँ, इसलिए सिद्ध होता है घर में वैरागी था कहाँ ॥७॥ हे! जीव मैं तथा मेरा तेरा चलता जहाँ-जहाँ, मोहीज नों का प्रथुल राज्य फैला है जान वहाँ-वहाँ। फिर ज्ञायिक सम्यग्दृष्टि को किस संज्ञा से पुकारूँ, अरु मतिश्रुतावधि सहित गृही प्रथम जिन को क्या कहूँ? ॥८॥ अहो! भाई इन पुरुषों को कभी कुज्ञानी न समझना, स्वप्न में भी हाँ किन्तु अज्ञानी कहने में न डरना। और समाधि शून्य साधू को भी साथ-साथ न भूलना, क्योंकि समयसार कार जो कुन्दकुन्द का है यह कहना ॥९॥ परमायु वाले सर्वार्थसिद्धि जीव अक्षत वीर्य सभी, सदा स्वाध्यायासक्त वे अज्ञानी कहलाते फिर भी। अहो अज्ञानी का कहाँ तक शब्दों से वर्णन करना, अरु बोध देते समय गणधर परमेष्टि को भी जानना ॥१०॥ क्रम प्राप्त अब ज्ञानी की परिभाषा भव्य सुनियेगा, जिनकी मन से स्तुति करके संसार कुछ कम करियेगा। इनका आत्मा बंधरहित होता है खरा और चंगा, यथा सदुपदेशी वीर युत शुद्धतम दिव्यध्वनि गंगा ॥११॥ वस्त्रादि परिग्रहों से हो हो शून्य होता बहिरंगा, तथा प्रिय मोहों को तज स्व का पान करता है नंगा। वायु ताड़न रहित शान्तजल भरित सरोवर सा निस्पन्द, रहता है आत्म प्रदेश उनका रागतरंग विकल अमन्द ॥१२॥ तथा इनके अन्तरंग में तेज पुंज है चेतन चन्द्र, यथा वायु-पथ में शरद संयुत शीतल दर्शनीय चन्द्र। ऊषा में चकवा हर्षित होता देख अरुणिमा अरविन्द, तथा मोह के नाश में पाता ज्ञानामृत चक आनन्द ॥१३॥ आर्त-रौद्र रहित हो बाईस परिषह सहते निर्द्वन्द, भ्रमर वन स्वयं ही तो लेते स्वाद हो ज्ञानमकरन्द । यहाँ प्रत्यक्ष देख सकते हो निभ्रान्त ज्ञानी कौन? सिर पर आग फिर भी जह नेह तज स्वलीन जो मौन ॥१४॥ अब परमौदारिक शरीरधारी उनको मान ज्ञायक, जो अविरोध रूप से कहलाते मोक्षमार्ग के नायक। जो जीव के अनुजीवी गुणों को ध्वंस नामधरे घातक, आप उन शत्रुओं को परास्त कर हुए मोक्ष प्रदायक ॥१५॥ सब कर्म खपाकर बने सिद्धों को भी गिण हे विचारक, क्योंकि सब भावों को वे भी जानते विन किसी सहायक। इसलिए भाई अधर हो रहते वे वायुमण्डल में, फिर इनकी महिमा अनोखी नहीं है क्या? भूमण्डल में ॥१६॥ अब इन चारों को गुणस्थानों में विभाजित हूँ करता, समयसार की बात को ही आपके सम्मुख हूँ रखता। प्राथमीक तीन गुणस्थानों में कुज्ञानी को ढूंढना, चौथे पाँचवें छट्टे में अरु अज्ञानी को खोजना ॥१७॥ सात से बारह तक ज्ञानी जो हैं मौन सु वारिधि में, फिर दो गुणस्थान वाले बचते ज्ञायक की परिधि में। अंत में निष्कर्ष यह निकला अहो ध्यान रक्खो भव्य, सदा रत रहो मोह नाश में यहाँ यही प्रथम कर्तव्य ॥१८॥ कर्मराज मोह के उदय परिणाम उपजते दो प्रत्यय, एक प्रत्यय है रखता दर्शन मोहनीय का अन्वय। चारित्र का दूजा रख अरु दोनों दवाते स्वसुख अव्यय, अतः मोही इक पल भी रह न पाता स्वसमय में तन्मय ॥१९॥ दो मोहों के अस्तित्त्व में कुज्ञानी अहो! कहलाता, दर्शन मोहनीय के नाश में अज्ञानी नाम पाता। अरु दोनों के अभाव में स्वानुभवी या ज्ञानी बनता, तब वह इन्द्रिय व्यापार से सर्वथा दूर हो रहता ॥२०॥ उक्त भावों को समझ लेता जो जब स्व जीवन में, सुनिश्चित पलायमान होगी तब भूल जो है मूल में।। प्रथम रचना है यह हिन्दी की मेरी अहो जीवन में, अतः लक्षण विकल होगी, लेकिन दोष है क्या भाव में? ॥२१॥ अटगे परिवार केसरगंज में १०-१२ दिन रहा। महावीर जी अष्टगे ने और भी संस्मरण सुनाए- एक अच्छी सीख प्रतिदिन सुबह जब मुनि विद्यासागर जी शौच क्रिया के लिए जाते तो उनके साथ कुछ युवा लोग जाते थे, मैं भी उनके साथ जाता था। वहाँ से लौटकर आने के बाद संघस्थ सभी साधु आँखों को किसी विशेष पानी से धोते थे तो मैंने पूछा यह क्या है? तो मुनि विद्यासागर जी बोले-यह त्रिफला का जल है। हरड, बहेड़ा, आँवला को त्रिफला बोलते हैं। यह आयुर्वेदिक दवा कहलाती है। इससे आँख धोने पर आँख ठीक रहती है।'' गुरु आज्ञा से कड़वा भी मीठा-सा लगता जिस दिन हमारे यहाँ मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का आहार हुआ। उस दिन उनको एक श्रावक ने नीम की पत्तियों का रस एक लोटा भरके पिलाया। आहार के पश्चात् मैंने महाराज के समक्ष जिज्ञासा रखी। महाराज! आप नीम का रस हँसते-हँसते पी रहे थे। इतना कड़वा रस आप क्यों पीते हैं? आपको उल्टी नहीं होती?'' तब मुनि श्री विद्यासागर जी बोले-‘‘उल्टी उसे होती है जिसे मीठा खाने की आदत होती है। यह तो बहुत ठंडा होता है इससे शरीर शीतल रहता है इसलिए गुरु महाराज की आज्ञा से ये लोग मुझे देते हैं और मुझे यह कड़वा नहीं लगता।” भावना मजबूत बनाओ ‘‘१०-१२ दिन रहकर हम लोग वापिस आने लगे तब माँ ने गुरु महाराज ज्ञानसागर जी से निवेदन किया-जिस तरह आपने विद्याधर को तार दिया, अब मुझे भी तार दो। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘‘भावना मजबूत बनाओ और मल्लप्पा जी को भी तैयार करो।'' तब माँ बोली-आपके आशीर्वाद से सब सम्भव है। फिर आशीर्वाद लेकर हम लोग सदलगा आ गए।'' इस तरह सदलगा परिवार ने आहार दान देकर पुण्यार्जन किया और विशेष आशीर्वाद प्राप्त किया। हे गुरुवर! आप जैसा गुरु और श्रीमती श्रीमंती जैसी माँ प्रत्येक संसारी को मिलें, जिससे सभी प्राणियों का संसार छूटे मुक्ति की प्राप्ति हो। ऐसे संसार मुक्ति का पुरुषार्थ करने वाले भव्यात्माओं को अनन्त नमन... आपकाशिष्यानुशिष्य
  15. २३ क्रमांक-११८ २८-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सरस्वती पुत्र, विद्वाषां प्रिय, विद्वानों के सिरमौर, दादा गुरुदेव आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज त्रिकाल वन्दन अभिनन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आपकी मेधाशक्ति और प्रज्ञा का पैनापन के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा ने ०४-११२०१५ को भीलवाड़ा में बताया- मेधा-प्रज्ञाशक्ति के धनी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज चातुर्मास में कई बार ब्यावर के ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार के विद्वान् चार्य पं. श्री हीरालाल जी शास्त्री (साढूमल वाले), पं. श्री प्रकाशचंद (मेरठ वाले) प्रधानाचार्य श्री * पन्नालाल दिगम्बर जैन विद्यालय ब्यावर, पं. श्री शोभाचंद जी भारिल्ल, पं. श्री हरकचंद जी सेठी अजमेर, पं. श्री विद्याकुमार जी सेठी अजमेर, पं. श्री हेमचंद जी शास्त्री अजमेर, पं. श्री चंपालाल जी जैन नसीराबाद, ब्र. श्री सुगनचंद जी गंगवाल, श्री सुजानमल जी सोनी अजमेर, केकड़ी के विद्वान् श्री चंद जी, श्री रतनलाल जी कटारिया एवं श्री पद्मचंद जी कटारिया, पं. श्री दीपचंद जी अमोलकचंद ड्या, पं. श्री माणकचंद जी सोनी, पं. श्री शान्तिकुमार बड़जात्या, श्री मिश्रीलाल मोहनलाल जी कटारिया, श्री माणकचंद रतनलाल गदिया केकड़ी, पं. श्री हीरालाल जी साह कोठिया १. जयकुमार जी अजमेरा चांपानेरी आदि श्रीमंत एवं धीमंत आचार्यश्री के दर्शन एवं ज्ञानार्जन के लिए आते रहते थे और घण्टों तत्त्वचर्चा करते रहते थे। उनकी तत्त्वचर्चा मैं भी सुना करता था किन्तु समझ नहीं पाता था। मात्र इतना समझ पाता था कि गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बिना पुस्तक खोले संदर्भ करते थे और ऐसे तर्क रखते थे कि कोई काट नहीं कर पाता था किन्तु कोई प्रमाण देकर बात करता तो स्वीकार करते थे। आज आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की मेधा और प्रज्ञाशक्ति को देखता हूँ तो मुझे गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का स्मरण हो आता है।'' इस तरह श्रीपति जी जैन ने ‘जैन गजट' में ११-०९-१९६९ को समाचार दिया- धर्मप्रभावना ‘अजमेर-स्थानीय केसरगंज स्थित श्री १००८ पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का ससंघ चातुर्मास होने से महती धर्म प्रभावना हो रही है। आपके विराजने से वहाँ प्रायः विद्वानों का समागम भी मिलता रहता है। गत दिनों में ‘जैन गजट' के संपादक श्री डॉ. लाल बहादुर जी शास्त्री दिल्ली तथा श्री ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम चौरासी मथुरा के प्रधान धर्माध्यक्ष प्रतिष्ठा दिवाकर श्री पं. प्रद्युम्नकुमार जी शास्त्री पधारे। पं. श्री प्रद्युम्नकुमार जी शास्त्री का ५ तथा ७ सितम्बर ६९ को ओजस्वी भाषण हुआ जिससे महती धर्म प्रभावना हुई।'' हे गुरुवर ! दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने आपके बारे में और भी कई किस्से बतलाये जिनसे हम शिष्यानुशिष्यों को प्रेरणा मिलती है। ऐसे और भी कुछ किस्से आपको लिख रहा हूँ- स्वस्थ रहने के सूत्र मिले ‘‘सन् १९६९ चातुर्मास केसरगंज अजमेर के समय पर गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज आहार के पश्चात् मन्दिर जी में टहला करते थे। एक दिन पूरा संघ आहार के पश्चात् उपस्थित हुआ तब गुरुदेव ने कहा-देखो आहार के बाद १00 कदम अवश्य चलना चाहिए। ऐसा आयुर्वेद में लिखा है और फिर वज्रासान से बैठना चाहिए। इससे वायु वगैरह पास हो जाती है और पेट हल्का हो जाता है। तब से हम सभी संघस्थ लोग गुरुदेव के संकेत के अनुसार नित्यप्रति ऐसा ही करने लगे थे। