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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 118 - गुरुवर की मेधा-प्रज्ञाशक्ति - मिली आगम की सीख

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    Vidyasagar.Guru

    २३ क्रमांक-११८

    २८-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    सरस्वती पुत्र, विद्वाषां प्रिय, विद्वानों के सिरमौर, दादा गुरुदेव आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज त्रिकाल वन्दन अभिनन्दन करता हूँ... हे गुरुवर! आपकी मेधाशक्ति और प्रज्ञा का पैनापन के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा ने ०४-११२०१५ को भीलवाड़ा में बताया-

     

    मेधा-प्रज्ञाशक्ति के धनी गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज

     

    चातुर्मास में कई बार ब्यावर के ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार के विद्वान् चार्य पं. श्री हीरालाल जी शास्त्री (साढूमल वाले), पं. श्री प्रकाशचंद (मेरठ वाले) प्रधानाचार्य श्री * पन्नालाल दिगम्बर जैन विद्यालय ब्यावर, पं. श्री शोभाचंद जी भारिल्ल, पं. श्री हरकचंद जी सेठी अजमेर, पं. श्री विद्याकुमार जी सेठी अजमेर, पं. श्री हेमचंद जी शास्त्री अजमेर, पं. श्री चंपालाल जी जैन नसीराबाद, ब्र. श्री सुगनचंद जी गंगवाल, श्री सुजानमल जी सोनी अजमेर, केकड़ी के विद्वान् श्री चंद जी, श्री रतनलाल जी कटारिया एवं श्री पद्मचंद जी कटारिया, पं. श्री दीपचंद जी अमोलकचंद ड्या, पं. श्री माणकचंद जी सोनी, पं. श्री शान्तिकुमार बड़जात्या, श्री मिश्रीलाल मोहनलाल जी कटारिया, श्री माणकचंद रतनलाल गदिया केकड़ी, पं. श्री हीरालाल जी साह कोठिया १. जयकुमार जी अजमेरा चांपानेरी आदि श्रीमंत एवं धीमंत आचार्यश्री के दर्शन एवं ज्ञानार्जन के लिए आते रहते थे और घण्टों तत्त्वचर्चा करते रहते थे। उनकी तत्त्वचर्चा मैं भी सुना करता था किन्तु समझ नहीं पाता था। मात्र इतना समझ पाता था कि गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बिना पुस्तक खोले संदर्भ करते थे और ऐसे तर्क रखते थे कि कोई काट नहीं कर पाता था किन्तु कोई प्रमाण देकर बात करता तो स्वीकार करते थे। आज आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की मेधा और प्रज्ञाशक्ति को देखता हूँ तो मुझे गुरुवर ज्ञानसागर  जी महाराज का स्मरण हो आता है।'' इस तरह श्रीपति जी जैन ने ‘जैन गजट' में ११-०९-१९६९ को समाचार दिया-

     

    धर्मप्रभावना

     

    ‘अजमेर-स्थानीय केसरगंज स्थित श्री १००८ पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में आचार्य श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज का ससंघ चातुर्मास होने से महती धर्म प्रभावना हो रही है। आपके विराजने से वहाँ प्रायः विद्वानों का समागम भी मिलता रहता है। गत दिनों में ‘जैन गजट' के संपादक श्री डॉ. लाल बहादुर जी शास्त्री दिल्ली तथा श्री ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम चौरासी मथुरा के प्रधान धर्माध्यक्ष प्रतिष्ठा दिवाकर श्री पं. प्रद्युम्नकुमार जी शास्त्री पधारे। पं. श्री प्रद्युम्नकुमार जी शास्त्री का ५ तथा ७ सितम्बर ६९ को ओजस्वी भाषण हुआ जिससे महती धर्म प्रभावना हुई।'' हे गुरुवर ! दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने आपके बारे में और भी कई किस्से बतलाये जिनसे हम शिष्यानुशिष्यों को प्रेरणा मिलती है। ऐसे और भी कुछ किस्से आपको लिख रहा हूँ-

     

    स्वस्थ रहने के सूत्र मिले

     

