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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • परिग्रह

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    परिग्रह  विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. आरम्भ-परिग्रह का त्याग कर दो, शोर सूतक समाप्त, पहला सोपान यही है। मोक्षमार्ग प्रारम्भ नहीं हुआ तो संसार कितना है यह हम नहीं कह सकते। मन जितना भी हल्का होगा परिग्रह छोड़ने से ही होगा।
    2. भार छोड़कर आओगे तो यहाँ मन लगेगा वरन् धर्मध्यान में मन नहीं लगेगा। पैसा परिग्रह रखते हो तो रौद्रध्यान परिग्रहानंद से नहीं बच सकते।
    3. जड़ की सेवा हमारे यहाँ वर्जित है क्योंकि उससे बुद्धि गाफिल हो जाती है।
    4. ताला लगाना रौद्र-ध्यान का प्रतीक है, परिग्रहानंद नामक रौद्रध्यान है।
    5. शरीर का ममत्व भी परिग्रह है, यह भी अपना नहीं है, फिर कौन अपना होगा ?
    6. आत्मा परिग्रह वाला होता ही नहीं, यह भ्रम है। हम पर द्रव्य को फिर भी अपनाते हैं।
    7. परिग्रह ने आपको पकड़ रखा है कि आपने परिग्रह को। धन का लोभी अगले भव में वहीं कुंडलीमार बनकर बैठ जाता है। पर द्रव्य के वियोग में आपको पीड़ा होती है जबकि पर द्रव्य को नहीं क्योंकि परद्रव्य में ज्ञान नहीं होता।
    8. धन के बिना काम नहीं चलता लेकिन जिस धन से अपना जीवन अंधकार की ओर चला जाये वह धन किस काम का ?
    9. परिग्रह त्याग का पाठ समझ में आ गया तो लगे रहो और दूसरों को भी लगाते रहो। अर्जित धन अंजुली में पानी की तरह बह जाता है। यदि रह गया तो अगले भव में परिग्रही जीव सर्प बनकर उस परिग्रह की रक्षा करने आता है। यह पर्याय लोभ के कारण मिलती है। चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाये लेकिन जब चोर आ जावे तो सब ले जाये।
    10. अग्नि हाथ में रखोगे तो जलोगे ही वैसे ही परिग्रह हाथ में रखोगे तो चलोगे ही।
    11. अतिथि-संविभाग व्रत का अर्थ है, धन का कुछ हिस्सा देव, शास्त्र एवं गुरु की भक्ति में समर्पित करना।
    12. हमारी नाव इसलिए डूब रही है कि हमारी नाव में पानी भरता जा रहा है। पानी भीतर जा रहा है तो डॉट लगाओ।
    13. आत्मा को हल्का बनाने की प्रक्रिया परिग्रह त्याग है, पर वस्तु से दूर होना है।
    14. आत्मा का स्वभाव लकड़ी से भी ऊपर घी की तरह तैरना है।
    15. आत्मा कभी डूब नहीं सकती लेकिन परिग्रह लेप के कारण संसार में डूबी हुई है। हमने पर वस्तु को भावों से अपना लिया इसलिए सिद्ध नहीं हो सके।
    16. धन संचय से मूर्च्छा रूपी गंदगी पैदा होती है।
    17. वैभवमात्र विलासता का प्रतीक नहीं है बल्कि उसके प्रति गृद्धता का नाम विलासता है।
    18. आपत्तियों की जड़ परिग्रह है, परिग्रह वस्तुओं का नाम नहीं है बल्कि मूर्च्छा का नाम परिग्रह है।
    19. जब शरीर के प्रति भी मूर्च्छा का अभाव हो जाता है तब वह दिगम्बर मुद्रा को धारण करके मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो जाता है।
    20. राग की बुनियाद बहिरंग पदार्थ है, वह जब तक सामने केन्द्र में नहीं रहता तब तक राग हो ही नहीं सकता। इसलिए राग छोड़ने के लिए बाहरी पदार्थ का विमोचन करना आवश्यक है। तन एवं मन से त्याग होना चाहिए और फिर स्वप्न में भी बाह्य पदार्थ याद नहीं आना चाहिए।
    21. यदि शरीर के प्रति ममत्व है तो आहार, भय, मैथुन व परिग्रह रूप संज्ञाओं में यह जीव आसक्त रहता है।
    22. दूसरे पदार्थ को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव करना ही मूर्च्छा (परिग्रह) है। यह सबसे बड़ी कमजोरी है, पर पदार्थ के ग्रहण से ही जीवन में ग्रहण लग जाता है।
    23. आग के हट जाने पर पानी का उबलना बंद हो जाता है, वैसे ही परिग्रह त्याग करने के बाद मन शान्त हो जाता है, पूर्व संस्कार होने से थोड़ा अशान्त भी रह सकता है।
    24. परिग्रह का त्याग किये बिना अपने आपको ज्ञानी मानना मात्र एक नाटक ही है।
    25. दस प्रकार के परिग्रह का त्याग किये बिना आत्मा की बात करना सन्निपात रोग जैसा है।
    26. अध्यवसाय वस्तु के बिना नहीं हो सकता, इसलिए सर्वप्रथम वस्तु (परिग्रह) का त्याग करो।
    27. जहाँ परिग्रह है, वहाँ शान्ति नहीं रह सकती। परिग्रह और शान्ति का बिल्ली और चूहे जैसा जात्य वैर है।
    28. जो परिग्रह पाप में रत है, वह हमेशा और हर जगह दु:खी ही रहेगा।
    29. बाह्य और अंतरंग दोनों परिग्रह को छोड़े बिना अहिंसा धर्म की महक नहीं आ सकती आत्मानुभूति तो दूर की बात है|
    30. परिग्रह का त्याग आत्मा का कायाकल्प कर देता है, जिससे नई स्फूर्ति आ जाती है, जैसे कल्प करने से पेट साफ हो जाता है, शरीर निरोग हो जाता है और जैसे मूसलाधार वर्षा से सारा दलदल समाप्त हो जाता है।
    31. चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में स्त्री भी एक रत्न में आती है इसलिए पति-पत्नि एक दूसरे के लिए परिग्रह है। जो सौभाग्यशाली होते हैं, वे इसे अपनाते ही नहीं हैं।
    32. वस्तु परिग्रह नहीं है, उसे पकड़ने के भाव का नाम, मूर्च्छा का नाम परिग्रह है।
    33. परिग्रह उतना ही रखो जिससे धर्मध्यान में बाधा न आवे।
    34. परिग्रह को जितना छोड़ोगे उतनी हिंसा कम होगी और दया आती जावेगी। धन परिग्रह को उचित (धर्म) स्थान पर लगाना ही, खर्च करना ही उसका सदुपयोग है।

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