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी आज तक वैसा ही करते हैं जैसा गुरु ने बताया था। वे सच्चे शिष्य हैं, उन्होंने गुरु को ऐसा आत्मसात् कर लिया है कि मुझे उनके दर्शन में गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के साक्षात् दर्शन मिल जाते हैं।'' हमेशा वैराग्यवर्द्धक सूत्र गुनगुनाते केसरगंज अजमेर चातुर्मास में गुरुदेव को जब भी टहलते हुए देखा तब उनके मुखारविंद से वैराग्यवर्द्धक सूत्र सुना करते थे। जो इस प्रकार हैं- १. बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्तव। माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ।। २. नामधराय जती तपसी, मन विषयन में ललचावे। | दौलत सो अनन्त भव भटके, औरन को भटकावे ।। ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे ३. अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद। पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ।। ४. जो ख्याति लाभपूजादि चाह, धरि करन विविध विध देह दाह। आतमअनात्म के ज्ञानहीन, जे-जे करनी तन करन छीन ॥ ५. हमतो कबहूँ न निज घर आये। पर घर फिरत बहु दिन बीते, नाम अनेक धराये ।। हम तो कबहूँ न निज घर आये ।। मिली आगम की सीख ‘‘केसरगंज अजमेर के चातुर्मास में दसलक्षण पर्व के बाद एक दिन काफी गर्मी थी। एक कक्ष में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज एवं दूसरे छोटे कक्ष में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज सामायिक कर रहे थे। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को बहुत अधिक पसीना बह रहा था। मेरी नजर पड़ी तो मैंने अज्ञानतावश फुल स्पीड पर पंखा चालू कर दिया। पसीने में हवा लगते ही मुनि श्री को छीकें आने लगीं और जुखाम हो गया। सामायिक के बाद आचार्य भगवन् ज्ञानसागर जी महाराज लघुशंका के लिए कमरे से बाहर निकले तो उन्होंने देखा और बोले-ये क्या किया? ब्रह्मचारी जी पंखा आपने चालू किया... हमने कहा हाँ! महाराज जी को बहुत गर्मी लग रही थी पसीना बह रहा था और वे सामायिक में लीन थे तो हमने पंखा चालू कर दिया। तब गुरुजी बोले-तुमने तो अच्छे के लिए किया किन्तु महाराज को पसीने में हवा लगने से जुखाम हो गया... और सुनो पंखा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि जीवों की हिंसा होती है। मुनि महाव्रती होते हैं। वे पंखा की हवा लेने की सोच भी नहीं सकते। अतः संघ में पंखा का प्रयोग नहीं करना। साधना करो तो निर्दोष करो।' तब हमने कहा गलती हो गई महाराज ! प्रायश्चित्त दे दीजिए। तो गुरुवर बोले-‘‘नये-नये हो ना इसलिए पता नहीं था। अतः माफ है, आगे से ध्यान रखना।'' इस तरह आप समय-समय पर संघस्थ साधुओं को त्यागियों को आगम की सीख दिया करते थे और सदा अपने लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी पर ध्यान रखा करते थे। आप जैसे सच्चे गुरुओं से ही भव्यात्माओं को सिद्ध-शुद्धदशा प्राप्त हो सकती है। धन्य हैं मेरे गुरु! जो उन्हें आप जैसा सच्चा जौहरी मिल गया और धन्य हुए आप मेरे दादागुरु! जिन्हें असली नगीना मिल गया। जिसको तरासने में ज्यादा समय नहीं लगा और वह चमक गया। ऐसा चमका कि जौहरी को चमका दिया। आज हम पोतों शिष्यों का अहोभाग्य जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ऐसे गुरुओं की शरण पा गए। ऐसे पारखियों की नजरों को प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. पत्र क्रमांक - 117 २७-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आगम व्याख्याता गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकरण पूर्वक नमोऽस्तु..नमोऽस्तु...नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपके सान्निध्य में केसरगंज जैसवाल दिगम्बर जैन मन्दिर में १९६९ के पर्युषण पर्व में आपके व्याख्यान सुनने के लिए अजमेर की समाज केसरगंज में उमड़ पड़ती थी। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २०१५ भीलवाड़ा में बताया। वह मैं आपको बता रहा हूँ- समाज की बिगड़ती हुई मानसिकता पर कटाक्ष "भादवा माह के दसलक्षण पर्व में प्रातः ८ बजे से तत्त्वार्थ सूत्र के एक अध्याय पर गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज का व्याख्यान होता था और दोपहर में ३ बजे से मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का एक एक धर्म पर मार्मिक प्रवचन होता था। पाँचवें दिन तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के व्याख्यान के समय गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' सूत्र की व्याख्या करते हुए समाज पर कटाक्ष किया - "इस सूत्र को लौकिक अर्थ में भी इस तरह समझा जा सकता है। आज समाज में यह देखा जा रहा है कि "दृव्य जिसके आश्रयभूत है वह निर्गुण भी गुण के समान सम्मान पाते देखा जा रहा है अर्थात् पैसे वाला कम गुण होने पर भी दानादि के द्वारा सम्मान को पा रहा है।" यह सुनकर मुनि श्री विद्यासागर जी मुस्कुराने लगे समाज भी जोर-जोर से हँसने लगी।" गुरुवर! जिस प्रकार आप आगम सूत्रों के माध्यम से व्यावहारिक अर्थ भी निकाल दिया करते थे, उसी प्रकार आज आपके दार्शनिक सैद्धान्तिक शिष्य मेरे गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज भी सूत्रों के दार्शनिक सैद्धान्तिक व्यावहारिक विशेषार्थों को बताया करते हैं। केसरगंज में मनाये गए पर्युषण पर्व के बारे में कन्हैयालाल जी जैन केसरगंज, अजमेर ने भी १३-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- क्षमावाणी एवं कलशाभिषेक उत्सव “दसलक्षण पर्व में सामूहिक अभिषेक-पूजन होता था। उसके बाद आचार्य महाराज का प्रवचन होता था। दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के एक-एक धर्म पर प्रवचन सुनते थे। पूनम के दिन केसरगंज में मुनि संघ के सान्निध्य में वार्षिक अभिषेक का कार्यक्रम मन्दिर के बाहर सड़क पर पाण्डाल लगाकर हुआ था। जिसमें पहले मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन हुआ फिर गुरुवर आचार्य श्री सागर जी महाराज का प्रवचन हुआ था। उसके बाद जिनाभिषेक हुआ और फिर क्षमावाणी पर्व मनाया गया| पूरा दिगम्बर जैन समाज अजमेर इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ था।" इस तरह मेरे गुरुदेव आपकी परम्परा आज तक निभा रहे हैं। पर्युषण पर्व में आज भी प्रातः सूत्र के एक अध्याय पर व्याख्यान देकर विशेष चिन्तनात्मक अर्थ बतलाते हैं और दोपहर में एक धर्म पर मार्मिक प्रवचन करते हैं। ऐसे ज्ञानी गुरु-शिष्य की सम्यग्ज्ञान दृष्टि को प्रणाम करता हूँ और आपके इस पोते शिष्य को भी हतात्त्विक दृष्टि प्राप्त हो इस भावना से... आपका शिष्यानुशिष्य
