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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पारिजात 1- जीव - अजीव तत्व

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    सात तत्वों में जीव तत्व को प्रथम स्थान मिला है। प्रथम स्थान क्यों मिला, इसकी व्याख्या करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि प्रत्येक तत्व का भोक्ता जीव ही है। भोक्ता का अर्थ यहाँ संवेदन करना है। मुक्ति जब भी मिलेगी वह जीव तत्व को ही मिलेगी क्योंकि वही मुक्ति का संवेदन कर सकता है। अजीव तत्व को मुक्ति मिलने, ना मिलने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि वह संवेदन-रहित है।


    हम जीव होते हुए भी मुक्त नहीं है, यह बात विचारणीय है। आचार्य अमृतचंद्रजी ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहते हैं कि वह परम ज्योति जयवंत रहे जिस ज्योति में संसार के समस्त पदार्थ अपनी भूत, भावी एवं वर्तमान समस्त पर्यायों सहित स्पष्ट झलक रहे हैं। यहाँ गुणों की आराधना की गयी है। वास्तव में, जब हम गुणों की आराधना करते हैं तो गुणी की आराधना अपने आप हो जाती है। आराधना जीवत्व गुण के ऊपर अवलंबित है।


    हम सभी जीव हैं फिर भी हमारी आराधना नहीं हो रही है बल्कि आराधना के स्थान पर विराधना हो रही है। कारण स्पष्ट है कि हमारे पास जीवत्व होते हुए भी जिस जीवत्व की आवश्यकता है उसका अभाव है। जिस गुण के द्वारा आराधना होती है वह गुण हमारे पास नहीं है। आप पूछ सकते हैं कि गुणों का अभाव हो जायेगा तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा महाराज! तो भइया, गुणों का अभाव तो नहीं होगा, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन गुणों का विलोम हो जाना भी एक प्रकार से अभाव हो जाना है। जीव के गुणों की विशेषता है कि वे अभाव को तो प्राप्त नहीं होते किन्तु विलोम हो जाते हैं।


    हमारे पास जीवत्व गुण है लेकिन ध्यान रखिये यह जीवत्व विलोम स्थिति में है, उसका परिणमन विलोम रूप में हो रहा है। आचार्य कहते हैं 'स्वभावात् अन्यथा भवनं विभावः' अर्थात् स्वभाव से विपरीत परिणमन होने का अर्थ ही है विभाव। रात और दिन का जिस प्रकार विरोधाभास है उसी प्रकार स्वभाव और विभाव के साथ भी हो रहा है। रात है तो दिन नहीं और दिन है तो रात नहीं। उसी प्रकार स्वभाव रूप परिणमन है तो विभाव नहीं और विभाव रूप परिणमन है तो स्वभाव नहीं।


    वर्तमान में हमारे स्वभाव का अभाव और विभाव रूप परिणमन होने के कारण विराधना हो रही है। अत: अपने को उस जीवत्व को प्राप्त करना है जिस जीवत्व के साथ स्वाभाविक जीवन है। वह जीवत्व किसे प्राप्त हो सकता है? वह जीवत्व कैसे प्राप्त हो सकता है? क्या हमें प्राप्त हो सकता है? तो आचार्य कहते हैं कि अवश्य प्राप्त हो सकता है। जिन कारणों से विभाव रूप परिणमन हुआ है, हमने किया है यदि उसके विपरीत कारण मिल जाएँ तो जीव स्वभाव रूप परिणमन भी कर सकता है।


    यह ध्यान रक्खी कि विभाव रूप परिणमन किसी अन्य शक्ति ने या अन्य व्यक्ति ने जबरदस्ती कराया हो, ऐसा नहीं है। जीव स्वयं ही अपने परिणामों के द्वारा विभाव रूप परिणमित होता है और इसके लिए बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि निमित्त अवश्य बनते हैं। आशय यह हुआ कि वर्तमान में हमारा जीव तत्व बिगड़ा हुआ जीव तत्व है।


