दूध पानी को मिला सकता है विजातीय होने पर भी, पर हम तो सजातीय को भी नहीं मिला पाते। सोचो समय रहते एक डोरी में बंध जाओ और फिर देखो, कैसा अलौकिक आनंद आता है।
प्रवचन वात्सल्य का अर्थ है-साधर्मियों के प्रति करुणाभाव। 'वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्' जैसे गाय बछड़े पर स्नेह करती है इसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचन वात्सल्य है। वात्सल्य एक स्वाभाविक भाव है। साधर्मी को देखकर उल्लास की बाढ़ आना ही चाहिए। प्रवचन वात्सल्य का उतना ही अधिक महत्व है जितना प्रथम दर्शनविशुद्धि भावना का। साधर्मी में वात्सल्य रखने वाला अवश्य ही तीर्थकर प्रकृति का बंध करेगा। आचार्यों ने कहा है कि साथ वाले के प्रति औचित्यपूर्ण व्यवहार ही होना चाहिए। किन्तु आज देखने में आता है कि सजातीय भाइयों में प्रेम ओझल-सा हो गया है। हम अपने से ऊँचे को और नीचे वाले को स्थान दे सकते हैं किन्तु समान लोगों को सहन नहीं कर सकते। रूस और अमेरिका में आज संघर्ष क्यों है? केवल इसलिये कि वे समान जाति के हैं। आज विश्व में विप्लव का प्रमुख कारण जातियों की पारस्परिक लड़ाई ही है। हम हाथी के साथ-साथ चल सकते हैं, साथी के साथ नहीं।
एक बार दुर्योधन को गंधर्वो ने बन्दी बना लिया। धृतराष्ट्र ने निवेदन किया धर्मराज से। धर्मराज ने कह दिया भीम से। भइया जाओ दुर्योधन को छुड़ा लाओ। दुर्योधन का नाम सुनकर भीमराज क्रोध से भर उठे बोले- उस पापी की मुक्ति की बात करते हो, जिसके कारण हमें वनवास की यातनायें सहनी पड़ीं। उस अन्यायी, नारकी को छुडाने की बात करते हो, जिसने भरी सभा में द्रौपदी को निर्वसन करने का दुस्साहस किया था। धर्मराज, अगर आप किसी और की मुक्ति की बात करते, तो अनुचित न होता किन्तु दुर्योधन को मुक्त कराने मैं नहीं जाऊँगा। धर्मराज के हृदय का करुणा भाव आँखों से बहते देखकर, अर्जुन ने उनके वात्सल्य भाव को समझा और गाण्डीव धनुष द्वारा गंधर्वो से युद्ध किया तथा दुर्योधन को छुड़ा लाये। यह है वात्सल्य की भावना। तब धर्मराज ने समझाया- हम परस्पर सौ कौरव और पाँच पाण्डव हैं, लड़-भिड़ सकते हैं किन्तु बाहर वालों के लिये हम सदा एक सौ पाँच भाई ही हैं। हमारे भीतर एकता की ऐसी भावना होनी चाहिए।
भगवान महावीर की पूजा करने वालों में मतभेद हो जाये, विचारों में भिन्नता आ जाये किन्तु मन-भेद नहीं होना चाहिए। पानी की धारा जब प्रवाहित होती है तो निर्बाध ही चली जाती है किन्तु किसी घनीभूत पत्थर के मार्ग में आ जाने पर वह धारा दो भागों में विभक्त हो जायेगी। वात्सल्य-विहीन व्यक्ति भी पत्थर की तरह होते हैं। वे समाज को दो धाराओं में विभक्त कर देते हैं।
जाति-विरोध वास्तव में बहुत बुरी चीज है। हम महावीर भगवान् को तो मानें, उनकी पूजा करें, भक्ति करें और अपने साधर्मी भाइयों से वैमनस्य रखें, तो समझो हमारी पूजा व्यर्थ है। समवसरण में भी हमारी यही दृष्टि रही, स्वर्गों में भी यही रही। साधर्मी के वैभव को हम देख नहीं पाते, ईष्र्या उत्पन्न हो जाती है। विधर्मी चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो हमें कोई चिन्ता नहीं होती। किन्तु सजातीय बंधु की जरा सी उन्नति भी हमारी ईष्र्या का कारण बन जाती है। उसे हम सहन नहीं कर पाते। यहीं से दुखों की जड़ प्रारम्भ होती है। ये वैमनस्य ही कारण हैं हमारी व्यथाओं का।