  17. पत्र क्रमांक-११६ २६-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आगमनिष्ठ, आध्यात्मिक शान्तरस के रसास्वादक, समयसारमयी चैतन्यधारा के स्रोत गुरूणां गुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में भावपूर्वक द्रव्य नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपने जब एक जवान सुन्दर युवा को दिगम्बर मुनि दीक्षा दी तो आपने स्वयं एक चुनौती स्वीकार की थी और उस चुनौती भरे साहसिक कदम को निरंतर ज्ञान-ध्यान-तप-चारित्र के संस्कार देते हुए बड़े ही परिश्रमपूर्वक लक्ष्य को पूर्ण कर सफलताश्री को अर्जित किया था। आपने मुनिदीक्षा देने के बाद १९६८ चातुर्मास के प्रारम्भ में २००० वर्ष प्राचीन अध्यात्म सरोवर के जहंस परमपूज्य महान् आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के महान् ग्रन्थराज पूज्य समयसार जी का अध्ययन सर्व नाज के बीच मुनि श्री विद्यासागर जी को कराया था। जिसमें आपने समाज में फैली विसंगतियों को आगम के आलोक में दूर करते हुए अपने लाडले शिष्य को शुद्ध-सिद्ध अध्यात्म अमृत का प्याला नहीं अपितु घट भर-भरकर पिलाया था। आपका वह 'अमृत' अजमेर समाज ने हम मंदबुद्धियों के लिए प्रकाशित कराया। जिसे ब्र. यारेलाल जी ने अथक परिश्रम करके प्रेस कॉपी तैयार की थी। उस ग्रन्थराज के द्वितीय संस्करण में आपके प्रिय मनोज्ञ शिष्य मेरे गुरु आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज की ‘अन्तर-घटना' का संस्मरण मन समयसार के आध्यात्मिक आनन्द की कल्पना में खो गया। वह ‘अन्तर-घटना' का अंश आपको लिख रहा हूँ- अन्तर-घटना “मुनि-दीक्षा के उपरान्त, परम-पावन, तरण तारण, गुरु-चरण सान्निध्य में इस महान् ग्रन्थ का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। यह भी गुरु की गरिमा' कि कन्नड़ भाषा-भाषी मुझे अत्यन्त सरल एवं मधुर भाषा शैली में ‘समयसार' के हृदय को श्रीगुरु महाराज ने (आ. श्री गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने) बार-बार दिखाया। जिसकी प्रत्येक गाथा में अमृत ही अमृत भरा है और मैं पीता ही गया ! पीता ही गया !! माँ के समान गुरुवर अपने अनुभव मिलाकर, घोल-घोलकर पिलाते ही गए, पिलाते ही गए। फलस्वरूप एक उपलब्धि हुई, अपूर्व विभूति की, आत्मानुभूति की! अब तो समयसार ग्रन्थ भी ‘ग्रन्थ' (परिग्रह के रूप में) प्रतीत हो रहा है। कुछ विशेष गाथाओं के रसास्वादन में जब डूब जाता हूँ, तब अनुभव करता हूँ कि ऊपर उठता हुआ, उठता हुआ ऊर्ध्वगममान होता हुआ, सिद्धालय को भी पार कर गया हूँ, सीमोल्लंघन कर चुका हूँ। अविद्या कहाँ? कब सरपट चली गई, पता तक नहीं रहा। आश्चर्य तो यह है कि जिस विद्या की चिरकालीन प्रतीक्षा थी, उस विद्यासागर के भी पार ! बहुत दूर !! पहुँच चुका हूँ । विद्या-अविद्या से परे, ध्येय, ज्ञान-ज्ञेय से परे, भेदाभेद, खेदाखेद से परे, उसका साक्षी बनकर, उद्ग्रीव उपस्थित हूँ अकम्प निश्चल शैल! चारों ओर छाई है सत्ता, महासत्ता, सब समर्पित स्वयं अपने में!'' हे गुरुवर! आपके द्वारा उद्भाषित पूज्य ग्रन्थराज समयसार की हिन्दी टीका जो भी पढ़ता है। उसके सारे भ्रम, जिज्ञासाएँ एवं शंकाओं का स्वतः ही समाधान हो जाता है। इस प्रकार आगमार्थ, भावार्थ, विशेषार्थ रूप विद्वत्तापूर्ण चिन्तनामृत को प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  18. पत्र क्रमांक - ११५ २५-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर दृढ़संकल्पी अटल तपस्वी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणयुगलों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! मुनि श्री विद्यासागर जी की विलक्षणता से युवा, प्रौढ़, वृद्ध विद्वान् आदि सभी प्रभावित होते थे। उनकी यह विलक्षणता जन्मजात स्वाभाविक थी, जिसे हम पूर्व में प्रेषित "अन्तर्यात्री : महापुरुष" नामक पत्रों के रत्नमंजूषा में रखे पत्रों में बता चुका हूँ। इस सम्बन्ध में और भी बताना चाहता हूँ जो केसरगंज के श्रीमान् कन्हैयालाल जी जैन ने बताया- अटल संकल्प ‘‘सन् १९६९ में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ससंघ ने केसरगंज में चातुर्मास किया। एक दिन हम लोग रात्रि में १०:00 बजे आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की वैयावृत्य कर रहे थे, तब उन्होंने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी मुनि श्री विद्यासागर जी को सोने के लिए इशारा किया । तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने वापिस इशारा किया कि आप विश्राम करें और स्वयं बैठे रहे चिन्तन मनन करते रहे। हम लोग सुबह मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ जंगल जाते थे। एक दिन हम लोग जैसे ही पहुँचे, तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज मुनि श्री विद्यासागर जी को समझा रहे थे कि ‘‘रात्रि में ज्यादा देर तक जागना ठीक नहीं इससे याद्दाश्त कमजोर हो जाती है।'' तो मुनि विद्यासागर जी बोले-‘‘जितना आप पढ़ाते हैं उतना जब तक स्मरण चिंतन मनन नहीं हो जाता तब तक मैं नहीं सोऊँगा।'' गुरु-शिष्य की ये बातें सुनकर हम सभी श्रेष्ठ शिष्य को देखकर चकित रह गए।'' इसी प्रकार दिल्ली निवासी आपकी भक्त श्राविका कनक जी जैन ने एक संस्मरण लिखकर दिया जो मैं आपको बता रहा हूँ- मुनि श्री विद्यासागर जी हुए समयसारमय ‘‘सन् १९६९ केसरगंज अजमेर के श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन जैसवाल मन्दिर में आचार्य ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ससंघ चातुर्मास कर रहे थे। तब हम लोग सपरिवार दिल्ली से दर्शन करने आए थे। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज समयसार ग्रन्थराज पर प्रवचन देते थे। प्रवचन सुनते हुए मुनि श्री विद्यासागर जी आत्मा की गहराईयों में डूब जाते थे तब उनकी मुखमुद्रा देखकर ऐसा लगता था मानो अध्यात्म अमृत पीकर पूर्ण संतुष्ट मूर्तिवत् ज्ञानध्यान में लीन समयसारमय हो गए हों।'' इस प्रकार आपकी विलक्षणता की तरह मुनिश्री की विलक्षणता किसी से छिपी नहीं रह सकती थी सहज स्वाभाविक जो थी। गुरु-शिष्य के अनन्त गुण विशेषताओं को नमोऽस्तु करते हुए... आपका शिष्यानुशिष्य
  19. पत्र क्रमांक-११४ २४-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अप्रमत्त साधक निश्चल निश्छल गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के श्री चरणों में भावपूजा-वन्दना-भक्ति समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! आप गुरु-शिष्य जब भी केशलोंच करते थे तो बिन बताए महोत्सव हो जाया करता था। इस सम्बन्ध में साक्षी रहे दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में बताया, वह मैं आपको लिख रहा हूँ- किया केशलोंच-हो गया महोत्सव केसरगंज में चातुर्मास शुरु हुआ तब एक दिन गुरु महाराज ने केशलोंच किए। पहले केशलोंच मंच पर बैठकर करते थे अतः गुरु महाराज प्रवचन के मंच पर जाकर बैठ गए, राख मँगवाई और केशलोंच करने लगे। समाचार फैला धीरे-धीरे लोग आते गए और बहुसंख्या में एकत्रित हो गए। अस्वस्थ होने के कारण उनके केशलोंच मुनि श्री विद्यासागर जी ने किए। केशलोंच के दौरान कवि प्रभुदयाल जी जैन ने स्वरचित भजन प्रस्तुत किए। तत्पश्चात् आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की स्वरबद्ध मधुर आवाज में पूजन गाई । उपस्थित सैकड़ों लोगों ने अर्घ्य चढ़ाये। बिना बताए बिना प्रचार-प्रसार के महोत्सव हो गया। ज्ञानमूर्ति, चारित्र विभूषण आचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज की पूजन स्थापना (अडिल्ल छन्द) ज्ञान सिन्धु आचार्य हैं मूरत ज्ञान की, चरित विभूषण राह चलें निरवाण की। धन्य हुआ हूँ आज शरण तव आयके, आह्वानन त्रय बार करूँ, हरषाय के ॥ ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वर! