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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पारिजात 2 - आस्त्रव तत्त्व

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    सात तत्वों में विद्यमान जीव-अजीव के उपरान्त अब आता है आस्रव। ‘स्त्रव' धातु बहने के अर्थ में है स्रवति अर्थात् बहना, सरकना, स्थान से स्थानान्तर होना और इस 'स्रव' धातु के आरंभ में 'आ' उपसर्ग लगा दिया जाए तो आस्त्रव शब्द की उत्पत्ति हो जाती है। जैसे गच्छति का अर्थ होता है जाना और आगच्छति का अर्थ है आना। नयति का अर्थ है ले जाना और आनयति अर्थात् ले आना। इस प्रकार इस 'आ' उपसर्ग के अनुरूप धातु का अर्थ विपरीत भी हो जाता है जैसे दान और आदान। देना बहुत कम पसन्द करते हैं आप लोग, आदान यानि लेने के लिए जल्दी तैयार हो जाते हैं। यहाँ आस्त्रव का अर्थ है सब ओर से आना।


    आस्रव के दो भेद आचार्य करते हैं-एक भावास्त्रव और दूसरा द्रव्यास्त्रव। द्रव्यास्त्रव का अर्थ है बाहरी चीजों का आना और भावास्त्रव का अर्थ है अन्दर ही अन्दर आना। यह बहुत रहस्य की बात है कि आत्मा है ही और फिर आत्मा में क्या आना है? आचार्य उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र के छठे अध्याय के प्रारंभ में ही सूत्र लिखा है कायवाङ्मनः कर्मयोगः॥ १॥ स आस्त्रवः॥ २ ॥ शुभ पुण्यस्याशुभः पापस्य॥ ३ ॥ उन्होंने बड़ा विचार किया होगा, बहुत चिन्तन किया होगा कि यह आस्रव क्यों होता है तभी ऐसे सूत्र लिखे गये होंगे।

    सामान्यतया यही धारणा होती है कि कर्म के उदय से आस्रव होता है किन्तु गहरे चिन्तन के उपरान्त यह फलित हुआ कि आस्रव मात्र कर्म की देन नहीं है, यह आस्रव आत्मा की ही अनन्य शक्ति 'योग' की देन है। कर्मों के ऊपर ही सब लादने से हम कमाँ की क्षमता को ठीक-ठीक समझ नहीं सकेंगे। कर्म जबरदस्ती आत्मा में शुभाशुभ भाव पैदा कर सके, यह संभव नहीं है। यदि कर सकते हैं तो आत्मा की स्वतंत्र सत्ता ही लुट जायेगी, तब पराई सत्ता अर्थात् कर्मों का कोई कभी अभाव नहीं कर पायेगा और कमाँ का आस्त्रव निरन्तर होता रहेगा। यह सामान्य कर्मों की बात कह रहा हूँ, विशेष कर्मों की बात नहीं। तो आस्रव योग की देन है और मन-वचन-काय की चेष्टा का नाम योग है।


    आप ध्यान से सुनेंगे तो आपको बहुत कुछ चिन्तन का विषय मिल जायेगा और आत्मा की उपादान शक्ति की जाग्रति आप इस दौरान करना चाहें तो कर सकते हैं। 'योग'-यह कर्म की देन नहीं है। कर्म की वजह से नहीं हो रहा है योग। 'योग' आत्मा की ही एक वैभाविक परिणति का नाम है। यद्यपि इस प्रकार का उल्लेख ग्रन्थों में ढूँढ़ने के लिए जायें तो बहुत मुश्किल से मिलेगा। जो चिंतन-मंथन करेंगे उन्हें अवश्य मिलेगा। खूब मंथन करो, आत्मा की शक्ति के बारे में खूब चिन्तन करो। अद्वितीय आत्म-शक्ति है वह, चाहे वैभाविक हो या स्वाभाविक हो।


    अपने यहाँ आठ कर्म हैं मूल रूप से। ज्ञानावरण का स्वभाव या प्रकृति ज्ञान को ढकना है। दर्शनावरण कर्म की प्रकृति दर्शन को ढकना है। वेदनीय की प्रकृति आकुलता पैदा करना है और मोहनीय की प्रकृति गहल भाव/मूछ पैदा करना है। इसके उपरान्त नाम कर्म का काम अनेक प्रकार के रूप पैदा करना, आकार-प्रकार देना है और गोत्र कर्म का काम ऊँच और नीच बना देना है। आयु कर्म का काम एक शरीर या भव विशेष में रोके रखना है। और अन्तराय कर्म वीर्य अर्थात् शक्ति को ढकने वाला है। यह सब उन कर्मों का स्वभाव हो गया। अब योग को किस कर्म की देन माना जाये। आठ कमाँ के जो उत्तर भेद हैं उनमें भी 'योग' को देने वाला कर्म नहीं है।


    ऐसी स्थिति में विचारणीय है कि योग क्या चीज है जो कर्मों को खींचने वाला है।'आसमन्तात् आदतो इति आस्त्रव:।' ऐसी कौन सी शक्ति है जो चारों ओर से आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म वर्गणाओं को लाकर रख देती है। तो वह शक्ति कोई और नहीं बल्कि 'योग' है वह योग किसी कर्म की देन नहीं है। वह न तो क्षायिक भाव में आता है न क्षायोपशमिक भाव में आता है। और न ही औदयिक भाव में आता है किन्तु योग को आचार्यों ने पारिणामिक भाव में रखा है।


