पत्र क्रमांक-१३२
१४-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
परमोपकारी जीवहितैषी परमपूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी दादा गुरुवर के पावन चरणों को हृदय में विराजमान कर त्रिकाल नमस्कार करता हूँ। हे गुरुवर! जब आप मौजमाबाद से धमाना होते हुए चौरू पहुँचे और चौरू में पाँच दिन का प्रवास किया था। उस प्रवास के दौरान का एक संस्मरण वहाँ के श्री लक्ष्मण जी कासलीवाल ने बताया सो आपको बता रहा हूँ-
औषधदान के प्रेरक दादागुरु
‘‘चौरू में जैन समाज के लगभग ५० घर थे। शाम को पूरी समाज मन्दिरजी में जाती थी और गुरु महाराज की आरती करती थी। उसके बाद मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज बच्चों को बालबोध भाग पढ़ाया करते थे। सुबह गुरु महाराज का प्रवचन होता था। दोपहर में मुनि श्री विद्यासागर जी का प्रवचन होता था। उसी समय गुरु महाराज के आशीर्वाद से एवं उनके ही सान्निध्य में जैन समाज ने आयुर्वेदिक औषधालय स्थापित किया एवं प्रारम्भ किया था। जिसमें वैद्यराज द्वारकाप्रसाद जी को नियुक्त किया गया था। गुरु महाराज ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान करके कहा था- बिना कोई कारण के छोड़कर नहीं जाना' और समाज को कहा था-'वैद्य जी का पूरा-पूरा ध्यान रखना' तब से आज तक औषधालय चल रहा है।'
इस प्रकार हे गुरुवर! आपने भारतीय संस्कृति की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति से औषध दान करने के लिए आशीर्वाद प्रदान कर जैन समाज को पुण्यार्जन करने का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे करुणानिधान गुरुवर के आरोग्यधाम चरणों में कोटि-कोटि वंदन करते हुए।
आपका
शिष्यानुशिष्य