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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 119 - अष्टगे परिवार ने किया आहारदान का पुण्यार्जन

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-११९

    २९-०१-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    सर्वज्ञसार के व्याख्याता आचार्य गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पावन चरण सन्निधि की चाह पूर्वक नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु.... हे गुरुवर! सदलगा जिला बेलगाँव का वह परिवार जहाँ से विद्याधर ज्ञान प्राप्ति की राह पर निकला और ज्ञान का सागर पा गया। उसकी इस खोज का लाभ लेने के लिए पूरा परिवार ही इस वर्ष भी समाचार पाकर केसरगंज अजमेर चातुर्मास में अक्टूबर माह में आपका ज्ञानामृत पाने और नवदीक्षित मुनिराज की ज्ञानानुभूति सुनने के लिए आया। इस सम्बन्ध में विद्याधर जी के बड़े भ्राता श्री महावीर जी अष्टगे ने १२-११-२०१५ भीलवाड़ा में बताया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ-

     

    अष्टगे परिवार ने किया आहारदान का पुण्यार्जन

     

    "सन् १९६९ में पूरे परिवार के भाव गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के पुनः दर्शन एवं उपदेश सुनने का हुआ और मुनि श्री विद्यासागर जी से ज्ञान की बातें सुनने की इच्छा हुई। तब माँ बोली-मात्र दर्शन और प्रवचन सुनने के लिए ऐसे ही जाएँगे क्या? इतने सारे लोग जाएँगे और किसी के यहाँ भोजन करेंगे यह ठीक नहीं। अतः सामग्री लेकर ही चलेंगे। शुद्ध भोजन करेंगे एवं आहारदान भी देंगे। तब पूरी तैयारी के साथ अजमेर आये। केसरगंज में एक परिवार वालों ने हम लोगों को एक कमरा दिया वहाँ पर माता और बहनों ने शुद्ध भोजन बनाना शुरु किया। प्रतिदिन एक-एक साधु को पड़गाहन कर आहारदान देते। बहुत ही आनंद पाते।"

     

    मूल में भूल

     

    ‘सुबह प्रतिदिन आचार्य श्री ज्ञानसागर जी गुरु महाराज का प्रवचन सुनने मिलता और दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन सुनने मिलता था। एक रविवार के दिन दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का प्रवचन बहुत ही मार्मिक हुआ। उस दिन का विषय था- ‘मूल में भूल'। 'इस प्रवचन के विषय पर आपके लाड़ले शिष्य ने अपने जीवन में प्रथम हिन्दी काव्य रचना कर डाली यह कविता मुझे ब्राह्मी विद्याश्रम जबलपुर से प्राप्त मेरे गुरु की पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि से प्राप्त हुई सो आपको बता रहा हूँ-

     

    बड़ी विचित्र समस्या आ खड़ी है इस समाज में जैन,

    विषयान्धीभूत पामरों में चलता है झगड़ा दिन रैन।

    समयसारादि सब सारों को पढ़ तथा बगल में रखते,

    फिर भी वंचित रहते ज्ञान से अतः उलझन में पड़ते ॥१॥

     

    एक दूसरों को परस्पर में बताते हैं अज्ञानी,

    सोचता हूँ मम मन में खेद ये सबही हैं अज्ञानी।

    यद्यपि आत्म द्रव्य का भाई ज्ञान प्रौढ़ है स्वभाव,

    लेकिन चिर से स्वभाव तज परिणत हुआ है रूप विभाव ।।२।।

     

    चराचर जीव राशि भाई भागों में चार हैं निबद्ध,

    कुज्ञानी अथ च अज्ञानी, ज्ञानी फिर है ज्ञायक सिद्ध।

    अहर्निश विषय पान से क्लान्त और मानते उसे इष्ट,

    सदाचार तथा धर्मामृत को समझते वे सदा कष्ट ॥३॥

     

    विषयों में न्यूनता कुछ देख हाय क्या यह हुआ अनिष्ट,

    सहर्ष जीवन के बीच आ कौन शल्य सा हुआ प्रविष्ट ।

    नहला-धुलाकर खूब खिलाकर शरीर को बनाते पुष्ट,

    आत्मा, देह दोनों में भेद अहो वे न मानते दुष्ट ॥४॥

     

    इन दुष्कर्मों से कलंकित जो हैं उसे समझ कुज्ञानी,

    सजग हो पढ़ो अब कौन युत है संज्ञा से इस अज्ञानी।

    आतम तथा जड़ दोनों को जानता है वह भिन्न-भिन्न,

    किन्तु जड़ में अनिष्ट विवर्त्त देख होता है खिन्न-खिन्न ॥५॥

     

