पत्र क्रमांक-११४
२४-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
अप्रमत्त साधक निश्चल निश्छल गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के श्री चरणों में भावपूजा-वन्दना-भक्ति समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! आप गुरु-शिष्य जब भी केशलोंच करते थे तो बिन बताए महोत्सव हो जाया करता था। इस सम्बन्ध में साक्षी रहे दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने भीलवाड़ा में बताया, वह मैं आपको लिख रहा हूँ-
किया केशलोंच-हो गया महोत्सव
केसरगंज में चातुर्मास शुरु हुआ तब एक दिन गुरु महाराज ने केशलोंच किए। पहले केशलोंच मंच पर बैठकर करते थे अतः गुरु महाराज प्रवचन के मंच पर जाकर बैठ गए, राख मँगवाई और केशलोंच करने लगे। समाचार फैला धीरे-धीरे लोग आते गए और बहुसंख्या में एकत्रित हो गए। अस्वस्थ होने के कारण उनके केशलोंच मुनि श्री विद्यासागर जी ने किए। केशलोंच के दौरान कवि प्रभुदयाल जी जैन ने स्वरचित भजन प्रस्तुत किए। तत्पश्चात् आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की स्वरबद्ध मधुर आवाज में पूजन गाई । उपस्थित सैकड़ों लोगों ने अर्घ्य चढ़ाये। बिना बताए बिना प्रचार-प्रसार के महोत्सव हो गया।
ज्ञानमूर्ति, चारित्र विभूषण आचार्य श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महाराज की पूजन
स्थापना
(अडिल्ल छन्द)
ज्ञान सिन्धु आचार्य हैं मूरत ज्ञान की,
चरित विभूषण राह चलें निरवाण की।
धन्य हुआ हूँ आज शरण तव आयके,
आह्वानन त्रय बार करूँ, हरषाय के ॥
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वर! अत्र अवतर अवतर संवौषट्।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्।
द्रव्याष्टक
(चौपाई छन्द)
जल ले पद प्रक्षालन आय, जामन मरण जरा मिट जाय,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय।
जय जय गुरुवर ज्ञान महान्, ज्ञान रतन का करते दान,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
चन्दन चरण चढ़ावत आप, मिट जाये भव का संताप,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय...
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
तंदुल श्वेत अखण्डित लाय, पूज करत पद अक्षय पाय,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय..
.ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
फूल गुलाब चमेली लाय, अरपत काम रोग नश जाय,
परम सुख होय गुरु पद् पूज परम सुख होय। जय जय...
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
लाडू घेवर चरण चढ़ाय, ज्वाल क्षुधा की शमन कराय, |
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय..
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
दीप ज्योत से पूज रचाय, आतम ज्योति जगे उर मांय,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय...
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
धूप धरे धूपायन मांय, राशि करमन की जर जाय,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय...
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।
फल केला अंगूर मंगाय, भेंट करत शिव लक्ष्मी पाय,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय...
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
अष्ट द्रव्य ले पूज रचाय, ताको अनर्घ पद मिल जाए,
परम सुख होय गुरु पद पूज परम सुख होय। जय जय...
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा।
जयमाला
दोहा-सरल शान्त गम्भीर हैं, सौम्यमूर्ति ऋषिराज।
मृदुभाषी निर्भीक हैं, दयानिधि महाराज ॥
निरभिमान निर्लोभ हैं, सहनशील गुणखान।
भक्ति भाव पूजा रची, मैं हूँ निपट अज्ञान ।।
चौपाई
जय जय ज्ञानोदधि गुणवन्ता, सुर नर तव पद शीश नमन्ता।
बाल ब्रह्मचारी तुम गुरुवर, ज्ञान ध्यान तल्लीन तपोधर ॥
राजस्थान गाँव राणोली, जहाँ जन्मले अंखियाँ खोली।
धन्य धन्य तव जनम के दाता, पिता चतुर्भुज घृतवरी माता।।
गोत्र छाबड़ा कुल उजियारे, भूरामल चले धर्म सहारे।
धारा शील उमर अट्टारा, आगम ज्ञान लिया सुखकारा ॥
सदा ही श्रावक त्यागी जन को, हुए सहाई ज्ञानार्जन को।
वीर सिन्धु आचार्य की वाणी, सुनके ठनी वरने शिवराणी ॥
क्षुल्लक ऐलक पद को धारा, फिर मुनि पद का किया विचारा।
संवत् चतुर्थीस चौरासी, परिग्रह त्याग हुए वनवासी ॥
शिव सिन्धु आचार्य से पाई, मुनि दीक्षा जयपुर के मांई।
विलग हुए फिर संघ गुरुवर किया भ्रमण निज संघ बनाकर ।
ज्ञान सिन्धु के ज्ञान से भारी, हुई प्रभावित जनता सारी।
प्रकाण्ड पण्डित आगम के हैं, हिन्दी संस्कृत ग्रन्थ रचे हैं ।
नगर नसीराबाद के मांई, त्यागीवर बहु जनता आई।
गुरु गुण गण पहचान है कीनी, पदवी आचारज की दीनी ॥
शिक्षा दीक्षा सन्मति देकर, सुख संभव करते हैं गुरुवर।
विद्या और विवेक के दाता, शरणागत शिव मारग पाता ॥
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानसागर-योगीश्वराय पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-ज्ञान सिन्धु दरबार में, मची ज्ञान की लूट।
झोली जो भरता 'प्रभु' जाता भव से छूट ॥
इत्याशीर्वादः
उपरोक्त पूजा मुझे अजमेर के श्रीमान् निर्मल गंगवाल ने ‘श्रद्धासुमन' नामक चतुर्थ पुष्प। रचयिता-प्रभुदयाल जैन बी.ए., एल.एल.बी., कोविद, कोकिल कुंज पालबीचला, अजमेर। वी.नि.स.२४९५, ईस्वी सन् १९६९ से लाकर दी। ऐसे बाल-ब्रह्मचारी, पण्डित, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि, आचार्य पद को विभूषित कर प्रत्येक पद के आदर्श उपस्थित करने वाले गुरूणां गुरु दादागुरु को नमन वन्दन अर्चन करता हुआ...
आपका शिष्यानुशिष्य