अज्ञात का ज्ञान और अनुभव प्राप्त करके जो विशिष्ट शब्द बोले जाते हैं जिनका संबंध हमारी आन्तरिक निधि से होता है वे शब्द प्रवचन कहलाते हैं।
वचन और प्रवचन में बड़ा अन्तर है। जो साधारण शब्द हम बोलते हैं वे वचन हैं। प्रवचन वे विशेष शब्द हैं जिनका सम्बन्ध साँसारिक पदार्थों से न होकर उस अनमोल निधि से है जो हमारे अन्दर है। अज्ञात का अनुभव एवं ज्ञान प्राप्त करके जो विशेष शब्द खिरते हैं, बोले जाते हैं, वे शब्द प्रवचन कहलाते हैं। आत्मानुभूति के लिये किये गये विशेष प्रयास को प्रवचन कहते हैं। महावीर भगवान् ने अज्ञात और अदृष्ट का अनुभव प्राप्त किया। अत: जो भी वचन खिर गये वे सरस्वती बन गये। श्रुत की आराधना एक महान् कार्य है।
श्रुत के दो भेद हैं- द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत। शाब्दिक वचन द्रव्य-श्रुत हैं और अन्दर की पुकार भाव-श्रुत है। विद्वान् लोग इसी श्रुत का सहारा लेते हैं धन का सहारा नहीं लेते। वस्तुत:, विद्वान् वे ही हैं जो अनादिकालीन दुखों के विमोचन के लिये सरस्वती की आराधना करते हैं। लक्ष्मी की आराधना नहीं करते। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं
न शीतलाश्चन्दन चन्द्ररश्मयो न गागमम्भो न च हारयष्टयः ।
यथा मुनेस्तेनघ-वाक्य-रश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम्॥
हे शीतल प्रभु! विद्वान् लोग शीतलता की प्राप्ति के लिये न चन्दन का सहारा लेते हैं न चन्द्र किरणों का, न गंगा के जल का और न हार का। वे आपके वचनों का सहारा लेते हैं क्योंकि उन्हीं से वास्तविक शीतलता मिलती है।
द्रव्य-श्रुत एक चाबी की तरह है जिससे मोह-रूपी ताले को खोला जा सकता है किन्तु चाबी मिलने पर ताला खुल ही जाये ये बात जरूरी नहीं। उस चाबी का प्रयोग यदि हम किसी दूसरे ताले में करेंगे तो ताला कभी नहीं खुलेगा। आज तक हमने यही किया है। द्रव्यश्रुत के महत्व को नहीं समझा। द्रव्यश्रुत का महत्व तो तभी है जब आप इसके सहारे से अपनी अलौकिक आत्म-निधि को प्राप्त कर लें। शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार आत्मा का अनुभव कर लें। दूध में घी है किन्तु हाथ डालने मात्र से मिलने वाला नहीं। घी प्राप्ति के लिये मंथन करना पडेगा दूध का। आज तक हमने इस द्रव्यश्रुत का उपयोग आत्मा की प्राप्ति के लिये किया ही नहीं। इसीलिए विद्वान् भी लक्ष्मीवान की तरह आज तक दुखी है।
सरस्वती को दीपक की उपमा दी गई है जो हमारे मार्ग को प्रशस्त करता है किन्तु जिसके हाथ में दीपक है यदि वह भी इधर-उधर देखता हुआ असावधानी से चले तो सर्प पर भी पैर पड़ सकता है, वह भटक भी सकता है। इन्द्रियाधीन होने के कारण कषायों के शमन से ही सुख की प्राप्ति होती है और कषायों के शमन से ही भावश्रुत प्रादुर्भाव होता है। वैसे द्रव्यश्रुत और भावश्रुत दोनों ही लाभदायक हैं किन्तु भावश्रुत तो अनिवार्य रूप से लाभदायक है।
