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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पारिजात 3 - बंध तत्त्व

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    संसारी प्राणी की दशा अनादिकाल से दयनीय हुई है। यद्यपि यह संसारी प्राणी सुख का इच्छुक है और दुख से डरता भी है किन्तु सुख को प्राप्त नहीं कर पा रहा है और दुख का विछोह भी नहीं कर पा रहा है। इसमें एक कारण है। चूँकि सुख अनादिकाल से प्राप्त नहीं है, अतः अनादिकाल से दुख का अनुभव करने का स्वभाव सा बन गया है, वास्तव में यह विभाव है, लेकिन एकदम स्वभाव के समान हो गया है इसलिए निरन्तर दुख के ही कर्म आते जा रहे हैं।

    आचार्य कहते हैं कि यह प्राणी प्रत्येक समय उसी दुख की सामग्री को ही अपनाता जा रहा है और सतत् दुख का अनुभव कर रहा है। जिस प्रकार आप लोग दुकानदारी में बैलेन्स को मजबूत में लगे हुए हैं। यूँ कहना चाहिए प्रत्येक संसारी प्राणी एक उद्योगपति है और जैसे उद्योगपति कभी भी अपने को फेल नहीं होने देता, बैलेन्स मजबूत बनाये रखता है इसी प्रकार कर्मबन्ध के क्षेत्र में वह अपने कार्य को करने में सजग है और सुचारू रूप से कार्य को संभाल रहा है और सुख की प्राप्ति और बंध की व्युच्छिति चाहते हुए भी, स्वतंत्र होते हुए भी बंधन का कार्य करता जा रहा है। उसी बंध-तत्व के बारे में आज आपको कुछ सुनाना है, बताना है।


    बंध से डरना, यह भव्य का कार्य है। भव्य कहते हैं होनहार को। जैसे आपके परिवार में कई बच्चे होते हैं लेकिन होनहार एकाध को ही आप कहते हैं। इसी तरह मोक्षमार्ग को अपनाने वाले होनहार कुछ प्राणी अलग होते हैं जो बंध से डरते हैं। बंध से डरना इतना ही पर्याप्त नहीं है, बंध के कारणों से डरना यह भी परम आवश्यक है मुक्ति की प्राप्ति के लिए। दस-पंद्रह वर्ष पूर्व की बात है, एक पेड़ के नीचे बैठा था मैं, और देख रहा था उस आक के फूल को जो बहुत हल्का होता है और देखने में बहुत सुहावना होता है। रंग भी सफेद होता है उनका। एक बार यदि कोई बच्चा देख ले उसे, तो वह भी उस फूल के समान उड़कर उसको पकड़ने का प्रयास करता है।


    मैं देख रहा था, वह फूल बिना हवा के झोंके के भी उड़ता रहता है और ज्यादा हवा आ जाये तो संभाल नहीं पाता अपने आपको और नीचे आकर कोई गीली चीज मिल गयी कि बस वहीं चिपक जाता है। इसको कहते हैं संयोग। ज्यों ही वह चिपक गया, उसका स्वभाव जो उड़ने का था वह समाप्त-प्राय: हो गया। थोड़े ही समय में कब वह पंखुड़ियाँ टूट गयीं-कुछ पता नहीं। अब उसका अस्तित्व भी समझ पाना मुश्किल हो गया।


    एक बार आद्रता के साथ संयोग का यह परिणाम निकलता है तो बार-बार यह जीव रागद्वेष रूपी आद्रता का संयोग करता ही रहे तो क्या परिणाम होगा? आप ही सोची क्या आप उधर्वगमन कर सकोगे, जो कि आत्मा का स्वभाव है। जिस प्रकार वह आक का फूल आद्रता के संयोग में आ गया और अपने उड़ने के स्वभाव को खो बैठा, उसी प्रकार यह आत्मा प्रत्येक समय, रागद्वेष की संगत में अपने उध्र्वगमन स्वभाव को भूल गया है और संयोग की सामग्री हर समय खरीदता ही जा रहा है। आगे के लिए बीजारोपण करता जा रहा है।