    आप यह कह सकते हैं कि कुछ समझ में नहीं आता महाराज! कुछ लोग तो कहते हैं कि जीव तो जैसा-का-तैसा बना रहता है और उसमें जो परिणमन होता है वह ऊपर-ऊपर हो जाता है। इसलिए जीव तो शुद्ध है क्योंकि द्रव्य है और उसकी पर्याय जो है वह बिगड़ी हुई है। भइया, ध्यान रखो कि जीव तत्व ज्यों का त्यों बना रहे शुद्ध और उसकी पर्याय अशुद्ध हो, ऐसा हो नहीं सकता। यदि ऐसा हो जाए तो वे पर्यायें उस विशुद्ध तत्व से बिल्कुल पृथक् हो जायेंगी जो कि संभव ही नहीं है ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यं' ऐसा कहा गया है अर्थात् गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। यदि पर्याय अशुद्ध है तो द्रव्य भी अनिवार्य रूप से अशुद्ध है।


    लेकिन यह भी ध्यान रखना कि वर्तमान में जो पर्याय अशुद्ध है वह पर्याय तो शुद्ध नहीं बन पायेगी किन्तु वर्तमान में जो अशुद्ध द्रव्य है वह द्रव्य शुद्ध बन सकता है। उसके पास शुद्धत्व की शक्ति है। इसी अपेक्षा से आचार्यों ने कहा है कि विभाव रूप परिणमन करते हुए भी जीव द्रव्य कथंचित् शुद्ध है। आप कह सकते हैं कि द्रव्य शुद्ध ही है और पर्याय अशुद्ध है, ऐसा मान लेने में अपने को क्या हानि? तो भइया पहली बात कि द्रव्य का परिणमन जब भी होता है वह समूचे द्रव्य का होता है। कुछ प्रदेश शुद्ध रहे और कुछ प्रदेश अशुद्ध रहे आवें, ऐसा नहीं है। अशुद्ध परिणमन का प्रभाव पूरे द्रव्य के ऊपर पड़ता है।


    आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने प्रवचनसार में स्पष्ट लिखा है कि 'परिणमदि जेण दव्वं तक्काल तम्मप्यक्ति पण्णतं' अर्थात् द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है उस समय उसी रूप होता है। दूसरी बात, यदि वर्तमान में हमारा द्रव्य भीतर से शुद्ध ही है तो समझो मुक्त ही है और मुक्त है तो मुक्ति का अनुभव, केवलज्ञान का अनुभव भी होना चाहिए लेकिन अभी तो अपने पास एक अक्षर का भी ज्ञान नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि सारा का सारा द्रव्य ही बिगड़ा हुआ है, 'स्वभावात् अन्यथा भवनं विभाव:' स्वभाव से विलोम स्थिति हो चुकी है। यह मैं पहले बता चुका हूँ।


    जिस समय स्वभाव पर्याय की अभिव्यक्ति होगी उस समय विभाव पर्याय की वहाँ पर अभिव्यक्ति नहीं रहेगी, तब जिज्ञासा होती है कि जीव को शुद्ध जीवत्व की प्राप्ति कैसे हो ? आचार्यों ने इसके लिए मोक्षमार्ग के अन्तर्गत तत्वों का उल्लेख किया। इन तत्वों को जो व्यक्ति अपने जीवन में सम्यक् प्रकार से शान्ति के साथ जान लेता है और अपने भीतर होने वाली वैभाविक प्रक्रिया के बारे में निकटता से अध्ययन करता है वह व्यक्ति स्वभाव को प्राप्त करने का जिज्ञासु कहलाता है।


