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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. पत्र क्रमांक-१३९ २३-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अपृथग्भूत-पृथग्भूत चैतन्यपरिणाम स्वरूप उपयोग से परिणमित दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों की सदा वन्दना करता हूँ... हे गुरुवर! आपने अपने लाड़ले शिष्य को समयसार का स्वाध्याय कराया तो उन्होंने उसकी अनुभूति रूप पुरुषार्थ भी किया। जब आपने मूलाचार पढ़ाया तो उसकी साधना को भी साधने लगे। इस सम्बन्ध में पूर्व में लिख चुका हूँ किन्तु वे जब कभी अवसर मिलता तो विशेष साधना करते, जो लोगों को देखने में आ जाती, जिससे लोग बड़े प्रभावित होते । इसी तरह की एक साधना के बारे में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- मूलगुणों के विशेष साधक मुनि श्री विद्यासागर ‘‘रेनवाल चातुर्मास में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज अपने २८ मूलगुणों के साथ-साथ उत्तर गुणों की भी विशेष साधना करते रहे। चातुर्मास के दौरान उन्होंने २८ मूलगुणों के अन्तर्गत भू-शयन नामक मूलगुण को विशेष रूप से पालन किया। आषाढ़ शुक्ला १४ से कर्तिक शुक्ला १४ तक, ४ माह चौबीसों घण्टे जमीन पर बिना पाटे, बिना चटाई, बिना घास-फूस के बैठते-उठते-सोते । मात्र दोपहर में प्रवचन करने के समय पर सामाजिक दृष्टि से मर्यादा का पालन करने के लिए समाज के नम्र निवेदन पर तखत पर बैठते थे। वर्षायोग में कई बार धूप नहीं निकलती और ठण्ड भी लगती थी फिर भी उनकी शीत परिषहजय की साधना अखण्ड चलती रही जो पंचमकाल में श्लाघनीय है, स्तुत्य है और सबसे बड़ी साधना तो यह देखने में आयी कि चार माह के प्रवचन में इस विषय पर कोई भी चर्चा नहीं की। इस तरह आपके लाड़ले शिष्य मेरे अपने गुरुवर को हमने कभी भी मुँह मिट्ठू बनते नहीं देखा अर्थात् अपने मुख से स्वयं की प्रशंसा करते नहीं देखा-सुना। यही कारण है कि वे अपने बारे में कभी भी चर्चा नहीं करते। गुरुदेव की इस विशिष्ट साधना के बारे में जब चर्चा की तो लोगों ने बताया कि हमारे पिताजी बताते थे कि मुनिराज विद्यासागर जी को कहते कि महाराज आप पाटे पर बैठ जाएँ, जमीन पर अच्छा नहीं लगता; तो विद्यासागर जी कहते-‘मैं प्रकृति के पाटे पर बैठा हूँ, धरती माँ की गोद में बैठने पर कैसी शरम? गुरु शरण में कोई तकलीफ होने वाली नहीं है।' उनकी साधना से बहुत बड़ी प्रभावना हुई। तबसे आज तक रेनवाल के लोग उनको अपना गुरु मानते हैं। दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने मेरे गुरु की प्रभावना का एक और संस्मरण भीलवाड़ा २०१५ में बताया- मुनि श्री विद्यासागर जी के प्रभावोत्पादक प्रवचन ‘‘रेनवाल चातुर्मास में मुनि श्री विद्यासागर जी के प्रवचन लोगों को बहुत अच्छा लगा करते थे, खास तौर पर युवा वर्ग के लिए। एक दिन प्रवचन में दो पंक्ति की कविता बोली- अधिक हवा भरने से फुटबॉल फट जाये। बड़ी कृपा भगवान की पेट नहीं फट पाये ॥ इन शब्दों पर प्रवचन करते हुए बड़ी गहरी बात बोली-'अइमत्तभोयणाए' अर्थात् अतिमात्रा में भोजन करना अचौर्याणुव्रत का उल्लंघन है। एक बार प्रवचन में सुमधुर स्वरों में गाते हुए चार पंक्तियाँ बोलीं- साधना अभिशाप को वरदान बना देती है। भावना पाषाण को भगवान बना देती है । विवेक के स्तर से नीचे उतरने पर। वासना इन्सान को शैतान बना देती है । इन पंक्तियों पर विशेष प्रभावोत्पादक प्रवचन किया। प्रवचन समाप्त होने पर बहुत सारे लोगों ने तरह-तरह के नियम लिए। कुछ लोगों ने सप्त व्यसन का त्याग किया। कुछ लोगों ने नशीले पदार्थ बीड़ीसिगरेट-तम्बाकू आदि का त्याग किया। कुछ श्राविकाओं ने जमीकंद का त्याग किया। कुछ बुजुर्गों ने रात्रि जल का त्याग किया। ऐसे हैं मुनि श्री विद्यासागर जी, जो शुरु से ही आज तक प्रभावशाली