Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. होऊण य' णिस्संगो, णियभाव णिग्गहित्तु सुहदुहदं॥ णिद्दंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स कचण्हं॥ जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहों से रहित होकर और सुख-दुख के देने वाले कर्मजनित निज भावों को रोककर निर्द्धन्द्वता से अर्थात् निश्चिन्तता से आचरण करता है, उसके आकिञ्चन्य धर्म होता है। विहाय यः सागरवारिवाससं, वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम्। मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान्, प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥ ३॥ आदि तीर्थकर भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि जिन्होंने सागर तक फैली हुई वसुंधरा को, अपने समस्त राजवैभव को और यशस्वती और सुनन्दा जैसी वधुओं (पत्नियों) को छोड़ दिया और मुमुक्षु बनकर एकाकी वन में विचरण करने का संकल्प ले लिया, संन्यासी हो गये, प्रव्रज्या को अंगीकार कर लिया ऐसे आत्मवान् भगवान इक्ष्वाकु वंश के प्रमुख थे। आपका धैर्य सराहनीय था। आप सहिष्णु थे तथा अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। तीर्थकर का यह एक और नियम होता है कि दीक्षा के उपरान्त जब तक केवलज्ञान की उत्पति नहीं हो जाती, तब तक वे किसी से बोलते नहीं है। मौन-साधना में ही उनका काल व्यतीत होता है। आदिनाथ भगवान का काल भी ऐसा ही आत्म-साधना में एकाकी मौन रहकर बीता। एकाकी होकर मुक्ति के मार्ग पर चलना, यही सही प्रव्रज्या है। इसी बीच कुछ दिनों के बाद कहते हैं कि नमि और विनमि जो उनके पौत्र थे, वे आये और प्रार्थना करने लगे कि हे पितामह! हमें आपने कुछ नहीं दिया। हम तो कुछ भी पाने से वञ्चित रह गये। हमें भी कुछ दीजियेगा। हमें भी कुछ कहियेगा। जब बहुत देर तक कोई उत्तर नहीं मिला तो सोचा कि ये अपने ध्यान में होंगे, अत: एकदम बार-बार पूछना ठीक नहीं है और अभी जब ध्यान से उठेगे तो पूछ लेंगे। ऐसा सोचकर वे कहीं बैठ गये और संकल्प कर लिया कि कुछ लेकर ही उटेंगे। लेकिन भगवान तो भगवान हैं। वे ध्यान में लीन रहे, कुछ नहीं बोले और कोई संकेत भी नहीं किया। समय बीतता गया। वे दोनों पौत्र भी वहीं बैठे रहे। कहते हैं कि इन्द्र देव का सिंहासन हिल गया। वह आया और सारी बात समझकर बोलासुनो कुमार! आप देर से आये। भगवान तो ध्यानस्थ हो गये हैं। अब वे बोलेंगे भी नहीं, पर दीक्षा लेने से पहले वे हमसे कह गये हैं कि तुम दोनों के आने पर कह देना कि भगवान् तुम्हें विजयार्ध का राज्य दे गये हैं। ऐसा इन्द्र ने उन्हें समझा दिया। जैसे आप लोग बोल देते हैं चौके में आकर कि महाराज! हम तो इतई के आयें। बात जम गयी और दोनों ने सोचा कि भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करना चाहिए और वे उठकर विजयार्ध की श्रेणी में पहुँच गये। इन्द्र ने सोचा-चलो, अच्छा हुआ, अन्यथा भगवान् की तपस्या में विध्न हो जाता। हमने विध्न नहीं आने दिया। लेकिन भगवान् तो इस सबसे बेखबर अपने ध्यान में लीन थे। एकत्व-भावना चल रही थी। कोई भी चला आये, मन में बोलने का भाव नहीं आया। यहाँ जब किञ्चित् भी मेरा नहीं है तो किसी से क्या कुछ कहना। यही है उत्तम-आकिञ्चन्य भावना। आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय | यूँ कबहुँ इस जीव को साथी सगा न कोय || (भूधरदास कृत बारहभावना) अकेले उत्पन्न हुए और अकेले ही मर जाना है। यदि तरना चाहें तो अकेले ही तरना भी है। अकेले होने की बात और मरने की बात ये दोनों बातें संसारी प्राणी को नहीं रुचतीं। एक व्यक्ति ज्योतिषी के पास गया और पूछा कि मेरी उम्र कितनी है बताइये? ज्योतिषी ने हाथ देखकर कहा कि क्या बतायें आपकी उम्र तो इतनी लम्बी है कि आपके सामने देखते-देखते आपके परिवार के सभी सदस्य मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। सुनकर वह व्यक्ति बड़ा नाराज हुआ कहने लगा कि कैसा बोलते हो? और बिना पैसे दिये ही चला आया। पुन: वही दूसरे ज्योतिषी के पास पहुँचा और सारी बात बताकर पूछा कि मेरी उम्र-ठीक-ठीक बताइये, कितनी है? दूसरा ज्योतिषी समझ गया कि सत्य को यह सीधे सुनना नहीं चाहता। इसलिए उसने कहा कि भाई! आपकी उम्र बहुत लम्बी है। आपके घर में ऐसी लम्बी उम्र और किसी को नहीं मिली है, वह व्यक्ति सुनते ही बड़ा प्रसन्न हुआ और उसे पैसे देकर खुशी-खुशी घर लौट आया। बन्धुओ! ऐसी ही दशा प्रत्येक संसारी प्राणी की है। वह एकाकी होने से डरता है। वह मरण के नाम से डरता है। लेकिन अनन्तकाल से इस संसार में अकेला ही आ-जा रहा है। अकेला ही जन्म-मरण कर रहा है। आचार्य शुभचन्द्र जी हुए हैं जो ध्यान के महावेत्ता और ध्याता भी थे। उन्होंने अपनी ध्यान की अनुभूतियों को लिखते हुए ज्ञानार्णव में कहा है कि पर्यायबुद्धि अर्थात् शरीर में ममत्व-बुद्धि को छोड़कर साधक को ऐसी धारणा बनाना चाहिए कि मैं अकेला हूँ, नित्य हूँ, अवस्थित हूँ और अरूपी हूँ।‘नित्य' इसलिए क्योंकि आत्मा कभी मिटने वाली नहीं है।' अवस्थित' का अर्थ है- अस्तित्व कभी घटेगा-बढ़ेगा नहीं। एक रूप ही रहेगा और रूप भी वैसा कि अरूपी स्वरूप होगा। ऐसी धारणा बनाने वाला तथा आकिंचन्य भाव को भाने वाला ही ध्यान के द्वारा मुक्ति पा सकता है। मन में विचार उठ सकता है कि जब पूरा का पूरा परिग्रह छोड़ दिया, उसका त्याग हो गया एवं अकेले रह गए, तो क्या सोचना चाहिए तथा क्या धारणा बनाना चाहिए? तो कहा गया है कि अग्नि-धारणा, वायु-धारणा और जल-धारणा के माध्यम से ध्यान करना चाहिए। अग्नि-धारणा के माध्यम से कर्मों का ईंधन जल गया है। वायु उसे उड़ा ले गयी है और जल की वृष्टि होने से सारा का सारा वातावरण स्वच्छ हो गया है। आत्मा विशुद्ध हो गयी है। कुछ भी उस पर शेष नहीं रह गया है। एक अकेली आत्मा का साक्षात् अनुभव हो रहा है। एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ (भावपाहुड, ५९) में एक अकेला शाश्वत आत्मा हूँ, जानना-देखना मेरा स्वभाव है, शेष जो भी भाव हैं, वे सब बाहरी हैं तथा संयोग से उत्पन्न हुए हैं। एक सेठ जी थे। किसी ने मुझे सुनाया था कि वे बड़े अभिमानी थे। उन्होंने दस-बारह खण्ड के भवन का निर्माण कराया। एक बार कोई एक साधु जी उनके यहाँ आये। अतिथि की तरह उनका स्वागत हुआ और भोजन के उपरान्त सेठ जी बड़े चाव से उन्हें साथ लेकर पूरा का पूरा भवन दिखाने लगे और अन्त में दरवाजा आया तो सभी बाहर निकल आये। साधु जी के मुख से अचानक निकल गया कि एक दिन सभी दरवाजे के बाहर निकाल दिये जाते हैं, तुम भी निकाल दिये जाओगे। सेठ जी हतप्रभ खड़े रह गये। साधु जी चले गये। सेठ जी अकेले खड़े-खड़े सोचते रहे कि क्या मुझे भी एक दिन बाहर निकल जाना होगा? भइया! स्वर्ण की नगरी लंका नहीं रही, रावण नहीं रहा, अयोध्या का वैभव नहीं रहा। कृष्णजी नारायण थे लेकिन उनका भी अवसान हुआ, सो वह भी जंगल में। दुनियाँ में सैकड़ों आये और चले गये। ऐसे ही सभी को अकेले-अकेले ही यहाँ से चले जाना होता है। चक्रवर्ती दिग्विजय के उपरान्त विजयार्ध पर्वत के उस ओर वृषभगिरि के ऊपर अपनी विजय की प्रशस्ति और अपना नाम लिखने जाते हैं, तब वहाँ पहुँचकर मालूम पड़ता है कि हमसे पहले सैकड़ों चक्रवर्ती हो चुके हैं। पूरे पर्वत पर कोई स्थान खाली नहीं मिलता जहाँ अपना नाम लिखा जा सके। यह संसार ऐसा ही है। अनादिकाल से यह चल रहा है। 'जीव अरु पुद्गल नाचै। यामैं कर्म उपाधि है' (मंगतराय-कृत बारहभावना)इस रहस्य को समझना होगा। इसकी कथा इतनी लम्बी-चौड़ी है कि तीर्थकर भगवान् ही केवलज्ञान से विभूषित होकर इसे जान सकते हैं। इस रहस्य को थोड़ा बहुत जानकर के अपने आपको अकेला समझने का प्रयास करना चाहिए। संसार एक ऐसा स्वप्न है जो सत्य सा मालूम पड़ता है। जैसे कोई व्यक्ति नाटक में कोई भी वेश धारण करता है तो उसी रूप में अपने को मानने लगता है और खुश होता है। कभी-कभी वह नाना वेश बदल-बदल कर लोगों के सामने आता है, तब अपने वास्तविक रूप को उस क्षण पहचान नहीं पाता। ऐसे ही संसारी प्राणी संसार में सारे वेषों से रहित होकर अकेले अपने रूप का अनुभव नहीं कर पाता। स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने वाला कोई विरला ही अपने इस आकिञ्चन्य भाव का अनुभव कर पाता है। घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ देवागमस्तोत्र (आप्तमीमांसा) देवागम स्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र स्वामी आप्त की मीमांसा करते हुए अन्त में अध्यात्म की ओर ले जाते हैं। शान्ति आत्मा के भीतर जाने में ही है। बाह्य परिधि में चक्कर लगाते रहने से शान्ति नहीं मिलती। स्वर्ण की विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा जो देखता है, वह पर्याय में हर्ष या विषाद को प्राप्त होता है। एक को स्वर्ण के कुम्भ की आवश्यकता थी और दूसरे को स्वर्ण के मुकुट की आवश्यकता थी। मान लीजिये, अभी स्वर्ण, कुम्भ के रूप में था और अब सुनार ने उसे मिटाकर मुकुट का रूप धारण करा दिया तो कुम्भ या घड़ा जिसे चाहिए था वह रोने लगा कि मेरा कुम्भ फूट गया। जिसे मुकुट चाहिए था वह हँसने लगा कि मुझे मुकुट मिल गया। किन्तु जिसे स्वर्ण की आवश्यकता थी, वह दोनों ही स्थितियों में न हँसा न रोया, क्योंकि उसे जो स्वर्ण चाहिए था, वह तो मुकुट हो या कुम्भ हो, दोनों में विद्यमान था। यही तो स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने का फल है। हमें विचार करना चाहिए, कि बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है- सो मैं नहीं हूँ और वह मेरा भी नहीं है ये आँखें मुझे (आत्मा)को देख नहीं सकतीं मेरे पास देखने की शक्ति है..... (मूकमाटी महाकाव्य) इन आँखों से केवल बाहरी वातावरण ही देखने में आता है। जो इन आँखों से देख रहा है, वह नहीं दिख पाता। उसे ये आँखें देख नहीं पाती। देख भी नहीं सकतीं। तब फिर जो दिखाई पड़ रहा है, आँखों से, वह मैं कैसे हो सकता हूँ और वह मेरा कैसे हो सकता है? अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदा रूवी। णावि अत्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि॥ (समयसार ४३) मैं अकेला हूँ। शुद्ध हूँ। आतमरूप हूँ। मैं ज्ञानवान और दर्शनवान हूँ। मैं रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप नहीं हूँ। सदा अरूपी हूँ। कोई भी अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। इस प्रकार की भावना जिसके हृदय घर में हमेशा भरी रहती है, ध्यान रखना, उसका संसार का तट बिल्कुल निकट आ चुका है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस भावना को निरन्तर भाते रहने से ही हमें वैराग्य आ सकता है। इस भावना के द्वारा ही हमारे भीतर के कर्म के बंधन छूट सकते हैं। संसार में कर्तृत्व बुद्धि और भोक्तृत्व बुद्धि, स्वामित्व बुद्धि, इन तीनों प्रकार की बुद्धियों के द्वारा ही संसारी प्राणी की बुद्धि समाप्त हो गयी है। वह बुद्धिमान होकर भी बुद्ध जैसा व्यवहार कर रहा है। अनन्तों बार जन्म-मरण की घटना घट चुकी है और अनन्तों बार जन्म-मरण के समय एकाकी ही इस जीव ने अपनी संसार की यात्रा की है। आज अपने को समझदार मानने वाला भी मझधार में ही है। थोड़ा विचार करें तो ज्ञात होगा कि कितनी पर्यायें, कितनी बार हमने धारण की और कितनों का संयोग-वियोग हमारे जीवन में हुआ है। जिसके वियोग में यहाँ पर हम रोते हैं, वह मरण के उपरान्त एक समय में ही अन्यत्र कहीं पहुँचकर जन्म ले लेता है और वहीं रम जाता है। विष्टा का कीड़ा विष्टा में राजी वाली बात है। उसके वियोग में हमारा रोना अज्ञानता ही है। आचार्य कहते हैं कि यह सब पराये को अपना मानने का तथा पर-पदार्थों में एकत्व-बुद्धि रखने का ही परिणाम है। पर के साथ एकत्व बुद्धि छोड़ना ही एक मात्र पुरुषार्थ है। छोड़ते समय जिसे ज्ञान और विवेक जागृत हो जाता है उस की आँख खुल गयी है, ऐसा समझना चाहिए। दुनियाँ के सारे संबंधों के बीच भी मैं अकेला हूँ, यही भाव बना रहना आकिञ्चन्य धर्म का सूचक है। ‘सागर' में एक बार बोली लग रही थी, तब तक बोली तेरा सौ एक रुपये में गयी। हमने तो वही विचार किया कि अच्छा रहस्य खुल गया 'तेरा सो एक' अर्थात् हमारा यदि कुछ है तो वह हमारा यही एकाकी भाव है। इस संसार में किसी का कोई साथी-सगा नहीं है। आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय। यूँ कबहुँ इस जीव को, साथी सगा न कोय। (भूधरदास कृत बारहभावना) बन्धुओ! समझ लो एवं सोच ली। यह जो ऊपर पर्याय दिख रही है, यह वास्तव में हमारी नहीं है। हम इसी के लिए निरन्तर अपना मानकर परिश्रम कर रहे हैं, और दुख उठा रहे हैं। विवेक के माध्यम से इस पर्याय को अपने से पृथक् मानकर के यदि इस जीवन को चलाया जाये, जो जीवन आज दुखमय बना है, वही आनन्दमय हो जाएगा। जिसकी तत्व पर दृष्टि चली जाती है, वह फिर पर्याय को अपना आत्म-तत्व नहीं मानता और न ही पर्याय में होने वाले सुख-दुख को भी अपना मानता है। यही आध्यात्मिक उपलब्धि है। इसके अभाव में ही जीव संसार में यहाँ-वहाँ भटकता रहता है और निरन्तर दुखी होता है। हमारी इस प्रवृत्ति को देखकर आचार्यों को करुणा आ जाती है। छहढाला की पहली ढाल में कहा है - 'कहें सीख गुरु करुणा धारि' -वे करुणा करके हमें उपदेश देते हैं, शिक्षा देते हैं कि पाँच मिनट के लिए ही सही लेकिन अपनी ओर, अपने आत्म-तत्व की ओर दृष्टि उठाकर तो देखो, जो कुछ संसार में दिखाई दे रहा है, वह सब कर्म का फल है। अज्ञान का फल है। आत्मा के स्वभाव का फल तो जिन्होंने आत्म-स्वभाव को प्राप्त कर लिया है, उसके चरणों में जा कर ही जाना जा सकता है। बाहर के जगत् में सिवा दुख के और कुछ हाथ नहीं आता। भीतर जगत् में जाकर देखें कि भीतर कैसा खेल चल रहा है। कर्म किस तरह आत्मा को सुख-दुख का अनुभव करा रहा है। यह आत्म-दृष्टि पाना एकदम सम्भव नहीं है। यह मात्र पढ़ने या सुनने से नहीं आती। इसे प्राप्त करने के लिए जो रत्नत्रय से युक्त हैं, जो वीतरागी हैं, जो तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखते, उनके पास जाकर बैठिये। पूछिये भी मत, मात्र पास जाकर बैठिये तो भी अपने आप ज्ञान हो जायेगा कि वास्तव में सुख तो अन्यत्र कहीं नहीं है। सुख तो अपने भीतर एकाकी होने में है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि- सम्मत्तस्स णिमित्तं, जिणसुक्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा, दंसणमोहस्स खयपहुदी॥५३॥ अर्थात् सम्यकदर्शन का अंतरंग हेतु तो दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होता है लेकिन उसके लिए बहिरंग हेतु तो जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे सूत्र- वचन और उन सूत्रों के जानकार ज्ञाता-पुरुषों का उपदेश श्रवण है। इसके सिवाय और कोई ऐसा उपाय नहीं है जिसके माध्यम से हम दर्शन मोहनीय या चारित्र मोहनीय को समाप्त कर सकें और अपने आत्म-स्वरूप को प्रकट कर सकें। रागद्वेष रूपी रसायन के माध्यम से यदि कमों का बंध होता है, संसार का निर्माण होता है तो वीतराग भावरूपी रसायन के माध्यम से सारे के सारे कमों का विघटन भी सम्भव है। वीतरागी के चरणों में जाकर हमें अपने रागभाव को विसर्जित करना होगा, 'पर" पदार्थों के प्रति आसक्ति को छोड़ना होगा, तभी एकत्व की अनुभूति हो सकेगी। अकेले इच्छा करने मात्र से कोई अकेलेपन को अर्थात् मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। इच्छा मात्र से सुख की प्राप्ति नहीं होती और न ही मृत्यु से डरते रहने से कोई मृत्यु से बच पाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सुपाश्र्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि- बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः । तथापि बालो भयकामवश्यो, वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादी:॥ ४॥ देखो, यह संसारी प्राणी कितना अज्ञानी है कि मृत्यु से हमेशा डरता है। लेकिन मृत्यु से डरने मात्र से कभी मृत्यु से बचा नहीं जा सकता और सुख की इच्छा हमेशा रखता है लेकिन सुख की इच्छा मात्र से सुखी भी नहीं हो सकता। फिर भी यह संसारी प्राणी भय और कामवासना के वशीभूत होकर व्यर्थ ही स्वयं को पीड़ा में डाल देता है। असल में जब तक यह ज्ञान नहीं होता कि शरीर मेरा नहीं है तब तक इस के प्रति रागभाव बना रहता है। यही रागभाव हमारी मुक्ति में बाधक है। इसी के कारण मृत्यु से हम मुक्त नहीं हो पाते और न ही हमें शिव-सुख की प्राप्ति होती है। एक बार यदि यह संसारी प्राणी वीतरागी के चरणों में जाकर अपने को अकेला मानकर उनकी शरण को स्वीकार कर ले और भीतर यह भाव जागृत हो जाये कि 'अन्यथा शरण नास्ति त्वमेव शरणां मम' एकमात्र वीतरागता के सिवाय, आकिञ्चन्य धर्म के सिवाय मेरे लिए और कोई शरण नहीं है। शरण यदि संसार में है तो एकमात्र यही है। तब संसार का अभाव होने में देर नहीं लगेगी। राग सहित जग में रुल्यो, मिले सरागी देव। वीतराग भेट्यो अबै मेटो राग कुटेव॥ विनयपाठ अभी तक संसार में राग सहित रुलता रहा, भटकता रहा और सरागता को ही अपनाता रहा। रागी व्यक्ति राग को ही खोज लेता है और उसी को अपनाता जाता है। उसी में शरण या सुरक्षा मान लेता है, उसी को अपना संगी-साथी और हितैषी मानकर संसार में रुलता रहता है। अगर मन में ऐसा विचार आ जाये कि संसार में मैं भी सरागता के कारण रुल रहा हूँ। आज बड़े सौभाग्य से वीतरागता का दर्शन हुआ है। वीतरागी के चरण सान्निध्य का सौभाग्य मिला है। वीतरागी से भेंट हो गयी है। अब यही वीतरागता मेरी राग की ओर बार-बार जाने वाली आदत को मिटाने में सहायक होगी तो कल्याण होने में देर नहीं। सभी के प्रति रागभाव से मुक्त होकर, एकाकी होकर अपने वीतराग स्वरूप का चिन्तन करना ही आज के आकिञ्चन्य धर्म की उपलब्धि होगी। हमारा क्या है? ऐसा विचार करें तो ज्ञात होगा कि हमारा तो सिद्धत्व है। हमारा तो ज्ञानपना है, दर्शनपना है। हमारा परिवार हम स्वयं ही है। हमारे पिता और माता भी हमीं हैं। हमारी सन्तान, पुत्र आदि भी हमीं हैं। इस संसार में कोई ‘पर' पदार्थ हमारा नहीं है और हो भी कैसे सकता है? ऐसा भाव आप बनाते जाइये, एक समय आयेगा कि जब यह ऊपर का दिखाई पड़ने वाला सम्बन्ध मिट जायेगा और अनन्तकाल के लिए हम एकाकी होकर अपने आत्म-आनन्द में लीनता का अनुभव करेंगे।
  2. शिक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संयतज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है और वही शिक्षा है। दवाई एक-एक चम्मच लेना ही सही है। शिक्षा के लिए परीक्षा एक अंग मात्र है उसके माध्यम से सर्वागीण मूल्यांकन नहीं होता। सर्वागीण मूल्यांकन तो उसकी चर्या, व्यवहार से होता है। सर्वागीण विकास के लिए अनिवार्य पाँच पक्ष है- १. शारीरिक, २. मानसिक, ३. व्यावहारिक,४. नैतिक और ५. आध्यात्मिक। - १. शारीरिक-रुग्ण रहोगे तो शरीर ठीक काम नहीं करेगा। २. मानसिक-संतुष्टि हो, अस्थिरता न हो, चंचलता का अभाव; शिक्षा के ये गुण हैं। ३. व्यावहारिक-अपने जीवन काल में पुरुषार्थ सही हो। ४. नैतिक-हमारी नीति साफ सुथरी हो, कषाय का अभाव हो। ५. अाध्यात्मिक-अात्म तत्त्व की प्राप्ति । ये पाँचों पक्ष अच्छे तैयार होना चाहिए। जैसे अनिवार्य प्रश्न को हल करना होता है वैसे ही पाँचों पक्ष अनिवार्य हैं। जो दिया उसको अच्छी तरह से पचा लेना चाहिए। वह प्राणमय बन जाये, अंदर उतर जाये इससे मनोबल बढ़ता है तो प्रतिभा भी निखरती है। जैसे भोजन में हम पचने के लिए तीन घंटे करीब अंतराल रखते है, इसी तरह बच्चों को कुछ शिक्षा दी फिर उसे पचाने के लिए समय मिलना चाहिए। पढ़ना तो ज्ञान से नहीं होता है, ध्यान से होता है। ज्ञान जब तक संयत न हो ध्यान नहीं लगता इसलिए ज्ञान से नहीं ध्यान से पढ़ा करो। आज सरस्वती की आराधना न होकर वह बेची जाती है, आज आपके बच्चे बिक रहे हैं। आप दहेज के लिए अभिशाप मानते हो, मैं पैकेज को उससे बड़ा महाभूत मानता हूँ। आप यदि किसी के वशीभूत हो जायेंगे पैसे के बल पर तो काम नहीं कर पाओगे अपने देश के लिए। व्यवहारिकता अथवा कर्तव्यनिष्ठता यदि नहीं है तो कैसी शिक्षा?