    नीति न्यायमार्गारूढ़ हो नित्य चलाता है जीवन,

    अरु भक्ष्याभक्ष्य का जरूर विचार रखता है निशिदिन।

    सुरूप हो या कुरूप अपनी अंगना का पान करता,

    किन्तु पर स्त्री को माँ, या बहिन समान है समझता ॥६॥

     

    उदाहरण के हैं स्वीकरणीय सुन भरत चक्री यहाँ,

    था अज्ञानी अतः छोड़ा अनुज पर रण में चक्र यहाँ।

    चार हजार कम लाख स्त्रियाँ सुभोग्य थीं उनके वहाँ,

    इसलिए सिद्ध होता है घर में वैरागी था कहाँ ॥७॥

     

    हे! जीव मैं तथा मेरा तेरा चलता जहाँ-जहाँ, मोहीज

    नों का प्रथुल राज्य फैला है जान वहाँ-वहाँ।

    फिर ज्ञायिक सम्यग्दृष्टि को किस संज्ञा से पुकारूँ,

    अरु मतिश्रुतावधि सहित गृही प्रथम जिन को क्या कहूँ? ॥८॥

     

    अहो! भाई इन पुरुषों को कभी कुज्ञानी न समझना,

    स्वप्न में भी हाँ किन्तु अज्ञानी कहने में न डरना।

    और समाधि शून्य साधू को भी साथ-साथ न भूलना,

    क्योंकि समयसार कार जो कुन्दकुन्द का है यह कहना ॥९॥

     

    परमायु वाले सर्वार्थसिद्धि जीव अक्षत वीर्य सभी,

    सदा स्वाध्यायासक्त वे अज्ञानी कहलाते फिर भी।

    अहो अज्ञानी का कहाँ तक शब्दों से वर्णन करना,

    अरु बोध देते समय गणधर परमेष्टि को भी जानना ॥१०॥

     

    क्रम प्राप्त अब ज्ञानी की परिभाषा भव्य सुनियेगा,

    जिनकी मन से स्तुति करके संसार कुछ कम करियेगा।

    इनका आत्मा बंधरहित होता है खरा और चंगा,

    यथा सदुपदेशी वीर युत शुद्धतम दिव्यध्वनि गंगा ॥११॥

     

    वस्त्रादि परिग्रहों से हो हो शून्य होता बहिरंगा,

    तथा प्रिय मोहों को तज स्व का पान करता है नंगा।

    वायु ताड़न रहित शान्तजल भरित सरोवर सा निस्पन्द,

    रहता है आत्म प्रदेश उनका रागतरंग विकल अमन्द ॥१२॥

     

    तथा इनके अन्तरंग में तेज पुंज है चेतन चन्द्र,

    यथा वायु-पथ में शरद संयुत शीतल दर्शनीय चन्द्र।

    ऊषा में चकवा हर्षित होता देख अरुणिमा अरविन्द,

    तथा मोह के नाश में पाता ज्ञानामृत चक आनन्द ॥१३॥

     

    आर्त-रौद्र रहित हो बाईस परिषह सहते निर्द्वन्द,

    भ्रमर वन स्वयं ही तो लेते स्वाद हो ज्ञानमकरन्द ।

    यहाँ प्रत्यक्ष देख सकते हो निभ्रान्त ज्ञानी कौन?

    सिर पर आग फिर भी जह नेह तज स्वलीन जो मौन ॥१४॥

     

    अब परमौदारिक शरीरधारी उनको मान ज्ञायक,

    जो अविरोध रूप से कहलाते मोक्षमार्ग के नायक।

    जो जीव के अनुजीवी गुणों को ध्वंस नामधरे घातक,

    आप उन शत्रुओं को परास्त कर हुए मोक्ष प्रदायक ॥१५॥

     

    सब कर्म खपाकर बने सिद्धों को भी गिण हे विचारक,

    क्योंकि सब भावों को वे भी जानते विन किसी सहायक।

    इसलिए भाई अधर हो रहते वे वायुमण्डल में,

    फिर इनकी महिमा अनोखी नहीं है क्या? भूमण्डल में ॥१६॥

     

    अब इन चारों को गुणस्थानों में विभाजित हूँ करता,

    समयसार की बात को ही आपके सम्मुख हूँ रखता।

    प्राथमीक तीन गुणस्थानों में कुज्ञानी को ढूंढना,

    चौथे पाँचवें छट्टे में अरु अज्ञानी को खोजना ॥१७॥

     