    एक याचक व्यक्ति एक सेठ के पास गया। वह सेठ उस व्यक्ति के पिता का दोस्त था। उसकी दयनीय स्थिति देखकर सेठ को उस पर करुणा हो आती है। वह कहता है कि बेटे! तुम्हारे पिताजी की मेरे साथ घनिष्ठ मित्रता थी। हम दोनों दोस्त थे। किन्तु अलग-अलग व्यवसाय के कारण क्षेत्रान्तरित हो गये। मैं तुम्हें पहचान गया हूँ। तुम्हारे पिताजी मरने से पहले मुझे बता गये थे कि मेरा लड़का जब बड़ा हो जाए तो घर में जो धन पैसा दबा रक्खा है उसे बता देना। अब तुम बड़े हो गये हो, तुम्हें धन की आवश्यकता का भान हो रहा है उसे पाने की जिज्ञासा भी तुम्हारे भीतर उत्पन्न हो गयी है अत: मैं बता देता हूँ। अब तुम्हें याचना करने की, दीन-हीन होने की आवश्यकता नहीं है, जाओ और अपनी संपत्ति निकाल लो।


    उस व्यक्ति को अपनी संपत्ति का जैसे ही ज्ञान हो गया उसने याचना करना बंद कर दिया और घर पहुँचकर उसे प्राप्त भी कर लिया। इसी तरह हम इस समय वर्तमान में भले ही विभाव रूप परिणमन कर रहे हैं परन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि अनन्तकाल तक हम ऐसे ही याचक बने रहें। हम भी सेठ साहूकार बन सकते हैं अर्थात् अपनी आत्म-सम्पदा को अपने स्वभाव को प्राप्त कर सकते हैं।


    आत्मा की शक्ति अनन्त है किन्तु उस शक्ति का उद्धाटन आवश्यक है। उस अनंत शक्ति का उद्घघाटन हम तभी कर सकेंगे जब कि वर्तमान में मेरी यह विभाव रूप स्थिति हो गयी है- ऐसा विश्वास कर लेंगे। अपने आप को जो व्यक्ति बंधा हुआ अनुभव नहीं करेगा वह मुक्ति की जिज्ञासा कैसे करेगा ? मुक्ति के ऊपर विश्वास उसी को हो सकता है, जो बहुत जकड़न का अनुभव करता है। 'बंध सापेक्षेव मुक्ति:।' बंध की अपेक्षा ही मुक्ति है। बंध का अभाव ही मोक्ष है।


    एक द्रव्य में प्रत्येक गुण की जो पर्यायें हैं वे पर्यायें गुणों के साथ क्षणिक तादात्म्य सम्बन्ध रखती है और जो सम्बन्ध द्रव्य के साथ गुण का है वही सम्बन्ध पर्याय का भी द्रव्य के साथ है। प्रदेश भेद नहीं है। संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा कथचित् भेद संभव है। इसलिए वर्तमान में इस जीव का समूचा विलोम परिणमन हो चुका है। मात्र एकान्त रूप से पर्याय ही अशुद्ध है द्रव्य तो एक शुद्ध पिण्ड रूप सिद्ध परमेष्ठी के समान है, ऐसा यदि हम मान लेंगे तो आगम से बाधा आ जायेगी।

    यदि कोई व्यक्ति कहता है कि जीव जो बिल्कुल शुद्ध है, मात्र उसकी पर्याय और वह भी जो क्षणिक है, वह अशुद्ध है, द्रव्य जो वैकालिक शुद्ध पिण्ड है तब कोई दूसरा व्यक्ति आकर यदि सामने लगे पेड़ को साष्टांग नमस्कार करता है और 'हे! शुद्धात्मने नम:' -ऐसा कहता है तो फिर ऑब्जेक्शन नहीं होना चाहिए। पर आप ऑब्जेक्शन किये बिना नहीं रहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो बिल्कुल गृहीत मिथ्यात्व है। क्योंकि वह सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की वन्दना नहीं कर रहा है। जो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की वंदना करता है सम्यग्दृष्टि होता है। इस तरह अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जायेंगी। एकेन्द्रिय को तो आगम के अनुसार मिथ्यादृष्टि माना है और मिथ्यादृष्टि को सम्यग्दृष्टि नमस्कार नहीं कर सकता।