  3. णिव्वेगतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवेच्चागो, इदि भणिदं जिणवरदेह॥ जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह को छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। उत्तम त्याग की बात है। दान और त्याग-ये दो शब्द आते हैं। दोनों में थोड़ा सा अन्तर है। रागद्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम 'त्याग" है। वस्तुओं के प्रति रागद्वेष के अभाव को ‘त्याग' कहा गया है। दान में भी रागभाव हटाया जाता है किन्तु जिस वस्तु का दान किया जाता है, उसके साथ किसी दूसरे के लिए देने का भाव भी रहता है। दान पर के निमित्त को लेकर किया जाता है किन्तु त्याग में पर की कोई अपेक्षा नहीं रहती। किसी को देना नहीं है, मात्र छोड़ देना है। त्याग ‘स्व” को निमित्त बनाकर किया जाता है। दान-रूप त्याग के द्वारा जो सुख प्राप्त होता है वह अकेले 'स्व' का नहीं, 'पर' का भी होता है। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ में आया है कि 'स्वपरानुग्रहहेतोः' 'स्व' के ऊपर अनुग्रह और 'पर' के ऊपर भी अनुग्रह जिससे हो वही दान रूप त्याग धर्म है। जो धर्म में स्खलित हो गये हों, मोक्षमार्ग से च्युत होने को हों, संकट में फंसे हुए हों, उनको सही मार्ग पर लगाना यह तो हुआ 'पर' के ऊपर अनुग्रह और 'स्व" के ऊपर अनुग्रह। इस माध्यम से होने वाला पुण्य का संचय है। पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि 'परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः स्वोपरोकारः पुण्यसञ्चय:' जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यकदर्शन, ज्ञानादि की वृद्धि होती है, यही 'पर' का उपकार है और दान देने से जो पुण्य का सञ्चय होता है वह अपना उपकार है। आचार्यों ने दान, पूजा शील और उपवास को श्रावक के प्रमुख कर्तव्यों में गिना है। अतिथि सत्कार करना भी प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है। यह सभी शुभ क्रियाएँ लोभ को शिथिल करने के लिए हैं। जो लोभ कर्म हमारे आत्मप्रदेशों पर मजबूती से चिपक गया है, जिससे संसारी की नि:श्रेयस और अभ्युदय की गति रुक गयी है, उस लोभ-कर्म को तोड़ने का काम यही त्याग धर्म करता है। त्याग और दान का सही-सही प्रयोजन तो तभी सिद्ध होता है, जब हम जिस चीज का त्याग कर रहे हैं या दान कर रहे हैं, उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान-सम्मान पाने का लोभ न हो। क्योंकि जिस वस्तु के प्रति मोह के सद्भाव में कर्मों का बंध होता है, वही वस्तु मोह के अभाव में निर्जरा का कारण बन जाती है। बंधन से मुक्ति की ओर जाने की सरलतम उपाय यदि कोई है तो वह यही त्याग धर्म और दान है। 'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय' (दौलतराम कृत-जिनेन्द्रस्तुति) सामान्य व्यक्ति भी अहितकारी वस्तुओं को सहज ही छोड़ देता है। विष को जिस प्रकार सभी प्राणी सहज ही छोड़ देते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि विषय-भोग की सामग्री को अहितकर जानकर छोड़ देते हैं। विषयों को छोड़ने से नियम से भीतर पड़ा हुआ कषाय का संस्कार शिथिल हो जाता है। 'पद्मनंदी-पञ्चविंशतिका' द्वितीय अध्याय में तो एक स्थान पर यह उल्लेख किया है कि अतिथि के दर्शन से जो अहोभाव होता है, उसके निमित्त से मोह का बंधन ढीला पड़ जाता है। सत्पात्र को दान देकर वह निरन्तर अपने मोह को कम करने में लगा रहता है। दान के माध्यम से ‘स्व' और ‘पर' के अनुग्रह में विशेषता यह है कि ‘पर' यानि दूसरा तो निमित है, उसका अनुग्रह हो भी और नहीं भी, लेकिन 'स्व” के ऊपर अर्थात् स्वयं के ऊपर अनुग्रह तो नियम से होता ही है। मान लीजिये, जैसे तालाब में बाँध बना दिया जाता है और पानी जब तेजी से उसमें भरने लगता है तो लोगों को चिंता होने लगती है कि कहीं पानी के वेग से बाँध टूट न जाये, क्योंकि संग्रहित हुए पानी की शक्ति अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। जो बाँध बनाते हैं वे लोगों को समझा देते हैं कि हमने पहले से ही व्यवस्था बना रखी है। घबराने की कोई बात नहीं है। हमारे पूर्वजों ने पहले ही हमें शिक्षा दे रखी है कि कहीं प्रवेश करो तो बाहर आने का रास्ता पहले ही देख लेना चाहिए, नहीं तो भीतर जाकर अभिमन्यु की तरह स्थिति हो सकती है। तालाब को बाँधते समय ही पानी के निकालने की व्यवस्था कर दी जाती है। मोरी (गेट) बना देते हैं, तब पानी अधिक होने पर उसमें से अपने आप बाहर निकलने लगता है। आपको ‘जयपुर' की घटना याद होगी। कैसी भयानक स्थिति बन गयी थी? राजस्थान में हमेशा पानी की कमी रहती है पर उस समय ऐसी वर्षा हुई कि लगातार दो दिन तक पानी ही पानी हो गया और भारी क्षति हुई। कारण यही था कि पानी तो आता गया, लेकिन निकलने का मार्ग नहीं था। आप समझ गये होंगे कि संग्रह ही संग्रह करते जायेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? परिग्रह की सीमा होनी चाहिए। दान करने की आवश्यकता उसी परिग्रह को सीमित बनाये रखने के लिए है। आप यहाँ तीर्थ क्षेत्र पर बैठे हैं। सुबह से शाम तक धर्मध्यान चल रहा है। यहाँ पर किसी प्रकार की द्विविधा नहीं है। सभी रागद्वेष से बचकर वीतराग धर्म की उपासना में लगे हैं। यही यदि आप किसी बड़े शहर में करना चाहते तो दुनियाँ भर की परेशानियाँ आतीं। नगर-पालिका से या और लोगों से जगह के लिए स्वीकृति (परमीशन) की आवश्यकता पड़ती। वहाँ शोरगुल के बीच धर्मध्यान करना संभव नहीं हो पता। लेकिन यहाँ इस तरह की कोई परेशानी नहीं है। यहाँ बंध नहीं है। यहाँ तो धर्मध्यान के द्वारा असंख्यात गुणी निर्जरा ही हो रही है। तीर्थक्षेत्र का यही प्रभाव है, या कहिये श्रावक के चार धमों- 'दाणां-पूजा-सील मुववासो सावयाणां चउव्विही धममो' (कसायपाहुड) दान, पूजा, शील और उपवास में से विशिष्ट दान का सुफल है। महापुराण में आचार्य जिनसेन लिखते हैं कि भूदान, ग्रामदान, आवासदान, यह सभी दान अभयदान के अन्तर्गत आते हैं। ‘पाड़ाशाह' ने यहाँ मन्दिर का निर्माण कराया। शान्तिनाथ भगवान की मनोज्ञ विशाल प्रतिमा जी की स्थापना करायी, जिससे आज तक लाखों लोग यहाँ पर आकर दर्शन-वंदन का लाभ ले रहे हैं। अभिषेक और पूजन करके अपने पापों का विमोचन कर रहे हैं। वीतराग-छवि के माध्यम से वीतरागता का पाठ सीख रहे हैं। पूर्व में कैसे-कैसे उदार-दाता थे, यह बात इन तीर्थों को देखकर सहज ही समझ सकते हैं। त्याग हमारा परम धर्म है। कितनी अच्छी पंक्तियाँ कवि दौलतराम जी ने छहढाला में लिखी हैं यह राग आग दहे सदा तातें समामृत सेइये। चिर भजे विषयकषाय अब तो त्याग निजपद बेइये ॥ संसारी प्राणी अपने जीवन के बारे में न जाने कितने तरह के कार्यक्रम बनाता है, पर अहित के कारणभूत रागद्वेष-भाव को त्याग करने का कोई कार्यक्रम नहीं बनाता। बन्धुओ! विषय-कषाय का त्याग ही इस संसार के भीषण दुखों से बचने का एकमात्र उपाय है। इमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरो। जबलों न रोग जरा गहै तबलों झटिति निज हित करो ॥ कितनी भीतरी बात कही है तथा कितनी करुणा से भरकर कही गयी है कि संसार की वास्तविकता की जानकर अब आलस मत करो, साहस करके इस शिक्षा को ग्रहण करो कि जब तक शरीर नीरोग है, बुढ़ापा नहीं आया, तब तक जल्दी-जल्दी अपने हित की बात कर लो। भविष्य के भरोसे बैठना ठीक नहीं है। भविष्य का कोई भरोसा भी नहीं है। अगले क्षण क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। बाढ़ आती है और देखते-देखते लोग सँभल भी नहीं पाते और सब बाढ़ में बह जाते हैं। भूकम्प आते हैं और क्षण भर में हजारों की संख्या में जनता मारी जाती है। बन्धुओ! मृत्यु के आने पर कौन कहाँ चला जाता है, पता भी नहीं लगता। सारी की सारी सम्पदा यहीं की यहीं धरा पर धरी रह जाती है। नाम-पता सब यहीं पर पड़ा रह जाता है। इस बीच यदि कोई अपने मन में त्याग का संकल्प कर लेता है तो उसके आगामी जीवन में सुख-शान्ति की सम्भावना बढ़ जाती है। जीवंधरकुमार और उनके पिता राजा सत्यंधर की कथा बहुत रोचक है। प्रेरणास्पद भी है। जीवंधर के पिता जीवंधर के जन्म से पहले विलासिता में इतने डूबे रहते थे कि राज्य का कामकाज कैसा चल रहा है, ध्यान ही नहीं रख पाते थे। मन्त्री ने सोचा-अच्छी सन्धि (अवसर) है। उसने भीतर ही भीतर राज्य हड़पने की योजना बना ली और किसी को कुछ पता ही नहीं चला। जब मालूम पड़ा तो राजा सत्यंधर सोच में पड़ गये कि अब क्या किया जाए? जीवंधर की माँ गर्भवती थी और जीवंधर कुमार गर्भ में थे। वंश का संरक्षण करना आवश्यक है, इसलिए पहले जल्दीजल्दी उनको केकी (मयूर) यन्त्र चालित विमान में बिठाकर दूर भेज दिया और स्वयं युद्ध की तैयारी में लग गये। अपने ही मन्त्री काष्ठांगार से युद्ध करते-करते राजा सत्यंधर के जीवन का अन्त समय जब निकट आ गया तो वे विचार मग्न हो गये सर्वं निराकृत्य विकल्प – जालं, संसार-कान्तार-निपातहेतुम्। विवित्तमात्मान-मवेक्षमाणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे॥ २९॥ (अमितगति आचार्य कृत भावना-द्वत्रिंशतिका) पहले राजा लोग बड़े सजग होते थे। पुत्र रत्न की प्राप्ति होते ही घर द्वार छोड़कर तपस्या के लिए वन में जाकर दीक्षा धारण कर लेते थे। यदि आकस्मिक मृत्यु का अवसर आ जाता तो तत्काल सब छोड़कर आत्म-कल्याण के लिए संकल्पित हो जाते थे। यही राजा सत्यंधर ने किया। वे रणांगण में ही दीक्षित होकर सद्गति को प्राप्त हुए। त्याग जीवन का अलंकार है, क्योंकि गृहस्थावस्था में भले ही राग भाव से विभिन्न प्रकार के अलंकार धारण किये जाते हैं, लेकिन मुनि अवस्था में त्याग भाव ही अलंकार है। पहले श्रावक होते हुए भी पण्डित वर्ग में त्याग की भावना कूट-कूट कर भरी थी। पं. दौलतराम जी के बारे में कहा जाता है कि वे छोटा सा वस्त्रों की रँगाई का काम करते थे। लेकिन ‘छहढाला' का निर्माण किया, जिसे पढ़ने पर स्वत: ही मालूम पड़ जाता है कि कैसी भीतरी त्याग की भावना रही होगी।'कब मिल हैं वे मुनिराज' जैसी भजन की पंक्तियाँ लिखीं मिलती हैं, क्योंकि उस समय उनको मुनिदर्शन का अभाव खटकता होगा। शास्त्र में जैसे त्याग तपस्या के उदाहरण लिखे हैं, उनको पढ़कर वे गद्गद् हो जाते थे और उसी की ओर अग्रसर होने की भावना रखते थे। तभी तो भजन के माध्यम से उन्होंने ऐसे भाव व्यक्त किये। एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि त्याग की साक्षात् जीवित मूर्ति के समागम के बिना त्याग के मार्ग में अग्रसर होना सम्भव नहीं है। जैसे कहा जाता है कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है अर्थात् पकने लगता है, ऐसे ही त्यागी-व्रती को देखकर त्याग के भाव सहज ही जागृत हो जाते हैं। बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च॥ ३७॥ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५ बन्ध होते समय दो अधिक शक्त्यंश वाला, दो हीन शक्त्यंश वाले का परिणमन कराने वाला होता है। कोई त्यागी ऐसा अद्भुत त्याग कर देता है कि जिसे देखकर रागी के मन में भी त्याग भाव आ जाता है। लेकिन यह भी ध्यान रखना कि त्याग स्वाधीन है अर्थात् अपने आधीन है। त्याग की भावना उत्पन्न होना स्वाश्रित है। निमित्त को लेकर उसमें तेजी आ जाती है। इसी अपेक्षा यह बात कही गयी है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा है कि- कर्मपरवशे सान्ते, दु:खैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता॥१२॥ सांसारिक सुखों की वाञ्छा व्यर्थ है, क्योंकि सांसारिक सुख सब कर्माधीन हैं। कर्म का उदय कैसे-कैसे परिवर्तन लायेगा, कहा नहीं जा सकता। एक ही रात में नदी अपना रास्ता बदल लेती है और सब तहस-नहस हो जाता है। सुन्दर उपवन के स्थान पर रेगिस्तान होने में देर नहीं लगती। चले जा रहे हैं रास्ते में और अचानक जीप पलट गयी। जीवन का अन्त हो गया, तो जीप क्या पलटी, वह तो भीतरी कर्म ही पलट गया। यही तो कर्माधीन होना है। सांसारिक सुखों की आकांक्षा दुख लेकर आती है, और दुख का बीज छोड़कर जाती है। ऐसे सांसारिक सुखों में निकांक्षित सम्यग्दृष्टि आस्था नहीं रखता। सम्यग्दृष्टि तो अर्थ (सम्पत्ति) में नहीं, परमार्थ में आस्था रखता है। जैसे सांसारिक मामलों में सही व्यापारी वही माना जाता है, जो अपने व्यापार में दिन-दूनी रात-चौगुनी वृद्धि करता है और अर्थ के माध्यम से अर्थ कमाता है। ऐसे ही परमार्थ के क्षेत्र में परमार्थ का विकास परमार्थ के माध्यम से होता है अर्थात् अर्थ के त्याग के माध्यम से होता है। जितना-जितना आप अर्थ के बोझ से मुक्त होंगे, अर्थ का त्योग करते जायेंगे, उतना-उतना परमार्थ भाव के द्वारा ऊपर उठते जायेंगे। परमार्थ भाव से दिया गया दान अकेले पुण्यबंध का कारण नहीं है, वह परम्परा से मुक्ति में भी सहायक बनता है। वह यहाँ भी सुखी बनाता है और जहाँ भी जाना हो, वहाँ भी सुख की ओर अग्रसर कराने वाला होता है। यहाँ प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि ‘दौलत' का अर्थ निकालें तो ऐसा भी निकल सकता है कि जो आते समय व्यक्ति के सामने सीने पर लात से आघात करती है तो अहंकारवश व्यक्ति का सीना फूल जाता है। वह अकड़कर चलने लगता है। लेकिन वही दौलत जाते समय मानों अपनी दूसरी लात व्यक्ति की पीठ पर मारकर चली जाती है और व्यक्ति की कमर झुक जाती है। वह मुख ऊपर उठाकर नहीं चल पाता। यही दौलत की सौबत का परिणाम है। ज्ञानी वही है, जो वर्तमान में मिलने वाली विषय भोगों की सामग्री (धन-सम्पदा आदि) के प्रति हेय-बुद्धि रखता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार जी में कहा है कि उप्पण्णोदयभोगे वियोगबुद्धीय तस्स सो णिच्चं। कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी॥२२८॥ ज्ञानी के सदा ही वर्तमान काल के कर्मोदय का भोग, वियोग बुद्धि अर्थात् हेय बुद्धि से होता है और ज्ञानी भावी भोगों की आकांक्षा भी नहीं करता। दान इत्यादि के प्रति ज्ञानी की हेय बुद्धि नहीं होती। पूजा, अभिषेक के प्रति भी हेय बुद्धि नहीं होती। अपने षट्-आवश्यकों के प्रति भी हेय-बुद्धि नहीं आती, मात्र विषयभोगों के प्रति हेयबुद्धि आ जाती है। दान आदि के माध्यम से जो पुण्य का अर्जन होता है, उसके प्रति भी हेयबुद्धि नहीं होती, किन्तु पुण्य के फलस्वरूप मिलने वाली सांसारिक सामग्री के प्रति उसकी हेय बुद्धि अवश्य होती है। सम्यग्दृष्टि जैसे-जैसे भोगों का त्याग करता जाता है, वैसे-वैसे ही उसे भोग सामग्री और अधिक प्राप्त होने लगती है लेकिन वह उसे त्याज्य ही मानता है और ग्रहण नहीं करता | भगवान् अभिनिष्क्रमण करते हैं, राजपाट और राजभवन के समस्त वैभवों का त्याग कर देते हैं और दीक्षा ले लेते हैं। तब राज्य के सभी जन उनकी सेवा के लिए साथ चलने को तत्पर हो जाते हैं। इन्द्र सेवा में आकर खड़ा हो जाता है, लेकिन भगवान् किसी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। वे अपनी आत्मा की खोज में वन की ओर गमन कर देते हैं और भीतर ही भीतर आत्मध्यान में लीन होते जाते हैं। उपसर्ग आने पर भी प्रतिकार करने के लिए बाहर नहीं आते और न ही किसी की अपेक्षा रखते हैं। तब जाकर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है, और अभी इतना ही नहीं, समवसरण की रचना होने लगती है। तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ समझी जाने वाली दैवीय सम्पदा समवसरण की रचना में लगायी जाती है। लेकिन भगवान्.भगवान् तो उस विशाल समवसरण के एक कण को भी नहीं छूते, वे तो कमलासन पर भी चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में विराजमान रहते हैं। यही हमारे वीतराग भगवान् की पहचान है। संसारी प्राणी जिस सम्पदा के पीछे दिन-रात भाग-दौड़ कर रहा है, वही सम्पदा भगवान् के पीछे आकृष्ट हो रही है और उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा कर रही है। तभी तो केवलज्ञान के उपरान्त भी उनके नीचे, आगे-पीछे चारों तरफ समवसरण के रूप में सम्पदा बिछी हुई है। अन्त में जब भगवान् योग-निग्रह अर्थात् मन-वचन-काय की सूक्ष्म क्रियाओं का भी निरोध करने चल देते हैं तो समवसरण की वह सम्पदा भी पीछे छूट जाती है। यह त्याग की अन्तिम परम घड़ी है। इसके उपरान्त ही उन्हें मुक्ति का लाभ मिल जाता है। बन्धुओ! आज तक त्याग के बिना किसी को मुक्ति नहीं मिली और मिलना भी सम्भव नहीं है। जब भी मुक्ति मिलेगी, त्यागपूर्वक ही मिलेगी। सोची, सुमेरु पर्वत और सौधर्म स्वर्ग के प्रथम पटल के बीच बाल मात्र का अन्तर होते हुए भी कोई विद्याधर चाहे कि स्वर्ग के विमानों में चला जाऊँ तो छलाँग मारकर जा नहीं सकता। यही बात मुक्ति के विषय में है कि कोई बिना त्याग के, यूँ ही छलाँग लगाकर सिद्ध शिला पर पहुँचना चाहे और सिद्धत्व का अनुभव करना चाहे तो नहीं कर सकता। त्याग के बिना यह सम्भव ही नहीं है। ध्यान रखना, त्याग के द्वारा जो अतिशय-पुण्य का सञ्चय सम्यग्दृष्टि को होता है, वह पुण्य का सञ्चय मोक्षमार्ग में कभी भी बाधक नहीं बन सकता। पुण्य के फल में राग भाव होना बाधक बने तो बन सकता है। क्योंकि पुण्य के फल में हर्ष-विषाद की सम्भावना होती है। पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में पुण्य की परिभाषा कही है कि 'पुनाति आत्मानं पूयतेनेन इति वा पुण्यम्जो आत्मा को पवित्र बना दे या जिसके द्वारा आत्मा पवित्र होता है वह ‘पुण्य' है। घातिया-कर्मों के क्षय करने के लिए यही सातिशय पुण्य आवश्यक है। तभी केवलज्ञान की प्राप्ति करके आत्मा स्व-पर प्रकाशक होकर पवित्र होती है। इस तरह का पुण्य चाहने से नहीं मिलता। पुण्य के फल के प्रति निरीहता आने पर अपने आप मिलता है। जैसे किसी व्यक्ति का पैर फिसल जाए और वह कीचड़ में गिर जाये तो सारा शरीर कीचड़ से लथपथ हो जाता है, तब उस कीचड़ से मुक्त होने के लिए उसे जल की आवश्यकता महसूस होती है। जल उस कीचड़ को साफ करके स्वयं भी शरीर के ऊपर अधिक नहीं टिकता। जो दो चार बूंदें रह भी जाती हैं, वे मोती के समान चमकती रहती हैं और कुछ देर में वे भी समाप्त हो जाती हैं। यही स्थिति पुण्य की है। पाप-पंक से मुक्त होने के लिए पुण्य के पवित्र जल की आवश्यकता पड़ती है। जो त्याग के फलस्वरूप स्वत: मिलता जाता है। भगवान् की भक्ति पाप के क्षय में तो निमित है ही, साथ ही साथ, कर्तव्य-बुद्धि से की जाने पर पुण्य के सञ्चय में भी कारण बनती है। उसे तात्कालिक उपादेय मानकर करते जाइये तो वह भी मोक्षमार्ग में साधक है। केवल शुद्धोपयोग से ही संवर होता है या निर्जरा होती है, ऐसी धारणा नहीं बनानी चाहिए। शुभोपयोग को भी आचार्यों ने संवर और निर्जरा का कारण कहा है। उसे भी परंपरा से मुक्ति का कारण आचार्यों ने माना है। इसलिए दान और त्यागादि शुभ क्रियाओं के द्वारा केवल पुण्य बंध ही होता है, ऐसा एकान्त नहीं है। इन शुभ-क्रियाओं द्वारा और शुभ भावों के द्वारा संवरपूर्वक असंख्यात गुणी निर्जरा संयमी व्यक्ति को निरन्तर होती है। व्रत के माध्यम से, भक्ति और स्तुति के माध्यम से तथा षडावश्यक क्रियाओं के माध्यम से संयमी व्यक्ति संवर और निर्जरा दोनों ही करता है, तभी दानादि क्रियाएँ ‘पर' के साथ-साथ 'स्व' का अनुग्रह करने वाली कहीं गयी हैं। एक उदाहरण याद आ गया। युधिष्ठिर जी पांडवों में सबसे बड़े थे। दानवीर माने जाते थे। एक बार एक याचक ने आकर उनसे दान की याचना की। वे किसी कार्य में व्यस्त थे तो कह दिया कि थोड़ी देर बाद आना या कल ले जाना। भीम जी को जब मालूम पड़ा तो वे आये और बोले भइया! ये भी कोई बात हुई। क्या आपने मृत्यु को जीत लिया है? क्या अगले क्षण का आपको भरोसा है कि बचेंगे ही? अभी दे दो। अन्यथा विचार बदलने में भी देर नहीं लगती। बन्धुओ! त्याग का भाव आते-आते भी राग का भाव आ सकता है क्योंकि राग का संस्कार अनादिकाल का है, इसलिए 'शुभस्य शीघ्रम्' वाली बात होना चाहिए। ताकि त्याग का संस्कार आगे के लिए भी दृढ़ होता जाये। राग के द्वारा संसार के बंधन का विकास होता है तो वीतराग भावों के द्वारा संसार से मुक्त होने के मार्ग का विकास होता है। जो वीतराग बने हैं, जिन्होंने उत्तम त्यागधर्म को अपनाया है, उनके प्रति हमारा हार्दिक अनुराग बना रहे। उनकी भक्ति, स्तुति और उनका नाम स्मरण होता रहे, यही संसार से बचने का एकमात्र सरलतम उपाय है, प्रशस्त मार्ग है।