    जिस प्रकार कृषक फसल काटता है और सर्वप्रथम उसको खाने से पहले बीज की व्यवस्था कर लेता है उसी प्रकार आप भी एक कुशल कृषक के समान, कर्मों का फल भोगते भी जा रहे हैं और आगे बोने के लिए बीज (नये कर्म) की व्यवस्था भी कर रहे हैं। प्रत्येक समय नये कर्मो के साथ संयोग हो रहा है और संयोग का अर्थ है - बंध। 'समीचीन रूपेण योग: इति संयोग:' या ऐसा कहो कि ‘समीचीन रूपेण आस्रवणाय इति संयोग:।” जहाँ संयोग होगा वहाँ आस्त्रव तो हो ही रहा है। और आस्त्रव का अर्थ है - योग। संयोग के उपरान्त यदि वहाँ आद्रता है, चिकनाहट है, रागद्वेष हैं तो बंध हो जाता है।


    ‘‘अन्योन्य प्रदेशानुप्रवेशात्मको बधः । कयोः। कर्मात्मनोः।।'' कर्म प्रदेशों का आत्मप्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो जाना ही बंध है। कर्म और आत्मा का ऐसा संयोग होने के उपरांत गठबंधन हो जाता है और वे एक दूसरे को स्थान दे देते हैं। दोनों के बीच बंधन हो जाता है, एकमेकता हो जाती है, यही बंध है।


    दो के बिना बंध नहीं होता, यह ध्यान रखना। एक हाथ से ताली जिस प्रकार नहीं बज सकती उसी प्रकार बंध तत्व भी एक के बीच में नहीं हो सकता। सांसारिक जो विषय सामग्री है वह और उसका जो भोक्ता है आत्मा, ये दोनों संयोग होते ही बंध जाते हैं। अब यह देखता है कि यह कैसा बंध हो जात है? कैसा सम्बन्ध हो जाता है ?


    एक उदाहरण के माध्यम से समझ लें आप। स्कूल में एक बच्चा और बच्ची पढ़ते हैं, बाल्यावस्था की बात है, निर्विकार भाव से पढ़ रहे हैं और भाई-बहन के समान रह रहे हैं। फिर जब पढ़ते-पढ़ते बड़े हो जाते हैं तो अपने-अपने बच्चों के ऊपर माँ पिता का ध्यान जाता है और विचार उत्पन्न होते हैं कि अब वे बड़े हो गये, इनकी शादी कर देनी चाहिए। अब देख लो- वह लड़की की माँ कह देती है अपने पति से। उसके साथ ही साथ लड़के की माँ है, वह कहती है, लड़का बड़ा हो गया, बहू नहीं लाओगे क्या ?


    दोनों बच्चे अभी तो बचपन में खेलते थे, कूदते थे, साथ-साथ उठते-बैठते थे तो माँ-पिता ने सोचा प्रेम-भाव भी परस्पर है। दोनों श्रेष्ठ भी हैं इन्हीं का सम्बन्ध जोड़ दिया जाये तो बहुत अच्छा है और दोनों का सम्बन्ध/विवाह लग्न हो जाता है। लग्न का अर्थ एक दूसरे से मिल जाना, संलग्न हो जाना। 'समीचीन रूपेण लग्न: संलग्न' दोनों समीचीन रूप से एक विचार में एक आचार में बंध गये। बंध गये का अर्थ कोई रस्सी आदि से बाँध दिया है ऐसा नहीं है। सम्बन्ध हो गया, पाणिग्रहण हो गया, लेकिन दूरी दिखती है। दूरी होते हुए भी सम्बन्ध हो गया।


    पहले जो साथ-साथ खेलते कूदते थे, पढ़ते थे अब घूंघट आ गया उस बच्ची के। यह घूंघट ही उस सम्बन्ध का प्रतीक हो गया। दोनों अलग-अलग हैं। प्रत्येक कार्य अलग-अलग करते हुए भी जुड़ गये हैं और जीवन में परिवर्तन आ गया है। यह वैवाहिक सम्बन्ध भी अपने आप में एक थ्योरी (सिद्धान्त) रखता है। जीव के आचार-विचार एकमेक हो जाते हैं अगर आचार एक नहीं रहेगा, विचार एक से नहीं रहेंगे तो विघटन आ जायेगा, वह सम्बन्ध विघटित हो जायेगा।


