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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१७५ ०७-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आचार्यत्व के धनी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के पावन चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! ब्रह्मचारी दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) के दीक्षा के निवेदन पर विचारकर आपने २० अक्टूबर १९७२ आश्विन शुक्ला त्रयोदशी के दिन क्षुल्लक दीक्षा देने का मुहूर्त निकाला। समाचार चारों तरफ फैल गए। दीक्षार्थी की बिन्दौरी निकाली गई। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- आचार्य गुरुवर ने सिखायी क्षुल्लक दीक्षा देना ‘‘दीक्षा से पूर्व रात्रि में बिन्दौरी निकली और एक दिन पूर्व ही प्रात: पं. चंपालाल जी ने गणधर वलय विधान की पूजा करवायी। दीक्षा के दिन सुबह ८ बजे कार्यक्रम शुरु हुआ। सर्वप्रथम मंच पर केशलोंच किए। केशलोंच मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने किए थे। फिर गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने संस्कार किए। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को वे क्रमशः बताते जा रहे थे। पिच्छी-कमण्डलु देने के बाद गुरुदेव ने नामकरण किया बोले-इन्हें गृहस्थावस्था के नाम से नहीं क्षुल्लक स्वरूपानंदसागर नाम से पुकारा जायेगा। इस तरह आपने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की योग्यताओं को देखकर शुरु से ही उन्हें आगम के आलोक में दीक्षा देना सिखाया। सन् १९६९ में मुनि और ऐलक दीक्षा देना सिखाया एवं १९६९ के चातुर्मास में सल्लेखना-समाधि करना सिखाया। सन् १९७० में क्षुल्लक दीक्षा देना सिखाया। १९७२ में पुनः क्षुल्लक दीक्षा देना सिखाया। इस दीक्षा से सम्बन्धित समाचार कैलाशचंद जी पाटनी ने 'जैन गजट' २६ अक्टूबर १९७२ गुरुवार में प्रकाशित कराया- नसीराबाद में क्षुल्लक दीक्षा समारोह ‘‘दिनांक २० अक्टूबर १९७२ को नसीराबाद में आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा ब्र. श्री स्वरूपानंद जी (पूर्वनाम श्री दीपचंद जी जैन) को विशाल जन समूह के बीच क्षुल्लक दीक्षा दी गयी। इस अवसर पर आस-पास के सभी क्षेत्रों से हजारों नर-नारी आये थे। प्रातः नसियाँ जी से श्री जिनेन्द्र भगवान की सवारी निकाली व दीक्षार्थी एवं उनके माता-पिता का हाथी पर जुलूस निकला, जो कि दीक्षास्थल पर समाप्त हुआ। दीक्षा के पूर्व ब्र. स्वरूपानंद जी ने आचार्य श्री से दीक्षा देने के लिए विनती कर सभी प्राणियों से क्षमायाचना की। आपने इस अवसर पर कहा कि मानव का सर्वोत्कृष्ट विकास संयम धारण करने से ही सम्भव है और इसलिए जैनधर्म में संयम और त्याग की प्रधानता बताई। इस अवसर पर स्थानीय समाज ने आचार्य श्री के महान् त्याग-तपस्या एवं ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें चारित्रचक्रवर्ती की पदवी से जयजयकारों के नारों के मध्य अलंकृत किया। जैन समाज के शिरोमणि श्रीमान् सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी ने अपने मार्मिक भाषण में कहा कि आचार्यश्री जहाँ तप व आत्मचिंतन में लीन रहते हैं। वहाँ इस वृद्धावस्था में भी नियमित रूप से संघ के सभी त्यागियों को ज्ञानार्जन कराते रहते हैं। आपने इस संदर्भ में भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव का उल्लेख करते हुए समाज से अपील की कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को नित्य ही पैसा इस महान् कार्य के लिए निकालना चाहिए। जिससे समाज भगवान महावीर के वैशिष्ट्य के अनुरूप महोत्सव मना सके। दीक्षा समाप्ति के पूर्व बाल ब्रह्मचारी युवा मुनिराज १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज ने अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में अहिंसा व अपरिग्रहवाद की महत्ता पर प्रकाश डाला। आपने कहा-'हमारा चारित्र और दैनिक क्रियाएँ भी अहिंसात्मक होनी चाहिए। ताकि हम वास्तव में धर्म व देश रक्षक बनने के अधिकारी हों। आज जो देश में समाजवाद का नारा बुलंद हो रहा है। वह जैन धर्म का अपरिग्रहवाद है। जिसका सबको पालन करना चाहिए। दीक्षा के अवसर पर समाज द्वारा समाजसेवी श्री सुमेरचंद जी जैन को समाजरत्न की पट्टी से अलंकृत किया गया।' इस तरह आपके चरित्र एवं तप, त्याग, ज्ञानसाधना देखते हुए समाज ने भक्तिवशात् आपको चारित्रचक्रवर्ती पद से नवाजते हुए आनंद की अनुभूति की । ऐसे चारित्र चक्रवर्ती गुरुवर श्री के पवित्र चरणाचरण को त्रिकाल नमन वंदन अभिनंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१७४ ०६-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर आगम के श्रेष्ठ व्याख्याता परमपूज्य आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में त्रिकाल नमन निवेदित करता हूँ... हे गुरुवर! अतिवृद्धावस्था के बावजूद भी आप नसीराबाद चातुर्मास में मोक्षशास्त्र पर प्रवचन करते और आपके लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज प्रातः एवं दोपहर में मार्मिक प्रवचन करते । नसीराबाद में पर्युषण पर्व में अनेक कार्यक्रम हुए। इस सम्बन्ध में १२ अक्टूबर १९७२‘जैन गजट' में माणिकचंद जी ने समाचार प्रकाशित करवाया- पर्युषण पर्व सोत्साह सम्पन्न ‘नसीराबाद-यहाँ पर परमपूज्य आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज एवं बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के ससंघ विराजमान होने से पर्व में अनेक कार्यक्रम सम्पन्न हुए। प्रातः ६:३०-७:३० बजे तक ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक' पर मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी का प्रवचन, मध्याह्न में २:00-३:00 बजे तक आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का ‘मोक्षशास्त्र' पर प्रवचन, ३:00-३:३० बजे तक क्षुल्लक श्री १०५ विनयसागर जी महाराज का दसधर्म पर प्रवचन, पश्चात् पूज्य मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का प्रत्येक धर्म पर बहुत ही मार्मिक प्रवचन होता था। रात्रि में पं. चंपालाल जी विशारद व क्षु. श्री १०५ पद्मसागर जी महाराज का प्रवचन होता था। भादवा सुदी १४ को आचार्य श्री का केशलोंच हुआ व उसी दिन ब्रह्मचारी स्वरूपानंद जी ने ११वीं प्रतिमा धारण करने हेतु आचार्य श्री से प्रार्थना की। श्री कजौड़ीमल जी अजमेरा ने उसी दिन आचार्य श्री से दूसरी व्रत प्रतिमा ग्रहण की।'' इस तरह दसलक्षण पर्व में संघ के प्रवचन बड़ी ही सरल भाषा में सुरुचिपूर्ण उदाहरण सहित होने के कारण नसियाँ जी का प्रांगण पूर्ण भरा रहता था और दिन में २ से ४ बजे तक दसलक्षण एवं चौबीसी का मण्डल विधान-पूजन भी खूब आनंद से हो गया। श्रावकों के धर्मध्यान में आपश्री का संघ निमित्त बना और जीवन के अन्तिम समय तक आप समाज को आत्मतत्त्व दिखाते ही रहे ऐसे वे क्षण आज नसीराबाद के लोग याद करते हैं। उन ऐतिहासिक क्षणों को नमन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१७३ ०५-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर विनम्रता के प्रतीक दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपने नसीराबाद चातुर्मास में एक दिन विनय सम्पन्नता के बारे में समझाते हुए अपने गुरु वीरसागर जी महाराज का संस्मरण सुनाते हुए जब आपकी आँखें भर आयीं थीं तब का वह संस्मरण श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने सुनाया वह मैं आपको बता रहा हूँ- विणयं मोक्खारं ‘नसीराबाद चातुर्मास में दसलक्षण पर्व के छठे दिन गुरुदेव ने तत्त्वार्थ सूत्र के छठे अध्याय के चौबीसवें सूत्र पर व्याख्यान करते हुए सन् १९५१ का एक प्रसंग सुनाया- ‘‘विनयसम्पन्नता बहुत अच्छा तत्त्व है, इससे तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव तो होता ही है, साथ ही यह मोक्ष का द्वार कहा गया है। ८ शुद्धियों में विनय शुद्धि को रखा गया है क्योंकि अंतरंग तप होने से इससे अत्यधिक कर्म निर्जरा होती है। और सूत्रकार ने ज्ञान विनय को आगे रखा है क्योंकि ज्ञान से ही दर्शन, चारित्र और उपचार विनय हो सकती है। इसलिए ज्ञान की महिमा अपरंपार है। ज्ञान विनय में किसी प्रकार की कमी नहीं होना चाहिए। ज्ञान के क्षेत्र में उम्र का छोटा-बड़ा होना कोई महत्त्व नहीं रखता। यदि उम्र में छोटा व्यक्ति भी उत्कृष्ट ज्ञान रखता है तब भी वह ज्ञान विनय करने योग्य है। एक बार सन् १९५१ में फुलेरा में आचार्य वीरसागर जी महाराज ससंघ चातुर्मास कर रहे थे। संघ में ब्रह्मचारी भूरामल छाबड़ा भी थे। तब एक दिन पूज्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज जंगल जाने के लिए खड़े हुए और कमण्डल देखने लगे। कोई कमण्डल में जल भरने के लिए ले गया था तो महाराज खड़े-खड़े प्रतीक्षा करने लगे। भूरामल ने देखा तो वह शीघ्र जाकर दो कमण्डलु उठाकर ले आए। एक आचार्य श्री का और एक दूसरे मुनिराज का और लाकर पूज्य आचार्य श्री को एवं मुनिराज को प्रदान किया। ब्रह्मचारी भूरामल को कमण्डलु लाते देख आचार्य वीरसागर महाराज बोले-‘ब्रह्मचारी जी आप यह काम मत किया करें। कमण्डलु लाना आपको शोभा नहीं देता है क्योंकि आप शिक्षा गुरु हैं। आप संघ में धर्मशास्त्र पढ़ाते हैं। इसलिए आप कमण्डलु लेकर आये तो हमको अच्छा नहीं लगा। भविष्य में कभी ऐसा मत करना।'' ऐसा बताते हुए गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की आँखें डबडबा आयीं, बोले-‘आचार्य गुरुदेव वीरसागर जी महाराज की विनय सम्पन्नता