पत्र क्रमांक-१२०
०१-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
त्रय परमेष्ठी पदों पर शोभायमान दादा गुरुवरश्री ज्ञानसागर जी महाराज के पूज्यपाद कमलों की पूजा-वंदना-अर्चना-करता हूँ... हे गुरुवर! केसरगंज चातुर्मास के उस विशेष दिवस के बारे में लिख रहा हूँ, जब मुनि श्री विद्यासागर जी अस्वस्थ हुए और फिर आपश्री के चरणों का चमत्कार हुआ और वे स्वस्थ हो गए। इस सम्बन्ध में सदलगा से पधारे विद्याधर जी के अग्रज श्री महावीर जी अष्टगे ने मुझे १२-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया-
गुरु महाराज के चरणों का प्रभाव
जब हम लोग केसरगंज चातुर्मास के दौरान वहाँ गए तब एक दिन स्कूल में बहुत जनसमुदाय के बीच मंच पर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने केशलोंच किया, उस समय गर्मी भी बहुत अधिक थी। मुनि श्री विद्यासागर जी को शाम को ज्वर चढ़ गया। रात में वे गुरु महाराज के चरणों के निकट सोये सुबह तक वह ज्वर गायब हो गया। यह गुरु महाराज के चरणों का प्रभाव हमने साक्षात् देखा है।'' इस प्रकार आपकी शुद्ध तपस्या के प्रभाव से चमत्कार होते रहे हैं। केशलोंच महोत्सव के सम्बन्ध में मुझे दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने २०१५ भीलवाड़ा में बताया और जैन गजट' २७-११-१९६९ की कटिंग दी जो आपको बता रहा हूँ-
मुनि विद्यासागर जी का पाँचवाँ केशलोंच
‘‘केसरगंज चातुर्मास के समय १६ नवम्बर के दिन स्थानीय राजकीय मोईनिया इस्लामिया उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्रांगण में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का एवं ऐलक श्री सन्मतिसागर जी महाराज का केशलोंच हुआ। मुनि श्री विद्यासागर जी का यह दीक्षोपरान्त पाँचवाँ केशलोंच था। तब पं. हेमचंद जी शास्त्री एवं पं. श्री हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री ब्यावर एवं श्रीमान् सर सेठ भागचंद जी सोनी के ओजस्वी भाषण हुए इस पुनीत अवसर पर श्री १००८ पार्श्वनाथ दिग. जैसवाल जैन मन्दिर जी केसरगंज में श्री सिद्धचक्र मण्डल विधान की स्थापना पं. हीरालाल जी ब्यावर के द्वारा कराई गई।"
केशलोंच के पश्चात् प्रभुदयाल जी ने भजन गाये उसके पश्चात् प्रभुदयाल जी कवि गीतकार गायक ने स्वरचित बालब्रह्मचारी आचार्य श्री शान्तिसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी आचार्य श्री वीरसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी आचार्य श्री शिवसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी आचार्य श्री ज्ञानसागर जी उनके प्रथम शिष्य बालब्रह्मचारी मुनि श्री विद्यासागर जी, ऐसे पंचबालयति मुनि महाराजों की समुच्चय पूजा गाई और कजौड़ीमल जी अजमेरा, कैलाशचंद जी पाटनी, छगनलाल जी पाटनी, निहालचंद जी बडजात्या मास्टर साहब, केसरगंज के श्रीपति जी, मांगीलाल जी, कन्हैयालाल जी, कुट्टीमल जी आदि महानुभावों ने मुनि भक्ति में अष्ट अर्घ्य चढ़ाये और मूलचंद जी चांदीवाल पूजा के दौरान भाव नृत्य प्रस्तुत करते रहे। उस समय मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज के गृहस्थ अवस्था के परिवार ने भी अर्थ्य चढाये थे और उनके गृहस्थ अवस्था के दोनों छोटे भाई अनन्तनाथ एवं शान्तिनाथ ने कविवर प्रभुदयाल जी के रचित भजन अपने स्वरों में गाये थे।"