    इससे यह फलित हुआ कि सम्बन्ध दो के बिना नहीं चलता और दोनों में एकमेकता भी होनी चाहिए।' अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेश' का अर्थ भी यह है कि एक दूसरे में घुल मिल जाना। जैसे नट और बोल्ट है कि एक को खींची तो दूसरा भी साथ में खिंचकर चला आता है। यह है बंध की प्रक्रिया। जिस व्यक्ति का विवाह सम्बन्ध संस्कार के साथ हुआ होता है वह जीवत्व के प्रति वास्तविक वात्सल्य का प्रतीक है। जिनको संन्यास आश्रम में प्रविष्ट होने की अभी सामथ्र्य नहीं है वे कुछ दिन गृहस्थ आश्रम में रहकर देख लें लेकिन उसके उपरान्त उसको भी पार करके निकल जायें तभी सार्थकता होगी। उन सांसारिक वैवाहिक बंधनों के समान ही धार्मिक क्षेत्र में बंध-तत्व है।


    'इसका कोई न कर्ता हर्ता अमिट अनादि है, जीव अरु पुद्गल नाचै। यामें कर्म उपाधि है।' इस संसार को बनाने वाला या नष्ट करने वाला कोई नहीं है। यह तो अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहेगा। जीव अपने परिणामों से पुद्गल कर्म के संयोग से इस लोक में भ्रमण करता रहता है। यह कर्मबन्ध ऐसा है कि अब एक निश्चित काल के लिए न तो पुद्गल पृथक् हो सकता है और न ही आत्मा पृथक् हो सकती है। दोनों के बीच एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाता है कि दोनों छूट नहीं सकते किसी अलौकिक रसायन के बिना।


    आप पूछ सकते हैं कि महाराज! यदि आत्मा मूर्त कर्म के साथ सम्बन्ध करता है तो क्या वह भी मूर्त है। क्योंकि अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध तो हो नहीं सकता। हाँ भइया, वर्तमान में संसारी जीव की आत्मा मूर्त है लेकिन वह पुद्गल के समान मूर्त नहीं है स्पर्श, रस, गंध और रूप वाला वह तो चैतन्य है। जड़ तत्व की संगत में आने से मूर्त बन गया है। मूर्त हुए बिना मूर्त के साथ सम्बन्ध होगा ही नहीं। लौकिक दृष्टि से भी जैनाचार्यों ने कहा है कि देवों के साथ मनुष्यों का व्यावहारिक काम सम्बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि देव वैक्रियिक शरीर वाले हैं और मनुष्य का शरीर औदारिक है।


    इस मूर्त का मूर्त से सम्बन्ध समझाने के लिए कुछ लोग आकर कह देते हैं कि आत्मा तो अलग ही रह जाता है और कर्म, कर्म के साथ बंध जाता है किन्तु ऐसा नहीं है। विचार करें कि ‘‘कर्मः कर्मणोः अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंधः' अथवा 'आत्माननोः अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंध:।" ऐसा तो जैनाचार्यों ने लिखा नहीं है। इसलिए यह प्रश्न तो ज्यों का त्यों बना रहता है कि अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध कैसे होता है? इसी का समाधान देते हुए आचार्यों ने कहा है कि संसारी जीव के प्रति ऐसा एकान्त नहीं कि वह अमूर्त ही है।

    'मूतोंपिस्यात् संसारापेक्षा' अर्थात् संसारी जीव कथचित् मूर्त होता है। संसार में इसका स्वभाव बिगड़ गया है। इसलिए यह मूर्त कर्म के साथ अनादिकाल से मूर्तपने का अनुभव कर रहा है किन्तु वह चैतन्यमूर्ति है। यदि अपनी आत्मा को वर्तमान में कथंचित् मूर्त मानेंगे तभी अमूर्त बनने का प्रयास भी होगा, अन्यथा नहीं होगा। साथ ही साथ वर्तमान में आत्मा मूर्त है लेकिन इसमें अमूर्तपना आ सकता है, इस प्रकार का जब विश्वास करेंगे आप, तभी बंध के यथार्थ श्रद्धानी कहलायेंगे, अन्यथा नहीं।


    आत्मा में जो मूर्तपना आया है वह पुनः वापिस अमूर्त में ढल सकता है क्योंकि वह संयोगजन्य है, स्वभावजन्य नहीं। इस प्रकार एक अलग ही क्वालिटी का मूर्तपना इस जीव में आया है। इसे उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। आप लोगों को यह विदित होगा कि बाजार में कई प्रकार की भस्में आती हैं, लोह भस्म है, स्वर्ण भस्म है, मोती भस्म है। ऐसी ही एक पारद भस्म (पारे की भस्म) आती है। पारे को जलाया जाता है बहुत घंटों तक। तब वह पारा भस्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है और औषधि इत्यादि के रूप में काम आता है। यदि पारा खा लोगे तो वह नुकसान कर जायेगा, शरीर में नहीं टिकेगा, शरीर सारा का सारा विकृत हो जायेगा। पारे को सामान्यतया कोई पकड़ भी नहीं सकता क्योंकि वह शुद्ध तत्व है। विशुद्ध-तत्व हाथ से पकड़ में नहीं आता जैसे सिद्ध परमेष्ठी को आप पकड़ नहीं सकते। अहन्त परमेष्ठी संसार दशा में स्थित होने से अभी पकड़ में आते हैं क्योंकि मूर्त हैं।


