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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१५६ १५-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर समर्थ-सम्पूर्ण-अदीन-अयाचक आत्म स्वभाव के साधक दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दना करता हूँ.. हे गुरुवर ! जिस प्रकार नीम के सहारे ऊपर चढ़ने वाली गुरबेल लता में नीम का प्रभाव भी आ जाने से वह कई गुना गुणकारी हो जाती है। ठीक इसी प्रकार गुरु के सहारे चलने वाला शिष्य भी गुरु स्वभाव के प्रभाव में आता है और वैसा ही बनता है। जिस प्रकार आप बचपन से ही स्वाभिमानी थे। किसी से कुछ नहीं माँगते थे न ही लेते थे। आपने गमछे बेचकर शास्त्री की और त्यागीव्रती जीवन में किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखी उसी प्रकार आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरुवर भी किसी से कुछ नहीं माँगते, यहाँ तक की संघस्थ क्षुल्लक ऐलक ब्रह्मचारियों से भी नहीं। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में ०७-११-२०१५ को बताया- अयाचकवृत्ति के धनी मुनि श्री विद्यासागर जी ‘‘मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने काफी काव्य रचनाओं का सृजन किया। वे कॉपी में लिखा करते थे। उन दिनों डॉट पेन एवं फाऊन्टेन पेन मुनिगण उपयोग नहीं करते थे। सूखे काले रंग से हाथ से बनाई गई स्याही का उपयोग करते थे और कलम या निब वाले होल्डर से डुबो डुबो कर लिखा करते थे। संघस्थ ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज मुनि श्री के लिए सूखे काले रंग को एक कटोरी में डालकर कमण्डलु के प्रासुक जल से घोलकर स्याही बनाते थे और मुनि श्री विद्यासागर जी उस स्याही का उपयोग उसी दिन ही करते थे दूसरे दिन नहीं क्योंकि वह अप्रासुक हो जाया करती थी और स्वयं स्याही मांगा नहीं करते थे। समाप्त हो जाने पर मौन रहते थे। १-१.२-२ दिन स्याही नहीं मिलती तो भी वे अपनी अयाचकवृत्ति नहीं छोड़ते थे। उनकी यह वृत्ति दिगम्बरत्व की स्वाभिमानपूर्ण चर्या को दर्शाती थी।" | हे दादा गुरुवर! आपके लाड़ले शिष्य की लेखनी का जादू चल पड़ा और साहित्य सर्जन यात्रा अनवरत जारी रही। प्राप्त पाण्डुलिपि में २६-०७-१९७१ को प्रतिलिपि की गई फलतः दूर होता भवकूल वीतराग जीवनोपवन में, निवेशता जब राग प्रभंजन। उन्मूलित तत्क्षण मूल से ही, सुचिदानन्द-नग जान सांजन। वस्तुतः निमंत्रण देना रे, सहचर! राग को विसार भूल, फलतः दूर होता भवकू ल ॥१॥ तथा क्रोधाग्नि धधक-धधक औ, संतप्त हो हे लया उठती। यथा वन गहन में दावा रे!, पवन रथ से ज्वलित हो बढ़ती। यों सुधर्म-द्रुमों को जलाती, जो हैं सुखद-नितांत अनुकूल, फलतः दूर होता भव कूल ॥२॥ आश्रव सहायक राग-लघु-चल, कंपाता विकृत-जीव-द्रुम को। दु:ख प्रदायक संवररोधक, यों गिराता संवर-कुसुम को। खेद सम-समय में उड़-उड़ आ, हा! हा! (उमड़ते ?) वसु-कर्म शूल, फलतः दूर होता भवकूल ॥३॥ यही राग-पवन द्रुत पातता, ज्ञान-दर्शन-हृद में अघ धूल। हाय! इसी के प्रभाव से ही, पत बनता तप विपरीत झूल। ‘विद्या' अथवा क्षण मात्र में हि, भूलुंठित हो निर्जरा-फूल, फलतः दूर होता भवकूल ॥४॥ शारदा स्तुति मेरे गुरुदेव ने किशनगढ़-मदनगंज में संस्कृत भाषा में श्री सरस्वती स्तोत्र का प्रणयन किया, जिसका नामकरण उन्होंने 'शारदा स्तुति' किया है। इस स्तोत्र की प्रतिलिपि २९-०७-१९७१ को की गई है। यह स्तुति द्रुतविलम्बित १२ छन्दों में लिखी गई है उसके बाद इन छन्दों का हिन्दी में पद्यानुवाद भी किया है। जो कि प्रकाशित होकर आपके पास पहुँची है। जिसका प्रथम श्लोक दृष्टव्य है- जिनवरानननीरजनिर्गते, गणधरैः पुनरादरसंश्रिते। सकलसत्त्वहिताय वितानिते, तदनु तैरिति हे! किल शारदे ॥१॥ जिन मुख पंकज से निकली हो, सविनय ऋषियों से बिखरी हो। सकल लोक का हित हो, तम को हरो शारदे ! वर दो हमको ॥१॥ कल्याणमन्दिर स्तोत्र का पद्यानुवाद आचार्य कुमुदचंद्र विरचित इस संस्कृत स्तोत्र में ४३ काव्य वसन्ततिलका छन्द एवं १ काव्य आर्या छन्द में है जिनका पद्यानुवाद भी आपके लाड़ले शिष्य ने ४३ काव्य वसन्ततिलका छन्द तथा १ काव्य आर्या छन्द में ही किया है। प्रतिलिपिकार ने १२-१०-१९७१ को प्रतिलिपि की। जो कृति प्रकाशित होकर आप तक पहुँची है। जिसका प्रथम एवं अन्तिम श्लोक के पद्यानुवाद दृष्टव्य हैं- कल्याण-खाण-अघनाशक औ उदार, हैं जो जिनेश-पद-नीरज विश्वसार। संसारवार्धि वर पोत! स्ववक्षधार, उन्हें यहाँ नमन मैं कर बार-बार ॥१॥ जननयन कुमुदचन्द्र!, परमस्वर्गीय भोग को भोग। वे वसुकर्म नाशकर, पाते शीघ्र मोक्ष को लोग ॥४४॥ एकीभाव स्तोत्र पद्यानुवाद मुनि श्री वादिराजकृत संस्कृत भाषा में एकीभाव स्तोत्र की रचना उपलब्ध है। जिसमें २५ काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में हैं और २६वां आर्या छन्द में हैं। इनका पद्यानुवाद मेरे गुरुवर ने मन्दाक्रान्ता छन्द में २५ काव्यों एवं अन्तिम दो छन्द वसन्ततिलका छन्द में किए हैं। जिसकी प्रतिलिपिकार ने १०-१२-१९७१ को प्रतिलिपि की है। यह कृति भी प्रकाशित होकर आपके पास पहुँच चुकी है। जिसके प्रथम एवं अन्तिम दो छन्द दृष्टव्य हैं- मेरे द्वारा, अमित भव में, प्राप्त नो कर्म सारे, तेरी प्यारी, जबकि स्तुति से, शीघ्र जाते निवारे । मेरी को, क्या, फिर वह न ही, वेदना से बचाती? स्वामी ! सद्यः लघु, दुरित को क्या नहीं रे भगाती? ॥१॥ त्रैलोक्य पूज्य यतिराज सुवादिराज, आदर्श सादृश सदा वृष-शीश-ताज। वन्दें तुम्हें सहज ही सुख तो मिलेगा, ‘विद्यादिसागर' बनँ दुख तो मिटेगा । इष्टोपदेश का पद्यानुवाद आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने संस्कृत भाषा में भटके हुए संसारी जीवों के लिए ५० अनुष्टुप छन्दो में और १ वसन्ततिलका छन्द में इष्टोपदेश नामक ग्रन्थ की रचना की। जिसका पद्यानुवाद मेरे गुरुवर ने ५२ वसन्ततिलका छन्द में किया है। जिसकी प्रतिलिपिकार ने १२-१२-१९७१ को प्रतिलिपि की है। यह प्रकाशित कृति भी आपके देखने में आ गई होगी। पुनश्च प्रथम एवं अन्तिम छन्द दृष्टव्य है- दुष्टाष्ट कर्म दल को करके प्रनाश, पाया स्वभाव जिनने, परितः प्रकाश। जो शुद्ध हैं अमित, अक्षय बोधधाम, मेरा उन्हें विनय से शतशः प्रणाम ॥१॥ थे भव्य-पंकज-प्रभाकर पूज्यपाद, था आपमें अति प्रभावित साम्यवाद। वन्दें उन्हें विनय से मन से त्रिसंध्या ‘विद्या’ मिले, सुख मिले, पिघले अविद्या ॥ समाधितंत्र का पद्यानुवाद १९७१ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ही आचार्य पूज्यपाद स्वामीकृत समाधितंत्र ग्रन्थ के १०५ संस्कृत श्लोकों का मेरे गुरुदेव ने वसन्ततिलका छंद में पद्यानुवाद किया। अन्तिम छन्द में पूज्यपाद स्वामी को नमस्कार करते हुए अपनी भावना व्यक्त की है- थे पूज्यपाद वृषपाल वशी वरिष्ठ, थे आपके न रिपु मित्र अनिष्ट इष्ट। मैं पूज्यपाद यति को प्रणहूँ त्रिसंध्या, ‘विद्यादिसागर' बनँ तज दें अविद्या ॥ योगसार का पद्यानुवाद १९७१ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ही आचार्य योगीन्द्रदेवकृत अपभ्रंश भाषाबद्ध योगसार ग्रन्थ की १०९ गाथाओं का वसन्ततिलका छन्द में पद्यानुवाद किया। इस ग्रन्थ को श्रुत का एवं विश्व का सार बताते हुए अन्तिम छन्द दृष्टव्य है- है योगसार श्रुतसार व विश्वसार, जो भी इसे बुध पढे सुख तो अपार । मैं भी इसे विनय से पढ़ आत्म ध्याऊँ, ‘विद्यादिसागर' जहाँ डुबकी लगाऊँ ॥ पञ्चास्तिकाय की संस्कृत छाया सन् १९७१ मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास में ही परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कृत पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ की शौरसैनी प्राकृत गाथाओं का संस्कृत भाषा में वसन्ततिलका छन्द में अनुवाद किया है। गुरुदेव की संस्कृत भाषा में अनुवाद की यह प्रथम रचना है। यह रचना अभी तक अप्राप्त थी किन्तु ब्राह्मी-विद्याश्रम जबलपुर से प्राप्त पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियों में खोजबीन कर रहा था तब मुझे बिना शीर्षक की एक रचना देखने में आयी, उसे पढ़ते ही पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ से मिलान की तो वह मिल गई। यह देख अत्यधिक हर्ष हुआ जो रचना वर्षों से मिल नहीं रही थी वह हम शिष्यानुशिष्यों के पुण्योदय से मिल गई। जैसा कि जिज्ञासा-समाधान करते हुए डिंडौरी (म.प्र.) में ता. २१-०३-२०१८ को आचार्यश्री ने बताया कि पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ गुम हो जाने के बाद संस्कृत छायानुवाद का अधूरा ही काम हो पाया था। प्रस्तुत प्रति में मुझे भी १५, ५६-७३, ८६-१०४, १०७-११६, १४९-१५१ गाथाओं की छाया प्राप्त नहीं हुई। जैसी की तैसी गुरुदेव के पास पहुँचा दी है। कुछ गाथाओं की छाया दृष्टव्य है- इन्द्रेश्शतैर्मम नमः खलु वन्दितेभ्यः, भूमावमेयगुणकेभ्य उताऽजकेभ्यः। त्रैलोक्यजीवहितसाधनदर्शितेभ्यः निर्दोषशब्दनिचयैर्जितसंसृतिभ्यः ॥१॥ येऽनन्तकाः खलु सदा भुवि तेषु जीवाः, ते पुद्गलारथ च नैकतमो भवन्ति । धर्मो ऽप्यधर्म इह नीरद मार्ग एकः, जानीहि भव्य भवभीत! शिवालयेऽस्मिन् ॥४॥ आत्मार्थसाधकयतिः शिवमार्गरूढो, व्यालङ्कृतो भवति यः खलु संवरेण । आत्मानमेव परिगम्य समर्चते यं, ज्ञानं च सैव नियतं विधुनोति कर्म ॥१४५॥ मार्गप्रभावन य एव जनेन येन, सूत्रं तथा समयभक्तिनिचोदितेन। सारं मया प्रवचनस्य तथेदमस्ति, पञ्चास्तिकायनिचयं गदितं स्वशक्त्या ॥१७३॥ इस तरह आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरुवर ने अन्तर्यात्रा, ज्ञानयात्रा, चारित्रयात्रा, तपयात्रा, प्रभावना यात्रा के साथ-साथ साहित्य सृजन यात्रा के भी यात्री बन गए। ऐसे लोकोपकारी साहित्य सृजनकार गुरु-शिष्य के पावन चरणों में नमोऽस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१५५ १४-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आत्मपरिशीलन निष्ठ योगी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रियोगपूर्वक नमस्कार करता हूँ... हे गुरुवर! मदनगंज-किशनगढ़ समाज की भक्ति-भावना ने आपके पैर थाम लिए और उनके निवेदन पर आपने अपने लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी का दीक्षा दिवस महोत्सव मनाने का आशीर्वाद प्रदान किया। इस सम्बन्ध में किशनगढ़ के दीपचंद जी चौधरी ने १९९५ में बताया था मुनि विद्यासागर जी का तृतीय दीक्षा दिवस महोत्सव “२७ जून आषाढ़ शुक्ला पंचमी दिन रविवार को मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का तृतीय दीक्षादिवस धूम-धाम से मनाया गया और मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की पूजा हुई एवं मुनिश्री का तथा आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज का मार्मिक प्रवचन हुआ। प्रवचन के पश्चात् सकल दिगम्बर जैन समाज मदनगंज-किशनगढ़ ने श्रीफल अर्पित कर चातुर्मास करने का पुरजोर निवेदन किया। समाज की भक्ति-भावना को देखते हुए मौन स्वीकृति देकर गुरुदेव ने ०७ जुलाई १९७१, आषाढ़ शुक्ला १४ बुधवार के दिन संघ सहित उपवास करके आगम विधि-विधान के आलोक में वर्षायोग स्थापन किया। इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट' २९ जुलाई १९७१ को वैद्य मन्नालाल पाटनी का समाचार प्रकाशित हुआ चातुर्मास ‘‘मदनगंज-किशनगढ़ निवासियों के पुण्योदय से प्रातः स्मरणीय ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का ससंघ चातुर्मास यहाँ स्थापित हो गया है। आपके संघ में आपके शिष्य बाल