    आचार्य अमृतचन्द्रसूरि जी कह रहे हैं कि वह ज्योति जयवन्त रहे, वह ज्योति पूजनीय है जो शुद्ध है। ज्योति पर्याय है। ज्योति शुद्ध है, पर्याय शुद्ध है तो पर्याय के साथ द्रव्य भी वहाँ पर शुद्ध है, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन पर्याय अशुद्ध हो और द्रव्य शुद्ध रहा आवे यह भी संभव नहीं है। इस बात को गौण नहीं करना चाहिए। गहराई से समझना चाहिए।


    दूसरी बात यह कहता हूँकि वन्द्य-वन्दक भाव जितने भी चलते हैं वे शुद्ध द्रव्य के साथ नहीं चलते लेकिन अशुद्धत्व से शुद्धत्व को प्राप्त करने के लिए जो चल पड़े हैं उनको देखकर उनके प्रति यह नमस्कार, वंदना-पूजा-अर्चा और स्तवनादि हुआ करते हैं। सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध जीवत्व को प्राप्त कर चुके हैं इसलिए अमूर्त हैं लेकिन अमूर्त की भी पूजा हम मूर्ति के माध्यम से करते हैं। अमूर्त की पहचान मूर्त के माध्यम से होती है।


    अहन्त परमेष्ठी मूर्त हैं और अभी पूरी तरह शुद्ध जीव नहीं हैं। हम उनकी आराधना करेंगे या नहीं। एकाध व्यक्ति नहीं करे तो नहीं भी करे लेकिन पंच परमेष्ठी में जो आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु हैं वे कुन्दकुन्द जैसे आचार्य भी अरहंत परमेष्ठी को मुख्यता देते हैं और उनको नमस्कार करते हैं, उनकी वन्दना करते हैं, और परोक्ष में यहीं पर बैठे-बैठे विदेह क्षेत्र में स्थित सीमंधर स्वामी आदि को भी नमस्कार करते हैं और परोक्ष में उन्हें आशीर्वाद भी प्राप्त हो जाता है। इसका आशय यह हुआ कि वन्द्य-वन्दक भाव शुद्ध द्रव्य के साथ न होकर शुद्ध की ओर चलने वालों के प्रति होता है।


    अरहंत परमेष्ठी क्यों अशुद्ध हैं अभी? इसलिए कि अभी वे कृतकृत्य नहीं हुए हैं। अभी चार कर्म शेष हैं। जो शुद्ध होता है वह कृतकृत्य होता है। जो कृतकृत्य होता है वह आराधक नहीं होता है, वह अपने आपमें स्वयं आराध्य होता है। सिद्ध परमेष्ठी आराध्य हैं, आराधक नहीं। अहन्त परमेष्ठी अभी आराधक भी है और आराध्य भी है। इतना अवश्य है कि वे हमारे जैसे आराधक नहीं है। उनका वह जीवत्व का परिणमन अब शुद्धत्व के निकट पहुँच चुका है। अभी वे वास्तविक जीवत्व की प्राप्ति नहीं कर पाये हैं।


    कुन्दकुन्द आचार्य महाराज ने एक स्थान पर जीव का स्वरूप बताया है और एक स्थान पर जीव का लक्षण बताया है। स्वरूप और लक्षण में बहुत अन्तर है।

    अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसई।

    जाणअलिंगग्गहण  जीवमणिद्विठ्ठसंठाणां॥

    यह जीव का स्वरूप है। 'उपयोगी लक्षणां' यह जीव का लक्षण है। इस प्रकार जीव का लक्षण और जीव के स्वरूप में बहुत अन्तर है। जीव का स्वरूप तो अमूर्त है लेकिन जीव का लक्षण अमूर्त नहीं हो सकता। जीव का लक्षण यदि अमूर्त हो जाएगा तो अमूर्त तो अन्य द्रव्य भी हैं, धर्मास्तिकाय अमूर्त है, अधर्मास्तिकाय भी है, आकाश और काल भी है। अरस, अरूप, अगंध आदि यह जीव का लक्षण नहीं है, यह तो जीव का स्वरूप है।