प्रवचन करते यह सब आपका ही ज्ञान संस्कार है जो मेरे गुरु के अन्दर बोलता है। आप जैसे गुरु-शिष्यों को नमन करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  2. पत्र क्रमांक-१३८ २२-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर भक्तों के मन में भक्ति पैदा करने वाले आचरण के धारक गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में कोटिशः नमोऽस्तु करता हूँ...। हे गुरुवर! आपके संघ सान्निध्य में धर्म का आनन्द पाने से समाज आपका चातुर्मास कराने हेतु हर रोज निवेदन करने लगी, किन्तु आप न तो आश्वासन देते न ही कुछ बोलते, क्योंकि बन्धन आपको स्वीकार नहीं। आश्वासन से तो बंधन की स्वीकारोक्ति है। समाज के लोग आश्वासन चाहते किन्तु आपने आगम अनुसार मौन धारण किया और रेनवाल दिगम्बर जैन समाज की भक्ति-भावना-समर्पण को देखते हुए आपका मन रेनवाल में चातुर्मास करने का हो गया। यद्यपि आस-पास के कई गाँव व शहरों के लोग आपका चातुर्मास कराने का निवेदन कर चुके थे, तथापि अतिश्रद्धा-भक्ति-समर्पण की जीत हुई और किशनगढ़-रेनवाल में चातुर्मास की स्थापना हुई । इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया- रेनवाल ने देखा सन् १९७० का चातुर्मास १७-०७-१९७० शुक्रवार आषाढ़ शुक्ल १३-१४ विक्रम संवत् २०२७ को प्रात:काल आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज, मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज, ऐलक सन्मतिसागर जी महाराज, क्षुल्लक सुखसागर जी महाराज, क्षुल्लक सम्भवसागर जी महाराज, क्षुल्लक विनयसागर जी महाराज, ब्र.मांगीलाल जी, ब्र. बनवारीलाल जी, ब्र. दीपचंद जी आदि सभी ने उपवास पूर्वक भक्तियों के पाठ कर चातुर्मास स्थापित किया। तत्पश्चात् मंच पर मुनि श्री विद्यासागर जी एवं आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का मार्मिक प्रवचन हुआ और चातुर्मास का बंधन क्यों किया जाता है? और मुनि आश्वासन क्यों नहीं देते? इस पर विशद व्याख्या की। रेनवाल चातुर्मास की दैनन्दिनी ‘‘चातुर्मास में प्रतिदिन प्रातः ७:३०-८:३० बजे तक धर्मसभा का अयोजन जैन भवन में होता था। जिसमें पूज्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज छहढाला के छन्दों को सुरीले स्वर में गाकर बोलते थे और इस पर प्रवचन करते थे। इसमें पूरी समाज उपस्थित होती थी। फिर ९:३० बजे आहारचर्या, १२:00 सामायिक, १:३० बजे से आचार्य महाराज मुनि श्री विद्यासागर जी को न्याय विषयक ग्रन्थ प्रमेयकमल मार्तण्ड एवं अष्टसहस्री पढ़ाते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज उच्चारण करते और आचार्य महाराज उसका शब्दार्थ, भावार्थ, विशेषार्थ बताते थे। फिर दोपहर में ३:00-४:00 बजे तक मुनि श्री विद्यासागर जी प्रवचन करते थे। इसके बाद आचार्य गुरुदेव मुनि श्री विद्यासागर जी को आचार्य पूज्यपाद स्वामी विरचित संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ जैनेन्द्र प्रक्रिया पढ़ाते थे। फिर संघ प्रतिक्रमण करता, देवदर्शन करता और अंधेरा होने से पूर्व सामायिक में हम सब बैठ जाते थे, फिर रात्रि में गुरुदेव की वैयावृत्य करके १० बजे विश्राम में चले जाते थे। चातुर्मास में पूज्य मुनिश्री विद्यासागर जी महाराज जब कभी समय मिलने पर गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा ब्रह्मचारी अवस्था में रचित 'जयोदय महाकाव्य' की सूक्तियाँ लिखा करते थे।' इसी प्रकार रेनवाल के श्रीमान् गुणसागर जी ठोलिया ने बताया कि दोपहर में प्रतिदिन मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। तब उस प्रवचन में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज भी बैठते थे और प्रवचन सुनते थे। जब मुनि श्री प्रवचन में कन्नड़ की कोई विशेष बात बताते तो ज्ञानसागर जी महाराज हँसते थे। उनके प्रवचन