    इसका अर्थ यह हो गया कि वह पारा अपनी शुद्ध दशा में मूर्त होकर भी अभी पकड़ में नहीं आ रहा है किन्तु घंटों जलते रहने के बाद वह जब भस्म के रूप परिणत हो जाता है तो पकड़ में आने लगता है और वैद्य लोग उसे औषधि के रूप में प्रयोग में लाते हैं। लेकिन एक बात और ध्यान में रखना कि इस पारे की भस्म की यह विशेषता है कि इसे खा लेने के उपरान्त यदि खटाई का प्रयोग हो गया पुन: वह अपनी सहज दशा में आ जायेगा और शरीर को विकृत कर देगा।


    ठीक इसी प्रकार यह आत्मा रागद्वेष रूपी अग्नि के माध्यम से यद्यपि पारे की भस्म के समान हो गया है, पकड़ में आने लगा है तथापि यदि चाहे तो वह अपनी शुद्ध अवस्था में भी पहुँच सकता है। वर्तमान में यदि हम आत्मा को मूर्त नहीं मानेंगे तो बंध-तत्व की अवस्था नहीं हो सकेगी और 'बंधापेक्ष: मोक्ष: "- बंध की अपेक्षा से मुक्ति है तो मोक्ष-तत्व भी सिद्ध नहीं हो पायेगा और मोक्ष तत्व के अभाव में संसार भी नहीं रहेगा, अन्य द्रव्य भी नहीं रहेंगे जो कि संभव नहीं है। अत: वर्तमान में अपने आत्मा को मूर्त मानना होगा और उसे अमूर्त बनाने के लिए नि:शंक होकर मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना होगा।

    कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि 'अबद्ध: अस्पृष्ट: आत्मा', यह आत्मा अबद्ध है, अस्पृष्ट है लेकिन संसार दशा में विवक्षा भेद से कथचित् बद्ध भी है और स्पृष्ट भी है। जो जीव भावना भाता है वह उस भावना के माध्यम से अबद्ध/शुद्ध बन सकता है यदि हम बद्ध ही नहीं हैऐसा एकान्त से मान लेंगे तो फिर भावनाओं की क्या आवश्यकता है? इसीलिए आचार्यों ने कहा कि अबद्ध बनने के लिए, ‘मैं अबद्ध हूँ'- ऐसी भावना यदि जीव भायेगा तो वह अबद्ध बनने की ओर अग्रसर होगा, अन्यथा नहीं।


    एक सूत्र आता है मोक्षशास्त्र में "विग्रहगतौ कर्मयोग:" एक गति से जीव दूसरी गति तक शरीर रचना के लिए जाता है तो विग्रह गति होती है और उस समय मात्र कर्म की ही सत्ता चलती है। वहाँ मात्र कार्मण काययोग रहता है। अब यदि कोई ऐसा मानें कि कर्म तो मात्र कर्म से बंधे हैं, आत्मा तो अलग ही रहता है तो इस स्थिति में कर्म, कर्म को ही खींचते चले जाना चाहिए और आत्मा को वहीं पर रह जाना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। उस आत्मा को भी कर्म के साथ नरक आदि गतियों में जाना पड़ता है और अधिकतम् तीन समय तक अनाहारक भी रहना पड़ता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्म के साथ आत्मा का गठबंधन हुआ है, एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।


    अब उस आत्मा को अमूर्त कैसे बनाया जाये, वह प्रश्न उठेगा ही। तो कोई बात नहीं, हमारे पास आ जाओ इधर। वीतरागता के पास आ जाओ। वीतरागता रूपी खटाई का संयोग प्राप्त होते ही यह आत्मरूपी पारद भस्म अपने आप ही सहज दशा में आ जायेगी। कर्म वर्गणाएँ पृथक् हो जायेंगी।