अविनाशी जीव-द्रव्य के ज्ञान के लिए शाब्दिक ज्ञान अनिवार्य नहीं है। एक साधु के पास एक शिष्य आया। बोला-"महाराज, मुझे दीक्षित कर ली, आपके सहारे से मेरा भी कल्याण हो जायेगा।" शिष्य बिल्कुल निरक्षर और कम बुद्धि वाला था। साधु महाराज ने कई मन्त्र सिखाये किन्तु उसे कोई मन्त्र याद ही नहीं होते थे। 'गुरु महाराज बड़े चिन्तित कि कैसे कल्याण हो इसका क्या करें ? इसे कुछ याद नहीं होता' आखिर उसे छह अक्षरों का एक मन्त्र महाराज ने सिखाया "मा रुष, मा तुष" अर्थात् रोष द्वेष मत करो, तोष राग मत करो। शिष्य उसे भी भूल गया और केवल उसे याद रहा तुषमास भिन्न अर्थात् छिलका अलग और दाल अलग। अचानक एक दिन उसने एक बुढ़िया माँ को दाल से छिलका अलग करते हुए देखा। बस, इसी से उसका कल्याण हो गया। ये शिष्य शिवभूति महाराज थे। जो आत्मा अलग और शरीर अलग ऐसे भेदविज्ञान को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त के लिए 'स्व' में लीन हो गये और उन्हें केवल-ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। वे मुक्त हो गये।
हमें भी भेद-विज्ञान की कला में पारंगत होना चाहिए। भावश्रुत की उपलब्धि के लिये हमारा अथक प्रयास चलना चाहिए। अरे भइया! शरीर के साथ जीवन का जीना भी कोई जीवन है? शरीर तो जड़ है और आत्मा उजला हुआ चेतन है। जिस क्षण यह भेद-विज्ञान हो जायेगा, उस समय न भोगों की लालसा रहेगी, न ही अन्य इच्छाएँ रहेंगी। मोह विलीन हुआ कि समझो दुख विलीन हुआ। सूर्य के उदित होने पर क्या कभी अंधकार शेष रह सकता है ? किन्तु आज तो इस भेद विज्ञान का भी अर्थ गलत ही लगाया जा रहा है। शरीर अलग और आत्मा अलग है। इसलिये शरीर को खूब खिलाओ-पिलाओ, आत्मा का उससे कुछ बिगाड़ होना नहीं है। यह तो अर्थ का अनर्थ है भइया! हमारी दशा तो उस बुढ़िया की तरह हो गयी है जिसकी सुई घर में कहीं खो गयी थी। अँधेरे में वह उसे ढूँढ़ नहीं पा रही थी, तब किसी ने उजाले में ढूँढ़ने का परामर्श दिया और बुढ़िया बाहर जहाँ थोड़ा प्रकाश था वहाँ ढूँढ़ने लगी, पर वहाँ कैसे मिल सकती थी। हमारी भी अनमोल निधि हमारे पास है किन्तु हम उसे बाह्य पदार्थों में ढूँढ़ रहे हैं। अर्थ का अनर्थ लगा रहे हैं। यह कैसी बिडम्बना है।
द्रव्यश्रुत आवश्यक है भावश्रुत के लिये। द्रव्यश्रुत ढाल की तरह है और भावश्रुत तलवार की तरह है किन्तु ढाल और तलवार को लेकर रणांगण में उतरने वाला होश में भी होना चाहिए। द्रव्यश्रुत द्वारा वह अपनी रक्षा करता रहे और भाव-श्रुत में लीन रहने का प्रयास करें। यही कल्याण का मार्ग है।
एक सज्जन ने मुझसे प्रश्न किया महाराज इस पंचम काल में तो मुक्ति होती नहीं। आपकी क्या राय है ? मैंने कहा कथंचित् सही है यह बात। "महाराज, जो बात सही है, उसमें भी आप कथचित् लगा रहे हैं।" वे सज्जन बोले! हाँ भाई! कथचित् लगा रहे हैं इसलिये कि आज द्रव्य-मुक्ति भले न हो, पर भाव-मुक्ति तो तुरन्त हो सकती है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन, धन आदि इनका विमोचन करो, छुटकारा पा जाओ उन पदार्थों से जिनको आप पकड़े बैठे हैं अपने परिणामों में भावों में, बस! तुरन्त कल्याण है यही तो है भाव मुक्ति। यही तो है प्रवचन भक्ति!