की टोन कन्नड़ भाषा से प्रभावित थी इसलिए हम सभी को बड़े अच्छे लगते थे।'' इसी प्रकार ‘जैन सन्देश' में ०६-०८-१९७० को रेनवाल के प्रचारकर्ता रतनलाल जी गंगवाल ने समाचार प्रकाशित करवाया- संघ समाचार ‘‘किशनगढ़-रेनवाल में श्री १०८ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघ का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हो रहा है। प्रातः ७:३०-८:३० बजे तक प्रौढ़ शिक्षण शिविर को आरम्भ किया गया है। जिसमें पूज्य आचार्य महाराज स्वयं छहढाला का अध्ययन कराते हैं। दोपहर में श्री १०८ मुनि श्री विद्यासागर महाराज का प्रभावशाली सरस प्रवचन होता है। आचार्य श्री से श्री नेमीचंद जी गंगवाल पचार वालों ने ७ प्रतिमा के व्रत लिए। इस तरह रेनवाल चातुर्मास में आपने प्रथम बार प्रौढ़ जनों का शिविर आयोजित किया और स्वयं अपने अनुभवों से समाज को संस्कारित किया। ऐसे सम्यग्ज्ञान संस्कार दाता के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन करता हूँ... आपका शिष्यानुशिष्य
  3. पत्र क्रमांक-१३७ २१-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर इच्छा उत्सुकता व्याकुलता रहित ज्ञानजीवी ज्ञानमूर्ति परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चिह्नांकित कर्ता चरणों में कोटिशः नमन नमोऽस्तु निवेदित करता हूँ... | हे गुरुवर! आप जहाँ पर भी जाते तो संघ की भव्य आगवानी होती कारण कि आपकी ज्ञान-यशसुरभि जो सर्वत्र व्याप्त थी। आपके तार्किक, आध्यात्मिक, आगमिक प्रवचन सुनने को लोग लालायित रहते थे। इस कारण आपको पाकर लोग आनन्द उल्लास से भर जाते थे। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया ‘जून के अन्तिम सप्ताह में गुरुदेव रेनवाल पहुँचे थे। रेनवाल वालों ने भव्य आगवानी की ऐसा लग रहा था जैसे रेनवाल वालों को पूर्व से ही गुरुवर के आने की सम्भावना थी और इसलिए भव्य आगवानी की तैयारी कर रखी थी। आगवानी का जुलूस दिगम्बर जैन मन्दिरजी पहुँचा संघ ने दर्शन किए फिर संघ को जैन भवन में रुकाया गया था। २-३ दिन बाद मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने दीक्षोपरान्त आठवाँ केशलोंच किया। पूरी समाज केशलोंच देखने उपस्थित हुई। फिर कुछ दिन बाद आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने भी केशलोंच किया। इससे सम्बन्धित रेनवाल के गुलाबचंद जी गंगवाल ने संघ आगमन का समाचार ‘जैन गजट' में प्रकाशित कराया। जो २ जुलाई १९७० को प्रकाशित हुआ- संघ का शुभागमन ‘‘किशनगढ़ (रेनवाल)-यहाँ श्री १०८ आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के संघ का पदार्पण हुआ है। संघ का यहाँ गाजे-बाजे से अभूतपूर्व स्वागत हुआ है। संघ का चातुर्मास किशनगढ़ में ही होने की पूर्ण संभावना है। संघ में २ मुनि, १ ऐलक, १ क्षुल्लक तथा ३ ब्रह्मचारी हैं। प्रतिदिन दोपहर में श्री १०८ मुनि विद्यासागर जी महाराज का धर्मोपदेश होता है। धार्मिक समाज को यहाँ पधारकर धर्मलाभ लेना चाहिए।' परमपूज्य मुनिराज श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज की पूजन स्थापना दोहा-चरित मूर्ति परीषहजयी, जितेन्द्रिय गंभीर। निर्मल अविकारी छवि, दयावान अरु धीर ॥ बाल ब्रह्मचारी सुधी, विनयवान गुणवन्त। शान्तिपुंज तेजोमयी, विद्यासागर सन्त ॥ ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वर! अत्र अवतर-अवतर संवौषट्। ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वर! अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वर! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्। द्रव्याष्टक शीतल सुरभि जल लाय, चरण पखार करै । दुःख जन्म जरा मृत जाय, पूजत पाप टरै ।। विद्याधर विद्यावान, तुम विद्यासागर । चन्द्रोज्ज्वल कान्तिवान, बालयती मनहर ॥ ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। ये चंदन सहित कपूर, घिसकर हूँ लाया। भव ताप दुःख से पूर, मेटो मुनिराया। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा। ये तन्दुल चन्द्र समान, पूजन को लाया। अक्षय पद करुणावान, पाने ललचाया। विद्याधर.. ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा। पूजन को फूल गुलाब, बेला मंगवाये। नहीं जूही का है जवाब, काम व्यथा जाये। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा। ये मोदक और मिष्ठान, पूजन को लाया। नश जाये क्षुधा ये जान, गुरु चरणन आया। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। ये घृत से पूरित दीप, तुम ढिंग आय धरूँ।। मोहान्ध रहे न समीप, इतनी विनय करूं। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। ले गंध सुगंध अनूप, धूपायन डा। पूजन कर शुद्ध स्वरूप, करमन को जाऊँ। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। नारंगी आम अंगूर, बहुफल हूँ लाया। शिव फल चाहूँ मैं हुजूर, गुण गण तब गाया। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा। ले अष्ट द्रव्य का थाल अर्घ चढाऊँ मैं। पद अनर्घ पाऊँ दयाल, बलि बलि जाऊँ मैं। विद्याधर... ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय अनर्थ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा। जयमाला दोहा-आभा मुख लख शान्त हो, मन ज्यूँ चन्द्र चकोर । मगन होय नाचन लगे, मेघ देख ज्यूँ मोर ।। पाप रहे ना पास में, शुद्धातम बन जाय। ऐसे गुरु पद पूज के, धन्य ‘प्रभु' कहलाय ।। पद्धरी छन्द जय विद्यासागर शीलवान, तुम बाल ब्रह्मचारी महान। तुम प्रभापुंज हो वीर्यवान, समताधारी हो धैर्यवान ॥ तब कामदेव सम सुभग रूप, मुख मण्डल महिमा है अनूप। अति प्रभावकर व्यक्तित्व आप, लख पड़े हृदय पर अमिट छाप ।। निर्ग्रन्थ रूप जन करत दर्श, बरबस चरणन पड़े धार हर्ष। मृदुभाषी लेते मन को जीत, जागृत करते मन धर्म प्रीत ॥ शुभ भाव अनेकों मन जगाय, उन्नत पथ पर दीना लगाय। हर घड़ी रहें रत धर्म ध्यान, कर ज्ञानार्जन निज पर कल्याण ॥ तुम धन्य-धन्य श्रीमंती लाल, दिया पितु मल्लप्पा कुल उजाल ।। लिया जन्म सदलगा ग्राम मांय, विद्याधर लीना नाम पाय। तुम नवम वर्ष की उम्र मांय, जब शेडवाल नगरी में आय ॥ आचार्य शान्ति के दर्श पाय, वैराग्य पौध मन में लगाय। श्री देशभूषण से शील जाय, ले लिया श्रवण बेलगोल मांय ॥ कालान्तर में गुरु ज्ञान पास, अजमेर आये ले एक आस। गुरु ज्ञानसिन्धु की शरण पाय, किया शास्त्र पठन बहु मन लगाय॥ मुनि पद ताईं अभ्यास कीन, की विनय गुरु से होय दीन। तिथि पंचम सुद आषाढ़ मास, दो हजार पचीस में वरी आस ॥ हुई अजयमेर भूमि पुनीत, भू गगन गा उठे हर्ष गीत। हर्षित हुए इन्द्रादिक अपार, ढोरे थे कलश बहा नीर धार ॥ बाईस वर्ष लिया जोग धार, तुम धन्य जैन शासन सिंगार। अनुपम आदर्श रखा है लोक, ऐसे मुनि चरणन सहस ढोक ॥ ॐ ह्रः श्री विद्यासागरमुनीश्वराय पूर्णार्धं निर्वपामीति स्वाहा। दोहा-तजकर जग के भोग सुख, वरन चले शिवनार । ऐसे साधु चरण गह, ‘प्रभु' होगा उद्धार । ॥ इत्याशीर्वादः ॥ इस प्रकार मुनि श्री का दीक्षादिवस सानन्द सम्पन्न हुआ ही था और ५ दिन बाद पुनः महोत्सव हो गया। इस सम्बन्ध में दीपचंद जी छाबड़ा ने बताया रेनवाल में हुई क्षुल्लक दीक्षा ‘ब्र. जमनालाल जी ने केसरगंज अजमेर में २०२६ आषाढ़ शुक्ला १० को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज से सप्तम प्रतिमा ग्रहणकर संघ में प्रवेश किया और उन्होंने कई बार गुरुदेव से दीक्षा का निवेदन भी किया था। तब गुरुदेव कहते थे देखो अभी साधना करो और जैसे ही रेनवाल पहुँचे तो समाज को ब्रह्मचारी जी की दीक्षा का संकेत किया और मुहूर्त बताया। समाज में उत्साह आ गया सब तैयारियाँ कर ली गईं। मुनि श्री विद्यासागर जी का द्वितीय दीक्षा दिवस से लेकर १४ जुलाई तक का कार्यक्रम प्रचारित हो