ब्रह्मचारी युवक मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी व श्री १०५ ऐलक सन्मतिसागर जी, श्री १०५ क्षु. सुखसागर जी, क्षु. आदिसागर जी, क्षु. विनयसागर जी व पूज्य आर्यिका माताजी अभयमती जी विराज रहे हैं। संघ के त्यागीगण तपस्वी व शान्त प्रकृति के हैं। नित्य प्रति आचार्य श्री का प्रातः सारगर्भित तात्विक प्रवचन होता है व मध्याह्न में विद्वान् युवक मुनि श्री १०८ श्री विद्यासागर जी का ओजस्वी समयोपयोगी भाषण होता है। यहाँ अपूर्व धर्म प्रभावना हो रही है।'' दीपंचद जी चौधरी ने आगे बताया- मदनगंज-किशनगढ़ ने देखा १९७१ का वर्षायोग ‘‘गुरु-शिष्य की काया की यात्रा तो रुक गई किन्तु ज्ञानयात्रा सतत चलती रही। स्वाध्याय-पठनपाठन-लेखन का कार्य चलता रहा। संघ के सान्निध्य में मुकुट सप्तमी, रक्षाबंधन, पर्युषण पर्व, महावीर निर्वाण महोत्सव एवं कार्तिक अष्टाह्निका में सिद्धचक्र मण्डल विधान तथा पिच्छिका परिवर्तन समारोह आदि सानन्द सम्पन्न हुए।'' इस तरह मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ। ऐसे गुरु-शिष्य जो स्वकल्याण के साथ-साथ परकल्याण में भी निमित्त बनने के शुद्धविशुद्ध भावों को प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१५४ १३-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर जर्जर काया को परमौदारिक काया तक पहुँचाने का लक्ष्यभूत तपश्चरण करने वाले गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूँ... हे गुरुवर! आप जब दांता में थे। तब आपको मदनगंज-किशनगढ़ लाने के लिए दीपचंद जो चौधरी चौका लेकर आपके पास पहुँच थे, किन्तु आप तो कुछ कहते नहीं, तो वे आपके साथ-साथ विहार करते रहे। इस सम्बन्ध में उन्होंने बताया- ‘‘मैं गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के साथ-साथ दांता से चला और साथ में चौका भी लगाता रहा। तब रास्ते में कई देहातों में दिगम्बर जैन मन्दिर तो मिले किन्तु जैन गृहस्थ गाँव छोड़कर जा चुके थे। ऐसी स्थिति को देखकर गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले-‘मारवाड़ी लोग पैसों के पीछे दौड़ते हैं। पैसों के लिए कहीं भी चले जाते हैं। इसलिए कहावत बन गई है-‘जहाँ न जाये बैलगाड़ी, वहाँ जाये मारवाड़ी।' यदि इतना पुरुषार्थ मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने में कर लिया जाये तो जीवन ही सार्थक एवं सफल हो जाये।' दांता से रुलाणां, खाचरियावास, कुली, मिण्डा, भैसलाना आदि होते हुए फुलेरा पहुँचे थे।'' फुलेरा के बारे में महावीर जी तीर्थक्षेत्र से जैनगजट २० मई १९७१ दिन गुरुवार की एक कटिंग प्राप्त हुई। जिसमें शान्तिस्वरूप गंगवाल मंत्री जी का समाचार इस प्रकार है- केशलोंच ‘‘फुलेरा-सोमवार को पूज्य आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का संघ सहित यहाँ पदार्पण हुआ। संघ में दो मुनि, एक ऐलक, दो क्षुल्लक महाराज तथा ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणियाँ आदि हैं। प्रातः परमात्मप्रकाश का स्वाध्याय, मध्याह्न को श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज द्वारा प्रवचन तथा रात्रि को श्री १०५ क्षुल्लक जी द्वारा शास्त्र-सभा होती है। गत बुधवार को प्रातः स्मरणीय श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का केशलोंच हुआ। इसी प्रकार ‘जैन गजट' ३ जून १९७१ को शान्तिस्वरूप जैन गंगवाल मंत्री का एक और समाचार प्रकाशित हुआ- आम जनता के बीच केशलोंच “फुलेरा-यहाँ गत रविवार को परमपूज्य श्री १०८ मुनि विवेकसागर जी महाराज का आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के तत्त्वावधान में केशलोंच हुआ। श्री १०८ मुनि विद्यासागर जी, आचार्य महाराज, श्री १०८ मुनि विवेकसागर जी महाराज तथा श्री १०५ क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज आदि के प्रवचन और श्री पूर्णचन्द जी वकील साँभरलेक आदि का भाषण हुआ। इस प्रकार फुलेरा में आपका १९ मई बुधवार को एवं मुनि श्री विवेकसागर जी का ३० मई रविवार को केशलोंच हुआ। इसके आगे मदनगंज-किशनगढ़ के श्री दीपचंद जी चौधरी ने बताया “फुलेरा में २९ मई ज्येष्ठ सुदी पंचमी शनिवार को श्रुतपंचमी महोत्सव मनाया गया। फिर यहाँ से नरैना, हाटूपुरा, दांतणा होते हुए साखून पहुँचे थे। साखून में सुन्दर जिनालय है। वहाँ पर समाज ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से निवेदन किया कि आपके सान्निध्य में हम लोग मण्डल विधान कराना चाहते हैं। तव सीधे सरल महाराज ने कह दिया विधान आपको करना है हमें नहीं। आप करावो हम तो आशीर्वाद देते हैं। संघ के सान्निध्य में मण्डल विधान सानंद सम्पन्न हुआ। सरल-निरभिमानी आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज उसी समय समाचार मिला कि मदनगंज-किशनगढ़ में परमपूज्य आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज संघ सहित पधार रहे हैं। तब हमने आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से विचार-विमर्श किया के अपने को उनसे पहले पहुँचना है या बाद में। तब सरल स्वभावी निरभिमानी आचार्य श्री ज्ञानसागर जी -हाराज बोले-अपन पहले पहुँचेंगे, वे बड़े हैं, उनकी आगवानी करेंगे और विधान पूरा होने के बाद चार्य महाराज ने विहार कर दिया। साखून से साली पहुँचे, फिर वहाँ से गहलोता, हरमाड़ा होते हुए गभग ११ जून को किशनगढ़ पहुँचे थे। किशनगढ़ में भव्य आगवानी हुई। आचार्य ने की आचार्य की आगवानी दो दिन बाद परमपूज्य आचार्य धर्मसागर जी महाराज मदनगंज-किशनगढ़ पधारे। तब आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज, मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, ऐलक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी, क्षुल्लक विनयसागर जी एवं त्यागीगण सभी ने उनकी आगवानी करने के लिए नगर के बाहर जाकर आगवानी की। सभी ने आपस में नमोऽस्तु, प्रति नमोऽस्तु किया। फिर आचार्य धर्मसागर जी महाराज ने हँसते हुए बड़े ही वात्सल्य भाव से वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का हाथ थाम लिया और धीरे-धीरे आपस में शिष्टाचार की बात करते हुए मन्दिरजी पधारे । मन्दिर जी में उच्चासन पर विराजमान होने को लेकर आपस में एक दूसरे को आग्रह करने लगे। अंत में धर्मसागर जी महाराज ने २ पाटे बराबर लगाने के लिए कहा। फिर एक दूसरे का हाथ पकड़कर दोनों आचार्य बराबर बैठ गए। उसके बाद समस्त संघ विराजमान हुआ। यह अद्भुत दृश्य देखकर हजारों श्रावकों ने तालियों की गड़गड़ाहट कर दोनों आचार्यों के जयकारे लगाये।'' इसी प्रकार मदनगंज-किशनगढ़ के शान्तिलाल जी गोधा (आबड़ा) ने बताया एक गुरु के दो शिष्य-विनय में एक से बढ़कर एक ‘‘दोनों संघ प्रवचन सभा में पहुँचे तो आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज नीचे वाले पाटे पर बैठने लगे तव आचार्य धर्मसागर जी महाराज बोले-आप ऊपर बैठिए। तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले-आप दीक्षा में बड़े हैं, आप ऊपर बैठिए। तब धर्मसागर जी महाराज बोले-ज्ञान बड़ा होता है और आप ज्ञानी हैं। अतः आप ऊपर बैठिए। तब ज्ञानसागर जी बोले-चारित्र पूज्य होता है इसलिए आप बैठिए। तब धर्मसागर जी बोले-हम दोनों एक ही गुरु के शिष्य हैं, धर्म भाई हैं। अतः हम दोनों ही बराबर बैठेंगे। तब दो पाटे बराबर लगाए गए और दोनों ही महाराज एक दूसरे का हाथ पकड़कर बैठ गए।'' इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट' में १७ जून को अभयकुमार जैन एवं २४ जून १९७१ को मोतीचंद सराफ का समाचार प्रकाशित हुआ धर्म प्रभावना एवं मंगल मिलन ‘‘मदनगंज (किशनगढ़)-संघ शिरोमणि प.पू. १०८ आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज मालपुरा से अजमेर की ओर विहार करते हुए ससंघ पचेवर पधारे। वहाँ संघस्थ पू.श्री १०८ महेन्द्रसागर जी महाराज के केशलोंच सानन्द सम्पन्न हुए। ४ दिन तक मण्डल विधान की पूजन हुई। वहाँ से विहार करके पालड़ी, सेवा, दूदू आदि ग्रामों में धर्म प्रभावना करते हुए १३-६-७१ रविवार को मदनगंज (किशनगढ़) पधारे। पदार्पण के समय अपूर्व दृश्य उपस्थित था। उक्त अवसर पर वयोवृद्ध विशिष्ट विद्वान् मुनिराज पू. श्री १०८ आ. ज्ञानसागर जी महाराज (जो कि २ दिन पूर्व ही यहाँ पधारे हुए थे) ससंघ अगवानी हेतु मार्ग में पहुँचे। इस सत्-समागम से सभी साधुगण एवं नर-नारी बहुत ही हर्षित हुए। तदनन्तर नगर प्रवेश के समय बैंड बाजे एवं विशेष साज-सज्जा के साथ नगर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ जुलूस श्री चन्द्रप्रभु दि. जैन मन्दिर में स्वागत सभा के रूप में परिणत हो गया। सभा में स्थानीय वक्ताओं के अतिरिक्त विदुषी आर्यिका पू. श्री ज्ञानमती माताजी, पू. ज्ञानमूर्ति श्री १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज एवं आचार्य श्री १०८ धर्मसागर जी महाराज के कल्याणकारी प्रवचन हुए।'' इस तरह आप गाँव-गाँव प्रभावना करते हुए मदनगंज-किशनगढ़ पहुँचे और किशनगढ़ में दीक्षा महोत्सव मनाया गया एवं किशनगढ़ ने दो संघों के वात्सल्य प्रेम को देखा। ऐसे रत्नत्रय धारियों के चरणों में नतमस्तक होता हुआ करबद्ध प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१५३ १२-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर मोक्षपथ पर धीरे-धीरे पग बढ़ाने वाले दादागुरु श्रद्धेय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तपोवृद्ध चरणों में त्रिकाल नतमस्तक हूँ... हे गुरुवर! मारोठ से १ मार्च को ६ कि.मी. दूर सुरेरा ग्राम के लिए विहार किया। १० घर की समाज ने भव्य स्वागत किया और फाल्गुन की आष्टाह्निक पर्व पर सिद्धचक्र महामण्डल विधान हुआ। बहुत बड़ी प्रभावना हुई। इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट' ०८ अप्रैल १९७१ एवं ‘जैन सन्देश' १७-०४१९७१ को सुरेरा के श्रीमान् भागचंद जी लुहाड़िया ने समाचार प्रकाशित कराया मुनिसंघ का पदार्पण “सुरेरा (सीकर) यहाँ पर १ मार्च को श्री आचार्य श्री १०८ मुनि ज्ञानसागर जी तथा मुनि विद्यासागर जी व ऐलक १०५ श्री सन्मतिसागर जी व क्षुल्लक १०५ श्री विनयसागर जी व क्षुल्लक सुखसागर जी संघ का शुभागमन हुआ। महाराज साहब यहाँ पर १८ रोज रहे। महाराज साहब के यहाँ आने से लोगों में धर्म के प्रति जागरुकता बढ़ी। महाराज के ओजस्वी भाषण का प्रभाव समाज के अलावा अन्य समाज पर गहरा पड़ा। बहुत से लोगों ने रात को भोजन त्याग, पानी छानकर पीना, मांस-मदिरा आदि न करने का प्रण लिया। यहाँ के समाज के लोगों को आहार देने का ज्ञान नहीं था। महाराज साहब के पदार्पण से आहार देना सीखा। अष्टाह्निका पर्व में मण्डल विधान पूजा भी खूब ठाट-बाट से हुई, यह सब आचार्य श्री का ही प्रभाव था। महाराज साहब १८ मार्च को गाजे-बाजे के साथ मण्डा के लिए विहार कर गये। इस समय महाराज साहब दांता में हैं।'' इस तरह आप गुरु-शिष्य की अन्तर्यात्रा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई, त्यों-त्यों बाहर भी धर्मयात्रा बढ़ती गई । सुरेरा के श्री भागचंद जी लुहाड़िया ने एक संस्मरण, ब्यावर २०१६ में सुनाया। जो आपके लाड़ले मुनि श्री विद्यासागर जी के दिव्यज्ञान को दर्शाता है| दिव्यज्ञान के धनी मनोज्ञ मुनि विद्यासागर ‘‘एक दिन की बात है आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का पूरा संघ आहार करके मन्दिर आ चुका था। मैं मुनिसंघ के दर्शन करने के लिए ११ बजे के बाद पहुँचा। जैसे ही मैंने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के दर्शन किए तो वे बोले-‘महानुभाव! आप यहाँ और आपकी दुकान में आग लग रही है। यह सुनकर मैं एकदम से अचंभित रह गया। तत्काल मैंने निवेदन किया महाराज! मैं तो अभी-अभी दुकान से ही आ रहा हूँ। ऐसा कुछ भी नहीं है। तब वे बोले-एक बार जाकर देख लो।' मैं तत्काल गया जाकर दुकान खोलकर देखी तो धुआँ उठ रहा था। अनाज की बोरी में आग लगी हुई थी। तत्काल उसे हटाय और फिर उसके बाद हाथों-हाथ मैं मुनिवर के पास गया और घटना बतलायी तो वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे। इस तरह सुरेरा प्रवास के बाद मण्डा पहुँचे और लगभग ७-८ दिन का प्रवास रहा। मण्डा से सम्बन्धित एक संस्मरण श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने सुनाया आकस्मिक परीषहविजयी यहाँ पर १ दिगम्बर जैन मन्दिर, ५-६ घर सरावगी दिगम्बर जैन परिवार निवास करते हैं। एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को श्रावक की असावधानी के कारण आहार में कड़वी लौकी का आहार दिया गया, जिससे उन्हें अत्यधिक परेशानी का सामना करना पड़ा।