    चार प्रकार के बंध होते हैं अर्थात् जो आगत कर्म है इनमें चार प्रकार के भेद पड़ते हैं। आत्मा के योग के माध्यम से प्रकृति और प्रदेश बंध होता है तथा कषाय के माध्यम से स्थिति और अनुभाग बंध होता है। कितने कर्म आ रहे हैं कार्मण वर्गणाओं के रूप में परिणत होकर, इसको कहते हैं प्रदेश बंध और कौन-सा कर्म क्या काम करेगा अर्थात् उसका नेचर (स्वभाव) ही प्रकृति बंध है। इसके उपरान्त कषाय के द्वारा काल मर्यादा और फलदान शक्ति को लेकर क्रमश: स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं।


    सर्वप्रथम आती है अनन्तानुबन्धी कषाय। जैसे किसी मेहमान को निमंत्रण दे दें आप, और जब वह आ जाये तो कह देते हैं कि यहीं रहो भइया, तुम्हें यहाँ से कोई निकालने वाला नहीं है। आराम से रहो और खाओ पिओ बस। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय जब तीव्र होती है तो मिथ्यात्व को सत्तर कोडा कोडी सागर तक के लिए आत्मा के साथ एक प्रकार का ऐशी आराम सा मिल जाता है। इतनी अधिक स्थिति वाला कर्म-बंध होता है इस कषाय के द्वारा। वह सत्तर कोड़ा कोडी सागर तक के लिए मिथ्यात्व को निमंत्रण देने वाला, अनन्तानुबन्धी कषाय वाला मुख्य रूप से मनुष्य गति का जीव है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये अत्यधिक मनुष्य ही कर सकता है। और वह भी भोगभूमि का मनुष्य नहीं बल्कि कर्मभूमि का मनुष्य।


    इस तरह जो स्थिति और अनुभाग बंध है, इनके द्वारा कर्म एक निश्चित समय के लिए बंध जाते हैं और उसके उपरान्त अपना फल देते हैं। जो भी बंध हो रहा है वह जीव की एक ऐसी गलती है जिसके माध्यम से कर्म आकर चिपक जाते हैं। यदि कर्म बांधना नहीं है बल्कि मुक्त होना है तो उसके लिए एक ही रास्ता है, एक ही साधन है कि हम वीतरागता रूपी खटाई का प्रयोग करें, अनुपान करें और आत्मा जो मूर्त बना है उसे अमूर्त बना लें।


    प्रसंगवश वह विषय यहाँ पर ले रहा हूँ कि अनन्तानुबन्धी से बचने के लिए क्या करें? इससे बचने के उत्तम उपाय यही है कि आप जिस किसी भी क्षेत्र में कार्य करते हैं वहाँ अपनी नीति और न्याय को न भूलें। भले ही वह वैश्य हो, क्षत्रिय हो, ब्राह्मण हो या नौकर चाकर, सेठसाहूकार जो भी हों, अपनी-अपनी नीति न्याय को न भूलें। आचार्यों ने जो चारित्र का पथ प्रशस्त किया है उस पर श्रद्धा सहित चलते रहने का तात्पर्य यही है कि हम कम से कम पापों से, कषायों से अपने को बचा सकें। जो मोक्षमार्ग पर आना चाहते हैं, कर्म बंध से बचना चाहते हैं उनके लिए न्याय-नीति पूर्वक स्वयं को संभालने की बड़ी आवश्यकता है। सदाचार पालन करने की बड़ी आवश्यकता है।


    कर्म सिद्धान्त पर जिसका विश्वास है वह व्यक्ति येन केन प्रकारेण कोई भी कार्य नहीं करेगा। वह कार्य करने से पूर्व विचार अवश्य करेगा। मेरे इस कार्य को करने से अन्य किसी को कोई आघात तो नहीं पहुँच रहा है- ऐसा पूर्वापर वह अवश्य सोचेगा। कुल परम्परा से जो चारित्र आया है उसको हम पालन करते रहते हैं और इसे कहते हैं चारित्र-आर्य। लेकिन हम इस तरह चारित्र-आर्य होकर भी, भगवान महावीर के सच्चे उपासक होकर भी क्या इतने नियामक नहीं बन सकते हैं कि अपना प्रत्येक कार्य नीति और न्याय के आधार पर ही करेंगे। मात्र प्रवचन सुन करके, तीर्थयात्रा करके या दान पूजा इत्यादि करके क्या आप महावीर भगवान् को खुश करना चाहते हैं? इतने मात्र से आप कुछ नहीं कर सकेंगे भइया।