  4. शासन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिसे जिनशासन के प्रति गौरव-आस्था नहीं, उसके पास चारित्र नहीं। जैनशासन में सागर और अनगार दो पन्थ है। अविरत सम्यक दृष्टि का कोई पन्थ नहीं होता वह तो मात्र उन दोनों पन्थों का उपासक हुआ करता है। अपनी मान प्रतिष्ठा के लिए आज ऐसे-ऐसे घृणित कार्य किये जा रहे हैं, जिनसे कि जिनशासन और देश को अपार क्षति हो रही है। प्रजा पर शासन चलाना मामूली चीज है, पर अपने ऊपर शासन चलाना टेढ़ी खीर है। संसारी जीव प्राय: करके हुकुम (शासन) की ओर बहुत जल्दी दौड़ जाता है, वह समझने लगता है कि मैं सबसे ऊपर हूँ, पर उससे ऊपर आकाश भी तो है। हमें जिनशासन मिला है यह बहुत महत्वपूर्ण है। हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए, इसका दुरुपयोग मत करो।
  5. शांति/संतोष विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिस घर में शांति होती है वहाँ भगवान् रहते हैं। शांति के लिए अंदरूनी परिवर्तन चाहिए बाहरी नहीं। लालची पूरी दुनिया पाने पर भी भूखा रहता है। मगर संतोषी एक रोटी से ही पेट भर लेता है। संतोषी व्यक्ति पुष्ट हो जाता है थोड़े से भी भोजन से किन्तु जिह्वा असंतोषी है। पेट कहता है इण्ड (समाप्त) लेकिन जिह्वा कहे एण्ड (और), और अधिक कौर/ग्रास खाया तो परिणाम भयंकर। पेट भरते हैं जीवन चलाने के लिए ओर पेटी भरते हैं जीवन चढ़ाने के लिए। पेट आधा घंटे में भर जाता है और पेटी जीवन भर में नहीं भरेगी। आज जितने सुविधा के साधन जुटाये जा रहे हैं, उतना ही व्यक्ति में तृष्णा और असन्तोष बढ़ रहा है। सहजता की ओर आ जाओ तो शांति मिलती है विभाव की ओर जाओ तो शांति चली जाती है। अनन्त की परिभाषा यही है कि सब कुछ दे दे तो भी संतुष्ट न हो। सर्प के विष से तो एक बार ही मरना हो सकता है पर तृष्णारूपी विष प्याली के द्वारा अनंतबार,अनंतभव, अनंतमृत्यु होती है। आत्मा के अनंत स्वभाव का इससे अंत हो जाता है। संतोष के बिना मनुष्य जीवन मिलता नहीं और संतोष के बिना मनुष्य जीवन में सफलता भी नहीं मिलती है। संतोष वहाँ जहाँ प्रेम है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ तो फिर प्रेत है। अपने जीवन में अनेकान्त को उतारें। नहीं तो अपने पास शान्ति नहीं, क्लान्ति रहेगी, समता का अभाव रहेगा। अपने जीवन में वह क्रांति लाओ जो क्लांति को मिटा दे और शांति को प्राप्त करा दे। जो दूसरे के अवगुण देखता है और दूसरे को सुखी देखकर ईर्ष्या करता है वह कभी तृप्ति सुख और शांति का अनुभव नहीं कर सकता। आत्म सन्तुष्टि यदि नहीं है तो फलश्रुति भी मैं नहीं मानता हूँ। किसान सबसे ज्यादा संतोषी होता है। वह अपनी फसल के ऊपर खेत में ताला नहीं लगाता, पशु पक्षी भी इसका आनंद लेते हैं।
  6. विशालता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार बुद्धि के संकीर्ण उपयोग से व्यापकता विलुप्त होती जाती है। विशालता, व्यापकता धारण करके चलने वाला व्यक्ति एक पंथ दो सौ काज कर सकता है। व्यवधान को गौण कर व्यापकता, विशालता के साथ चलने वाली आत्माओं के साथ विराट/ विशाल/परम/महान् आदि विशेषण लगाए जाते हैं। संकीर्णता सिर्फ बीमारी ही नहीं अपितु महामारी है, जिसको दूर करने की कोई जड़ी-बूटी नहीं होती। एक ही वस्तु का उपयोग आत्मलाभ के साथ बहुजन लाभ के लिए किया जा सकता है किन्तु यह तभी संभव है जब चिंतन में व्यापकता हो। बुद्धि संकीर्ण होगी तो स्वयं के ललाट तक ही चंदन का लाभ सीमित रह जायेगा। हमें चंदन की सुगंध हवा में घोलने की आवश्यकता है जिससे स्वयं के साथ सभी प्राणी भी उसका लाभ ले सकें। सुगध के संचार को सीमित करना संभव नहीं है। दुर्गंध से बचने के लिए सुगंध की मात्रा में वृद्धि करना आवश्यक है। पक्षी पर प्रतीक चिह्न नहीं है कि वह भारत का है या पाकिस्तान का कोई प्रहरी उसे रोक नहीं सकता। पक्षी किसी देश के पक्ष के नहीं वो कहते सारा जहाँ हमारा किन्तु मनुष्य ने बंधन बना लिए। सीमा तो भूमि पर है आकाश असीमित है। मेरे सिर में दर्द बना रहे, किन्तु उसका दर्द दूर न हो जाये ऐसी प्रवृत्ति से व्यापकता विनष्ट हो रही है। व्यापकता का विभाजन नहीं हो सकता जैसे आकाश को किसी दीवार से विभाजित नहीं कर सकते। विशाल हृदय का अर्थ बड़ा हृदय नहीं, किन्तु जिसके विचारों/अभिप्रायों/उद्देश्यों में विशालता आ जाती है वही विशाल हृदयी माना जाता है। विषयों के बीच में रहते हुए भी सीमा का उल्लंघन नहीं होता है तो यही सावधानी है और यही सावधानी आगे बढ़ाने का साधन है। परन्तु यदि असावधानी होगी तो वह नीचे ही गिरायेगी। प्रत्येक व्यवधान का सावधान होकर सामना करना नूतन अवधान को पाना है। मेरा तेरा जहाँ नहीं रहता वहाँ से अखंडता का आनंद आने लगता है, खंडता में वह आनंद नहीं आता जैसे सूर्य दिखता छोटा सा है लेकिन प्रकाश विस्तृत होता है।
  7. वीतरागता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जब वीतरागी बनने की इच्छा शुरू हो जाती है, तो समझो बेड़ा पार होने की शुरूआत हो जाती है। जैसे चेहरा देखने वाला व्यक्ति स्वयं दर्पण के पास जाता है वैसे ही हमें अपने आपको देखना है तो भगवान् के पास जाना ही पड़ेगा। प्रभु ने सुख दिया नहीं पर सुख का रास्ता बता दिया। प्रभु देते व लेते नहीं हैं। दर्पण मुख देखता नहीं, पर मुख को दिखा सकता है। वृत्त पूर्णता का प्रतीक है क्योंकि यह पूरे ३६० अंश का होता है। इसी तरह भगवान् स्वयं परिपूर्ण है अत: उनका वृतांत जीवन में उतारना हमारे लिए परिपूर्ण बना देता है। चमत्कार का बहिष्कार कर, विषयों का तिरस्कार कर, भगवान् को नमस्कार करें, इसी में कल्याण निहित है। जो खुद रोगी है, वह दूसरों का इलाज नहीं कर सकता है। उसी प्रकार संसारी प्राणी संसारी जीव को रास्ता नहीं बता सकता है, वह तो खुद बीमार है। संसारी जीव पर देव, शास्त्र, गुरु का प्रभाव पड़ता है। वीतरागता के प्रति गौरव होना भी राग छोड़ने की भूमिका है। वीतरागता की उपासना करना ही वीतरागता के प्रति गौरव होना है। वीतराग विज्ञान-भाव प्रधान तथा वीतरागता- श्रद्धा का विषय है। वीतरागता की आराधना ही एक मात्र बिन्दु है जहाँ से हमें ऊर्जा प्राप्त होती है। वीतराग विज्ञान किसी से प्रभावित नहीं होता है और जो उससे ही प्रभावित होता है तो फिर वह वीतराग विज्ञानमय हो जाता है। वीतराग विज्ञान ऐसा रसायन कि वह कर्मरूपी वज़ को चूर-चूर कर देता है। जिन लिंग मोक्षमार्ग में दीपक के समान है। मोक्षमार्ग यदि देखना चाहते हो तो इस दिगम्बरत्व के द्वारा ही देखा जा सकता है। वह सौधर्म इन्द्र भी अपने चमकते हुए मुकुट परदिगम्बर मुनि की पद रज को लगा करके अपने आपको धन्य मानता है और उस दिगम्बरत्व का यशोगान करता रहता है। इसलिए इस दिगम्बरत्व की महिमा ही अगल है।
  8. विसयकसायविणिग्गह, भावं काऊण झाणसिज्झीए। जो भावई अण्पाणां, तस्स तवं होदि णियमेण॥ पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का विचार करता है उसके नियम से तप-धर्म होता है। आम अभी हरा-भरा डाल पर लटक रहा है। अभी उसमें से कोई सुगन्ध नहीं फूटी है और रस भी चखने योग्य नहीं हुआ है, किन्तु बगीचे के माली ने उस आम्रफल को तोड़ा और अपने घर में लाकर पलाश के पत्तों के बीच रख दिया है। तीन-चार दिन के उपरान्त देखा तो वह आम्रफल पीले रंग का हो गया, उसमें मीठी-मीठी सुगन्ध फूट गयी है और रस में भी मीठापन आ गया, कठोरता के स्थान पर कोमलता आ गयी। खाने के लिए आपका मन ललचाने लगे, मुख में पानी आ जाये ऐसा इतना अविलम्ब परिवर्तन उसमें कैसे आ गया? तो माली ने बता दिया कि यह सब अतिरिक्त ताप/ऊष्मा का परिणाम है। तप के सामने कठोरता को भी मुलायम होना पड़ता है और नीरस भी सरस हो जाता है। सुगन्धी फूटने लगती है और खटाई, खटाई में पड़ जाती है। अर्थात् मीठापन आ जाता है। आज तप का दिन है। बात आपके समझ में आ गयी होगी। अनादि-काल से संसारी प्राणी इसी तरह कच्चे आम्रफल के रूप में रह रहा है। तप के अभाव में चाहे वह संन्यासी हो, चाहे वनवासी हो या भवनवासी हो अर्थात् महलों में रहने वाला हो, उसका पकना सम्भव नहीं है। तप के द्वारा भी पूर्व सञ्चित कर्म पककर खिर जाते हैं, मंगतराय की 'बारह भावना' में निर्जरा-भावना के अन्तर्गत कुछ पंक्तियाँ आती हैं उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली । दूजी है अविपाक पकावै पाल विषै माली ॥ जैसे वह माली पलाश के पत्तों में पाल लगाकर आम्रफल की समय से पहले पकाने की प्रक्रिया करता है और बाहरी हवा से बचाये रखता है। तब वह आम्रफल मीठा होकर, मुलायम होकर सुगन्ध फैलाने लगता है, यही स्थिति यहाँ परमार्थ के क्षेत्र में भी है। आत्मा के स्वभाव का स्वाद लेने के लिए कुन्दकुन्द आचार्य जैसे महान् आचार्य हमें सम्बोधित करते हैं कि हे भव्य! यदि रत्नत्रय को धारण कर लो तो शीघ्र ही तप के माध्यम से तुम्हारे भीतर आत्मा की सुगन्धी फूटने लगेगी और आत्मा का निजी स्वाद आने लगेगा। रत्नत्रय के साथ किया गया तपश्चरण ही मुक्ति में कारण बनता है। तपश्चरण करना अर्थात् तपना जरूरी है और तपने की प्रक्रिया भी ठीक-ठीक होनी चाहिए। जैसे किसी ने हलुआ की प्रशंसा सुनी तो सोचा कि हम भी हलुआ खायेंगे। पूछा गया कि हलुआ कैसे बनेगा? तो किसी ने बताया कि हलुआ बनाना बहुत सरल है। तीन चीजें मिलानी पड़ती हैं। आटा चाहिए, घी और शक्कर चाहिए। तीनों को मिला दो तो हलुआ बन जाता है। उस व्यक्ति ने जल्दी-जल्दी से तीनों चीजें मिलाकर खाना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन स्वाद नहीं आया। आनन्द नहीं आया। कुछ समझ में नहीं आया कि बात क्या हो गयी? फिर से पूछा कि जैसा बताया था उसी के अनुसार तैयार किया है लेकिन स्वाद क्यों नहीं आया? जैसा सुना था वैसा आनन्द नहीं आया।तो वह बताने वाला हँसने लगा, बोला कि अकेले तीनों को मिलाने से स्वाद नहीं आयेगा। हलुआ का स्वाद तो तीनों को ठीक-ठीक प्रक्रिया करके मिलाने पर आयेगा और इतना ही नहीं, अग्नि पर तपाना भी होगा। फिर तीनों जब धीरे-धीरे एकमेक हो जाते हैं, स्वाद तभी आता है और सुगन्ध तभी फूटती है। 'जहँ ध्यान-ध्याता-ध्येय को न विकल्प वच भेद न जहाँ' (छहढाला, छठवीं ढाल) ध्यान में पहुँचकर ऐसी स्थिति आ जाती है। चेतना इतनी जागृत हो जाती है कि ध्यान करने वाला, ध्यान की क्रिया और ध्येय, तीनों एकमेक हो जाते हैं। बिना अग्नि-परीक्षा के तीनों का मिलना सम्भव नहीं है। ध्यान की अग्नि में तपकर ही परम पद का स्वाद पाया जा सकता है। मिलना ऐसा हो कि जैसे हलुआ में यह शक्कर है, यह घी है और यह आटा है- ऐसा अलग-अलग स्वाद नहीं आता, एकमात्र हलुआ का ही स्वाद आता है, ऐसा ही आत्मा का स्वाद ध्यान में एकाग्रता आने पर आता है। किसी को पकौड़ी या बड़ा खाने की इच्छा हुई तो वह क्या करेगा? सारी सामग्री अनुपात से मिलाने के उपरान्त कड़ाही में तलना पड़ेगा। बड़ा बनाने के लिए बड़े को अग्नि परीक्षा देनी होगी। बिना अग्नि में तपे बड़ा नहीं बन सकता। इसी प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति रत्नत्रय के साथ एक अन्तर्मुहूर्त तक ध्यानाग्नि में तपे बिना सम्भव नहीं होती। रत्नत्रय के साथ पूर्व कोटि व्यतीत हो सकते हैं, लेकिन मुक्ति पाने के लिए चतुर्विध आराधना करनी होगी। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना अर्थात् रत्नत्रय की आराधना के साथ ही साथ, चौथी तप आराधना करना भी आवश्यक है। जिस समय कोई दीक्षित हो जाता है, श्रमण बन जाता है तो उसे रत्नत्रय या पज्चाचार का पालन करना होता है। किन्तु ध्यान रखना, उसके साथ ही साथ उसके लिए एक तप और विशेष रूप से दिया जाता हैं। इसलिए कि तप का अनुभव वह साधक यहीं से प्रारम्भ कर दे और रत्नत्रय का स्वाद उसे आने लगे। साक्षात् मुक्ति रत्नत्रय से युक्त होकर तप के द्वारा ही होती है। अकेले रत्नत्रय से अर्थात् भेद रत्नत्रय से मुक्ति परम्परा से होती है। जैसे दुकान पर तुरन्त लाभ पाने के लिए आप कड़ी मेहनत करते हैं, ऐसे ही मोक्षमार्ग में तुरन्त मुक्ति पाने के लिए आचार्यों ने तप को रखा है। परमात्म प्रकाश में योगीन्दु देव ने लिखा है कि- जे जाया झाणग्गियएँ कम्म-कलंक डहेवि। णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि॥३॥ उन परमात्मा को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिन्होंने परमात्मा बनने से पहले ध्यान रूपी अग्नि में अपने को रत्नत्रय के साथ तपाया है और स्वर्ण की भाँति तपकर अपने आत्म-स्वभाव की शाश्वतता का परिचय दिया है। स्वर्ण की सही-सही परख अग्नि में तपाने से ही होती है। उसमें बट्टा लगा हो तो निकल जाता है और सौ टंच सोना प्राप्त हो जाता है। जैसे पाषाण में विद्यमान स्वर्ण से आप अपने को आभूषित नहीं कर सकते, लेकिन अग्नि में तपाकर उसे पाषाण से पृथक् करके, शुद्ध करके, उसके आभूषण बनाकर आभूषित हो जाते हैं। इसी प्रकार तप के माध्यम से आत्मा को विशुद्ध करके परम पद से आभूषित हुआ जा सकता है। यही तप का माहात्म्य है। दक्षिण भारत में कर्नाटक के आसपास विशेष रूप से बेलगाँव जिले में ज्वार की खेती प्राय: अधिक होती है। वहाँ कुछ लोग पानी गिर जाने के डर से समय से पूर्व आठ-दस दिन पहले ही यदि ज्वार को काटकर छाया में रख लेते हैं, तो घाटे में पड़ जाते हैं। लेकिन जो अनुभवी किसान हैं, वे जानते हैं कि यदि मोती जैसी उज्वल ज्वार चाहिए हो तो उसे पूरी तरह पक जाने पर ही काटना चाहिए। इसलिए वे पानी की चिन्ता नहीं करते और पूरी की पूरी अवधि को पार करके ही ज्वार काटते हैं। जो पूरी की पूरी सीमा तक तपन देकर ज्वार काटता है, उसके ज्वार धुंघरू की तरह आवाज करने वाले और आटे से भरपूर रहते हैं। वे वर्ष भर रखे भी रहें तो भी कीड़े वगैरह नहीं लगते। खराबी नहीं आती। इसी प्रकार पूरी तरह तप का योग पाकर रत्नत्रय में निखार आता है, फिर कैसी भी परिस्थिति आये, वह रत्नत्रय का धारी मुनि हमेशा अपनी विशुद्धि बढ़ाता रहता है। संक्लेश परिणाम नहीं करता। जो आधा घण्टे सामायिक करके जल्दी-जल्दी उठ जाते हैं, वे जल्दी थक भी जाते हैं, विचलित हो जाते हैं। लेकिन जो प्रतिदिन दो-दो, तीन-तीन घण्टे सामायिक और ध्यान में लीन रहने का अभ्यास करते हैं, उनकी विशुद्धि हमेशा बढ़ती ही जाती है। इधर-उधर के कामों में उनका मन नहीं भटकता और वे एकाग्र होकर अपने में लगे रहते हैं। तप की महिमा अपरम्पार है। दूध को तपाकर मलाई के द्वारा घी बनाते हैं। तब उसका महत्व अधिक हो जाता है। घी के द्वारा प्रकाश और सुगन्धी, दोनों ही प्राप्त किये जा सकते हैं। वह पौष्टिक भी होता है। घी की एक और विशेषता है कि घी को फिर किसी भी तरल पदार्थ में डुबोया नहीं जा सकता। घी को दूध में भी डाल दो तो भी वह दूध के ऊपर-ऊपर तैरता रहता है। इसी प्रकार तप के माध्यम से विशुद्ध हुई आत्मा लोक के अग्र भाग पर जाकर विराजमान होती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा कि जब भी मुक्ति मिलेगी, तप के माध्यम से ही मिलेगी। विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर जी समय-समय पर आत्मा की आराधना में लगा रहता है, उसे ही मोक्षपद प्राप्त होता है। जब कोई परम योगी, जीव रूपी लोह-तत्व को सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी औषधि लगाकर तप रूपी धौंकनी से धौंक कर तपाते हैं, तब वह जीव रूपी लोहतत्व स्वर्ण बन जाता है। संसारी प्राणी अनन्त काल से इसी तप से विमुख हो रहा है और तप से डर रहा है कि कहीं जल न जायें। पर वैचित्र्य यह है कि आत्मा के अहित करने वाले विषय-कषायों में निरन्तर जलते हुए भी सुख मान रहा है। 'आतम हित हेतु विराग ज्ञान। ते लखें आपको कष्ट दान।' जो आत्मा के हितकारी ज्ञान और वैराग्य हैं, उन्हें कष्टकर मान रहा है। बन्धुओ! जब भी कल्याण होगा ज्ञान, वैराग्य और तप के माध्यम से ही होगा। आचार्यों ने तप के दो भेद कहे हैं- एक भीतरी अंतरंग तप और दूसरा बाह्य तप। बाहरी तप एक प्रकार से साधन के रूप में है और अंतरंग तप की प्राप्ति में सहकारी है। बाहरी तप के बिना भीतरी तप का उद्भव सम्भव नहीं है। जैसे दूध को तपाना हो तो सीधे अग्नि पर तपाया नहीं जा सकता। किसी बर्तन में रखकर ही तपाना होगा। दूध को बर्तन में तपाते समय कोई पूछे कि क्या तपा रहे हो, तो यही कहा जायेगा कि दूध तपा रहे हैं। कोई भी यह नहीं कहेगा कि बर्तन तपा रहे हैं। जबकि साथ में बर्तन भी तप रहा है। पहले बर्तन ही तपेगा फिर बाद में भीतर का दूध तपेगा। इसी प्रकार बाहरी तप के माध्यम से शरीर रूपी बर्तन तपता है और बाहर से तपे बिना भीतरी तप नहीं आ सकता। भीतरी आत्म-तत्व को तप के माध्यम से तपाकर सक्रिय करना हो तो शरीर को तपाना ही पड़ेगा। पर वह शरीर को तपाना नहीं कहलायेगा, वह तो शरीर के माध्यम से भीतरी आत्मा में बैठे विकारी भावों को हटाने के लिए, विकारों पर विजय पाने के लिए किया गया तप ही कहलायेगा। जो सही समय पर इन तपों को अंगीकार कर लेते हैं, वास्तव में वह समय के ज्ञाता हैं और समय-सार के ज्ञाता भी हैं। ऐसे तप को अंगीकार करने वाले विरले ही होते हैं। तप के ऊपर विश्वास भी विरलों को ही हुआ करता है, उसकी चर्चा भी विरले लोग ही सुन पाते हैं। यह सभी दुर्लभ से दुर्लभ बातें हैं। कल्पना करें कि कैसा होता होगा, जब साक्षात् भगवान् के समवसरण में तप की देशना होती होगी और भव्य आत्माएँ भगवान् के सम्मुख समवसरण में दीक्षित होकर तप को अंगीकार करती होंगी। इतना ही नहीं, बल्कि तप को अंगीकार करके अल्पकाल में ही अपनी विशुद्ध आत्मा का दर्शन भी कर पाते होंगे। आप लोग यहाँ थोड़ा बहुत Programe (कार्यक्रम) बना लेते हैं। दस दिन के लिए घर द्वार छोड़कर तीर्थ-क्षेत्र पर धर्म ध्यान करते हैं, तब सब भूल जाते हैं। लगता है, संसार छूट गया और मोक्ष की ओर जा रहे हैं। दस-अध्यायों में भी देखा जाए तो क्रमक्रम से मोक्ष-तत्व की ओर जा रहे हैं। ज्यों-ज्यों भावनाएँ पवित्र होती जाती हैं तो आत्मा को विशुद्ध बनाने की भावना भी प्रबल होती जाती है। इसी के माध्यम से क्रम-क्रम से एक न एक दिन हमें भी तप की शरण मिलेगी और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। जैसे रोगी की जठराग्नि मन्द हो जाने पर पहले धीरे-धीरे मूंग की दाल का पानी देते हैं। बहुत भूख लग जाये तो भी एक दो चम्मच मूंग की दाल के पानी से अधिक नहीं देते, फिर बाद में थोड़ी शक्ति आने पर रोटी वगैरह देना प्रारम्भ कर देते हैं। उसी प्रकार हम भी पुराने मरीज हैं। एक साथ तप की बात बहुत मुश्किल लगती है तो धीरे-धीरे चारित्र को धारण करके हम अपने तप की अग्नि को बढ़ाते जाएँ और जितनी-जितनी तप में वृद्धि होती जायेगी, उतना-उतना आनन्द आयेगा और यही आनन्द तप में वृद्धि के लिए सहायक बनता जाएगा। विशुद्धि के साथ किया गया तप ही कार्यकारी होता है। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि अणुव्रतों को धारण करके क्रम-कम से विशुद्धि बढ़ाते हुए आगे महाव्रतों की ओर बढ़ना चाहिए। विशुद्धि हो तो विदेह क्षेत्र भी यहीं पर आ सकता है और विशुद्धि न हो तो विदेह भी लुप्त हो सकता है। जहाँ निरन्तर तीर्थकर का सान्निध्य बना रहता है वहाँ भी यदि विशुद्धि नहीं है तो तीन-तीन बार दिव्यध्वनि सुनने वाला भी उतनी निर्जरा नहीं कर सकता जितनी कि यहाँ व्रतों के माध्यम से विशुद्धि बढ़ाकर निर्जरा की जा सकती है। बहुत कम लोग ही अवसर का लाभ उठा पाते हैं। संसारी प्राणी की यही विचित्रता है कि जब तक नहीं मिलता तब तक अभाव खटकता है और मिल जाने के उपरान्त वह गौण हो जाता है। उसका सदुपयोग करने की भावना नहीं बनती। जो निकट भव्य-जीव होते हैं वे नियम से तप का अवसर मिलते ही पूरा का पूरा लाभ लेकर अपना कल्याण कर लेते हैं। आप लोगों से मेरा इतना ही कहना है कि तप एक निधि है, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अंगीकार करने के उपरान्त प्राप्त करना अनिवार्य है। बिना तप का अनुष्ठान किये मुक्ति का साक्षात्कार सम्भव नहीं है। जैसे दीपक की लौ आदि टिमटिमाती हो और स्पन्दित हो, चंचल हो तो न ही प्रकाश ठीक हो पाता है और न ही उससे पर्याप्त ऊष्मा ही मिल पाती है। इसी प्रकार रत्नत्रय के साथ जब तक ज्ञान स्थिर नहीं होता और जब तक उसमें एकाग्रता नहीं आती, तब तक अपने स्व-पर प्रकाशक स्वभाव को वह ज्ञान अनुभव नहीं कर सकता। अर्थात् मुक्ति में साक्षात् सहायक नहीं बन सकता। चेतना की धारा एक दिशा में बहना चाहिए, और ध्याता और ध्येय की एकरूपता होनी चाहिए। बन्धुओ! दुनियाँदारी की चर्चा में अपना समय व्यतीत नहीं करना चाहिए, उससे कोई भी लाभ मिलने वाला नहीं है। सही वस्तु का आलोढ़न करने से ही उपलब्धि होती है। दस किलो दूध के दही से आप किलो, दो किलो नवनीत निकालो तो निकल भी आयेगा, लेकिन उससे चौगुनी मात्रा में भी पानी को मथकर नवनीत चाहो तो जरा भी नहीं निकलेगा। आप लोग दस दिन तक सुबह से शाम जिस प्रकार धार्मिक, आध्यात्मिक कार्य में लगे रहते हैं, उसी प्रकार का कार्यक्रम हमेशा चलता रहना चाहिए। तब कहीं जाकर आत्मा में पवित्रता आना प्रारम्भ होगी। जितना समय इसमें देंगे उतना ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। यावत् स्वास्थ्यं शरीरस्य, यावत् इन्द्रियसंपदा। तावत् युक्तं तपश्कर्म वार्धक्ये केवलं श्रमः॥ जब तक शरीर स्वस्थ है, इन्द्रिय सम्पदा है, ज्ञान है और तप करने की क्षमता है तब तक तप को एकमात्र कार्य मानकर कर लेना चाहिए। क्योंकि वृद्धावस्था में जब शरीर साथ नहीं देता, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और ज्ञान काम नहीं करता, तब हाथ क्या आता है? केवल पश्चाताप ही हाथ आता है। यह शरीर भोगों के लिए नहीं मिला और न ही देखने के लिए मिला है, इसके द्वारा तो आत्मा का मन्थन करके अमृत पा लेना चाहिए। आज तो मात्र खाओ, पिओ और मौज करो वाली बात हो रही है। इसके बीच भी यदि कोई विषय-कषाय से विरक्त तप की ओर अग्रसर होता है तो यह उसका सौभाग्य है। इतना ही नहीं, उसका सान्निध्य भी जिसे मिलता है वह भी सौभाग्यशाली है। संसारी प्राणी ने आज तक दृढ़ता के साथ तपश्चरण को स्वीकार नहीं किया। और तो सैकड़ों कार्य सम्पादित किये लेकिन एक यही कार्य नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि दुख में ही सुख का आभास करने का संस्कार दृढ़ होता गया। आप पूजन करते समय देवशास्त्रगुरु-पूजा की जयमाल में बोलते अवश्य हैं कि संसार महादुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासों में। मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कञ्चन-कामिनी प्रासादों में॥ लेकिन भीतर इस बात का अनुभव नहीं हो पाता। तप में दुख जैसा प्रतीत होता है और इन्द्रिय विषयों में सुख जैसा लगता है। पर वास्तव में देखा जाए तो सच्चा सुख तो तप में ही है। इन्द्रियसुख तो मात्र सुखाभास है। आत्मा की शक्ति अनन्त है। इस श्रद्धान के साथ जो व्यक्ति अपने इस जीवन को अविनश्वर सुख की खोज में लगा देता है उसका जीवन सार्थक हो। जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षपाहुड में कहा है कि अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहदि इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति॥ ७७॥ आज भी रत्नत्रय की आराधना करके आत्म-ध्यान में लीन होकर इन्द्रत्व की प्राप्त कर सकते हैं, लौकान्तिक देव बन सकते हैं। इतना ही नहीं, वहाँ से नीचे आकर मनुष्य होकर नियम से मुक्ति पा सकते हैं। बन्धुओ! शेष जीवन न जाने किसका कितना रहा? अगर चाहें तो कम समय में भी पूरी की पूरी कर्म-निर्जरा अपने आत्म-पुरुषार्थ और आत्मबल के द्वारा कर सकते हैं। जो व्यक्ति निमित्त पाकर भी अपने उपादान को जागृत नहीं करता, वह अभी निमित-उपादान के वास्तविक ज्ञान से विमुख है। निमित्त में कार्य नहीं हुआ करता, कार्य तो उपादान में ही होता है, लेकिन निमित्त के बिना उपादान का कार्य रूप परिणाम भी न हुआ और न कभी होगा। रत्नत्रय के साथ बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर साधना करने वाला ही मुक्ति सम्पादन कर सकता है। यही एक मुक्ति का मार्ग है।
  9. विद्यार्थियों के लिए विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पढ़ने की उम्र तक सभी दुर्व्यसन से उन्हें दूर रहना चाहिए। इससे उनके संस्कार दृढ़ होते हैं। वह विद्यार्थी ही देश का भावी योग्य नागरिक बन सकता है, जो जल्दी सोता व जल्दी उठता है। जल्दी सोने व उठने से ज्ञान बढ़ता है। अत: सभी विद्यार्थियों को इसका पालन करना चाहिए। ऐसे होटलों में नहीं जाना चाहिए, जो मांसाहारी हैं। पहले तो स्वयं ही होटल आदि में जाने का त्याग करना चाहिए। यदि ऐसा न कर सकें तो शाकाहारी होटल में जा सकते हैं। खाने पीने का नियम लेना चाहिए। इस नियम से आप समय पर खावेंगे, पीवेंगे। तो स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। अप टू डेट रहेंगे आप और माइण्ड भी सही कार्य करेगा। रात्रि में न खाने का भी धीरे-धीरे अभ्यास करना चाहिए। पानी छानने के लिए एक छनना पास में रखें कहीं भी जावें तो कपड़ा से छानकर पानी पियें। आज विद्या की तरक्की हो रही है इस विद्या को ग्रहण करके विद्यार्थी तीनलोक का दास बनता जा रहा है। विद्या ऐसी ग्रहण करनी चाहिए कि जिससे तीनों लोक उसके दास बन जाये। आज सब अर्थ धन के पीछे विद्या ग्रहण करते हैं। इस विद्या से ज्ञान मिल सकता है परन्तु शांति नहीं मिल सकती। समीचीन विद्या के द्वारा ही गुणों की प्राप्ति हो सकती है। हमने विद्या को अर्थ का माध्यम बना रखा है इसलिए हम दु:खी हो रहे हैं व्यक्ति सुखी तभी हो सकता है जब वह समीचीन विद्या ग्रहण करें। विद्यार्थी खूब परीषह और उपसर्ग सहन करने में तैयार हो जाये तो वह तीनलोक को मात कर सकता है उसका स्वामी बन सकता है मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। जिस शिक्षण के द्वारा जीवन में सुख शांति नहीं, वह शिक्षण किस काम का।
  10. वात्सल्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिस व्यक्ति में साधमीं भाइयों के प्रति करुणा वात्सल्य नहीं कोई विनय नहीं, वह मात्र सम्यक दृष्टि होने का दम्भ भर सकता है, सम्यक दृष्टि नहीं बन सकता। ज्ञानधर्म के लिए है, ज्ञान के लिए धर्म नहीं धर्म आत्मा को उन्नति की ओर ले जाने वाला है, यदि वह ज्ञान दया धर्म के साथ कनेक्टेड संबंधित होकर दयामय हो जाता है तो वह ज्ञान हमारे लिए हितकारक सिद्ध होगा। दान, पूजा, स्वाध्याय, जप, तप भी वही सार्थक है, जिसमें करुणा का भाव घुला हो। वही शास्त्र और वही सिद्धान्त सच्चा है, जिसमें जीव रक्षा का उपदेश हो। जिस प्रकार बिना जड़ मूल के फल-फूल कुछ भी नहीं होते उसी प्रकार इस दया के अभाव में धर्म और धर्म के नेता हो ही नहीं सकते। दया धर्म का मूल है। मूल को भूलकर छाया की आकांक्षा बड़ी भारी भूल है। जिसका मूल मजबूत हो उसे ही फल-फूल छाया मिल सकती है। जीवों की रक्षा के लिए धर्म कहा गया है न कि परिग्रह की रक्षा को। जीव हत्या के इस अंधकार में विकास के प्रकाश की आशा व्यर्थ है। सुख-सुविधाओं के लिए चेतन धन का संहार समूची मानवता के लिए कलंक है अभिशाप है। दूध की नदिया जिस देश में बहती थी उस देश में पशुओं के खून की नदिया बह रही हैं, क्या यही विकास है | हमारा खान-पान, बोल-चाल, वस्त्र, वेश-भूषा भी शाकाहारी अहिंसक होने का परिचय देती है। तभी तो खादी की चादरें लिपटा कर गाँधी जी महात्मा कहलाने लगे। कर्म निर्जरा में यदि श्रद्धान है तो वह निर्जरा किसके माध्यम से होगी ये प्रयोग करना है। सम्यक दर्शन को पुष्ट करने के लिए हमें वात्सल्य अंग को नहीं भूलना। अपने आप को भले ही भूल जाये। हमें भूखा प्यासा नजर आ जाये बस अध्यात्म पिला दें, समय हमारा व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। पूंजी अच्छे से लगाओ और व्यापार करो। जैसे गाय बछड़े पर स्नेह करती है इसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचन वत्सलत्व है। वात्सल्य एक स्वाभाविक भाव है। साधर्मी को देखकर उल्लास की बाढ़ आना ही चाहिए। प्रवचन वात्सल्य का उतना ही अधिक महत्व है जितना प्रथम दर्शन विशुद्धि भावना का है। साधर्मी में वात्सल्य रखने वाला अवश्य ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करेगा। साथ वालों के साथ औचित्यपूर्ण व्यवहार ही होना चाहिए, किन्तु आज देखने में आता है कि सजातीय भाइयों में प्रेम ओझल सा हो गया है। हम हाथी के साथ चल सकते हैं लेकिन साथी के साथ नहीं। दूध, पानी को मिला सकता है, विजातीय होने पर भी, पर हम तो सजातीय को भी नहीं मिला पाते। प्रवचन वत्सलत्व का अर्थ है, साधर्मियों के पति करुणाभाव। साधर्मियों से हमारी लड़ाई और विधर्मियों से प्रेम ही हमारे पतन का कारण है। चेतन की कीमत करो जड़ की ही ज्यादा कीमत मत किया करो। जड़ तो जड़ होता है, उसमें संवेदना नहीं होती उस पर कितना भी उपकार करें तो भी उसमें प्रेम वात्सल्य नहीं होता। प्रेम वात्सल्य तो जीवित प्राणी में ही होता है। वात्सल्य भाव को गौवत्स सम कहा है, गौवत्स के वात्सल्यमय दृश्य को देखकर लोग कहते हैं कि ये मांगलिक शकुन है, इसे देख लिया तो अब हमारा कार्य सानंद सम्पत्र होगा। वात्सल्य का उत्पादन करने वाली जननी गाय है। आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी मात्र मनुष्य को सुखी बनाने में लगे हैं, प्राणी मात्र को सुखी बनाने की दृष्टि नहीं है प्राणी मात्र के प्रति करुणा दया के भाव नहीं हैं। जहाँ पर विवेक बुद्धि सुरक्षित है वहाँ दया धर्म है। जब दया धर्म ही जीवन में नहीं तो आत्मा की बात कहाँ से आयेगी। दया धर्म ही मूल्यवान सम्पदा है, जिससे अनंतकाल की दीन दरिद्रता समाप्त हो जाती है।
  11. वैय्यावृत्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दूसरे की वैयावृत्य करते समय अपनी वेदना मालूम नहीं पड़ती वह अपने कष्ट की ओर नहीं देखकर सामने वाले को आराम देना चाहता है। यह आकांक्षा सम्यग्दृष्टि की होती है। वह सोचता है कि यह किसी प्रकार से बच जाये और धर्म धारण कर ले। अटेचमेंट नहीं हो सहयोग में यानी उसकी ईहा। यदि हो रही है कुछ कार्य की तो उसे भी समझाएँ कि ये क्या कर रहे हो? प्रभावित नहीं होना, न ही करना। वैय्यावृत्ति का क्षेत्र बहुत लम्बा-चौड़ा है। जो वैय्यावृत्ति करने में कमजोरी रखता है वह संघ के विघटन में कारण होगा। प्रशम संवेगादि भी नहीं रहेंगे। वात्सल्यादि भी नहीं रहेंगे। सम्यक्तव के आठ अंग का पालन भी कहाँ हुआ? प्रभावना प्रवचन ये तीर्थ की (धर्म की) वैय्यावृत्ति है। बौद्धिक वैय्यावृत्ति है। जिसके लिए जो कार्य दिया जाये और वह कार्य नहीं करे तो सब कार्य गड़बड़ हो जायेगा। वैय्यावृत्ति करने वाले की बहुत विवेक से कार्य करना चाहिए क्योंकि वैय्यावृत्ति का फल रोग की निवृत्ति है। मन की मालिश मधुर वचन के द्वारा हो सकती है। मृदुता तो हो, पर व्यंग्यात्मक हो तो वह ठीक नहीं। हाथ-पैर दबाना ही वैय्यावृत्ति नहीं है। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों के साथ निरंतराय आहार करा देना सबसे बड़ी वैय्यावृत्ति है। भगवान् के संदेश के अनुसार अपने आप को बनाना भी भगवान् की वैय्यावृत्ति है। उनकी भावना के अनुरूप अपने आप को बनाना उपास्य की उपासना जैसी आगम में विधिवत बताई गई है वैसी ही करना यह अरहंत भगवान् की वैय्यावृत्ति है। वैय्यावृत्ति करने से कर्म निर्जरा होती है और तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण होता है। रोगी को किसी व्यक्ति विशेष को नहीं देखना चाहिए अपने आहार औषध को ले लेना चाहिए। नहीं वही व्यक्ति से आहार दिलाओ वो ही मेरे साथ जाये यह सब ठीक नहीं हैं। सही निदान, औषधि, आहार और वैद्य इन चारों के निमित्त से उपचारक सही-सही वैय्यावृत्ति कर पाते हैं। गर्मी में भी गर्म पानी से माथा या सिर धो लिया जाता है तो बहुत जल्दी शांति मिल जाती है। वैय्यावृत्ति तो इस ढंग से होना चाहिए कि किसी को पता भी न चले, चाहे बहिनें करें चाहे श्रावक करें। वैय्यावृत्ति के समय कुछ विरोधी बिन्दु सामने रखेंगे तो वैय्यावृत्ति का फल भी नहीं मिलेगा। और जिसकी वैय्यावृत्ति होगी वह भी अधिक अस्वस्थ्य हो जायेगा। जिनसे उपवास नहीं होता तो उपवास करने वालों की वैय्यावृत्ति करने का सौभाग्य प्राप्त करने में आनन्दित हों। कितना भी कोई कुछ सुना दे लेकिन वैय्यावृत्ति नहीं छोड़े इसको कहते हैं कर्तव्यनिष्ठता। इसको (वैय्यावृत्ति को) करने से अपना सम्यक दर्शन और प्रौढ़ होता है। स्थितिकरण, उपगूहन, वात्सल्य भी इससे पुष्ट होता है। इससे बड़ा और कौन सा काम है? वैय्यावृत्ति के लिए समय बहुत देना पड़ता है। किसके माध्यम से करायें। कैसे करायें? सबकुछ सोच-विचार कर कार्य करना आवश्यक होता है। मन मिलाने का, वात्सल्य पाने का, एक ही उपाय है वैय्यावृति । वैय्यावृत्ति विधिवत् होना चाहिए। अनुशासित रूप से होना चाहिए। वैय्यावृत्ति के लिए तो सारे काम बन्द हो जाना चाहिए और वैय्यावृत्ति में लगना चाहिए। संघ का निर्वाह जो होता है, वह आपस में वैय्यावृति में लगने से होता है। वैय्यावृत्ति जो कर रहे हैं वो शुभोपयोग के साथ हैं। मीठे-मीठे वचनों से मन की वैय्यावृत्ति की जाती है। तप करना चाहते हैं तो सबसे बड़ा तप है वैय्यावृत्ति। साधना में सहयोग मिलाना ही वैय्यावृत्ति है। समता, विवेक, सूझबूझ सभी गुण होना चाहिए तभी सही वैय्यावृत्ति कर सकता है। ऑपरेशन जैसी सावधानी रखना होती है। मूलगुण (व्रत) वाला ही उत्तरगुण वैय्यावृत्ति कर सकता है। श्रावक, धर्म के लिए दान देकर वैय्यावृत्ति करता है। जिस समय जो आवश्यक हो उसकी पूर्ति करना वैय्यावृत्ति है। मानसिक, वैय्यावृत्ति पारलौकिक वैय्यावृत्ति है। जब तक वैय्यावृत्ति नहीं करोगे तब तक अंतरंग तप नहीं होगा। जो वैय्यावृत्ति नहीं करता उसके व्रत ठूंठ वृक्ष से पक्षी की भाँति उड़ जाते हैं। आवश्यक और सीमा के अनुरूप ही वैय्यावृत्ति होनी चाहिए। वात्सल्य अंग को रखना चाहते हो तो वैय्यावृत्ति को भूलना नहीं चाहिए। गुणों के प्रति अनुराग नहीं रखेगा वह वास्तविक वैय्यावृत्ति नहीं कर सकता। गुणों के प्रति आदर होने से वैय्यावृत्ति करता हुआ आगे उन्हीं गुणों को प्राप्त करता है। वैय्यावृत्ति करने वाला नियम से ही विनयशील होता है। वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं, दूसरो की सेवा में निमित बनकर अपने अंतरंग में उतरना ही सबसे बड़ी सेवा है। रोगी को सुख पहुँचाने का उपाय हमेशा-हमेशा केवल शारीरिक नहीं रहता किन्तु मानसिक भी रहता है। यदि आप बाहर अच्छे ढंग से तेल घी के माध्यम से अंगोपांग की मालिश कर रहे हैं और उसके साथ-साथ व्यंग्य की एकाध पुड़िया छोड़ते चले जाओ तो क्या होगा? मन की भी मालिश हुआ करती है, वैय्यावृत्ति हुआ करती है और वह मन की वैय्यावृत्ति जो है वह मधुर वचनों के माध्यम से हुआ करती है। सेवा करने वाला वास्तव में अपने ही मन की वेदना मिटाता है यानी अपनी ही सेवा करता है। दूसरे की सेवा में भी अपनी ही सुखशांति की बात छिपी रहती है। लौकिक दृष्टि से हम दूसरे की सेवा भले कर लें किन्तु पारमार्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ी सेवा अपनी ही हो सकती है। शरीर की सड़ांध का हम इलाज करते हैं किन्तु अपने अन्तर्मन की सड़ांध/उत्कट दुर्गंध को हमने कभी असह्य माना ही नहीं। आत्मा में अनादि से बसी हुई दुर्गंध को निकालने का प्रयास ही वैयावृत्य का मंगलाचरण है। स्वयंसेवक बनो, पर सेवक मत बनो। पवित्र सेवा की भावना और मंत्रोच्चार में जो शक्ति है बंधुओ! वह जीवन को उन्नत तो बनाती ही है किन्तु शांति समृद्धि का साम्राज्य भी स्थापित करती है। सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है।
  12. वदसमिदिपालणाए, दंडच्चाएण इंदियजएण। परिणममाणस्स पुणो, संजमधम्मो हवे णियमा॥ व्रत व समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रियजय यह सब जिसको होते हैं, उसको नियम से संयम धर्म होता है। 'अनाश्रिता लता स्वयमेव लीयते' आश्रयहीन बेल अपने जीवन की अन्तिम बेला आने से पूर्व स्वयमेव ही समाप्त हो जाती है। वह स्वयं अपनी शक्ति के द्वारा जमीन से रस खींचकर अपना विकास करती है। इसके उपरान्त भी वह बहुत जल्दी समाप्त हो जाती है, क्योंकि वह अनाश्रित होती है। किन्तु बाग का होशियार माली जब उस बेल के फैलते ही उसे लकड़ी का सहारा देकर हल्के से बाँध देता है तब वह ऊध्र्वगामी होकर बहुत ऊँचाई पर पहुँच जाती है। हल्का सा वह बाँधा गया, बंधन उसे उन्नति में बाधक नहीं बनता अपितु ऊँचे बढ़ने में साधक ही बनता है। अगर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यह जो सहारा दिया गया उस बेल को, वह सहारा अपने आप में है और बेल का बढ़ना अपने आप में है। फिर भी यदि सहारा नहीं मिलता तब वह बेल निश्चित ही ऊध्र्वगामी न होकर अधोगामी हो जाती और शीघ्र ही मरण को प्राप्त हो जाती। या यूँ कहिये कि उसका असमय में ही जीवन समाप्त हो जाता। यह तो एक उदाहरण है, आप समझ गये होंगे सारी बात। जिस दिशा की ओर बढ़ने की हमारी भावना हो तथा जो हमारी दृष्टि या लक्ष्य हो, उसके अनुरूप फल पाने के लिए हमें एक सशक्त सहारे की और हल्के से बंधन की आवश्यकता तो होती है। आज का संयम धर्म आलम्बन और बंधन दोनों रूपों में है। मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥४७॥ आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में बहुत अच्छी बात हमारे लिए कहकर गये हैं कि जिसका मोहरूपी अंधकार समाप्त हो गया है, जिसे सम्यग्दर्शन का लाभ होने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति सहज हो गयी है, इसके उपरान्त वह क्या करे? जब तक अंधकार का अभाव नहीं हुआ था, सम्यक्त्व का सूर्य नहीं उगा था, तब तक बिस्तर पर पड़े पड़े वह सोच रहा था और सोचना उसका ठीक भी था कि ज्यों ही सूरज का उदय होगा, अंधकार हटेगा त्यों ही उसके कदम आगे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जायेंगे। अब जब प्रकाश हो गया, अंधकार हट गया तो अब क्या करें? अब यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि क्या करें? जीवन की उन्नति का विचार रखने वाले के लिए प्रकाश अपने आप बता देता है कि क्या करना आवश्यक है? ठीक ऐसे ही जैसे कि मंदाग्नि समाप्त होने पर भूख लगती है और अपने आप ज्ञात हो जाता है कि मुझे क्या करना है? सम्यग्दृष्टि को तो यह पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती कि अब क्या करना है? शान्तिनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि- न स्नेहाच्छरण प्रयान्ति भगवन्! पादद्वयं ते प्रजा, हेतुस्तत्र विचित्र-दुःख-निचयः, संसार घोरार्णवः। अत्यन्त–स्फुरदुग्र -रश्मि-निकर,–व्याकीर्ण–भूमण्डलो, ग्रैष्मः कारयतीन्दु-पाद-सलिलच्-,छायानुरागं रविः॥ (शान्तिभक्ति–१) हे भगवन्! मैंने जो आपके चरणों की शरण गही है वह मात्र यह सोचकर नहीं कि आपके चरण बहुत सुन्दर हैं, बहुत अच्छे हैं, बहुत उपकारी हैं, उनके प्रति स्नेह करना चाहिए और न ही आपके चरणों ने मुझे आपके पास आने का कोई सन्देश भेजा है पर फिर भी मैं आपके ही पास आया हूँ, अन्यत्र नहीं गया। इसका कारण तो एक मात्र यह विचित्र कर्मों के समूह से सहित संसार रूपी भयंकर समुद्र है क्योंकि अत्यन्त प्रचण्ड किरणों से धरती को तपा देने वाला ग्रीष्मकाल का सूर्य स्वयमेव ही चन्द्रमा की किरणों से, पानी से और छाया से अनुराग करा देता है। कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अनादिकाल की प्यास और पीड़ा ही मुझे यहाँ तक ले आयी है। आपके प्रति अनुराग सहज ही हो गया। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का उदय होते ही चरण शीघ्र ही, मज्जिल की ओर चल पड़ते हैं। राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए साधु-पुरुष चरित्र का आश्रय सहज ही ले लेते हैं। आज संयम का दिन है। उत्तम संयम का दिन है। आप लोगों के लिए अभी तक संयम एक प्रकार से बंधन ही लगा करता है। लेकिन जैसे उस लता के लिए लकड़ी आलम्बन और बंधन के रूप में उसके अपने विकास के लिए आवश्यक है। उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान को अपनी चरम सीमा अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाने वाला ही संयम का आलम्बन और बंधन है। उसका सहारा लेते समय ध्यान रखना कि जैसे योग्य खाद्य और पानी देना भी पौधों के लिए अनिवार्य है, अकेले सहारे या बंधन से काम नहीं चलेगा, वैसे ही संयम के साथ शुद्ध भाव करना भी अनिवार्य है। आज तक संयम के अभाव में ही इस संसारी-प्राणी ने अनेक दुख उठाये हैं। जो उत्तम संयम को अंगीकार कर लेता है, साक्षात् या परम्परा से वह मोक्ष अवश्य पा लेता है। आत्मा का विकास संयम के बिना सम्भव नहीं है। संयम वह सहारा है जिससे आत्मा उध्र्वगामी होती है। पुष्ट और सन्तुष्ट होती है। संयम को ग्रहण कर लेने वाले की दृष्टि में इन्द्रिय के विषय हेय मालूम पड़ने लगते हैं। लोग उसके संयमित जीवन को देखकर भले ही कुछ भी कह दें, पागल भी क्यों न कह दें, तो भी वह शान्त भाव से कह देता है कि आपको यदि खाने में सुख मिल रहा है तो मुझे खाने के त्याग में आनन्द आ रहा है। मैं क्या करूं? यह तो अपनी-अपनी दृष्टि की बात है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। इसलिए वह सब कुछ छोड़कर भी आनन्दित होता है। प्रारम्भ में तो संयम बंधन जैसा लगता है लेकिन बाद में वही जब हमें निबन्ध बना देता है, हमारे विकास में सहायक बनता है, हम ऊपर उठने लगते हैं और अपने स्वभाव को प्राप्त करके आनन्द पाते हैं, तब ज्ञात होता है कि यह बंधन तो निबन्ध करने का बंधन था। प्रारम्भ में मन और इन्द्रियों की स्वच्छंदता को दूर करने के लिए संयम का बंधन स्वीकार करना हमारे हित में है। जब हम बचपन में साइकिल चलाते थे, तब साइकिल चलाना तो आता नहीं था और मन करता था कि साइकिल चलायें और पूरी गति से चलायें, तभी आनन्द आयेगा। साइकिल बड़ी थी और सीट पर हम बैठ नहीं पाते थे, क्योंकि शरीर की ऊँचाई कम थी और यदि सीट पर बैठ भी जायें तो पैर पैडिल तक पहुँच नहीं पाते थे। तब पहले-पहले पीछे कोई व्यक्ति पकड़ता था और आगे भी एक हाथ से हैण्डिल पकड़ता था। धीरे-धीरे हैण्डिल पकड़ना आने लगा लेकिन बिना सहारे चला नहीं पाते थे। फिर पैरों में जब अभ्यास हुआ और हाथ से पकड़ने की क्षमता भी आ गयी और अपने बोझ को सँभालने का साहस भी आ गया तो हमने कहा कि भइया! तुम पकड़ते क्यों हो? छोड़ दो। लेकिन कुछ दिन वह पीछे से सहारा देकर पकड़े रहता था। कभी जरा छोड़ता था तो गिरने की नौबत आ जाती थी। फिर उसने कहा कि देखो मैं इस तरह पकड़े हूँ कि तुम्हें चलाने में बाधा नहीं आती। पीछे पकड़कर मैं खींचता नहीं हूँ, मैं तो मात्र सहारा दिये रहता हूँ। यही संयम का बंधन ऐसा ही सहारा देने वाला है। फिर जब पूरी तरह अपने बल पर चलने की क्षमता आ गयी तो उसने अपने आप छोड़ दिया। लेकिन समझा दिया कि ध्यान रखना मोड आने पर या किसी के सामने आ जाने पर Brake (रोधक) का सहारा अभी भी लेना पड़ेगा। संयम के पालन में निष्णात हो जाने पर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में विशेष सावधानी की आवश्यकता पड़ती है। एक बार आनन्द लेने के लिए गाड़ी को हम चढ़ाव पर लेकर गये, फिर उसके उपरान्त उतार पर गाडी को लगा दिया और पाँच-छह पैडिल भी तेज-तेज चला दिया। गति ऐसी आ गयी कि अब संभालना मुश्किल लगने लगा। आगे एक मोड़ था और सँभालना नहीं आ रहा था। अचानक ब्रेक लगाऊं तो गिरने का डर था। तब एक पगडण्डी जो सड़क के बाजू से जाती थी, जो थोड़ी चढ़ाव वाली थी। बस! हमने उस और हैण्डिल मोड़ दिया और गाड़ी उस पगडण्डी पर जाकर धीरे-धीरे थम गयी। अगर ऐसे ही छोड़ देता तो नियम से गिरना पड़ता। अर्थ यह हुआ कि संयम के साथ सावधानी की बडी आवश्यकता है। आप लोग तो अभी Brake (रोधक) लगाये बिना ही गाड़ी को दौड़ा रहे हैं और नीचे जाते हुए भी आँख मींचे बैठे हैं। अनन्तकाल यूँ ही व्यतीत हो गया। आप सोचते हैं कि हम सुरक्षित रह जायेंगे, लेकिन आप स्वयं सोची, क्या संयम के बिना जीवन सुरक्षित रह पायेगा? जैसे गाड़ी सीखने-समझने के उपरान्त भी संयम और सावधानी की बडी आवश्यकता है, ऐसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो जाने के उपरान्त भी संयम की बडी आवश्यकता है। कोई चैम्पियन भी क्यों न हो, उसे भी वाहन चलाते समय संयम रखना पड़ता है अन्यथा दुर्घटना होने में देर नहीं लगती। सड़क के नियमों का पालन न करें तो भी दुर्घटना हो सकती है। जैसे सड़क पर चलने वाले हर यात्री को सड़क के नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है, उसी प्रकार मोक्ष के मार्ग में चलने वाले के लिए नियम-संयम का पालन अनिवार्य है। लेटे हुए व्यक्ति को कोई विशेष सावधानी की आवश्यकता नहीं पड़ती, पर बैठे हुए व्यक्ति को थोड़ी सावधानी की आवश्यकता है। क्योंकि बैठे-बैठे भी असावधानी होने से गिरना सम्भव है। इसके उपरान्त यदि कोई व्यक्ति एक स्थान पर खड़ा हो जाये और आँख मींच ले, तब तो बडी सावधानी रखने की आवश्यकता होती है। ऐसे ही मोक्षमार्ग में स्थित होकर नियम-संयम से चलने वाले को सावधानी रखने की बडी आवश्यकता है। आचार्यों ने कहा है कि खडे होकर साधक यदि ध्यान लगाये या महाव्रती आहार ग्रहण करें तो इस बात का ध्यान रखे कि दोनों पञ्जों के बीच में लगभग बारह अंगुल का और दोनों पैरों की एड़ियों के बीच कम से कम चार अंगुल का अन्तर बनाये रखें। तभी संतुलन (Balance) अधिक देर तक बना रह सकेगा, अन्यथा गिरना भी सम्भव है। यह तो खड़े होने की बात कही। यदि आप चल रहे हैं और मान लीजिये बहुत सकरे रास्ते से चल रहे हैं तब तो और भी सावधानी रखनी होगी। शिखरजी में चन्द्रप्रभु भगवान् की टोंक पर चढ़ते समय सकरी पगडण्डी से चलना पड़ता है। सीढ़ियाँ नहीं हैं, उबड़-खाबड़ रास्ता है, तो वहाँ सन्तुलन आवश्यक हो जाता है। वैसे ही सभी जगह सन्तुलन आवश्यक है। अभी आप यहाँ सुन रहे हैं। सुनने के लिए भी सन्तुलन की आवश्यकता है। जरा भी ध्यान यहाँ-वहाँ हुआ कि शब्द छूट जायेंगे। बात पूरी समझ में नहीं आ पायेगी। अभी थोड़ी देर पहले हम बोलते-बोलते रुक गये थे। आप पूछ सकते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? तो बात ये है भइया! कि आचार्यों ने हमारे लिए भाषा-समिति पूर्वक बोलने का आदेश दिया है। आचार्यों ने कहा कि हमेशा संयम का ध्यान रखना। असंयमी के बीच बैठकर भी असंयम का व्यवहार नहीं करना। जिस समय बोलना सहज रूप से सम्भव हो उसी समय बोलना। यदि बोलते समय किसी व्यवधान के कारण बोलने में विशेष शक्ति लगानी पड़े तो भाषा-समिति भंग होने की संभावना रहती है। अभी ऊपर पण्डाल पर पानी की बूंदों के गिरने की तेज आवाज आ रही थी और माइक होते हुए भी आवाज आप तक नहीं पहुँच रही थी अत: तेज आवाज में बोलना ठीक नहीं था, इसलिए चुप रह गया। 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा।' प्रमाद पूर्वक प्राणों का घात करने से नियम से हिंसा होती है। अत: संयम सभी क्षेत्रों में रखना होगा। संयम से व्यक्ति का स्वयं बचाव होता है और दूसरे का बचाव भी हो जाता है। जब आप लौकिक कार्यों में भी संयम का ध्यान रखते हैं तो आचार्य कहते हैं कि जिस मोक्षमार्ग पर मुमुक्षु चलता है उसके लिए तो चौबीसों घण्टे या जीवन पर्यन्त ही सावधानी की, संयम की बड़ी आवश्यकता होती है। थोड़े समय के लिए भी यदि असंयम भाव आ जायेगा तो नियम से वह गुणस्थान से नीचे गिर जायेगा अर्थात् परिणामों से पतित हो जायेगा। तब जहाँ निर्जरा होना अपेक्षित थी, वहाँ निर्जरा न होकर बंध होना प्रारम्भ हो जायेगा। असंयम के द्वारा जो बंध होता है वह कभी भी पूरी तरह निर्जरित नहीं हो सकता और मुक्ति भी नहीं मिलती। संयम के साथ जो संवर पूर्वक निर्जरा होती है उसी से निर्बन्ध दशा की प्राप्ति होती है। संयम के द्वारा प्रतिक्षण असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती रहती है। "सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपक-क्षीणमोहजिनाः क्रमशोसंख्येयगुणनिर्जरा:" तत्वार्थसूत्र (९/४५) इसमें कहीं भी असंयम के द्वारा असंख्यातगुणी निर्जरा होने का उल्लेख नहीं आया। सम्यग्दर्शन के साथ भी मात्र उत्पति के समय असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, उसके उपरान्त नहीं। जीवन पर्यन्त सम्यग्दृष्टि अकेले सम्यक्त्व के द्वारा असंख्यात गुणी निर्जरा नहीं कर सकता। लेकिन यदि वह देशसंयम को अंगीकार कर लेता है अर्थात् श्रावक के व्रत अंगीकार कर लेता है, तो उसे असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगती है। एक अव्रती क्षायिक सम्यग्दृष्टि मान लीजिये सामायिक के काल में सामायिक करने बैठा है तो भी उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा नहीं होगी और वहीं एक देशव्रती भोजन कर रहा है तो भी उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा हो रही है। आचार्य कहते हैं कि यही तो संयम का लाभ है तथा संयम का महत्व है। यदि कोई सकल-संयम को धारण करके महाव्रती बन जाता है तो उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा और बढ़ जाती है। एक देशसंयमी श्रावक सामायिक में जितनी कर्म-निर्जरा करता है उससे असंख्यात गुणी निर्जरा एक मुनि महाराज आहार लेते समय भी कर लेते हैं। इसका कारण यही है कि जिसने संयम की ओर कदम ज्यादा बढ़ाये हैं उसकी कर्म-निर्जरा भी उतनी ज्यादा होगी। इतना ही नहीं, जिसने संयम की ओर कदम बढ़ाये उसके लिए बिना मांगे ऐसा अपूर्व-पुण्य का सञ्चय भी होने लगता है जो असंयमी के लिए कभी सम्भव ही नहीं है। संयम वह है जिसके द्वारा अनन्तकाल से बने संस्कार भी समाप्त हो जाते हैं। तीर्थकर भगवान भी घर में रहकर मुक्ति नहीं पा सकते। वे भी संयम लेने के उपरान्त निर्जरा करके सिद्धत्व को प्राप्त करते हैं। सम्यग्दर्शन का काम इतना ही है कि हमें प्रकाश मिल गया। अब मज्जिल पाने के लिए चलना हमें ही है। उद्यम हमें करना है और उस उद्यम में जितनी गति होगी उतनी ही जल्दी मज्जिल समीप आ जायेगी । संयम के माध्यम से ही आत्मानुभूत होती है। संयम के माध्यम से ही हमारी यात्रा मञ्जिल की ओर प्रारम्भ होती है और मज्जिल तक पहुँचती है। यात्रा-पथ तो संयम का ही है। देशसंयम और सकल संयम ही पथ बनाते हैं क्योंकि चलने वाले से ही पथ का निर्माण होता है। बैठा हुआ व्यक्ति पथ का निर्माण नहीं कर सकता। वह पथ को अवरुद्ध अवश्य कर सकता है। असंयम के संस्कार अगर देखा जाए तो अनादिकाल से हैं तभी तो आज तक आप कभी भी, भूलकर भी, स्वप्न में भी दीक्षित नहीं हुए होंगे। कभी मुनि महाराज बनने का स्वप्न नहीं देखा होगा। हाँ, महाराजों को आहार देने का स्वप्न अवश्य देखा होगा। जिसकी संयम में रुचि गहरी है वह स्वप्न में भी अपने को संयमी ही देखता है। जिसका मन अभी दिन में भी भगवान् की पूजा, भक्ति और संयम की ओर नहीं लगता वह रात्रि में स्वप्न में भगवान् की पूजा करते हुए या संयम पूर्वक आचरण करते हुए स्वयं को कैसे देख पायेगा? बन्धुओ! अगर अपना आत्मकल्याण करना हो तो संयम कदम-कदम पर अपेक्षित है। लेकिन ध्यान रखना, संयम के माध्यम से किसी लौकिक चीज की अपेक्षा मत रखना। अन्यथा वह बाह्य तप या अकामनिजरा की कोटि में ही आयेगा। समन्तभद्र स्वामी ने स्वयम्भू-स्तोत्र में शीतलनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि- अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते। भवान्पुनर्जन्मजराजिहासया त्रयीं प्रवृत्तिं समधीरवारुणत्॥४॥ हे शीतलनाथ भगवन्! आपने जो संयम धारण किया, आपने जिस चारित्र को अंगीकार किया उसका उद्देश्य साधारण नहीं था। अन्य तपस्वियों की तरह आपने 'अपत्य-तृष्णया' अर्थात् पुत्र-रत्न की प्राप्ति की वाञ्छा से या 'वित्त-तृष्णया' अर्थात् धन–प्राप्ति की आकांक्षा से या “उत्तरलोकतृष्णया' अर्थात् परलोक या कदाचित् इहलोक के सुखों की प्राप्ति की आकांक्षा से संयम धारण नहीं किया, अपितु जन्म-जरा और मृत्यु का नाश करने के लिए संयम को अंगीकार किया है। यही आपकी असाधारण विशेषता है। आप रात-दिन अपनी आत्मा में लीन रहे। कभी प्रमाद को अंगीकार नहीं किया तथा कषाय को भी अंगीकार नहीं किया। आपकी प्रत्येक क्रिया में सावधानी ही नजर आती है। चलते समय आप सावधान रहे, भोजन करते समय भी आपने सावधानी को नहीं छोड़ा। अत: आप जैसे संयमी की चर्या से चौबीसों घण्टे उपदेश मिलता रहता है। संयमी का पूरा जीवन ही उपदेशमय हो जाता है। दौलतरामजी ने बारह-भावना का उपसंहार करते हुए पाँचवी-ढाल में लिखा है कि- सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये | ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी || और आचार्य पूज्यपाद स्वामी भी सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में कहते हैं कि अवाक्-विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं मोक्षमार्ग-वचन बोले बिना, कुछ कहे बिना, जिनके दर्शन मात्र से मोक्षमार्ग का निरूपण होता रहता है, ऐसे सकल-संयम के धारी वीतरागी आचार्य ही भव्य जीवों का कल्याण करने में सहायक होते हैं। जिसके भीतर संयम के प्रति रुचि है वह तो संयमी के दर्शन मात्र से ही अपने कल्याण के पथ को अंगीकार कर लेता है। जिसे अभी आत्मतत्व के बारे में जिज्ञासा ही नहीं हुई कि हम कौन हैं? कहाँ से आये हैं? ऐसे कब से हैं? और ऐसे ही क्यों हैं? हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है? वह मोक्षमार्ग पर कैसे कदम बढ़ायेगा। जिसके मन में ऐसी जिज्ञासा होती है, वही संयम के प्रति और संयमी के प्रति भी आकृष्ट होता है। वह ही सच्चा मुमुक्षु है। यह तो भीतरी बात हुई, पर बाहर का भी प्रभाव कम नहीं है। एक संयमी व्यक्ति के संयमित आचरण को देखकर दूसरा भी संयम की ओर कदम बढ़ाने लग जाता है। जैसे क्लास में एक विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पर आ जाये तो सारे के सारे विद्यार्थियों की दृष्टि उस ओर चली जाती है और मास्टर को कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि तुम सभी को और मेहनत पढ़ाई में करनी चाहिए। विद्यार्थी अपने आप पढ़ने में मेहनत करने लग जाते हैं। एक राजा यदि संयम ग्रहण कर लेता है तो अन्य प्रजाजनों के मन में भी संयम के प्रति अभिरुचि अवश्य जागृत होने लगती है। वीतरागता की सुगन्ध अपने आप सभी तरफ फैलकर अपना प्रभाव डालती है और स्वयमेव ज्ञात होने लगता है कि आत्मोपलब्धि के लिए संयम की बडी आवश्यकता है। संयम का एक अर्थ इन्द्रिय और मन पर लगाम लगाना भी है और असंयम का अर्थ बेलगाम होना है। बिना ब्रेक की गाड़ी और बिना लगाम का घोड़ा जैसे अपनी मज्जिल पर नहीं पहुँचता उसी प्रकार असंयम के साथ जीवन बिताने वाले को मज्जिल नहीं मिलती। एक नदी मज्जिल तक तभी पहुँच सकती है, सागर तक तभी जा सकती है जब कि उसके दोनों तट मजबूत हों। यदि तट भंग हो जायें तो नदी वहीं-कहीं मरुभूमि में विलीन हो जायेगी। उसी प्रकार संयम रूपी तटों के माध्यम से हम अपने जीवन की धारा को मज्जिल तक ले जाने में सक्षम होते हैं। अकेला सम्यग्दर्शन विषयों की ओर जाते हुए इन्द्रिय और मन को रोक नहीं पाता। उसके साथ सम्यक्रचारित्र का होना भी नितान्त आवश्यक है। संयमी व्यक्ति ही कर्म के उदय रूपी थपेड़े झेल पाता है। जैसे बिजली के वायर में भारी से भारी करेण्ट क्यों न हो, लेकिन एक जीरो वॉट का बल्ब लगा दिया जाए तो वह सारे के सारे करेण्ट को सँभाल देता है और धीमा-धीमा प्रकाश बाहर आ पाता है। जबकि उसी स्थान पर अगर सौ वॉट का बल्ब लगा दिया जाये तो पूरा प्रकाश बाहर आने लगता है इसी प्रकार भीतरी कर्म के उदय को संभालने के लिए संयम जीरो वॉट के बल्ब की तरह काम करता है। वह उदय आने पर विचलित नहीं होने देता। संयम बनाये रखता है। कर्म अपना प्रभाव पूरा नहीं दिखा पाता। कर्म के वेग और बोझ को सहने की क्षमता असंयमी के पास नहीं है। वह तो जब चाहे तब जैसा कर्म का उदय आया, वैसा कर लेता है। खाने की इच्छा हुई और खाने लगे। देखने की इच्छा हो गयी तो देख लिया। सुनने की इच्छा हुई तो सुन लिया। वास्तव में देखा जाये तो इन्द्रियाँ कुछ नहीं चाहती। वे तो खिड़कियों के समान हैं। भीतर बैठा हुआ मन ही उन खिड़कियों के माध्यम से काम करता रहता है। कभी कर्णन्द्रिय के माध्यम से शब्द की ओर आकृष्ट होता है, कभी आँख के द्वारा रूप को देखकर मुग्ध हो जाता है, कभी नासिका के द्वारा सँघ लेता है, कभी वह रसना इन्द्रिय के द्वारा रस चखने की आकांक्षा करता है, तो कभी स्पर्श इन्द्रिय के माध्यम से बाह्य पदार्थों के स्पर्श में सुख मानता है। जो उस मन पर लगाम लगाने का आत्म पुरुषार्थ करता है, वही संयमी हो पाता है और वही कर्म के उदय को, उसके आवेग को झेल पाता है। वह संयमी विचार करता है कि इन्द्रियों के विषयों की ओर जाना आत्मा का स्वभाव नहीं है। मेरा/आत्मा का स्वभाव तो मात्र अपनी ओर देखना और अपने को जानना है। संयमी ही ऐसा विचार कर पाता है और संयमी ही आत्म पुरुषार्थ के बल पर अपने स्वभाव को प्राप्त कर लेता है। न भूत की स्मृति, अनागत की अपेक्षा, भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा | ज्ञानी जिन्हें विषय तो विष दीखते हैं, वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं || (समयसार-गाथा का हिन्दी पद्यानुवाद आचार्य विद्यासागर कृत) संयमी ही वास्तव में ज्ञानी है। जिसे पूर्व में भोगे गये इन्द्रिय विषयों की स्मृति करना भी नहीं रुचता और आगे भोगोपभोग की सामग्री मिले, ऐसी लालसा भी मन में नहीं आती। वह तो विषयों को विष मानकर छोड़ देता है और निरन्तर हमें/संसारी प्राणियों को वैराग्य का पाठ सिखाता है। वैराग्य का पाठ सिखाने वाला संयमी के अलावा और कोई नहीं हो सकता। आप चाहो कि संयम के अभाव में मात्र सम्यग्दर्शन में यह काम हो जाये तो सम्भव नहीं है। मैं पूछता हूँ कि यदि धर्म का फल मुक्ति है, ऐसा मजबूत श्रद्धान आपका है तो मोक्षमार्ग पर चलने का साहस क्यों नहीं है? रात्रि में खाते नहीं हैं, पर रात्रि भोजन का त्याग भी नहीं है। तात्पर्य यही हुआ कि कभी खाने का अवसर आया तो खा भी लेंगे। रास्ते से चलते समय आप देखकर चलते हैं, क्योंकि कंकर-पत्थर या काँटा लगने का भय है, लेकिन नीचे देखकर चलने के पीछे चींटी आदि को बचाने का भाव कभी नहीं आता। खाने-पीने की चीजें देखकर खाते पीते हैं कि कहीं भीतर जाकर शरीर के लिए बाधक न बन जायें। वहाँ दृष्टि आगम की अपेक्षा शोधन करने की नहीं है। अभिप्राय में यही अन्तर असंयम का प्रतीक है। एक बार पन्द्रह अगस्त की बात है। जिस समय हम स्कूल जाते थे। स्कूल में सुबह पहले प्रभात फेरी निकाली गयी फिर बाद में ध्वजारोहण किया जाना था। प्रबन्ध सब हो गया। ध्वजारोहण के साथ ही पुष्पवृष्टि की व्यवस्था भी की गयी थी। जब ध्वजारोहण के लिए डोर खींची गयी तो पुष्पवृष्टि नहीं हुई और ध्वजा भी नहीं फहरायी। बात यह हुई कि असावधानी हो गयी। ऐसी गाँठ ध्वजा की डोर में लगा दी कि समय पर डोर खींचने से खुली नहीं और ध्वजा के साथ पुष्पवृष्टि भी नहीं हुई। दुनियाँ के बंधन सब ऐसे ही हैं। तब हमने उसी समय समझ लिया कि भइया! ऐसे बंधन में नहीं बँधना है कि जिसके द्वारा जीवन में पुष्पवृष्टि रुक जावे। धर्म का फल मुक्ति है, ऐसा श्रद्धान होते ही संयम में इस ढंग से बँधी कि धर्म-ध्वजा ऊपर भी पहुँच जाये और ऊपर पहुँचकर फहराये तथा पुष्पों की वर्षा भी हो। बिना बंधे तो ध्वजा ऊपर नहीं जायेगी और न ही पुष्प ऊपर जा पायेंगे, इसलिए बंधन तो अनिवार्य है, पर ऐसा बंधन कि डोर खींचते ही ध्वजा फहराये और पुष्पों की वर्षा हो। गाँठ इतनी ढीली भी न हो कि बीच में ही खुल जाये और पुष्प गिर जायें। अकाल वृष्टि भी ठीक नहीं, अत: समय पर वृष्टि हो और वातावरण में सुगन्ध फैल जाये। बन्धुओ! संयम ऐसा होना चाहिए जो जीवन में सुगन्धि पैदा कर दे। संयम के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में आदि से लेकर अन्त तक पुष्पवृष्टि के द्वारा अभिषिक्त होता रहता है। उसके जीवन में कभी विषाद या विकलांगता या दीनता-हीनता नहीं आती। वह तो राजाओं से बढ़कर अर्थात् महाराजा बनकर निश्चिन्तता को पा लेता है। उसे किसी बात की चिन्ता नहीं रहती। वह हमेशा खुश रहता है। ध्यान रखना-खुश्क नहीं रहता, खुश रहता है। (हँसी) हाँ ऐसा ही खुश। उसके वचन भी खुश करने वाले रहते हैं। जीवन भी खुश रहता है। सभी कुछ खुश रहता है और इस खुशहाली का कारण उत्तम-संयम ही है। सारे बंधनों से मुक्त होकर, सभी कुछ छोड़कर एक मात्र सच्चे देव-गुरु-शास्त्र से बंधना होता है, तभी जीवन में स्वतन्त्रता आती है। जीवन में उच्छंखलता ठीक नहीं है। भारत को स्वतन्त्रता पाये आज लगभग अड़तीस वर्ष हो गये, लेकिन स्वतन्त्रता जैसा अनुभव यदि कोई नहीं कर पाता तो उसका कारण यही है कि संयम को प्राप्त नहीं किया। वैसे तो स्वतन्त्रता को प्राप्त करना ही कठिन है, लेकिन स्वतन्त्रता के द्वारा आनन्द का अनुभव करना बिना संयमित जीवन के सम्भव नहीं है। संयम के साथ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जीवन में सुगन्ध आ रही है या नहीं? जीवन में संयम के साथ सुगन्ध तभी आती है, जब हम संयम को प्रदर्शित नहीं करते बल्कि अंतरंग में प्रकाशित करते हैं। प्राय: करके यही देखने में आ जाता है कि संयम का प्रदर्शन करने वालों के जीवन में खुशबू न देखकर अन्य लोग भी संयम से दूर हटने लग जाते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि कागज के बनावटी फूलों से खुशबू आ कैसे सकती है? संयम प्रदर्शन की चीज नहीं है। दिखावे की चीज नहीं है। अष्टपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने मुनियों के लिए भावपाहुड में लिखा है कि 'भावेण होई णग्गो' यानि भाव से नग्न हो। भाव से नग्नता ही जीवन को सुवासित करेगी, मात्र बाह्य नग्नता से काम नहीं चलेगा। साथ ही, यह भी कह दिया कि सकल संयम का धारी मुनि अपने आप में स्वयं तीर्थ है। उसे अन्य किसी तीर्थ पर जाना अनिवार्य नहीं है। लेकिन वह प्रमाद भी नहीं करता यानि तीर्थ के दर्शन मिलते हैं तो अवश्य करता है और नहीं मिलने पर अपने लिए जिनबिम्ब का निर्माण भी नहीं कराता। बड़ी सावधानी का काम है। जो भगवान् को अपने हृदय में स्थापित कर लेता है वह तो प्रतिक्षण उनके दर्शन करता ही रहता है। स्वयम्भूस्तोत्र में नमिनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं कि- स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल-परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किमेवं स्वाधीन्याजगति सुलभे श्रायसपथे, स्तुयान्न त्वां विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम्॥