    आपके मन में जिज्ञासा होगी कि अब तक हमने पारिणामिक भाव तो तीन ही सुने थे, यह चौथा कहाँ से आ गया। क्या आपका कोई अलग ग्रन्थ है महाराज! तो भाई मेरा कोई अलग ग्रन्थ नहीं है। किन्तु निग्रन्थ आचार्यों का उपासक मैं निग्रन्थ अवश्य हूँ। निग्रन्थों की उपासना से इस चीज की उपलब्धि संभव है। आप धवला जी ग्रन्थ देखें तो मालूम पड़ जायेगा कि योग पारिणामिक भाव में स्वीकृत है। यह आत्मा का ही एक मनचलापन या वैभाविक स्थिति है। जो कर्मो को खींचता है, फिर चाहे कर्म शुभ हों या अशुभ हों।


    अशुभयोग जब तक रहता है तब तक अशुभ प्रकृतियों का आस्रव होता है और शुभ योग होने पर शुभ प्रकृतियों का आस्रव होता है। लेकिन योग जब तक रहेगा तब तक आस्रव करायेगा ही। योग कर्म की देन नहीं है, यह अद्भुत बात सामने आयी। इससे आत्मा की स्वतंत्र सत्ता का भान होता है कि जब आत्मा ही आस्त्रव कराता है जो आत्मा उस आस्त्रव को रोक भी सकता है। अब यदि कोई व्यक्ति आस्त्रव को रोकना चाहे और यह कहकर बैठ जाये कि कमाँ का उदय है क्या करूं? तो उसे अभी करणानुयोग का ज्ञान नहीं है यही कहना होगा।


    धवलाकार वीरसेन स्वामी ने कहा है कि यह योग पारिणामिक भाव है पर ध्यान रखना, आत्मा का पारिणामिक भाव होते हुए भी आत्मा के साथ इसका वैकालिक सम्बन्ध नहीं है। कई पारिणामिक भाव ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध आत्मा के साथ वैकालिक नहीं होता। जैसे अग्नि है और अग्नि में धुआँ है। धुआँ अलग किसी चीज से निकलता हो ऐसी बात नहीं है। धुआँ अग्नि से निकलता है और वह अग्नि अशुद्ध अग्नि कहलाती है। यदि अग्नि एक बार शुद्ध बन जावे तो फिर धुआँ नहीं निकलता। निधूम अग्नि का प्रकरण न्याय ग्रन्थों में पाया जाता है। न्याय ग्रन्थों में ऐसी व्याप्ति मानी गयी है कि "यत्र-यत्र धूम: तत्र-तत्र वह्नि अस्ति एव" जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँवहाँनियम से अग्नि है। लेकिन जहाँ-जहाँ अग्नि है वहाँ धुआँ हो यह नियम नहीं है, क्योंकि निधूम अग्नि धुआँ रहित होती है।


    जिस प्रकार निधूम अग्नि स्वाभाविक अग्नि है और सधूम अग्नि वैभाविक अग्नि है इसी प्रकार आत्मा के अंदर कुछ ऐसे परिणाम हैं जो वैभाविक हैं और कर्म की अपेक्षा भी नहीं रखते और कुछ ऐसे भी हैं जो स्वाभाविक हैं, वे भी कर्म की अपेक्षा नहीं रखते। योग आत्मा की वैभाविक परिणति है, जिसके माध्यम से आत्मा के एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-रेणु आकर चिपक रहे हैं।


    अब इसके उपरान्त हम आगे बढ़ते हैं, चिन्तन करते हैं कि जब योग है तो इससे मात्र कर्म आने चाहिए, शुभ और अशुभ का भेद नहीं होना चाहिए। आचार्य उमास्वामी ने तो शुभ और अशुभ दोनों का व्याख्यान किया है, ऐसा क्यों? तो आचार्य कहते हैं कि अशुभ का आस्रव कषाय के साथ होता है, जिसे साम्परायिक आस्रव कहते हैं। 'साम्पराय: कषाय: तेन साकम् आस्त्रवति यत् कर्म तत्साम्परायिक कर्म इति कथ्यते'– जो योग कषाय के साथ सम्बन्ध को प्राप्त हो चुका है अर्थात् कषाय के साथ जो योग है उसके माध्यम से अशुभ का आस्रव होता है। कषाय से रहित योग के साथ मात्र शुभ का आस्रव होता है। साता वेदनीय का एक मात्र आस्रव होता है। इसका अर्थ हो गया कि कषाय के साथ जब तक योग रहेगा तब तक वह अशुभ कर्मों को अवश्य लायेगा, आप उसे रोक नहीं सकते।


    यहाँ आप लोगों की दृष्टि मात्र कर्म की ओर न ले जाकर परिणामों की ओर इसलिए ले जा रहा हूँ क्योंकि कर्मों के बारे में बहुत कुछ व्याख्यान हो चुके हैं। सम्यग्दर्शन फिर भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है। बड़े-बड़े विद्वान् आकर पूछते हैं कि महाराज! सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त किया जाए? अब उनके लिए यह तो कहना मुश्किल हो गया कि समयसारजी पढ़ो। क्योंकि समयसार तो सभी ने रट रक्खा है। समयसार पढ़ते हुए भी सम्यग्दर्शन के लिए कह रहे हैं तो इसके लिए कोई रास्ता तो मुझे बताना ही होगा। हम तो निग्रन्थ परिषद से सम्बन्ध रखते हैं और आप सग्रन्थ परिषद के सदस्य हैं, इसलिए आपके सामने बोलते-बोलते सकुचा रहा हूँ। सग्रन्थ के साथ निग्रन्थ की क्या वार्ता! कैसी वार्ता! तो आगम को सामने रखकर सारी बात कह रहा हूँ।