    ‘एक व्यक्ति ने आकर कहा कि महाराज! मैंने त्याग कर दिया है आलू, तो मैंने भी कहा भइया! बिल्कुल आप ही दयालु, फिर भी चोरी करना है चालू, बकरी के सामने बन बैठे हो भालू।” हमारे आचार्यों की त्याग के प्रति बहुत सूक्ष्म दृष्टि रही है। किस प्रकार का त्याग करना और कैसे करना, यह जानना अनिवार्य है। आलू का त्याग करने मात्र से कुछ नहीं होने वाला। सर्वप्रथम जो भी व्यक्ति महावीर भगवान् के बताये हुए मार्ग पर आरूढ़ होना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले जीवों की रक्षा करनी चाहिए।


    प्रत्येक व्यक्ति आत्मा के उत्थान की ओर अग्रसर हो सकता है इसलिए सर्वप्रथम तो प्रत्येक प्राणी के प्रति दया भाव होना चाहिए। संकल्पी हिंसा का त्याग पहले आवश्यक है और उसमें भी मनुष्य की हिंसा से बचना- ऐसा कहा गया है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के पास यह क्षमता है कि वह मुनि बन सकता है और इस मुनि अवस्था में, उस पवित्र आत्मा के माध्यम से, उसके दर्शन मात्र से असंख्यात जीवों के अनन्तकालीन पाप कट सकते हैं। इतनी क्षमता है उस मुनिमुद्रा में, वीतराग मुद्रा में। वह मुनिमुद्रा बाह्य में ही नहीं, अन्तरंग में बैठे अमूर्त आत्म तत्व के बारे में भी बिना बोले ही अपनी वीतरागता के माध्यम से तिर्यचों तक को उपदेश देती है।


    इसलिये आज यह संकल्प कर लेना चाहिए कि अपने जीवन में मात्र अपनी विषयवासनाओं की पूर्ति के लिए किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य का घात नहीं करेंगे, उस पर अपने बल का प्रयोग नहीं करेंगे। अभयदान की ऐसी क्षमता सभी के पास होनी चाहिए। जो अपने क्षणिक सुखों की तिलांजलि देकर अन्याय छोड़ने और दूसरे के जीवन को बचाने के लिए तैयार है वही सच्चा महावीर भगवान् का उपासक है।


    वही दान, सच्चा दान कहलाता है जो नीति-न्याय से कमाने के उपरान्त कुछ बच जाने पर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि दूसरे का गला दबाकर, उससे हड़पकर दान कर देना। गत वर्ष की बात है कुण्डलपुर जी में लोग बोलियाँ बोल रहे थे। एक ने पचास रुपये कहा तो दूसरे ने पचपन रुपये कह दिया। पचास रुपये बोलने वाला अब कह देता है कि पचपन रुपये वाले को बोली है, वही देगा। यह क्या है? भगवान् के सामने बैठकर ऐसा कह देते हैं आप और अपने को दानी घोषित करना चाहते हैं।


    यह मात्र लोभ कषाय के वशीभूत होकर चोरी, जारी, अनाचार, अत्याचार करके कमाये हुए पैसे को यहीं मंदिर में आकर मान-कषाय को पुष्ट करने के लिए दान दे देना, यह दान नहीं है। अन्याय करने के उपरान्त यह नहीं सोचना चाहिए कि भगवान् कहाँ देख रहे हैं। भगवान् को सर्वव्यापी और विश्व लोचन कहा है। वह केवलज्ञान ऐसा है जो सभी को एक साथ देख लेता है। इसलिए जो व्यापारी हैं वे संकल्प करें कि उनकी दुकान पर जो भी व्यक्ति आता है उसे नीति-न्याय पूर्वक हम सामग्री देंगे, वस्तु देंगे। इसी प्रकार जो और दूसरे कार्य करते हैं वे भी अपना कार्य न्यायपूर्वक करें।