गया।' जमनालाल जी के परिचय के बारे में रैनवाल के गुणसागर जी ने ज्ञानदीपिका नामक छोटी-सी पुस्तिका लाकर दी जिसके रचयिता मुनिराज श्री विजयसागर जी हैं। जिसमें सूरजमल जी गंगवाल ने रचयिता का परिचय दिया है। संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है-खाचरियावास (सीकर राज.) ग्राम में सेठ श्री उदयलाल जी गंगवाल की धर्मपत्नी श्रीमती धापूबाई जी की मंगलकुक्षि से भादवा सुदी १० दीतवार वि. संवत् १९७२ को आपका शुभ जन्म हुआ नाम रखा गया जमनालाल। लौकिक शिक्षा ग्रहणकर १६ वर्ष की अवस्था में विवाह हुआ और ३ पुत्र एवं २ पुत्रियाँ हुईं। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सम्पर्क में वि. संवत् २०१९ खाचरियावास में आये । वि. संवत् २०२३ अजमेर में दर्शन प्रतिमा ली। क्षुल्लक दीक्षा से सम्बन्धित मुनि श्री अभयसागर जी महाराज के द्वारा ‘जैन गजट' १३ अगस्त १९७0 अखबार की कटिंग प्राप्त हुई जिसमें गुलाबचंद जी गंगवाल ने इस प्रकार समाचार प्रकाशित कराया- क्षुल्लक दीक्षा समारोह आषाढ़ शुक्ला १० मंगलवार १४ जुलाई ७0 वी.नि.स. २४९३ को किशनगढ़-रेनवाल में आ. श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघस्थ ब्रह्मचारी श्री जमनालाल जी गंगवाल खाचरियावास ने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की (नाम-क्षुल्लक विनयसागर जी)। इस अवसर पर आचार्य महाराज के संघस्थ युवा मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का बहुत ही सारगर्भित प्रवचन हुआ। यहाँ आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के संघ का चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हो रहा है। प्रातः ७:३०-८:३० बजे तक प्रौढ़ शिक्षण शिविर प्रारम्भ किया गया है। जिसमें स्वयं पूज्य आचार्य महाराज छहढाला का अध्ययन कराते हैं। करीब २५ प्रौढ़ पुरुष एवं महिलाएँ अध्ययन कर रहीं हैं। दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन होता है। दोपहर में ही स्थानीय करीब १०० बालक-बालिकाओं को ब्र. श्री दीपचंद जी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कराते हैं। अपूर्व धर्म प्रभावना हो रही है।'' इस प्रकार रेनवाल प्रवेश से लेकर जो धर्म प्रभावना शुरु हुई वो चातुर्मास के अन्त तक चलती रही। क्षुल्लक दीक्षा के दिन श्री विजय कुमार जी शास्त्री एम.ए. जोबनेर ने परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर । जी महाराज की भक्ति करते हुए अपनी भावांजली व्यक्त की जो ‘जैन गजट' में छपी- हे! पूज्य ज्ञानसागर मुनिवर... ओ मानवता के चरम बिन्दु जीवन निधियों के धनागार। भविजन विकासि, हे पूर्ण इन्दु, तुम करुणा के सागर अपार ॥१॥ काँटों की कुछ परवाह न कर, बढ़ चले साधना के पथ पर। दुर्दान्त तपस्वी परम धीर तुम सत्य शिवं सुन्दर के घर ॥२॥ जग की मादक मोहकता ने तुमको न कभी ललचा पाया। पर में ममता को छोड़ सकल निज में शाश्वत सुख को पाया ॥३॥ ओ श्रमण धीर, तुम घोर श्रमी, श्रम का मूल्यांकन कर पाये। कर घोर तपश्चर्या अविरत निज की निधियों को पा पाये ॥४॥ तुम सागर से होकर गम्भीर, धरती सा धीरज धरते हो। गंगा-जल से पावन होकर ज्योत्स्नाकर सम सुख भरते हो ॥५॥ तुम हिमधर से होकर उत्तुंग समता का पूर बहाते हो। रत्नत्रय निधि की गाँठ बाँध, योगी निर्ग्रन्थ कहाते हो ॥६॥ तुम में शिशु का पावन तन है, माँ का स्नेह अमर्यादित । नीरस मावस सम एक दृष्टि, पर स्वात्म ज्योति से अवभासित ॥७॥ तुम फले हुए तरु से विनम्र जग आशा से न कभी झुकते। परिमल वाहक मलयानिल से, पर हित पथ पर न कभी रुकते ॥८॥ निर्मुक्त गगन से हो स्वतन्त्र, बाह्याडम्बर का लेश नहीं। तुम साम्यवाद के अग्रदूत, तुमको श्रम का परिताप नहीं ॥९॥ तुमने परिमित परिधान त्याग, दिग्मण्डल का अम्बर पहिना। तुम भूल सके क्या कभी इसे कैसा होता दुख का सहना ॥१०॥ तुमने मन-वच-काया की सब अभिलाषाओं को ठुकराया। पर स्रोत अहिंसा का कैसे जग जीवन में नित सरसाया ॥११॥ तुम साधक हो, अन्वेषक हो, परमार्थ तत्त्व के चिन्तक हो। फिर सतत निस्पृही बन करके क्यों निरी पहेली बनते हो ॥१२॥ ओ जान चुका मानव विराट, तुम आत्म तेज के पुंज अहो! ओ साधक, ज्ञायक बनकर तुम, चित्त में आनन्द समीहक हो ॥१३॥ हे वीतराग, हे निर्विकार, हो शान्ति-मूर्ति तुम आत्मजयी। जड़-चेतन का करते विचार हे उग्र तपस्वी कर्म-जयी ॥१४॥ कल्याण मार्ग के परिचायक आत्मिक निधियों के हो अगार। भौतिक जग के प्रति उदासीन जीवन सम रसता के उभार ॥१५॥ हे पूज्य ज्ञान-सागर मुनिवर, आचार्यवर्थ्य, यतिराज अहो। जग पूज्य तपस्विन् तुम सा है जग में भी कोई साधु कहो ॥१६॥ समता के सागर हे ऋषिवर, तुम को इस जन का नमस्कार। भव-वारिधि में जो डूब रहे, तुम उनको नित लेते उबार ॥१७॥ ओ पूज्य तपोनिधि चरणों में श्रद्धा से शीष झुकाता हूँ। तब सौम्य-मूर्ति की आभा में, मैं अपने पन को पाता हूँ ॥१८॥ इस प्रकार किशनगढ़-रेनवाल में धर्म की गंगा बहने लगी। ऐसी ज्ञानगंगा बहाने वाले गुरु-शिष्य के पावन चरणों में त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  4. पत्र क्रमांक-१३६ २०-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर हस्तावलम्बन दाता तारणहार दादा गुरुजी के पावन चरणों में प्रतिक्षण नमोऽस्तु करता हूँ... हे गुरुवर! आप मण्डा से मिण्डा गए फिर वहाँ से रेनवाल के लिए विहार किया। तब आपका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं होने से और गर्मी की भीषणता के बावजूद आपने विहार कर दिया। उस समय का एक संस्मरण दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने सुनाया जिसे सुनकर मुझे अपने गुरु पर गौरव होता है और उसे सुनकर आप भी पुनः गौरव से भर उठेंगे- शिष्य ने उठाया गुरु को पीठ पर ‘मिण्डा से जब गुरुदेव ने किशनगढ़-रेनवाल के लिए लगभग २५ जून को प्रातः विहार किया था और गुरुजी का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं था। तब बीच में मेण्डा नदी पड़ी जो सूखी बालू-रेत की थी। जिस पर चलने से ताकत ज्यादा लगानी पड़ती है पैर धस जाता है और फिसलता भी है। ऐसी स्थिति में मुनि श्री विद्यासागर जी ने अपनी पीठ पर गुरुजी ज्ञानसागर जी महाराज को उठा लिया और दो-तीन कि.मी. तक ले गए थे। वहाँ पहुँचने पर मैंने मुनिवर विद्यासागर जी से कहा-आप थक गए होंगे आपके पैर दबा देता हूँ। तब मुनि श्री बोले-गुरु की सेवा में थकान कैसी?'' इस तरह मेरे गुरु ब्रह्मचारी अवस्था से ही गुरुओं की सेवा में तत्पर, लगनशील, समर्पित रहे। जब वे आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के संघ में थे। तब ३० मार्च १९६७ को होने वाले गोम्मटेश्वर महामस्तकाभिषेक महोत्सव में आचार्य संघ जा रहा था, तब मार्ग में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज की पालकी भी ब्रह्मचारी विद्याधर जी उठाकर चलते थे। हे दादागुरु! मेरे गुरुवर ने आपको नदी पार कराई आपने उन्हें संसार-सागर पार करा दिया। धन्य हैं! ऐसे तारक गुरु-शिष्य के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  5. पत्र क्रमांक-१३५ १९-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर वात्सल्य रत्नाकर परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पवित्र चरणों में स्नेहिल नमस्कार नमस्कार नमस्कार... हे गुरुवर! मई के अन्तिम सप्ताह अन्तर्गत आप संघ सहित मण्डाभीमसिंह पहुँचे थे और वहाँ लगभग १ माह का आत्मविहार किया। मेरे गुरुवर साधना के साथ-साथ सेवा-स्वाध्याय में सदा तत्पर रहते। इसके बारे में मैं क्या-क्या बता पाऊँगा, फिर भी मेरे गुरुवर के बारे में कोई भी व्यक्ति संस्मरण सुनाता है तो मन पुलक-पुलक हो उठता है। मण्डाभीमसिंह प्रवास के तीन संस्मरण श्री दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने सुनाये। वे आपको भी बताने का मन हो रहा है- गुरु-शिष्य एक दूसरे के हितचिंतक “मई माह में अत्यधिक गर्मी पड़ रही थी दोपहर में तेज लपट चलती थी। आचार्य महाराज का स्वास्थ्य कमजोर हो जाता था तो मुनि श्री विद्यासागर जी के साथ हम भी आचार्य गुरुवर की वैयावृत्य करते थे और उनके पैरों में घी-कपूर की मालिश करते थे एवं रात में भी नित्य-प्रति वैयावृत्य करते थे। गर्मी को देखते हुए गुरुदेव इशारा करके कहते विद्यासागर जी की भी वैयावृत्य करो बहुत गर्मी है। तो हम लोग जैसे ही मुनि श्री विद्यासागर जी की वैयावृत्य करने की कोशिश करते तो वे मना कर देते और कहते- “मुझे जरूरत नहीं।' हम लोग निवेदन करते महाराज जी! गुरु महाराज की आज्ञा है। तो तत्काल कहते-‘गुरु महाराज की शीतल छाया में गर्मी कहाँ?' इस प्रकार गुरुदेव शिष्यों का पूरा-पूरा ख्याल रखते थे।' भीषण गर्मी में भी स्वाध्याय तप में लीन ‘मण्डा में भीषण गर्मी में दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी को गुरु महाराज स्वाध्याय कराते थे। उस स्वाध्याय में एक व्यक्ति आते थे। जो थे तो जैन किन्तु मुनियों को नमस्कार नहीं करते। इसके बावजूद गुरु महाराज उस व्यक्ति के कल्याणार्थ उस व्यक्ति के प्रश्नों का जवाब देते थे। वे कभी पूछते चौथे गुणस्थान में आत्मानुभूति, केवलज्ञान की किरण, तो कभी कहते व्रत औदयिक भाव है, पुण्य-पाप सब एक भाव हैं, काललब्धि जब आयेगी तो स्वत: पुरुषार्थ हो जायेगा, पंचमकाल में मुनि चर्या पालने वाले सच्चे मुनि नहीं आदि विषयों पर गुरुदेव आगम प्रमाण से तर्क-वितर्क करते हुए उदाहरण पूर्वक समझाते थे किन्तु पूर्वाग्राही, हठग्राही व्यक्ति को गुरु के आगमप्रमाणित वचन एवं तर्को, उदाहरणों को सुनकर आनन्द की अनुभूति नहीं होती अपितु अपूर्वग्राही-ज्ञानग्राही को गुरुमुख से सर्वज्ञवाणी को सुनकर आनन्द की प्राप्ति होती है। किसी को लाभ मिला या नहीं किन्तु हम संघस्थ साधकों को बहुत लाभ मिला। इस प्रकार वाचना-स्वाध्याय के साथ-साथ पृच्छना-स्वाध्याय का अपूर्व लाभ आपने दिया, संघ ने लिया। गुरु भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण ‘‘मण्डा की भयंकर गर्मी में भी गुरुवर एवं मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज कक्ष के अन्दर ही विश्राम करते थे। सन् १९६९ में हम संघ में आये तब से हमने देखा कि आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज, जहाँ पर रात्रि में सोते थे वहीं पर मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी चरणों के निकट सोते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज कभी भी उनके बराबर में नहीं सोये । हमेशा चरणों की ओर ही सोते थे। यह उनकी उत्कृष्ट गुरुभक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण हमने अन्यत्र नहीं देखा । गुरुदेव रात्रि के तृतीय प्रहर अर्थात् ३ बजे उठ जाते थे और दिन में कभी लेटते नहीं थे। मुनि श्री विद्यासागर जी भी गुरुदेव के उठते ही उठ जाते थे और दिन में सोने का कोई प्रश्न ही नहीं था क्योंकि वे गुरुजी को छोड़कर अन्यत्र रहते ही नहीं थे। इस तरह गुरुवर आप साईटिका के रोग के कारण बाहरी तेज हवा से बचने के लिए भयंकर गर्मी में कक्ष के अन्दर ही रात्रि विश्राम करते थे, जबकि भयंकर गर्मी में शाम आठ बजे के बाद कक्ष भभका मारता है- घुटता है। फिर भी आपकी तपस्या का तो कारण समझ में आता है किन्तु मेरे गुरुवर भी इस परिस्थिति में बाहर विश्राम नहीं करते थे। आपके साथ ही ग्रीष्म परिषहजय करते थे। इसकी वजह सिर्फ आपके श्रीचरणों की भक्ति ही थी, जो गुरुचरणों में शीतलता की अनुभूति कराती और उनकी सेवा से एक पल भी दूर नहीं रहने देती थी। ऐसे वीतरागी चरण जिनसे राग हो जाता है। उनको त्रिकाल