    कषाय के साथ जो योग है उसी का आचार्यों ने एक दूसरा नाम रखा है-लेश्या। कषाय से अनुरंजित जो योग की प्रवृत्ति है, वह है लेश्या। वह लेश्या अर्थात् योग की प्रवृत्ति जब तक कषाय के साथ है तब तक वह अशुभ कर्मों का आस्रव कराने में कारण बन जाती है। कोई भी कर्म किसी भी आस्रव के लिए कारण नहीं है किन्तु कषाय जो कि आत्मा की ही परिणति है जो कि उपयोग की उथल-पुथल है वही आस्रव का कारण है। उपयोग की व्यग्रता-कषाय और योग की व्यग्रतालेश्या।


    आस्त्रव संसार का मार्ग कहलाता है क्योंकि जब तक आस्त्रव होगा तब तक कर्म रहेंगे और कर्म रहेंगे तो उनका फल मिलेगा, यह परतंत्रता है। इसी परतंत्रता से शरीर मिलता है, शरीर मिलेगा तो इन्द्रियाँ मिलेंगी, इन्द्रियाँ मिलेंगी तो विषयों का ग्रहण होगा जिससे कषाय जाग्रत होगी। इसी प्रकार यह श्रृंखला चलती है। आशय यह हुआ कि कषाय के साथ जो योग की प्रवृत्ति है वही अशुभ कर्मों के आस्रव के लिए कारण है।


    आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय में आस्रव-द्वारों के बारे में जो बंध के कारण हैं, उनका उल्लेख किया है - 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव:।' यहाँ योग को अन्त में लिया है और सर्वप्रथम रखा है मिथ्यात्व। मिथ्यात्व को बंध का कारण माना है पर यह समझने की बात है।


    मिथ्यात्व न कषाय में आता है, न योग में आता है। जबकि योग और कषाय के माध्यम से आस्त्रव-मार्ग और बंध-मार्ग चलता है। अपने को कषाय और योगों को संभालने की आवश्यकता है। आस्त्रव को यदि रोकना चाहते हो, आस्त्रव से यदि बचना चाहते हो, तो मिथ्यात्व की ओर मत देखो, वह अपने आप चला जायेगा। वह कुछ नहीं कर रहा है, अकिंचित्कर है। आस्रव और बंध के मार्ग में, ध्यान रखना। कुछ भी काम नहीं कर रहा, यह सुनकर आप चौंक न जायें इसलिए मुझे कहना पड़ा कि आस्रव और बंध के मार्ग में कुछ भी नहीं कर रहा है।


    हमें आस्रव और बंध को हटाना है मिथ्यात्व अपने आप हट जायेगा। हाथ जोड़कर चला जायेगा। उसको भेजने का ढंग अलग है। उसे सुनो, जानो और पहचानो। उसको हटाना है तो पहले उसको जानो कि वह करता क्या है? आस्रव और बंध के मार्ग में कुछ भी नहीं करता। यदि आस्रव और बंध के मार्ग में मिथ्यात्व प्रकृति को अकिंचित्कर कह दिया जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह चिन्तन करने पर मालूम पड़ेगा। श्रद्धान बनाओगे तो ही आगे बढ़ पाओगे। एक-एक चीज मौलिक है। सुनें, श्रवण करें और यदि आगम के विरुद्ध लगे तो बतायें, बड़ी खुशी की बात होगी, मैं जानने के लिए तैयार हूँ पर एक चिन्तन आपके सामने रख रहा हूँ।


    मिथ्यात्व कुछ नहीं करता यह मैं नहीं कह रहा हूँ परन्तु आस्रव और बंध के क्षेत्र में कुछ नहीं करता, यह कह रहा हूँ। यह शब्द देख लो आप, यदि भूल भी जावेंगे तो यह टेपरिकार्डर पास में है ही आपका। यह प्रतिनिधित्व करेगा, यह शब्दों को पकड़ रहा है।


    मिथ्यात्व को बंध का हेतु माना है और मिथ्यात्व प्रकृति के माध्यम से सोलह प्रकृतियों का आस्रव होता है। सोलह प्रकृतियों का आस्रव मिथ्यात्व के साथ ही होगा ऐसा आगम का उल्लेख है। तो मिथ्यात्व के साथ ही होगा, इसलिए मिथ्यात्व ने ही किया, सोलह प्रकृतियों का आस्रव ऐसा आप कह सकते हैं। लेकिन ध्यान रखो आस्त्रव का माध्यम योग है। योग मिथ्यात्व से अलग चीज है। मिथ्यात्व के साथ ही योग रहता है, यह नियम भी नहीं है क्योंकि यदि मिथ्यात्व के साथ योग रहेगा तो चतुर्थ आदि गुणस्थानों में जहाँ मिथ्यात्व नहीं है वहाँ योग का अभाव मानना पड़ेगा, जबकि योग तो तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक बना रहता है। इसलिये योग के साथ मिथ्यात्व की अन्वय व्याप्ति नहीं है। अत: मिथ्यात्व के आस्त्रव के लिए भी मिथ्यात्व का उदय मात्र कारण नहीं है। मिथ्यात्व का उदय भी मिथ्यात्व का आस्त्रव नहीं करा सकता। आस्त्रव कराने वाली शक्ति तो अलग है जो आत्मा की वैभाविक परिणति है, उपयोग का एक विपरीत परिणमन है। वह कषाय है।


    मिथ्यात्व सम्बन्धी जो सोलह प्रकृतियों का आस्रव होता है उनका आस्रव कराने वाला कौन है ? तो यही कहा जायेगा कि जो अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ योग का परिणमन हो रहा है वह मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह प्रकृतियों का आस्रव करा रहा है। इसके साथ-साथ, अनन्तानुबन्धी की जो पच्चीस प्रकृतियाँ हैं उनका भी वह आस्रव करायेगा। अनन्तानुबन्धी का जिस समय अभाव होगा और यदि मिथ्यात्व का उदय भी रहा आता है तो वहाँ पर न अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी पच्चीस प्रकृतियों का आस्रव होता है और न ही मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह प्रकृतियों का ही आस्रव होता है क्योंकि कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति ही आस्रव का कारण है, जिसका अभाव है।