देखते ही बनती थी। इस तरह अपने गुरु के प्रति आपकी विनय देख संघस्थ साधु बड़े ही आह्लादित हुए। ऐसे गुरुशिष्य के चरणों में नमन करता हुआ भावना भाता हूँ कि मुझे भी ऐसी दृष्टि मिले। मैं भी विनयशीलता के दोषों को दूर रख सकूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१७२ ०४-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर प्रासंगिकता को अपूर्व मौलिक और नवीनता प्रदायक परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी दादा महाराज के परित्राता चरणों में त्रिकाल प्रणति निवेदित करता हूँ... हे गुरुवर! इक्ष्वाकु धर्म राज्य के सच्चे तेजधर और वंशधर मेरे गुरुवर को आपने जो संस्कार दिए, वे चार वर्ष में ही फल-फूलकर भारतीय संस्कृति को संरक्षण प्रदान करने लगे। इस सम्बन्ध में मुझे नसीराबाद के रतनलाल जी पाटनी ने २३-१०-२०१५ भीलवाड़ा में बताया- शेर तो हमेशा शेर रहता है ‘नसीराबाद चातुर्मास के मध्य ‘धर्मयुग' पत्रिका के सम्पादक यशपाल जैन के सुपुत्र एक जर्मन स्कॉलर्स को साथ लेकर गुरु महाराज के दर्शन करने आए। उन्होंने आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज एवं मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज से जैनधर्म सम्बन्धी गूढतम प्रश्न पूछे। दोनों महाराजों ने बड़े ही सरल तरीके से जवाब दिए। मुनि श्री विद्यासागर जी तो बीच-बीच में अंग्रेजी बोलकर जवाब देते थे। उसकी शंकाओं का समाधान होने से वह जर्मन का व्यक्ति बड़ा प्रभावित हुआ। हम लोग भी ये चर्चा सुन रहे थे। चर्चा तो समझ में नहीं आती थी किन्तु उनकी चर्चा से वातावरण आनंदपूर्ण बन गया था। तब दूसरे दिन वह जर्मन का व्यक्ति मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज की ओर इशारा करके बोला-हम इनको जर्मनी ले जायेगा। तब आचार्य विद्यासागर जी बोले-‘रास्ता कहाँ से मिलेगा। तो वह व्यक्ति बोला-यहाँ से पाकिस्तान, अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुँच सकते हैं लेकिन आपको चारों तरफ से कवर करके चलेंगे। तब मुनि विद्यासागर जी बोले-‘शेर तो शेर ही रहता है, उसे किसी प्रकार का बंधन स्वीकार नहीं होता।' यह सुनकर हम सभी लोगों ने तालियाँ बजा दीं।" इस तरह आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरुवर आज तक बहादुरी के साथ दिगम्बरत्व की निर्भीक सिंहवृत्ति-चर्या का पालन करते हुए भारतीय संस्कृति की ध्वजा को फहरा रहे हैं। मेरे गुरु यह सब आपकी ही कृपा का फल मानते हैं। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में समर्पित... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-१७१ ०३-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर पारखी नजर से सम्पन्न गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में सदा की तरह नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! 'जिन खोजा तिन पाईयाँ, गहरे पानी बैठ।' जब से मैंने ज्ञान के सागर में गोता लगाया मुझे आप जैसे दादागुरु भविष्यद्रष्टा, भविष्यवक्ता के दर्शन हुए और आपके लाड़ले शिष्य विद्या के सागर में गोता लगाया तो इस युग के विश्वगुरु अपराजेय साधक का दर्शन हुआ। आपकी पैनी दृष्टि ने मेरे गुरु के अन्दर भविष्य का संत शिरोमणि देख लिया था। नसीराबाद के शान्तिलाल जी पाटनी ने इस सम्बन्ध में एक संस्मरण लिखकर भेजा वह मैं आपको बता रहा हूँ गुरु की भविष्यवाणी सच हुई ‘नसीराबाद चातुर्मास में एक बार मूलचंद जी, छगनलाल जी पाटनी, ताराचंद जी, मनोहरलाल जी आदि मोक्षमार्ग प्रकाशक के बारे में मुनि श्री विद्यासागर जी से चर्चा कर रहे थे। तो विद्यासागर जी निश्चयाभासियों की काट कर रहे थे और मैं आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पास बैठा सुन रहा था। बीच-बीच में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज, विद्यासागर जी महाराज के तर्क पर हँसते हुए सिर हिलाते। तब ज्ञानसागर जी महाराज मुझसे बोले-‘शान्तिलाल कोई समय विद्यासागर जी प्रतिभाशाली मुनि महाराज बनेंगे, दुनियाँ में जैन धर्म का डंका बजायेंगे।'' हे गुरुवर! ‘पूत के लक्षण पालने में यह उक्ति आज चरितार्थ हो गयी। आपकी पारखी नजरों ने जैसा पहचाना था वह आज सच हो गया है। आपके श्रीचरणों में नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-१७० ०२-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर श्रामण्य के परिपालक गुरुवर परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में संख्यातीत नमन करता हूँ... हे गुरुवर! १९७२ नसीराबाद चातुर्मास में भी आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरु मूलगुण और उत्तरगुणों की साधना में सतत लगे रहे। दीक्षा के बाद से ही साधनामय संघर्ष करना उनकी आदतों में सुमार होता जा रहा था। उनकी अनुभूति ने मूकमाटी महाकाव्य में लिखा-‘‘संघर्षमय जीवन का अन्त, हर्षमय हुआ करता है।'' इस सम्बन्ध में दीपचंद जी (नांदसी) ने बताया मुनि अपना संकल्प नहीं छोड़ते “मुनि श्री विद्यासागर जी दीक्षा के समय से ही परीषहजय को मूलगुणों के समान मानकर ही उनको विजय करते रहे थे। नसीराबाद चातुर्मास में एक दिन शाम की सामयिक खुले में कर रहे थे। तब तेज वारिश आ गई वे सामयिक में जैसे के तैसे बैठे रहे आधे घण्टे बाद जब श्रावक लोग आये उन्होंने देखा तो उन श्रावकों ने पाटे सहित उठा लिया और बरामदे में ले गए। दूसरे दिन उन्हीं श्रावकों ने मुनिवर से कहा-आप पानी में सामयिक कर रहे थे, ऐसे में बीमार हो जायेंगे। तब मुनिवर बोले-‘पानी में सामयिक नहीं कर रहा था।' तो श्रावक बोले-कल हम लोगों ने देखा तभी तो हम लोगों ने पाटा सहित आपको उठाया था। तब मुनिश्री बोले-‘मैं वही तो कह रहा था सुनो तो, मैं पानी में सामयिक नहीं कर रहा था। सामयिक कर रहा था तो पानी आ गया था और सामयिक संकल्पपूर्वक की जाती है। मुनि अपना संकल्प नहीं छोड़ते, अभी तो जवानी है, जवानी में ही तो साधना होगी।' इस तरह आपके लाड़ले शिष्य अपनी साधना में किन्तु-परन्तु नहीं लगाते थे और न ही किसी का हस्तक्षेप पसंद करते थे। ऐसे बहादुर साधक के गुरु चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. पत्र क्रमांक-१६९ ०१-०४-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर पूर्व में ही शंकालु की शंका के ज्ञाता परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में शंकारहित नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपने आगम का जीवनभर ज्ञान-ध्यान-चिंतन-मनन-अभ्यास किया। जिससे स्वाध्याय की सिद्धियाँ स्वयमेव आपके पास आ गयीं थीं। फलस्वरूप आप आगत व्यक्ति की भावनाओं को पहचान जाते थे। नसीराबाद चातुर्मास का ऐसा एक वाकया भागचंद जी बिलाला इंजीनियर ने सुनाया- प्रयोगात्मक समाधानकर्ता : गुरुवर ज्ञानसागर जी ‘‘एक दिन जब आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज संघ को स्वाध्याय करा रहे थे, उस वक्त मैं भी स्वाध्याय सुन रहा था। तभी एक व्यक्ति आया सफेद धोती-दुपट्टा पहने था। वह वहाँ आकर बैठ गया। उसने महाराज को नमोऽस्तु आदि भी नहीं किया, फिर वह अवसर पाकर बोला-मैं श्वेताम्बर मुनि बना पर मुझे वहाँ शान्ति-सुख की अनुभूति नहीं मिली और भी कई जगहों पर गया शान्ति को खोजता रहा, पर कहीं नहीं मिली। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने पूछा-'हमसे आपको क्या चाहिए?' तब उसने कहा-मुझे किसी से ज्ञात हुआ है कि आप बहुत ज्ञानी हैं, ध्यानी हैं, आत्मानुभूति करते रहते हैं अतः मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि शान्ति कैसे मिलेगी? तब गुरुवर ने कहा-'परिग्रह दुःख का कारण है अतः लंगोटी की चाह भी दु:खदायक है। तो वह व्यक्ति बोला-मेरा इन कपड़ों से बिल्कुल भी राग नहीं है। जिस तरह आप शरीर होते हुए भी शरीर से राग नहीं करते हैं, वैसे ही मैं भी इन कपड़ों से कोई राग नहीं करता। यह सुनकर गुरु महाराज ज्ञानसागर जी मुस्कुराने लगे। फिर उस व्यक्ति को इशारा करके पास बुलाया और जैसे ही वह पास में आया महाराज उसकी धोती पकड़कर गाँठ खोलने लगे। वह व्यक्ति एकदम घबरा गया तथा बोला-यह आप क्या कर रहे हैं? तब गुरु महाराज बोले- आपको इन कपड़ों से राग नहीं है सो इनको हटा रहा हूँ। जब आपको राग ही नहीं है तो घबरा क्यों रहे हो।' वह व्यक्ति धोती खींचते हुए पीछे हट गया। तो गुरु महाराज बोले-‘भैया! बिना राग के कपड़े पहने ही नहीं जाते, गाँठ लग नहीं सकती।' तब उस व्यक्ति को जवाब देते नहीं बना। इस तरह गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने प्रयोग करके उसे अनुभूत करा दिया कि अशान्ति का कारण क्या है?" इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भी २६-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बताया- समयसार की आचार्य ज्ञानसागरकृत हिन्दी टीका का प्रभाव ‘नसीराबाद चातुर्मास में स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन मुनि ने जो आध्यात्मिक विचारों से प्रभावित होकर एकान्त आम्नाय स्वीकार कर ली थी। वे ब्रह्मचारिणी दराखाबाई और ब्रह्मचारिणी मणिबाई जी आदि के साथ आये थे और आचार्य गुरुवर की समाधि तक रुके रहे, उनका नाम था ब्र. विकासचंद जी। उन्होंने परमपूज्य आध्यात्मिक चिन्तक आगमज्ञाता साहित्यकार वयोवृद्ध ज्ञानमूर्ति आचार्य प्रवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी विरचित समयसार की जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति सहित किया गया हिन्दी अनुवाद को पढ़कर दर्शनार्थ पधारे