५-७ दिन तक दस्त आते रहे और बुखार भी बना रहा। इसके बावजूद मुनिवर अपनी साधना निर्दोष रीति से करते रहे। विशेष बात यह रही कि उन्होंने कड़वी लौकी के बारे में नहीं बताया। चौके वाले श्रावकों ने ही गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को अपनी गलती बतायी। तब अस्वस्थता का कारण पता चला। आकस्मिक परीषह को सहज ही सहन करते रहे। ऐसी स्थिति को देखते हुए मण्डा के स्थानीय वैद्यराज श्री दुर्गाप्रसाद जी ने अपने उपचार से उन्हें स्वस्थ किया।'' इस प्रकार आपके लाडले दृढ़चारित्री परीषह विजयी मेरे गुरुवर कर्मों की निर्जरा करने में हर पल, हर क्षण तैयार रहते और नये कर्म के बन्ध से बचने के लिए आर्तध्यान से बचे रहते । कैसी भी स्थिति हो चौबीसों घण्टे धर्मध्यान में लगे रहते । तभी तो उनकी हर क्रिया चर्या एक संस्मरण बनकर भक्त पाठक को आदर्श प्रस्तुत करती। इसी प्रकार यहाँ से जब रामगढ़ होते हुए दांता पहुँचे, तब का एक संस्मरण दांता निवासी कलकत्ता प्रवासी कल्याणमल जी झांझरी ने अपनी डायरी में लिखा है उसकी छायाप्रति सन् २०१५ में उन्होंने भीलवाड़ा में भिजवायी। जिसमें आपके चारित्र की विशुद्धि एवं ज्ञान की शुद्धि तथा अभीक्ष्णज्ञानोपयोग का दर्शन होता है चारित्र और ज्ञानशुद्धि के प्रतीक “आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज सदा ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहते थे। हमने जब भी देखा तो उन्हें अध्ययन-अध्यापन कराते देखा। एक बार रात को क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज छहढाला का पाठ सुना रहे थे तो उनसे गलत उच्चारण हो गया, तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के मुख से शुद्ध पाठ निकल गया किन्तु तत्काल उन्हें रात्रि में बोलने की गलती का अहसास हो गया। तो उसी समय उन्होंने खड़े होकर कायोत्सर्ग किया।'' धन्य हैं गुरुवर! आप कभी भी चारित्र में दोष नहीं लगने देते थे। यदा-कदा कभी दोष लग भी जाये तो आप तत्काल शुद्धिकरण करते यही कारण है कि आपकी चारित्रविशुद्धि देख नसीराबाद समाज ने आपको ‘चारित्रविभूषण' उपाधि से अलंकृत किया था। आपके समागम और सुसंस्कारों ने मेरे गुरु में भी ऐसी चारित्रविशुद्धि प्रकट की है कि आज मुनिचारित्र संविधान बन समाज में मुनिचर्या की कसौटी बन गए हैं। दांता के सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा ने भी बताया हिन्दी साहित्य की जिज्ञासा ‘‘वहाँ पर ३०-३५ घर की दिगम्बर जैन सरावगी समाज ने भव्य आगवानी की और दूसरे ही दिन स्थानीय विद्वान् पण्डित इन्द्रमणी शर्मा गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन करने आये तब उन्होंने साहित्य पर चर्चा की। तो मुनि श्री विद्यासागर जी की जिज्ञासा को देखते हुए गुरुदेव ने शर्मा जी से कहा जब तक हम यहाँ विराजते हैं, तब तक आप इनको हिन्दी साहित्य का ज्ञान करायें। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने रोज २-२,३-३ घण्टे हिन्दी साहित्य का अध्ययन किया। एक दिन अजमेर के सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के दर्शन करने पधारे और उन्होंने आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की जन्म शताब्दी समारोह की स्मृति में फलटण (महाराष्ट्र) से सन् १९७२-७३ में तैयार होने वाले स्मृति ग्रन्थ हेतु अपनी रचना प्रदान करने का निवेदन किया। शारीरिक अस्वस्थता व अशक्तता होने से गुरुवर ने इस कार्य हेतु मुनि श्री विद्यासागर जी की ओर इशारा कर दिया। गुरुवर का इशारा पाकर सर सेठ भागचंद जी सोनी जी ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज से निवेदन किया । तब मुनिवर मुस्कुराते हुए बोले-देखो गुरु आशीष से जो हो जाये और तब एक और स्तुति आचार्य शान्तिसागर जी महाराज को श्रद्धांजलि स्वरूप रचना कर डाली। ब्राह्मी-विद्या-आश्रम जबलपुर से प्राप्त पाण्डुलिपियों में मुझे वह स्तुति की प्रतिलिपि जो २५o७-१९७१ को की गई है, प्राप्त हुई। जिसमें राज्य, जिला, ग्राम-शोभा का वर्णन है, ग्राम से निकली सरिताओं का वर्णन है, माता-पिता का वर्णन है। युगल बच्चों के जन्म का वर्णन है। विवाह, वैराग्य का वर्णन है, देवेन्द्रकीर्ति से दीक्षा लेने का वर्णन है। मुनि नाम, परमतप का वर्णन है, गुणों का वर्णन है। यह सब वर्णन साहित्यिक, रसात्मक, अलंकारिक छटा को लिए हुए है। अन्त में समाधि का वर्णन कर अपनी श्रद्धांजली पूर्ण की है। यह मन्दाक्रान्ता के १९ छन्दों की रचना अप्रकाशित है अतः आपको भेज रहा हूँ आ. १०८ शान्तिसिन्धु गुरु चरणों में आ. ज्ञानसागर महाराज के प्रथम शिष्य विद्यासागर की हार्दिक श्रद्धाञ्जलि शोभा वाला इस भारत पे ख्यात मैसूर राज्य, जिल्हा न्यारी उसही बीच में और है बेलगाम । श्रीमान् धीमान् प्रवरजन से व्याप्त है भोज देखो, छोटा तो है पर मुकुट सा राजता शोभता है ॥१॥ देखो भाई! युगल सरिता भोज में आ मिली है, साक्षात् लक्ष्मी सम सुललिता एक है। दूधगंगा। दूजी छोटी जिस सरित की वेदगंगा सुसंज्ञा, दोनों गंगा वर नगर की है बढ़ा दी सुशोभा ॥२॥ भीमागौड़ा उस नगर में शक्तिशाली किसान, प्यारी स्त्री थी उस नृवर की सत्यरूपा सुरूपा। अच्छे बच्चे युगल उपजे आपके कँख से थे, प्यारे-प्यारे खमणि शशि यों आपके लाड़ले थे ॥३॥ दोनों में से प्रथम वह था देवगौड़ा सुनन्द, दूजे को तो सबही कहते थे सदा सातगौड़ा। जाते थे वे लव-कुश समा स्कूल दोनों हमेशा, शिक्षा पाके सुचतुर हुए स्तोक ही काल में थे ॥४॥ शादी होते शिशु समय में थाट से भोज में हैं, स्त्री पाती है मरण द्रुत हा! सातगौड़ा शशि की। माता बोली अरु पितर भी सातगौड़ा सुधी को, बेटा तेरा परिणय यहाँ चाहते हैं सुदूजा ॥५॥ मेरी काया, सुतप तपना, चाहती है सदा ही, मेरा जी तो, इस सदन में, चाहता है न जीना। मैं कैसा माँ, इस भवन में, जी सकें औ रहूँ भी, ऐसा बोला, “हत-हत नहीं', सातगौड़ा कुमार ॥६॥ आगे जागी, अनुज-मन में, भावना शोभनीया, जो थी न्यारी, विन विषय की, किन्तु मोक्षान्वयी थी। मौका पाके, इक दिन सुनो, सातगौड़ा सुधीठा, दीक्षा ले ली, परम मुनि, देवेन्द्र कीर्ति ऋषी से ॥७॥ दीक्षा लेके, श्रमण बन के, नाम पाया सुयोग्य, जो है प्यारा, जलधर समा, ‘शान्तिसिन्धू' सुचारु। प्रायः प्रायः, सब मनुज तो, जानते आपको हैं, तो कैसा मैं, अविदित रहूँ, आप से हे! मुनीन्द्र ॥८॥ मैं तो भाई, परम सुखदा, और विश्वोपकारी, शांती सिन्धू, परमयति के, पाद के दास होऊँ। श्रद्धामाला, कुसुमकलिता, भक्ति से मोचता हूँ, बारंबार, हृदयतल में, धारता हूँ ऋषी को ॥९॥ मिश्री सिक्ता, विपुलमधुरा, आपकी भारती थी, आभा न्यारी, दिनकर समा, आस्य की आपकी थी। फूले कंजों, अधरयम जो, सा अती शोभनीय, आँखें दोनों, वृषभ कथिता, दो नयों का हि जोड़ा ॥१०॥ या मानों दो, हिमकर समात्यन्त आमोदकारी, स्याद्वाणी से, कलितनिटिला आपका था ललाम। क्या क्या बोलू, अबुधवर हूँ, हूँ अभागा वृषेच्छू, ऐसी कान्ती, गुरुवदन की, थी सुसौन्दर्यपूर्णा ॥११॥ मीठी-मीठी, लयनतल से, सत्य धर्मानुकूल, निर्दोषा भी, करण मधुरा, छोड़ते ये सुवाणी। नासा दृष्टी, सुतप तपते, मेरु सा हो अकम्प, साक्षात् सेतू, भवजलधि के, शान्ति सिन्धू तपस्वी ॥१२॥ वाहू दोनों, तव महत थी, दीर्घ भी शोभनीया, प्यारी प्यारी, प्रचुर दृढ़ भी, पीन बाहूबली सी। शाखायें जो, मृदुलकर की, आपकी लम्ब माना, वे यों मानों, दशधरम ही, थीं क्षमामार्दवादि ॥१३॥ तृष्णा चम्पा, मुकुलित हुई, आपको देखते ही, आशा, माया, अरु लुषित थीं, सी निशासूर्य से ज्यों। ज्ञानी हो या, चतुर कवि हो, क्यों न योद्धा कुधी हो, राजा मन्त्री, अवनिसुर हो, दीन हो या दुखी हो ॥१४॥ हाथी घोड़ा, सबल पशु या, सिंह शार्दूल कुत्ता, पंछी मक्खी, मन विकल भी, और नारी विमारी। प्रायः सारे, कुसुमशर के, भेद्य है बाण से रे! कोई विर्ता, परम सुकृती, मोक्षमार्गानुगामी ॥१५॥ कंदपरी, शिवसुख तृषी, आपसा जन्मते हैं, तेरा क्या तो, फिर अब यहाँ नाम कामारी ना है? ऐसे योगी, स्वपर हि तकारी सदा पूजनीय, ऐसे ज्ञानी, नितहि मुझ में, ही बसे औ, रहे भी ॥१६॥ देखो भाई परम तिथि है, भादव श्री सुदी में, दौड़ी आयी हिमकर समा, चन्द्रिका ले सुदूजा। आचार्य श्री इस अवनि से आज ही तो खुशी से, धर्म ध्यानी स्व सुरस चखि स्वर्ग में जा बसे हैं ॥१७॥ आओ गाओ सरस वच से, कूदते नाचते भी, बाजा अच्छा करण मधु जो, एकता से बजाओ। प्रातः प्रातः पूरे शहर में हो, सके तो सुचारू, फेरी अच्छी कुछ समय लौं, शान्तता से निकालो ॥१८॥ ऐसे योगी श्रमण वर को शान्तिसिन्धु गुरु को, ध्याऊँ भाऊँ मन वचन से, औ पुनीतांग से भी। श्रद्धारूपी सित कमल से आपके पादकों की, हूँ मैं ‘विद्या' निशिदिन सुपूजा करूं या सपर्या ॥१९॥ इस तरह साहित्य पढ़ने और रचने की जिजीविषा को निमित्त मिलते ही काव्य की रचना हो गई। दांता में ८ अप्रैल १९७१ गुरुवार चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन महावीर जयन्ती महोत्सव मनाया गया। गुरुवर ससंघ के सान्निध्य में बड़ी प्रभावना हुई और मुनि श्री विद्यासागर जी ने महावीर जयंती के उपलक्ष्य पर भगवान महावीर स्वामी की कथा को आधार बनाते हुए बड़ा ही रोचक-मार्मिक प्रवचन किया। तदुपरान्त गुरुदेव का भी मार्मिक प्रवचन हुआ। जैन सिद्धान्त प्रचारिणी सभा नसीराबाद का मासिक मुख पत्र ‘जैन सिद्धान्त' का महावीर जयन्ती विशेषांक मार्च-अप्रैल १९७१ में मुनि श्री विद्यासागर जी का वह प्रवचन छापा गया। जिसको पढ़ने से पाठक को सहज ही अनुभव हो जायेगा कि दो वर्ष के छोटे से काल में मुनि श्री विद्यासागर जी ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का साहित्य पढ़कर और हिन्दी के विद्वानों से साहित्य की चर्चा करके जो ज्ञान हासिल किया वह उनके प्रवचनों में परिलक्षित होने लगा। थोड़े से ही काल में इतनी बड़ी प्रतिभा हासिल करना ये उनकी प्रातिभा का ही परिचायक है। जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं १. श्री ही धृति आदि देवांगनायें पूर्व से ही आ उपस्थित हुई थी और अहर्निश त्रिशला देवी की सेवा में व्यस्त थीं। उसी प्रकार इन्द्रादि देवों ने भी वहाँ आकर प्रथम गर्भ कल्याणक महोत्सव सानंद सम्पन्न किया। यहाँ पर विचारणीय बात तो यह है कि उन देव-देवांगनाओं को किसने बुलाया? क्या बिना बुलाये ही आयीं थीं? नहीं, कहना पड़ेगा कि यह विशेषता तीर्थंकर नामकर्म की ही है। वाह! वाह !! उस कर्म को धारण करने वाला जीव उदर में और तीर्थंकर नामकर्म स्वयं पुद्गलात्मक किन्तु बाहर के पुद्गलों और जीवों पर उसका प्रभाव पड़ रहा है। यह पुद्गल की अपरिमेय शक्ति है। इसका ज्ञान केवल दार्शनिक आत्मवादी को ही उपलब्ध है। नवनवीन वैज्ञानिक इससे वंचित हैं, इसके बारे में अनभिज्ञ हैं। इस पाप एवं पुण्यमय पुद्गल को आधुनिक वैज्ञानिक शक्ति जिसका नाम ‘अणुबम' है, वह भी नष्ट-ध्वस्त करने में असमर्थ है किन्तु पुण्यरूपी अणुबम को धारण करने वाला सद्यःजात बालक दुनिया को डर दिखा सकता है। पुण्यरूपी अणुबम में इतनी शक्ति विद्यमान है कि जिसकी तुलना आधुनिक अणुबम के साथ करना। सागर के साथ बूंद की करने के समान है। पुण्य-पापात्मक पुद्गल पुंज को चक्षु एवं आधुनिक दूरदर्शक अधिगम नहीं कर सकते हैं। वह आधुनिक परमाणु आटम (एटम) से भी असंख्यात गुणा सूक्ष्म हैं। जिसको मात्र ज्ञानरूपी नेत्र ही अपना विषय बना सकता है अर्थात् देख सकता है। अतः आधुनिक वैज्ञानिक भाईयों के लिए मेरा यह अनुरोध है कि यदि आपको परमाणु का अन्वेषण करना है तो जैन सिद्धान्त का गम्भीर अध्ययन और असीम अविनश्वर आत्मशक्ति का साक्षात्कार अनिवार्य करना होगा अन्यथा, आपका प्रयास व्यर्थ रहेगा, आपकी वह कामना कभी भी पूर्ण नहीं होगी। अस्तु । २. अब वीर बालक दिनो-दिन दूज के चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगा और सबको आनन्द प्रदान करने लगा। काले कृष्णतम जो बालक के सिर में बाल उग आये थे और वे उसी प्रकार दिखते थे, मानो वीर के पास स्थान न पाकर तामस गुण ही बाहर आ गये हों। अच्छे-अच्छे वस्त्रों को जो बालक खेलते-खेलते फाड़ता था, मानो वह अभी से दिगम्बरी दीक्षा ही लेना चाहता था। उसी प्रकार जब मसृण मखमल पर जो बन्धुगण सुलाते थे, तब वह प्रायः पृथ्वी पर आ सो जाता था, मानो उससे वह बालक भूशयन को ही श्रेयस्कर समझता था और खेलते-खेलते दीपकों को इसलिए बुझाता था कि पतंगा वगैरह न मर सके अर्थात् बचपन से मौनरूप से जिओ और जीने दो' इस दिव्य संदेश को दुनिया के सामने रखना चाहता था तथा सांख्य मतानुयायियों ने स्वीकार की हुई सर्वथा कूटस्थ, नित्य वस्तु को अप्रभाव सिद्ध करते हुए और कथंचित नित्य वस्तु ही प्रमाणभूत है' ऐसे सांख्यों को समझाने के लिए ही मानो वीर तब बीच-बीच में अपने नयनों को मीचता रहता था। ३. निःसंग होकर अर्थात् बाह्याभ्यंतर ग्रन्थि विरत होकर जब तक यह संसारी आत्मा (मनुष्य) परीषहों का सामना नहीं करेगा तब तक वह आत्मानुभव नहीं कर सकता और मुझे तो आत्मानुभव ही प्रिय एवं सुखप्रदाता दिखता है। सांसारिक भोग-सामग्री तो विषम विषतुल्य प्रतिभासित हो रहीं हैं अर्थात् आत्मानुभव रागद्वेषोत्पादक भोग सामग्री को भोगते हुए प्राप्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि आत्मानुभव परनिरपेक्षित है तथा स्वापेक्षित है। जब तक दूसरे पदार्थ के साथ रागपूर्वक इस संसारी आत्मा का सम्बन्ध रहेगा तब तक स्वात्मानुभव दूर है क्योंकि रागी आत्मा के साथ आत्मानुभव का विरोध दिन-रात के समान लेकिन वर्तमान में इस प्रकार की आवाज कानों तक आ रही है एवं अनेक लेख पढ़ने के लिए भी उपलब्ध हैं कि घर में रहकर भी आत्मानुभव प्राप्त किया जा सकता है किन्तु इस मान्यता के लिए जैन सिद्धान्त में स्थान नहीं है। मनीषियों के सामने यह मान्यता कट जाती है भूलुंठित हो जाती है। हाँ, गृहस्थावस्था में रहते हुए गृहस्थ गुरु-मुखारविन्द से जिनवाणी सुनकर अथवा आचार्य प्रणीत ग्रन्थ का स्वाध्याय करके परोक्ष तत्त्वश्रद्धान तो कर सकता है अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति गृहस्थावस्था में हो सकती है किन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यक्त्व और आत्मानुभव एक नहीं हैं। आत्मानुभव दिगम्बरत्व में निहित है और वही दिगम्बरत्व है जो कि आर्त-रौद्र ध्यान से सर्वथा शून्य है। यह आर्त-रौद्र शून्यावस्था सातवें गुणस्थान के नीचे तीन काल में प्राप्त नहीं की जा सकती। इसी बात को ग्रन्थराज सूत्रजी के रचयिता १०८ आचार्य उमास्वामी जी ने भी नवमें अध्याय में सुस्पष्ट किया है अर्थात् पंचम गुणस्थान तक आर्तरौद्र ध्यान दोनों बने ही रहते हैं और छठे गुणस्थान के अन्त तक आर्त ध्यान अवश्य देखने में आ जाता है। ऐसी स्थिति में गृहस्थावस्था में आत्मानुभव कैसे प्राप्त किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं। यदि घर में ही प्राप्त होता तो घर-परिवार को त्यागकर मुनि होने की आवश्यकता तीर्थंकरों को नहीं पड़ती। ४. केवलज्ञान के उपरान्त करीबन ६६ दिन तक वीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। क्या वीर को अनन्तशक्ति की प्राप्ति नहीं हुई थी? अथवा तीर्थंकर प्रकृति का उदय अभी नहीं हुआ था? नहीं, नहीं बात कुछ और ही थी। हर एक कार्य सम्पन्न होने में दो कारण अनिवार्य हैं पहला उपादान, दूसरा निमित्त । दोनों कारणों का महत्त्व है, एक के अभाव में तीन काल में भी कार्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती। दिव्यध्वनिरूप कार्य सम्पन्न होने में उपादान तो विद्यमान था कहना पड़ेगा वहाँ पर निमित्त की न्यूनता अवश्य थी। गणधर परमेष्ठी से वह समवसरण शून्य रहा तब तक दिव्यध्वनिरूपी गंगा वीर शैलेश से नहीं झरी। खेद क्या करें? वर्तमान में निमित्तकारण को न कुछ मानने वाले भी विद्वान् विद्यमान हैं। मेरे विचार के अनुसार निमित्त को न कुछ मानना ही अपने आपको एकान्तवादी सिद्ध करना है, अनेकान्त से द्रोह रखना है और अनेकान्त से प्रतिकूल चलने वाला ही वीर प्रभु से प्रतिकूल चलता है। वह वीर का अनुगामी नहीं है एवं उपासक भी। फिर उस व्यक्ति में समता कैसे स्थान प्राप्त करेगी? और समता के बिना अनन्तसुख की प्राप्ति नहीं होगी और उसके बिना चतुर्गति चंक्रमण रुक नहीं सकता। एतावता एकान्तवादी का संसार ज्यों का त्यों बना ही रहता है। अतः भव्यजीवों का यह परम कर्तव्य होता है कि वे अपने विचारों को अनेकान्त से सम्बन्धित रखें और आचरण अहिंसा से। ५. अहिंसा धर्म के आधार से ही इस संसारी जीव का उत्थान होने वाला है अहिंसा के बिना स्वपर विवेक की जागृति हो नहीं सकती अर्थात् जीवन में जितनी मात्रा में अहिंसा का संचार होता है, उतनी ही मात्रा में ज्ञानगुण की अभिव्यक्ति होती है। अहिंसा से शून्य जीवन गजभुक्त कपित्थ के समान नि:सार है। अतः वह, पशु जीवन से भी अध:पतित है। अहिंसक की उपासना स्वर्गीय देव भी करते हैं। अतः अहिंसक सदा सुखी रहता है और दूसरों के लिए भी सुख प्रदान करता है। सुख का साधन अहिंसा एवं अहिंसा का फल सुख। अतः सुख पिपासुओं का यह परम कर्तव्य है कि वे अपने जीवन में अहिंसा को यथाशक्ति स्थान दें। राजनैतिक सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी इसी को प्रथम मूर्धन्य स्थान उपलब्ध है अतः अहिंसा, माँ तुल्य-प्रिय आदरणीय वस्तु है।'' इस तरह दांता में ज्ञान-साधना प्रभावना पूर्ण प्रवास करके लगभग २५ अप्रैल को विहार कर रुलाणां होते हुए खाचरियावास और फिर कुली पहुँचे। कुली के श्रीमान् बाबूलाल जी जैन गंगवाल ने २०१६ ब्यावर में एक संस्मरण सुनाया, जिसे सुनकर रूह कांप गई, मन विशाद से भर गया लेकिन गर्व भी हुआ जिसे सुनकर आप भी मेरी इस स्थिति को अनुभव कर स्मरण करेंगे वीरचर्यापालक का वीर जवाब ‘‘आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज और विद्यासागर जी महाराज ससंघ अप्रैल के अंत में कुली पधारे थे। दूसरे दिन मुनि विद्यासागर जी ने केशलोंच (दीक्षोपरान्त ग्यारहवाँ) कर लिया। केशलोंच के दूसरे दिन आहार के लिए गये तो चौके में जल्दी-जल्दी में एक अविवेकी श्रावक ने शुरु में ही बहुत तेज गर्म दूध उनकी अंजुली में दिया तब मुनि विद्यासागर जी महाराज सहन नहीं कर पाये और अंतराय मानकर बैठ गए। हम सब देख रहे थे उनके मुंख पर किंचित मात्र भी विषाद नहीं था और हाथ लाल-लाल हो गए थे। उनकी उस विशिष्ट मुद्रा को देखकर मैं भाव विह्वल हो गया और उस घटना को मैं आज तक नहीं भूल सका हूँ। उनके पीछे-पीछे हम मन्दिर आये और जैसे ही गुरु महाराज ज्ञानसागर जी आहार करके आये। देखते ही मुस्कुराते हुए बोले-‘आहार चर्या जल्दी हो गई ।' तब हम लोगों ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को पूरी स्थिति बतलाई । तो गुरु महाराज यह सुनकर और भीषण गर्मी में केशलोंच-उपवास के बाद अन्तराय को देखते हुए अफसोस करने लगे। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज मुस्कुराते हुए बोले-महाराज जी! आपके आशीर्वाद से मेरा परीषहजय हो जायेगा।' इस तरह धर्म यात्रा के साथ-साथ मेरे गुरुवर की अन्तर्यात्रा, ज्ञानयात्रा, तपोयात्रा और प्रभावनायात्रा नित्यप्रति चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ती जा रही थी। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न गुरु-शिष्य का अनुशिष्य होने का गौरव होता है। उनके जैसे बनने की इच्छा लिए उनके पावन चरणों में नमस्कार करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-१५२ ११-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर मूलगुण पालन में सदा नियोजित परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के पावन चरणों में त्रिकरण युक्त नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...। हे गुरुवर! काँकरा ग्राम में शीत का भयंकर परिषहजय आपश्री संघ ने किया और दीपचंद जी छाबड़ा ने बताया कि जनवरी में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने दीक्षोपरान्त दसवाँ केशलोंच किया। तब केशलोंच देखकर अजैन समाज काफी प्रभावित हुई थी। काँकरा से डासरोली श्यामगढ़ गए वहाँ पर भी दिगम्बरत्व की काफी प्रभावना हुई। फिर संघ मारोठ पहुँचा था। मारोठ में ४० परिवारों की समाज ने भव्य आगवानी की । इस सम्बन्ध में श्री क्षेत्र महावीर जी के पुस्तकालय से ‘जैन मित्र' अखबार ४ मार्च १९७१ गुरुवार की एक कटिंग प्राप्त हुई, जिसमें शिवमुखराय शास्त्री मारोठ का समाचार इस प्रकार था मारोठ में आचार्य ज्ञानसागर जी ‘९ त्यागियों के संघ सहित शामगढ़ से ता. १७-०२-७१ को पधारे। गाजे-बाजे से स्वागत हो सभा की गई। उसमें पं. चंपालाल जी व मैंने श्रद्धांजली दी थी। नित्य प्रवचन होते हैं। दिन में मुनि विद्यासागर जी व रात्रि में ब्र. दीपचंद जी प्रवचन करते हैं। पठन-पाठन भी चलता है। धर्म प्रभावना अच्छी हो रही है। ठहरने व भोजन की व्यवस्था है। इसी प्रकार ‘जैन सन्देश' अखबार में ४ मार्च १९७१ को शिवमुखराय शास्त्री जी का समाचार इस प्रकार है द्वितीय पुण्यतिथि ‘‘मारोठ में पूज्य १०८ श्री आचार्य शिवसागर जी महाराज की द्वितीय पुण्यतिथि २५-०२-७१ को सोत्साह मनायी गयी। पूज्य श्री की सुन्दर फोटो एक सुसज्जित पालकी में रखकर सारे बाजार में निकाली गई। जगह-जगह आरती की गई थी और पूज्यश्री के चरणों में श्रद्धांजली समर्पित की गई थी। जिस स्थान पर आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का संघ ठहरा हुआ है। वहाँ भव्य पाण्डाल में आचार्य श्री की फोटो विराजमान की गई और आचार्य श्री की बड़ी भक्ति से पूजन की गई। तदनन्तर आचार्य १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में श्रद्धांजलि समारोह प्रारम्भ किया गया। आचार्य महाराज ने अपने दीक्षागुरु के आदर्श जीवन पर बड़े सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला और कहा कि हर एक मानव का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन को सफल बनाने के लिए समाधिमरण अवश्य करे।' बाद में पूज्य