वह मार्ग जिसके द्वारा आदमी शुद्ध बुद्ध बनें उस सत्य-मार्ग अर्थात् मोक्ष-मार्ग की प्रभावना ही मार्ग-प्रभावना या धर्म प्रभावना है।
मृग्यते येन यत्र वा सः मार्ग:
अर्थात् जिसके द्वारा खोज की जाये उसे मार्ग कहते हैं। जिस मार्ग द्वारा अनादि से भूली वस्तु का परिज्ञान हो जाये, जिस मार्ग से उस आत्म तत्व की प्राप्ति हो जाये, उस मार्ग की यहाँ चर्चा है। धन और नाम प्राप्त करने का जो मार्ग है उस मार्ग का यहाँ जिक्र नहीं है। मोक्ष मार्ग, सत्य मार्ग, अहिंसा मार्ग यानि वह मार्ग जिसके द्वारा यह आत्मा शुद्ध बने, उस मार्ग की प्रभावना ही मार्ग-प्रभावना कहलाती है।
रविषेणाचार्य के पद्मपुराण को पढ़ते समय हमें रावण द्वारा निर्मित शान्तिमय मन्दिर के प्रसंग को देखने का अवसर मिला। दीवारें सोने की, दरवाजे वज्र के, फर्श सोने-चाँदी के, छत नीलम मणि की। ओह! इतना सुन्दर मन्दिर बनवाया रावण ने और स्वयं उसमें ध्यान मग्न होकर बैठ गया। सोलह दिन तक विद्या की सिद्धि के लिये बैठा रहा ध्यानमग्न। ऐसा ध्यान जिसमें मन्दोदरी की चीख पुकार को भी नहीं सुना रावण ने। किन्तु यह ध्यान, धर्म ध्यान नहीं था। बगुले के समान ध्यान था, केवल अपना स्वार्थ साधने के लिये। आप समझते होंगे रावण ने धर्म की प्रभावना की। नहीं, उसने मिथ्यात्व का पोषण करके धर्म की अप्रभावना की। स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है-
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्य प्रकाशः स्यात्प्रभावना॥
व्याप्त अज्ञान अंधकार को यथाशक्ति दूर करना और जिन शासन की गरिमा को प्रकाशित करना ही वास्तविक प्रभावना है। जो स्वयं अज्ञान में डूबा हो उससे प्रभावना क्या होगी ? रावण अन्याय के मार्ग पर चला। नीति विशारद होकर भी वह अनीति को अपनाने वाला बना। उसके ललाट पर एक कलंक का टीका लगा हुआ है। ऐसा कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, उसके द्वारा प्रभावना नहीं हो सकती। प्रभावना देखनी हो तो देखो उस जटायु पक्षी की। जिस संकल्प को उसने ग्रहण किया, उसका पालन शल्य रहित होकर जीवन के अंतिम क्षणों तक किया। सीताजी की ‘त्राहि माम्! त्राहि माम् - आवाज सुनकर वह चल पड़ा उस अबला की सहायता के लिये। वह जानता था कि उसकी रावण से लड़ाई हाथी और मक्खी की लड़ाई के समान है। रावण का एक घातक प्रहार ही उसकी जीवन लीला समाप्त कर देने के लिये पर्याप्त है किन्तु अनीति के प्रति वह लड़ने पहुँच गया और अपने व्रत का निर्दोष पालन करते हुए प्राण त्याग दिये। यही सच्ची प्रभावना है। रावण को उससे शिक्षा लेनी चाहिए थी और हमें भी सीख मिलनी चाहिए।
आज कितना अन्तर है हममें और उस जटायु पक्षी में। हम एक-एक पैसे के लिये अपना जीवन और ईमान बेचने को तैयार हैं। अपने द्वारा लिये गये व्रतों के प्रति कहाँ हैं हमें समर्पण, आस्था और रुचि, जैसी जटायु पक्षी में थी। हम व्रत लेते हैं तो छूट जाते हैं या छोड़ देते हैं। कई लोग कहते हैं-महाराज! रात्रि भोजन का हमारा त्याग। किन्तु इतनी छूट रख दो जिस दिन रात्रि में भोजन का प्रसंग आ जाये उस दिन भोजन रात में कर लें। यह कोई व्रत है। यह तो छलावा है। ऐसे लोगों से तो हम यही कह देते हैं कि प्रसंग आने पर दिन का व्रत ले लो और बाकी समयों की चिन्ता मत करो। निर्दोष व्रत का पालन ही मार्ग-प्रभावना में कारण है।
जटायु पक्षी किसी मन्दिर में नहीं गया किन्तु उसका मंदिर उसके हृदय में था। जिसमें श्री जी के रूप में उसके स्वयं की आत्मा थी। हमें भी उसी आत्मा की विषय-कषायों से रक्षा करनी चाहिए। इसे ही मार्ग-प्रभावना कहा जायेगा।