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। द्रव्याष्टक (चौपाई छन्द) जल ले पद प्रक्षालन आय, जामन मरण जरा मिट जाय, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय गुरुवर ज्ञान महान्, ज्ञान रतन का करते दान, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। चन्दन चरण चढ़ावत आप, मिट जाये भव का संताप, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय... ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा। तंदुल श्वेत अखण्डित लाय, पूज करत पद अक्षय पाय, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय.. .ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा। फूल गुलाब चमेली लाय, अरपत काम रोग नश जाय, परम सुख होय गुरु पद् पूज परम सुख होय। जय जय... ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा। लाडू घेवर चरण चढ़ाय, ज्वाल क्षुधा की शमन कराय, | परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय.. ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। दीप ज्योत से पूज रचाय, आतम ज्योति जगे उर मांय, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय... ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। धूप धरे धूपायन मांय, राशि करमन की जर जाय, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय... ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। फल केला अंगूर मंगाय, भेंट करत शिव लक्ष्मी पाय, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय... ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा। अष्ट द्रव्य ले पूज रचाय, ताको अनर्घ पद मिल जाए, परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय... ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा। जयमाला दोहा-सरल शान्त गम्भीर हैं, सौम्यमूर्ति ऋषिराज। मृदुभाषी निर्भीक हैं, दयानिधि महाराज ॥ निरभिमान निर्लोभ हैं, सहनशील गुणखान। भक्ति भाव पूजा रची, मैं हूँ निपट अज्ञान ।। चौपाई जय जय ज्ञानोदधि गुणवन्ता, सुर नर तव पद शीश नमन्ता। बाल ब्रह्मचारी तुम गुरुवर, ज्ञान ध्यान तल्लीन तपोधर ॥ राजस्थान गाँव राणोली, जहाँ जन्मले अंखियाँ खोली। धन्य धन्य तव जनम के दाता, पिता चतुर्भुज घृतवरी माता।। गोत्र छाबड़ा कुल उजियारे, भूरामल चले धर्म सहारे। धारा शील उमर अट्टारा, आगम ज्ञान लिया सुखकारा ॥ सदा ही श्रावक त्यागी जन को, हुए सहाई ज्ञानार्जन को। वीर सिन्धु आचार्य की वाणी, सुनके ठनी वरने शिवराणी ॥ क्षुल्लक ऐलक पद को धारा, फिर मुनि पद का किया विचारा। संवत् चतुर्थीस चौरासी, परिग्रह त्याग हुए वनवासी ॥ शिव सिन्धु आचार्य से पाई, मुनि दीक्षा जयपुर के मांई। विलग हुए फिर संघ गुरुवर किया भ्रमण निज संघ बनाकर । ज्ञान सिन्धु के ज्ञान से भारी, हुई प्रभावित जनता सारी। प्रकाण्ड पण्डित आगम के हैं, हिन्दी संस्कृत ग्रन्थ रचे हैं । नगर नसीराबाद के मांई, त्यागीवर बहु जनता आई। गुरु गुण गण पहचान है कीनी, पदवी आचारज की दीनी ॥ शिक्षा दीक्षा सन्मति देकर, सुख संभव करते हैं गुरुवर। विद्या और विवेक के दाता, शरणागत शिव मारग पाता ॥ ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। दोहा-ज्ञान सिन्धु दरबार में, मची ज्ञान की लूट। झोली जो भरता 'प्रभु' जाता भव से छूट ॥ इत्याशीर्वादः उपरोक्त पूजा मुझे अजमेर के श्रीमान् निर्मल गंगवाल ने ‘श्रद्धासुमन' नामक चतुर्थ पुष्प। रचयिता-प्रभुदयाल जैन बी.ए., एल.एल.बी., कोविद, कोकिल कुंज पालबीचला, अजमेर। वी.नि.स.२४९५, ईस्वी सन् १९६९ से लाकर दी। ऐसे बाल-ब्रह्मचारी, पण्डित, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि, आचार्य पद को विभूषित कर प्रत्येक पद के आदर्श उपस्थित करने वाले गुरूणां गुरु दादागुरु को नमन वन्दन अर्चन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  20. पत्र क्रमांक-११३ २२-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर लौकिकता से परे लौकिकता का संज्ञान रखने वाले दादागुरु के श्रीचरणों में प्रणाम करता हुआ आज मैं आपकी वह बात सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ कि आप अपने कल्याण के साथ-साथ व्यवहारिक बात पर भी ध्यान रखते थे और समाज में प्रवेश कर रहे कुसंस्कारों को लेकर आप समाज को जागृत एवं सचेत करते रहते थे। इस सम्बन्ध में २९-०१-२०१८ को ज्ञानोदय तीर्थ पर आपके अनन्य भक्त श्रीमान् कन्हैयालाल जी ने बताया- सावधान! कहीं आप अनजाने में शराब माँस तो नहीं ले रहे हैं?.... ‘१९६९ केसरगंज चातुर्मास के दौरान हमारी दुकान के बाजू में कोल्ड ड्रिंक्स की दुकान थी। एक दिन उनके नौकर ने हमको कोल्ड-ड्रिंक्स की भरी हुई शीशी में कीड़े दिखाये । रात्रि में हम वैयावृत्य के लिए गुरु महाराज के पास गए। तो हमने यह बात उन्हें बताई। तब दूसरे दिन गुरु महाराज ज्ञानसागर जी ने अपने प्रवचन में कहा कि “आप लोग कोकाकोला पीते हैं यह क्या होता है? जानते हैं आप लोग? इसमें कीड़े निकलते हैं और शराब मिलायी जाती है जिसे एल्कोहल कहते हैं। यह कई लोगों ने देखा है। इसको नहीं पीना चाहिए। पीने से माँस और शराब के सेवन का पाप लगेगा। बाजार की कोई भी चीज ग्रहण करने से पहले अपना विवेक लगाओ। क्या यह खाने योग्य है? इसी तरह बाजार में बेकरी के केक आदि जो बनते हैं उनमें अण्डा चर्बी आदि डाली जाती है। आज कुछ लोग बिना सोचे समझे, बिना जाने-खोजे ही जिह्वा इन्द्रिय के वशीभूत होकर उन चीजों का सेवन कर लेते हैं और अपना धर्म बिगाड़ लेते हैं, कर्म बिगाड़ लेते हैं। इससे फिर वे दुखी बनते हैं।' यद्यपि आप लौकिक अखबार नहीं पढ़ते थे फिर भी यदा-कदा कोई जानकार व्यक्ति उपभोक्ता और बाजारवाद की जानकारी देता तो आप बड़े ध्यान से सुनकर समाज को सदुपदेश देकर सावधान करते थे| संस्कृति रक्षक गुरुवर के श्री चरणों में नमन निवेदित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  21. पत्र क्रमांक-११२ २१-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर द्रव्य-गुण-पर्याय के भेदाभेदात्मक स्वरूप के ज्ञाता तद्रूप परिणमन करने वाले दादा गुरुवर परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण को त्रिकाल वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आप गुरु-शिष्य की साधना को संघ में रहकर जैसा देखा वैसा ही दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया वह अपनी प्रेरणा स्वरूप लिख रहा हूँ... वर्ष १९६९ ने देखी चातुर्मास की दिनचर्या ‘‘प्रातः ३ बजे के आस-पास आचार्य श्री एवं मुनि श्री विद्यासागर जी उठकर रात्रि प्रतिक्रमण, सामायिक, २४ तीर्थंकरों की स्तुति, आम्नाय पाठ आदि करके शौच क्रिया के लिए जाते थे। वहाँ से आकर देववंदना करते, फिर स्वाध्याय करते। तत्पश्चात् ८ से ९ बजे तक आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज प्रवचन करते थे। केसरगंज में लगभग २५० दिगम्बर जैन घर थे एवं सभी धर्मात्मा मुनि भक्त थे। प्रवचन सुनने के लिए सभी आते थे मन्दिर का हॉल पूरा भर जाता था। तत्पश्चात् ९:३० बजे संघ आहारचर्या के लिए उठता था। आहार करके सभी शिष्यगण आते और गुरु के पास जाकर समाचार देते। यदि कोई व्यवधान या परेशानी होती तो गुरुदेव उनका अच्छे से समाधान बताते । आचार्य महाराज सतत भिक्षा शुद्धि की ओर सावधान करते थे। दोपहर में १२ बजे से सामायिक आदि करते। २ बजे से आचार्य महाराज स्वाध्याय कराते और दोपहर में ३ बजे से मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज एवं आचार्य महाराज समाज के लिए प्रवचन करते थे। तत्पश्चात् संघ सामूहिक मुनि प्रतिक्रमण करता, जिसमें क्षुल्लक, ऐलक, ब्रह्मचारी सभी बैठते थे और उसके बाद देव-दर्शन करके गुरु महाराज की वैयावृत्य करते । अँधेरा होने से पहले सामायिक में लीन हो जाते सामायिक के पश्चात् श्रावकगण आ जाते और गुरुमहाराज की वैयावृत्य