भक्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- आत्मतत्व की भावना नहीं हो रही हो तो परमात्मा की भक्ति करते हुए भी आत्मा को पाया जा सकता है।
- जो दूसरों को व्यवधान उपस्थित नहीं करता, वही विवेक से भक्ति, पूजन करता है।
- भक्ति में भाव प्रत्यय ही महत्वपूर्ण है, शब्दज्ञान नहीं।
- उपास्य के पास स्वरूप का भान, आत्म श्रद्धान प्राप्त होता है, लेकिन वह अंतर्दृष्टि रखने वालों को ही प्राप्त होता है।
- प्रभु के चरणों में जो विशुद्धि प्राप्त होती है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं हो सकती।
- प्रभु की भक्ति से, उनके पादमूल में मोहनीयकर्म का क्षय हो जाता है, क्षायिक सम्यक्दर्शन प्राप्त हो जाता है।
- देव, शास्त्र व गुरु के समागम से अनन्तानुबन्धी कषाय नष्ट हो जाती है। जैसे पुलिस को देखकर शराबी का नशा उतर जाता है, वैसे ही इन्द्रभूति क्या पूछने जा रहा है? यह भी भूलता जा रहा है। मानस्तम्भ देखते ही उसका मान स्तंभित हो गया/डाउन हो गया। अब चिकित्सा के योग्य हो गया। दीक्षा की प्रार्थना करने लगा और दीक्षित होकर महावीर भगवान का प्रथम शिष्य बन गया।
- भगवान का पक्ष आते ही सब पक्ष/विपक्ष समाप्त हो जाते हैं।
- भगवान का पक्ष संसार से पार लगा देता है और पक्षपात संसार का विस्तार करता है।
- जिनदर्शन के प्रति हमेशा विशुद्धि बनी रहनी चाहिए।
- श्रद्धा और विवेक के साथ जो भक्ति की जाती है, उसी का सही फल प्राप्त होता है।
- जिसके हृदय में आराध्य को स्थान होता है, उसका हृदय पवित्र होता है।
- जो भक्ति के माध्यम से साधु परमेष्ठी को स्वीकारता है, बदले में स्व-पर कल्याण की भावना भाता है, वही सही भक्त माना जाता है।
- भक्ति के बीच में भुक्ति की चाह आकर खड़ी हो जाती है तो भक्ति का सही फल प्राप्त नहीं होता।
- सही ज्ञान होते ही भक्त मात्र भगवान बनने का रास्ता माँगता है।
- भगवान की भक्ति में, बिना कामना के भाव लगाने से, शुद्ध कंचन बन जाते हैं। यही भक्ति का सार है।
- आप भगवान की भक्ति से कुछ संसार की वस्तुएँ माँगना चाहते हो, पर ध्यान रखना भगवान की भक्ति में फल का कोई अंत नहीं होता।
- भगवान के दर्शन से बाहरी सब गौण हो जाना चाहिए अंतरंग में उतरना चाहिए।
- पूजन, भक्ति प्रशस्त मन से करो और उसके फल में हेय बुद्धि रखो।
- ध्यान रखना धार्मिक अनुष्ठान कभी भी हेय बुद्धि से नहीं किये जाते क्योंकि इनके माध्यम से ही मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है।
- भक्ति के माध्यम से भक्त भगवान तक पहुँच जाता है।
- जो व्यक्ति विषय कषायों में फँसा है, धन के कारण अंधा बना हुआ है, उसके अंदर भक्तिभाव व अध्यात्म के भाव भूलकर भी उभर नहीं सकते।
- आज मन लगाने का सबसे सरल तरीका है भगवान की भक्ति करना।
- भगवान की पूजा, कामना पूर्ति करती है एवं वासना को नष्ट करती है।
- भगवान बनने की एक युक्ति है। भगवान के गुणों के प्रति अनुराग रखो, भक्ति करो।
- भगवान को देखते रहने से भी स्तुति होती है, भक्ति होती है। वह भावविभोर हो जाता है, भगवान के सामने कुछ बोल ही नहीं पाता।
- पूजन में भावों को गौण नहीं करना चाहिए। मन, वचन एवं काय को समर्पित करके पूजन करिये, हेय बुद्धि से नहीं। प्रसन्न बदन, प्रसन्न चित्त होकर, भावविभोर होकर भगवान की भक्ति करना चाहिए।
- वैभव प्राप्त होना ही भक्ति का प्रयोजन नहीं है, बल्कि भव बंधन रूपी कर्मों का क्षय होना मुख्य प्रयोजन है।
- भगवान भक्ति और भक्त का तालमेल गायन, वाद्य एवं नृत्य जैसा ही है।