    "मरहम पट्टी बाँधकर, कर व्रण का उपचार, यदि ऐसा न कर सके, डंडा तो मत मार।" कम से कम किसी के घावों के ऊपर मरहम पट्टी नहीं लगाना चाहते या लगाने की शक्ति नहीं है तो उसे डंडा तो मत मारो। कम से कम आँख खोलकर तो चलो, किसी के ऊपर पैर रखकर उसका घात तो मत करो, वह भी तो हमारे समान जीव ही है। जो व्यक्ति प्रत्येक जीव-तत्व के प्रति वात्सल्य नहीं रखता, वह भगवान् के प्रति वात्सल्य रखता होगा- यह संभव ही नहीं है। जो जीव हैं उनके ऊपर वही वात्सल्य, वही प्रेम, वही अनुकम्पा होनी चाहिए जो भगवान् के प्रति आपकी होती है, यही जीव-तत्व का सच्चा श्रद्धान है।


    एक आस्तिक्य गुण कहा गया है जो सम्यग्दृष्टि के पास होता है। आस्तिक्य गुण का अर्थ यह नहीं है कि मात्र अपने अस्तित्व को ही स्वीकार करना। दुनिया में जितने पदार्थ हैं उसको यथावत उसी रूप में स्वीकार करना यह आस्तिक्य गुण है। जो दूसरों के भी जीवत्व को देखता है उसे ही आचार्यों ने आस्तिक्य कहा है अन्यथा वह नास्तिक है। जो दूसरे में जीवत्व देखेगा वह कभी भी विषयों का लोलुपी बनकर उनके घात का भाव नहीं लायेगा। गृहस्थाश्रम में कम से कम यदि किसी को कुछ दे नहीं सकते तो उससे हड़पने का भाव भी नहीं लाना चाहिए।


    भाई! राम बनो, रावण मत बनो। राम के पास भी पत्नी थी और रावण के पास तो राम से भी ज्यादा थीं क्योंकि वह प्रतिनारायण था। लेकिन भूमिगोचरी राम की पत्नी सीता पर उसने दृष्टिपात किया और उसका हरण भी किया। इतना ही नहीं, राम-लक्ष्मण दोनों को मारने का संकल्प भी किया, क्योंकि जब तक राम रहेंगे, सीता रावण की नहीं हो सकेगी। सीता यथापि राम के लिए भोग्य थीं और रावण की दृष्टि में भी भोग्य थीं लेकिन रावण की दूषित दृष्टि में सीता मात्र भोग्या थीं और कुछ नहीं, जीवत्व की ओर रावण का ध्यान नहीं था। जीवत्व की ओर ध्यान तो राम ने दिया। राम के लिए सीता मात्र पत्नी या भोग्य नहीं थी वरन् अपने मार्ग पर चलते हुए राम ने उन्हें सहगामी भी माना। इसलिए उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी राम ने अपने ऊपर माना।


    राम ने स्पष्ट कह दिया कि मैं रावण से सीता को वापिस लाऊँगा, भले ही लड़ना पड़े। यह संकल्पी हिंसा नहीं थी, मात्र विरोधी हिंसा थी। उन्होंने कहा कि मैं रावण का विरोध करूंगा अन्यथा जैसे सीता चली गयीं, वैसे ही राज्य की अन्य रानियाँ चली जायेंगी, सभी के प्राण संकट में पड़ जायेंगे। वे सीता को वापिस लाये और अग्नि-परीक्षा भी हुई। उसके उपरान्त सीता जी ने कह दिया कि मैं अब आर्यिका माता बनूँगी और यह श्रीराम की विशेषता थी कि जिस समय सीता दीक्षा ले लेती हैं, आर्यिका बन जाती हैं उसी समय राम कहते हैं कि वंदामी माताजी! धन्य है आपका जीवन। मैं भी शीघ्र ही आ रहा हूँ आपके पथ पर।


    राम ने सीता जी को दीक्षा लेते ही वंदामी किया और मातेश्वरी कहा। यह है सम्यग्दृष्टि राम की दृष्टि और मिथ्यादृष्टि रावण की दृष्टि देखो कि मरते वक्त तक वह यही कहता रहा कि राम मैं तुम्हें मारूंगा और सीता को लूगा। यही कारण है कि राम की पूजा होती है, रावण की नहीं। अत: न्याय - नीति के अनुसार अपना व्यवहार रखना चाहिए। आज कौन-सा ऐसा व्यक्ति है जो सरकारी क्षेत्र में नौकरी करता हो और सरकार को यह विश्वास दिलाता है कि मैं कभी रिश्वत नहीं लूँगा। कोई भी सरकार रहे, वह कभी भी आपको भूखा नहीं मारना चाहती। आपकी संतान नाबालिग रह जाये तो भी आपके मरने के बाद उसका प्रबंध कर देती है। हमें भी सरकार के प्रति अपना कर्तव्य निभाना चाहिए और नियम के विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए।