१॥ हे नमि जिन! आप यहाँ हो तो ठीक और यहाँ नहीं हो तो भी ठीक। कुशल परिणामों के द्वारा की गयी आपकी स्तुति फलदायिनी हुए बिना रह नहीं सकती। आपके द्वारा बताया गया श्रेयस्कर मार्ग स्वाश्रित और सहज सुलभ है। इसी से तो विद्वान्-जन आपके चरणों में नतमस्तक होते हैं और आपकी ही स्तुति करते हैं। यह है संयमी की आस्था। आस्था के साथ संयमपूर्वक भक्ति की क्रिया चलती है। इसलिए तो संयमी को कहा कि तुम स्वयं चैत्य हो। तुम स्वयं तीर्थ हो। धर्म की मूर्ति भी तुम स्वयं हो। तुम्हें देखकर अनेक को दिशाबोध मिल जाता है। ऐसा यह जिनलिग धारण करने वाले संयमी महाव्रती का माहात्म्य है। जिसने तिल तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखा, आरम्भ और विषय कषाय सब छोड़ दिया। हाथ से भी छोड़ दिया और मन से भी छोड़ दिया। इस जिनलिंग को धारण करने वाले हे मुनि! अब स्मरण रखना कि कभी जोड़ने का भाव न आ जाये। भाव से भी नग्न रहना। अन्यथा संयम का बाना मात्र प्रदर्शन होकर रह जायेगा। संयम तो दर्शन की वस्तु है, उसे प्रदर्शन की वस्तु नहीं बनाना। संयम वह है जिसके द्वारा जीवन स्वतन्त्र और स्वावलम्बी हो जाता है। ऐसा संयम प्राप्त करना सरल भी है, और कठिन भी। जो चौबीसों घण्टे अपने में लीन रहे, अपने आत्मा के आनन्द को पान करे उसे तो सरल है और जब कोई अपने अकेले होने से आनन्द के स्थान पर दुख का अनुभव करने लगे तो यही उसे कठिन हो जाता है। जैसे कि बारात घर से चली जाती है तो घर में ऐसा लगता है कि भाग चलो यहाँ से। हमारी निधि ही मानों यहाँ से चली गयी हो। संयमी व्यक्ति जब संयोग और वियोग सभी में समान भाव से रहता है तो संयम का मार्ग सरल लगने लगता है। अपने में लीनता आना ही सरलता की ओर जाना है। संयमित जीवन में प्रतिक्षण आत्मा का अध्ययन चलता रहता है। आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने मुनियों के २८ मूलगुणों में षट् आवश्यक के अन्तर्गत अलग से स्वाध्याय नहीं रखा। नियमसार ग्रन्थ में कह दिया कि प्रतिक्रमण ही स्वाध्याय है। जो चौबीसों घण्टे अपने आवश्यकों में मन को लगाये रखता है, उसका स्वाध्याय तो निरन्तर चलता ही रहता है। ईर्यासमिति पूर्वक चलना, एषणा-समिति पूर्वक आहार ग्रहण करना, भाषा समिति पूर्वक बोलना, आदान-निक्षेपण समिति को ध्यान में रखते हुए उठना-बैठना, उपकरणों को उठाना-रखना तथा मलमूत्र के विसर्जन के समय प्रतिष्ठापन-समिति का पालन करना, इन सभी के माध्यम से जो निरन्तर सावधानी बनी रहेगी, जागरूकता और अप्रमत्तता बनी रहेगी, वही तो स्वाध्याय है। संयोग-वियोग में जो समता परिणाम बनाये रखता है तथा अनुकूलता और प्रतिकूलता में हर्ष-विषाद नहीं करता, ऐसा संयमी व्यक्ति ही सच्चा स्वाध्याय करने वाला है। अब तो कोई संयम पूर्वक ग्रन्थ की उपयोगी बातों को हृदयंगम नहीं करते, मात्र दूसरे को बताने की दृष्टि से समयसार आदि महान् ग्रन्थों को मुखाग्र कर लेते हैं। कहें कि मात्र शिरङ्गम कर लेते हैं और इसी को स्वाध्याय मानकर बैठ जाते हैं। बन्धुओ! वास्तव में तो स्वाध्याय अपनी प्रत्येक क्रिया के प्रति सजग रहने में है। 'स्व' का निकट से अध्ययन करने में है। संयमपूर्वक प्रत्येक घड़ी, असंख्यात गुणी निर्जरा करते हुए समय का सदुपयोग करना ही कल्याणकारी है और इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
  13. वैराग्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिसके पास तीव्र वैराग्य होता है वो इन तीन प्रत्ययों से दूर रहता है वो कौन से प्रत्यय है? कतृत्व, भोकृत्व और स्वामित्व। वो सोचता है कि मैं अज्ञानियों का कर्तृत्व, भोकृत्व और स्वामी नहीं बनना चाहता हूँ। वैराग्य के लिए यदि मजबूरी कहोगे तो छह खण्ड की मजदूरी करना पड़ेगी, क्योंकि यदि आप कहोगे बाहुबली को वैराग्य होने की मजबूरी थी क्योंकि भरत को हराया था अब क्या मैं षट्खण्ड का अधिपति बनूँगा नहीं, उन्होंने उन सब छह खण्डों को सारभूत नहीं माना इसलिए ये उनकी मजबूरी नहीं थी। यदि कोई तर्क वाला कहता है कि बाहुबली की मजबूरी थी इसलिए दीक्षा ली। यदि उनकी मजबूरी थी तो भरत भी मजदूर के समान बन गये छह खण्डों के।
  14. विसंवाद विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ऐसी साधना करने वाले विरले ही मिलते हैं जो दो शब्द सुन करके और उसके प्रतिकार के लिए कोई भी उपाय नहीं करते हैं बल्कि शांति के साथ सुनते हैं और ऐसा मानते हैं कि आज सौभाग्य का दिन है, आज दीवाली हो गई, मिठाई बंट गई। जिसका मन इस साधना में लगा हुआ है उसके लिए किसी भी प्रकार का प्रतिकूल वातावरण नहीं होता। वह हर परिस्थिति में शांत रहता है। कोई भी शब्द कानों में आने के उपरान्त उसमें लहर नहीं आना चाहिए बिना लहर आए ही वह शब्द चले जाना चाहिए। लेकिन कान में क्या ललाट पर भी झुर्रियाँ आने लग जाती हैं। यदि साधर्मी के साथ विसंवाद करेंगे तो अचौर्य महाव्रत के लिए पंचक आ गया। पंचक का मतलब ग्रहण लग गया और यदि साधमों के साथ विसंवाद नहीं करते हैं तो समझ लेना पंचम गति के लिए कदम उठ गया क्योंकि ये अवसर है। विसंवाद साधर्मी के साथ होता है, विधर्मी के साथ तो कभी विसंवाद होता ही नहीं। एक पढ़ा लिखा है और एक अनपढ़ है तो उसके साथ भी विसंवाद नहीं होता है लेकिन जब दोनों पढ़ेलिखे होते हैं तब विसंवाद होता है। यदि साधर्मियों के द्वारा किए गये अनादर को सहन करने की क्षमता नहीं है तो आज मोक्षमार्ग में बहुत कठिनाई है। विसंवाद वस्तुतः रागद्वेष के कारण हैं और रागद्वेष अज्ञान के कारण होते हैं और यही संसार के कारण हैं। ज्ञानी उससे बच जाता है। दूसरा यदि हमारी निंदा करता है तो समझो हमारी ख्याति, हमारा यश फैला रहा है। ऐसा न हो तो दुनिया के सामने विशेषता आती ही नहीं। विरोध न हो तो विकास होता नहीं। हमारी शक्ति विरोध करने में खर्च हो रही है, अपना समर्थन करने में नहीं। एक बार अगर किसी ने कुछ कह दिया तो उसको याद रखते हैं और हम बार-बार कहते हैं तो भी नहीं सुनते। चौबीस घंटे साधर्मी विसंवाद छोड़ो। इसको लिखो नहीं लखो।
  15. अंधियारे भवारण्य के ज्ञानप्रकाश गुरुवार श्री ज्ञान सागर जी महाराज को त्रिकाल वंदन करता हूँ.... हे गुरुवर!आज में आपको आपके शिष्य, पाक कलाकार विद्याधर के बारे में बताता हूँ। इस सम्बन्ध में विद्याधर की बहने ब्रम्हचारिणी सुश्री शान्ता जी, सुश्री सुवर्णा जी ने प्रश्न का जवाब लिखकर भिजवाया पाक कलाकार विद्याधर "भोजन करना अलग बात है, भोजन बनाना अलग। जिसे पाक कला के नाम से जाना जाता है। पाक कला से संस्कृति का परिचय सहज हो जाता है। इस कला में महिलाएं निपुण होती है, किन्तु पुरषों का निपुण होना कला सज्ञा को प्राप्त होता है। भाई विद्याधर जी माँ के साथ अक्सर भोजन बनाने में सहयोग करते रहते थे यो वो भी पाक कला।निपुण बन गए थे। एक बार पर्युषण पर्व के दौरान विद्याधर ने माता-पिता को पूछा- आज आप विधान में कोनसा चरू(नैवेद्य) चढ़ायेंगे ? आप बतायें। मै आपको बनाकर दे दूँगा। तब विद्याधर जी ने मैदा ओर शुद्ध घी से करंजा(गुजिया), कमल पुष्प बनाकर माँ के हाथ मे दे दिया था। उस सुंदर और मनमोहक चरु को चढ़ाकर माँ-पिताजी हर्षित हुए थे। त्यौहार में अपने मनपसंद पकवान बनाकर सभी को खिलाते थे।" इस प्रकार विद्याधर माँ के साथ भोजन बनाने में सहयोग करता रहता था। तो अनसाय ही पाक कला निपुण हो गया था। आदि पुतान में भी आया है कि पुरुष की ७२ कलाएं होती है। ओर स्त्रियों की ६४ कलाएं। विद्याधर बहुत सी कलाएँ सिख चुका था। आज साधना में आत्म उद्धार की कला में निपुण बन गए है। ऐसे आत्मोद्धार कला विज्ञ को देख सहज ही नतमस्तक हो जाते है लोग, मेरा भी उन पावन चरणों को नमन..... अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
  16. विषय कषाय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार विषय कषायों में व्यतीत किये गये क्षण अंधकार पैदा करते हैं। क्रोध का अर्थ है कि दूसरों के द्वारा किए गये अपराध की सजा स्वयं को देना। कषाय से बचना चाहते हो तो एक सूत्र है-दूसरे के बारे में मत सोचो । सहपाठी से बचो तो कषायें उद्वेलित नहीं होंगी। उन्हें ध्यान का विषय मत बनाओ, अपने बारे में चिन्तन करो। दूसरे के बारे में सोचो तो उसकी अच्छाई के बारे में सोचो। राग, द्वेष, क्रोध, कषाय अपने पर होता ही नहीं, दूसरे पर ही होता है। उसने दूसरे को नीचे नहीं दिखाया अपने धर्म को ही नीचे दिखाया है। जैसे दूसरे को गंदगी लगाओगे तो अपना हाथ तो गंदा होगा ही। कषाय के माध्यम से धर्मात्मा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। धर्मात्मा को मन, वचन, काय से चोट पहुँचाओगे तो धर्मको भी चोट पहुँचेगी अपना मानसिक स्तर गिर जावेगा। धर्म कहीं बाजार में नहीं मिलता धर्मात्मा में ही धर्म मिलता है। धर्म के दर्शन धर्मात्मा के बिना नहीं हो सकते। व्यक्ति का धर्म उससे भिन्न नहीं, उसी में है। राग, द्वेष उत्पन्न करने वाले कारणों की ओर वर्तमान में जाने वाले उपयोग को रोकना महान् पुरुषार्थ है। धर्मामृत पीते जाओ कषाय रूपी विष समाप्त होता चला जावेगा। कषायों का वमन करते ही मन शांत हो जाता है, हल्कापन आ जाता है। जो व्यक्ति कषाय को नियंत्रित रखता है वह साधक कहलाता है। कषाय के ऊपर कषाय करो उसके लिए कमर कसो। कषाय को पी जाना बहुत बड़ा संयम है, इससे कभी अधीर नहीं होगे। उसका परिणाम सल्लेखना के लिए अच्छा होता है। काया वृद्ध होने के बाद कषाय भी वृद्ध होना चाहिए। जो कमजोर होता है वह गुस्सा करता है जो बलजोर होता है वह गंभीर होता है। जब भी राग द्वेष होगा अध्यवसाय होगा तो पुद्गल को लेकर के होगा जीव को लेकर के नहीं। रागद्वेष और विषय कषाय ही आत्मा को बंधन में डालने वाले हैं। एक मात्र विरागता ही मुक्ति को प्रदान करने वाली है। आप लोग धन के अभाव में दरिद्रता मानते हैं पर वास्तविक दरिद्रता तो वीतरागता के अभाव में होती है। राग, द्वेष और विषय कषाय ही दरिद्रता के कारण हैं। पर से प्रीति और भीति नहीं रखना ही राग द्वेष से रहित होना है। राग की गति संसार की ओर और वैराग्य की दृष्टि मुक्ति की ओर है। मोह के प्रबल प्रभाव के कारण संसारी प्राणी मुक्त नहीं हो पा रहा। प्रभु सम बनने का एक उपाय राग द्वेष को छोड़े। हमने आज तक राग के माध्यम से विश्व को ठुकराया है लात मारी है और जो ज्ञेय पदार्थ हैं/ मिट्टी है, पुद्गल है/जड़ है/अचेतन है उसे गले लगाया है। चेतन का बहिष्कार किया है। भगवान् महावीर का उपासक वही है जो नमस्कार करता है चेतन को और बहिष्कार करता है अचेतन को । आज एयर कंडीशन मकानों में चेतन बन्द है। अचेतन जड़ जिसके पास कोई संवेदन नहीं है उसमें चेतन बन्द है। जिसे मान कषाय पर विजय पाना आ जाता है वह निश्चय से पूज्य बन जाता है। जिसने कषायों को जीत लिया उसे ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। नहीं तो, कितनी ही सरस्वती की आराधना करो उससे ऋद्धि सिद्ध की उपलब्धि नहीं होती। कषायों पर पूर्ण विजय प्राप्त किए बिना केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं होती। यदि संसार की फेरी से बचना चाहते हो तो इन राग-द्वेष, मोह के संस्कारों से अपने को बचाने का प्रयास करो। आप अपने क्रोध, मान, माया, लोभ को शान्त करना चाहते हो तो उन्हें देखो, जो शान्त हैं। चूँकि प्रभु की कषायें शान्त हो चुकी हैं अत: प्रभु का स्मरण करने से आपकी कषायें अपने आप शान्त हो जायेंगी। जो क्रोधादि कषाय को पी लेगा उसकी शक्ति बढ़ जायेगी और जो कषाय करेगा उसे वह क्रोधादि कषाय पी जायेगी, उसकी शक्ति समाप्त हो जायेगी। यदि कषाय शांत हो और मन प्रसन्न हो तो विष खाने पर भी पेट में जाकर अमृत बन सकता है। और यदि कषाय काम कर रही तो अमृत भी विष का काम करता है। क्रोध कषाय रूपी बारूद को शीत करना चाहते हो तो क्षमा रूपी नीर लाओ।
  17. विकथा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार विकथाएँ अध्यात्म की विराधना करने वाली होती हैं। धर्म कथा के अलावा और कोई कथाओं को संयतों को नहीं करना चाहिए। विकथा करने से बुद्धि एवं श्रुत ज्ञान नष्ट हो जाता है। विकथा पापास्त्रव को बढ़ाने वाली है। और मूर्खता को प्रगट कराने वाली है। दूसरे के भोजन के बारे में सोचना तो धर्म ध्यान है लेकिन अपने लिए सोचना ये विकथा है।
  18. परसंतावयकारण, वयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं | जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु, धममो हवे सच्चं || जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुँचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है आज 'उत्तम-सत्य' के बारे में समझना है। पिता जी बड़े हैं या पुत्र बड़ा है। पति बड़े हैं कि पत्नी बड़ी है? नाती बड़ा है या दादाजी बड़े हैं ? तब लौकिक-व्यवहार में कहने में आता है कि पुत्र छोटा है और पिता जी बड़े हैं। पत्नी छोटी है और पति बड़े हैं। नाती छोटा है दादाजी बड़े हैं। यह सब सापेक्ष सत्य है। चूँकि जिस समय पुत्र हुआ उस समय पिता की उम्र पच्चीस-तीस वर्ष होगी इसलिए पुत्र को छोटा कह दिया। लेकिन देखा जाए तो जिस समय पुत्र का जन्म हुआ, उसी समय पिता का भी जन्म हुआ। इससे पहले उस व्यक्ति को कोई पिता नहीं कहता था। वह पुत्र होते ही पुत्र की अपेक्षा पिता कहलाने लगा। इस तरह दोनों एक साथ उत्पन्न हुए। पिता और पुत्र समान हो गये। इसी प्रकार दादाजी और नाती के सम्बन्ध में कहा जायेगा। जिस समय विवाह हुआ उसी समय पति और पत्नी ऐसा कहने में आयेगा। तब दोनों का एक ही मुहूर्त में जन्म हुआ। यही बात जीव के सम्बन्ध में भी है। कौन सा जीव बड़ा है और कौन सा जीव छोटा है? चींटी छोटी है और छिपकली उससे बड़ी है। परन्तु छिपकली छोटी भी है क्योंकि सर्प उससे भी बड़ा है और हाथी उससे भी बड़ा है। तो सत्य क्या है? इतिहास देखें, सभी जीवों का तो निर्णय करना और मुश्किल होगा कि बड़ा कौन है और छोटा कौन है? अगर जीव का लक्षण देखा जाए तो सभी जीवों में समान रूप से घटित होगा। 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' -द्रव्य नित्य है, अवस्थित है और पुद्गल को छोड़कर शेष सभी द्रव्य अरूपी हैं। नित्य हैं अर्थात् हमेशा से हैं और रहेंगे। सभी जीव हमेशा से है और रहेंगे। इस अपेक्षा देखा जाए तो कौन बड़ा और कौन छोटा? प्रवाह की अपेक्षा सभी समान हैं। सभी अनादि काल से चले आ रहे हैं और शेष जितनी भी सम्भावनाएँ हैं वे सब सापेक्ष हैं। जीव के बाह्य रूप में संसार उलझा है और अपने आप के बडप्पन को सिद्ध करने के लिए वह दूसरे से संघर्ष करता आ रहा है कि मैं बड़ा हूँ या कि तुम छोटे हो। यह विसंवाद चल रहा है। जो वास्तव में देखा जाए तो असत्य है। सत्ता नहीं उपजती उसका न नाश, पर्याय का जनन केवल और हास | पर्याय है लहर वारिधि सत्य सत्ता, ऐसा सदैव कहते गुरुदेव वक्ता || निजानुभवशतक (आचार्य विद्यासागर) सत्ता क्या चीज है? द्रव्य क्या चीज है और पर्याय क्या चीज है? यदि ऐसा पूछा जाए तो भगवान् कहते हैं कि सत्ता या द्रव्य तो वह है जिसका कभी नाश नहीं होता और न ही जो कभी उत्पन्न होती है। वह तो शाश्वत है। पर्याय की उत्पति और नाश अवश्य देखने में आते हैं। पर्याय तो सागर में उठती लहरों के समान है, जो क्षणभंगुर है। उठती और मिटती रहती है। शाश्वत सत्य सत्ता तो सागर के समान है। पर इस सत्य, सत्ता को देखना सहज सम्भव नहीं है। इसे देखने के लिए श्रद्धा की आँखें खोलने का प्रयास करना होगा। सत्य, श्रद्धा की आँखों से ही दिखायी देता है। लोक व्यवहार में कहा जाता है कि मैं सत्य बोलता हूँ या तुम असत्य बोलते हो। लेकिन वास्तव में बोलने में सत्य आता ही नहीं है और जब सत्य बोलने में नहीं आता तो असत्य भी बोलने में नहीं आ सकता। फिर भी व्यवहार की कुछ सीमाएँ बनायी गयीं हैं। उसी के माध्यम से सत्य और असत्य का व्यवहार चलता है। जैसे आप सागर के तट पर खड़े हैं तब देखने में क्या आ रहा है? लहरें देखने में आ रहीं हैं वे वहीं उठती हैं और वहीं समाती जाती हैं। कोई बालक यदि वहीं हो तो वह उन्हें पकड़ना चाहेगा। सीधा-सीधा दौड़कर हाथों से पकड़ने का प्रयास करेगा। जो कोई वहाँ Secnery (दृश्यावली) देखने आये हैं वे उस दृश्य को आँखों के माध्यम से या कैमरे के माध्यम से पकड़ना चाहेंगे। कोई यदि कवि होगा तो वह शब्दों के माध्यम से कविता बनाकर उसे पकड़ने का प्रयास करेगा और आनन्दित होगा। कोई ऐसा भी होगा जो सारे दृश्य को परख रहा होगा। इन सबके माध्यम से यदि पकड़ में आयेगा तो कथञ्चित् सत्य ही पकड़ में आयेगा। मैं पकड़ना भी एक तरह से कथचित् सत्य कह रहा हूँ क्योंकि इसमें भी छोड़ना और ग्रहण करना है। वास्तव में सत्य तो छोड़ने और ग्रहण करने से परे है। लहर अच्छी लगती है, तो सोचो मात्र अच्छी लगती है या वास्तव में अच्छी है। लहर तो लहर है, वह बनती है और मिटती भी है। उसको सत्य सत्ता नहीं कहा जा सकता क्योंकि सत्ता तो अविनश्वर है। उसे पकड़ना भी सम्भव नहीं है। जो पकड़ में आ रहा है, वह पूरी तरह सत्य नहीं है, एक प्रकार से असत्य है और इसलिए दुखदायी है। सत्य ही एकमात्र सुखदायी है। बालक लहरों को पकड़ना चाहता है तब उसे पालक (आप लोग) समझाते हैं कि पकड़ो नहीं, मात्र परखो।'