    ‘‘सन् १९६९ चातुर्मास केसरगंज अजमेर के समय पर गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज आहार के पश्चात् मन्दिर जी में टहला करते थे। एक दिन पूरा संघ आहार के पश्चात् उपस्थित हुआ तब गुरुदेव ने कहा-देखो आहार के बाद १00 कदम अवश्य चलना चाहिए। ऐसा आयुर्वेद में लिखा है और फिर वज्रासान से बैठना चाहिए। इससे वायु वगैरह पास हो जाती है और पेट हल्का हो जाता है। तब से हम सभी संघस्थ लोग गुरुदेव के संकेत के अनुसार नित्यप्रति ऐसा ही करने लगे थे। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी आज तक वैसा ही करते हैं जैसा गुरु ने बताया था। वे सच्चे शिष्य हैं, उन्होंने गुरु को ऐसा आत्मसात् कर लिया है कि मुझे उनके दर्शन में गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के साक्षात् दर्शन मिल जाते हैं।''

     

    हमेशा वैराग्यवर्द्धक सूत्र गुनगुनाते

     

    केसरगंज अजमेर चातुर्मास में गुरुदेव को जब भी टहलते हुए देखा तब उनके मुखारविंद से वैराग्यवर्द्धक सूत्र सुना करते थे। जो इस प्रकार हैं-

     

    १. बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्तव।

    माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ।।

    २. नामधराय जती तपसी, मन विषयन में ललचावे। |

    दौलत सो अनन्त भव भटके, औरन को भटकावे ।।

    ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे

    ३. अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद।

    पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ।।

    ४. जो ख्याति लाभपूजादि चाह, धरि करन विविध विध देह दाह।

    आतमअनात्म के ज्ञानहीन, जे-जे करनी तन करन छीन ॥

    ५. हमतो कबहूँ न निज घर आये।

    पर घर फिरत बहु दिन बीते, नाम अनेक धराये ।।

    हम तो कबहूँ न निज घर आये ।।

     

    मिली आगम की सीख

     

    ‘‘केसरगंज अजमेर के चातुर्मास में दसलक्षण पर्व के बाद एक दिन काफी गर्मी थी। एक कक्ष में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज एवं दूसरे छोटे कक्ष में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज सामायिक कर रहे थे। तब मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को बहुत अधिक पसीना बह रहा था। मेरी नजर पड़ी तो मैंने अज्ञानतावश फुल स्पीड पर पंखा चालू कर दिया। पसीने में हवा लगते ही मुनि श्री को छीकें आने लगीं और जुखाम हो गया। सामायिक के बाद आचार्य भगवन् ज्ञानसागर जी महाराज लघुशंका के लिए कमरे से बाहर निकले तो उन्होंने देखा और बोले-ये क्या किया? ब्रह्मचारी जी पंखा आपने चालू किया... हमने कहा हाँ! महाराज जी को बहुत गर्मी लग रही थी पसीना बह रहा था और वे सामायिक में लीन थे तो हमने पंखा चालू कर दिया। तब गुरुजी बोले-तुमने तो अच्छे के लिए किया किन्तु महाराज को पसीने में हवा लगने से जुखाम हो गया... और सुनो पंखा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि जीवों की हिंसा होती है। मुनि महाव्रती होते हैं। वे पंखा की हवा लेने की सोच भी नहीं सकते। अतः संघ में पंखा का प्रयोग नहीं करना। साधना करो तो निर्दोष करो।' तब हमने कहा गलती हो गई महाराज ! प्रायश्चित्त दे दीजिए। तो गुरुवर बोले-‘‘नये-नये हो ना इसलिए पता नहीं था। अतः माफ है, आगे से ध्यान रखना।''

     

     

    इस तरह आप समय-समय पर संघस्थ साधुओं को त्यागियों को आगम की सीख दिया करते थे और सदा अपने लाड़ले शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी पर ध्यान रखा करते थे। आप जैसे सच्चे गुरुओं से ही भव्यात्माओं को सिद्ध-शुद्धदशा प्राप्त हो सकती है। धन्य हैं मेरे गुरु! जो उन्हें आप जैसा सच्चा जौहरी मिल गया और धन्य हुए आप मेरे दादागुरु! जिन्हें असली नगीना मिल गया। जिसको तरासने में ज्यादा समय नहीं लगा और वह चमक गया। ऐसा चमका कि जौहरी को चमका दिया। आज हम पोतों शिष्यों का अहोभाग्य जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ऐसे गुरुओं की शरण पा गए। ऐसे पारखियों की नजरों को प्रणाम करता हूँ...

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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