पत्र क्रमांक-११०
१८-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अनियत विहारी, प्रकृति सहचर, निश्चिन्त, निरपेक्ष गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के भव्यार्चित पादकमलों में भावार्घ समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! ०५-०७-१९६९ को आपने महापूत जिनालय (सोनी नसियाँ) से विहार किया तब परिदृश्य के साक्षी श्रीमान् इन्दरचंद जी पाटनी ने मुझे लिखाया वह मैं आपको सादृश्य प्रत्यभिज्ञान हेतु लिख रहा हूँ...
आत्मबल का प्रतीक भीषण गर्मी में विहार
‘‘विहार का समाचार पाते ही सैकड़ों लोग उपस्थित हो गए सर सेठ भागचंद जी सोनी साहब ने हाथ में श्रीफल लेकर निवेदन किया गुरु महाराज! आपकी वयोवृद्ध अवस्था और मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज एवं सुकुमार देही मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज नवदीक्षित हैं और बुजुर्ग क्षुल्लक महाराज हैं, सभी की स्थिति को देखते हुए, दो आषाढ़ के भयंकर ग्रीष्म के थपेड़ों के मध्य विहार करना हमें उचित नहीं लगता। तब आचार्य महाराज बोले- ‘‘गृहस्थजन चार दीवारी में रहना पसंद करते हैं। साधुओं की यही तो साधना होती है वे प्रकृति के साथ मिलकर चलते हैं। यह कहकर गुरु महाराज ने विहार कर दिया और ८ कि.मी. चलकर शाम को माखुपुरा में रुके। माखुपुरा में पाटनी जी द्वारा निर्मित चैत्यालय के
आश्रय में विश्राम किया। ६ तारीख को माखुपुरा में ही आहारचर्या हुई । सामायिक के पश्चात् सर सेठ भागचंद जी सोनी, छगनलाल जी पाटनी, कैलाशचंद जी पाटनी, प्रा. निहालचंद जी, पं. विद्याकुमार जी सेठी आदि गणमान्यों ने माखुपुरा पहुँचकर आचार्य संघ के दर्शन किए और सेठ साहब ने निवेदन किया-‘‘आचार्य महाराज! अजमेर समाज अंतरंग से आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमोऽस्तु करके प्रार्थना करती है कि आप संघ सहित अजमेर में ही चातुर्मास स्थापित करें। गर्मी की प्रचण्डता और स्वास्थ्य को देखते हुए। आप हम लोगों की विनती पर ध्यान देंगे इस आशा से हम लोग यहाँ आए हैं। आपके विहार का शगुन हो गया अब आप वापिस चलें और हम लोगों को धर्माराधना के लिए सान्निध्य प्रदान करें।पण्डित विद्याकुमार जी सेठी बोले-“आचार्य महाराज! मुनि विद्यासागर जी का अध्ययन अभी पूर्ण नहीं हुआ है और उनके ज्ञानार्जन के लिए अजमेर उपयुक्त बैठता है। अतः अपने लिए न सही विद्यासागर जी के लिए आप विचार कर ही सकते हैं और हम लोग आपकी धर्म साधना के विपरीत तो सोच ही नहीं सकते। अतः हम लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दें और अजमेर में चातुर्मास हेतु अनुमति प्रदान करें । जिससे हम लोग अपनी व्यवस्था बना सकें।
इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भी २०१५ में भीलवाड़ा में बताया-‘‘जब अजमेर के लोगों ने गुरु महाराज से अजमेर में १९६९ का चातुर्मास करने के लिए निवेदन किया। तब गुरुवर ने हँसते हुए कहा-''अजमेर नसियाँ में तो चातुर्मास हो ही गए हैं। अब देखो ‘काललब्धि बलते दयाल समय पर जो हो जावे सो ठीक है।'' और शाम को विहार कर दिया। माखुपुरा से ६ कि.मी. चलकर बीर ग्राम चौराहे पर अन्य समाज की धर्मशाला में रुके।७ तारीख को सुबह बीर ग्राम चौराहे पर आहारचर्या हुई और बीर ग्राम की समाज ने आहारदान देकर पुण्यार्जन किया। शाम को ५ कि.मी. चलकर बीर ग्राम में प्रवेश किया। बीर ग्राम की समाज में लगभग १५ घर हैं और ३ प्राचीन मन्दिर हैं। समाज ने संघ की भव्य आगवानी की। दूसरे दिन बीर से ही मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज ने आचार्य महाराज से निवेदन कर नसीराबाद की ओर विहार किया और वहाँ जाकर १९६९ का चातुर्मास किया। बीरग्राम में बुधवार को अजमेर के कुछ भक्त लोग गुरु महाराज के स्वास्थ्य की जानकारी लेने हेतु पहुँचे। तब चर्चा के दौरान गुरु महाराज बोले-ज्यादा तो चल नहीं पाऊँगा और चातुर्मास का समय निकट आ रहा है। तब भक्त लोग बोले महाराज सेठ साहब ने निवेदन तो किया ही है आप अजमेर पधारें नसियाँ में चातुर्मास करें। तो गुरु महाराज बोले-केसरगंज में भी तो समाज है, अच्छा मन्दिर है, सोचेंगे।"
आपकी हर क्रिया के समाचार पत्रकारों की नजरों से बच नहीं पाते थे। यही कारण है कि जन सामान्य को आपकी हर जानकारी लौकिक या धार्मिक समाचार पत्रों से शीघ्र मिल जाया करती थी किन्तु आपके आशय से अनुमान लगाकर निर्णय रूप में छगनलाल जी पाटनी ने १७-०७-१९६९ गुरुवार ‘जैन गजट' में प्रकाशित कराया कि गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने केसरगंज में चातुर्मास की घोषणा की। इसकी कटिंग मुझे इन्दरचंद जी पाटनी ने दी । वह मैं आपको बता रहा हूँ-
चातुर्मास निश्चित
‘‘श्री १०८ चारित्रविभूषण ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का चातुर्मास अजमेर के केसरगंज मन्दिर जी में होना निश्चित हो गया है। पूज्य महाराज श्री ने इस आशय की घोषणा बीरग्राम में की। महाराज श्री ससंघ शनिवार को यहाँ पधारेंगे। ज्ञातव्य है कि ०५-०७-६९ को संघ ने बीरग्राम के लिए विहार किया था।"
इस तरह आप आगम के सच्चे साधु की भांति कभी भी किसी को वचन देकर बँधते नहीं थे अपितु रहस्यमयी भविष्य की गोद में भाग्य भरोसे परिणमन को डाल देते थे। आपकी साधना की दृढ़ता के किस्से सुन हम शिष्यानुशिष्यों को अपने दादागुरु पर गौरव होता है और हम पोतों को भी साधना के लिए साहस और सम्बल मिलता है। जिस तरह की दृढ़ता आप रखते थे। आपके चरणानुगामी मेरे गुरु में भी वही दृढ़ता आज हम लोग देखते हैं। जिस तरह से आप अपनी चर्या में किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे। इसी तरह आपके आज्ञावर्ती मेरे गुरु अपनी आगमिक चर्या में किसी का भी हस्तक्षेप पसंद नहीं करते और न ही किसी को वचन देते हैं। उन्होंने अपने काव्य में लिखा है कि “गुरु ने कहा किसी को वचन नहीं देना कोई भव्य मुमुक्षु आ जाए तो आत्मकल्याण का प्रवचन अवश्य देना।'' यही हम शिष्यों को भी संस्कार दिया और दे रहे हैं। धन्य हैं आप गुरु-शिष्य, धन्य हुए हम शिष्यानुशिष्य। नमस्कार करते हुए...
आपका शिष्यानुशिष्य