उपरोक्त पंचबालयति पूजा और अनन्तनाथ व शान्तिनाथ के द्वारा गाया गया गीत मुझे अजमेर निवासी श्रीमान् निर्मल जी गंगवाल ने सन् १९६८ में श्री दिगम्बर जैन आगम सेवक मण्डल द्वारा प्रकाशित ‘श्रद्धासुमन' द्वितीय पुष्प नामक पुस्तक में से लाकर दिया। वह आपके स्मरणार्थ यहाँ पर दे रहा हूँ-
पंचबालयति (मुनीश्वर) पूजा
स्थापना
दोहा-रत्नत्रय की ज्योति थे, जैन धर्म के ताज।
योगीन्दर चूड़ामणि, शान्तिसिन्धु ऋषिराज ॥
वीर शिरोमणि हैं हुए, वीरसिन्धु महाराज।
चारित्तर चूड़ामणि, तपोमूर्ति ऋषिराज ॥
चालक हैं चारित्र रथ, अरु भव जलधि जहाज।
सौम्यमूर्ति, तपके धनी, शिवसागर महाराज ॥
ज्ञानमूर्ति, भूषण चरित, ज्ञानसिन्धु गुणवन्त ।
परमशान्त, करुणानिधि, मुनिवर महिमावन्त ।।
मूरत हैं चारित्र की, विद्याधर छविवन्त।
विद्यासागर ब्रह्ममय, रहें सदा जयवन्त ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वराः! अत्र अवतर
अवतर संवौषट्।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वराः! अत्र तिष्ठ
तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वराः! अत्र मम
सन्निहिता भव भव वषट्।
अथाष्टक
शीतल निर्मल जल लाय, झारी कनक भरूं।
मम जन्म-जरा नस जाय, तुम पद भेंट करूं ।।
श्री शान्ति-वीर-शिव-ज्ञान, विद्यासागर जी।
नमूं पंच बाल मुनिराय, शीश नवाकर जी ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
चन्दन कर्पूर मंगाय, केशर संग घसे,
तव चरणन देत चढ़ाय, भव आताप नसे। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
उज्ज्वल अक्षत ऋषिराज, लाकर थाल भरूं।
अक्षय पद पावन काज, तुम पद पुंज करूं। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्योऽक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा।
बहुभांति सुमन मंगवाय, अर्पण चरण करूं।
मम काम रोग नस जाय, गुरुवर अरज करूं। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
यह क्षुधा रोग की ज्वाल, करती पीड़ित है।
नाशन हित व्यञ्जन थाल, तुम पद अर्पित है। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
उर तिमिर मोह अज्ञान, भव-भव वास किया।
अब प्रगटे ज्योतिज्ञान, दीपक हाथ लिया। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
ले धूप गन्ध से पूर, अगनि में खेऊँ।
हों अष्ट करम चकचूर, तुम पद मैं सेऊँ। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्योऽष्ट कर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।
केला नारंगी आम, श्रीफल भेंट करूं।
तुम चरण जपूँ सुख धाम, शिव को जाय वरूँ। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
वसु द्रव्य सजा भर थार, अर्घ चढ़ावत हूँ।