    मिथ्यात्व की गिनती न ही योग की कोटि में आई है और न ही कषाय की कोटि में मिथ्यात्व को रखा गया है। मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय सम्बन्धी है और कषाय चारित्र-मोहनीय सम्बन्धी है। यही अन्तर है। और योग को पारिणामिक भाव माना गया है। इस तरह मिथ्यात्व की गिनती योग में भी नहीं है। बंधुओ! मिथ्यात्व से डरो मत, डरने से वह भागेगा नहीं। तरीका यही है कि आपत्तिकाल लगा दी। आपत्तिकाल चौथा काल है इसका सम्बन्ध न भूत से है, न भविष्य से और न ही वर्तमान से है। यह काल अद्भुत काल है चतुर्थ काल की तरह। जैसे चतुर्थकाल कर्मों को हटाने के लिए, मुक्ति प्राप्त कराने के लिए कारण बनता है ऐसा ही यह काल है। मिथ्यात्व के लिए आपत्तिकाल यही है अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ रहने वाली जो लेश्या है, उसे हटा देना। लेश्या में बदलाहट तीव्रता और मंदता के रूप में होती है। जिस समय हम कषाय को मंद बना लेते हैं उस समय लेश्या शुभ होती है और शुभ लेश्या होते ही अशुभास्त्रव को धक्का लगना प्रारंभ हो जाता है। शुभ लेश्या आत्मा की ही एक अनन्य परिणति है। आत्मा के पुरुषार्थ का एक फल है। उसे शुभ और अशुभ रूप हम अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर सकते हैं। चूँकि सोलह प्रकृतियों का आस्रव जो प्रथम गुणस्थान तक ही होता है वह अनन्तानुबन्धी के साथ होता है किन्तु वहाँ मिथ्यात्व का उदय भी रहना आवश्यक है, रहता ही है इसलिए सूत्र में मिथ्यात्व को पहले रक्खा है। साथ ही अनन्तानुबन्धी को भी जोड़ दिया है। आप सूत्र को पढ़ें और चिन्तन करें तो अपने आप ही ध्वनि निकलेगी। वहाँ मिथ्यात्व के उपरान्त दूसरा अविरति का नम्बर है।


    अविरति का अर्थ है असंयम। असंयम तीन तरह का होता है- ऐसा राजवार्तिक में आया है। "असंयमस्य त्रिधा अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानोत्वात" | अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान के उदय में जो असंयम होता है वह असंयम अलग-अलग प्रकार का है। अनंतानुबंधी जन्य असंयम अलग है और अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानजन्य असंयम अलग है।


    तो मिथ्यात्व प्रकृति के जाने के साथ मिथ्यात्व तो जायेगा ही, साथ ही साथ अनन्तानुबन्धी उससे पहले जायेगी। इसलिए मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी ये आस्रव के द्वार चले गये दोनों मिलकर के। इसके उपरान्त अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान जन्य अविरति जब दोनों चले जायेंगे तो अविरति समाप्त हो जायेगी। इसके उपरान्त प्रमाद को स्थान मिला है, वह संज्वलन कषाय के तीव्रोदय से सम्बन्ध रखता है। इसके बाद कषाय का स्थान है जो मात्र संज्वलन की मंदता की अपेक्षा है और अंत में योग को स्थान दिया जो आत्मा का अशुद्ध पारिणामिक भाव है। उस योग का अभाव, जब तक 'योग' (ध्यान) धारण नहीं करेंगे तब तक नहीं होगा। इस तरह यह बंध के हेतु गुणस्थान क्रम से रखे गये।


    मिथ्यात्व सहित जो सोलह प्रकृतियाँ का आस्रव और अनन्तानुबन्धी जन्य पच्चीस प्रकृतियों का आस्रव होता है, ऐसा इकतालीस प्रकृतियों का आस्रव यह कषाय की देन है। कषाय के साथ जो योग है उसकी भी देन है। इस कषाय को हटायेंगे तो मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह और अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी पच्चीस प्रकृतियाँ सारी की सारी चली जायेंगी। इसलिए सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय की भूमिका में यह जीव जब करणलब्धि के सम्मुख हो जाता है और करणलब्धि में भी जिस समय अनिवृत्तिकरण का काल आता है, उस समय मिथ्यात्व सम्बन्धी सोलह प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है। इससे ध्वनि निकलती है कि मिथ्यात्व का उदय सोलह प्रकृति का आस्त्रव कराने में समर्थ नहीं है। अत: आस्त्रव और बंध के क्षेत्र में वह अकिंचित्कर है, यह सिद्ध हो जाता है।


    मिथ्यात्व क्या काम करता है, यह पूछो तो ध्यान रखो, उसका भी बड़ा अद्भुत कार्य है। मिथ्यात्व जब तक उदय में रहेगा तब तक उस जीव का ज्ञान भी अज्ञान ही कहलायेगा। वह जीव जब अनिवृत्तिकरण के बाद अन्तरकरण कर लेता है और दर्शन मोहनीय के तीन टुकड़े करके मिथ्यात्व का उपशम या क्षयोपशम करके औपशमिक या क्षायोपशमक सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है या जब क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय मिथ्यात्व का क्षय करता है, उस प्रसंग में भी अनन्तानुबन्धी का क्षय या उपशम पहले बताया है। सम्यग्दर्शन के साथ अनन्तानुबन्धी का उदय नियम रूप से नहीं रहता लेकिन दर्शनमोहनीय की प्रकृति का उदय रह सकता है। दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय में भी सम्यग्दर्शन रह सकता है लेकिन चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी एक कषाय का भी उदय हो तो ध्यान रखना सम्यग्दर्शन वहाँ नहीं रहेगा।