परखो' का एक अर्थ यह भी है कि ‘पर' यानि दूसरा और 'खो' यानि खोना। अर्थात् जो पर है, दूसरा है उसे खो दो। ऐसा परखना यदि हो जाए तो असत्य खो जायेगा। असत्य को खोना ही वास्तव में परखना है। मोह को छोड़कर ही परखना सम्भव है। तभी सत्य हाथ आयेगा। वस्तु-तत्व को यदि आप परखना चाहो तो हमेशा मध्यस्थ होकर ही परखना होगा। किसका स्वभाव क्या है? किसका क्या रूप है? क्या सत्य है और क्या असत्य है? यह जानने की कला तभी आ सकती है जब मोह का उपशम हो और माध्यस्थ भाव आये। जैसे स्वर्ण पाषाण में कितना स्वर्ण है और कितना पाषाण है यह बात उस विषय का ज्ञान रखने वाला परीक्षक या वैज्ञानिक जान लेता है और सब बता देता है। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य को परखने की क्षमता हमारे पास है, उसे प्रकट करना आवश्यक है तभी सत्य का दर्शन होगा। सत्य सामने आ जाए तो हर्षविषाद नहीं होता। पिताजी सोचते हैं कि मैंने पुत्र को बड़ा किया, खिलाया-पिलाया और अज्ञानी से ज्ञानी बना दिया, अत: हम बड़े हैं। लेकिन जो सम्यग्दृष्टि होगा वह द्रव्य के प्रवाह को देखेगा कि यह तो अनादिकाल से चला आ रहा है। इतना ही नहीं जिस लड़के का पालन-पोषण किया जा रहा है, सम्भव है वही पूर्व में उसका पिता भी रहा हो। पुराणों में भी ऐसी बात (कथा) आती है। अध्यात्म भी यही कहता है। 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थसूत्र ) उत्पाद, व्यय और श्रौव्य से युक्त है सत्ता। एक बार एक विद्वान् हमारे पास आये थे। कुछ दिन रहने के बाद जब जाने लगे तो कहा कि महाराज जी! मैं जा रहा हूँ। तो हमने कहा पण्डित जी, आना-जाना तो लगा हुआ है। वे हँसने लगे। बात समझ में आ गयी कि 'आना' तो हुआ 'उत्पाद", 'जाना' अर्थात् 'व्यय', लगा हुआ है यही द्रव्य की ध्रुवता है। यही सत् का लक्षण है। यह अनुभव में आ जाए तो बनने-मिटने पर हर्ष-विषाद नहीं होगा। छोटे-बड़े की बात नहीं आयेगी। कौन किसका पिता है? कौन किसका पुत्र है? यह मात्र पर्याय की ओर दृष्टिपात करने पर ही दिखायी देता है। यह मोह का परिणाम है। यही मोह छूट जाये तो वास्तविकता मालूम पड़ने लगती है कि शरीर का अवसान होने पर यह सारे सम्बन्ध छूट जाते हैं। शरीर यहीं पड़ा रह जाता है और जीव क्षण भर में कहाँ पहुँच जाता है, किस रूप में उत्पन्न हो जाता है पता भी नहीं पड़ता। जिसके मरण के उपरान्त आप यहाँ रो रहे होते हैं, वह कहीं और उत्पन्न होने की तैयारी कर रहा है। कैसा वैचित्र्य है। एक नाटक की तरह रंगमञ्च पर जैसे विभिन्न पात्र आ रहे हैं, जा रहे हैं और देखने वाला जान रहा है कि यह सब नाटक है, फिर भी उसमें हर्ष विषाद करने लगता है। इसी प्रकार यह सारा संसार रंगमंच की तरह है। जो संसार से विरक्त है ऐसे वीतराग सम्यग्दृष्टि में यह सब नाटक की भाँति दिखायी पड़ने लगता है। वह सत्य को जान लेता है और पर्याय में मुग्ध नहीं होता। हर्ष-विषाद नहीं करना। हम थोडा सा भीतर देखने का प्रयास करें और अपना इतिहास समझे कि मैं कौन हूँ? किस तरह छोटे से बड़ा हो गया और एक दिन मरण के उपरान्त सारे के सारे लोग इस देह को जला आयेंगे मैं फिर भी नहीं जलगा। यह सत्य है। जिनवाणी में इसी सत्य का प्ररूपण किया गया है। ‘काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्रिय तन धार।" अनन्तकाल हमने निगोद में व्यतीत कर दिया और एक इन्द्रिय की पर्याय धारण की। विचार करें तो अपने आप आँखें खुलने लग जायेंगी। निगोद की बात आयी तो यह घटना स्मृति में आ गयी कि चक्रवर्ती को चिन्ता हो गयी कि मेरे ये पुत्र तीर्थकर के वंश में पैदा हुए और इस प्रकार गूँगे-बहरे कैसे हो सकते हैं? यहाँ तो भगवान् की वाणी गलत सिद्ध हो जायेगी। तब भगवान् ने कहा कि हे चक्री! तुम्हें मोह ने घेर रखा है इसलिए सत्य दिखाई नहीं पड़ता। सत्य यह है कि ये सभी भव्य हैं और निकट भव्य हैं। ये तुम्हारे ही सामने दीक्षित होकर मुक्ति को प्राप्त हो जायेंगे। चक्रवर्ती सुनकर दंग रह गये और वही हुआ भी। सभी ने भगवान् ऋषभदेव के चरणों में दीक्षा का निवेदन कर दिया और बोले कि सभी से क्या बोलना, हम तो सिर्फ आप ही से बोलेंगे। सभी से बोलने के लिए हम गूँगे हैं। दीक्षित होकर उन्होंने तप के द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति की और मुक्ति का सम्पादन कर दिया। चक्रवर्ती भरत ने पूछा कि भगवन्! यह सब कैसे हुआ? इनका इतिहास क्या है? तब भगवान् ने बताया कि ये सभी जीव निगोद से आकर सीधे मनुष्य-भव धारण करके तुम्हारे पुत्र बनकर उत्पन्न हुए हैं। इनका वैराग्य इतना था कि किसी से नहीं बोले और इन्होंने अपना कल्याण कर लिया। तुम यहाँ समवसरण में चार-चार बार दिव्य ध्वनि सुन रहे हो और चारचार बार लोगों को प्रवचन सुना रहे हो। पर इतने मात्र से क्या होगा? उन्होंने कमाल कर दिया। निगोद से सीधे निकलकर आठ साल के भीतर-भीतर अपने-आपको सँभाला और आठ वर्ष में ही दीक्षित होकर मुक्ति प्राप्त कर ली। कहीं-कहीं पर निगोद से आकर बीच में एक पर्याय इन्द्रगोपादि भी धारण की है, ऐसी चर्चा भी आती है लेकिन सीधे निगोद से आये हों, ऐसा भी सम्भव है। निगोद भी दो तरह का है- एक तो नित्य-निगोद है जहाँ से जीव आज तक नहीं निकला और दूसरा इतर-निगोद है जहाँ से जीव निकलकर चारों गतियों में भ्रमण कर चुका है। हमें सीखने की बात यही है कि सत्य को जानने वाला फालतू बोलता नहीं है। वे सभी चक्रवर्ती के पुत्र दीक्षित होने तक दीक्षा से पूर्व किसी से नहीं बोले। उन्होंने सोचा कि जो संसार से विरक्त नहीं है उनसे एक विरक्त व्यक्ति का बोलने का प्रयोजन ही क्या है? सत्य तो बोलने से प्राप्त नहीं होगा। पाप-क्रियाओं से मौन लेकर ही सत्य को प्राप्त किया जा सकता है। आज तो सारा संसार जिसमें कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है, उसी के पीछे पड़ा है। सत्य का बोध नहीं करता है। जल के अथाह समूह को सागर कहा जाता है उसमें कितनी भी लहरें उठे या मिटें लेकिन वह सागर बनता मिटता नहीं है। वह ज्यों का त्यों रहा आता है। कोई लहरों को देखकर खेद करता है, बालक हो तो देखकर हर्षित होता है, लेकिन जो संसार से विरक्त है, सत्य को जानता है, वह सोचता है कि जीवन भी इस प्रकार लहरों की तरह प्रतिपल मिटता जा रहा है। अनन्तकाल यूँ ही व्यतीत हो गया। अनन्त सुखों का भण्डार यह आत्मा अज्ञानता के कारण सत्य को नहीं समझ पा रहा है। दुनिया में सभी लोग दुनिया को देख रहे हैं। दुनिया को पहचानने की चेष्टा में लगे हैं लेकिन सत्य को पहचानने की जिज्ञासा किसी के अन्दर नहीं उठती। बार-बार कहने-सुनने के उपरान्त भी ज्ञान नहीं होता, तो यह मोह की प्रबलता का ही प्रभाव समझना चाहिए। इस मोह से बचने का उपाय यही है कि हम संसार से विरक्त होकर वस्तु तत्व का चिन्तन करें। वस्तु-तत्व की वास्तविकता का चिन्तन ही हम लोगों के कल्याण के लिए एकमात्र आधारशिला है। 'जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्' (तत्त्वार्थसूत्र) जगत् के स्वभाव के बारे में सोचो तो संवेग आयेगा अर्थात् संसार के दुखों से बचने का भाव उत्पन्न होगा और शरीर के स्वभाव के बारे में विचार करोगे तो वैराग्य आयेगा। शरीर के प्रति, भोगों के प्रति निरीहता भी आ जायेगी। यही सम्यग्ज्ञान का माहात्म्य है। आज तो मात्र ज्ञान की चर्चा है लेकिन अकेले ज्ञान और सम्यग्ज्ञान में अन्तर है। शरीर के बारे में सम्यग्ज्ञान यदि हो तो ही निरीहता आयेगी। अकेले शरीर की जानकारी कर लेने मात्र से कुछ नहीं होता। कोई M.B.B.S. का करने वाला शरीर के एक-एक अंग के बारे में जानता है और कोई-कोई तो एक-एक अंग विशेष में Specialist (विशेषज्ञ) भी हो जाते हैं। लेकिन इतना सब जान लेने के बाद भी उसी नश्वर शरीर में रमे रहते हैं। ऐसा कैसा ज्ञान है कि भीतरी सभी घृणास्पद पदार्थों को देख लेने के बाद भी उससे विरक्ति नहीं होती। असत्य को जान कर भी उसे छोड़ने का भाव नहीं आता। बल्कि असत्य के सम्पादन में ही लोग अपना ज्ञान लगाते हैं। कोई दुकान में असत्य का सम्पादन कर रहा है, तो कोई वकील बनकर कोर्ट में कर रहा है और कोई डॉक्टर बनकर अस्पताल में कर रहा है। प्रत्येक का लक्ष्य मात्र पैसा हो गया है। विषयों का सम्पादन हो रहा है। लौकिक दृष्टि से भले ही उन्हें प्रबुद्ध कहा जाता है, अनुभवी और शोध करने वाला कहा जाता है। लेकिन सभी की चेष्टा यही रहती है कि पैसा किस तरह कमाया जाए और दुनिया को किस तरह आकर्षित किया जाए। किन्तु परमार्थ की दृष्टि से यह ज्ञान कार्यकारी नहीं है। सही ज्ञानकला तो वह है जिसके द्वारा आत्मिक शान्ति मिलती है। 'क' यानि आत्मसुख और ‘ला' यानि लाने वाली, अर्थात् आत्मसुख लाने वाली कला ही वास्तविक 'कला' है। सांसारिक जितनी भी कलाएँ है वे सब संसार के पदार्थों को जानने-परखने और आत्मा को दुख के गर्त में ले जाने वाली हैं। इस सत्य का भान आज किसे है? इसीलिए आचार्य कहते हैं कि छोटा-बड़ा कोई नहीं है। सभी समान हैं। यही सत्य है और जहाँ पर यह समानता की दृष्टि आ जाती है वहाँ पर सभी प्रकार के झगड़े समाप्त हो जाते हैं। जहाँविषमताएँ हैं वहीं पर झगड़ा है, विसंवाद है और विषमता तो बुद्धिजन्य है। विषमता वस्तुजन्य नहीं है। वस्तु न अपने में बड़ी है न छोटी है, वह तो अपने में समान है। जैसे देवों में ऊपर जो अहमिन्द्र हैं उनके वहाँ कलह नहीं है। वे बहुत शान्त हैं, क्योंकि सभी समान-रूप से इन्द्र हैं। कोई किसी से कम या अधिक पद वाला नहीं है। समानता रूपी इस सत्य के साथ ही सुख और शान्ति का स्रोत फूट जाता है। हम सभी यदि पर्यायों की विषमता को गौण करके द्रव्य की समानता को मुख्यता दें तो यहाँ किसी जीव के प्रति बैर और किसी के प्रति राग हो ही नहीं सकता। सत्यार्थयुक्तं सत्यम्-जो सत् से युक्त है वही सत्य है और असत् से युक्त है अर्थात् जो है ही नहीं, उसकी कल्पना में जो उलझा है वह असत्य है। वस्तुत: वस्तु अच्छी बुरी नहीं होती, हमारी कल्पना के द्वारा ही उसमें अच्छे बुरे का भेद आ जाता है। किसी जीव का लक्षण मूर्ख या बुद्धिमान, छोटा या बड़ा हो, ऐसा कहीं नहीं आता। उपयोगो लक्षणम् जीव का लक्षण, उपयोगवान् होना है अर्थात् जो ज्ञानदर्शन से युक्त है, वह जीव है। प्रत्येक समय हमें इस सत्य की ओर ही दृष्टिपात करना चाहिए। मोह के प्रभाव से संसारी जीव स्वयं को- मैं सुखी-दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन बेरूप सुभग मूरख प्रवीन॥ छहढाली (द्वितीयढाल) ऐसा मानता है और इसी मोह चक्र में फंसा प्रत्येक जीव संसार में निरन्तर चक्कर काटता रहता है, घूमता रहता है। लेकिन जो सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी है, जो वैराग्यवान हैं वे संसार के स्वभाव को जानते हैं और संसार में रहते हुए भी मोह के चक्कर में नहीं आते। जैसे मेले में आपने हिण्डोलना देखा होगा। बच्चे बड़े सभी उसमें बैठ जाते हैं और हिण्डोलना वाला उसे घुमाता है। सभी का मनोरञ्जन होता है लेकिन हिण्डोलना घुमाने वाला मात्र घूमते हुए हिण्डोलने को देखता रहता है, उसमें मनोरञ्जन नहीं मानता। उसी प्रकार आप लोग भी चाहें तो जो दुनियाँ में हिण्डोलने में बैठे हैं, उन्हें बैठे रहने दें और स्वयं को मात्र देखने जानने वाला बनाये रखने का प्रयास करें। तो संसार का चक्कर धीरे-धीरे समाप्त कर सकेंगे। बंधुओ! पर्यायमूढ़ता तो बच्चों जैसा घूमने वाला खेल है और द्रव्य के स्वरूप में लीन होना अर्थात् जानने-देखने रूप स्वभाव में स्थिर होना इस हिण्डोलना घुमाने वाले जैसा काम है। द्रव्य तो प्रतिक्षण परिणमनशील है । परिवर्तन प्रतिक्षण हो रहा है लेकिन उस परिवर्तन मे हम अपने आप को मिटने वाला या उत्पन्न होने वाला समझ लेते हैं। यही हमारी गलती है। जन्म होने में सुख और मरण में दुख का अनुभव करने का अर्थ यही है कि अभी हिण्डोलने में बैठने का खेल चल रहा है। वह मोह की चपेट जब तक है तब तक सुख शान्ति मिलने वाली नहीं है। जैसे पीपल का पता बिना हवा के ही हिलता रहता है, लेकिन पीपल का तना, तूफान आने पर भी नहीं हिलता। इसी प्रकार द्रव्य कभी अपने स्वभाव में हिलता डुलता नहीं है, पर्यायें झूलती रहती हैं और झूलती हुई पर्यायों में आप भी यूँ ही झूलने लगते हैं और भूल जाते हैं कि यह सारा का सारा परिणमन द्रव्य का ही है। द्रव्य का परिणमन कभी रुकता नहीं है वह तो प्रतिक्षण इतनी तीव्रता से होता रहता है कि उसकी सूक्ष्मता को पकड़ पाना सहज सम्भव नहीं है। उसे पकड़ पाने के लिए बड़ी पैनी दृष्टि चाहिए। वह दृष्टि तभी आयेगी जब हमारी दृष्टि बाह्य जगत् से हटकर सूक्ष्मता की ओर देखने का प्रयास करेगी। पाषाण में स्वर्ण उसी को दिखता है जिसे स्वर्ण की जानकारी है और जो पाषाण को स्वर्ण से पृथक् जानता है। संसार में सब कुछ देखते हुए भी कोई चाहे तो शान्त और माध्यस्थ रह सकता है। पर इसके लिए संसार के प्रत्येक पदार्थ के प्रति अपनी दृष्टि को समीचीन बनाना होगा। कई दिन से लगातार उपदेश सुनते-सुनते एक व्यक्ति को संसार के प्रति वैराग्य हो गया और उसने जाकर अपनी पत्नी से कहा कि संसार की यथार्थता मुझे ज्ञात हो गयी है, इसलिए मैं जा रहा हूँ। अपना कल्याण करूंगा। पत्नी बोली बहुत अच्छ। हम भी यहाँ रहकर क्या करेंगे। हम भी साथ चलते हैं। उस व्यक्ति ने समझाया कि यह तो कोई बात नहीं हुई। मुझे तो उपदेश सुनकर वैराग्य हुआ है। तुमने तो उपदेश कुछ सुना ही नहीं है। पत्नी बोली कोई बात नहीं, उपदेश सुनने वाले आपको देखना ही पर्याप्त है। आपका वैराग्य ही मेरे वैराग्य में कारण बन गया है। दोनों प्राणी घर से विरक्त होकर जंगल की ओर चल पड़े। पति आगे-आगे चल रहा था और पत्नी पीछे-पीछे चल रही थी। चलते-चलते पति को सामने कुछ दिखायी पड़ गया और उसने झुककर थोड़ी धूल उस पर डाल दी। उसी समय पीछे से आकर पत्नी ने देख लिया और पूछ लिया कि क्या बात है? क्या था? पति ने सोचा बताना ठीक नहीं है। पता नहीं बताने से उसके मन में लालच न आ जाये इसलिए कह दिया कि कुछ नहीं था। पत्नी को हँसी आ गयी, बोली मैंने सोचा था कि आपका वैराग्य पूरा है पर लगता है अभी कुछ कमी है। तभी तो मिट्टी के ऊपर मिट्टी डाल रहे थे। सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में तो सोने की डली भी मिट्टी ही है। कोई मिट्टी काली होती है, यह पीली मिट्टी है। यह सुनकर पति चकित रह गया और कहने लगा कि मैंने तो समझा था कि स्त्रियों को स्वर्ण के आभूषणों का लालच कुछ अधिक ही रहता है इसलिए तुम्हें नहीं बताया, पर तुमने तो मुझे भी पीछे छोड़ दिया। आप स्वयं को पुरुष मान रहे हैं और मुझे स्त्री मान रहे हो। अभी आप तीन लोक के पति नहीं हो सकते। अभी तो आपका वैराग्य कमजोर है। वैराग्य की बात करना और वैराग्य से बात करना, इन दोनों में बहुत अन्तर है। वस्तु तत्व जिसको सही मायने में पकड़ में आ गया है वही सत्य के माध्यम से वैराग्य से कभी नहीं डिगता। यह वस्तु के उत्पन्न होने में हर्ष और नाश में विषाद नहीं करता बल्कि वह सत्य को जानता है। आज ‘उत्तम-सत्य' के दिन मैं आपसे यही कहना चाहूँगा कि संसार को आप एक बार सत्य की दृष्टि से देखें। केवल मिटने के अलावा संसार कुछ भी तो नहीं है। जो स्थायी है वह दिखने में नहीं आता और जो दिखने में आ रहा है, वह निरन्तर मिट रहा है। यही संसार है। हम संयोगज पर्यायों से दृष्टि को हटाकर मूल की ओर देखें। तो तेरा-मेरा, छोटा-बड़ा आदि सभी विचार आपों आप शान्त हो जायेंगे। सभी के प्रति समान भाव आने से परस्पर उपकार का भाव आयेगा। सभी परस्पर एक दूसरे के निकट आयेंगे, और इस बहाने वस्तु तत्व को और अच्छे ढंग से समझना सरल हो जाएगा। जैसे आप भोजन करते हैं तो भोजन करते हुए भी बीच-बीच में साँस लेना आवश्यक है, लेते भी हैं। पानी पीते हैं तो साँस भी लेते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि पानी पीना छोड़कर अलग से साँस लें, फिर पानी पियें। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्ग में आरूढ़ होने के उपरान्त खुद भी धर्मामृत पीता रहता है और यदि कोई दूसरा आ जाता है तो उसे भी पिलाता है। जो सत्य को जान लेता है वह स्वयं भी लाभान्वित होता है, साथ ही दूसरों को भी उसके माध्यम से सत्य का दर्शन होने लगता है। यही सत्य है और यही सत्य की महिमा भी है।
  19. व्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दृढ़ता के साथ ही व्रतों का निर्दोष पालन होता है। व्रत उस वस्तु की भाँति है जिसकी देख रेख न की गयी तो उसमें जंग लग सकती है। कषाय रूपी चूहे खा लेंगे, पापरूपी चोर चुरा लेंगे। व्रत को निर्दोष पालन करने के लिए हमेशा जाग्रति रखनी पड़ती है। वही व्रत अंगीकार करना चाहिए जिससे शरीर और मन पर गलत प्रभाव न पड़े। मन से, वचन से, काय से निर्दोष चर्या होती है, उसी को रिद्धि-सिद्धि हो जाती है। स्वदार संतोष व्रत के बिना संतान पर संस्कार नहीं पड़ सकते। स्वदार में संतुष्ट रहने वाला आगे चलकर मुनि बन सकता है। सभी दुष्कर्म इसी अब्रह्म के पीछे लगे हुए रहते हैं। अनंत वासनाओं ब्रेक लगाने के लिए स्वदार संतोष व्रत हो जाता है। जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए अनंतानुबंधी चली गई फिर संसार चुल्लू भर बचता है वैसे ही यह व्रत हो गया तो पाप चुल्लू भर बचता है। अहिंसाणुव्रत को ग्रहण किये बिना आज संस्कृति बच नहीं सकती। महान् आत्माओं के द्वारा ग्रहण किया जाने वाला महाव्रत होता है। महान् उपलब्धि प्राप्त कराता है महाव्रत। कोई भी व्रत काम चलाऊ नहीं होना चाहिए क्योंकि निरतिचारपूर्वक व्रत पालन करने से तीर्थंकर प्रकृति के बंध में वह कारण है। व्रत में छूट रखोगे तो निर्दोषता नहीं आ सकती। व्रती होने के बाद वृद्धों जैसी चाह हो जाती है, प्रदर्शन आदि सांसारिक कार्यों में उत्साह नहीं रहता, ज्ञान की बात नहीं अनुभव की बात याद रहती है आज किताबें बहुत होती जा रही हैं लेकिन ज्ञान संकीर्ण होता जा रहा है। बहुत नहीं पढ़ो बल्कि बहुत बार पढ़ो। वैराग्य के साथ व्रत नहीं लेते इसलिए उसमें आनंद नहीं आता। इसका आनंद इन्द्र अहमिन्द्र को भी नहीं मिलता। रागद्वेष को मिटाने के लिए ही व्रती बना जाता है। व्रत स्वयं के लिए लिए हैं दूसरे को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिए। आत्म साक्षात्कार के बिना व्रत आदि कोल्हू के बैल जैसी यात्रा है। त्यागे हुए विषयों की ओर व्रतियों की दृष्टि नहीं जाना चाहिए वरना कोल्हू के बैल जैसी दशा होगी। खली खाने को मिलती है। पंचेन्द्रिय के विषय खली के समान हैं। व्रत निर्दोष पालने हेतु उनकी पाँचों भावनाओं को हमेशा भाओ। ध्यान रखें व्रत अणुरूप नहीं है महाव्रत रूप हैं। यह ध्यान नहीं रखा तो दिन तो कट जायेंगे लेकिन कर्म नहीं कटेंगे। व्रतों का शोधन करो एवं आत्मा का शोध करो। थाली आने के पूर्व में अपने को सोचना है कि हमें भी भूख मिटाना है या नहीं मिटाना है तो थाली में जो आये उसे उसी से मिटा लो, इधर उधर थाली में मत देखो कि किसकी थाली में क्या परोसा गया, ऐसे ही जिसे जो व्रत संयम मिला है उसे अच्छे से रुचिपूर्वक प्रयत्नपूर्वक पालन करने का प्रयास करना चाहिए, दूसरे को क्या व्रत संयम मिला है यह नहीं देखना। व्रत पालन के क्षेत्र में कभी भी खानापूर्ति नहीं करना चाहिए | उस प्रकार के व्रत नियम पालन करना चाहिए जिसमें मन और शरीर दोनों संशय में न रह जायें। संक्लेश भी न हो। ग्रन्थ रचना करते समय आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं, उस प्रतिज्ञा को सिद्ध करने का प्रयास ग्रन्थ के अन्त तक रहता है। प्रतिज्ञा को ध्यान में रखकर ग्रन्थ रचना का समापन करते हैं। ऐसे ही व्रत संयम की जो प्रतिज्ञा ली है, उसको जीवन के अन्त तक सिद्ध करना आवश्यक है। व्रत पूर्ण होने का विकल्प नहीं होना चाहिए, व्रत विशुद्धि के लिए होना चाहिए। व्रत विकल्प के साथ नहीं, व्रत तो विशुद्धि के साथ पूर्ण किए जाते हैं। जो अनिष्टकारक होता है, उसके सेवन का तो हमेशा-हमेशा ही त्याग कर सकते हैं। लेकिन ऐसा त्याग कर दो कि शरीर क्षीण हो जाये फिर चश्मा से डबल चश्मा लगने लग जायेगा व्रतों का सही पालन न हो सके ऐसा नहीं होना चाहिए। मोक्षमार्ग में हमेशा अपनी निंदा, गह, आलोचना करना चाहिए दूसरे की नहीं। अपने व्रतों को शुद्ध बनाना हो, स्वयं की आलोचना सौभाग्य समझकर कर लेना चाहिए। देव, गुरु, शास्त्र की साक्षीपूर्वक जो व्रत लेते हैं, उनको दृढ़तापूर्वक निभाने का ही प्रयास होना चाहिए। अपने व्रत अच्छे ढंग से पलेंगे तो माता-पिता को भी संतुष्टि होगी अन्यथा उनकी आस्था कैसे बन पायेगी? व्रत लेकर कभी छोड़ना नहीं अन्यथा आगे नहीं बढ़ सकोगे। व्रत अपने लिए होते हैं दूसरों के कहने पर या दूसरों के लिए नहीं होते। अपवित्र को पवित्र बनाने का एक ही रास्ता है व्रत को धारण करना। व्रत के बिना कभी भी असंख्यात गुणी निर्जरा नहीं हो सकती है। अहिंसा व्रत की रक्षा सत्यादिक व्रत करते हैं अहिंसा व्रत मुख्य है। व्रती जन कभी भी कर्म सिद्धान्त को नहीं भूले। पाँच अणुव्रत को लेने के बाद व्रती नहीं कहलाता है, व्रतों की रचना करने से उनकी वृद्धि में तत्पर रहता है उसे ही व्रती संज्ञा दी जा सकती है। अपने आपकी कमी निकालने वाला व्रती कहलाता है। निरतिचार व्रत पालन से एक अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है, निरतिचार का मतलब है कि जीवन अस्त-व्यस्त न हो जाये। व्रत के पालन में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी गहरी छाप पड़ती है कि खुद का तो विस्तार होता ही है, अन्य भी इस व्रत के सम्पर्क में आ जाते हैं, वे भी बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकते। याद रखो-निरतिचार व्रत का पालन करने वाला स्वयं तो तिरता ही है दूसरों को भी तारता है। वह स्वयं तो अपनी मंजिल पर पहुँचता ही है, दूसरों के वहाँ पहुँचने में भी सबल सहायक बनता है। अरे भैया-तीर्थंकर भी व्रत लेते हैं किन्तु व्रत ऐसे नहीं जिनसे दूसरे का घात हो। व्रत ऐसे हो जो स्वयं को भी सुखकर हो और दूसरों को भी सुखकर हों। सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए ये व्रत बड़े मार्मिक है मौलिक चीज हैं और इनसे आगे कोई और खोज नहीं। व्रत कभी छोटा नहीं होता व्रत तो व्रत होता है जिसका फल अपरंपार और अपूर्व होता है। सब कुछ जाये लेकिन अपने श्रद्धान को, संकल्प को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए। व्रती के पीछे जो होता है उसका नाम अणुव्रती है। व्रत का जो अनुगामी/अनुचर होता है उसका नाम अणुव्रत है। आप अणुव्रती हैं तो पीछे-पीछे हो जाओ। महाराज के सामने मत होना।
