भव्य-अभव्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- भव्य का अर्थ होनहार होना है, जो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्रचारित्र प्राप्त करने की योग्यता रखता है, वह भव्य है।
- युक्ति और आगम के आधार पर जो धर्म को धारण करता है, वह भव्य है।
- जैसे माँ गर्भस्थ शिशु का ख्याल रखती हुई भोजन का सेवन करती है, वैसे ही गुरु महाराज स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हुए ‘भव्य' जीवों के लिए ग्रन्थ रचना करते हैं।
- अभव्य को भव्य नहीं बनाया जा सकता और भव्य को अभिशाप देकर भी अभव्य नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि स्वभाव की कभी भी कोई चिकित्सा नहीं हो सकती, विभाव की चिकित्सा तो हो सकती है।
- द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भव मिल गया लेकिन भाव स्वाश्रित है, जो भाव करता है, वह भव्य है, ऐसा ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे।
- जो कर्मदहन की बात नहीं करता, भाव नहीं करता, वह अभव्य है।
- यह संसार भव्यों से भी खाली नहीं होगा, अभव्य के समान भव्यों से भी खाली नहीं होगा और अभव्यों से तो खाली होगा ही नहीं।
- जिसे विषय विष के समान लग रहे हों, जो संसार एवं पाप से डरता हो और जिसे गुरु के वचनों पर भरोसा हो, समझना वह भव्य जीव है।
- संयम में, धर्म में, उत्साह में अभाव के कारण ही यह जीव अभव्य के समान रह रहा है।
- सम्यक दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि से विभूषित हो जावे तो उस भव्य को सुख दूर नहीं, सुख तो अंदर है।
- जब सम्यकदर्शनादि की संयोजना हो जाती है तो भव्यत्व का प्रदर्शन हो जाता है।
- वह भव्य भी कभी मुक्त नहीं होता जो रत्नत्रय की अभिव्यक्ति नहीं करता।
- भव्यत्व की सार्थकता रत्नत्रय की अभिव्यक्ति में है। अंध पाषाणवत् स्वर्ण तो रहता है पर पाषाण से निकल नहीं पाता, उपयोग में नहीं आता।
- जिस प्रकार चावल कभी अंकुरित नहीं होता कितना भी खाद पानी क्यों ना दिया जावे उसी प्रकार अभव्य कभी भी रत्नत्रय को प्राप्त नहीं कर सकता।
- मूँग और ठर्रा मूँग दोनों देखने में एक से लगते हैं पर ठर्रा मूँग समुद्र भर पानी और अग्नि दोनों से सीज नहीं सकता उसी प्रकार अभव्य भी कभी सीज नहीं सकता, यह उसका स्वभाव है।
- आत्मतत्व को यदि हम पुरुषार्थ से सिझा देते हैं तो ध्यान रखना दूध, घी बनने के बाद पुन: दूध नहीं बन सकता, यह त्रैकालिक सत्य है।
- सभी का कल्याण हो ऐसी अंदर से भावना भाने वाला भव्य ही होता है।
- किसी को अभव्य कह दो तो वह पूछ सकता है, मैं कभी मुक्त नहीं हो सकता अच्छा मैं कभी मुक्त नहीं हो सकूंगा। यदि बार-बार ऐसा भाव करता है तो समझना वह निश्चित भव्य है। हमें प्रमाद से उठना है ऐसा बार-बार भाव करने वाला भव्य है।