मुनिराज विद्यासागर जी महाराज ने आचार्य १०८ शिवसागर जी महाराज की पावन स्मृति में स्वरचित सुन्दर भक्तिभाव पूर्ण कविता पढ़कर सुनायी। अनेक वक्ताओं ने अपनी-अपनी श्रद्धांजली अर्पित कीं।' इस तरह हे गुरुवर! आप प्रतिवर्ष अपने गुरु के समाधि दिवस पर बड़े ही भक्तिभाव से उनके गुणों का बखान करते थे और इस बार तो आपके लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने श्रद्धांजली सभा में सस्वर काव्यमय स्तुति पढ़कर श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया कि सभी के मुख पर मुनि श्री विद्यासागर जी की काव्य रचना और उनके स्वर की वाह-वाही हो रही थी। यह उनकी तृतीय काव्य रचना अद्वितीय थी। जो उन्होंने रेनवाल में रची थी। इस प्रकार दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने और भी बताया कि मारोठ समाज के श्रीमान् पण्डित शिवमुखराय जी शास्त्री ने एक दिन बताया कि यहाँ पर समाज ने जीवदया पालक समिति बना रखी है। यह संस्था दि. २३ दिसम्बर १९२२ को स्थापित हुई थी। जिसका मुख्य उद्देश्य मारोठ एवं आस-पास जैन, ब्राह्मण, माहेश्वरी आदि समुदायों के द्वारा घरों में बकरी पाली जाती है किन्तु उनसे उत्पन्न बकरों को बचाया जाना। निरपराध मूक निरीह बकरों को बलिवेदी से बचाना। इसलिए यह समिति गठित की गई है। इसमें अभी लगभग ६-७ सौ बकरे हैं और अभी तक हजारों बकरों को बचाया जा चुका है। इस समिति के लिए बकराशाला भवन नगर के श्रीमान् रायबहादुर सेठ मगनमल जी, रायबहादुर सेठ हीरालाल जी पाटनी ने बनवाकर ६-०१-१९४३ को जीवदयापालक समिति को सौंपा। यह सुनकर गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज एवं मुनि विद्यासागर जी महाराज अतीव प्रसन्न हुए और खूब आशीर्वाद दिया तथा इस कार्य की प्रशंसा अपने प्रवचनों में कई बार किया करते थे। श्री शिवमुखराय शास्त्री जी जो श्री गोधा दि. जैन बोर्डिंग हाऊस के अध्यक्ष थे। वे कभी-कभी गुरुजी के पास आकर तत्त्वचर्चा किया करते थे। उन्होंने बताया-पिछले वर्ष १९७० में इस बोर्डिंग की स्थापना हुई है। शास्त्री जी ने बताया कि मारोठ में राजकीय आयुर्वेदिक औषधालय व राजकीय प्राइमरी स्कूल श्री सेठ मगनमल जी हीरालाल जी पाटनी दि. जैन पारमार्थिक ट्रस्ट के भवनों में चल रही है एवं कानमल उम्मेदमल अस्पताल श्री सेठ उम्मेदमल जी चौधरी द्वारा बनाये हुए अस्पताल भवन में राजस्थान सरकार की तरफ से चल रहा है। इसके साथ ही बताया कि श्री सेठ बीजराज जी पाण्ड्या ने संवत् १९८० में एक कबूतरखाना भवन बनवाया था। इसमें सैकड़ों कबूतर, मोर, तोते, चिड़िया आदि पक्षी धान्य चुगते हैं। यह सुनकर मुनि विद्यासागर जी महाराज अत्यधिक प्रभावित हुए। बोले-‘यहाँ तो करुणा का प्रेक्टिकल हुआ एक दिन पण्डित जी साहब से मुनि श्री विद्यासागर जी बोले-'यहाँ के मन्दिरों का क्या इतिहास है?' तब उन्होंने बताया १. गोधाओं के मन्दिर की वेदीप्रतिष्ठा विक्रम संवत् १३८५ में श्री सेठ बेणीराम जी अजमेरा ने करायी थी। २. चौधरियों के मन्दिर की प्रतिष्ठा श्री सेठ जीवणरामजी पाटोदी ने संवत् १४८२ में करायी थी। ३. सावां के मन्दिर की वेदी प्रतिष्ठा श्री शाह रामसिंह जी ने संवत् १७९४ में करायी थी। ४. तेरहपंथी मन्दिर की वेदी प्रतिष्ठा संवत् १८५२ में सेठ परशराम लश्कर वालों ने करायी थी। इन चारों ही मन्दिर की गोठे अलग-अलग हैं। इन मन्दिरों में ११वीं-१२वीं शताब्दी की कितनी ही बड़ी मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। तब मुनि विद्यासागर जी बोले-‘इनके दर्शनों से बड़ी शान्ति मिलती है।' तब बीच में मैंने बोला-पण्डित जी साहब आपने इतनी जानकारी दी कृपया इतना और बतायें यहाँ पर समाज कितनी है? तब उन्होंने बताया कि दिगम्बर जैन समाज के ७0 घर हैं इन घरों में से ३० परिवार बाहर रहते हैं किन्तु उनके मकान मारोठ में विद्यमान हैं, वे वर्ष में १-२ बार आते हैं। इस प्रकार मारोठ वह ऐतिहासिक स्थान है जहाँ समाज ने अहिंसा का प्रेक्टिकल किया है। ऐसे ऐतिहासिक स्थान के दर्शन से आप गुरु-शिष्य बड़े अभिभूत हुए थे। आपके पावन चरणों में अनथक प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-१५१ १०-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर सर्वज्ञ प्रभु के पगचिह्नों के शोधार्थी आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पवित्र पगचिह्नों को नमस्कार करता हूँ... हे दादागुरु ! वर्ष १९७० आपके इतिहास को स्वर्णिम पन्नों पर रचकर चला गया और वर्ष १९७१ अपने इतिहास के खाते बही में आपके पल-पल क्षण-क्षण के समाचार को लिखता गया। मुझे रेनवाल के श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया और किशनगढ़ के श्रीमान् दीपचंद जी चौधरी के लेखों से जो कुछ। जानकारी मिली वह मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ- इस तरह वर्ष १९७१ आप गुरु-शिष्य के साथ २६ ग्राम-नगरों में भ्रमण करता हुआ लगभग १८० कि.मी. चला। सर्दी-गर्मी-वर्षा के दिनों के परीषह देखे जिनको आप गुरु-शिष्य हँसते-हँसते सहन कर रहे थे। साथ ही प्रभावनापूर्ण कई कार्यक्रम देखे और आपके लाड़ले शिष्य की विशिष्ट साधनाएँ देखीं।इस सबका वर्णन हम आगे के पत्रों में आपको बताते रहेंगे। यद्यपि आप सब कुछ जानते हैं तथापि बताने की सुखानुभूति कौन छोड़ना चाहेगा आपके निमित्त मुझे भी ऐतिहासिक जानकारियाँ प्राप्त हो रहीं ऐसे सुखप्रदाता गुरुवर के चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. पत्र क्रमांक-१५० ०९-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आत्मोपासक चलते-फिरते शास्त्र श्री गुरुवर श्री ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आपके बारे में आपके अनन्य भक्त-विद्वानों ने बताया और कई विद्वानों ने लिखा, वह हमने पढ़ा है कि आप आचार्य श्री वीरसागर जी एवं आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के संघ में उपाध्याय रूप कर्तव्य का निर्वहन करते थे। जिनवाणी के सच्चे अध्यवसायी बनकर आपने उपलब्ध आगमों का मंथनकर नवनीत का रसास्वादन किया और जिसे जीवन के बहुभाग अनुभूत किया है। यूँ तो आप सन् १९६९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए किन्तु वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध तपोवृद्धत्व के अनुभव से आप अनेकों भव्यों को जिन्दगी जीने की कला सिखाकर आचार्यत्व का सफलतम कर्तव्य भी पूर्व से ही निर्वहन करते आ रहे हैं क्योंकि स्वयं के व्यक्तित्व को परिष्कृत परिमार्जित करके ही दूसरों के व्यक्तित्व को गढ़ा जा सकता है। हे गुरुवर ! जिस प्रकार लौकिक क्षेत्र में समाज-देश और विश्वस्तर पर प्रतिभाओं की आज कमी नहीं है, चाहे विज्ञान का कोई भी क्षेत्र हो या प्रबन्धन का क्षेत्र हो या फिर दर्शन-इतिहास-राजनीति का क्षेत्र हो हर क्षेत्र में अव्वल दर्जे के प्रतिभाशाली विद्यार्थी, शिक्षक, शिक्षण संस्थान हैं, किन्तु उनका आन्तरिक व्यक्तित्व बिखरा खोखला-सा दिखायी पड़ता है। सब कुछ पाकर भी वे गहरी प्यास से प्यासे लगते हैं, अतृप्तिमय जीवन को पूर्ण करने की मजबूरी को झेल रहे हैं। इसी प्रकार अलौकिक क्षेत्र में हो रहा है कि आज भव्यात्माओं के पुरुषार्थ में कोई कमी नहीं है। और चारों अनुयोगों का ज्ञान भी खूब किया जा रहा है किन्तु फिर भी आन्तरिक ज्ञान-भावश्रुत ज्ञान जो सम्यग्ज्ञान है उससे अन्तरंग खोखला दिख रहा है। फलस्वरूप आत्मा अतृप्त हो आत्मसुधा रस से प्यासे के प्यासे दिख रहे हैं और जीवन को दु:खों के जंजालरूप कर्मों में उलझा बैठे हैं। दोनों ही क्षेत्रों में एक ही कमी नजर आती है वह है आप जैसे अनुभवी आचार्य की जिनकी वाणी मात्र नहीं बोलती अपितु आचरण अधिक मुखर होकर बोलता है। वाणी की पहुँच तो कानों तक होती है। किन्तु आचरण प्राणों तक पहुँच बनाता है। आचार्य शास्त्र के विचारों का सम्प्रेषण मात्र नहीं करता, साथ में शास्त्र सूत्रों को जीकर तपस्या के अनुभव की चासनी में घुट्टी चटाता है। जिससे आचरण के पालने में झूलकर शिष्य आनंद की अनुभूति में जीवन को पूर्ण करता है। हे दादागुरु! आपने चारों अनुयोगों के शास्त्रों का स्वाध्याय कर जो तत्त्व हासिल किया उसे व्यवहार में ऐसा उतारा कि आचरण, शास्त्रों की पर्याय बन गया और अपने लाड़ले शिष्य को विचारों से व्यवहार तक की महायात्रा इतनी सरल कर दी कि उन्हें सहज बोधगम्य हो अनुभवगम्य होती चली गई। आपके साथ हर पल रहकर आपकी हर श्वासों पर जो पहरा देते रहे और आपके समान पुरुषार्थ से उत्पन्न आत्मानंद रस को गटागट पीते जाते एवं बनाने की कला सीखते जाते। ऐसे मेरे गुरु ने अन्तर्यात्रा के तृतीय वर्ष १९७१ में किन-किन पड़ावों पर क्या-क्या सीखा? ऐसी जिज्ञासा को लेकर मैं खोजबीन प्रारम्भ कर रहा हूँ। हे दादागुरु! अपने इस पोते शिष्य को अनुमति प्रदान करें और आशीर्वाद प्रदान करें कि मैं अपने इस अभियान में सफल होऊँ। जैसे-जैसे मैं खोजबीन कर जो कुछ हासिल करूंगा वह आपके करकमलों में समर्पित करता जाऊँगा। इस शुभ पवित्र भावना के साथ आपके श्रीचरणों की वन्दना करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. जय जिनेन्द्र, प्रसन्नता की बात है कि पूज्य गुरुवर आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के मुखारविन्द से निकली वाणी का संकलन किया जा रहा है। सन 1968 से लेकर सन 2015 तक की पुरानी आडियो, वीडियो कैसेट अथवा सीडी आदि आपके पास सुरक्षित रखी हो तो हमारे पास प्रेषित करने की कृपा करें। उन्हें आधुनिक तरीको से सुरक्षित कर, आपको आपकी कैसेट/सीडी आदि वापस करने के लिये हम वचनबन्द है। धन्यवाद अधिक जानकारी एवं कैसेट/सीडी आदि प्रेषित करने हेतु संपर्क करे। अशोक कुमार जैन 9923028808 वरुण जैन 9424451179 सौरभ ठोलिया 9694078989 ई-मेल- vidhyavanisanklan@gmail.com पता- वरुण जैन C- 62, पदमनाभ नगर, प्रभात सर्कल के पास, भोपाल, म.प्र.-462023