    सम्यग्दर्शन के खिलाफ जितनी अनन्तानुबन्धी कषाय है उतनी दर्शनमोहनीय भी नहीं। ऐसा सिद्ध हो जाता है। इसलिए आस्त्रव और बंध के क्षेत्र में जो मिथ्यात्व को हौआ (भय) बना रखा है और जिससे डरा रहे हैं वह हौआ नहीं है, वह आस्त्रव और बंध के क्षेत्र में अकिंचित्कर है। जो कुछ भी आस्त्रव के कारण हैं, वह है-'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाये।'


    यदि मिथ्यात्व को हटाना चाहते हैं आप लोग और विषय-कषायों में आपकी प्रवृत्ति होती जायेगी तो कभी भी मिथ्यात्व को आप हटा नहीं सकेंगे। मिथ्यात्व को बुलाने वाला बड़ा बाबा अनन्तानुबन्धी कषाय है। एक दृष्टि से कहना चाहिए, मिथ्यात्व पुत्र रूप में है और अनन्तानुबन्धी कषाय पिता की तरह है या कहो पिता का भी पिता है। क्योंकि मिथ्यात्व का आस्त्रव कराना, उसे निमंत्रण देना, उसे जगह देना, यह जो भी कार्य है सभी अनन्तानुबन्धी कषाय के सद्भाव में होते हैं। जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहेगा तब तक मिथ्यात्व Invited (आमंत्रित) रहेगा। मिथ्यात्व का द्वार अनन्तानुबन्धी है।


    'अनन्तं मिथ्यात्वं यदनुबंधनाति स अनन्तानुबन्धी' मिथ्यात्वरूपी अनन्त को बाँधने वाला यदि कोई है तो वह है अनन्तानुबन्धी। जो व्यक्ति मिथ्यात्व को कषाय की कोटि में रखकर मिथ्यात्व को हटाने का चिन्तन करता है वह मानो आवागमन के लिए सामने का दरवाजा तो बंद कर रहा है किन्तु पीछे का दरवाजा खुला रख रहा है। अनन्तानुबन्धी अनुरंजित योग, यह मिथ्यात्व के लिए कारण है। इसलिए अनन्तानुबन्धी का उदय समाप्त होते ही तत्वचिन्तन की धारा और मिथ्यात्व के ऊपर घन पटकने अर्थात् उसे हटाने की शक्ति आत्मा में जागृत होती है। जिस समय दर्शनमोहनीय के तीन खण्ड करते हैं, उस समय खण्ड करने की जो शक्ति उद्भूत होती है वह अनन्तानुबन्धी के उदय के अभाव में होती है। अनन्तानुबन्धी का उदय जब तक चलता है तब तक शक्ति होते हुए भी जीव, मिथ्यात्व को चूर-चूर नहीं कर पाता। जैसे ही अनन्तानुबन्धी समाप्त होता है, मिथ्यात्व कह देता है कि तो मैं भी जा रहा हूँ। मिथ्यात्व इतना कमजोर है। मिथ्यात्व के उदय में भी तत्व चिन्तन की धारा चलती रहती है। इकतालीस प्रकृतियों का आस्रव रुक जाता है, यह बात संवर तत्व का प्रसंग आने पर बता दूँगा।


    यह सब आत्म-पुरुषार्थ की बात है, उपयोग को केन्द्रीभूत करने की बात है। योग को शुभ के ढांचे में ढालने की प्रक्रिया है। यह पुरुषार्थ आत्मायत है, कर्मायत नहीं है। इसीलिए धवला में कह दिया कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल हम अपने पुरुषार्थ के बल पर कर सकते हैं। कथचित् अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल को देखकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की योग्यता बतायी गई है आचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा।


    इससे सिद्ध होता है कि आत्मा स्वतंत्र है, पर भूला है, भटका है, उसे सुलझाने और सही मार्ग पर लाने की आवश्यकता है। आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा इकतालीस प्रकृतियों का जो आश्रयदाता है, अनन्तानुबन्धी वह ज्यों ही चला जाता है त्यों ही सम्यग्दर्शन आ जाता है। क्योंकि 'बाधक कारणाभावन्, साधक कारण-सदभावात्'- ऐसा न्याय है कि बाधक कारण के अभाव हो जाने पर या साधक कारण के सद्भाव में साध्य की सिद्धि होती है। इसलिए सम्यग्दर्शन, अनन्तानुबन्धी कषाय के जाते ही आयेगा, अवश्य आयेगा। पुन: कहना चाहूँगा कि अनन्तानुबन्धी सर्वप्रथम जाती है। कषाय में अगर कोई बड़ा बाबा है तो वह है अनन्तानुबन्धी। मिथ्यात्व, आस्त्रव और बंध के क्षेत्र से अकिंचित्कर है, इसे नोट कर लेना।


    जब इस तरह आस्त्रव-तत्व का वास्तविक ज्ञान होता है तब हम आस्त्रव से बच भी सकते हैं। कहा गया है कि "बिन जाने तै दोष गुनन को कैसे तजिये गहिये।" गुण का ज्ञान और दोष का ज्ञान जब तक नहीं होता, तब तक तो किसी भी प्रकार से हम दोषों से बच नहीं सकते। मोक्षमार्ग में हमारे लिए गुण जो है, वह संवर है और दोष जो है वह है, आस्रव।