    आचार्य कहते हैं स्वभाव को प्राप्त करना है वह प्राप्तव्य है। लक्षण तो प्राप्त ही है। जिस स्वभाव को प्राप्त करना है, जिसका भान हमें कराया गया है वह स्वभाव मात्र सिद्धालय में प्राप्त होगा। वह अभी अहन्त परमेष्ठी को भी प्राप्त नहीं है। अहन्त परमेष्ठी के पास उनको प्राप्त करने की क्षमता है, शक्ति है, लेकिन उस शक्ति के उद्घाटन के लिए प्रयास परम आवश्यक है। जिसे वे कर रहे हैं दिन रात। 


    अहन्त परमेष्ठी को स्नातक कहा गया है और स्नातक का अर्थ है स्नात् अर्थात् स्नान किया हुआ। यहाँ पर स्नान से तात्पर्य है कि जो आठ कर्म लगे थे, उन आठ कर्मों में से चार कर्मों का मल धो दिया गया, अत: स्नातक बन गये हैं। लौकिक शिक्षण में पहले स्नातक (बेचलर) होता है, फिर स्नातकोत्तर होता है उसके उपरान्त अध्यापक (लेक्चरार) कहलाता है। स्नातक और स्नातकोत्तर दोनों ही विद्यार्थी हैं। इसी प्रकार तेरहवें गुणस्थान में अहन्त भगवान स्नातक हैं। चौदहवें गुणस्थान में स्नातकोत्तर होंगे, उसके उपरान्त लेक्चरार अर्थात् सिद्धत्व को प्राप्त करेंगे। अभी वे विद्यार्थी हैं। 'विद्या एव प्रयोजनम् यस्यस विद्यार्थी' अथवा 'विद्याम् अर्थयते इच्छत इति विद्यार्थी' अर्थात् जो विद्या को चाहता है वह विद्यार्थी है। अर्थात् कुछ पाना चाहता है अभी पाना शेष है।


    अहन्त भगवान को अभी कुछ और प्राप्त करना है और वह है शुद्ध जीवत्व की प्राप्ति। अभी हमारी इन्द्रियों की पकड़ में आ रहे हैं अर्हन्त परमेष्ठी। वे चाहते हैं कि सभी की पकड़ से बाहर निकल जाएँ। इसके लिए वे अभी योग-निरोध करेंगे। अंतिम दो शुक्ल ध्यान के माध्यम से शेष कर्मो का क्षय करेंगे।

    अहन्त परमेष्ठी अभी दर्पण के समान उज्ज्वल हैं। अभी दर्पण में भी और उज्ज्वलता लानी है। वह उज्ज्वलता कैसी है? आप रोजाना दर्पण देखते हो लेकिन ध्यान रखना एक दिन भी दर्पण नहीं देखा। दर्पण में देखने की आँख अलग है। हमें दर्पण नहीं दिखता, दर्पण में अपना मुख दिखता है। अभी अर्हन्त परमेष्ठी दर्पण के समान शुद्ध हैं, काँच के समान नहीं। दर्पण और काँच में अन्तर है। दर्पण उसे कहते हैं जिसमें एक काँच के पृष्ठ भाग पर कुछ लालिमा लगाई जाती है जिसके माध्यम से प्रतिबिंब बनने लगता है। वह लालिमा हट जाये तो सब पारदर्शक, ट्रासपेरेंट हो जाता है उसका नाम काँच है।


    ऐसा समझे कि सिद्ध परमेष्ठी काँच के समान ट्रसपेरेंट हो चुके हैं और अहन्त परमेष्ठी जो हैं अभी चार कर्मों की ललाई लिए हुए हैं। चार कर्म निकल चुके हैं इसलिए दर्पण के समान उज्वल हो गये हैं लेकिन अब लालिमा भी चली जायेगी बिल्कुल स्वभावमय काँच की तरह सिद्ध परमेष्ठी हो जायेंगे। बुंदेलखंड में कार्य के लिए 'काज' शब्द प्रयोग में लाते हैं। जैसे मुक्ति के काज। अहन्त भगवान् के लिए आनंद प्राप्त करना ही एक मात्र कार्य है। वह कार्य सम्पन्न हो जाता है, काज हो गया अर्थात् कृतकृत्य हो गये। अहन्त परमेष्ठी को अभी कृतकृत्य होना है।