दो निज स्वरूप सुखकार, मैं शरणागत हूँ। श्री शान्ति...॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्योऽनर्व्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा।
जयमाल दोहा-पंच बाल मुनिराय की, अब वर जयमाल।
गुण गण विधि जानूं नहीं, गुरुवर गुणकी माल ।।
श्रद्धा सुमन संजोय कर, गूंथी है यह माल।
रही भूल विसरायकर, करना क्षमा कृपाल ॥
पद्धरि छन्द
जय जय जय श्री शान्तिसिन्धु, तुम दयावान थे विश्वबंधु।
अध्यात्म ज्योति गुण रत्न सिन्धु, मिथ्यातम नाशन पूर्ण इन्दु ॥१॥
लिया सत्यवती उर जन्म आय, दिया भोज नगर पावन बनाय।
पितु भीमगौड़ नयनन निहार, सतगौड़ नाम दिया हर्ष धार ॥२॥
वैराग्य जगा शिशुकाल मांय, सिद्ध सिंधु पास लिया शील जाय।
क्षुल्लक हुए ग्राम उत्तर मांय, लिया ऐलक पद गिरनार जाय ॥३॥
गुरु गुणनसिंधु यरनाल ग्राम, मुनिवर दीक्षा लीनी ललाम।
थे प्रभापुंज और धर्म सूर्य, बजवा दिया जग में धर्म तूर्य ॥४॥
पारंगत थे सिद्धान्त मांय, साम्राज्य धर्म नायक कहाय।
चारित्र ज्योति जग में जगाय, चारित्र चक्रवर्ती कहाय ॥५॥
आतम चिन्तन महिमा बताय, शिवमार्ग सुगम दीना बनाय।
आदर्श रखा संसार मांय, कुंथलगिरि सल्लेखन लहाय ॥६॥
आचार्य देव सानिध्य पाय, श्री वीर, कुंथु, नमिसागराय।
नेमी, सुधर्म, पायसागराय, समन्त भद्र योगीश्वराय ॥७॥
हुए शिष्य सभी गुण गण निधान, चारित्र पुंज थे वर्धमान।
निर्भीक, वीर, केहरि समान, थे चन्द्रसिन्धु अनुपम महान् ॥८॥
जय वीर शिरोमणि वीरसिंधु, तुम धर्म प्रवर्तक करुणासिंधु।
दक्षिण दिशि सुंदर ईर ग्राम, लिया जन्म रामसुख जी के धाम ॥९॥
भागू सुत प्रगटे हीरालाल, फिर बढ़ने लगे जिमि चन्द्र बाल।
फिर जान लिया तुम जग असार, और जाय लिया व्रत शील धार ।।१०।।
गुरु शान्तिसिन्धु के करन दर्श, कोन्नूर ग्राम पहुँचे सहर्ष।
गुरु वचनामृत डाला प्रभाव, दीक्षा धरने के जगे भाव ॥११॥
बने क्षुल्लक, फिर मुनिपद को धार, किया भ्रमण सकल भारत मंझार।
लाखों जन को शिवमग बताय, लीनी समाधि खान्याँ में जाय ॥१२॥
चूडामणि चारित छत्रछाय, शिव-धर्म-पद्म-जयसागराय।
सन्मति और श्री श्रुतसागराय दीक्षित हो धर्म का यश बढ़ाय ॥१३॥
जय गुरुवर शिवसिन्धु सुजान, चालक जो चारित रथ महान्।
गुरु क्षमाशील और विनयवान, जो तप तपते आगम प्रमान ॥१४॥
लिया जन्म गाँव अड़गांव मांय, श्रेष्ठी नेमीचन्द सुत कहाय।
दगडाबाई की कोख मांय, प्रगटे थे हीरालाल आय ॥१५॥
पढ़ लिख हो जगसे उदासीन, सप्तम प्रतिमा गुरु पास लीन।
बने क्षुल्लक सिद्धवर कूट जाय, शिवसागर लीना नाम पाय ॥१६॥
गुरु वीर संग नागौर आय, निर्ग्रन्थ रूप लीना सजाय।
आचार्य पट्ट शोभा बढ़ाय, दिये ज्ञान-वृषभ मुनिवर बनाय ॥१७॥
दीक्षित किये भव्य-सुपार्श्वसिन्धु, श्रेयांस-अजित और सुबुद्धि सिन्धु ।
कर भ्रमण नगर और ग्राम-ग्राम, फहराते धर्म ध्वज सभी ठाम ॥१८॥
जय ज्ञानसिंधु गुण गण निधान, हैं शान्ति शिरोमणि शीलवान।
चारित्र विभूषण निरभिमान, हैं ज्ञानमूर्ति करुणानिधान ॥१९॥
देवी घृतवरी की कोख आय, लिया जन्म ग्राम राणोली मांय।
जिन तात चतुर्भुज मन को भाय, भूरामल नाम है जिन रखाय ॥२०॥