- भगवान की भक्ति में यह क्षमता है कि वह जहर को भी अमृत बना सकती है। जीवन विषाक्त होने से पूर्व भक्ति की ओर बढ़ जाना चाहिए।
- जिनकी आत्मा कषायातीत हो गयी है उनकी भक्ति किया करो उन्हीं के माध्यम से ही हमें विकास करना है।
- भक्त बनने के बाद किसी भी बात का भय नहीं रहता। देवता स्वयं आकर आपकी व्यवस्था करेंगे।
- भगवान का जीवन हमें वरदान सिद्ध तब होगा जब हम उनके जीवन के अनुसार ढलने की शुरुआत कर देंगे वही तीर्थ है, मुहुर्त है।
- भगवान भक्त के वश में होते हैं, ये बात ठीक है पर मुनिराज किसी के वश में नहीं होते। यह भगवान की आज्ञा मुनिराज को है।
- यदि हम सच्चे देव, शास्त्र व गुरु से सम्बन्ध नहीं रखते तो हमारी पार्टी फैल हो जावेगी।
- प्रभु किसी से प्रभावित नहीं होते हमें भी उन जैसा बनना है तो अन्य किसी से प्रभावित नहीं होना चाहिए एवं उनके (प्रभु के) गुणों, लक्षणों की ओर दृष्टि रखना चाहिए।
- सांसारिक सुख की अभिलाषा के साथ यदि भगवान की आराधना करते हो तो आराधना का फल उद्देश्य के अनुरूप ही मिलता है।
- रावण की आराधना मात्र स्वार्थ को लिए हुए थी, यदि कर्म क्षय के लिए करता तो उसे केवलज्ञान हो जाता।
- भोजन, भोग्य सामग्री तन्दुल, नैवेद्य आदि पूजन में ले जाते हैं तो वह मंगल द्रव्य बन जाती है, केवल दृष्टि का अंतर है।
- उपास्य के प्रति भावना जुड़ना महत्वपूर्ण है। जिस धन को लेकर कलह पैदा होती है, वह यदि प्रभु की उपासना में लगा दी जावे तो उसी से कर्म निर्जरा हो जाती है। विवेक जागृत होने से भव-भवान्तर के कर्म नष्ट हो जाते हैं।
- भाव और निर्मल बनाओ, चंदन जितना घिसोगे उतनी सुगंधी आवेगी। फिर केवलज्ञान जो छिपा है वह आस्था की दृष्टि से नजर आने लगेगा।
- हम सच्चे देव, शास्त्र व गुरु के उपासक बने रहें, क्योंकि आगे हमें भी वही देवत्व प्राप्त करना है।
- हे प्रभु! हमारी आस्था महान् आत्माओं के प्रति बनी रहे और हम उनके पथ चिन्हों पर चल सकें, भक्ति का फल यही माँगता हूँ।
- भक्ति करने से बाह्य रूप एवं अंतर का स्वरूप सुंदर स्वच्छ प्राप्त होता है। सुन्दर शरीर तीर्थंकर का ही होता है वह प्राप्त हो।
- वासना को समाप्त करना चाहते हो तो भगवान के चरणों में जाओ उनकी उपासना करो।
- आचार्य समन्तभद्र महाराज कहते हैं कि हे भगवन्! मैं आपको इसलिए नमस्कार करता हूँ कि आपमें दोष (मोह) आवरण (ज्ञानावरण आदि) का अभाव हो गया है, समवशरण विभूति आदि को देखकर नहीं।
- प्रभु की भक्ति, उपासना करने वाले को सांसारिक कमियाँ, कमियाँ-सी नहीं लगती। वह तो मात्र इतना ही भाव बनाये रखता है कि भगवान से तादात्म्य बना रहे।
- सुख और आनंद किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है, वह तो परमार्थ में है और परमार्थ के प्रतीक वीतरागी प्रभु हैं।
- भक्ति अंधी ही होती है क्योंकि, वह आँख बंद होने पर हृदय से प्रकट होती है, वह अंदर की अाँख खोलकर देखती रहती है। भीतर की आँखों से भी मोक्षमार्ग में कार्य होता है।
- श्रद्धा के साथ भक्ति करते हैं तो चमत्कार होने लगते हैं। यह दुनिया को चमत्कार लगते हैं पर तत्वज्ञानी इसे वस्तु स्वरूप समझता है।
- प्रभु की भक्ति एक दर्पण का काम करती है, उसमें देखने से हमें अपना कर्तव्य ज्ञात हो जाता है।
- आपने भगवान को देखा है पर भगवान जिस ओर देखते हैं उस ओर नहीं देखा। भगवान की हमेशा नासा दृष्टि रहती है और आपकी आशा पर दृष्टि रहती है।
- निष्कषाय के सिंहासन पर बैठा देवता पूज्य होता है, मैं उन्हें बार-बार नमस्कार करता हूँ।
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