    कई लोग आकर कहते हैं कि हम नौकरी करते हैं। बहुत बंधकर के रहना पड़ता है, छुट्टी नहीं मिलती, धर्म ध्यान नहीं कर पाते और अक्सर देखने में यही आता है कि जब कोई सांसारिक वैवाहिक कार्य आ जाता है तो डॉक्टर से मेडिकल सर्टीफिकेट लेकर लगा देते हैं और छुट्टी ले लेते हैं। यह तो दुगना अन्याय है। एक डॉक्टर जिसने एम.बी.बी.एस.किया और वह निरोगी व्यक्ति को रोगी कहकर सर्टीफिकेट देता है और उसके माध्यम से रिश्वत खाता है, साथ ही वह व्यक्ति भी जो सरकार को धोखा देकर अन्याय करता है तब संयोगवश ऐसे व्यक्ति को रोग न होते हुए भी रोग आ जाते हैं। यह साइकोलॉजीकल इफेक्ट होता है और उसका सारा का सारा पैसा दवा इत्यादि में ही समाप्त हो जाता है। मन में भय बना रहता है कि कहीं झूठ मालूम न पड़ जाये और नौकरी न चली जाये।


    भइया! सत्य को बेचना नहीं चाहिए थोड़े से पैसों के लिए। सत्य तो सत्य है, आत्मा का एक गुण है और आत्मा के संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक चले जाते हैं। सत्य को छोड़कर मात्र इन्द्रिय सुखों के लिए असत्य का आश्रय नहीं लेना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि धर्म का पालन करना चाहिए जिनके माध्यम से आत्म-बल जागृत होता है।


    यह कषायों को समाप्त करने की बात है। यह सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए भूमिका की बात है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय के घात होने पर ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति संभव है, अन्यथा नहीं। सम्यग्दर्शन को मात्र चर्चा का विषय नहीं मानना चाहिए, कुछ अर्चा भी करनी चाहिए और अर्चा वही है कि हम दर्शन-आर्य बन जायें और सच्चे देवगुरु-शास्त्र के प्रति सच्चा श्रद्धान रखें और आगे बढ़कर उस अनन्तानुबन्धी कषाय को अपने मार्ग से हटा दें मिथ्यात्व को भगा दें, तभी सार्थकता होगी इस जीवन की।


    अंत में आपसे इतना ही कहना चाहूँगा कि आत्मा वर्तमान संसारी दशा में अमूर्त नहीं है, वीतरागता के माध्यम से यह अमूर्त बन सकती है। कर्म का सम्बन्ध आत्मा से अनादिकालीन है और मात्र कर्म, कर्म से नहीं बंधा है बल्कि कर्म और आत्मा का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हुआ है। उसका विघटन या तो सविपाक निर्जरा के माध्यम से हो सकता है अथवा अविपाक निर्जरा के माध्यम से, किन्तु सविपाक निर्जरा के द्वारा जो विघटन होगा उसमें आगे के लिए संतति अर्थात् नये कर्म की प्राप्ति होगी, जैसे भोगभूमि का जोड़ा। भोगभूमि के जोड़े ऐसे हैं कि जीवन के अन्तिम समय तक भोग भोगते रहते हैं किन्तु संतान नहीं होती लेकिन जब आयु समाप्त होने लगती है तो संतान छोड़कर ही जाते हैं। ऐसे ही सविपाक निर्जरा से एक कर्मबन्ध तो समाप्त हो जाता है परन्तु आगे के लिए नया कर्मबन्ध भी होता रहता हैं। इसलिए कर्मबन्ध की परम्परा को समाप्त करने के लिए अविपाक निर्जरा का आलंबन लेना चाहिए। 'तपसा निर्जरा च'- तप के द्वारा संवर भी होता है और तप के द्वारा अविपाक निर्जरा भी होती है। श्रावक को अपनी भूमिका के अनुसार न्यायनीति पूर्वक चलना चाहिए। सम्यग्दर्शन की भूमिका भी वही है कि हम कषायों को कम करें और सत्य का अनुसरण करने का प्रयास करें। बंध-तत्व को समझने और मुक्त होने का यही उपाय है।
     


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    वही दान, सच्चा दान कहलाता है जो नीति-न्याय से कमाने के उपरान्त कुछ बच जाने पर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि दूसरे का गला दबाकर, उससे हड़पकर दान कर देना।

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