वंदन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  6. पत्र क्रमांक-१३४ १८-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर स्वाभिमानी अयाचकवृत्ति सम्पन्न परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरणों में विनयार्थ्यं समर्पित करता हूँ... हे गुरुवर! आपने ब्र. विद्याधर जी को दीक्षा देकर बाहर से ही नहीं भीतर से भी नंगा कर एक वर्ष से भी कम अवधि में मूलाचार को ऐसा हृदयंगम कराया कि वह आचरण में बोलने लगा। इस सम्बन्ध में आपको एक संस्मरण लिख रहा हूँ जो मुझे दीपचंद जी छाबड़ा (नांदसी) ने बताया । यद्यपि आपको पढ़ते ही यह बात स्मरण में आ जायेगी क्योंकि इस संस्मरण में आपका जवाब भी लाजवाब है- स्वाभिमानी मुनि श्री विद्यासागर की अयाचकवृत्ति ‘‘सन् १९७0 मई माह की बात है आचार्य गुरुदेव संघ सहित फुलेरा पहुँचे। तब एक दिन मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को चौके में प्रारम्भ में एक लोटा भरकर नीम का पानी दिया और श्रावकश्राविकाएँ गर्म दूध को ठण्डा करने बैठ गए। मुनिश्री जी की अंजुली कुछ समय खाली रही इस कारण मुनिश्री जी अन्तराय मानकर बैठ गए। श्रावक-श्राविकाएँ घबरा गये। मुनिश्री जी ने मन्दिर आकर गुरु महाराज को चर्या सम्बन्धी समाचार दिये। तब श्रावकों ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से पूछा- ‘विद्यासागर जी महाराज ने ऐसा क्यों किया?' तो गुरुदेव बोले- ‘दिगम्बर मुनि महाराज अयाचकवृत्ति वाले होते हैं। वे किसी भी वस्तु की याचना नहीं करते इसलिए ज्यादा समय तक अंजुली खोलकर नहीं रखते ।ज्यादा समय तक अंजुली खोलकर रखने पर दीनता प्रकट होती है, जो दिगम्बर मुनि की सिंहवृत्ति के विपरीत है। इसलिए विद्यासागर जी ने अच्छा किया।' श्रावक अपनी गलती पर पश्चाताप करते हुए रोते रहे और मुनि श्री विद्यासागर जी मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए आशीर्वाद देते रहे।" इस तरह स्वाभिमानी आत्मरस के रसिक मेरे गुरुवर की सिंहवृत्ति ने आज इस पंचमकाल में चतुर्थकाल की साधना को करके दिखा दिया है कि भगवान महावीर की चर्या कैसी थी? और पंचमकाल के अन्तिम समय तक आगम वर्णित दिगम्बर मुनि की २८ मूलगुणात्मक चर्या विद्यमान रहेगी। ऐसे भगवान महावीर के लघुनंदन गुरु-शिष्य के पावन चरणों में त्रिकाल त्रिकरणयुक्त त्रिभक्तिपूर्वक कोटि-कोटि नमोऽस्तु करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
  7. पत्र क्रमांक-१३३ १५-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी ज्ञानमूर्ति दादा गुरुवर के पावन चरणों में त्रिकाल त्रिभक्तिपूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.... ज्ञान का अभीक्ष्ण अभ्यास हे गुरुवर! आपकी चर्या-क्रिया-ज्ञान-ध्यान-साधना के संस्कारों ने मनोज्ञ मुनिराज श्री विद्यासागर जी पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि वे आपकी ही तरह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी साधना में संलग्न हो गए। यह बात तो आप भी जानते हैं कि मेरे गुरुवर आपकी कक्षा में पढ़कर आते फिर उसका रिवीजन करते और धारणा की पर्याय जब तक नहीं बना लेते तब तक सोते नहीं थे। जब आपने आचार्य विद्यानंद जी स्वामी कृत ' आप्तपरीक्षा' नामक न्याय ग्रन्थ पढ़ाया तब ग्रन्थ में अच्छे से प्रवेश करने के लिए उन्होंने उस ग्रन्थ के स्वोपज्ञवृत्ति सहित, कन्नड़ भाषा में नोट्स बनाना प्रारम्भ किए थे। इस सम्बन्ध में हमने श्रीमान् अशोक जी पाटनी (मदनगंज-किशनगढ़) के हाथ से जिज्ञासा गुरुदेव के समक्ष रखी तब उन्होंने यही बताया, सो हमने आपको लिखा। ऐसे अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी गुरु-शिष्य के चरणों में ज्ञान की प्यास बुझाने हेतु अभीक्ष्ण वन्दन करता हुआ... आपका शिष्यानुशिष्य
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