करते। मुनि श्री विद्यासागर जी चिन्तन मनन में लीन रहते, वे श्रावकों से वैयावृत्य नहीं कराते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज नित्यप्रति गुरु महाराज की वैयावृत्य करते । ९:३०-१0:00 बजे के बीच गुरु महाराज विश्राम में चले जाते। मुनि श्री विद्यासागर जी का पता नहीं चलता था कि वे कब विश्राम करते किन्तु वे गुरु महाराज के चरणों के पास ही शयन करते थे। उन्हें कभी हमने अन्यत्र शयन करते नहीं देखा।" इस प्रकार हे दादागुरु! आपकी दिनचर्या में एक भी क्षण प्रमाद के लिए नहीं था। समय बचता तो व चर्चा करते, नहीं तो अपनी साधना एवं संघ के लिए समय देते। इसी तरह मुनि श्री विद्यासागर जी - महाराज, आपकी ही तरह उनके कोष में भी पर के लिए एवं संसार के लिए समय नहीं था। सच्चे गुरु से सच्चा संस्कार पाया और आज वे संस्कार महागुरुकुल बनकर अनेकों को आगम के सद् संस्कारों से कारित कर यह युक्ति चरितार्थ कर रहा है| जैसा गुरु-वैसा चेला। गुरु कीजे जान-जान, पानी पीजे छान-छान। | इसी प्रकार केसरगंज के युवा लोग मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के साथ प्रातः शौचक्रिया के लिए जाते थे। इस सम्बन्ध में कन्हैयालाल जी जैन केसरगंज अजमेर ने १३-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बताया- युवाओं को मिली सीख : स्वस्थ रहने का नुस्खा कुछ युवा लोग जिनमें रिखबचंद जी पुनविया, कैलाशचंद जी बरेठा, खुट्टीमल जी, किशनचंद जी कोठारी आदि रोज प्रात:काल मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ शौच क्रिया के लिए १-१.५ ३.मी. दूर जंगल में जाया करते थे। मैं भी कभी-कभी जाया करता था। रास्ते में हम लोग उनसे कई जिज्ञासाएँ पूछा करते। तो वे बहुत अच्छे तरीके से हँसते हुए हम लोगों की जिज्ञासाओं का समाधान कर देते थे। जब वहाँ से लौटकर आते तो वे सीधे छत पर जाते थे। वहाँ पर तरह-तरह के योगासन करते थे। लगभग एक घण्टा तक शीर्षासन लगाते थे। वे हम लोगों से कहा करते थे- दवाईयाँ खाने की अपेक्षा रोज आसन लगाना चाहिए या एक्सरसाईज करना चाहिए। शरीर स्वस्थ रहेगा तो धर्माराधना अच्छे से हो सकेगी।'' एक अच्छी परम्परा दीपचंद जी छाबड़ा नांदसी वालों ने बताया ‘‘मुकुट सप्तमी का दिन था सम्पूर्ण संघ मंच पर विराजमान था और अजमेर की सम्पूर्ण समाज महिला-पुरुष सभी लोग अपने-अपने घर से शुद्ध लाडू बनाकर लाए थे। भगवान पार्श्वनाथ स्वामी की पूजा हुई और अन्त में निर्वाणकाण्ड भक्तिभाव से पढ़ा गया और सभी ने एक साथ लाडू चढ़ाकर भगवान पार्श्वनाथ की जय बोली- “निरंजन, निराकार, ज्योति स्वरूप, श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ, दाता-विधाता के हुकम से जैनधर्म बढ़े चलो-बोलो पार्श्वनाथ भगवान की... जय।' तत्पश्चात् गुरु महाराज का प्रवचन हुआ।'' इस तरह सामाजिक कार्यक्रमों में आप सान्निध्य प्रदानकर गृहस्थधर्म रूप उपासकों का उत्साहवर्द्धन करते। ऐसे निश्चय-व्यवहार धर्मज्ञ गुरु-शिष्य के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.... आपका शिष्यानुशिष्य
  22. पत्र क्रमांक-१११ २०-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर नियति के इशारों के जानकार अनुभवी भविष्यद्रष्टा दादागुरु के परिपक्व ज्ञानाचरण को नमन करता हूँ.. हे गुरुवर ! सन् १९६९ के वर्षायोग के बारे में अजमेर जिले की समाजें टकटकी नजरों से देख रही थीं कि किसके भाग्य में ज्ञानगंगा का अमृतपान लिखा है। इस पत्र में वह रहस्य उजागर कर रहा हूँ और चातुर्मास की दैनन्दिनी लिख रहा हूँ यदि कोई भूल चूक हो तो क्षमा करना क्योंकि मैं अपने मन से कुछ नहीं लिख रहा हूँ- समय ने पुनः लौटाया अजमेर दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा २०१५ में बताया- ‘‘गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का स्वभाव बहुत ही सरल और सहज था, जब मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज नसीराबाद की ओर चले गए तो गुरु महाराज पुनः अजमेर की ओर लौट आए। समाज में खुशी की लहर दौड़ गई। सोनी नसियाँ में दूसरे दिन केसरगंज समाज के गणमान्य श्रीमान् श्रीपति जी, मांगीलाल जी, कुट्टीमल जी, राजेन्द्र कुमार जी आदि महानुभावों ने आचार्य महाराज के प्रवचनोपरान्त श्रीफल अर्पितकर केसरगंज मन्दिर में चातुर्मास हेतु निवेदन किया।'' हे दादागुरु ! आपके स्वास्थ्य में तबदीली के चलते समय ने पुनः आपके पगों को रोका और आप न चाहते हुए भी नियति के इशारों पर परिणमित हुए आपके मुँख से निकला-‘अजमेर में तो चातुर्मास हो ही गए हैं अब देखो ‘काललब्धि बलतें दयाल' समय पर जो हो जावे सो ठीक है।'' साधक पुरुषों के मुख से जो निकल जाता है वह सिद्धवाक् चरितार्थ होकर ही रहता है। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २०१५ भीलवाड़ा में बताया- चातुर्मास की स्थापना ‘‘द्वितीय आषाढ़ में अष्टाह्निका पर्व के प्रथम दिवस २२ जुलाई मंगलवार को गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने सोनी नसियाँ से विहार कर दिया केसरगंज पहुँचने से पहले ही समाचार पहुँच गया। दिगम्बर जैन जैसवाल समाज केसरगंज में खुशी की लहर दौड़ गई और आकाश गुंजित जयकारों के मध्य संघ का प्रवेश कराया। २३ जुलाई को प्रात:काल प्रवचन के बाद केसरगंज समाज के अध्यक्ष श्रीमान् श्रीपति जी जैन, श्री रामस्वरूप जी, श्री दीनानाथ जी ने श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया कि हम लोग अपनी ओर से सिद्धचक्र मण्डल विधान कराना चाहते हैं आपका आशीर्वाद चाहिए। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज जी ने आशीर्वाद रूप वचन कहे-‘खूब अच्छे से करावो आशीर्वाद है' और २४ जुलाई आषाढ़ शुक्ला १० से तीनों महानुभावों ने अपनी ओर से पण्डित हेमचंद जी शास्त्री एम.ए. के निर्देशन में महामण्डल विधान प्रारम्भ किया। आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी २८ जुलाई सोमवार को केसरगंज मन्दिर में आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने और संघस्थ मुनि श्री विद्यासागर जी, ऐलक श्री सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक श्री सुखसागर जी, क्षुल्लक श्री सम्भवसागर जी, ब्र. मांगीलाल जी, ब्र. बनवारीलाल जी, ब्र. जमनालाल जी, ब्र. दीपचंद जी छाबड़ा आदि सभी ने उपवास रखा और सकल दिगम्बर जैन समाज अजमेर की उपस्थिति में भक्तिपाठ आदि करके चातुर्मास का संकल्प किया। ३१ जुलाई को सिद्धचक्र महामण्डल विधान पूर्ण हुआ। हवन के पश्चात् शान्ति विसर्जन हुआ तत्पश्चात् श्रीजी की शोभायात्रा निकाली गई जिसमें आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज सम्मिलित हुए फिर कलशाभिषेक हुआ। प्रभावना के साथ महती प्रभावना ३१ जुलाई को विधान के समापन पर जुलूस से प्रभावना हुई तथा भयंकर गर्मी के बावजूद भी मुनि श्री विद्यासागर जी जुलूस में चले और फिर दोपहर में दीक्षोपरान्त चौथा केशलोंच किया। जिसमें अपार जनसमूह देखने के लिए उपस्थित हुआ। कारण कि २ दिन पहले राख मंगवाई तब समाज के लोगों को पता चल गया था। केशलोंच के दौरान स्थानीय भजन मण्डली द्वारा भजन हुए एवं विद्वानों के भाषण हुए। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज केशलोंच के बाद नीचे सिर करके बैठे रहे क्योंकि उनको दो दिन पहले आई फ्लू रोग हो गया था और दोनों आँखें लाल थीं किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी अपने नियम में बने रहे अपने समय पर ही केशलोंच किया, समय को नहीं टाला कर्मों को ही टलना पड़ा। बाद में र्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन हुआ। इस तरह ३१ जुलाई को महाप्रभावना हुई। जिसमें मुख्य आकर्षण मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का था। कारण कि मुनि उपवास के दिन सुबह जुलूस में चले, केशलोंच किया और फिर मार्मिक प्रवचन भी दिया। इस शक्तिमय साधना को देख सकल समाज बहुत अधिक प्रभावित हुई। इस सम्बन्ध में श्रीपति जी जैन ने जैन मित्र' सूरत अखबार में समाचार भेजा जो १४-०८-१९६९ को प्रकाशित हुआ। इस प्रकार अजमेर में मनोज्ञ मुनिराज श्री विद्यासागर जी की साधना एवं ज्ञान का परिपाक देखकर अज्ञानी शंकालू साम्प्रदायिक मिथ्यादृष्टियों की बोलती बंद हो गई। ऐसे गुरु-शिष्य के पावन चरणों में नतसिर प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  23. पत्र क्रमांक-११० १८-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अनियत विहारी, प्रकृति सहचर, निश्चिन्त, निरपेक्ष गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के भव्यार्चित पादकमलों में भावार्घ समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! ०५-०७-१९६९ को आपने महापूत जिनालय (सोनी नसियाँ) से विहार किया तब परिदृश्य के साक्षी श्रीमान् इन्दरचंद जी पाटनी ने मुझे लिखाया वह मैं आपको सादृश्य प्रत्यभिज्ञान हेतु लिख रहा हूँ... आत्मबल का प्रतीक भीषण गर्मी में विहार ‘‘विहार का समाचार पाते ही सैकड़ों लोग उपस्थित हो गए सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब ने हाथ में श्रीफल लेकर निवेदन किया गुरु महाराज! आपकी वयोवृद्ध अवस्था और मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज एवं सुकुमार देही मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज नवदीक्षित हैं और बुजुर्ग क्षुल्लक महाराज हैं, सभी की स्थिति को देखते हुए, दो आषाढ़ के भयंकर ग्रीष्म के थपेड़ों के मध्य विहार करना हमें उचित नहीं लगता। तब आचार्य महाराज बोले- ‘‘गृहस्थजन चार दीवारी में रहना पसंद करते हैं। साधुओं की यही तो साधना होती है वे प्रकृति के साथ मिलकर चलते हैं। यह कहकर गुरु महाराज ने विहार कर दिया और ८ कि.मी. चलकर शाम को माखुपुरा में रुके। माखुपुरा में पाटनी जी द्वारा निर्मित चैत्यालय के आश्रय में विश्राम किया। ६ तारीख को माखुपुरा में ही आहारचर्या हुई । सामायिक के पश्चात् सर सेठ भागचंद जी सोनी, छगनलाल जी पाटनी, कैलाशचंद जी पाटनी, प्रा. निहालचंद जी, पं. विद्याकुमार जी सेठी आदि गणमान्यों ने माखुपुरा पहुँचकर आचार्य संघ के दर्शन किए और सेठ साहब ने निवेदन किया-‘‘आचार्य महाराज! अजमेर समाज अंतरंग से आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमोऽस्तु करके प्रार्थना करती है कि आप संघ सहित अजमेर में ही चातुर्मास स्थापित करें। गर्मी की प्रचण्डता और स्वास्थ्य को देखते हुए। आप हम लोगों की विनती पर ध्यान देंगे इस आशा से हम लोग यहाँ आए हैं। आपके विहार का शगुन हो गया अब आप वापिस चलें और हम लोगों को धर्माराधना के लिए सान्निध्य प्रदान करें।पण्डित विद्याकुमार जी सेठी बोले-“आचार्य महाराज! मुनि विद्यासागर जी का अध्ययन अभी पूर्ण नहीं हुआ है और उनके ज्ञानार्जन के लिए अजमेर उपयुक्त बैठता है। अतः अपने लिए न सही विद्यासागर जी के लिए आप विचार कर ही सकते हैं और हम लोग आपकी धर्म साधना के विपरीत तो सोच ही नहीं सकते। अतः हम लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दें और अजमेर में चातुर्मास हेतु अनुमति प्रदान करें । जिससे हम लोग अपनी व्यवस्था बना सकें। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भी २०१५ में भीलवाड़ा में बताया-‘‘जब अजमेर के लोगों ने गुरु महाराज से अजमेर में १९६९ का चातुर्मास करने के लिए निवेदन किया। तब गुरुवर ने हँसते हुए कहा-''अजमेर नसियाँ में तो चातुर्मास हो ही गए हैं। अब देखो ‘काललब्धि बलते दयाल समय पर जो हो जावे सो ठीक है।'' और शाम को विहार कर दिया। माखुपुरा से ६ कि.मी. चलकर बीर ग्राम चौराहे पर अन्य समाज की धर्मशाला में रुके।७ तारीख को सुबह बीर ग्राम चौराहे पर आहारचर्या हुई और बीर ग्राम की समाज ने आहारदान देकर पुण्यार्जन किया। शाम को ५ कि.मी. चलकर बीर ग्राम में प्रवेश किया। बीर ग्राम की समाज में लगभग १५ घर हैं और ३ प्राचीन मन्दिर हैं। समाज ने संघ की भव्य आगवानी की। दूसरे दिन बीर से ही मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज ने आचार्य महाराज से निवेदन कर नसीराबाद की ओर विहार किया और वहाँ जाकर १९६९ का चातुर्मास किया। बीरग्राम में बुधवार को अजमेर के कुछ भक्त लोग गुरु महाराज के स्वास्थ्य की जानकारी लेने हेतु पहुँचे। तब चर्चा के दौरान गुरु महाराज बोले-ज्यादा तो चल नहीं पाऊँगा और चातुर्मास का समय निकट आ रहा है। तब भक्त लोग बोले महाराज सेठ साहब ने निवेदन तो किया ही है आप अजमेर पधारें नसियाँ में चातुर्मास करें। तो गुरु महाराज बोले-केसरगंज में भी तो समाज है, अच्छा मन्दिर है, सोचेंगे।" आपकी हर क्रिया के समाचार पत्रकारों की नजरों से बच नहीं पाते थे। यही कारण है कि जन सामान्य को आपकी हर जानकारी लौकिक या धार्मिक समाचार पत्रों से शीघ्र मिल जाया करती थी किन्तु आपके आशय से अनुमान लगाकर निर्णय रूप में छगनलाल जी पाटनी ने १७-०७-१९६९ गुरुवार ‘जैन गजट' में प्रकाशित कराया कि गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने केसरगंज में चातुर्मास की घोषणा की। इसकी कटिंग मुझे इन्दरचंद जी पाटनी ने दी । वह मैं आपको बता रहा हूँ- चातुर्मास निश्चित ‘‘श्री १०८ चारित्रविभूषण ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास अजमेर के केसरगंज मन्दिर जी में होना निश्चित हो गया है। पूज्य महाराज श्री ने इस आशय की घोषणा बीरग्राम में की। महाराज श्री ससंघ शनिवार को यहाँ पधारेंगे। ज्ञातव्य है कि ०५-०७-६९ को संघ ने बीरग्राम के लिए विहार किया था।" इस तरह आप आगम के सच्चे साधु की भांति कभी भी किसी को वचन देकर बँधते नहीं थे अपितु रहस्यमयी भविष्य की गोद में भाग्य भरोसे परिणमन को डाल देते थे। आपकी साधना की दृढ़ता के किस्से सुन हम शिष्यानुशिष्यों को अपने दादागुरु पर गौरव होता है और हम पोतों को भी साधना के लिए साहस और सम्बल मिलता है। जिस तरह की दृढ़ता आप रखते थे। आपके चरणानुगामी मेरे गुरु में भी वही दृढ़ता आज हम लोग देखते हैं। जिस तरह से आप अपनी चर्या में किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे। इसी तरह आपके आज्ञावर्ती मेरे गुरु अपनी आगमिक चर्या में किसी का भी हस्तक्षेप पसंद नहीं करते और न ही किसी को वचन देते हैं। उन्होंने अपने काव्य में लिखा है कि “गुरु ने कहा किसी को वचन नहीं देना कोई भव्य मुमुक्षु आ जाए तो आत्मकल्याण का प्रवचन अवश्य देना।'' यही हम शिष्यों को भी संस्कार दिया और दे रहे हैं। धन्य हैं आप गुरु-शिष्य, धन्य हुए हम शिष्यानुशिष्य। नमस्कार करते हुए... आपका शिष्यानुशिष्य
  24. पत्र क्रमांक-१०९ १७-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर समयसारमय ज्ञानयज्ञ के आहुति दाता आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की पावन पद वंदना करता हूँ... हे गुरुवर! आप जब आगम शास्त्रों का अध्ययन कराते तब आत्मानुभूति में ऐसे खो जाते कि उसकी आनंदानुभूति मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को होती और वे इस आनंदानुभूतिरूप आत्मसंवेदन ऊरने के लिए आपकी आज्ञा लेकर जब कभी आंतेड़ की छतरियों के एकान्त में विलय को प्राप्त हो जाते। ऐसे ही प्रथम मुनि दीक्षा दिवस से पूर्व दीक्षा के समय की आत्मानुभूति करने के लिए आप से अनुमति लेकर निकल पड़े अन्तर्यात्रा पर। इस सम्बन्ध में कन्हैयालाल जी जैन (केसरगंज) ने १३-११-२०१५ को भीलवाड़ा में संस्मरण सुनाया जो मैं आपको लिख रहा हूँ- दीक्षा के समय के भावों की अनुभूति जंगल में ‘‘१९ जून को हम लोगों ने भजन गायककार प्रभुदयाल जी के साथ मीटिंग की और रात्रि में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की सन्निधि में उनको अच्छे-अच्छे भजन सुनाकर भक्ति करने का भाव बनाया और ८ बजे शाम को जैसे ही वहाँ पहुँचे, तो वहाँ पर मुनि श्री विद्यासागर जी नहीं मिले । ब्रह्मचारी श्री दीपचंद जी छाबड़ा से पूछा महाराज कहाँ हैं तो उन्होंने कहा हमें भी नहीं पता गुरु जी से पूछो तब हम लोग सामायिक के पश्चात् आचार्य महाराज ज्ञानसागर जी के पास गए, उनसे पूछा महाराज! विद्यासागर जी महाराज नहीं दिख रहे हैं? तब ज्ञानसागर जी महाराज ने इशारा करके बताया कि वे छतरियों में ध्यान करने गए हैं। तब हम लोग छतरियों में नहीं जा सके कारण कि छतरियाँ नसियाँ से ३ कि.