भाई! समझो तो सही। विचार भेद तो केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व छद्मस्थ अवस्था में रहेगा ही किन्तु मन-भेद तो नहीं रखना चाहिए। केवलज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त विचारों की भिन्नता भी समाप्त हो जाती है। लय में लय का मिलना भी एक नय सिद्धान्त है। सभी जीवों को एकसूत्र में बाँधने के लिये जैनधर्म में संग्रहनय का उल्लेख किया है। सभी जीव शुद्धनय की अपेक्षा से शुद्ध हैं। हमें भी ऐसे ही एक सूत्र में बंधना चाहिए, तभी श्रेयस्कर है।
ध्यान रखो, यदि हमारे अन्दर वैमनस्य की रेखा है तो वह उभरकर ऊपर में करुणा की लहरें पैदा करेगी। जैसे किसी तालाब में एक पत्थर फेंका जाये तो तरंगें एक तट से दूसरे तट तक फैल जाती है, उसी प्रकार यह वैमनस्य भी फैलता ही जाता है। धर्मराज के वात्सल्य को देखकर, सुनकर भीम बड़े लज्जित होकर नतमस्तक हो गये थे। हमें भी इससे शिक्षा लेनी चाहिए।
आज हम वात्सल्यहीन होते जा रहे हैं। जो हमारी उन्नति में बाधक बन रहा है। साधर्मियों से हमारी लड़ाई और विधर्मियों से प्रेम हमारे पतन का कारण है। आज मनुष्य की चाल और श्वान की चाल एक जैसी हो गई है। एक लड़के ने एक कुत्ता पाल लिया। वह बालक उस कुत्ते से बड़ा प्यार करता क्योंकि कुत्ता की चाल आप जानते ही हैं, बहुत स्वामीभक्त होता है। वह बालक एक दिन माँ से बोला- माँ दुनियाँ में शेरसिंह, हाथीसिंह, अश्वसेन आदि नाम चलते हैं, किन्तु श्वानसेन किसी का नाम नहीं। ऐसा क्यों?' तब माँ बोली- बेटा! तू अभी जानता नहीं। अगर अभी सामने से कोई दूसरा कुत्ता आ जाये तो देखना तुम्हारा ये कुत्ता तुम्हारी गोद से उतरकर उससे लड़ने पहुँच जायेगा, यह जाति-द्रोही है, यही इसका सबसे बड़ा अवगुण है। इसलिये कोई माता-पिता अपने बेटे का नाम श्वानसिंह नहीं रखते। इसी तरह हमारी रक्षा साधर्मी के द्वारा ही होगी। विधर्मी कभी हमारी रक्षा के लिये नहीं आयेगा।
एक बार 'आक' का दूध गाय और भैंस के दूध से बोला- भइया मुझे भी अपने साथ मिला लो। मेरा भी विस्तार हो जायेगा। ‘ना भइया, मैं तुम्हें थोड़ा सा अपने मैं मिला लें तो मेरा स्वभाव भी बदल जायेगा, मैं फट जाऊँगा और कोई मुझे भी नहीं पियेगा। तब कैसे मैं पालन कर पाऊँगा भूखे प्राणियों का-गौ का दुग्ध बोला। तब आक का दूध कहता है- भइया, पानी को मिला लेते हो, जो कि विजातीय है। पानी विजातीय होकर भी अलग स्वभाव का है, मिलनसार है पानी का तो यह हाल है- जैसा मिले संग, वैसा उसका रंग। विजातीय होकर भी अपने इसी स्वभाव के कारण सभी के साथ मिल सकता है किन्तु हम सजातीय होकर भी ऐसे वात्सल्य का स्वभाव जागृत नहीं कर पाते। भाई, एक डोरी में बँध जाओ और फिर देखो कैसा अलौकिक आनन्द आयेगा।
भगवान महावीर ने इस वात्सल्य भाव को अपने जीवन में उतारा था। प्रकाश का स्वभाव भी देखो, बीसों बल्बों का प्रकाश भी एक साथ मिल जाता है। प्रकाश में कभी लड़ाई नहीं होती, हमारी छाया भले ही प्रकाश में भेद उत्पन्न कर दे। जैसे प्रकाश में प्रकाश मिल जाता है वैसे ही हमारी आँखों से निकली हुई चैतन्य धारा भी दूसरों की ओर से आने वाली चेतन धारा से मिल जानी चाहिए। जड़ के संपर्क में रहकर हम भी जड़ होते चले जा रहे हैं। जड़ का अर्थ अचेतन भी है और मूर्ख भी है। यह मूर्ख संज्ञा मनुष्यों की ही है। दुनियाँ के पदार्थ अपना स्वभाव नहीं छोड़ते किन्तु हम मनुष्य अपना स्वभाव भूल कर उसे छोड़ बैठे हैं। इसीलिए दुखी भी हैं।
सन्त लोग एक-एक पंक्ति में सुख का मार्ग प्रदर्शित कर रहे हैं। उनकी एक-एक बात सारभूत है। किन्तु हम उसे छोड़कर निस्सार की ओर दौड़ रहे हैं। हमने उनकी पुकार सुनी ही नहीं। गुरुओं के हृदय में तो करुणा की धारा प्रवाहित होती रहती है, उससे हमें लाभ लेना चाहिए और जाति-द्रोह, वैमनस्य, श्वानचाल छोड़कर मैत्री और वात्सल्य-भाव को अपनाना चाहिए।