पत्र क्रमांक-१२४
०६-०२-२०१८ ज्ञानोदय तीर्थ, नारेली, अजमेर
प्रातःस्मरणीय माँ भारती के सुविज्ञ पुत्र जिनश्रुत उपासक ज्ञानमूर्ति परमपूज्य आचार्य गुरुवर श्री १०८ श्री ज्ञानसागर जी महामुनिराज के पावन चरणों में त्रिकाल वन्दन-अभिनन्दन-नमन करता हूँ... हे गुरुवर ! असीम ज्ञान पर्याय के द्वारा आप गुरु-शिष्य के असीम गुणों के बारे में कितना भी जानो वह प्यास बढ़ाता ही जाता है। फिर भी जितना मन्थन कर पा रहा हूँ। उससे आत्मगौरव एवं आत्माह्लाद की अनुभूति वृद्धिंगत होती ही जा रही है। वह एक दिन पूर्णता को प्राप्त होकर आपसे मिला देगी। इस विश्वास के साथ जितना तत्त्व खोजता जा रहा हूँ, वह आप तक प्रेषित करता जा रहा हूँ। उसमें यदि कोई भूल-चूक हो तो हे गुरुवर ! इस नादान शिष्य को क्षमा प्रदान कर गल्तियों को महसूस कराईयेगा और मेरी दृष्टि/लेखनी को अवश्य सुधराईयेगा। आपकी प्रसन्नता ही मेरी शक्ति है। हे गुरुवर! आपने श्रेष्ठतम शिक्षक के रूप में जीवन-विज्ञान एवं मोक्षमार्गी ज्ञान की समस्त कला आयामों से अपने लाड़ले शिष्य के व्यक्तित्व को संवारा है। उसे आत्मिक रूप से परिपूर्ण करने में अपना मौलिक योगदान दिया है और अपने से भी बेहतर बनाने का पुरुषार्थ कर आपने अपनी दिव्यता का परिचय दिया है।
आपकी ज्ञानदान की कला कुशलता ने मुनि श्री विद्यासागर जी की अन्र्तचेतना में सम्यग्ज्ञान को अनावृत किया है। फलस्वरूप सर्वज्ञ ज्ञान की सर्व विद्या में निष्णात असाधारण प्रतिभावान श्रेष्ठ शिक्षक की पीठ पर पीठासीन हैं। जो आपकी ही तरह शिष्यों में मोक्षमार्ग के ज्ञान-विज्ञान की परतों को उघाड़कर गाथाओं/श्लोकों/सूत्रों/टीकाओं के मर्म को स्थापित कर रहे हैं। ऐसे परमसत्य के अन्वेषक, शुद्ध सत्यार्थी शिष्य की आत्मशोध यात्रा में हे तात्! आपने पल-पल अपने अनुभवों का स्पर्श कराया है। उस यात्रा की खोजबीन में मुझे सन् १९७0 के अध्यायों के कुछ अंश हस्तगत हुए वे आपको क्रमशः प्रेषित करूंगा। उपाध्याय पर्यायी गुरु-शिष्य की लोकोत्तर शिक्षा को करबद्ध विनयांजली समर्पित करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य