    मिथ्यात्व के उपरान्त जो आस्त्रव का कारण है वह है अविरति। वह अविरति अप्रत्याख्यान सम्बन्धी और प्रत्याख्यान सम्बन्धी शेष है। इसको मिटाने का भी वही उपाय है, पुरुषार्थ है, जो आत्मा को आत्मा की ओर केन्द्रित करके विषय-कषायों से बचाने रूप है। इसके उपरान्त आता है प्रमाद यानि संज्वलन कषाय का तीव्रोदय । आत्मा जब अपने आप के प्रति अनुत्सुक हो जाता है तो प्रमाद कहलाता है। अब आती है कषाय। इसका आशय संज्वलन की मंदता से है। कषाय तीव्र तब कहलाती है जब एक दृष्टि से हम लोग कषाय के उदय में अपनी जाग्रति खो देते हैं।


    ‘कषायोदयात् तीव्र परिणाम: चारित्रमोहस्य'- इसमें व्याख्यायित किया गया है कि तीव्र परिणाम ही कषाय नहीं, कषाय का तो उदय है, तीव्र परिणाम हम कर लेते हैं क्योंकि यदि चारित्रमोह आत्मा में कषाय के परिणाम पैदा करता रहे तो आत्मा के लिए, पुरुषार्थ करने हेतु जगह ही नहीं है। तो आत्मा इतना परतंत्र नहीं है, वह स्वतंत्र है। निमित-नैमितिक सम्बन्ध की अपेक्षा यह कथन है। प्रमाद के उपरान्त कषाय आती है तो वह संज्वलन के मंदोदय सम्बन्धी है उसको भी पुरुषार्थ से हटा देते हैं, समाप्त कर सकते हैं। अब आती है योग की बात, उसे समझे।


    पुण्य और पाप की बात बार-बार हम करते हैं तो ध्यान रखना यहाँ तक पहुँचने पर पाप का आस्रव तो रुक जाता है क्योंकि 'शुभ पुण्यस्याशुभः पापस्य।' यह पाप का आस्रव रुका क्यों? अपने आप रुक गया क्या? नहीं। जो योग अशुभ हो रहा था उसको शुभ बनाया हमने, तो किसके माध्यम से बनाया। अपने आप तो हुआ नहीं। संयम के माध्यम से पाप के आस्त्रव को रोका जाता है। संयम बिना पाप को रोका ही नहीं जा सकता इसलिए संयम आस्त्रव कराने वाला है, ऐसा एकान्त नहीं है। बाह्य संयम के साथ यदि आत्मा की परिणति संयममयी नहीं है तो उस समय वह शुभ का आस्त्रव कराता है लेकिन संयम के माध्यम से केवल शुभ का आस्त्रव होता है, ऐसा भी नहीं है, निर्जरा भी होती है।


    कषाय के चले जाने के बाद जो योग शेष रहा उसमें ईयपिथ आस्रव या केवल पुण्य का आस्त्रव होता है। कोई नहीं भी चाहो तो भी होता है। जबरदस्ती जैसे कोई लॉटरी का रुपया लाकर सामने रख दें तो हम क्या ऐसा कहेंगे कि नहीं चाहिए। तब कहा जाय कि आपके बिना तो कोई इसका पात्र ही नहीं है, आपको लेना ही होगा। ऐसा नहीं है कि रखना चाहो तो रख लो अन्यथा नहीं। यह ऐसा पुण्य का आस्रव है कि रखना ही पड़ेगा। केवल योग मात्र रहने पर तो पुण्य का आस्रव होगा, अवश्य होगा। उसको कोई रोक नहीं सकेगा। अब जब तक योग रहेगा तेरहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक तो वह पुण्य का आस्रव करायेगा।


    यह योग किसी कर्म की देन नहीं है। यह पहले ही कहा जा चुका है। क्योंकि चारों घातिया कर्म निकल गये फिर भी सयोग-केवली है, योग ज्यों का त्यों बना हुआ है और शुभ का आस्रव निरन्तर हो रहा है। अब योग से होने वाले आस्त्रव को रोकना है। केवली भगवान जानते हैं कि जब तक आस्रव द्वार रुकता नहीं तब तक मुझे मुक्ति नहीं, तो उन्हें भी संवर करना होगा। कर्म का संवर नहीं करते वहाँ। वह तो योग का निरोध कर देते हैं। उस योग का निरोध कर देते हैं जो आत्मा का अशुद्ध पारिणामिक भाव है। उसी से कर्म का आस्रव होता है। कषाय के साथ यदि योग है तो अशुभ का आस्त्रव होता है और कषाय रहित योग रहता है तो केवल शुभ कर्म का आस्त्रव होगा। इसलिए यदि आप पुण्य से बचना चाहते हो तो संयम से मत बचो बल्कि योग से बचो। योग से बचने का अर्थात् योग निरोध करने का उपाय है तृतीय शुक्ल ध्यान। तृतीय शुक्ल ध्यान के बिना योग-निरोध को प्राप्त नहीं होता और जब तक उसका निग्रह नहीं होगा तब तक शुभ का आस्रव होगा। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि पुण्य से मत डरो किन्तु उसके फल में समता भाव रखो। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि पुनाति आत्मानं इति पुण्यम्।


    आत्मा को पवित्र कराने वाली सामग्री या रसायन यदि विश्व में कोई है तो वह आत्मा के पास जो शुभ योग है वह है और वही पुण्य है। उस पुण्य के माध्यम से ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है लेकिन केवल पुण्य ही होना चाहिए यह भी ध्यान रखना। केवलज्ञान जिस प्रकार है उसी तरह केवल पुण्य, जिस समय आत्मा को प्राप्त होगा उस समय अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त आप केवलज्ञानी बन जाओगे।