  9. पत्र क्रमांक-१४९ ०७-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर मोहमुक्त चैतन्य अनुविधायी आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आप गुरु-शिष्य कैसे निर्मोही हैं संसारियों के बीच में रहते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं। किन्तु आपके निर्मोही आचरण से संसारियों को मोह हो जाता है। वे सदा उसमें लिप्त रहना चाहते हैं। पर ‘बहता पानी, रमता जोगी' को कोई बाँध सका है क्या? वह तो नि:संग वायु के समान सदा बहता रहता है। अंततः वह क्षण आ ही गया। जब आपने किशनगढ़-रेनवाल में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके २८ नवम्बर को विहार कर दिया क्योंकि आगम की आज्ञा जो है और दोपहर में ७ कि.मी. चलकर करड ग्राम पहुँचे वहाँ पर एक जैन मन्दिर है किन्तु किसी जैन का घर नहीं है। रात्रिविश्राम करके दूसरे दिन प्रातः ८ कि.मी. चलकर करड से काँकरा ग्राम पहुँचे, वहाँ एक मन्दिर है और १० दिगम्बर जैन घर हैं। समाज ने बड़े उत्साह के साथ आगवानी की। इस सम्बन्ध में कॉकरा के निवासी सूरत प्रवासी श्रीमान् शान्तिस्वरूप पाटनी ने २०१६ ब्यावर चातुर्मास में बतलाया- बच्चे अपने चहेते महाराज का रखते ध्यान “सन् १९७0 में रेनवाल चातुर्मास के बाद कड़ाके की ठण्ड में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के साथ मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज एवं २-३ क्षुल्लक, ऐलक महाराज का हमारे गाँव काँकरा (जिला सीकर) में पदार्पण हुआ था। तब लगभग ४५-५० दिन के आस-पास उनका प्रवास रहा कड़ाके की ठण्ड में भी पूरा संघ अपनी चर्या पालन करने में काफी सतर्क था। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज हम बच्चों को प्रोत्साहित करते थे उस समय हम बच्चों की उम्र लगभग १०-१२ वर्ष की थी। जब भी हम बच्चे उनके पास जाते तो वे पढ़ते रहते थे। हम लोगों को देखकर मुस्कुरा देते थे। सुबह धूप निकलने पर चारा बाहर छत पर फैलाने के लिए वे हम लोगों से मंगवाते थे, तो हम लोग कक्ष में से चारा लाकर उनको देते थे। तो वे अपनी पिच्छी से जमीन को साफ करके चारे को वहाँ फैला देते थे। फिर शाम को जब धूप जाने लगती तो हम लोगों से कहते वह चारा लेकर आओ, तो हम लोग ले करके आते तो वे कमरे में पाटे को साफ करके बिछा देते थे। फिर वे गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को लेकर आते और उस पर विराजमान करते थे। फिर उनकी सेवा करते थे। रात्रि में सोते समय वे घास का उपयोग नहीं करते थे। तब हमारे बड़े बुजुर्गों ने कहा था कि तुम लोग अपने महाराज का ध्यान रखा करो। जब वे लेटते थे तो हम लोग उनकी नींद लगने पर उनके ऊपर धीरे से घास-चारे को डालकर धीरे से भाग जाते थे। उन्होंने हम बच्चों को धर्म की बातें पढ़ायीं थीं।" इसी प्रकार काँकरा प्रवास के बारे में रेनवाल के श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया ने एक संस्मरण सुनाया- प्रवचनों का प्रभाव : मांसाहारी बना शाकाहारी “जब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज संघ सहित काँकरा ग्राम पहुँचे तब वहाँ लगभग डेढ़ माह का प्रवास रहा। प्रतिदिन दोपहर में मुनि विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन होता था। उनकी सरलता और सहजता से दिए गए वैराग्यपूर्ण प्रवचनों से जैन ही नहीं बल्कि अजैन बन्धु भी प्रभावित होते थे। एक दिन काँकरा निवासी अलानूर तेली (मुस्लिम बन्धु) ने मुनि श्री के प्रवचन के बाद भरी सभा में खड़े होकर कहा- ‘महाराज! आज से मैं नियम लेता हूँ मैं कभी भी अण्डा, मछली, मांस का सेवन नहीं करूंगा।' जब काँकरा से संघ का विहार हुआ तो वह मारौठ तक संघ के साथ पद विहार करते हुए गया था और वहाँ से रोते हुए आशीर्वाद लेकर लौटा था।" इस तरह सन् १९७० वर्ष आपके साथ कदमताल मिलाते हुए गाँव-गाँव नगर-नगर चला, तरहतरह की प्रभावना के दिन देखे और गुरु-शिष्य की तपस्या से प्रभावित होकर उसने स्वर्णिम इतिहास रच दिया और जाते हुए अपने भाई सन् १९७१ को कहकर गया- दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो अपने लिए तो जीते हैं किन्तु दूसरों का ध्यान रखकर। जिनकी श्वासें स्व-पर हित में तत्पर रहती हैं। जिनकी इन्द्रियाँ स्व-पर हित के लिए कर्म करती हैं। जिनका ज्ञानपुरुषार्थ स्व-पर हित के लिए कर्तव्य करता है। ऐसे ही महापुरुषों से इस दुनियाँ का अस्तित्व खड़ा हुआ है।' सन् १९७0 की उत्साहपूर्ण बातें सुनकर नया वर्ष सन् १९७१ आप गुरु-शिष्य का स्वागत करने के लिए तैयार हो गया और इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए आपके पगों पर, आपकी श्वासों पर, आपके क्रिया-कलापों पर पहरा देने के लिए सावधान खड़ा हो गया। हे गुरुदेव! मैं भी आपके स्वर्णिम इतिहास को पढ़ने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ कि सन् १९७१ ने अपने इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर मेरे दादागुरु और मेरे गुरु के बारे में क्या-क्या टांका है। इस प्रतीक्षा में... आपका शिष्यानुशिष्य मुनिवर महिमा (तर्ज–जे हम तुम चोरी से-“धरती कहे पुकार के'') छवि मुनिराई ये, मेरे मन भाई ये, बनी है जी अंखियों की नूर। किया दर्शन जो आपका ॥ टेर। बालक जैसे प्यारा, रूप है अविकारा, तेज है टपकता, मुखड़े से देखो न्यारा, दर्शन से नाश, हो, नाश हो, भव-भव के पाप का। छवि...॥१॥ मृदुभाषी ज्ञानदाता, मंगलमय ज्ञानसागर, विद्याधर गुण आगर, कहूँ या विद्यासागर, मिटता है शर्ण में, शर्ण में, दु:ख जग के ताप का। छवि...॥२॥ ज्ञानामृत की धारा, सरस मुख बरसै, जिसमें है निज आतम, शीशे की नाईं दरसै, मिल जाये रास्ता, रास्ता, ‘प्रभु' मोक्ष धाम का । छवि...॥३॥ (श्रद्धा सुमन-पंचम पुष्य, रचयिता-प्रभुदयाल जैन, प्रकाशक-श्री दि. जैन महिला समाज, केसरगंज, अजमेर वीर नि. सं. २४९५)
  10. पत्र क्रमांक-१४८ ०६-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर वर्ष-दर-वर्ष कालपृष्ठ पर कर्मजयी इतिहास लेखक आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल कोटि-कोटि वन्दन... हे गुरुवर! १९७0 चातुर्मास सानंद सम्पन्न हुआ समापन कार्यक्रम के बारे में श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने एवं रेनवाल के गुणसागर जी ठोलिया नामक श्रावक ने बताया- रेनवाल में चातुर्मास का महामहोत्सवी समापन ‘कार्तिक वदी चतुर्दशी के दिन पूरे संघ ने वार्षिक प्रतिक्रमण किया और अमावस्या के दिन प्रातःकाल संघ सान्निध्य में महावीर निर्वाण महोत्सव मनाया गया। प्रवचन के पश्चात् समाज ने आष्टाह्निक विधान के आशीर्वाद का निवेदन किया और आचार्य गुरुदेव ने आशीर्वाद प्रदान किया। कार्तिक सुदी अष्टमी से आष्टाह्निक महापर्व पर सिद्धचक्र महामण्डल विधान का भव्य आयोजन हुआ। कार्तिक सुदी चतुर्दशी के दिन संघ ने उपवास रखा और चातुर्मास समापन की क्रियाएँ की गयीं, साथ ही पिच्छिका परिवर्तन समारोह हुआ। समाज के पंचों ने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज को नवीन पिच्छिकाएँ भेंट कीं और गुरुदेव ने क्रमशः स्वयं फिर मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को, ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज को, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज को, क्षुल्लक सम्भवसागर जी महाराज को और क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज को अपने हाथ से नवीन पिच्छिकाएँ दीं और उनकी पुरानी पिच्छिकाएँ समाज के चरित्रनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, सेवाभावी लोगों को प्रदान की। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की पुरानी पिच्छिका श्री हीरालाल जी जयचंद जी गंगवाल को एवं मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की पुरानी पिच्छिका श्री धर्मचंद जी बाकलीवाल को एवं ऐलक सन्मतिसागर जी की पुरानी पिच्छिका श्री गणपतलाल जी पाटनी प्रतिमाधारी को मिली (उपरोक्त जानकारी श्रावक गुणसागर जी ने रेनवाल के लोगों एवं परिवार वालों से प्राप्त की)। गुरुदेव के चमत्कार ने बचाई लाज पूनम के दिन विधान पूर्ण हुआ इस उपलक्ष्य में रथयात्रा महोत्सव हुआ। इस रथयात्रा महोत्सव में आस-पास के गाँव नगरों से हजारों लोग आये थे। समाज पंचों ने ३-४ हजार लोगों के आने की उम्मीद से भोजन तैयार करवाया था किन्तु उम्मीद से दो-तीन गुना अधिक भीड़ की उपस्थिति देखकर समाज पंच घबरा गये और आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास गए एवं महाराज से घबराकर बोले-महाराज! आज तो हमारी समाज की इज्जत धूल में मिल जायेगी। महाराज ने पूछा- ‘ऐसी क्या बात हो गई?' तब पंचों ने कहा-महाराज! ३-४ हजार लोगों का भोजन बनवाया और संख्या तो दस हजार से ऊपर दिख रही है। तब आचार्य महाराज बोले- ‘घबराओ नहीं सब ठीक हो जायेगा, सुनो कोठियार के बाहर एक सफेद कपडे का पर्दा लगा दो उसमें कोई भी व्यक्ति प्रवेश न करे। सिर्फ एक व्यक्ति शुद्ध वस्त्र पहनकर उपवास पूर्वक अंदर रहेगा और वही सामान निकाल-निकालकर देगा और ५ बजे के पहले-पहले भोजन हो जाना चाहिए। जाओ निश्चित होकर काम करो।' पंचों ने महाराज को नमोऽस्तु किया और निश्चित होकर आ गए। रथयात्रा के बाद भोजन शुरु हुआ १०-१२ हजार लोगों का भोजन हो गया और ५ बजे भोजन बंद कर दिया गया। ठीक ५ बजे के बाद तेज हवा चलने लगी और देखते ही देखते तेज बारिश आने लगी। यह चमत्कार देख सब लोग खुश हो गए। भोजन बहुतसारा बचा रहा।'' चातुर्मास समापन से सम्बन्धित ‘जैन मित्र' अखबार सूरत में ३ दिसम्बर १९७० गुरुवार को डॉ. ताराचंद्र जैन बक्शी ने समाचार प्रकाशित कराया- जैन जनगणना प्रचार किशनगढ़-रेनवाल में आचार्य ज्ञानसागर जी संघ के चातुर्मास समाप्ति पर विशाल समारोह किया गया था, जिसमें सर सेठ भागचंद जी सोनी, डॉ. ताराचन्द्र जैन बक्शी, पं. हीरालाल जी शास्त्री ब्यावर, पं. अभयकुमार जी व लगभग १०० कस्बों से करीब १0000 आदमी सम्मिलित हुए। तब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी, श्री भागचंद जी सोनी, डॉ. ताराचन्द्र जैन बक्शी ने आगामी जनगणना में नाम के खाना १० में केवल जैन ही अवश्य लिखाने के लिए तथा भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव एवं तीर्थरक्षा कार्यों में तन, मन, धन से पूर्ण सक्रिय सहयोग देने के लिए सबको प्रेरणा दी। जिसके फलस्वरूप स्थानीय पंचायत ने प्रत्येक विवाह में २१/- तीर्थरक्षा कमेटी को भेजने की घोषणा की। प्रचार मण्डली ने दहेज विरोधी नाटक का प्रदर्शन किया तथा रथयात्रा की बोलियों में लगभग २००००/- एकत्रित हुए।” इस प्रकार रेनवाल चातुर्मास में आपकी एवं आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरुवर की अन्तर्यात्रा के अनुभव समाज को सौभाग्य से प्राप्त हुए और सामाजिक धार्मिक संस्कृति रक्षा के उत्तरदायित्व निर्वहन करने की प्रेरणा समाज को प्राप्त हुई। ऐसे भाव श्रमण गुरु-शिष्य के चरणों में अपनी विनयांजली समर्पित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  11. पत्र क्रमांक-१४७ ०५-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर भव्यों के सम्यग्ज्ञान उद्घाटक परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन भावों के समक्ष त्रिकालिक नतमस्तक हूँ... हे गुरुवर! जिस प्रकार आप सदा ज्ञान-ध्यान में लीन रहते, इसी प्रकार मेरे गुरुवर आपकी चर्या क्रिया को देख संस्कार पाते और वे भी स्व-पर क्रियाओं के माध्यम से सतत सम्यग्ज्ञानी पुरुषार्थ करते रहते थे। इस सम्बन्ध में कुछ संस्मरण आपको लिख रहा हूँ। रेनवाल के डॉ. सुरेश कुमार जैन सेठी, चाईल्ड स्पेशलिस्ट, जो वर्तमान में गुवाहाटी असम में रहते हैं १८-११-२०१६ को उन्होंने बताया- बच्चों को लाडले महाराज ने भक्तामर सिखाया ‘‘रेनवाल चातुर्मास में हम और हमारे मित्र अशोक पाटनी, अनिल रावका आदि ५-६ मित्र मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास रोज जाया करते थे। वे कभी कहानी तो कभी भजन सुनाया करते थे। वे बच्चों को देखकर बड़े खुश होते थे। उस समय हम लोगों की उम्र लगभग ११-१३ वर्ष के बीच थी। एक दिन महाराज बोले- तुम लोग भक्तामर याद करो।' तो हम लोगों ने कहा-संस्कृत पढ़ना नहीं आता। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बोले- ‘शाम को तुम लोग आ जाया करो तो उच्चारण सिखा दूंगा।' तब हम लोग प्रतिदिन उनके पास जाने लगे। जैन भवन की छत पर वे हम लोगों को उच्चारण सिखाते थे। हम लोग पुस्तक में देखते थे और वे बिना पुस्तक के ही बड़ी सुरीली आवाज में एक-एक शब्द का उच्चारण करते थे। फिर हम लोग पढ़ते थे। जितना वे उच्चारण कराते उतना हम लोग याद कर लेते थे। आज तक वह सब स्मरण में है। तब हम लोगों ने उनसे पूछा-‘महाराज जी ! आपको ये कब से याद है?' तब उन्होंने बताया-‘जैसे आप लोग आज है ना, ऐसे ही समय पर याद किया था।" इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज यदि किसी को समय देते तो संसार की बातें नहीं करते अपितु उनके कल्याणार्थ ज्ञान की बातें करते इसी प्रकार सदलगा के श्रीमान् महावीर जी अष्टगे जो ब्रह्मचारी विद्याधर जी के अग्रज भ्राता हैं, उन्होंने २०१६ ब्यावर में बताया- जाना तो निश्चित है! किन्तु संयम के साथ या असंयम के साथ? विचार करो ‘‘विद्याधर ने दादा पारिसप्पा को नहीं देखा क्योंकि मेरे जन्म के २ वर्ष बाद उनका स्वर्गवास हो गया था किन्तु विद्याधर को दादीजी काशीबाई का प्यार दुलार खूब मिला। सन् १९७० में मेरी दादी काशीबाई का स्वर्गवास हो गया था। इस कारण १९७0 चातुर्मास में पूरा परिवार दर्शन हेतु नहीं गया, किन्तु मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और रेनवाल गया था। दूसरे दिन हमने मुनि श्री विद्यासागर जी को बताया कि दादी का स्वर्गवास हो गया। तब सुनकर मुनि विद्यासागर जी बोले- ‘अच्छा-अच्छा! उम्र तो काफी हो गई थी। पहले के लोग १00 साल तक जीवित रहते थे और बिना कोई रोग-शोक के बिना तकलीफ के आयु पूर्ण करते थे। सभी को एक दिन यहाँ से जाना है। कोई पहले जाता है, कोई बाद में जाता है। बस विशेषता यह है कि कैसे जाना है-संयम के साथ या असंयम के साथ? इस पर अच्छे से विचार कर लेना चाहिए। वही समझदार कहलाता है। बस उनकी यह प्रेरणा लेकर जब हम घर वापिस आये और सभी परिवार को यह संदेश सुनाया तो सभी सुनकर बहुत भीतर तक चले गये।'' इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज कोई भी चर्चा में तत्त्व को पकड़ लेते थे। धन्य हैं! ऐसे गुरु-शिष्य को पाकर हम शिष्यानुशिष्य कृत-कृत्य हो गए। उनके श्री चरणों की धूल तब तक बना रहूँ जब तक मुक्ति न मिले.. आपका शिष्यानुशिष्य
