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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - 123 - मनोविनोद से थकान दूर

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    Vidyasagar.Guru

    पत्र क्रमांक-१२३

    ०५-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर

     

    अपूर्ण से पूर्णत्व के कर्म में सदा निरत गुरुचरणों की सदा वंदना करता हूँ.. हे गुरुवर! जब आपने १४-१२-१९६९ को सोनी नसियाँ से विहार कर लोहागल, चाचियावास, ऊँटड़ा, रलावता, सुरसुरा होते हुए रूपनगढ़ विहार किया था। तब का एक संस्मरण महावीर जी गंगवाल रूपनगढ़ वालों ने सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ-

     

    मनोविनोद से थकान दूर

     

    ऊँटड़ा से रलावता कच्चा रास्ता था, पगडंडियों का रास्ता था और कटीली झाड़ियों एवं कंकड़ भरा रास्ता था। आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का स्वास्थ ठीक नहीं होने से उस रास्ते पर थोड़ी दूर चलने के बाद हम युवाओं ने उन्हें अपने हाथों की डोली पर उठा कर ले गए थे। रास्ते में कई जगह काँटे लगे। मुनि विद्यासागर जी बार-बार पूछते अभी और कितना चलना है। तो हम लोग कहते बस थोड़ा ही रह गया है। तो वे कहते-चक्कर-चक्कर-चक्कर मत देओ, चक्कर आ जाएँगे और हँसने लगते।'' इस तरह मार्ग की थकान को मुनि विद्यासागर जी हँसकर के मन परिवर्तन करके दूर कर देते थे। लगभग १८ दिसम्बर १९६९ को रूपनगढ़ में आपश्री संघ की भव्य आगवानी हुई और लगभग १६-१७ दिन का प्रवास महोत्सव जैसा व्यतीत हुआ। इस सम्बन्ध में रूपनगढ़ के महावीर जी गंगवाल जी ने १५-०२-२०१८ को बताया

     

    रूपनगढ़ में प्रतिदिन महोत्सव

     

    जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज रूपनगढ़ पधारे तो उनके संघ में बा.ब्र. सर्वप्रिय मुनि श्री विद्यासागर जी एवं नव दीक्षित मुनि श्री विवेकसागर जी महाराज के समाचार से रूपनगढ़ में अति उत्साह के साथ आगवानी की तैयारी हुई और भव्य आगवानी कराई। प्रतिदिन पड़गाहन के समय नगर में महोत्सव जैसा माहौल हो जाता था। प्रतिदिन सुबह गुरु महाराज का प्रवचन होता था और दोपहर में मुनि श्री विवेकसागर जी एवं मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। बड़े मन्दिर में वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। यह वेदी कजौड़ीमल जी ने बनवाई थी। अंत में रथोत्सव हुआ जिसमें आस-पास के नगर गाँव से बहु संख्या में भक्त लोग उपस्थित हुए थे। एक दिन आचार्य महाराज का केशलोंच हुआ जिसमें सर सेठ भागचंद जी साहब को आमन्त्रित किया गया था। केशलोंच के दौरान उनका मार्मिक भाषण हुआ था। हे गुरुवर! रूपनगढ़ के प्रवास के दौरान का एक संस्मरण वहाँ के श्री कैलाशचंद जी लुहाड़िया ने १५-०२-२०१८ को सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ

     

    गुरुवर में चेहरा पढ़ने की कला

     

    “रूपनगढ़ प्रवास के दौरान एक दिन हमारे घर में गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज का आहार चल रहा था तब पड़ौसी किशनलाल जी अजमेरा आहार देने के लिए आए। तब गुरुवर ने उन्हें देखा और देखने के बाद जैसे ही वे आहार देने के लिए आगे आए तो गुरुवर ने सिर हिलाकर मना कर दिया। आहार के पश्चात् उन्होंने पूछा तब गुरुवर बोले- आप बीड़ी पीते हैं।' तब किशनलाल जी पश्चाताप करने लगे और तत्काल उठकर गए और अपनी दुकान पर जाकर बीड़ी का बंडल निकालकर तोड़कर फेंक दिया और वापिस आकर मन्दिर जी में महाराज श्री को कहा- ‘महाराज! आज से मैं बीड़ी का आजीवन त्याग करता हूँ।' तब गुरु महाराज बोले- अब तुम दान देने के पात्र हो' और महाराज से आशीर्वाद लेकर चले गए। दूसरे दिन उन्होंने आहार दिया। इस प्रकार गुरुदेव लोगों के चेहरे पढ़ लिया करते थे। लगभग ४ जनवरी १९७0 को गुरु महाराज ने विहार कर दिया। पूरी जैन समाज और नगर की अन्य समाज भी बहुत दूर तक विदाई देने गई थी। पूरे नगर में नव-युवा सुन्दर मुनि की चर्चा होती रही।" इस प्रकार वर्ष १९६९ का स्वर्णिम इतिहास आप गुरु-शिष्य की लगभग ८४०९६०० श्वासों की साधना से टाँका गया। जो हम शिष्यानुशिष्यों के लिए एक आदर्श बन मार्ग का पाथेय स्वरूप उपलब्ध हुआ।

    आपका शिष्यानुशिष्य

     

     

    भजन

    (तर्ज—तुमसे लागी लगन ले लो अपनी शरण पारस प्यारा)

     

    तुम हो तारण तरण, भव की पीड़ा हरण, मुनिवर प्यारा,

    तुमको शत शत है वन्दन हमारा।

    तुमरे दर्शन हैं पाये, जियरा आज लहाये, हरष अपारा,

    तुमको शत शत है वन्दन हमारा।

    ज्ञान सिन्धु हो गुणगण अगारा, तुमरी महिमा का पाया न पारा,

    ज्ञान मोती लुटा, मिथ्यातम को हटा, दुःख निवारा,

    तुमको शत शत है वन्दन हमारा ।।१।।

     

    विद्याधर आप हो विद्यासागर, युक्त पूरण विवेक तपोधर,

    ज्ञान दिनमान बन ज्योतिर्मय करते मन, हर अंधियारा,

    तुमको शत शत है वन्दन हमारा ।।२।।

     

    करते शरणागतों को पवित्तर सन्मति दाय हो सुख सागर,

    संभव है तुम शरन, शिव रमा का मिलन, करुणा गारा,

    तुमको शत शत है वन्दन हमारा ।।३।।

     

    तप की मूरत हो चरित विभूषण, करते ध्याता की आशा को पूरण,

    जग से जी भर गया, ‘प्रभु' कर दो दया, देय सहारा,

    तुमको शत शत है वन्दन हमारा ॥४॥

     

    (श्रद्धा सुमन-चतुर्थ पुष्य,

    रचयिता-प्रभुदयाल जैन,

    वीर नि. सं. २४९५)


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