    यथाख्यात चारित्र जिस समय जीवन में आ जाता है त्यों ही पुण्य का ही मात्र आस्रव होता है और पुण्य मात्र का आस्त्रव हो तो अन्तर्मुहूर्त के लिए पर्याप्त है आत्मा को केवलज्ञान प्राप्त कराने में। यह प्रसंग दसवें गुणस्थान तक नहीं आ सकता केवल पुण्य का आस्रव दसवें गुणस्थान तक नहीं होता दसवें गुणस्थान के बाद होता है अब इसके उपरान्त मात्र पुण्य जो है वही उस आत्मा को पाप से बचा सकता है किन्तु पुण्य को हटाने वाला कौन? पुण्य के फल को हटाने वाला तो संयम है। संयम पुण्य को नहीं हटा सकता।


    आचार्यों ने पंचेन्द्रिय के विषय को विष्टा कहा है पुण्य को नहीं कहा। यदि पुण्य को विष्टा कह दें तो केवली भगवान् भी उससे लिप्त हो जायेंगे और यह तो आगम का अवर्णवाद है, अवज्ञा है। हाँ, पुण्य की जो इच्छा करता है वह इच्छा है विष्टा। पुण्य विष्टा नहीं है। सबसे ज्यादा पुण्य का आस्रव होता है तो यथाख्यात चारित्र के उपरान्त, जो केवली भगवान् हैं उनको होता है किन्तु निरीह वृत्ति होने के कारण वे उसमें रचते पचते नहीं हैं, रमते नहीं हैं। दुनिया का कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो इतना पुण्य प्राप्त कर ले। तृतीय शुक्लध्यान का प्रयोग करके तब वे केवली भगवान शुभ का आस्रव रोक देते हैं। आत्मा से जिस समय योग का निग्रह होता है तो पुण्य का आस्रव भी बंद हो जाता है। और ज्यों ही आस्रव होना रुक जाता है, चौदहवें गुणस्थान में छलांग लगाते हैं, वहाँ भी रुकते नहीं हैं सिद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं। योग-निरोध के उपरान्त संसार की स्थिति मात्र अ, इ, उ, ऋ, लू इन पंच लघु स्वर अक्षरों के उच्चारण प्रमाण काल शेष रह जाती है और वह मुक्ति के भाजन हो जाते हैं।


    चौदहवें गुणस्थान में चार अघातिया कर्म शेष हैं और उनमें साता वेदनीय भी है, असाता वेदनीय भी है, ऐसा आचार्य कहते हैं। इससे यह फलित हुआ कि वे चारों कर्म उदय को प्राप्त होते हुए भी काम नहीं कर रहे क्योंकि काम करने वाला जो योग था वह चला गया। अब इन चारों कर्मों की निर्जरा के लिए चौथा शुक्लध्यान वे अपना लेते हैं। इस तरह योग जो है वह अन्त में जाता है और केवल पुण्य का ही आस्रव कराता है।


    इससे यह फलित होता है कि पहले पाप के आस्त्रव से बचना चाहिए क्योंकि पहले साम्परायिक आस्त्रव ही रुकेगा, उसके पश्चात् ईर्यापथ आस्त्रव जो मात्र पुण्य का आस्त्रव है वह रुकेगा। तो पहले का काम पहले करना चाहिए, बाद का काम बाद में। सौंफ इत्यादि आप पहले खा लो, बाद में रोटी खाओ तो आपको पागल ही कहेंगे लोग। इसलिए भइया! पहले पाप से तो निवृत्त हो और पाप से निवृत्त होने के लिए, पाप के आस्रव को रोकने वाला है संयम, उसे अंगीकार करो। तदुपरान्त पुण्य के आस्रव को रोकने वाला, योग का निग्रह करने वाला तीसरा और चौथा शुक्लध्यान आयेगा। यही संक्षेप में समझना चाहिए।


    आस्रव-द्वार पाँच हैं किन्तु पाँच में भी मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी को रख रक्खा है। अविरति, अनन्तानुबन्धी के अभाव में भी रहती है इसलिए अविरति से अनन्तानुबन्धी का सम्बन्ध यहाँ विवक्षित नहीं है यद्यपि अनन्तानुबन्धी के साथ ही अविरति रह सकती है, रहती भी है। पर मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी पहले जाती है फिर बाद में मिथ्यात्व जाता है इसलिए जो पहले जाता है उसे पहले भेजना चाहिए और बाद में जाने वाले की फिकर करने की आवश्यकता नहीं है। विषयों में जो बार-बार झंपापात लेता है, अनन्तानुबन्धी का स्थूल प्रतीक है। स्थूल है सूक्ष्म नहीं। ‘बह्वारम्भ परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:।' यह नरकायु का आस्रव भी अनन्तानुबन्धी के माध्यम से ही बन सकता है। क्योंकि नरक गति का बंध अनन्तानुबन्धी के साथ ही होता है। इतना ही नहीं, 'परात्मनिंदा प्रशंसेसदसद्गुणोच्छद्नोद्भावनेच नीचैर्गांत्रस्य' नीच गोत्र का बंध भी अनन्तानुबन्धी के साथ होता है। यहाँ मेरा आशय यह है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए आया है उसे यह जानना भी आवश्यक है कि पर की निंदा और अपनी आत्म प्रशंसा अर्थात् पर के गुणों को ढकना और अपनी आत्मा में नहीं होते हुए गुणों को भी प्रकट करना इत्यादि, जो कार्य हैं ये नीच गोत्र का कारण हैं।


    नीच गोत्र का आस्त्रव कहाँ तक होता है ? तो जिसने सिद्धान्त ग्रन्थ देखे हैं गोम्मटसार आदि, उन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है कि नीच गोत्र का द्वितीय गुणस्थान तक ही आस्रव होता है। इसका अर्थ है अनन्तानुबन्धी के माध्यम से ही इसका आस्रव होता है। आजकल यह प्राय: यत्र तत्र देखने सुनने को मिल रहा है। आज उपदेश का प्रयोग भी इतना ही कर लेते हैं कि दूसरे को सुनाकर और उसके माध्यम से किसी दूसरे को नीचा दिखाने का उपक्रम रच लेते हैं।