  12. पत्र क्रमांक-१४६ ०४-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर ज्ञाता और ज्ञेय में अन्तर्निहित क्रियावती शक्ति के ज्ञायक परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ज्ञानाचरण में प्रणिपात करता हूँ... हे गुरुवर! रेनवाल चातुर्मास में आपने ज्ञान की गंगा बहायी। तब ग्रन्थों में जहाँ कहीं कोई अशुद्धि किसी कारणवश आयी है, वह आप बताते और सुधराते थे। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- आचार्य गुरुवर ने करायी भूल-सुधार ‘‘रेनवाल चातुर्मास में एक दिन गुरुदेव ने प्रात:कालीन धर्म-परीक्षा में पं.दौलतराम जी की छहढाला के बारे में बताया कि छहढाला में दौलतराम जी ने जैनधर्म का सार मानो गागर में सागर के समान भर दिया है। आगे एक सुधार बतलाते हुए बोले- ‘चौथी ढाल में श्रावक के शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत एक पंक्ति आती है- 'धर उर समता भाव, सदा सामायिक करिये।' इसमें सदा सामायिक करिये' के स्थान पर ‘सामायिक प्रतिदिन करिये।' यह वाक्य अधिक उपयुक्त बैठता है, क्योंकि सामायिक चारित्र तो महाव्रती मुनिराजों का होता है, श्रावक का नहीं, इसलिए सदा के स्थान पर प्रतिदिन बोलना चाहिए।' गुरुवर ने शुद्ध पाठ पर दिलाया ध्यान आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की आगम पर इतनी मजबूत पकड़ थी कि वे स्वाध्याय के दौरान अशुद्ध पाठों को बताते थे और उसे संस्कृत व्याकरण से, सिद्धान्त से, अध्यात्म से, साहित्य से, दर्शन से सिद्ध करते थे। ऐसे महान् ज्ञानी गुरुदेव ने एक दिन ‘बृहद् स्वयंभू स्तोत्र' पढ़ाते समय बोले- आजकल के प्रकाशक अज्ञानता के कारण अशुद्ध पाठ छाप देते हैं। हम लोगों ने पूछा जैसे! तब उन्होंने बताया- ‘सर्वस्य तत्त्वस्य भवान् प्रमाता, मातेव बालस्य हितानुशास्ता। गुणावलोकस्य जनस्य नेता, मयापि भक्त्या परिणूयसेऽद्य ॥३५॥ भगवान सुपार्श्वनाथ की स्तुति के इस छन्द में चतुर्थ चरण में ‘परिणूयऽतेद्य' होना चाहिए क्योंकि भवान् प्रमाता शब्दानुसार परिणूयते क्रिया सही है। स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया, दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः ।। त्वमार्य ! नक्तंदिवमप्रमत्तवा नजागरेवात्मविशुद्धवर्मनि ॥४८॥ भगवान शीतलनाथ जी की स्तुति के इस छन्द के तीसरे चरण में दिवप्रमाद्वान्' पाठ उपयुक्त बैठता है और भगवान वासुपूज्य की स्तुति का यह छन्द भी शुद्ध नहीं लगता। न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृति नः, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥५७॥ यहाँ पर चतुर्थ चरण में 'पुनाति चित्तं' पाठ ज्यादा श्रेष्ठ बैठता है। भगवान मुनिसुव्रत जिनस्तवन की स्तुति में ११५वें छन्द के प्रथम चरण में दुरितमलकलंकमष्टकं के स्थान पर दुरितमलकलंकाष्टकं पाठ अच्छा बैठता है।'' इस प्रकार आप समय-समय पर श्रुतज्ञान के दोषों से संघ को बचाते रहते थे। आपश्री के ज्ञायकभाव को त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  13. पत्र क्रमांक-१४५ ०३-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर स्वभावगत संवादी, सुखी शान्तिपूर्ण जीवन के स्वामी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.. हे गुरुवर! आपकी तपस्या एवं आशीर्वाद के कई चमत्कार रेनवाल वालों ने सुनाये, जो मैं आपको बता रहा हूँ। श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया ने बताया- गुरु ने दिया अर्थपुरुषार्थ का उपदेश “आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बड़े दयालु थे और सीधे-सरल साधु थे। उनकी सेवा में ४ माह तक धर्मचंद जी बाकलीवाल पूरे तन-मन से लगे हुए थे। एक दिन उनके परिजनों ने आचार्य श्री से कहा- यह कुछ भी नहीं करता है। कैसे चलेगा? महाराज! इसे कुछ बुद्धि तो दो- कुछ तो काम-धाम करे। हाथ पै हाथ धरे बैठे रहने से जीवन कैसे चलेगा? तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने धर्मचंद जी से पूछा- क्या कारण है?' तब धर्मचंद जी बोले-महाराज यहाँ कोई काम नहीं है । तब आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बोले-' श्रावक के योग्य जो पुरुषार्थ है वह करना चाहिए। फिर ५-७ मिनिट बाद बोले-तुम्हारा अच्छा समय आ गया है। जैसे बने वैसे पुरुषार्थ करो और माता-पिता की सेवा करो। धर्म को कभी मत भूलना।' तब चातुर्मास के बाद धर्मचंद जी आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से आशीर्वाद लेकर असम चले गए और वहाँ पुरुषार्थ करके धन और नाम दोनों कमाये।'' इसी प्रकार रेनवाल के रतनलाल जी गंगवाल, जो वर्तमान में सुभाषनगर जयपुर में निवासरत हैं, उन्होंने १५-११-२०१५ को बताया- आचार्य गुरुवर की तपस्या का चमत्कार ‘‘सन् १९७० में रेनवाल चातुर्मास में एक दिन जयचंदलाल जी सेठी आचार्य महाराज के पास आये और अपने हाथों की अंगुलियों में हुए चर्म रोग को दिखाकर बोले- क्या मैं आहार दे सकता हूँ? तब ज्ञानसागर जी महाराज बोले- 'यह तो चर्म रोग है, ऐसे रोग वालों से आहार लेने के लिए आगम में निषेध किया गया है। वे काफी दुखी हुये तभी पास में बैठे एक सज्जन ने कहा- 'आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पादप्रच्छालन का गंधोदक अपनी अंगुलियों पर लगाओ यह रोग ठीक हो जायेगा। जयचंदलाल जी उन सज्जन की बात पर विश्वास करके प्रतिदिन गंधोदक लगाने लगे। कुछ ही दिनों में वह रोग कम होते-होते समाप्त हो गया और उन्होंने अन्त में आहारदान देकर पुण्यार्जन किया। उनके मन से सारा दु:ख पलायन कर गया। यह चमत्कारी बात सर्वत्र फैल गई तब रेनवाल के ही जगदीशप्रसाद जी असावा (माहेश्वरी) जो जयचंदलाल जी के मित्र थे। वे यह बात सुनकर उनके पास आये। उन्होंने ३० वर्षों से गर्दन के पीछे चर्मरोग दिखाया और बोले बहुत इलाज करा लिया लेकिन ठीक नहीं हो रहा है। तब जयचंदलाल जी ने उनको भी आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का गंधोदक लगाने की सलाह दी। तब उन्होंने भी वैसा ही किया। देखते ही देखते कुछ दिनों में उनका भी चर्मरोग दूर हो गया। इस तरह आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की तपस्या की सिद्धी के कई उदाहरण हैं।" निष्पृही संत आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज १९७० किशनगढ़-रेनवाल चातुर्मास में सुबह-शाम स्वाध्याय धर्मचर्चा चला करती थी। मेरे पिताजी श्री गुलाबचंद जी की स्वाध्याय में काफी रुचि होने से वे भी स्वाध्याय में जाया करते थे। एक दिन आकर घर पर बोले- वास्तव में निष्पृही साधु कैसे होते हैं? इसे जानने के लिए पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को देखें तो उसे पता चल जायेगा। तब मैंने पिताजी से पूछा- 'आपने ऐसा क्या देख लिया?' तब पिताजी बोले-आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ब्रह्मचारी पं. भूरामल शास्त्री की अवस्था में थे तब उन्हें कई मन्त्रों की सिद्धियाँ थीं । एक बार एक गृहस्थ व्यक्ति को कोई विशेष विपत्ति आयी तो पं. भूरामल जी ने एक मंत्रित वस्तु मुझे दी थी और मैंने वह वस्तु उस व्यक्ति को दे दी थी। उससे वह व्यक्ति शीघ्र ही उस विपत्ति से बाहर निकल आया था। बाधाएँ दूर हो गयीं थीं। कुछ वर्ष पश्चात् पं. भूरामल जी ने क्षुल्लक दीक्षा ले ली थी। तब मैं रेनवाल के एक दूसरे व्यक्ति की समस्या लेकर क्षुल्लक ज्ञानभूषण जी के पास गया और उनको सारी बात बतलाई । निवेदन किया कि कोई मन्त्रित वस्तु दे दीजिए जिससे उसका भला हो जाये। तब क्षुल्लक जी बोले-‘गुलाबचंद जी वे सब बातें ब्रह्मचारी अवस्था के साथ ही चलीं गईं। अब तो मैंने पिच्छी धारण कर ली है। पिच्छीधारी ये सब कार्य नहीं करते।' इतना बोलकर वे मौन हो गए। मैं उनकी पिच्छी के महत्त्व और साधुओं की मर्यादा के पालन की दृढ़ता को देखकर अचम्भित रह गया उनकी साधना को प्रणाम करके चला आया। तब मैं गुरुवर ज्ञानसागर महाराज की निष्पृह वृत्ति एवं वीतराग साधना को पहचान पाया। इसी प्रकार दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भी आपके करुणारस के बारे में बताया- गुरुदेव ने किया स्वाध्यायरूपी चमत्कार ‘‘रेनवाल चातुर्मास में एक दिन एक श्रावक ने आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास आकर असाता कर्मोदय के कारण आये कष्टों को रोते हुए बताया और इन कष्टों से कैसे बचा जाये उसका निवारण पूछा। तब गुरुदेव ने सान्त्वना देते हुए कहा-‘घबराओ नहीं सब ठीक हो जायेगा। ७ दिनों में पद्मपुराण का पूर्ण स्वाध्याय करो। नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर शुरु करना और नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर बंद करना । विनय-भक्तिपूर्वक स्वाध्याय करना और स्वाध्याय की पूर्णता के लिए सात दिन तक कोई वस्तु का खाने में त्याग करना, जाओ सब ठीक हो जायेगा।' सात दिन बाद वह व्यक्ति आया तो बड़ा खुश हँसते हुए बोला आपने हमारे कष्टों को दूर कर दिया। चार दिन बाद हमारे कष्ट कम होते-होते पूर्णरूप से दूर हो गए। आज स्वाध्याय पूर्ण करके आया हूँ। संघस्थ सभी साधु गुरुदेव का यह स्वाध्यायरूपी चमत्कार देख प्रसन्न हो गए। आचार्य गुरुदेव ने दिया शान्ति के लिए मंत्र रेनवाल चातुर्मास में एक दिन एक श्रावक ने शाम को गुरुदेव से पूछा-महाराज! मेरा मन बहुत । अशान्त रहता है। कौन से मंत्र का जाप करूं? तब आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज बोले-‘दुनिया का सबसे बड़ा मंत्र है महामंत्र णमोकार। इसकी जाप, शुद्धि के साथ, सुबह-शाम किया करो। सब अशान्ति भाग जायेगी। समय का ध्यान रखना और अभक्ष्य नहीं खाना। अभक्ष्य खाने से मुख अपवित्र रहेगा तो मंत्र प्रभाव नहीं करेगा, ध्यान रखना।' कुछ दिनों बाद वह व्यक्ति आया और गुरुदेव को बताने लगा महाराज आपने बहुत बड़ा उपकार किया। आपके बताये अनुसार मंत्र जाप शुरु किया