मी. दूर जंगल में हैं। उस समय वहाँ तक जंगल था और जंगली जानवर आते रहते थे। सुबह हम लोग नसियाँ जी गए तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज वहाँ से वापिस आ गए थे। प्रभुदयाल जी ने कहा महाराज हम लोग रात में आपको भजन सुनाने आए थे, आप नहीं मिले। तब महाराज बोले-“हम आत्मभजन सुन रहे थे। तो हम लोगों ने पूछा रात कैसी निकली? बोले-पता ही नहीं चला सुबह कब हो गई।'' हे गुरुवर! इस तरह आपके द्वारा दिया ज्ञान विद्या को विद्यासागर जी समय-समय पर अनुभूत करते रहते थे और आप दृढ़ विश्वास से भर गए होंगे कि यह लाड़ला शिष्य आत्मा की गहराईयों में डूबडूबकर आत्मरस का रसास्वादन करेगा और कुन्दकुन्दाचार्य की एक-एक गाथाओं को चरितार्थ करेगा। दोपहर में मुनि दीक्षा दिवस समारोह का भव्य आयोजन हुआ। जिसके सम्बन्ध में इन्दरचंद जी पाटनी ने बताया कि ‘‘मध्याह्न की सामायिक के पश्चात् मुनिसंघ मंच पर विराजमान हुआ तब गीतकार गायक प्रभुदयाल जी ने स्वरचित मुनि श्री विद्यासागर जी की पूजन रचाई। तत्पश्चात् विनयांजली सभा आयोजित हुई और अंत में ब्यावर समाज, नसीराबाद समाज, किशनगढ़ समाज और केसरगंज समाज के प्रतिनिधियों ने एवं अजमेर की ओर से सर सेठ भागचन्द जी सोनी साहब ने श्रीफल चढ़ाकर अपने-अपने यहाँ पर चातुर्मास कराने हेतु निवेदन किया।'' पाटनी जी ने २६ जून १९६९ ‘जैन मित्र' अखबार सूरत की एवं २९ जून १९६९ गुरुवार ‘जैन गजट' अजमेर की दो कटिंग मुझे दीं, जिसे मैं आपको बता रहा हूँ- पूज्य मुनि विद्यासागर जी का प्रथम दीक्षा जयन्ती उत्सव ‘‘गत २० जून ६९ को स्थानीय सेठ सर भागचन्द जी सा. सोनी की नसियाँ जी में मध्याह्न १ बजे से पूजा-पाठादि विशेष कार्यक्रमों सहित पूज्य श्री १०८ आचार्य ज्ञानसगार जी महाराज के प्रथम दीक्षित युवक शिष्य पूज्य मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का प्रथम दीक्षा जयन्ती समारोह सोत्साह मनाया गया। विविध कार्यक्रमों के बाद ३ बजे से नसियाँ जी में ही श्री रा.ब. सेठ सर भागचन्द जी सा. सोनी की अध्यक्षता में एक विशाल सभा हुई। जिसमें स्थानीय दैनिक नवज्योति के समाचार सम्पादक श्री मोहनराज जी भण्डारी, सर्व श्री सुन्दरलाल जी सोगाणी एडव्होकेट, पं. विद्याकुमार जी सेठी, पं. हेमचन्द्र जी शास्त्री एम.ए., ब्र. मुख्तारसिंह जी एवं ब्र. महाराजप्रसाद जी हस्तिनापुर, मा. मनोहरलाल जी तथा युवक ब्र, दीपचन्द जी ने पूज्य मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के त्यागमय जीवन पर प्रकाश डाला। अनन्तर माननीय अध्यक्ष महोदय के प्रेरणाप्रद भाषण के बाद पूज्य आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी तथा पूज्य विद्यासागर जी महाराज के मार्मिक प्रवचन हुए। । अन्त में समारोह के संयोजक श्री निहालचन्द्र जी जैन द्वारा आभार प्रदर्शन के बाद कलशाभिषेक हुआ।'' इस प्रकार आपके चरणानुगामी मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के ज्ञान-ध्यान-तप से हर कोई प्रभावित था। समाज का हर वर्ग चाहे विद्वान् हो, चाहे भक्त हो, चाहे महिला हो, चाहे पुरुष हो, चाहे युवा हो, चाहे जैन हो, चाहे अजैन हो सभी मनोज्ञ मुनि श्री विद्यासागर जी की संगति किसी न किसी रूप में करने की कोशिश करते । ऐसा ही एक संस्मरण टीकमचंद जी जैन (चांपानेरी) ने दिसम्बर २०१४ को मुझे सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ- प्रतिदिन परीक्षा ‘‘सन् १९६९ की जून की गर्मी में सोनीजी की नसियाँ में हमने देखा मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज घण्टों-घण्टों स्वाध्याय करते रहते थे। कोई भी आ जाए तो नजर तक उठाकर नहीं देखते थे। मैं रोज जाता कभी सुबह, कभी दोपहर, कभी शाम और कभी रात में जाता, पर वे आशीर्वाद तक नहीं देते, पढ़ते रहते थे। ५-७ दिन बाद हम लोगों ने नमोऽस्तु किया तो हम लोगों के सौभाग्य से उन्होंने बिना देखे ही आशीर्वाद रूप हाथ उठा दिया। तब हमने पूछा महाराज आप इतना क्यों पढ़ते हैं क्या कोई परीक्षा दे रहे हैं? तो बोले-गुरु महाराज की परीक्षा प्रतिदिन देना पड़ती है, जितना वे पढ़ाते हैं उतना दूसरे दिन सुनाना पड़ता है, तभी वे आगे पढ़ाते हैं।'' | इस तरह विद्यासागर जी आपकी ही तरह एक पल भी अपना यहाँ-वहाँ की बातों में बिताया नहीं करते थे। जिन्दगी का एक-एक क्षण बेहद कीमती है, यह मुनि श्री विद्यासागर जी से अधिक कोई नहीं जानता था। आपने जितना ज्ञान-भोग बना-बनाकर खिलाया, आपका लाड़ला खाता ही चला गया। न खिलाने वाला थका और न खाने वाला अघाया। आप दोनों को एक-दूसरे की इतनी चिंता थी कि दोनों ही गुरु-शिष्य अपने आवश्यकों को पालकर शेष समय एक-दूसरे के लिए विनियोजित कर देते थे। आप शिष्य का निर्माण करते और शिष्य आपकी आज्ञा पालकर आपको निर्विकल्प बनाता । ये अनुग्रह और श्रद्धारूप शुद्ध प्रेम की हमजोली के बिना सम्भव नहीं था। ऐसे शुद्ध-प्रेमी गुरु-शिष्य के चरणों में दिल की गहराई से उपजे आस्थारूप प्रेम को समर्पित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  25. पत्र क्रमांक-१०८ १६-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर समता के मेरु, धीर-वीर-गम्भीरता के सागर, चारित्र के हिमालय ज्ञान के अमृत कुण्ड परमश्रद्धेय दादा गुरु के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन... हे गुरुवर! जब आप महावीर जयंती महोत्सव पर अजमेर में सम्मिलित हुए और नसियाँ से केसरगंज की ओर विहार कर केसरगंज में कुछ दिन का प्रवास किया तब उस प्रवास के कुछ संस्मरण हमने सुने वह मैं आपको क्रमशः लिख रहा हूँ- महावीर जयन्ती महोत्सव की महत् प्रभावना इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने ‘जैन मित्र' २४-०४-१९६९ की एक कटिंग दी जिसमें छगनलाल जी पाटनी का समाचार इस प्रकार छपा हुआ है- “अजमेर में ३१-०३-१९६९ को प्रातःकाल महावीर जयन्ती के जुलूस में पूज्य आचार्य ज्ञानसागर जी के ससंघ पधारने से महती धर्म प्रभावना हुई। साथ ही मध्याह्न में जैन वीरदल के तत्त्वावधान में आयोजित समारोह में सरावगी मोहल्ला में महाराजश्री के प्रधान शिष्य मुनि श्री विद्यासागर के प्रवचन से महती धर्म प्रभावना हुई थी। उसी समय कलशाभिषेक एवं पूजन-भजन आदि भी श्री दिगम्बर जैन संगीत मण्डल अजमेर द्वारा हुए तथा साथ ही जैन वीरदल की वार्षिक रिपोर्ट श्री भागचंद जी गोधा, मंत्री द्वारा पढ़ी गई। पश्चात् महाराज श्री ने महावीर जैन पुस्तकालय का भी अवलोकन किया। रात्रि को ८ बजे स्ट्रिक्ट एण्ड सेशन जज श्री सरदारसिंह जी राठौड़ की अध्यक्षता में एक आम सभा हुई जिसमें जैन तथा जेनेतर विद्वानों के भगवान महावीर के सिद्धान्त एवं जीवन पर सारगर्भित भाषण हुए साथ ही कवि सम्मेलन का भी आयोजन हुआ।" धर्मप्रभावना रथ के सारथी इन्दरचंद जी पाटनी ने बताया-'' अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज नसियाँ से विहार करके केसरगंज चले गए थे। केसरगंज गुरुभक्त समाज ने अत्यंत प्रसन्न होकर अगवानी की। प्रतिदिन केसरगंज में धर्मप्रभावना होने लगी किन्तु आपका स्वास्थ्य बिगड़ जाने से अजमेर समाज चिंतित थी। सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब अजमेर के प्रसिद्ध वैद्यराज श्री सूर्यनारायण जी को केसरगंज लेकर गए थे और गुरुजी की सेवा में सोनी जी हर क्षण तत्पर रहते थे एवं मुनि श्री विद्यासागर जी, मुनि