    इस तरह आचार्य महाराज ने लक्षण के अंतर्गत चेतना या उपयोग को रक्खा है और स्वरूप के अन्तर्गत जितनी भी शक्तियाँ हैं वे सब आ जाती हैं। यहाँ अरस, अरूप, अगध आदि ये सारे के सारे लक्षण नहीं हैं जीव के, क्योंकि ये संसारी जीव में हमें देखने को नहीं मिलते। देखना संभव भी नहीं है, जीव के लक्षण के माध्यम से ही जीव को पकड़ लेते हैं, स्वरूप के माध्यम से पकड़ में नहीं आयेगा जीव। अहन्त परमेष्ठी की हम पूजा करते हैं, वे हमारे लिए पूज्य हैं लेकिन अभी वे असिद्धत्व का अनुभव कर रहे हैं, आगे कृतकृत्य होकर अवश्यरूपेण आराध्य बनेंगे-सिद्धत्व को अर्थात् सिद्ध पर्याय को प्राप्त करेंगे। सभी को इसी प्रकार सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए प्रयास करना पड़ेगा। अपनी वैभाविक दशा को पहचानकर स्वभाव की ओर अग्रसर होना होगा।


    "सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:" यह कहकर आचार्य उमास्वामी महाराज के तत्वार्थ सूत्र/मोक्षशास्त्र का प्रारम्भ किया है और अंत में जाकर कह दिया कि सम्यकदर्शन-ज्ञान, चारित्र भी आत्मा के स्वभाव नहीं है किन्तु स्वभाव प्राप्ति में कारण हैं। इसलिए इनका अभाव अन्त में अनिवार्य है। जहाँ उन्होंने 'औपशमिकादि भव्यत्वानाम्च'-यह कहा है, वहीं उन्होंने सम्यकदर्शन ज्ञान और चारित्र रूप परिणत जो भव्यत्व भाव है उस भव्यत्व रूप पारिणामिक भाव का भी अभाव दिखाया है। सिद्धालय में मात्र जीवत्व भाव रह जाता है। वह जीवत्व ही हमारे लिए प्राप्तव्य है। उस प्राप्तव्य के लिए कारणभूत सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र है।


    द्रव्य जहाँ शुद्ध है वहाँ सारी-की-सारी द्रव्य की पर्यायें भी शुद्ध हैं, गुण भी शुद्ध है। जहाँ एक भी अशुद्ध है वहाँ सारा का सारा अशुद्ध है। कारण कार्य का विचार करें तो पर्याय किसी न किसी का कार्य होना चाहिए और इस पर्याय रूप कार्य का उपादान भी परमावश्यक है। वह उपादान कौन है? और वह शुद्ध है या अशुद्ध ? इसका विचार किया जाए तो मालूम पडेगा कि पर्याय जिस द्रव्य में से निकली है यह द्रव्य भी अशुद्ध है। आचार्यों ने जहाँ कहीं भी कहा कि द्रव्य शुद्ध है वहाँ शुद्ध रूप परिणमन करने की शक्ति है, इस अपेक्षा से कहा है।


    एक बार जब उस स्वाभाविक शक्ति का उद्घाटन हो जाएगा तो पुनः वैभाविक पर्याय शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं होगी। "पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथाघृतम्, तिलमध्ये यथा तैलः, देह-मध्ये तथा शिव:"। अर्थात् जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण है, तिल में तेल है और दूध में घी है उसी प्रकार इस देह में आत्मा है। हम दूध में से यूँ ही घी निकालना चाहें तो वह हाथ नहीं आयेगा। घी उसमें है फिर भी नहीं आता। तो उसमें घी है भी और नहीं भी है, दूध में से ही घी निकलता है इसलिए उसमें घी है भी लेकिन दिखायी नहीं देता, सुगंध नहीं आती इसलिए घी नहीं भी है। वैद्य लोग जब किसी को औषधि देते हैं तो कभी घी के साथ अनुपान बनाते हैं और कभी दूध के साथ बनाते हैं। दूध पर्याय भिन्न है और घी पर्याय भिन्न है, तथापि घी दूध के बिना नहीं है और दूध घी के बिना नहीं है। ऐसे ही देह के साथ में आत्मा है।