अट्ठारह वर्ष ब्रह्मचर्य धार, जिन शास्त्र पठन करते हैं भार।
श्री वीर सिन्धु सान्निध्य पाय, पद क्षुल्लक-ऐलक लिया जाय ॥२१॥
मुनि दीक्षा शिवसिन्धु से पाय, शिवसाधन अनुरत जो गहाय।
मुनि संघ मांय उवझाय रूप, बहु जन काढे भव अंध कूप ॥२२॥
जय विद्यासागर शीलवन्त, सुर नर तुमरे पद को नमन्त।
चारित्रमूर्ति, छवि परमशान्त, मुखमण्डल राजे चन्द्रकान्त ॥२३॥
तुम ग्राम सदलगा जन्म लीन, माँ श्रीमंती घर आनंद कीन।
तुम पितर मल्लप्पा प्यार मान, विद्याधर नाम दिया सुजान ॥२४॥
कर शान्तिसिन्धु आचार्य दर्श, वैराग्य जगा था नवम वर्ष ।
श्री देशभूषण के पास जाय, लिया शील जैपुर चूलगिरि मांय ॥२५॥
फिर ज्ञानसिन्धु मुनि निकट आय, कर पठन शास्त्र मुनिपद लहाय।
तिथि पंचम सुदी आषाढ़ आय, दो हजार पचीस की साल मांय ॥२६॥
दिया अजयमेरु पावन बनाय, हर्षे थे इन्द्र कलशा दुराय।
दीक्षा लीनी बाईस वर्ष, करते हैं कठिनतम तप सहर्ष ॥२७॥
तुम धन्य-धन्य मुनिगण अपार, तुम पद को वन्दन बार-बार ।
चारित्रधार तुमने वहाय, दिया महीतल को पावन बनाय ॥२८॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिसागर-वीरसागर-शिवसागर-ज्ञानसागर-विद्यासागर-पंचबालयतियोगीश्वरेभ्यः पूर्णार्थ्य निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-पंच बाल मुनिराय को, ध्यादें जो भर चाव।
‘प्रभु' भव से तिर जायेंगे, चढ़ चारित्तर नाव ।
इत्याशीर्वादः
विद्याधर के अनुज भ्राताओं ने गाया भजन : विद्याधर से विद्यासागर
जब खिल गया था ज्ञान उपवन,
इ क बाल ब्रह्मचारी के मन ।
बही धर्म की शीतल पवन,
और वैराग्य की फूटी किरन ॥
लेय दीक्षा बन गये विद्याधर विद्यासागर जी ।।
त्याग परिग्रह धारा, वेश दिगम्बर,
किया जग से किनारा, घरबार तजकर,
धन्य श्रीमंती के नंदन, भविजन के आनंद कंदन करता तुमको जग वंदन,
चरणों में आय आय, शीश नवाकर जी। लेय दीक्षा...॥१॥
मोह ममता भी त्यागी, मन लिया वशकर,
काम सुभट भी मारा, इन्द्रियाँ जयकर,
धन्य मल्लप्पा नंदन, दर्शन से हो मनरंजन, गाता जग तुमरे गुनगन,
आरती गाय गाय पूज रचाकर जी। ले य दीक्षा...॥२॥
शान्ति-सिन्धु ने गाँव, शेडवाल माईं,
वैराग्य ज्योति नवें, बरस जगाई,
जैपुर नगर मांई, देशभूषण ऋषिराई, प्रतिज्ञा शील कराई,
लीनी शरण फिर, आय ज्ञानसागर जी। लेय दीक्षा...॥३॥
शान्ति अनन्त जिनके महावीर भ्राता,
भगिनी सुवर्णा जिनकी दूजी हैं शांता,
तोड़ा सबही से नाता, नाता ये जग भटकाता, जग में नहीं सुख और साता,
पाने अक्षयपद, ठानी शिव माँय जाकरजी। लेय दीक्षा...॥४॥
भूमि सदलगा जन्मे, पावन बनाई,
निर्ग्रन्थ दीक्षा लीनी, अजमेर माई,
उम्र बाईस के माई, कुल की कीरत चमकाई, महिमा जिन धर्म बढ़ाई,
इन्द्र भी हरषे थे, दुराय नीर गागर जी। लेय दीक्षा...॥५॥
रूप बालक वत् जिन अविकारी,
शांत सलोनी छवि, है अतिप्यारी,
चारित गगन के तारे, भविजन के मन उजियारे, निज पर के हैं हितकारे,
चारित्र मूरत ‘प्रभु', धर्म दिवाकर जी। लेय दीक्षा...॥६॥
उपरोक्त केशलोंच महोत्सव को स्मरण कर मैं भी भावार्घ समर्पित करता हूँ...
आपका
शिष्यानुशिष्य