श्री विवेकसागर जी और ऐलक श्री सन्मतिसागर जी आदि गुरु महाराज की सेवा में अहर्निश सावधान रहते थे। चतुर्दशी के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज आदि सभी एक साथ सुनाते थे। सुबह भी भक्ति आदि मुनि श्री विद्यासागर जी सुनाते थे और संघस्थ दोनों मुनिराज धर्म प्रभावना की बागडोर अपने हाथों में सम्भाले हुए थे।'' मुनि श्री विद्यासागर जी का केशलोंच सम्पन्न अप्रैल माह में महावीर जयन्ती के बाद मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने दीक्षोपरान्त तीसरा केशलोंच किया। तब मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज का उद्बोधन हुआ। अन्य वक्ताओं ने भी मुनियों के गुणानुवाद किए। इस तरह आपके अस्वस्थ रहते हुए मुनि द्वय धर्म प्रभावना की जवाबदारी अपनी कुशलता से पूरी कर रहे थे। इस सम्बन्ध में छगनलाल जी पाटनी जी ने ‘जैन गजट' में २४-०४-१९६९ को एक समाचार प्रकाशित कराया- "अजमेर - यहाँ वयोवृद्ध चारित्रविभूषण ज्ञानमूर्ति श्री १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ससंघ विराजमान हैं। प्रतिदिन प्रातः व मध्याह्न में संघस्थ मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी तथा श्री विवेकसागर जी महाराज का प्रभावशाली उपदेश होता है। आचार्य श्री का स्वास्थ्य निरंतर सुधार पर है। महती धर्मप्रभावना हो रही है।'' युवा मुनि श्री विद्यासागर जी : युवाओं के आकर्षण के केन्द्र दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने मुझे भीलवाड़ा चातुर्मास-२०१५ में बताया कि “मैंने २२-०५-१९६९ को केसरगंज में १८ वर्ष की उम्र में आकर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से ब्रह्मचर्य व्रत लेकर संघ में प्रवेश किया। कारण कि युवा मनोज्ञ मुनि श्री विद्यासागर जी की दीक्षा के समय से ही उन्हें देख-देख मन में वैराग्य बढ़ता गया। उनका ज्ञान-ध्यान-तप देखकर संसार असार दिखने लगा। तब एक दिन निर्णय करके आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पास पहुँच गया और उनसे आत्मकल्याण का निवेदन किया। तब गुरुजी बोले- 'अभी व्रत लेकर साधना करो, पीछे दीक्षा के लिए सोचेंगे' और हमने नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर संसार का त्याग कर दिया। गुरु के संकेत पर केसरगंज समाज के एक महोदय ने मुझे सफेद धोती-दुपट्टा लाकर दे दिए और एक पीतल की केन लाकर दी।'' धन्य हैं गुरुवर! आपने ऐसा हीरा तराशा कि उसकी चमक से असली जौहरी आकर्षित होने लगे। यह सब आपकी महिमा है। आपने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण सरस्वती की सेवा में लगाया और वृद्धावस्था में सरस्वती पुत्रों को जन्म देने के लिए अन्तिम क्षणों को भी श्रमण संस्कृति के लिए समर्पित कर दिया। आपके बारे में जब कभी कोई बताता है तो मुझे अपने दुर्भाग्य पर रोना आ जाता है कि मुझे आपके श्रीचरणों के दर्शन, सन्निधि, सेवा से वंचित रखा। आपने अथाह परिश्रम कर श्रमण संज्ञा को सार्थक कर दिया। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा नांदसी वालों ने मुझे ०४-११-२०१५ भीलवाड़ा में लिखकर दिया वह मैं आपको बता रहा हूँ- सरस्वतीपुत्र आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का ज्ञानदान ‘‘तेज गर्मी और वृद्धावस्था के बावजूद भी अस्वस्थता के चलते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज केसरगंज के ग्रीष्मकाल प्रवास में संघस्थ साधुओं एवं ब्रह्मचारियों को आगम एवं शास्त्रों का स्वाध्याय कराते थे। सुबह आचार्य समन्तभद्र स्वामी रचित रत्नकरण्डक श्रावकाचार, मुझे पढ़ाते थे। प्रतिदिन चार श्लोक पढ़ाते और दूसरे दिन कण्ठस्थ सुनते थे। शाम को ब्रह्मचारी जमनालाल जी गंगवाल खाचरियावास वालों को क्रियाकोश पढ़ाते थे। दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी एवं मुनि श्री विवेकसागर जी को बड़े आगम ग्रन्थ पढ़ाते थे। तब भीषण गर्मी पड़ रही थी, दिनभर लू के थपेड़े चलते थे फिर भी आचार्य श्री ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ५-५ घण्टे संघ को पढ़ाया करते थे। उस वक्त दिन में कभी उन्हें लेटे नहीं देखा। उन्होंने १२-१३ वर्ष की अवस्था से जिनवाणी पढ़ना शुरु कर दिया था और जीवनभर पढ़ते रहे। जैनाचार्यों का ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जो उन्होंने न पढ़ा हो। पढ़ने के साथ-साथ वे उन ग्रन्थों के अध्ययन से चारों अनुयोगों में इतने पारंगत थे कि वे कोई भी ग्रन्थ हम शिष्यों को पढ़ाते तब स्वयं पुस्तक नहीं देखते थे अपितु हम शिष्य पुस्तक में से उच्चारण करते तो वे उसका सही उच्चारण एवं अर्थ-भावार्थ-विशेषार्थ समझा देते थे। इस तरह केसरगंज में संघ की तपस्या-ज्ञानसाधना निर्बाध चल रही थी। आगमयुक्त चर्या को देखकर अजमेर जैन समाज के प्रबुद्धवर्ग सन्त समागम करने हेतु केसरगंज प्रतिदिन उपस्थित होते। दिगम्बर जैन जैसवाल समाज केसरगंज ने २-३ रविवारीय प्रवचन के पूर्व मुनि संघ के समक्ष अपनी प्रार्थना रखी कि इस वर्ष का चातुर्मास केसरगंज में स्थापित करें। जिससे हम सभी संघ के साथ में धर्मार्जन कर सकें। अजमेर समाज के शिरोमणि सर सेठ भागचंद जी सोनी आदि गणमान्य समाज श्रेष्ठियों ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के पास आकर निवेदन किया कि २०-०६-१९६९ आषाढ़ शुक्ल पंचमी को मनोज्ञ मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रथम दीक्षा दिवस को समारोह पूर्वक नसियाँ जी में मनाना चाहते हैं, आप आशीर्वाद प्रदान करें। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने मौन आशीर्वाद प्रदान किया।" श्रुतपंचमी महोत्सव में बही विवेक-विद्या-ज्ञान त्रिवेणीधारा दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- “ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी २१ मई बुधवार १९६९ को दोपहर में श्रुतपंचमी महोत्सव आचार्यसंघ के सान्निध्य में केसरगंज दिगम्बर जैन समाज ने मन्दिर के अन्दर मनाया। प्राचीन आचार्यों के चारों अनुयोगों सम्बन्धी ग्रन्थों को विराजमान करके बड़े ही भक्ति कीर्तन के साथ अष्टद्रव्यों से पूजन की गई। फिर सभी साधु वृन्दों को शास्त्र भेंट किए गए। तदुपरान्त परमपूज्य मुनि श्री विवेकसागर जी, परमपूज्य मनोज्ञ मुनि श्री विद्यासागर जी, परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के प्रासंगिक प्रवचन हुए। कुछ लोगों ने नित्यप्रति स्वाध्याय करने के नियम लिए। अन्त में सर सेठ भागचंद जी सोनी आदि गणमान्यों ने पुनः श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया कि परमपूज्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रथम मुनिदीक्षा दिवस आषाढ़ शुक्ला पंचमी २० जून को आ रहा है हम सब की भावना है कि आचार्य संघ के सान्निध्य में नसियाँ जी में मुनिवर का दीक्षादिवस मनाया जाए। अतः आप आशीर्वाद प्रदान करें हम सब भक्तिभाव से महोत्सव को मना सकें। तब आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने मुस्कुराते हुए आशीर्वाद दिया। दूसरे दिन केसरगंज समाज ने श्रीफल चढ़ाया और निवेदन किया कि परमपूज्य मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रथम दीक्षा दिवस केसरगंज में ही मनाया जाए। अचानक जून के प्रथम सप्ताह में गुरुजी ने विहारकर दिया और सुबह-सुबह नसियाँ जी पहुँच गए।'' इस तरह हे गुरुवर! आपके ज्ञानामृत के रसास्वादन का व्यसन और सर्व परीक्षाओं में पूर्णउत्तीर्ण मनोज्ञ मुनिराज श्री विद्यासागर जी की चारित्र सुगंधी के रसिक जन विशेषतः सरसेठ भागचंद जी सोनी एवं विद्वद्वर्ग आपश्री संघ का समागम नित्य करने के लिए आपके सान्निध्य की तृष्णा रखते । ऐसे भावलिंगी गुरुद्वय के चरणों का सामीप्य पाने हेतुभाव वन्दना करता हूँ। आपका शिष्यानुशिष्य
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