पत्र क्रमांक-११६
२६-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
आगमनिष्ठ, आध्यात्मिक शान्तरस के रसास्वादक, समयसारमयी चैतन्यधारा के स्रोत गुरूणां गुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में भावपूर्वक द्रव्य नमोऽस्तु... हे गुरुवर! आपने जब एक जवान सुन्दर युवा को दिगम्बर मुनि दीक्षा दी तो आपने स्वयं एक चुनौती स्वीकार की थी और उस चुनौती भरे साहसिक कदम को निरंतर ज्ञान-ध्यान-तप-चारित्र के संस्कार देते हुए बड़े ही परिश्रमपूर्वक लक्ष्य को पूर्ण कर सफलताश्री को अर्जित किया था। आपने मुनिदीक्षा देने के बाद १९६८ चातुर्मास के प्रारम्भ में २००० वर्ष प्राचीन अध्यात्म सरोवर के जहंस परमपूज्य महान् आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के महान् ग्रन्थराज पूज्य समयसार जी का अध्ययन सर्व नाज के बीच मुनि श्री विद्यासागर जी को कराया था। जिसमें आपने समाज में फैली विसंगतियों को आगम के आलोक में दूर करते हुए अपने लाडले शिष्य को शुद्ध-सिद्ध अध्यात्म अमृत का प्याला नहीं अपितु घट भर-भरकर पिलाया था। आपका वह 'अमृत' अजमेर समाज ने हम मंदबुद्धियों के लिए प्रकाशित कराया। जिसे ब्र. यारेलाल जी ने अथक परिश्रम करके प्रेस कॉपी तैयार की थी। उस ग्रन्थराज के द्वितीय संस्करण में आपके प्रिय मनोज्ञ शिष्य मेरे गुरु आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज की ‘अन्तर-घटना' का संस्मरण मन समयसार के आध्यात्मिक आनन्द की कल्पना में खो गया। वह ‘अन्तर-घटना' का अंश आपको लिख रहा हूँ-
अन्तर-घटना
“मुनि-दीक्षा के उपरान्त, परम-पावन, तरण तारण, गुरु-चरण सान्निध्य में इस महान् ग्रन्थ का अध्ययन प्रारम्भ हुआ। यह भी गुरु की गरिमा' कि कन्नड़ भाषा-भाषी मुझे अत्यन्त सरल एवं मधुर भाषा शैली में ‘समयसार' के हृदय को श्रीगुरु महाराज ने (आ. श्री गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने) बार-बार दिखाया। जिसकी प्रत्येक गाथा में अमृत ही अमृत भरा है और मैं पीता ही गया ! पीता ही गया !! माँ के समान गुरुवर अपने अनुभव मिलाकर, घोल-घोलकर पिलाते ही गए, पिलाते ही गए। फलस्वरूप एक उपलब्धि हुई, अपूर्व विभूति की, आत्मानुभूति की! अब तो समयसार ग्रन्थ भी ‘ग्रन्थ' (परिग्रह के रूप में) प्रतीत हो रहा है। कुछ विशेष गाथाओं के रसास्वादन में जब डूब जाता हूँ, तब अनुभव करता हूँ कि ऊपर उठता हुआ, उठता हुआ ऊर्ध्वगममान होता हुआ, सिद्धालय को भी पार कर गया हूँ, सीमोल्लंघन कर चुका हूँ। अविद्या कहाँ? कब सरपट चली गई, पता तक नहीं रहा। आश्चर्य तो यह है कि जिस विद्या की चिरकालीन प्रतीक्षा थी, उस विद्यासागर के भी पार ! बहुत दूर !! पहुँच चुका हूँ । विद्या-अविद्या से परे, ध्येय, ज्ञान-ज्ञेय से परे, भेदाभेद, खेदाखेद से परे, उसका साक्षी बनकर, उद्ग्रीव उपस्थित हूँ अकम्प निश्चल शैल! चारों ओर छाई है सत्ता, महासत्ता, सब समर्पित स्वयं अपने में!''
हे गुरुवर! आपके द्वारा उद्भाषित पूज्य ग्रन्थराज समयसार की हिन्दी टीका जो भी पढ़ता है। उसके सारे भ्रम, जिज्ञासाएँ एवं शंकाओं का स्वतः ही समाधान हो जाता है। इस प्रकार आगमार्थ, भावार्थ, विशेषार्थ रूप विद्वत्तापूर्ण चिन्तनामृत को प्रणाम करता हूँ...
आपका
शिष्यानुशिष्य