थे और तत्त्वचर्चा करके उनकी धारणाएँ बदल गयीं और नसीराबाद में ही रुक गए और आचार्य गुरुवर की समाधि तक रुके रहे। वे प्रतिदिन गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज एवं नव-नवोन्मेषी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से घण्टों-घण्टों तत्त्वचर्चा करते थे। दोनों गुरुओं की साधना एवं चर्या से वे बड़े प्रभावित हुए और गुरुदेव की खूब वैयावृत्य करते थे। उनके साथ में आयीं ब्रह्मचारिणियाँ भी बहुत अधिक प्रभावित हुयीं और उन्होंने अपना जीवन ही गुरुचरणों में समर्पित कर दिया।'' इस तरह हे गुरुवर! आप क्वचित् कुतूहल से गहन अध्यात्म को हठी जिज्ञासुओं को भी अनुभूत करा देते थे। आप गुरु-शिष्य की चर्या में आगम की गाथायें और सूत्र चरितार्थ होते देख बड़े-बड़े नास्तिक भी आस्तिक बन जाते थे। धन्य हैं ऐसे ही गुरु-शिष्य को पाकर। श्रमण संस्कृति पंचम काल के अन्तिम समय तक निर्बाध प्रवर्तमान रहेगी। उनके पावन चरणों में नमन निवेदित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  8. पत्र क्रमांक-१६८ २९-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर तपोमय दिव्यदृष्टि के धारक दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन तपोमय चारित्र को प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर! नसीराबाद चातुर्मास के समय की एक घटना आपको बता रहा हूँ जो भागचंद जी बिलाला इंजीनियर नसीराबाद ने सुनाया- दिव्यचक्षु के धनी आचार्य ज्ञानसागर जी ‘‘एक दिन ज्ञानसागर जी महाराज का आहार चल रहा था। एक महिला बीच में चौके में प्रवेश करने लगी और वह चुपचाप अंदर आ गयी। आचार्य महाराज आहार लेते हुए रुक गए। हम लोगों ने तत्काल उस महिला को कहा-आप शुद्धि बोलो। उसने शुद्धि बोली पर गुरु महाराज सिर हिलाकर मना करते रहे। फिर उन्होंने बाहर जाने का इशारा किया तो हम सब ने बहुत प्रयास किया कि महाराज बड़ी भक्ति से आयी है एक ग्रास ले लो किन्तु उन्होंने नहीं लिया। आहार के पश्चात् नसियाँ पहुँचे तो हमने महाराज से पूछा-महाराज आपने उस महिला से आहार क्यों नहीं लिया? तो गुरु महाराज बोले-‘पता नहीं, उसके आते ही मुझे अच्छा नहीं लगा, मन नहीं माना इसलिए आहार नहीं लिया। बाद में पता किया तो वह महिला दुश्चरित्री थी। हमें बड़ा आश्चर्य हुआ गुरु महाराज उसे जानते नहीं, पहचानते नहीं फिर महाराज जी ने उसे कैसे समझ लिया कि वह ठीक नहीं है? तब गुरु महाराज को बताया। तो आचार्य महाराज बोले-‘जिसका चरित्र पवित्र होता है उसे सब दिख जाता है। तब गुरु महाराज पर मेरी भारी श्रद्धा हो गई। इस प्रकार हे गुरुवर! आपको पूर्व में ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का अवभासन हो जाया करता था और उसी के अनुसार आप व्यक्ति पर विश्वास करते थे। यही कारण है कि मेरे गुरु आपके विश्वास पर खरे उतरे और आपने उन्हें अपनी ब्रह्मविद्या दी। आपके श्रीचरणों में... आपका शिष्यानुशिष्य
  9. पत्र क्रमांक-१६७ २८-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर जिनकी धमनियों में तीर्थंकर की आर्षपरम्परा की श्रद्धा समर्पण का संचार हो रहा है ऐसे दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में श्रद्धा-सुमन समर्पित करते हुए नमस्कार करता हूँ... हे गुरुवर! आप अपने पितामह गुरु परमपूज्य शान्तिसागर जी के प्रति अटूट दृढ़ आस्था रखते थे और प्रतिवर्ष उनके समाधि दिवस पर विनयांजलि समर्पित करते। आपकी ही तरह आपके लाड़ले शिष्य मेरे गुरु भी करते और आज आपके शिष्यानुशिष्य भी अनुकरण कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में अजय जी जैन (सी.ए.) कोटा ने ‘जैन गजट पूर्वांक' २१ सितम्बर १९७२ की कटिंग दी जिसमें चम्पालाल जैन का समाचार प्रकाशित है पुण्यतिथि ‘‘नसीराबाद-भादवा सुदी २ शनिवार ९-९-७२ को परमपूज्य प्रातः स्मरणीय चारित्र चक्रवर्ती स्व. आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज की १७वीं पुण्य तिथि आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में विविध आयोजनों के साथ मनायी गयी। श्री ब्र. स्वरूपानन्दजी, श्री १०५ क्षु. आदिसागर जी, श्री १०५ क्षु. पदमसागर जी, श्री १०५ क्षु. विनयसागर के प्रवचन हुए। बाद में बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज ने आचार्य श्री के जीवन चारित्र पर स्वरचित कविता द्वारा प्रकाश डाला व उपदेश दिया।' इस तरह आपने हम शिष्यानुशिष्यों को मूल परम्परा के प्रति श्रद्धा-समर्पण के संस्कार दिये हैं। जिससे उन आचार्यों की कृतियों पर विश्वास और उनके तत्त्वों को ग्रहण करके आत्म कल्याणरूप विशुद्धि प्राप्त हो रही है। ऐसे श्रमण संस्कृति पुरोधा गुरु-शिष्य के चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  10. पत्र क्रमांक-१६६ २७-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर स्वायत्त, अविनाशी, योगधारी दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आपकी भावना हुई कि समाधि के लिए नसीराबाद उपयुक्त स्थान है। न भीड़-भाड है, न भेदभाव है। शान्ति, एकता, प्रेम, श्रद्धा, समर्पण, भक्ति, उदारता का भाव है। अतः सलाह-मशविरा से नसीराबाद में ही वर्षायोग की स्थापना हुई। इस सम्बन्ध में स्थानीय रतनलाल पाटनी ने बताया- १९७२ वर्षायोग की स्थापना २५ जुलाई मंगलवार आषाढ़ सुदी चतुर्दशी का इंतजार बड़ी ही बेसब्री से किया जा रहा था और वह दिन आ ही गया। उस दिन पूरे संघ का उपवास था। संघ में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के दीक्षित शिष्य मुनिश्री विद्यासागर जी, ऐलक श्री सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक श्री सुखसागर जी, क्षुल्लक श्री विनयसागर जी, क्षुल्लक श्री सम्भवसागर जी एवं अन्य संघ के क्षुल्लक श्री आदिसागर जी, ब्रह्मचारी दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) आदि सभी ने प्रात:काल भक्तिपाठ कर विधि पूरी की, इस तरह चातुर्मास की स्थापना हो गई। चातुर्मास में प्रातःकाल शौचक्रिया के लिए पास के जंगल में जाते थे और उसके बाद ज्ञानसागर जी और विद्यासागर जी योगासन करते थे और ८-९ बजे तक स्वाध्याय करते थे, जिसमें विद्यासागर जी श्लोक पढ़ते थे और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज उसका अर्थ समझाते थे उसके पश्चात् आहारचर्या होती थी।" इसी प्रकार नसीराबाद के सुमेरचंद जी जैन ने भी २३-०६-१९९५ में लिखकर दिया था सो आपको बता रहा हूँ- हमारे श्रद्धेय : गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ‘‘आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बड़े ही सरल स्वभावी थे, वे धार्मिक चर्चा के अलावा कोई अन्य चर्चा नहीं करते थे। उन्होंने कभी भी पंथवाद, जातिवाद को कोई बढ़ावा नहीं दिया। इस सम्बन्ध में कोई भी चर्चा करने आता तो वे यही कहते थे कि भैया समाज में एकता को बढाओ जहाँ जैसी व्यवस्था हो वहाँ वैसे चलो। पूजा-पाठ को लेकर विसंवाद मत करो। पूजा-पाठ धर्म नहीं है, ये मात्र धर्म के साधन हैं।' उनको हमने हमेशा संघ में धर्म की किताबें पढ़ाते देखा। इतनी अधिक वृद्धावस्था होने के बावजूद भी पढ़ाने में कोई प्रमाद नहीं करते थे। प्रतिदिन कक्षा का समय सुबह ८ से ९ एवं दोपहर में २ से ४ बजे तक नियत था और आहारचर्या का समय ठीक १० बजे निश्चित था। आचार्य महाराज ज्ञानसागर जी को हमने किसी भी प्रकार की हठ करते नहीं देखा न ही सुना। वे जब कभी भी किसी व्यक्ति या युवक से किसी भी चीज का त्याग कराते तो कहते थे 'भैया हमें क्या देते हो?' यानी क्या त्याग करते हो। उनकी समझाने की पद्धति बड़ी ही सरल एवं प्रभावोत्पादक थी। उनके प्रवचनों में इतने सरल उदाहरण रहते थे कि हर किसी को उनकी तात्त्विक बातें जल्दी समझ में आ जाती थीं। यही कारण है कि उनके प्रवचनों में जैन अजैन सभी बन्धु आते थे और सभी पर अच्छा प्रभाव पड़ा था। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर जैन-अजैन विद्वान् उनसे तत्त्वचर्चा करने आते रहते थे। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज किसी भी प्रश्न का उत्तर एक या दो शब्दों में दिया करते थे, बहुत कम बोला करते थे। जब कभी मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज पढ़ते समय किसी विषय में हठ पकड़ते तो गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज खूब हँसते थे और कहते-'यदि तुम ऐसा कहोगे तो ये-ये बाधाएँ आयेंगी।' फिर पीछे से १-२ दिन बाद मुनि श्री विद्यासागर जी को बात समझ में आ जाती थी, तो वे कक्षा में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से कहते-‘महाराज जी! आपने जो कहा था वह सही है, मुझे समझ में आ गया।' तब ज्ञानसागर जी महाराज कहते थे-‘किसी भी विषय में खूब मनन चिंतन कर लो, आगम देख लो फिर अपनी धारणा बनाओ। किसी भी विषय को कहने से पहले खूब सोच-विचार कर लो कि कोई बाधा तो नहीं आ रही है। इस प्रकार हमारी श्रद्धा के श्रद्धेय थे हमारे गुरु ज्ञानसागर जी महाराज। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बहुत सेवाभावी मुनि हैं। जब भी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज आहार चर्या, शौचक्रिया या लघुशंका के लिए जाते तो मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज उनका हाथ पकड़कर ले जाते थे। वे सेवा करने से कभी थकते नहीं थे। उनकी सेवा एक आदर्श सेवा है। यह सब हमने देखा और अनुभव किया है।'' नसीराबाद में प्रथम बार रक्षाबन्धन महामहोत्सव का कार्यक्रम सानंद सम्पन्न हुआ, इस सम्बन्ध में महावीर जी अतिशयक्षेत्र के पुस्तकालय से प्राप्त ३१-०८-१९७२‘जैन गजट' की छायाप्रति प्राप्त हुई जिसमें चंपालाल जैन का समाचार इस प्रकार प्रकाशित हुआ- रक्षाबंधन पर्व ‘‘नसीराबाद-श्रावण शुक्ला पूर्णिमा २४-०८-१९७२ को परमपूज्य चारित्रविभूषण आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज के संघ के सान्निध्य में रक्षाबंधन पर्व बड़े हर्ष व उल्लास के साथ मनाया गया। प्रातः रक्षाबंधन पूजन एवं मध्याह्न में बड़े मन्दिर में प्रवचन हुए। बाल ब्रह्मचारी युवा मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का इतना ओजस्वी भाषण हुआ कि अपार जनसमूह मंत्रमुग्ध हुआ-सा बैठा रहा, अन्य समाज वालों ने भी महाराज श्री के उपदेश से अपने आपको कृतार्थ माना।'' इसी प्रकार मुनि श्री अभयसागर जी महाराज द्वारा प्राप्त ‘जैन सन्देश' की कटिंग जिसमें ३१०८-१९७२ को चंपालाल जैन का समाचार प्रकाशित हुआ- ‘‘नसीराबाद-२४-०८-१९७२ श्रावण शुक्ला १५ को परमपूज्य प्रातः स्मरणीय बाल ब्रह्मचारी आ. श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज जी के ससंघ सान्निध्य में बड़े हर्ष उत्साह एवं उल्लास के साथ मनाया। प्रात:काल श्रीमान् ताराचंद जी सेठी की नसियाँ में रक्षाबंधन पूजन एवं मुनियों की पूजन बड़ी शान्ति से समस्त जैन समाज ने की एवं मध्याह्न काल में बड़े मन्दिर जी में क्षुल्लक श्री १०५ आदिसागर जी के प्रवचन हुए। इस तरह नसीराबाद में आप श्री के प्रभाव से धर्म प्रभावना की गंगा बहने लगी। सम्यक्त्व प्रभावना अंग के धारी गुरु-शिष्य के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  11. आज आचार्यश्री मुनिश्री योगसागर जी मुनिश्री निश्चलसागर जी मुनिश्री श्रमणसागर जी मुनिश्री संधानसागर जी के खजुराहो में हुए केश लोच |
  12. पत्र क्रमांक-१६५ २६-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर चित्र-विचित्र-अचित्र आत्मा के ज्ञायक गुरुवर परमपूज्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! जब आप नसीराबाद पहुँचे तो आपके लाड़ले शिष्य की ज्ञान पिपासा शान्त करने के लिए एक सच्चे गुरु की भांति आपने अस्वस्थता के चलते उनकी चिन्ता की और उनके लिए समाज को बोलकर विद्वान् वर्ग लगाए। इस तरह आप अपने लाड़ले शिष्य की चिंता करते और लाड़ले शिष्य अपने प्राणों से प्रिय गुरुदेव की चिन्ता करते। इस सम्बन्ध में नसीराबाद के भागचंद जी बिलाला ने बताया- आहार देना है तो रात्रिभोजन त्याग करो ‘नसीराबाद में आने के बाद संघ २-३ दिन दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर रुका रहा फिर ताराचंद जी सेठी की नसियाँ में प्रवास किया। प्रतिदिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन होते थे। कन्नड़ टोन में उनके प्रवचन बहुत अच्छे लगते थे। ग्रीष्मकाल में भी गुरु-शिष्य को सतत अध्ययन-अध्यापन करते हुए देखा। नसीराबाद के व्यापारिक स्कूल के अध्यापक श्रीमान् पण्डित कौशलकुमार जी नादला से मुनि श्री विद्यासागर जी हिन्दी साहित्य और हिन्दी व्याकरण पर चर्चा करते थे एवं श्रीमान् तुलसीराम जी प्राचार्य इसी स्कूल के थे उनसे संस्कृत के विषय में चर्चा करते थे और अंग्रेजी भाषा की चर्चा श्रीमान् रामस्वरूप जी बंसल से किया करते थे। इस प्रवास के दौरान आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का स्वास्थ्य खराब चलता रहा और प्रतिदिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज उनकी सुबह-शाम वैयावृत्य करते थे। एक दिन मैं दर्शन करने गया तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज वैयावृत्य कर रहे थे, मैं भी करने लगा। मेरी रुचि को देखकर मुनि विद्यासागर जी महाराज बोले- ‘गुरु महाराज काफी वृद्ध हो गए हैं और कमजोरी भी बढ़ती जा रही है तुम यदि चाहो तो आहार चर्या में एक बाजू से पकड़कर सहारा दे सकते हो और सुबह शौच के बाद तुम भी मेरे साथ गुरुजी की वैयावृत्य करने आ सकते हो। यह सुनकर मैं बड़ा आनंदित हुआ और सलाह स्वीकार कर ली। दूसरे दिन जैसे ही मैं गुरु महाराज के साथ आहार में जाने लगा तो आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज बोले- भैया पहले ये तो बताओ रात्रिभोजन तो नहीं करते हो?' मैंने कहा-महाराज! अभी तक तो पढ़ाई करता था तो त्याग नहीं है। तो गुरु महाराज बोले-‘आहार देना हो या सेवा करना हो तो रात्रिभोजन त्याग करना होगा।' तो हमने तत्काल रात्रिभोजन का त्याग कर दिया और गुरु महाराज की वैयावृत्य में लग गया। मुनिवर विद्यासागर जी मुझे प्रोत्साहित करते स्नेह देते और कहीं भूल-चूक हो जाए तो बड़े ही वात्सल्य भाव से समझाते ऐसा नहीं ऐसा करो। वे सतत गुरुदेव के स्वास्थ को लेकर चिंतित रहते थे। उनकी सेवा का यह फल मिला, मेरा जीवन पूरी तरह धार्मिक और सुखी बन गया। श्रुतपंचमी पर्व महावीर जी अतिशय तीर्थक्षेत्र से ‘जैन गजट' ०६ जुलाई १९७२ की कटिंग प्राप्त हुई जिसमें चंपालाल जी जैन के समाचार इस प्रकार हैं| ‘‘नसीराबाद दिनांक १६-०६-१९७२ शुक्रवार को श्रुतपंचमी महोत्सव परमपूज्य प्रात:स्मरणीय चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति वयोवृद्ध श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज व उनके शिष्य बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में विविध आयोजनों के साथ मनाया गया। मध्याह्न में सरस्वती पूजन के बाद प्रवचन हुए। मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का प्रभावशाली प्रवचन हुआ। अन्तरंग भक्ति की विजय हुई नसीराबाद के आपके अनन्य भक्त रतनलाल पाटनी के अनुसार- “जून माह के अन्त में रविवार का दिन था। अजमेर समाज के गणमान्य प्रतिष्ठित लोग पधारे और प्रवचन के पश्चात् श्रीफल चढ़ाकर अजमेर में चातुर्मास करने हेतु निवेदन किया। तब नसीराबाद समाज के प्रमुख लोगों ने भी खड़े होकर संघ से निवेदन किया कि चातुर्मास नसीराबाद में ही करें। हमारी समाज आपकी सेवाभक्ति में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखेगी। तब अजमेर के लोग बोले- क्या हम लोग कमी रखेंगे? आप लोगों ने ग्रीष्मकाल करा लिया। अब हम लोग अजमेर लेकर जायेंगे। वहाँ पर बड़ी समाज है ज्यादा लोगों को लाभ मिलता है। तब नसीराबाद समाज ने अपनी भक्ति-समर्पण दिखाते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज से निवेदन किया कि महाराज ८० घर की समाज आपको वचन देती है। कि आपके संघ के संयम-तप-साधना और समाधि-साधना में हर सम्भव सहयोगी बनेगी। तब विद्यासागर जी महाराज को अजमेर समाज के लोगों ने मना लिया। मुनिवर बोले-‘गुरुजी को एकबार निवेदन करते हैं फिर गुरुजी जैसा कहेंगे हम वैसा ही करेंगे। तब विद्यासागर जी ने कक्ष में ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा क्या करना है।' तब गुरुवर बोले-मेरी भावना तो नसीराबाद में ही साधना करने की है। यहाँ की जलवायु और वातावरण अनुकूल है। अतः मेरी सल्लेखना साधना करने के यहीं भाव हैं। तब मुनि श्री विद्यासागर जी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की बात से सहमत हो गए और अन्तरंग भक्ति की विजय हुई। १३ जुलाई को मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के केशलोंच (दीक्षोपरान्त सोलहवाँ केशलोंच) सानन्द सम्पन्न हुआ बिना महोत्सव के महोत्सव हो गया। मुनि श्री विद्यासागर जी का दीक्षा दिवस महोत्सव आषाढ़ शुक्ला पंचमी १५ जुलाई दिन शनिवार को मुनिवर विद्यासागर जी महाराज का दीक्षादिवस मनाने के लिए तैयारियाँ की गयीं। चारों तरफ समाचार भेजे गए। काफी जनसमूह एकत्रित हुआ और दीक्षा दिवस मनाया गया। मुनिवर की पूजा हुई फिर मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन हुआ उसके बाद गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने भी संक्षिप्त आशीर्वचन दिये । महोत्सव में पधारे हुए लोगों को स्नेह भोज दिया गया।' इस तरह नसीराबाद के लोग आपकी और संघ की सेवा भक्ति आदि किसी में भी पीछे नहीं थे। हे तात! आपके समय के लोग बड़े भद्र, सरल, श्रद्धालु हुआ करते थे। जो आप जैसे गुरु-शिष्य की तप साधना देख अधिक से अधिक समागम चाहते थे। ऐसे गुरु-शिष्य को प्रणाम करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  13. पत्र क्रमांक-१६४ २५-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अस्वस्थ किन्तु स्व में स्थित गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करते हुए... हे गुरुवर! १९७१ चातुर्मास समापन होने के बाद आपके देह का स्वास्थ्य नित्य-प्रति बिगड़ता जा रहा था। कमजोरी बढ़ती जा रही थी। तब समाज के निवेदन पर आपने शीतकाल प्रवास भी मदनगंजकिशनगढ़ में ही किया था। समाज ने अपना अहोभाग्य समझा जो उन्हें आषाढ़ की आष्टाह्निका से लेकर फाल्गुन की आष्टाह्निका तक आपकी सेवा करने का उन्हें अवसर मिला और द्वितीय आष्टाह्निका पूर्ण होने पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कर आपने ११ मार्च को विहार कर दिया। उस विहार में श्री रमेशचंद जी गंगवाल मदनगंज-किशनगढ़ भी साथ चल रहे थे। रास्ते में चलते-चलते भी आपके लाड़ले शिष्य विनोदी अन्दाज में ज्ञान बाँट दिया करते थे किन्तु तब, जब उन्हें विश्वास हो जाया करता कि किसी का भला हो सकता है, अन्यथा वो मौन रहते। इस सम्बन्ध में रमेश जी ने बताया- गुरुदक्षिणा में चाय छोड़ी ‘‘किशनगढ़ से विहार हुआ तो मैं भी साथ में गया था। तब रास्ते में मुनि श्री विद्यासागर जी बोले-‘चातुर्मास आदि में तुमने बहुत लम्बा साधु समागम किया, क्या सीखा?' तब मैंने कहा-गुरुदेव