हमने कई बार आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज से पूछा था- महाराज, मुझ से धर्म की प्रभावना कैसे बन सकेगी? तब उनका उत्तर था-आर्षमार्ग में दोष लगा देना अप्रभावना कहलाती है तुम ऐसे अप्रभावना से बचते रहना बस! प्रभावना हो जायेगी। मुनि मार्ग सफेद चादर के समान है उसमें जरा-सा दाग लगना अप्रभावना का कारण है। उनकी यह सीख बड़ी पैनी है। इसलिये प्रयास मेरा वही रहा कि दुनिया कुछ भी कहे या न कहे, मुझे अपने ग्रहण किये हुए व्रतों का परिपालन निर्दोष रूप से करना है।
भगवान् महावीर के उपदेशों के अनुरूप अपना जीवन बनाओ। यही सबसे बड़ी प्रभावना है। मात्र नारेबाजी से प्रभावना होना संभव नहीं है। रावण को राक्षस कहा है, वह वास्तव में राक्षस नहीं था किन्तु आर्य होकर भी उसने अनार्य जैसे कार्य किये। अन्त तक मिथ्यामार्ग का सहारा लिया। कुमार्ग को ही सच्चा मार्ग मानता रहा। ‘मेरा है सो खरा है' और 'खरा है सो मेरा है'- इस वाक्य में मिथ्यात्वी और सम्यक्त्वी का पूर्ण विवेचन निहित है। वाक्य के प्रथम अंश के अनुरूप जिनका जीवन है वे कुमार्गी है और वाक्य के दूसरे हिस्से के अनुयायी सन्मार्गी हैं। हमारे अन्दर यह विवेक हमेशा जाग्रत रहना चाहिए कि मेरे द्वारा ऐसे कोई कार्य तो नहीं हो रहे जिनसे दूसरों को आघात पहुँचे। यही प्रभावना का प्रतीक है।
कल हमें 'तीर्थकर' पत्र में एक समाचार देखने को मिला। लिखा था धर्मचक्र चल रहे हैं बड़ी प्रभावना हो रही है। सोची, क्या इतने से ही प्रभावना हो जायेगी। मात्र प्रतीक पर हमारी दृष्टि है। सजीव धर्मचक्र कोई नहीं चल रहा उसके साथ। सजीव धर्मचक्र की गरिमा की ओर हमारा ध्यान कभी गया ही नहीं। सजीव धर्मचक्र है वह आत्मा जो विषय और कषायों से ऊपर उठ गयी है। मात्र जड़ धन-पैसे से धर्म प्रभावना होने वाली नहीं। जनेऊ, तिलक और मात्र चोटी धारण करने से प्रभावना होने वाली नहीं है। प्रभावना तो वस्तुत: अंतरंग की बात है। परमार्थ की प्रभावना ही प्रभावना है। परमार्थ के लिये कोई धन का विमोचन करें, वह भी प्रभावना है।
आचार्य कुन्दकुन्द का नाम बड़ा विख्यात है। हम सभी कहते हैं मंगल कुन्दकुन्दार्यों अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य मंगलमय हैं। किन्तु हम उनकी भी बात नहीं मानते। शास्त्रों की वे ही बातें हम स्वीकार कर लेते हैं जिनसे हमारा लौकिक स्वार्थ सिद्ध हो जाता है। परमार्थ की बात हमारे गले उतरती ही नहीं है। उनके ग्रन्थ-‘समयसार प्राभूत में" एक गाथा आयी है जिसका सार इस प्रकार है- विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ होकर मन के वेग को रोकते हुए जो व्यक्ति चलता है, वह बिना कुछ कहे हुए जिनेन्द्र भगवान् की प्रभावना कर रहा है।
विषय कषायों पर कंट्रोल करो। वीतरागता की ही प्रभावना है, रागद्वेष की प्रभावना नहीं है। भगवान् ने कभी नहीं कहा कि मेरी प्रभावना करो। उनकी प्रभावना तो स्वयं हो गयी है। लोकमत के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो भेड़ों की तरह जीवन का अन्त हो जायेगा। मालूम है उदाहरण भेड़ों का। एक के बाद एक सैकड़ों भेड़ें चली जा रहीं थीं, एक गड़े में एक गिरी तो पीछे चलने वाली दूसरी गिरी, तीसरी भी गिरी और इस तरह सबका जीवन गिरकर समाप्त हो गया। उनके साथ एक बकरी भी थी किन्तु वह नहीं गिरी। क्यों? वह भेड़ों की सजातीय नहीं थी। उसी तरह झूठ हजारों हैं जो एक न एक दिन गिरेंगे। किन्तु सत्य केवल एक है अकेला है। उस सत्य की प्रभावना के लिये कमर कसकर तैयार हो जाओ। सत्य की प्रभावना तभी होगी जब तुम स्वयं अपने जीवन को सत्यमय बनाओगे, चाहे तुम अकेले ही क्यों न रह जाओ, चुनाव सत्य का जनता अपने आप कर लेगी।