    शास्त्र का प्रयोग/उपयोग अपने लिए है, मात्र दूसरे को समझाने के लिए नहीं है। दूसरा यदि अपने साथ समझ जाता है तो बात अलग है किन्तु उसे बुला-बुलाकर आप उपदेश दोगे तो आगम में कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा कि यह जिनवाणी का एक दृष्टि से अनादर होगा। क्योंकि वह रुचिपूर्वक सुनेगा नहीं अथवा सुनेगा भी तो उसका वह कुप्रयोग कर लेगा और तब सुनाने वाला भी दोष का पात्र बन जायेगा।


    बंधुओ! पर की निन्दा करना सम्यग्दर्शन की भूमिका में बन नहीं सकता क्योंकि नीच गोत्र का बंध जो होता है वह अनन्तानुबन्धी के भावों के माध्यम से होता है जो मिथ्यात्व को बाँधने वाली कषाय है। इसलिए यदि मिथ्यात्व को हटाना चाहते हो तो मंद से मंदतर और मंदतर से मंदतम इस कषाय को बना दी। जब विषय कषायों से बच जाओगे तब चिन्तन की धारा प्रवाहित होगी और तत्व चिन्तन की धारा से हम सम्यग्दर्शन रूपी सरोवर में अवगाहित हो सकते हैं। अपने आप को समर्पित कर सकते हैं। शुद्ध बन सकते हैं, बुद्ध बन सकते हैं। लेकिन इस भूमिका के बिना कुछ भी नहीं बन सकते। जहाँ हैं वहीं पर रह जायेंगे, बातों-बातों तक, चर्चा तक ही बात रह जायेगी।


    यह सारी की सारी घटनाएँ अन्तर्घटनाएँ हैं, ये बाहरी चीजें नहीं हैं। मोक्षमार्ग एक अमूर्त मार्ग है। जिसके ऊपर कोई चिह्न या पद, या कोई निशान, कोई बोर्ड नहीं है। कोई किसी प्रकार के माइलस्टोन नहीं लगे हैं। यह तो एकमात्र श्रद्धा का विषय है और उसी श्रद्धा से अपने आप को कुछ बना सकते हैं। आप उस श्रद्धा को जागृत कर सकते हैं। भाई! विषय-कषायों से आँख मींची और उन आँखों का प्रयोग अपने आत्म-तत्व को जानने के लिए करो तो अपने लिए बहुत जल्दी सही रास्ता प्रशस्त हो सकता है, अन्तर्मुहूर्त में सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया जा सकता है और अन्तर्मुहूर्त में ही मुक्ति के भाजक भी हम बन सकते हैं। इस प्रकार आत्मा की एक प्रतिभा है, गरिमा है, महिमा है। उसे पहचानने की आवश्यकता है। क्यों व्यर्थ अनन्त संसार में भटकने का आप उपक्रम कर रहे हो। आप जब भी देखेंगे इस संसार में अनन्त संसार में मिथ्यादृष्टियों की संख्या अधिक रहेगी, सम्यग्दृष्टियों की संख्या सीमित ही रहेगी। इसलिए अपने आप के सम्यग्दर्शन को सुरक्षित रखना चाहते हो तो मिथ्यादर्शन के इस बाजार में से बचना चाहिए।
     

    जल्दी-जल्दी घर की तरफ से मन को मोड़कर अर्थात् आस्रव से मुँह मोड़कर अपने आप की ओर आना ही मोक्षमार्ग है वही श्रेयस्कर है। बाह्य जितना भी है वह सब भवपद्धति है। संसार का मार्ग है। संसार का मार्ग मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र है। उनके माध्यम से निरन्तर आस्रव ही होता है। अत: संसार मार्ग को छोड़कर संवर मार्ग पर आना चाहिए। जो आस्रव को नहीं जानेगा, आस्त्रव के कारणों को नहीं जानेगा, कौन से भावों से आस्त्रव होता है इसको नहीं जानेगा, वह रोकने का उपक्रम भी नहीं कर पायेगा और निंदा का पात्र बना रहेगा। थक जायेगा उस उपक्रम से किन्तु कोई सिद्धि मिलने वाली नहीं है।


    आस्रव और बंध के क्षेत्र में मिथ्यात्व अकिंचित्कर है और मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी के बाद जाने वाला है इसलिए मिथ्यात्व का आस्त्रव कराने वाली अनन्तानुबन्धी कषाय है और उस अनन्तानुबन्धी कषाय को निकालने का उपक्रम यही है कि हमारी जो अशुभ लेश्या है उसको शुभ बना लें, शुभतम बना लें। शुभतम जब लेश्या बनेगी तो अनन्तानुबन्धी को धक्का लगेगा। अनन्तानुबन्धी चली जायेगी तो उसके माध्यम से होने वाले सारे के सारे आस्रव रुक जायेंगे। मिथ्यात्व भी अपने आप हाथ जोड़कर चला जायेगा।


    मिथ्यात्व को हटाने का यह सही रास्ता है। आगमानुकूल है। अन्य जो भी मार्ग है आप स्वयं देखेंगे वे आगम से विपरीत होंगे। मिथ्यात्व को हटाने के लिए यदि अनन्तानुबन्धी कषाय को हटाये बिना सर्वप्रथम उसे ही (मिथ्यात्व को) हटाने का आग्रह करेंगे तो भी हटा नहीं सकेंगे। अत: कषायों को मंद करना, उसे हटाना, यही सही मार्ग है, आगम के अनुकूल मार्ग है।


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