    दूध अभी घी नहीं है उसमें घी बनने की शक्ति है। यदि उसमें से घी निकालना चाहो तो उसके साथ जो सम्बन्ध हुआ, जो विभाव रूप परिणमन हुआ है उसे हटाना होगा। हटाने की बात तो क्षणभर में कही जा सकती है लेकिन दूध से घी निकालने के लिए चौबीस घंटे तो चाहिए ही। जो व्यक्ति घी को प्राप्त करना चाहता है वह व्यक्ति पहले दूध को तपाता है, तपाने के उपरान्त उसे जमाता है, फिर मथानी डालकर मंथन करता है। बार-बार झाँककर देख लेता है कि नवनीत आया या नहीं, नवनीत आते ही मंथन बंद कर देता है। इस तरह अभी दूध में से एक ऐसा तत्व निकला जो तैर रहा है। पर डूबा नहीं है। छाछ के भीतर ही भीतर तैर रहा है, पर थोड़ा सा ऊपर भी दिखायी पड़ जाता है।


    पहले तो ऐसा कोई पदार्थ दूध में नहीं दिखता था, यह कहाँ से आ गया? तो यह मंथन का परिणाम है, उस परिश्रम का परिणाम है। नवनीत का गोला जिस तरह तैर रहा है उसी प्रकार अहन्त परमेष्ठी भी तैर रहे हैं। अब डूबेंगे नहीं भवसागर में, लेकिन अभी लोक के अग्रभाग में भी नहीं पहुँचे हैं। सिद्ध परमेष्ठी बिल्कुल लोक के अग्रभाग पर हैं, वे सिद्ध हैं और शुद्ध हैं। अहन्त परमेष्ठी नवनीत की भांति न पूर्णत: शुद्ध हैं, न अशुद्ध ही हैं। ऐसी दशा में उनको क्या कहा जाये? अभी अलिंग ग्रहण स्वभाव प्रकट नहीं हुआ। अभी सिद्धत्व रूप जो पर्याय है वह प्रकट नहीं हुई, अभी जो केवल जीवत्व है, वह नहीं है। भव्यत्व का भी अभाव अभी आवश्यक है।


    जिस प्रकार नवनीत में जल तत्व है जो उसे छाछ में डुबाये हुए है इसी प्रकार अहन्त परमेष्ठी के पास भी कुछ वैभाविक परिणतियाँ शेष हैं जो उन्हें लोक के अग्रभाग में जाने से रोके हुए हैं। उन्हें भी हटाने का प्रयास वे कर रहे हैं। इस सबका आशय यह हुआ कि घी उस दूध में होते हुए भी व्यक्त रूप में नहीं मिलता, अव्यक्त रूप से दूध में रहता है। उसी को आचार्यों ने अपने शब्दों में ‘शक्ति और व्यक्ति' ये दो शब्द दिये हैं। आत्मा के पास सिद्ध बनने की शक्ति है, उसे व्यक्त करेंगे तो वह व्यक्त हो सकती है। स्वयं के परिश्रम के बिना दुनियाँ की कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो उस सिद्धत्व की शक्ति को व्यक्त करा दे।


    दही में से नवनीत निकालने के लिए जिस प्रकार मथानी आवश्यक साधन हो जाता है उसी प्रकार यह दिगम्बरत्व और सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप साधन सारे के सारे परम आवश्यक हैं। जिनके माध्यम से मार्ग मिलेगा और मंजिल भी अवश्य मिलेगी।