मैं अभी १८ वर्ष का ही हूँ ज्यादा तो कुछ नहीं सीखा किन्तु मैंने आपको अपना गुरु मान लिया है। तब महाराज हँसते हुए बोले-‘गुरु दक्षिणा दिए बिना शिष्य नहीं बनते हैं। मैंने कहा-आप बताइए दक्षिणा में क्या चाहिए? तो महाराज बोले-‘गुरु इच्छा तुम पूरी नहीं कर पाओगे। तुम ही कोई नियम ले लो। वही गुरु दक्षिणा है। तो मैंने कहा- मैं आज से चाय नहीं पियूँगा। उन्होंने झट आशीर्वाद दे दिया और भी लोगों ने बात करना चाही तो वो हूँ-हूँ ही बोलते रहे लेकिन बात नहीं की।'' इस तरह किशनगढ़ से आप अजमेर पहुँचे, भव्य आगवानी हुई और अजमेर में प्रभावना की ज्ञानगंगा बहने लगी। इस सम्बन्ध में ४ मई १९७२ के जैन गजट' में स्वरूपचंद कासलीवाल ने इस प्रकार समाचार प्रकाशित कराया- अभूतपूर्व प्रभावना “अजमेर में शुभमिति चैत्र कृष्णा १३ (१३ मार्च १९७२) को परमपूज्य चारित्र विभूषण ज्ञानमूर्ति १०८ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का संघ सहित पदार्पण हुआ। तीन वर्ष पूर्व अजमेर में ही दीक्षित युवा मुनिराज बाल ब्रह्मचारी परमपूज्य १०८ श्री विद्यासागर जी का हृदयग्राही सामयिक प्रवचन प्रातः ८९ बजे तक सर सेठ भागचंद जी सा. सोनी की नसियाँ जी में नित्य-प्रति होता है। लगभग एक हजार श्रोता प्रतिदिन लाभान्वित हैं अभूतपूर्व धर्म प्रभावना हो रही है।" इस तरह अजमेर में धर्म प्रभावना का एक और महामहोत्सव महत् प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ। त्रिदिवसीय महावीर जयंती का समारोह आयोजित किया गया। इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट' ३० मार्च १९७२ को समाचार प्रकाशित हुए। जिसका संक्षेप समाचार आपको बता रहा हूँ- श्री महावीर जयन्ती समारोह सानंद सम्पन्न अजमेर-स्थानीय श्री महावीर जयंती समारोह समिति के तत्वाधान में श्री महावीर जयंती का त्रिदिवसीय कार्यक्रम अपूर्व उत्साह एवं उल्लासपूर्ण वातावरण में सुसम्पन्न हुआ। दिनांक २५-०३-७२ को स्थानीय रेल्वे बिसिट इंस्टीट्यूट में सायं सवा पाँच बजे से एक विशाल सभा का आयोजन किया गया। सभा में विभिन्न धर्मावलम्बी प्रतिनिधियों ने भगवान महावीर स्वामी के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित की। दिनांक २६-०३-७२ को प्रातः ८ बजे से श्री सन्मति परिषद के तत्वाधान में बाल खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। २७-०३-७२ को प्रातःकाल से ही उल्लासपूर्ण प्रभातफेरियों एवं ध्वजवंदन आदि के कार्यक्रम हुए। लगभग ८ बजे से श्री १००८ पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन जैसवाल मन्दिर जी केसरगंज से विशाल रथयात्रा जुलूस निकला, जो लगभग डेढ़ बजे वापिस केसरगंज पहुँचा। मध्याह्न में ढाई बजे सरावगी मोहल्ले में परमपूज्य युवा मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में कलशाभिषेक हुए। इस अवसर पर परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का मार्मिक प्रेरणास्पद उपदेश हुआ। सायं काल ८ बजे स्थानीय नया बाजार मैग्जीन के विशाल प्रांगण में श्री सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी की अध्यक्षता में विशाल सभा का आयोजन किया गया। श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने और भी बतलाया- ‘‘मई माह में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने केशलोंच किया यह उनका दीक्षोपरान्त पन्द्रहवाँ केशलोंच था और चौदहवाँ केशलोंच मदनगंज-किशनगढ़ में फरवरी माह में किया था। ८ मई को प्रातः अजमेर से विहार कर दिया। विहार से पूर्व सर सेठ भागचंद जी सोनी जी ने एवं छगनलाल जी पाटनी, कजोड़ीमल जी अजमेरा आदि आचार्य गुरुदेव के अनन्य भक्तों ने स्वास्थ्य को देखते हुए निवेदन किया, अनुनय विनय की, कि आपका स्वास्थ्य विहार के लिए उपयुक्त नहीं है अत: आप यहीं पर ग्रीष्मकाल और चातुर्मास की प्रार्थना स्वीकार करें। तब गुरुदेव मंद-मंद मुस्कुराते हुए विहार कर गए। इस सम्बन्ध में मुझे अतिशय तीर्थक्षेत्र श्री महावीर जी के पुस्तकालय से ‘जैन गजट' अखबार की ११ मई १९७२ गुरुवार अजमेर की कटिंग प्राप्त हुई जिसमें समाचार प्रकाशित हुआ| मंगल विहार “अजमेर-श्री परमपूज्य १०८ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का ८ मई १९७२ को प्रातः ससंघ नसीराबाद के लिए मंगल विहार हुआ। ऊषा काल में सैकड़ों धर्म श्रद्धालु नर-नारी आचार्य व युवा मुनिराज पूज्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के दर्शनार्थ उपस्थित थे। श्री धर्मवीर सेठ सर भागचंद जी सा. सोनी के नेतृत्व में अजमेर समाज ने आचार्य श्री से अजमेर में ही चातुर्मास करने की विनम्र प्रार्थना की। आचार्य श्री का चातुर्मास अजमेर में ही होने की सम्भावना है। उल्लेखनीय है कि संघस्थ पूज्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के धर्मोपदेश से यहाँ हजारों नर-नारियों ने अभूतपूर्व धर्मलाभ लिया।" इस प्रकार दीपचंद जी के अनुसार माखुपुरा में पाटनियों के चैत्यालय में रुके और पाटनी परिवार ने आहारचर्या करवाई। फिर दूसरे दिन ९ मई को प्रातः माखुपुरा से बीर चौराहा पहुँचे वहाँ पर बीर ग्राम के और नसीराबाद के लोगों ने आहारचर्या करवाई। फिर १० मई को प्रातः बीर चौराहा से नसीराबाद इस सम्बन्ध में और भी जानकारी नसीराबाद के आपके अनन्य भक्त इंजीनियर भागचंद जी बिलाला ने बतलायी- मुनि विद्यासागर बने श्रवण कुमार “मई १९७२ की बात है परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने अपने प्रिय शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज एवं ऐलक सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक सुखसागर जी, क्षुल्लक विनयसागर जी, क्षुल्लक आदिसागर जी तथा त्यागीगण के संघ सहित भयंकर गर्मी में अजमेर से विहार किया। उस समय गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को तेज बुखार था। वे चल नहीं पा रहे थे तब नसीराबाद के हम श्रावकों ने निवेदन किया कि हम लोग डोली बनाकर ले चलते हैं। तो आचार्यश्री बोले- 'नहीं, क्या कोई जिन्दा में कंधे पर चलता है?' तब तत्काल मुनि श्री विद्यासागर जी बोले- 'मैं कब आपकी वैयावृत्य करूंगा। मैं आपको अपनी पीठ पर लेकर चलूंगा' और जब शहर से ढेड़-दो किलोमीटर बाहर आ गए तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने बच्चों की तरह उन्हें अपनी पीठ पर उठा लिया और धीरे-धीरे चलते हुए माखुपुरा तक लेकर आए। लगभग ६ किमी. अपनी पीठ पर अपने गुरु को लेकर चले। तब हम सब लोग यह ही कह रहे थे- मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज श्रवणकुमार बन गए। दूसरे दिन प्रात:काल वहाँ से विहार हुआ तो मुनि श्री विद्यासागर जी ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को जैसे ही अपनी पीठ पर उठाया तो ज्ञानसागर जी बोले- 'नहीं, नहीं, तुम्हारा शरीर तो तप रहा है। तुम्हें तेज बुखार है, मैं पैदल ही चलूंगा।' तब मुनि विद्यासागर जी बोले- ‘मुझे कोई तकलीफ नहीं है, मैं ले चलूंगा।' तब गुरुदेव ने मना कर दिया। दोनों ही पैदल चलते रहे । ६ किमी. चलके बीर चौराहा पहुँचे वहाँ पर एक अन्य धर्म की धर्मशाला में रोका गया । बीर ग्राम के लोग आ गए श्री छीतरमल जी बाकलीवाल, श्री शान्तिलाल जी गदिया ने बीर ग्राम चलने का निवेदन किया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी बोले- ‘गुरु जी में इतनी शक्ति नहीं है कि वे ७-८ किमी. और चल सकें।' तब नसीराबाद और बीर ग्राम के लोगों ने वहीं पर चौका लगाकर आहार दान दिया। फिर दूसरे दिन १० मई को प्रातः ५:३० बजे विहार कर ९ कि.मी. चलकर नसीराबाद पहुँचे। नसीराबाद में भव्य स्वागत हुआ। नसीराबाद के युवाओं में बहुत उत्साह था क्योंकि उनके प्रिय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज आ रहे थे।" इस प्रकार आपके लाड़ले शिष्य ने एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया जो ज्ञात इतिहास में अद्वितीय है। बीर चौराहे से जब विहार हुआ उस समय का एक संस्मरण नसीराबाद के शान्तिलाल जी पाटनी ने सुनाया- बाहर से ही नहीं अन्दर से भी सुन्दर १९७२ में अजमेर से माखुपुरा, बीर चौराहा होते हुए नसीराबाद की ओर विहार कर रहे थे तब बहुत जोरों से आंधी चल रही थी। उस समय विद्यासागर जी महाराज बड़े हैण्डसम लग रहे थे। मैंने ज्ञानसागर जी महाराज को कहा कि विद्यासागर जी बहुत अच्छे-सुन्दर लग रहे हैं। तो गुरु ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘वे बाहर से ही नहीं अन्दर से भी सुन्दर हैं। आगे ज्ञायक बनकर मोक्षमार्ग प्रकाशित करने वाले होंगे।' मैं गुरु महाराज के अभिप्राय को नहीं समझ पाया। तो मैंने कहा- आपने मोक्षमार्ग प्रकाशक तो पढ़ने दिया नहीं, फिर कैसे मोक्षमार्ग प्रकाशक बनेंगे? तो ज्ञानसागर जी महाराज मेरे को पिच्छी लगाकर बोले- विद्यासागर जी को क्रियाकाण्ड पसंद नहीं हैं। वे अपने अन्दर सावधान रहकर चारित्र पालन करेंगे तो अपने आप मोक्षमार्ग के प्रकाशक हो जायेंगे।'' इस तरह हे गुरुवर! आप एक सच्चे जौहरी हैं जो आपने सच्चे हीरे को पहचाना और तराशा है। जो आज आपकी कसौटी पर खरा उतरा है। जैसा आपने कहा था आज हम वैसा ही पा रहे हैं। ऐसे गुरुशिष्य के पावन चरणों में प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  14. पत्र क्रमांक-१६३ २४-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर इतिहास पुरुष परमपूज्य दादागुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ऐतिहासिक चरणाचरण को प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर ! सन् १९७२ को प्रात:काल यूँ लगा कि जैसे समय से पूर्व सूर्य भागकर क्षितिज पर आ गया हो यह सोचकर कि कहीं आप जैसे ऐतिहासिक गुरु-शिष्य के किसी स्वर्णिम पल को देखने से चूक न जाऊँ। हर रोज दिनकर दिनभर आपको देखता किन्तु अस्तांचल में जाने की मजबूरी के कारण खेदखिन्न होता हुआ लाल-लाल हो जाता। सरपट भागकर प्रातः आता तो खुशी में लाल हो जाता किन्तु तब उसके साथी चन्द्र-ग्रह-राशियाँ तो कभी नक्षत्र-तारे उसकी पीड़ा को समझकर उसे सहयोग करते और सुबह उसे सब कुछ बता देते जो उन्होंने रात में आप गुरु-शिष्य को देखा है। इस तरह १९७२ की किताब में जो कुछ पढ़ने को मिला वह मैं क्रमशः आपको लिख रहा हूँ- इस प्रकार १९७२ वर्ष ने आपके लगभग ६६९१२ कदमों की यात्रा को देखा है। इसी का वर्णन हम आगे आपको भेज रहे हैं। नमन निवेदित करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  15. पत्र क्रमांक-१६२ २३-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर बाह्य एवं अन्तरंग व्यक्तित्व निर्माण की समग्र प्रविधियों के कुशल विशेषज्ञ परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के महामुनिराजत्व रूप वैशिष्ट्य को त्रिकाल त्रिकरणयुक्त त्रिभक्तिपूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु..., हे गुरुवर ! आज मैं अपने गुरुवर के चमकते हुए व्यक्तित्व कृतित्व के बारे में विचार करता हूँ कि यह कैसे सम्भव हुआ? जब इस प्रश्न के समाधान के विषय में खोजबीन की तो मुझे मेरे गुरुवर के शब्द याद आये! जो उन्होंने हाईकू के रूप में लिखे हैं- गुरुकृपा से बाँसुरी बना मैं तो ठेट बाँस था। गुरु ने मुझे प्रकट कर दिया दिया दे दिया। उजाले में हैं। उजाला करते हैं। गुरु को बंदू ।' तब मुझे अनुभूति हुई कि जिस प्रकार जलता हुआ दीपक ही बुझे-अनजले दीपक को जलाता है। उसी प्रकार आपने अपनी दैदीप्यमान ज्ञान-ज्योति की रोशनी में अनेकों भटके हुए प्रकाश इच्छुकों एवं जिज्ञासुओं को पथ प्रदर्शित किया था। जिनमें प्रमुखता से आपने एक ऐसा हीरा तरासा जो आपका पवित्र स्नेहिल स्पर्श पाकर जन्म-जन्मांतर की ज्ञान पिपासा से तृप्त होकर ऐसा चमका कि मणिदीप सम अक्षय प्रकाश प्रदान कर रहा है। जिस प्रकार आपने सर्वज्ञवाणी के रहस्य को जानकर तपश्चर्या के पुरुषार्थ से चेतना के विविध आयामों को अनावृत कर ज्ञानचेतना के मर्म को अनुभूत किया था। उसी प्रकार मेरे गुरुवर ने आपके सहज सुलभ पारदर्शी ज्ञान रोशनी में चेतना के रहस्यों की कई परतें उजागर कर लीं थीं। यही कारण है कि वे आपके बिना एक पल भी नहीं रहते थे, क्योंकि उन्हें प्रतिक्षण नई-नई अनुभूतियाँ आपके सान्निध्य में प्राप्त होतीं थीं और वे उसे खोना नहीं चाहते थे। हे दादागुरु जी ! ये तो आप भी जानते हैं कि मेरे गुरुवर की मेधा-शक्ति इतनी उत्कृष्ट कोटि की है। कि आप आगम, सिद्धान्त, अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, चारित्र, तप आदि के बारे में जो भी दृष्टिकोणचिन्तन बताते वह उनके धारणाकोष की वसीयत बन जाता था। जिसे हम पोते शिष्य आज पा रहे हैं। आपके लाड़ले शिष्य की अलौकिक योग्यता को देखते हुए सन् १९६७ में पण्डित श्री महेन्द्र कुमार जी पाटनी ने ब्रह्मचारी विद्याधर जी को कातंत्ररूपमाला, धनंजय नाममाला एवं श्रुतबोध पढ़ाते समय आपसे कहा था कि विद्याधर जी प्रतिभा सम्पन्न, मेधावी, प्रज्ञावान ब्रह्मचारी हैं। यदि ये पहले आपके सम्पर्क में आ जाते तो कई विद्याओं में पारंगत हो जाते। तब आपने कहा था कि सब भाग्य भरोसे है। बस, आत्मविद्या हस्तगत हो जाये तो स्व-पर कल्याण हो जायेगा। | हे दादागुरु! आपने ४ वर्ष के छोटे से काल में अपना अनुभूत विचार साक्षात् करके दिखा दिया। आत्मरस ऐसा चखाया कि आज वे स्वयं तो चख ही रहे हैं, हम शिष्यों को भी चखा रहे हैं और आत्मरस में इतने पग गए हैं कि उनकी दृष्टि में, वाणी में, लेखनी में, व्यवहार में चेतन तत्त्व की बातें/रहस्य उद्घाटित होते रहते हैं। ऐसे महामना पुरुष के बृहद् और सूक्ष्म, अन्तरंग एवं बहिरंग व्यक्तित्व-कृतित्व की खोजबीन करना मुझ अल्पज्ञ शक्तिहीन साधक के लिए बहुत कठिन कार्य है फिर भी गुरुभक्ति उत्साहित किए हुए है। मैं कितना सफल हुआ/हो रहा/होऊँगा यह विचार मन में नहीं आता क्योंकि मेरे गुरुदेव की महिमारूप मिश्री ही ऐसी है कि थोड़ा भी लिखो तो वह बहुत मीठी ही लगती है। हे दादागुरु! अपने इस पोते शिष्य को ऐसा आशीर्वाद प्रदान कर देना कि मेरे द्वारा लिया गया महत् । कार्य पूर्ण हो जाये और ‘अन्तर्यात्री : आत्मभोक्ता योगी' का कोई भी पक्ष आवृत न रह जाये। मेरा चरित्रनायक नंगा है तो उसके नग्नता की सुन्दरता को मैं भी पूर्ण नंगा दिखा सकें। वास्तव में प्रकृति और पुरुष तो नंगे ही होते हैं किन्तु पर प्रकृति और पुरुष की युति आवृत होती है। मैं तो आपके लाड़ले मेरे गुरु की प्रकृति और पुरुष को जैसा का तैसा अनुभूत कर प्रकट करना चाहता सन् १९७२ ने आप गुरु-शिष्य को कैसा-क्या देखा है? उसे मैं खोज करने का शुभ पुरुषार्थ कर रहा हूँ जैसे-जैसे आप गुरु-शिष्य के पूरातत्त्व को खोजता जाऊँगा वैसे-वैसे जनहित में उद्घाटित करता जाऊँगा। गुरु-शिष्य दोऊ खड़े काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु-शिष्य की आतम खोल दिखाय। अनंत प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  16. पत्र क्रमांक-१६१ २०-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर जर्जरकायी शीत परीषहविजयी दादा गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के परीषहविजयी पुरुषार्थ को प्रणाम करता हूँ... हे गुरुवर! मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास के बाद आपने शीतकाल का प्रवास भी वहीं किया। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने ०७-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बतलाया गुरुदेव का सदा ध्यान रखते : मुनि श्री विद्यासागर “शीतकाल में गुरुदेव के लिए समाज के लोग चावल की प्यांल (चारा) लेकर आए, तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपनी देखरेख में उसे छत पर धूप में फैलवा देते। फिर दिन छिपने से पहले गुरुदेव के कक्ष में पाटे पर बिछा देते थे। प्रतिदिन संघ के सभी साधु एवं त्यागीगण भी चावल के प्यांल का उपयोग करते थे। दिन निकलते ही संघस्थ ब्रह्मचारीगण प्यांल (पियाँर) को धूप में फैला देते थे। जिससे प्यांल में कोई जीव न पड़ पायें और शाम को मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपनी पिच्छी से परिमार्जित करके गुरुदेव के लिए प्यांल को बिछा देते थे। किशनगढ़ शीतकाल में गुरुदेव को साईटिका की पीड़ा ज्यादा थी तो दोपहर में सामायिक के बाद धूप में गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज की मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, सरसों के तेल से मालिश करते थे। वे गुरुवर का सदा ध्यान रखते थे।' इस तरह १९७१ वर्ष आप गुरु-शिष्य की साधनामय जीवन का पुरुषार्थ देखकर धन्य हो गया और उपदेश दे गया समय रहते जो अपने मानवोचित विशिष्ट कर्तव्य कर लेते हैं, वे मनुष्य रूप में महापुरुष कहलाते हैं। उनका ही जीवन आदर्शरूप में याद किया जाता है। ऐसे गुरु-शिष्य के चरणों में जीवन की हर श्वास नमन करती है.. आपका शिष्यानुशिष्य
  17. पत्र क्रमांक-१६० १९-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर निजत्व की भूमिका में प्रतिक्षण आत्मकेन्द्रित उपयोग के कर्ता परमपूज्य दादागुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटिशः प्रणाम करता हुआ... हे गुरुवर ! मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास सानंद सम्पन्न हुआ। समापन के अवसर पर श्रावकों ने अपनी आत्मविशुद्धि बढ़ाने हेतु सिद्ध परमेष्ठियों की आराधना करना चाही, तो उन्हें आपकी अस्वस्थता को देखते हुए आपसे निवेदन एवं आशीर्वाद पाने में संकोच हुआ और मुनि श्री विद्यासागर जी से निवेदन किया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी की दूरदर्शिता, विनयशीलता, लघुता और शिष्यता देखते ही बनती थी। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- शिष्य की भूमिका को पहचानते : विद्यासागर १८ अक्टूबर कार्तिक वदी चतुर्दशी को वार्षिक प्रतिक्रमण गुरुवर के साथ में पूरे संघ ने किया एवं कार्तिक वदी अमावस्या को भगवान महावीर का निर्वाण महोत्सव ससंघ सान्निध्य में मनाया गया। कार्तिक वदी अमावस्या के दिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास समाज के प्रतिनिधि गए और समाज की ओर से श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया कार्तिक की अष्टाह्निका में २६ अक्टूबर से ०२ नवम्बर तक सिद्धचक्र महामण्डल विधान आपके सान्निध्य में करना चाहते हैं। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बोले-गुरु महाराज से निवेदन करो, वे आचार्य महाराज हैं। तब समाज ने कहा-आचार्य महाराज का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। अतः आप आशीर्वाद प्रदान करावें। तब विद्यासागर जी महाराज बोले-आप श्रावक लोग गुरु महाराज को अपनी ओर से निवेदन करें वे संघनायक हैं। मैं इस कार्य का निवेदन नहीं कर सकता। इस तरह वे कभी भी समाज के बीच में नहीं पड़ते थे और न ही संघ का नेतृत्व करते थे। विद्यासागर जी बड़े सरल थे। वे कभी भी सामाजिक राजनीति में नहीं पड़ते। वे अपनी शिष्य की भूमिका को पहचानते थे। तब समाज के प्रमुखों ने दो दिन बाद गुरु महाराज को निवेदन किया और ससंघ सान्निध्य में सिद्धचक्र महामण्डल विधान महत् प्रभावना के साथ सानंद सम्पन्न हुआ।'' इस सम्बन्ध में अतिशय तीर्थक्षेत्र महावीर जी के पुस्तकालय से ‘जैन मित्र' एवं 'जैन संदेश' अखबार की कटिंग प्राप्त हुईं। जैन मित्र' १८ नवम्बर १९७१ गुरुवार को प्रकाशित वैद्य मन्नालाल पाटनी का समाचार इस प्रकार है| ‘मदनगंज-किशनगढ़-में अष्टाह्निका में सिद्धचक्र विधान आ. ज्ञानसागर जी के तत्त्वावधान में पं. हेमचंद जी शास्त्री अजमेर के हस्त से हुआ था, विशाल रथयात्रा निकली थी। उसमें ४५००/- आय हुई थी उसमें ३३५१/- तो भंवरलाल रतनलाल पाटनी खंडाच के थे। प्रीतिभोज भी हुआ था व आचार्य श्री एवं मुनि विद्यासागर जी के प्रवचन भी हुए थे तथा स्थानिक संगीत मण्डल ने मैनासुन्दरी नाटक खेला था। उसका उद्घाटन लादूलाल पहाड़िया ने करके १००१/- दिए थे तथा और भी ३०००/- करीब सहायता संगीत मण्डल को मिली थी। आचार्य ज्ञानसागर आदि का चातुर्मास पूर्ण हो विहार की क्रिया हुई थी व नवीन पिच्छिकाएँ बीजराज बाकलीवाल ने दी थीं।' इसी प्रकार ‘जैन सन्देश' में भी ०९-१२-१९७१ को वैद्य मन्नालाल के समाचार इस प्रकार प्रकाशित किए गए हैं- मदनगंज-किशनगढ़ में अष्टाह्निका पर्व ‘‘आष्टाह्निक पर्व में सिद्धचक्र मण्डल विधान दि. जैन आदिनाथ जैन मन्दिर जी में आष्टाह्निक पर्व में बृहद् सिद्धचक्र मण्डल विधान का आयोजन किया गया जिसका सभी कार्यक्रम अजमेर निवासी पं. हेमचंद जी शास्त्री के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। श्री १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का यहाँ चातुर्मास हो रहा है। संघ के समस्त त्यागीगणों के सान्निध्य में सभी विधान क्रियाएँ सम्पन्न होतीं थीं। आचार्यश्री के प्रिय शिष्य श्री १०८ विद्यासागर जी का नित्यप्रति बड़ा ही मार्मिक तात्विक भाषण होता था। रात्रि को शास्त्री जी शास्त्र पठन करते थे। पण्डित जी का भाषण भी तार्किक एवं रोचक पठन शैली से जनता में अच्छा आकर्षण व रुचिकर रहा । पूर्ण आहूति पर रथयात्रा का विशाल प्रोग्राम रहा। इस प्रकार कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी के दिन पूरे संघ ने उपवास रखा और चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया और उसी दिन पिच्छी परिवर्तन हुआ इसके बारे में रमेशचंद जी गंगवाल ने बताया- पिच्छिका-परिवर्तन “बीजराज जी बाकलीवाल ने आचार्य महाराज ज्ञानसागर जी को पिच्छिका भेंट की। उसके पश्चात् दूसरी पिच्छी भेंट की जिसे ज्ञानसागर जी महाराज ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को नवीन पिच्छी दी और पुरानी पिच्छी उनसे ली। इसी प्रकार संघस्थ क्षुल्लक ऐलक को भी गुरु महाराज ने पिच्छिका दीं और मुनि श्री विद्यासागर जी की पुरानी पिच्छी मदनगंज-किशनगढ़ के सेवाभावी भक्त सपत्नीक श्रीमान् दीपचंद जी चौधरी, सोहनी देवी चौधरी को दी। अन्य पिच्छियाँ भी समाज के सेवाभावी लोगों को प्रदान कीं।'' इस प्रकार मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास ने स्वर्णिम इतिहास रच दिया। इसके साथ ही एक और इतिहास जुड़ गया जब दो मुनि संघों का मिलन हुआ। इस सम्बन्ध में दीपचन्द जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- दो मुनि संघों का वात्सल्यमय मिलन जब गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज मदनगंज-किशनगढ़ में चातुर्मास कर रहे थे तब अजमेर में मुनि श्री महेन्द्रसागर जी संघ सहित चातुर्मास कर रहे थे। चातुर्मास समाप्त होने के बाद नवम्बर माह में मगसिर कृष्णपक्ष में मुनि श्री महेन्द्रसागर जी संघ सहित मदनगंज पधारे थे। गुरुदेव ज्ञानसागर जी जहाँ ठहरे हुए थे वहाँ पर उनका आगमन हुआ। मुनिवर श्री विद्यासागर जी महाराज, संघस्थ क्षुल्लक, ऐलक, ब्रह्मचारियों ने आगवानी की। आपस में नमोऽस्तु हुई। बड़ा ही वात्सल्य-विनय-आदर का वातावरण बन गया था। दोनों संघ स्वास्थ्य-रत्नत्रय की कुशलक्षेम पूछ-पूछकर प्रसन्नचित्त थे। फिर दोनों संघ मंचासीन हुए। मुनि श्री महेन्द्रसागर जी महाराज ने ज्ञानमूर्ति आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज का गुणानुवाद किया। दूसरे दिन मुनि श्री महेन्द्रसागर जी महाराज संघ सहित दूदू की ओर विहार कर गए। मदनगंजकिशनगढ़ में लोगों के मध्य आचार्य गुरुवर के त्याग-तपस्या, ज्ञान-ध्यान की महिमा की चर्चा होने लगी। ऐसे परम श्रद्धेय गुरुवर के चरणों में नमस्कार करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  18. पत्र क्रमांक-१५९ १८-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर चैतन्यानुविधायी आत्मज्योति के प्रकाशक परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चैतन्य चरणाचरणों में त्रिकाल वंदन करता हूँ... हे गुरुवर! आप गुरु-शिष्य आत्मसाधना के सोपानों पर निरंतर बढ़ते जा रहे थे। समय आपसे बँधकर चलता था। समय की पैनी नजर आप गुरु-शिष्य पर सदा बनी रहती, कारण कि आप गुरु-शिष्य कब कौन सी साधना कर लेते हैं, पता ही नहीं चलता। इस सम्बन्ध में रमेशचंद जी गंगवाल किशनगढ़बताया-हमने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज एवं आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के २ केशलोंच देखे। एक तो अगस्त माह में (दीक्षोपरान्त बारहवाँ केशलोंच) और दूसरा नवम्बर माह में (दीक्षोपरान्त तेरहवाँ केशलोंच)। इस सम्बन्ध में ‘जैन गजट : पर्वाक' २ सितम्बर १९७१ में मन्नालाल पाटनी का समाचार इस प्रकार है केशलोंच समारोह ‘मदनगंज-१९-८-७१ भा. कृष्णा १४ गुरुवार को प्रातः ज्ञानमूर्ति श्री १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज व तरुण मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज का केशलोंच हुआ। केशलोंच का दृश्य बडा ही प्रभावक रहा। यद्यपि कुछ समय से युवक मुनिराज नेत्र पीड़ा से पीड़ित हैं और एक हाथ की अंगुली भी पकाव ले रखी है मगर ऐसी अस्वस्थ अवस्था में युवक मुनिराज उत्साहपूर्वक शरीर से ममत्व त्याग का प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित कर अपने केशों को निर्ममत्व भाव से उखाड़ रहे थे। श्री १०५ आर्यिका अभयमती जी माताजी ने अपने लालित्यपूर्ण भाषण में केशलोंच की महत्ता व त्याग पर प्रकाश डाला। तप व त्याग पर बोलते हुए आचार्य श्री ने भी सारगर्भित प्रवचन दिया। इसी समय अजमेर में दिवंगत पूज्य आर्यिका श्री १०५ वासुमती जी माताजी को श्रद्धांजली अर्पित की गई। भा. शु. २ को चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का समाधि दिवस मनाया गया। जिसमें अनेक वक्ताओं ने अपनी विनम्र श्रद्धाजलियाँसमर्पित कीं।" आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के दूसरे केशलोंच का समाचार सत्येन्द्र कुमार जैन ने २ दिसम्बर १९७१ को ‘जैन गजट' में प्रकाशित कराया केशलोंच ‘‘मदनगंज-किशनगढ़-यहाँ ता. २१-११-७१ को परमपूज्य आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का केशलोंच समारोह पूर्वक हुआ। ता. २३-११-७१ को के. डी. जैन हायर सैकेण्डरी स्कूल में आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी के युवा शिष्य मुनि श्री १०८ विद्यासागर जी का छात्रों के लिए प्रभावशाली उपयोगी भाषण हुआ। इस तरह आप गुरु-शिष्य अपनी मूलगुण एवं उत्तरगुणात्मक साधना में लीन रहते तथा संसारी अज्ञानी प्राणियों के कल्याणार्थ हितोपदेश देते। ऐसे उपकारी गुरु-शिष्य के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  19. पत्र क्रमांक-१५८ १७-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अन्तर्मुख स्वभावी परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... | हे गुरुवर! मदनगंज-किशनगढ़ चातुर्मास के दौरान आपकी और आपके लाड़ले शिष्य की कई विशेषताएँ लोगों ने देखीं। वह मैं आपको बता रहा हूँ। डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य (सागर, म.प्र.) को अनुभूति बता रहा हूँ- विद्वानों को भी मिलती आनंदानुभूति “सौभाग्यवश मैं एक बार पर्युषण पर्व में अजमेर गया उस समय आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास मदनगंज में था। माननीय सर सेठ भागचंद जी सोनी जी से मैंने उनके दर्शन करने की आकांक्षा प्रकट की। पर्युषण पर्व प्रारम्भ होने में एक दिन बाकी था। अतः उन्होंने श्री छगनलाल जी पाटनी को कहा-पण्डित जी को मदनगंज ले जाकर आचार्यश्री के दर्शन करा लाओ। हम लोग गए। आचार्य ज्ञानसागर जी और उनके नवदीक्षित मुनि तथा २-३ क्षुल्लक ऐलक भी थे सभी के दर्शन किए। संघ का दर्शन करने का प्रथम सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। वहाँ पर २-३ घण्टा रहा, पर बड़ा आनंद आया। इतने समय में अनेक विषयों पर चर्चा हुई। उस दिन प्रमुख चर्चा का विषय रहा सामायिक और सामयिक शब्द आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज ने सामयिक शब्द का प्रयोग अधिक पसंद किया और कहा कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी अपने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में श्लोक नम्बर ९७-१०५ तक ९ बार सामयिक शब्द का ही प्रयोग किया है। कुछ समय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास भी बैठा उन्होंने स्वयं रचित हिन्दी, संस्कृत की कविताएँ सुनायीं जिसे सुनकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई।'' इसी प्रकार दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने मुझे ०७-११-२०१५ भीलवाड़ा में दो संस्मरण सुनाये गुरुवर ने की शिष्य की प्रशंसा आसौज माह (सितम्बर) की भीषण गर्मी का समय चल रहा था। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने ७ दिन अखण्ड मौन की साधना की। वे न तो इशारा करते थे, न ही लिखकर बताते थे और न ही हाँ, हूँ करते थे। उसी दौरान एक दिन सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब अजमेर से दर्शन करने आये। तब मैं गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को आहार के पश्चात् चन्द्रप्रभ मन्दिर के प्रांगण में स्वास्थ्य लाभ हेतु टहला रहा था। सेठ साहब ने गुरुदेव को नमोऽस्तु किया और फिर टीन सेड के नीचे जमीन पर बैठकर स्वाध्याय कर रहे मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के पास गए, उनको नमोऽस्तु किया। तो मुनि श्री ने बिना देखे ही हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया। यह प्रसंग आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने देख लिया और मुनि श्री विद्यासागर जी की दृढ़ता एवं साधना को देखकर मुझसे बोले-चतुर्थकाल में मुनि श्री विद्यासागर जी जैसे साधु हुआ करते थे। जो अपने ज्ञान-ध्यान-तप में लीन रहते थे। गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज अपने सुयोग्यतम शिष्य की शुद्धचर्या एवं तप-साधना से इतने अधिक आनंदित आह्लादित रहते थे कि उनका वर्णन शब्द गम्य न होकर अनुभव गम्य ही है। स्वयं गुरुदेव अपने शिष्य के प्रति विनयभाव रखते थे।' संस्कृतिरक्षक गुरु-शिष्य १९७१ चातुर्मास के दौरान एक दिन ब्रह्मचारी सूरजमल जी बाबा आये। उन्होंने बहुत सारे विशेषण लगाकर गुरुदेव की जय बोली-शुद्धोपयोगी शुभोपयोगी, ज्ञानी, ध्यानी, तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध, वयोवृद्ध, ज्ञानमूर्ति, चारित्रविभूषण, न्यायविज्ञ, साहित्य मनीषी, सिद्धान्ताचार्य, व्याकरणाचार्य, ज्योतिषाचार्य, अध्यात्मयोगी, आगमज्ञाता, पुराणविज्ञ, आचार्य परमेष्ठी, भगवन् श्री गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज की जय। हे महाराज! धर्म संस्कृति की रक्षार्थ इतिहास को कुछ श्लोकों में लिखकर दीजिए। जिससे हमारी प्राचीनता सिद्ध हो सके। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने दो अनुष्टुप छन्द संस्कृत भाषा में बनाकर दिए। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी धर्म संस्कृति की रक्षार्थ भावविह्वल हो उठे और एक वसन्ततिलका छन्द संस्कृत भाषा में लिखकर दिया। तो सूरजमल बाबा ने उसे आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज को दिखाया। तब गुरुदेव ने उसे पढ़ा और बड़े ही प्रसन्न हुए।" इसी प्रकार श्री दीपचंद जी चौधरी (मदनगंज-किशनगढ़) ने बताया छोटे बच्चों को पहले खिलाओ फिर आहार दान दो ‘‘सन् १९७१ चातुर्मास चल रहा था, तब एक दिन मेरे चौके में गुरु और चेले (आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज और मुनि विद्यासागर जी महाराज) की एक साथ विधि मिल गई। हम लोग पड़गाहन करके आनंदित हो गए। दोनों गुरु-शिष्य की नवधाभक्ति की, एक साथ पूजा और एक साथ आहार शुरु हुआ। आहार शुरु होते ही गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज ने अन्तराय कर दिया। हम लोगों को कुछ समझ नहीं आया, सब हक्के-बक्के रह गए। महाराज बाहर आये तो पूछा-महाराज आपने अन्तराय क्यों किया। तब गुरुदेव बोले- आपका छोटा बच्चा भूखा है और वह खाने के लिए माँग रहा है। अतः पहले उसे खिलाओ इसलिए मैंने बच्चे की आवाज सुनकर अन्तराय कर दिया, किन्तु मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज आहार करते रहे और उनका आहार निरंतराय हो गया। हम परिवार वालों को आधी खुशी, आधा दुःख मिश्रित अनुभव हुआ। लौटकर जब हम सब मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ मन्दिर पहुँचे तो गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास गए। हम लोग भी साथ में थे। मुनि श्री विद्यासागर जी ने गुरुवर से पूछा- आपका अन्तराय कैसे हुआ?' तब गुरुजी बोले- बच्चे की आर्तध्वनि सुनकर, वह भी दाता के घर में, इसलिए अन्तराय कर दिया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने पूछा-'ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए था? हमने तो आवाज सुनी नहीं।' तब गुरुदेव बाले-‘आपको बाधा नहीं दिखी तो आपको अन्तराय नहीं करना चाहिए, आपने सही किया।' तब हम लोगों ने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज से प्रायश्चित्त माँगा। तब गुरुदेव बोले-‘प्रायश्चित्त नहीं, सावधानी रखो। बच्चों को पहले अच्छे से खिला-पिला देना चाहिए।' किशनगढ़ के ही श्री रमेशचंद जी गंगवाल ने भी १९७१ चातुर्मास के दौरान का एक संस्मरण २०१७ में सुनाया- लोकसमाचारों का ज्ञान : खबरनवीसों से “आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज, मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज, क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज का चातुर्मास चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर मदनगंज-किशनगढ़ में हुआ। तब मैं उस समय कॉलेज में पढ़ता था। रात में प्रतिदिन ८ बजे वैयावृत्य करने हेतु जाता था। उस समय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को रोज अखबारों के विशेष-विशेष समाचारों को बताया करता था क्योंकि संघ के कोई भी साधु अखबार नहीं पढ़ते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज प्रतिदिन अखबारों के समाचारों के माध्यम से अपने प्रवचनों में धर्म की बातों को समझाया करते थे, जिससे हमारे जैसे युवाओं को बात जल्दी समझ में आ जाया करती थी। वे कभीकभी हँसी में कहा करते थे कल रात खबरनवीश ने बताया ऐसा बोलकर सबको हँसा देते थे।" इस तरह आप गुरु-शिष्य की रत्नत्रयरूप विशेषताओं को देख समाजजन श्रद्धावनत रहते। आपने कभी भी प्रभावना की चिंता नहीं की और न ही प्रभावना के लिए कभी समाज को कहा। फिर भी आप जहाँ भी जाते/प्रवास करते वहाँ पर आपकी चर्या-क्रिया से स्वतः ही प्रभावना हो जाती। ऐसे आत्मप्रभावक गुरु-शिष्य के चरणों में नमोऽस्तु करते हुए... आपका शिष्यानुशिष्य
  20. पत्र क्रमांक-१५७ १६-०३-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर विद्याप्रेमी शिष्य के गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के वात्सल्य भावों को करबद्ध विनम्र नमन करता हूँ... हे गुरुवर! जिस मदनगंज-किशनगढ़ में आप गुरु-शिष्य ने चातुर्मास किया था, उसी मदनगंज किशनगढ़ में १९९५ में हम शिष्यानुशिष्य ने भी चातुर्मास किया तब एक दिन ९९ वर्ष के डॉ. फैआज अली दर्शन करने पधारे। उनसे जो चर्चा हुई वह मैं आपको बता रहा हूँ प्रत्युत्पन्नमति विद्यासागर डॉ. - आप विद्यासागर जी के शिष्य हैं? या सुधासागर जी के? मैं - मुनि श्री सुधासागर जी, क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी और मैं आचार्य विद्यासागर जी महाराज के शिष्य हैं। डॉ. - वे यहाँ कभी नहीं आयेंगे क्या? जब से गए अभी तक नहीं आये! मैं - ऐसा उन्होंने संकल्प नहीं किया है और वे आने के लिए मना भी नहीं करते। एक बार जाने के बाद आये थे १९७९ में और इसी मदनगंज-किशनगढ़ में पंचकल्याणक करवाया था। डॉ. - मुझे उनसे बहुत कुछ पूछना है। वे बहुत बड़े गुरु बन गए हैं। मैंने उनको थोड़ी-सी अंग्रेजी पढ़ाई थी। मैं - जब आपने अंग्रेजी पढ़ाई थी तब आपने क्या विशेषता देखी। डॉ. - वे बहुत होशियार तेज बुद्धि के साधु हैं। २-३ दिन में ही उन्होंने हमको अंग्रेजी की पोयम बनाकर दिखायी थी। जिसका नाम था My Self उनके जैसा प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति हमने नहीं देखा। हम जितना बताते थे वे दूसरे दिन उससे कई कदम आगे मिलते थे। एक बार जो पढ़ लेते थे भूलते नहीं थे। उनको पढ़ाते समय मुझे डर लगता था कहीं मुझसे गलती न हो जाए। वे बहुत उच्च कोटि के विद्वान् साधु हैं। वे बहुत अच्छा प्रवचन भी करते हैं। मैं - उन्होंने आपको कुछ त्याग कराया था क्या? डॉ. - न बाबा न! वे बहुत धर्म सहिष्णु हैं। पर मैं मांसादि नहीं खाता। आप वह पोयम देखना चाहेंगे क्या? मैं - हाँ... हाँ... क्यों नहीं। डॉ. - (ऊपर जेब में से एक कागज निकाला) यह लो... ये उन्हीं के हाथ की लिखी है। हमने नोट कर ली थी। मैं - यह मैं रख सकता हूँ क्या? डॉ. - न बाबा न! ये अमूल्य धरोहर है। हो सके तो उन तक हमारा संदेश पहुँचा देना... । (चले गये) बाद में वह अंग्रेजी की पोयम १९७३ में प्रकाशित ब्यावर चातुर्मास की स्मारिका में प्रकाशित हुई। जिसका पद्यानुवाद भी मेरे गुरुवर ने किया है। पुनः आपको भेज रहा हूँ इस तरह मेरे गुरुवर महापुरुष की नाईं व्यक्तित्व को धारण करते थे। ये सब पूर्व जन्म के संस्कारो का पुनर्जागरण हो रहा था। ऐसे महापुरुषीय व्यक्तित्व के धनी गुरु-शिष्य के चरणों में शीश झुकाता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  21. ?? खजुराहो की खबर?? खजुराहो स्वर्णोदय तीर्थ क्षेत्र में विराजमान प.पु.आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के दर्शन करने फ्रांस के राजदूत अलेक्सअंद्रे ज़िएगलेर ने आचार्य श्री के दर्शन कर कहा मेने god के बारे में सुना था आज तो साक्षात देख लिया में धन्य हु दिल्ली से सिर्फ आपके दर्शन करने आया हु आचार्य श्री से शाकाहार का नियम भी लिया राजदूत ने आचार्य भगवन से कहा हमारे फ्रांस में शाकाहार का प्रचलन बहुत बढ़ रहा है आपके दर्शन कर में भी शाकाहारी हो गया महीने में ओर सप्ताह में नियम रखूंगा जाते जाते o माई god धन्य है गुरुवर आपकी महिमा
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