तो अशान्ति के सारे कारण दूर हो गये और अब मन पूर्णतः शान्त है। आचार्य महाराज बोले-‘लेकिन मंत्र मत छोड़ना। यही तारेगा तुमको संसार से।'' इस प्रकार आपके आशीर्वाद-तपस्या-वाणी-ज्ञान के अतिशय लोगों ने देखे हैं। आज हम शिष्यानुशिष्य उन संस्मरणों को सुन-सुनकर भावविभोर हो जाते हैं। हे दादागुरु! आप अपने मुनित्व की मर्यादाओं के अनुसार अपनी चर्या का पालन करते हुए भव्यों का दु:ख-दर्द हरते और उन्हें कल्याण का । मार्ग बताते। ऐसे निष्पृही निर्दोष चर्यापालक दादागुरु के पवित्र चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. पत्र क्रमांक-१४४ ०२-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आगमचक्खु गुरुवर परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आपकी सच्ची भावश्रुत ज्ञान साधना से आकर्षित होकर सरस्वती उपासक आपके दर्शनार्थ खिचे चले आते थे और आपसे आर्षमार्गी समाधान पाते थे। रेनवाल चातुर्मास में पर्युषण पर्व के बाद पं. श्री विद्याकुमार सेठी न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, विद्याभूषण, सिद्धान्तभूषण, भूतपूर्व हैड पण्डित राजकीय ओसवाल जैन उच्च विद्यालय अजमेर ने ०५-०९-१९७० को रेनवाल में आपके बारे में अपनी अनुभूति लिखी। जो ‘प्रवचनसार' (प्रकाशक-श्री महावीर प्रसाद (सांगाका) पाटनी किशनगढ़-रेनवाल, राजस्थान) में दो शब्द के रूप में प्रकाशित है। वह मैं आपको बताकर गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ- ‘‘गत आश्विन मास में कुचामन के पर्युषण पर्व को व्यतीत कर जब मैं आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा में किशनगढ़-रेनवाल पहुँचा और प्रस्तुत ग्रन्थ प्रवचनसार को आद्योपांत पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उस समय मेरे भाव हुए कि वर्तमान काल में दिगम्बर जैन समाज में निश्चयनय की मुख्यता तथा व्यवहार नय की मुख्यता को लेकर बहुत खिचाव हो रहा है, उनमें समन्वयमूलक सद्भावनापूर्वक आर्षमार्ग का विरोध नहीं करते हुए सच्चा समाधान-लौकिक संस्कृत विद्या के धुरन्धर विद्वान्, आत्मा के साधक, चिरतपस्वी, उपाध्याय एवं आचार्य परमेष्ठी द्वारा विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ द्वारा ही हो सकता है। यह एक अनुपम अप्रकाशित निधि है, इसके प्रकाशन से अध्यात्म प्रेमी भाईयों को एक आदर्शमार्ग की सत्प्रेरणा प्राप्त होगी। हर्ष है कि मेरी इस प्रार्थना पर पूर्ण ध्यान देकर श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपना अमूल्य समय व्यतीत करते हुए इसकी प्रतिलिपि पूर्ण करके दी । इस ग्रन्थ की कई विशेषताएँ हैं- १. मूल ग्रन्थ की गाथाओं का केवल छायानुवाद ही नहीं बल्कि उसके मार्मिक लक्ष्य को अनुष्टुप सरीखे छोटे श्लोकों में रचकर गागर में सागर भरने का प्रयत्न किया है। २. इसके साथ ही श्लोक का भाव भी यदि कहीं स्पष्ट न हुआ हो तो उसी का समर्थक एक हिन्दी भाषामय पद्य बनाकर एक बड़ी कमी की पूर्ति भी इस ग्रन्थ में आचार्य महाराज द्वारा की गई है। ३. सारांश एवं शंकापूर्वक सरल हिन्दी गद्य में विवेचन करके तो आचार्यश्री ने अपने अनुपम पाण्डित्य एवं क्षयोपशम के द्वारा संस्कृत से अपरिचित आबालवृद्ध सज्जनों का बड़ा भारी उपकार किया है; स्थान-स्थान पर प्रत्येक जटिल विषय को समझाने के लिए बड़ी सरल परिभाषायें लिखकर लौकिक दृष्टान्तों द्वारा उन गम्भीरतम विषयों का सरलीकरण करके दिगम्बर जैन मुनि संघ के अपवाद को दूर करने का बड़ा सुन्दर प्रयत्न किया है क्योंकि कई लोग ऐसा कहते हैं कि वर्तमान में दिगम्बर जैन मुनियों में चौके और खान-पान की शुद्धि पर ही जोर दिया जाता है, इसके अतिरिक्त साधु महात्मा कुछ भी लोक के उपकार करने का ध्यान नहीं रखते हैं। अधिक कहाँ तक कहा जाय, इस ग्रन्थ के अत्यन्त सरल एवं हृदय में अद्भुत ज्योति के संचार करने वाले वाक्य पढ़कर पाठक इस प्रयत्न की भूरि-भूरि प्रशंसा किए बिना नहीं रहेंगे। आचार्यश्री ने आध्यात्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ उच्चतम साहित्यिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है। आप स्वर्गीय श्री १०८ आचार्य श्री वीरसागर जी एवं श्री १०८ आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज के संघ में सफल उपाध्याय के रूप में भी रह चुके हैं और इस वृद्धावस्था में भी श्री १०८ श्री विद्यासागर जी सदृश विद्वान् साधु का निर्माण करके सदा ज्ञान और ध्यान में ही लीन रहते हुए अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना की पूर्ण साधना कर रहे हैं। इस कार्य की श्री १०८ आचार्य धर्मसागर जी महाराज भी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। जब सम्यग्दर्शन की महिमा के ही इतने गीत गाए जाते हैं तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के एकात्मक रूप रत्नत्रय मोक्ष के मार्ग का क्या कहना है! हमारा उसके प्रति बहुमान कैसे नहीं होगा? सम्यग्दर्शनरूपी वृक्ष की सफलता तो चारित्र से ही है, सम्यग्दर्शन तो चारों गतियों में भी हो सकता है किन्तु सम्यक्चारित्र की पूर्णता तो मनुष्यगति के अतिरिक्त कहीं नहीं है। मैं इस ग्रन्थके कई मौलिक अवतरणों से अत्यन्त प्रभावित हुआ हूँ और उन मार्मिक स्थलों को ध्यानपूर्वक पढ़ने के लिए पाठकों से निवेदन भी करना चाहता था किन्तु खाण्ड की रोटी जिधर से तोड़ो उधर से ही मीठी है। इस ग्रन्थ का कोई भी भाग उपेक्षणीय नहीं है। वह सारा ही ग्रन्थ कम से कम तीन बार पढ़ने के योग्य है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के मनोरथ को पूर्ण करने में श्री महावीरप्रसाद जी पाटनी, किशनगढ़रेनवाल से हमें आर्थिक सहायता के रूप में ५००१/-रु. की राशि प्राप्त हुई, इसके लिए इनको ग्रन्थमाला की ओर से जितना धन्यवाद दें उतना ही थोड़ा है। ये बड़े उत्साही और कृतज्ञ सज्जन हैं। ग्रन्थ की पूर्ण संलग्नता से प्रेस कापी करके श्री पण्डित महेन्द्रकुमार जी पाटनी, काव्यतीर्थ, मदनगंज-किशनगढ़ ने प्रकाशन कार्य में सक्रिय सहयोग दिया एतदर्थ उन्हें भी इस समय नहीं भुलाया जा सकता। श्री नेमिचंद जी बाकलीवाल को भी सुन्दर एवं आकर्षक मुद्रण के लिए धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सकता, जिनके प्रयत्नों के कारण यह ग्रन्थ इतना सुन्दर बन पड़ा है। अध्यात्मिक ग्रन्थ एक शुष्क चट्टान के समान है जिसे कोई नहीं चाटना चाहता किन्तु आकर्षक एवं पठनीय ग्रन्थ का छपना इस दिशा में बहुत आवश्यक प्रयत्न है।'' इस प्रकार मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज आपकी आगमोक्त कृति का प्रकाशन शीघ्र कराना चाहते थे। अतः निमित्त पाकर उन्होंने अपने व्यस्ततम समय में से आपकी हस्तलिखित प्रवचनसार की पाण्डुलिपि को प्रकाशन योग्य लिपि में लिखकर प्रकाशन हेतु पण्डित जी को दी। जो आज तक समाज में जिज्ञासुओं की जिज्ञासायें शान्त कर ज्ञानामृत से तृप्त कर रही है। धन्य हैं ऐसे आर्षमार्गी मूलसंघी आचार्य कुन्दकुन्दाम्नायी गुरु-शिष्य को पाकर यह भटकती आत्मा उपकृत हुई है। ऐसे पावन चरणों में नमस्कार करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  15. पत्र क्रमांक-१४३ २७-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर निर्बन्ध किन्तु आगम से बंधे दादा गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल भक्ति से बंधा हुआ नमस्कार करता हूँ... हे गुरुवर! रेनवाल में आपने और आपके लाडले शिष्य ने प्रतिनियत समय पर केशलोंच किए। जिसके बारे में रेनवाल के आपके अनन्य भक्त श्रीमान् गुणसागर जी ने बताया ‘‘रेनवाल में हम लोगों ने ज्ञानसागर जी महाराज और मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के २-२ बार केशलोंच देखे थे। सभी लोगों के कहने पर उन्होंने अपने केशलोंच मंच पर किये थे। जिसको देखने के लिए पूरी जैन समाज एवं अजैन बन्धु भी आये थे। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के केशलोंच मुनि श्री विद्यासागर जी करते थे और फिर अपना केशलोंच वे स्वयं करते थे। विद्यासागर जी के केशलोंच देखतेदेखते लोगों की आँखों में आँसू आ जाते थे। गौरवर्णी शरीर पर काले-काले धुंघराले बाल और दाड़ी-मूंछ को बड़ी दृढ़ता से उखाड़ते थे। उखाड़ते समय खून भी आ जाता था। दिगम्बर मुनि की इस वीर साधना को कई लोग देख नहीं पाते थे, घबरा जाते थे, वे लोग उठकर चले जाते थे। जिस समय केशलोंच चला करते थे, उस समय रेनवाल के विद्वान् गुलाबचंद जी गंगवाल और बाहर से पधारे हुए विद्वान् ओजस्वी भाषण दिया करते थे।" इस सम्बन्ध में रेनवाल के गुलाबचंद जी गंगवाल जी ने जैन संदेश अखबार में २२-१०-१९७० को समाचार प्रकाशित कराया- केशलोंच ‘‘किशनगढ़-रेनवाल-गत आश्विन शुक्ला १० रविवार ता. १०-१०-१९७0 को यहाँ पर आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज व मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का केशलोंच हुआ। जिसमें करीब एक हजार व्यक्ति दर्शनार्थ पधारे। संघ के चातुर्मास के कारण यहाँ अपूर्व प्रभावना हो रही है। संघ में उच्च कोटि के आध्यात्मिक व संस्कृत के न्याय ग्रन्थों का बराबर अध्ययन चलता रहता है। अजमेर वाले ब्र.पं. विद्याकुमार जी सेठी भी इस समय यहाँ पधारे हुए हैं। जो आचार्य श्री के सान्निध्य में धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। सभी सज्जनों को यहाँ पधारकर धर्मलाभ लेना चाहिए।' इस तरह रेनवाल में मनोज्ञ मुनिराज श्री विद्यासागर जी महाराज का दीक्षोपरान्त नौवां केशलोंच महती प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ। रेनवाल में धर्म की साधना के साथ-साथ धर्मप्रभावना की ध्वजा फहराती रही। ऐसे श्रमण संस्कृति की ध्वजा को फहराने वाले गुरु-शिष्य के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. पत्र क्रमांक-१४२ २६-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर चित्चमत्कार चैतन्य स्वरूप साम्यभाव के आराधक दादा गुरुवर के चरणों में त्रिकाल भावविशुद्धि पूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु...हे गुरुवर! रेनवाल में प्रतिदिन तो प्रवचन गंगा बहती रही किन्तु प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी आपके सान्निध्य में विशेष आयोजन के मिस प्रवचनामृत की विशेष वर्षा हुई। इस सम्बन्ध में जैन गजट १०-०९-१९७० में गुलाबचंद गंगवाल का समाचार प्रकाशित हुआ- स्मृति दिवस ‘‘किशनगढ़ (रेनवाल)-परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज का १५ वां समाधि दिवस मिति भाद्रपद शुक्ला २ बुधवार २-९-७० को पूज्य आचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में उत्साह के साथ मनाया गया। प्रातः स्वर्गीय आचार्यश्री के फोटो का जुलूस निकाला गया। दोपहर में पूजन व सभा का आयोजन किया गया। पर्युषण पर्व में रोजाना पूज्य आचार्य महाराज का तत्त्वार्थसूत्र पर व मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी का दशलक्षण धर्म पर प्रवचन बहुत ही मार्मिक व विद्वत्तापूर्ण होता है। तीन लोक मण्डल विधान का आयोजन होने से महती धर्म प्रभावना हो रही है।" इस तरह रेनवाल के लोगों के सातिशय पुण्य के उदय से उन्हें दशलक्षण पर्व में विशेष धर्माराधना का सुअवसर मिला एवं विधान में पुण्यार्जन करने का। ऐसे गुरु-शिष्य के पावन सान्निध्य को प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
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