    जीव तत्व शुद्ध रूप में संसार दशा में प्राप्त नहीं हो सकता। शुद्ध जीव तत्व चाहिए तो वह सिद्धों में है। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चरित्र इसकी प्राप्ति के कारण हैं। ये सुख के कारण हैं। मुक्ति के कारण हैं। स्वयं सुख रूप नहीं हैं इसलिए इन्हें मार्ग कहा गया है। मार्ग में कभी सुख नहीं मिलता, सच्चा सुख तो मंजिल में ही है, मोक्ष में है। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र सुख के कारण हैं, इनके अभाव होने पर ही सिद्धत्व रूप कार्य होता है। ये सुख के कारण हैं और सिद्धत्व सुखरूप अवस्था है।


    बृहद् द्रव्य संग्रह की वचनिका में लिखा है कि सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र की परिणति रूप जो आत्मा की उपयोग की परिणति है वह भी स्वभाव नहीं है। क्योंकि शुद्धोपयोग यदि आत्मा का स्वभाव है तो सिद्धावस्था में भी रहना चाहिए। किन्तु शुद्धोपयोग तो ध्यानावस्था का नाम है। ध्यान तो ध्येय को प्राप्त कराने वाली वस्तु है, वह ध्येय नहीं है। सिद्धावस्था में तो मात्र चैतन्य स्वभाव रह जाता है। शुद्ध चेतना या ज्ञान-चेतना रह जाती है। चैतन्य मात्र खलु चिद् चिदेव।


    इस प्रकार बहुत कुछ जीव तत्व के बारे में कहा गया है। जीव तत्व के बारे में इतना अवश्य समझना चाहिए कि वर्तमान संसारी दशा में जीव अशुद्ध है, द्रव्य की अपेक्षा भी अशुद्ध है और पर्याय भी अशुद्ध है। इतना अवश्य है कि जीव में शुद्धत्व की शक्ति विद्यमान है। पर्याय जब शुद्ध होगी तब शुद्ध जीव तत्व की प्राप्ति नियम से होगी। और वह शुद्ध तत्व की अनुभूति फिर अनन्त काल तक रहेगी। उसमें कोई क्रिया संभव नहीं है, वह एक सहज प्रक्रिया होगी। इसे समझकर हमें सिद्ध पर्याय को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। रत्नत्रय को अंगीकार करके मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहिए। यही जीव तत्व को समझने की सार्थकता है।

    जीव तत्व से विपरीत अजीव तत्व है। वह ज्ञान दर्शन से शून्य है। आगम में उसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच भेद कहे गये हैं। इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार के द्वारा जीव में कोई विकृति नहीं आती परन्तु कर्म रूप परिणत पुद्गल द्रव्य की उदयावस्था का निमित्त पाकर जीव में रागादि विकार प्रकट होते हैं।


    यद्यपि इन रागादि विकारों का भी उपादान कारण आत्मा है तथापि मोहनीय कर्म की उदयावस्था के साथ अन्वय व्यतिरेक होने से वह इनका निमित्त कारण होता है। रागादि विकारी भावों का निमित्त पाकर कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल में कर्मरूप परिणति होती है। इसी के फलस्वरूप जीव की संसार वृद्धि होती रहती है। कर्म से शरीर रचना होती है, शरीर में इन्द्रियों का निर्माण होता है। इन्द्रियों से स्पशदि विषयों का ग्रहण होता है। इससे नवीन कर्मबन्ध होता है। इस तरह कर्म, नोकर्म और भावकर्म रूप अजीव का, जीव के साथ अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। जब तक इसका लेशमात्र भी सम्बन्ध रहेगा तब तक मुक्तावस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए इस अजीव तत्व को समझकर इसे पृथक् करने का सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए।
     


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    कर्म से शरीर रचना होती है, शरीर में इन्द्रियों का निर्माण होता है। इन्द्रियों से स्पशदि विषयों का ग्रहण होता है। इससे नवीन कर्मबन्ध होता है। इस तरह कर्म, नोकर्म और भावकर्म रूप अजीव का, जीव के साथ अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। जब तक इसका लेशमात्र भी सम्बन्ध रहेगा तब तक मुक्तावस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए इस अजीव तत्व को समझकर इसे पृथक् करने का सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए।

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