    सात से बारह तक ज्ञानी जो हैं मौन सु वारिधि में,

    फिर दो गुणस्थान वाले बचते ज्ञायक की परिधि में।

    अंत में निष्कर्ष यह निकला अहो ध्यान रक्खो भव्य,

    सदा रत रहो मोह नाश में यहाँ यही प्रथम कर्तव्य ॥१८॥

     

    कर्मराज मोह के उदय परिणाम उपजते दो प्रत्यय,

    एक प्रत्यय है रखता दर्शन मोहनीय का अन्वय।

    चारित्र का दूजा रख अरु दोनों दवाते स्वसुख अव्यय,

    अतः मोही इक पल भी रह न पाता स्वसमय में तन्मय ॥१९॥

     

    दो मोहों के अस्तित्त्व में कुज्ञानी अहो! कहलाता,

    दर्शन मोहनीय के नाश में अज्ञानी नाम पाता।

    अरु दोनों के अभाव में स्वानुभवी या ज्ञानी बनता,

    तब वह इन्द्रिय व्यापार से सर्वथा दूर हो रहता ॥२०॥

     

    उक्त भावों को समझ लेता जो जब स्व जीवन में,

    सुनिश्चित पलायमान होगी तब भूल जो है मूल में।।

    प्रथम रचना है यह हिन्दी की मेरी अहो जीवन में,

    अतः लक्षण विकल होगी, लेकिन दोष है क्या भाव में? ॥२१॥

     

    अटगे परिवार केसरगंज में १०-१२ दिन रहा। महावीर जी अष्टगे ने और भी संस्मरण सुनाए-

     

    एक अच्छी सीख

    प्रतिदिन सुबह जब मुनि विद्यासागर जी शौच क्रिया के लिए जाते तो उनके साथ कुछ युवा लोग जाते थे, मैं भी उनके साथ जाता था। वहाँ से लौटकर आने के बाद संघस्थ सभी साधु आँखों को किसी विशेष पानी से धोते थे तो मैंने पूछा यह क्या है? तो मुनि विद्यासागर जी बोले-यह त्रिफला का जल है। हरड, बहेड़ा, आँवला को त्रिफला बोलते हैं। यह आयुर्वेदिक दवा कहलाती है। इससे आँख धोने पर आँख ठीक रहती है।''

     

    गुरु आज्ञा से कड़वा भी मीठा-सा लगता

     

    जिस दिन हमारे यहाँ मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज का आहार हुआ। उस दिन उनको एक श्रावक ने नीम की पत्तियों का रस एक लोटा भरके पिलाया। आहार के पश्चात् मैंने महाराज के समक्ष जिज्ञासा रखी। महाराज! आप नीम का रस हँसते-हँसते पी रहे थे। इतना कड़वा रस आप क्यों पीते हैं? आपको उल्टी नहीं होती?'' तब मुनि श्री विद्यासागर जी बोले-‘‘उल्टी उसे होती है जिसे मीठा खाने की आदत होती है। यह तो बहुत ठंडा होता है इससे शरीर शीतल रहता है इसलिए गुरु महाराज की आज्ञा से ये लोग मुझे देते हैं और मुझे यह कड़वा नहीं लगता।”

     

    भावना मजबूत बनाओ

     

    ‘‘१०-१२ दिन रहकर हम लोग वापिस आने लगे तब माँ ने गुरु महाराज ज्ञानसागर जी से निवेदन किया-जिस तरह आपने विद्याधर को तार दिया, अब मुझे भी तार दो। तब गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज बोले- ‘‘भावना मजबूत बनाओ और मल्लप्पा जी को भी तैयार करो।'' तब माँ बोली-आपके आशीर्वाद से सब सम्भव है। फिर आशीर्वाद लेकर हम लोग सदलगा आ गए।'' इस तरह सदलगा परिवार ने आहार दान देकर पुण्यार्जन किया और विशेष आशीर्वाद प्राप्त किया। हे गुरुवर! आप जैसा गुरु और श्रीमती श्रीमंती जैसी माँ प्रत्येक संसारी को मिलें, जिससे सभी प्राणियों का संसार छूटे मुक्ति की प्राप्ति हो। ऐसे संसार मुक्ति का पुरुषार्थ करने वाले भव्यात्माओं को अनन्त नमन...

    आपकाशिष्यानुशिष्य


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