जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है वैसी ही मनोदशा होती है बहुश्रुतवान महाराज की। अपने पास आने वालों को वे बताते हैं संसार की प्रक्रिया से दूर रहने का ढंग और उनका प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि वे स्वयं उस प्रक्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं।
बहुश्रुत का तात्पर्य उपाध्याय परमेष्ठी से है। उपाध्याय ये तीन शब्दों से मिलकर बना है उप+ अधि+आय। ‘उप’ माने पास/निकट 'अधि' माने बहुत समीप अर्थात् सन्निकट और 'आय' माने आना अर्थात् जिनके जीवन का संबंध अपने शुद्ध गुण पर्याय से है जो अपने शुद्ध गुण पर्याय के साथ अपना जीवन चला रहे हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी हैं। उनकी पूजा, उपासना या अर्चना करना, यह कहलाती है बहुश्रुत-भक्ति।
आचार्य और उपाध्याय में एक मौलिक अन्तर है। आचार्य महाराज उपाध्याय परमेष्ठी पर भी शासन करते हैं। उनका कार्य होता है आदेश देना। 'पर' का हित उनका कर्तव्य है। अत: वे कटु शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। प्रिय, कटु और मिश्रित इन तीनों प्रकार के वचनों का प्रयोग आचार्य परमेष्ठी करते हैं किन्तु उपाध्याय परमेष्ठी उनसे बिल्कुल भिन्न हैं। उपाध्याय महाराज तो बड़े मीठे शब्दों में वचनामृत पान कराते हैं अपने शिष्यों को। जैसे माँ अपने बच्चे को बड़े प्रेम से दूध पिलाती है वैसी ही मनोदशा होती है उपाध्याय महाराज की। अपने पास आने वालों को वे बताते हैं संसार की प्रक्रिया से दूर रहने का ढंग और उनका प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि वे स्वयं ही उस प्रक्रिया की साक्षात् प्रतिमूर्ति होते हैं। उपाध्याय महाराज आत्मा की बात करते हैं। उनके पास न पंचेन्द्रिय विषयों की चर्चा है, न कषायों की, न आरंभ की और न परिग्रह की। विषय और कषायों में अनुरंजन, आरंभ व परिग्रह में आसक्ति तथा संचय की प्रवृत्ति का नाम ही संसार है। जहाँ विषय, कषाय, आरंभ व परिग्रह का सर्वथा अभाव है वहाँ मुक्ति है। उपाध्याय परमेष्ठी इसी मुक्ति की चर्चा करते हैं और उस उपदेश के अनुरूप आचरण भी करते हैं। इसी कारण उनका प्रभाव लोगों पर पडता है। प्रभाव केवल आचरण का ही पड सकता है, वचनों का नहीं। वचनों में शक्ति अद्भुत है। वचन को योग माना है किन्तु उन वचनों के अनुरूप कार्य भी होना चाहिए।
एक बच्चा गुड खाता था। माँ बड़ी परेशान थी। एक साधु के पास पहुँची। ‘महाराज, इसका गुड़ खाना छुड़वा दीजिये, बहुत खाता है।' साधु ने कहा- आठ दिन बाद आना इस बच्चे को लेकर। साधु ने इस बीच पहले स्वयं त्याग किया गुड़ खाने का और आठ दिनों में पूरी तरह उन्होंने गुड का परित्याग कर दिया। नौवें दिन जब वह माँ आयी उस बच्चे को लेकर, तो साधु ने उस बच्चे से कहा बच्चे गुड़ नहीं खाना। बच्चे ने तुरन्त उस साधु की बात मान ली। बोला महाराज आपकी बात मान सकता हूँ, माँ की नहीं क्योंकि डाक्टर ने माँ को भी मना किया है गुड़ खाने को, किन्तु छिपकर खा लेती है। इधर माँ ने साधु को टोक दिया बाबाजी इतनी सी बात उसी दिन कह देते। मुझे आठ दिन प्रतीक्षा क्यों करवाई ? साधु का विनम्र उत्तर था माँ जी, जब तक गुड़ में मेरी लिप्सा थी तब तक मेरे उपदेश का क्या प्रभाव हो सकता था ?
