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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाप-पुण्य

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    पाप-पुण्य  विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. पाप एक दलदल है, उस पाप के दलदल के कारण संसारी प्राणी अपने आप को आज तक ऊपर नहीं उठा पाया है।
    2. पाप पाताल की ओर ले जाते हैं। 
    3. पाँचवें पाप (परिग्रह) को छोड़ने के लिए बोलियाँ लगायी जाती हैं। यह परिग्रह पाप सभी पापों का बाप है।
    4. अपव्यय सबसे बड़ा पाप है।
    5. आज हवा कुछ ऐसी चल पड़ी है कि पाप को नहीं पुण्य को मिटाने की बात करते हैं और पापमय होते जा रहे हैं।
    6. जिनके पास पाप नहीं है, वे पूजन योग्य हैं।
    7. भूलकर भी तत्त्ववेता पुण्य कर्म की निर्जरा के बारे में न सोचें, तभी वह सच्चा श्रद्धानी माना जावेगा ।
    8. पाप कर्म की निर्जरा की जाती है। जैसे-जैसे पापकर्म की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है वैसे वैसे पुण्य का अनुभाग बढ़ता जाता है।
    9. पाप करोगे तो पापी कहलाओगे और पुण्य/धर्म करोगे तो पुण्यात्मा/धर्मात्मा कहलाओगे, क्योंकि स्वयं के कार्यों के माध्यम से टाइटल मिलते हैं किसी की कृपा से नहीं।
    10. प्रतिशत में जीने वालों को सुख कहाँ से मिलेगा। ९०% पाप जिसके जीवन में हो उसे सुख नहीं मिल सकता।
    11. १०% पुण्य की सुगंध ९०% पाप की दुर्गध के बीच नहीं आ सकती।
    12. दोषों से अनुराग और गुणों से द्वेष रखने से पाप बंध ही होता है और गुणों में अनुराग दोष में द्वेष रखते हैं तो पुण्य बंध होता है और इन दोनों में राग-द्वेष नहीं रखने से कर्म की निर्जरा होती है, मोक्ष होता है।
    13. जो वर्तमान में पाप नहीं करता वह यहाँ भी सुखी है और आगे जहाँ भी जावेगा वहाँ भी सुखी रहेगा, इसलिए सुख चाहते हो तो पापों का त्याग कर दो।
    14. इन्द्रियनिग्रह, संयम, तपश्चरण, जिनभक्ति, दयाभाव ये सभी दुर्लभ गुण महान् पुण्यात्मा जीव में ही होते हैं, जिनके संसार रूप समुद्र का किनारा निकट में आ चुका हो।
    15. सात्विक भाव, पुण्य स्वयं में साथ दूसरों को भी उन्नति की ओर ले जाने में सहायक होता है।
    16. मोक्षमार्ग में आलोचना, प्रायश्चित को स्वयं स्वीकारना होता है। पाप बाँधा है तो स्वयं को परिमार्जित करना चाहिए।
    17. संसारी प्राणी में जन्म-मरण, विकास-ह्रास का क्रम चलता रहता है, उसके पीछे उसके जन्मान्तर के अर्जित पाप-पुण्य का ही हाथ रहता है।
    18. तुम्हारा वध तुम्हारे ही अहितकारी पाप कर्म के द्वारा होता चला आ रहा है।
    19. जिससे आपको कष्ट होता हो, उसे क्या आप अपने पास रखना चाहोगे। उन पाँच पापों को छोड़ने के लिए जल्दी तत्पर हो जाओ।
    20. पाप छोड़ने की दिशा में साधारण लोगों की गति नहीं हो और यदि वह छोटा भी हो और पाप छोड़ने की दिशा में उत्साह के साथ लीन हो तो उसकी मजबूत आस्था, आत्मबल एवं पुरुषार्थ प्रशंसनीय है।
    21. जो पुण्यवान है और पुण्य के कार्यों में लगे हुए हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी और सरस्वती दौड़ी चली आती है।
    22. पुण्यवानों की नौकरी में तो लोग लग जाते हैं लेकिन पुण्य के कार्यों में नहीं लगते।
    23. आत्महितैषी को नश्वर शरीर के लिए पाप करना बंद कर देना चाहिए।
    24. पति-पत्नि दोनों एक दूसरे के लिए अपना पुण्य समाप्त करते रहते हैं, लाभ-हानि के बारे  में  सोचा जाये तो पुरुष स्त्री के लिए और स्त्री पुरुष के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं।
    25. घर नहीं छोड़ सकते तो घर के प्रति जो मूर्च्छा है उसे तो छोड़ सकते हो। जीवन में निरीहता होना अनिवार्य है, वरन् प्रतिपल पाप का बंध हो रहा है।
    26. पुण्यानुबंधी पुण्य के माध्यम से ही चक्रवर्ती आदि पद मिलते हैं।
    27. आत्मा के परिणाम ही सब कुछ हैं उसी से पुण्य-पाप होते हैं। जब कर ही रहे हैं तो धार्मिक परिणाम ही क्यों न करें? हाँ, संक्लेश विशुद्धि घटती-बढ़ती रहती है, ये बात अलग है।
    28. यह परिणामों का ही खेल है, नारायण ने कोटिशिला उठा ली, हार्टफेल नहीं हुआ, किन्तु भाई का वियोग सुनकर हार्टफेल हो गया।
    29. जैसे सूर्य का प्रकाश कमल के विकास में सहायक है, उसी प्रकार पूर्व में किया हुआ पुण्य समय पर अवश्य ही काम आता है, आपत्तियों को भी सम्पति में बदलता जाता है।
    30. पुण्य क्षीण होने पर सारी शक्तियाँ छोड़कर चली जाती है।
    31. यह स्वार्थ की दुनियाँ है, यह जानते हुए भी यह जीव दूसरे के लिए स्वयं पाप कमाता है, यह अज्ञान ही तो है।
    32. पूर्व पुण्य का उदय नहीं है तो वर्तमान में कितना ही पुरुषार्थ करो तो कुछ भी पल्ले नहीं पडता।
    33. जिस पुण्य से धन मिलता है, उससे धर्म मिले यह कोई नियम नहीं। धर्म पाने के लिए दुर्लभ पुण्य चाहिए।
    34. पुण्य कर्म की निर्जरा के लिए कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ता। पाप कर्म की निर्जरा में लिए ही पुरुषार्थ करना पड़ता है।
    35. पुण्य के फल के प्रति हेय बुद्धि रखना, न कि पुण्य कर्म के प्रति क्योंकि पुण्य मोक्षमार्ग में बाधक नहीं है।
    36. जैसे वर्षा हो रही है तो ठण्डी लहर आवेगी उससे बच नहीं सकते, वैसे ही सम्यक दर्शन होते ही पुण्यकर्म का बंध होगा ही उससे बच नहीं सकते। सातवें गुणस्थान से साता का ही बंध होगा, भले वहाँ असाता कर्म का उदय हो।
    37. धर्म से, सुख से जो आत्मा की रक्षा करता है, उसे पाप कहते हैं।
    38. खेत में खरपतवार (घासफूस) बिना उगाये उग आती है, वैसे ही इस जीवन रूपी खेत में पाप रूप घास अपने आप पनपती रहती है।
    39. शुभ भाव किया तो पुण्यात्मा, अशुभ भाव किया तो पापात्मा हो गया एवं इन दोनों से ऊपर उठ गया तो परमात्मा बन गया।

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