उपाध्याय परमेष्ठी एक अनूठे साधक हैं। उपदेश सुनने वाला पिघल जाता है उनके उपदेश को सुनकर। जो अनादि काल से जन्म, जरा और मरण के रोग से पीड़ित है वह रोगी दौड़ा चला आता है उपाध्याय परमेष्ठी के पास और उसे औषधि मिल जाती है अपने इस रोग की। रोगी को रोग मुक्त वही डाक्टर कर सकता है जो स्वयं उस रोग से पीड़ित न हो। एक डाक्टर के पास एक रोगी पहुँचा। उसे आँखों का इलाज कराना था। उसे एक पदार्थ 'दो' दिखाई पड़ते थे। किन्तु परीक्षण के समय ज्ञात हुआ कि स्वयं डाक्टर की आँख में ऐसा रोग था जिसे एक ही पदार्थ 'चार' पदार्थों-सा दिखाई पड़ता था। अब आप ही बतायें वह डाक्टर क्या इलाज करेगा। ऐसे स्थान से तो निराशा ही हाथ लगेगी।
संसार मार्ग का समर्थक कभी भी मुक्ति मार्ग का सच्चा उपदेश दे नहीं सकता क्योंकि उसे उसमें रुचि ही नहीं है। उपाध्याय परमेष्ठी ही मुक्ति मार्ग का उपदेश दे सकते हैं क्योंकि वे स्वयं ही उस मार्ग के अडिग और अथक पथिक हैं।
एक जैन सज्जन मेरे पास आये, उनका प्रश्न था- महाराज! आचार्य समन्तभद्र के एक श्लोक से हिंसा का उपदेश ध्वनित होता है। उन्होंने कौवे के मांस का उपदेश दिया है, अन्य मांस का नहीं। मैं दंग रह गया। मैंने उन्हें समझाया- 'भइया! ये हिंसा का उपदेश नहीं है। यहाँ तो उस आदमी को महत्व दिया गया है जिसने कुछ त्यागा है। यहाँ तो छोड़ने का उपदेश दिया गया है, ग्रहण का नहीं। भोगों का समर्थन नहीं किया गया है, त्याग का समर्थन किया है। पात्र देखकर ही उपाध्याय परमेष्ठी उपदेश दिया करते हैं। यदि पात्र-भेद किए बिना उपदेश दिया जाये तो वह सार्थक नहीं हो सकता। जो रात दिन खाता है उसे रात्रि में पहले अन्न का भोजन छुड़वाया जाता है वही उपयुक्त है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसे रात्रि में अन्य पदार्थों के ग्रहण का उपदेश दिया गया हो'।
राजस्थान में एक प्रथा प्रचलित है जिसे कहते हैं ‘गढ़का तेरस'। अनन्त चतुर्दशी के पूर्व तेरस को खूब डटकर गरिष्ठ भोजन कर लेते हैं और ऊपर से कलाकन्द भी खा लेते हैं फिर चौदस के दूसरे दिन उपवास के बाद पारणा बड़े जोर-शोर से करते हैं। ऐसे व्रत पालने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। हमारी इच्छाओं का मिटना ही व्रतों में कार्यकारी है।
स्तुतिः स्तोतु साधोः कुशल-परिणामाय स तदा ।
भवेन् मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः॥
उपाध्याय परमेष्ठी उपस्थित हों अथवा न हों, उनके लिखे हुए शब्दों का भी प्रभाव पड़ता है। द्रोणाचार्य की प्रतिमा मात्र ने एकलव्य को धनुर्विद्या में निष्णात बना दिया। ऐसे होते हैं उपाध्याय परमेष्ठी। उनको हमारा शत् शत् नमोऽस्तु!