  20. विनय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सम्यक ज्ञान के आठ अंगों में से विनय अंग/बहुमान में बहुत कमी होती जा रही है। सम्यक दर्शन के आठ अंगों की चर्चा तो बहुत हो जाती है लेकिन सम्यक ज्ञान के आठ अंगों की चर्चा, उनके प्रयोग प्राय: लुप्त होते जा रहे हैं। प्राय: त्यागी, व्रती, स्वाध्यायशील आदि को तो इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। जैसे श्रीजी को विनयपूर्वक अभिषेक के लिए विराजमान करते हैं, शिरोधार्य करके लाते हैं, बहुमान के साथ लाते हैं ऐसी प्रक्रिया प्रचलित है। ऐसे ही जिनवाणी की विनय का प्रचार प्रसार होना चाहिए। प्रयोग के कारण विवेक जागृत हो जाता है। अष्टांग युक्त जिनवाणी का बहुमान होता है तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। सम्यक दर्शन भी नहीं हो तो भी सम्यक दर्शन के सम्मुख भी हो तो भी वह मनोज्ञ है। उसका यथायोग्य बहुमान होता है। विनय करने से कर्म की निर्जरा होती है। वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है। सामने का वातावरण भी शान्त हो जाता है। संयम भी विशुद्ध रहता है अत: विनय करो। रात के बारह भी बज गये हों तो भी विनय को नहीं भूलना चाहिए। गुरो: सर्वत्र अनुकूल वृत्ति विनय है। इसका हमेशा पालन अति अनिवार्य है इसके बिना मोक्ष का द्वार बन्द। मूल सूत्र मत भूलो और कुछ भूलो तो भूलो। मूल सूत्र यानि बड़ों की विनय करना और बड़ों से पूछकर काम करना बड़ों के अनुकूल चलना। कर्म का उदय आने पर भी विनय को कोई छीन नहीं सकता। उपवास से भी बड़ा विनय तप है लेकिन दुर्लभ है। दुर्लभ चीज सहजता से नहीं मिलती। कर्म निर्जरा भी दुर्लभ है दुर्लभ चीज मिली है आज महत्वपूर्ण चीज की ओर ध्यान नहीं जा रहा है। विनय उपकरण है, मोक्ष का द्वार है। विनय के साथ जो-जो नहीं मिलना है वह भी मिल जाता है। गुरुओं से, बड़ों से, विनय एक मंत्र है, तप है जिसके द्वारा चिर दीक्षित आचार्य भी नव दीक्षित मुनि से प्रभावित/आकर्षित हो जाते हैं। थोड़ा विनय व चतुराई से कार्य करें तो चौगुना कार्य हो जाता है। निर्दोष चारित्र का पालन करना, दिगंबरत्व को सुरक्षित रखना यही जिनलिंग की विनय है। विनय सबसे बड़ा टॉनिक है। करुणा, विनय, नम्रता, कोमलता से पहाड़ भी हिल जाता है। वात्सल्य से सब कुछ हो जाता है, यह हमारा सिद्धान्त है। दीनता-हीनता नहीं स्ट्रिकता होना चाहिए। विनय को व्यवहार कुशलता के साथ करना चाहिए। गुण ग्राहकता देख लेना चाहिए। दूसरों के दु:ख को देखकर हम काँप जायें, अपने दु:ख में दूसरे को नहीं काँपना यह वात्सल्य है। पहाड़ टूट जाने पर भी स्वयं के लिए कोई आवाज नहीं हो, सहनशक्ति रखना। पर दूसरे के थोड़े भी दु:ख में शांत नहीं रहना तुरन्त ही दु:ख दूर करने का भाव होना चाहिए कार्यरूप में। विष्णुकुमार मुनि ने ७०० मुनिराजों के दु:खों से पीड़ित होकर वात्सल्य भाव से, गुरु आज्ञा से उनकी रक्षा की। यदि कोई कहे कि हमें वात्सल्य नहीं मिलता, तो विनय करो, विनय सीखो तुम्हें वात्सल्य अवश्य मिलेगा। विनय आने से मृदुता गुण भी आ जाता है, जिससे गुरु भी प्रभावित हो जाते हैं प्रभावित करने का भाव नहीं रखता। ज्ञान, दर्शन, चारित्र तो पोथी का विषय हो गया किन्तु उपचार विनय पोथी का नहीं प्रयोग का विषय है। उपचार विनय ज्ञान, दर्शन, चारित्र का उपासक है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र थ्योरिटिकली है, उपचार विनय प्रेक्टिकल है। प्रेक्टिकल में १०० प्रतिशत मिलते हैं, थ्योरिटिकल में तो कम ज्यादा भी मिल सकते हैं। श्रवण करना, ग्रहण करना, धारण करना और श्रद्धा करना ये चार बातें जिसके पास नहीं हैं,वे अविनेय हैं। विनय का अर्थ दीन हीन होना नहीं है, आगम की आज्ञा है। अपने मान के अभाव में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह विनय है। वह सबसे बड़ा पूज्य माना जाता है जो विनय तप अपनाता है। छाया में बैठकर भी यह तप कर सकते हैं। अपना नाम ऊँचा करना चाहते हो तो विनय को अपनाओ। विनय महान् तप है, आत्मगत कर्मों की निर्जरा में साक्षात कारण है। विनयरूपी तप की अग्नि मान को जला देती है। जो तत्व का श्रवण, ग्रहण, मनन कर लेता है फिर भी अमल नहीं करता वह अविनेय है। जो विशेष रूप से तत्व तक ले जाता है वह विनेय है। विनय/नम्रता का अर्थ दीनता नहीं विनय/नम्रता का अर्थ यथार्थता है। नम्रता का अर्थ सही सही परख है, गुणों का अभिवादन है। गुणानुवाद तो करना चाहिए उसमें दीनता नहीं अभिमान भी नहीं करना चाहिए। जितनी नम्रता रखोगे उतना विकास की ओर बढ़ेंगे। शोभा नम्रता में है, उद्ण्डता में नहीं। विनय जब अंतरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर से प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्धृत होती है और व्यवहार में भी प्रदर्शित होती है। विनय का महत्व अनुपम है, यह वह सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है। विनय आत्मा का गुण है और ऋजुता का प्रतीक है। यह विनय तत्व मंथन से ही उपलब्ध हो सकती है। विनय का अर्थ है-सम्मान, आदर, पूजा आदि। विनय से हम आदर और पूजा तो प्राप्त करते ही हैं, साथ ही सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त कर सकते हैं। क्रोधी, कामी, मायावी, लोभी सभी विनय द्वारा वश में किये जा सकते हैं। अविनय में शक्ति का बिखराव है, विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण है। हमको शब्दों की विनय भी सीखना चाहिए। शब्दों की अविनय भी बड़ी हानिकारक सिद्ध हो सकती है। विनय गुण समन्वित व्यक्ति की केवल यही भावना होती है कि सभी में यह गुण उद्भूत हो जाये। सभी विकास की चरम सीमा का स्पर्श कर लें। विनय से कषायों का हनन होता है। विनय करने से मान अपने आप चला जाता है। भगवान् महावीर कहते हैं-मेरी उपासना चाहे न करो, विनय गुण की उपासना करो किन्तु विनय का मतलब यह नहीं कि आप भगवान् महावीर के समक्ष तो विनय करें और पास पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें। विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य कार्य भी साध्य बन जाते हैं। यह विनय गुण ग्राह्य है, उपास्य है, आराध्य है। अपने पड़ोसी की विनय करो। कोई घर पर आ जाये तो उसका सम्मान करो क्योंकि एक नीतिकार ने कहा है-मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन। अर्थात् सम्मान आदर से तृप्ति होती है, भोजन से नहीं। मुनि महाराज तो केवल आपके लोटे कलश देखकर ही तृप्त हो जाते है। अत: विनय करना सीखो। विनय गुण आपको सिद्धत्व प्राप्त करा देगा। गुरु के वचन मोक्षमार्ग पर याद रखना सबसे बड़ी विनय है। जहाँ विनय है, वहाँ पर कभी भी गृहीत मिथ्यात्व का बोल वाला नहीं होता। ये लिख लो अच्छे ढंग से। बड़ों के प्रति विनय, भक्ति के प्रति वात्सल्य भाव है और छोटों के प्रति स्नेह करना यह भी वात्सल्य का ही अंग है। दोष दूर करना और दोष बताना/दिखाना इसमें बहुत अंतर है। दूर करने का कार्य वात्सल्य होने पर ही होता है। आदर, प्रेम, सेवा अपने साधर्मी के प्रति करना, रागद्वेष नहीं करना, यहीं अपने आप में कसौटी है। मैत्री प्राणिमात्र के साथ वात्सल्य भाव साधर्मी के प्रति होता है, पर के प्रति सद्भाव के भाव पर्याय बुद्धि के साथ नहीं हो सकते हैं। दृष्टि में विशालता लाओ। सबके लिए वात्सल्य नहीं होता किन्तु अपने पक्ष सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और सदाचार एवं सद्दविचारों के साथ वात्सल्य भाव होना चाहिए और सामान्य के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए क्योंकि उससे मोक्षमार्ग बना रहेगा। वैय्यावृत्ति विवेक के साथ करें और वात्सल्य भी विवेक के साथ करें। वात्सल्य समय-समय पर होता है।
  21. वचन/शब्द विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार मधुर वचन गर्मी में भी काश्मीर का वातावरण ले आते हैं। आदर सूचक शब्दों को बोलने की आदत डालिए इससे आपकी भाषा समिति सुधरेगी लोग सुनने को तरसेंगे। आपके एक शब्द के कारण किसी के सम्यक्त्व को धक्का लग सकता है। मुख है तो खोल लेते हैं यह ठीक नहीं। आपके वचनों से कोई संयम से असंयम में भी जा सकता है। ज्ञान के साथ वचन हो तो अच्छे लगते हैं | प्रयोग के समय यदि चर्चा की तो सब विस्मृत हो जायेगा। ज्यादा चर्चा का अर्थ है हम क्रियान्वय कम कर रहे हैं। समय को बचाना इस युग की सबसे बड़ी जरूरत है। जिस विषय को अमल में लाना है उसकी ज्यादा चर्चा नहीं करें। जो कोस की बात नहीं है उसे ठण्डे बस्ते में रख दो। क्या है? क्यों है? आदि-आदि प्रश्न सिर दर्द कराने वाले हैं। भगवान् को याद करो यदि उसी समय कर्तव्य याद आ जाये तो समझो भगवान् याद आ गये कर्तव्य उनने ही तो बताये हैं। ड्यूटी के समय भी आप भगवान् के पास ही हो उनका ही तो काम कर रहे हो। नियमावली को याद नहीं करना, उनका पालन करना। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो यूजलेस हो हर किसी में कोई न कोई गुण अवश्य होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि हर किसी के सामने धोक दे दें। चीज एक है लेकिन योगी के लिए वरदान तथा भोगी के लिए अभिशाप सिद्ध हो सकती है। राग रूप वचन को सुनने से व्यक्ति रागी हो जाता है और रागद्वेष होने से व्यक्ति दुष्ट संकल्प कर लेता है। इस संकल्प से अति घोर पाप होता है। इसलिए ऐसे राग रूप वचनों से बचना चाहिए। कुछ लोग सुनने की इच्छा का निरोध करते हैं और कुछ लोग सुनाने की इच्छा रखते हैं तो उनके लिए सुनाने की इच्छा का भी निरोध कर लेना चाहिए। ऐसे सचित शब्दों को मत बोलो जिससे दूसरे का चित्त उखड़ जाये। जिस प्रकार यथालब्ध आहार की बात करते हैं वैसे ही यथालब्ध शब्द सुनने के भी आदी या अभ्यस्त होना चाहिए। दूसरे को संतुष्ट करने के चक्कर में हमें नहीं रहना चाहिए। आज किसी को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं। इसलिए हमें वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। हमें वीतराग कथा करनी चाहिए। वाद-विवाद की बात नहीं करनी चाहिए। संवेगनी-निर्वेगनी कथा करना चाहिए। दया के साथ वचन होते हैं तो उनमें स्खलन नहीं होता। मधुर शब्दों के द्वारा विरोधी के कान भी ठण्डे पड़ जाते हैं। हर एक व्यक्ति को इस प्रकार बोलना चाहिए कि सामने वाला चुम्बक की तरह खिचता चला आय । वाक्य में कभी भी तकिया कलाम नहीं होना चाहिए इससे वकृत्व कला समाप्त हो जाती है। सर्वप्रथम बोलने से पहले सोचो और खोल सोचो। मराठी में खोल अर्थात् डीप/गहराई के अर्थ में प्रयोग होता है। अच्छे ढंग से सोचो। व्रती को सोचना चाहिए बोलना नहीं, बोले तो फालतू नहीं बोले। अविरत सम्यक दृष्टि कम सोचता है और ज्यादा भी बोल सकता है लेकिन व्रती को मना किया है। व्रती के लिए कहा है-उतना ही बोलिए जिसके द्वारा अपना भी हित हो, दूसरे का भी हित हो। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो आगम में कहा है-अहिंसा व्रत का पालन वह सही नहीं कर रहा है। मनोबल के साथ जो बोला जाता है उसका प्रभाव पड़ता है मोक्षमार्ग में, यदि मनोबल के बिना सही सात्विक विचार के बिना आपके शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वह किसी काम के नहीं मोक्षमार्ग में और उसके द्वारा अहित के सिवाय कुछ होने वाला नहीं। अनुकंपा के भाव के साथ जो व्यक्ति बोलता है उस व्यक्ति के वचनों में ऐसा प्रभाव रहता है कि जन्म जात वैर को छोड़ करके वहीं एक ओर सिंह बैठेगा और दूसरी ओर गाय बैठती है। असंयमी बोले तो दूसरे पर प्रभाव नहीं पड़ेगा और कोई त्यागी तपस्वी बोलता है तो उसका अपने आप ही प्रभाव पड़ता है। इसलिए वक्तु प्रामाण्यात यह सूत्र चरित्रार्थ होता है। मोक्षमार्ग सम्बन्धी जो शब्दों के निर्माण हैं वह केवल अनुकम्पा से पूरित होते हैं और दिशाबोध देते हैं। एकवचन में शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए जैसे ए इधर आ. ऐसा नहीं बोलना चाहिए। आइये.इधर बैठिये ऐसा कहें। उन्हें नहीं बोलकर उन्होंने शब्द को बोलना चाहिए। लाड़ प्यार की भाषा अलग है। लेकिन अन्य वचन का प्रयोग ही अच्छा है। अपशब्द बोलने वालों को भगवती आराधना में गटर की नाली के समान कहा है। कोई कहे गंगा का नीर कर दो तो कोई कैसे करेगा। कर्णप्रिय शब्दों के सुनने से, बोलने से भी कभी-कभी बहुत विशुद्धि बढ़ती है। शब्द की गति में भावात्मक पुट भी सहायक होता है। जोर से भी बोला गया शब्द प्रशस्त कल्याणमय भावना से युक्त होने के कारण किसी के कानों को आघात नहीं होता। धीरे से बोला गया शब्द भी यदि अशुभ है, स्वार्थमय है, द्वेष से युक्त है, संक्लेश से युक्त है तो भी कर्णों को आघात होता है। बोलने से सबसे ज्यादा श्रम होता है। चिंतन का श्रम भी होता है बोलने में। प्रयोजनभूत बोलो इसी का अर्थ है-मापतौल कर बोलो। शार्ट एण्ड स्वीट। असत्य से बचकर हितकारी बोलना। इसे नोट करो-जब बिना बोले चल सकता है फिर क्यों बोलें? अपने से छोटा हो तब भी अपशब्द नहीं बोलना चाहिए। आपस में अरे यार जैसे शब्द प्रयोग नहीं करें। जब कोई आवेग में कुछ कहे तब अपने को कुछ नहीं बोलना। सुनने वाला जब व्यवस्थित हो जाये, उपशान्त हो जाये, सुनने को तैयार हो, तब सुनाना अन्यथा कुछ भी बोलने की आवश्यकता नहीं है। कुछ मत कहो। जैसे-६-७ डिग्री बुखार है तो उस समय औषधि नहीं देते, किन्तु बुखार उपशान्त हो जाये कुछ कम हो जाये तब औषधि का प्रयोग किया जाता है, अन्यथा उल्टी हो जायेगी। शब्द की मुख्यता नहीं, भाव गंभीर रहता है। शब्द सुनते ही शब्द तो छूट जाये पर भाव अवश्य भीतर पहुँच जाये। गहराई आनी चाहिए। बिना बोले भी यदि काम चल सकता है तो चलाना चाहिए। बोलकर यदि चलता है तो ज्यादा न बोलें। इससे ज्यादा शक्ति अजित होती है बोलने से शक्ति अधिक खर्च होती है। बोलते समय यह ध्यान रखो कि गुरु के विरुद्ध तो नहीं बोल रहे हैं। झूठ बोलने वाले बच्चे पर माता-पिता को भी विश्वास नहीं रहता। उस बच्चे का भाग्य फूट गया जो माता-पिता को सुखी नहीं रखता। अच्छे भाव हैं तो अपने आप ही अच्छे शब्द निकलते हैं लच्छेदार शब्दों की अपेक्षा। जैसे प्रासुक भोजन लेते हो ऐसे ही अपनी जिह्वा को प्रासुक रखो ताकि वह अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करे। सीमा शब्द की है अर्थ की नहीं। शब्द कैपसूल है, अर्थ दवाई है। शब्दों के कैपसूल बना बनाकर दिमाग में भर लिए हैं अब वो घुल नहीं रहे हैं। गुरु से निर्देशरूपी कैपसूल लेने पर यदि वह कैपसूल घुला नहीं तो यह नहीं कि वह कैपसूल गलत है, कैपसूल तो सही है पर सामने वाला जो है उसका रोग प्रबल है, प्रकृति इतनी प्रतिकूल है कि औषध काम ही नहीं कर पा रही है। किसी का पक्ष लेकर नहीं बोलना चाहिए देव, गुरु, शास्त्र का पक्ष लेकर बोलना चाहिए। आगमिक सत्य यह है बाकी आप जानो, मैं किसी का विरोध नहीं कर रहा हूँ बल्कि आगम का समर्थन कर रहा हूँ। प्रयोजन के अभाव में बोलना भी हिंसा का कारण बनता है। अहिंसा महाव्रत को पालने वाले रात को तो बोलते ही नहीं दिन में भी निष्प्रयोजन नहीं बोलते। बिना प्रयोजन घूमना-घुमाना नहीं चाहिए। राम-राम कहने से काम नहीं होता है राम के धर्म को और भावों को जानना ही सही राम है। जीभ (जिह्वा) के उपयोग से प्रस्फुटित वाणी द्वारा दूसरे जीव को जीत सकते हैं और उसी जीभ की वाणी से अपनी बतीसी भी तुड़वा सकते हैं। बाण से वश में करना सरल नहीं अपितु बात से वश में किया जा सकता है। बात का प्रभाव बाण के प्रभाव से गहरा होता है। आकुलता के बिना बोलना नहीं होता। वचन का प्रयोग करने में यदि प्रमाद नहीं है तो हिंसा गौण है। और यदि प्रमाद है तो हम हिंसा को गौण नहीं कर सकते। बोलते हुए आप अहिंसक रह ही नहीं सकते। इन सब बातों को देखकर ही तीर्थंकरों ने दीक्षित होते ही मौन व्रत को अंगीकार कर लिया था। सज्जनों के शब्द गंगा जल की तरह कलकल ध्वनि की तरह होते हैं। और दुर्जनों के शब्द/वचन नाली के पानी की तरह होते हैं। इतना मीठा बोलो कि भरी गर्मी में भी पित्त शांत हो जाये। पित्त कुपित हो जाये तो बहुत मुश्किल होता है। अपने मुख को बुरे शब्दों के द्वारा अशुद्ध नहीं बनाना। खूब अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करो। सुगंधित मंजन से मुख शुद्धि के समान।
  22. कंखाभावणिवित्तिं,किच्चोवेरग्यभावणाजुत्तो। तस्स दु धम्मे हवे सोच्चं॥ जो परम मुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारधारा से युक्त होकर आचरण करता है उसको शौच धर्म होता है। जब मैं बैठा था वह समय, सामायिक का था और एक मक्खी अचानक सामने देखने में आयी। उसके पंख थोड़े गीले से लग रहे थे। वह उड़ना चाहती थी पर उसके पंख सहयोग नहीं दे रहे थे। वह अपने शरीर पर भार अनुभव कर रही थी और उस भार के कारण उड़ने की क्षमता होते हुए भी उड़ नहीं पा रही थी। जब कुछ समय के उपरान्त पंख सूख गये तब वह उड़ गयी। मैं सोचता रहा कि वायुयान की रफ्तार जैसी उड़ने की पूरी की पूरी शक्ति ही मानों समाप्त हो गयी। थोड़ी देर के लिए उसे हिलना-डुलना भी मुश्किल हो गया। यही दशा संसारी-प्राणी की है। संसारी-प्राणी ने अपने ऊपर अनावश्यक न जाने कितना भार लाद रखा है और फिर भी आकाश की ऊँचाईयां छूना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति ऊपर उठने की उम्मीद को लेकर नीचे बैठा है। स्वर्ग की बात सोच रहा है लेकिन अपने ऊपर लदे हुए बोझ की ओर नहीं देखता जो उसे ऊपर उठने में बाधक साबित हो रहा है। वह यह नहीं सोच पाता कि क्या मैं यह बोझ उठाकर कहीं ले जा पाऊँगा या नहीं? वह तो अपनी मानसिक कल्पनाओं को साकार रूप देने के प्रयास में अहर्निश मन-वचन और काय की चेष्टाओं में लगा रहता है। अमूर्त स्वभाव वाला होकर भी वह मूर्त सा व्यवहार करता है। यूँ कहना चाहिए कि अपने स्वरूप को भूलकर स्वयं भारमय बनकर उड़ने में असमर्थ हो रहा है। ऐसी दशा में वह मात्र लुढ़क सकता है, गिर सकता है और देखा जाए तो निरन्तर गिरता ही आ रहा है। उसका ऊँचाई की ओर बढ़ना तो दूर रहा देखने का साहस भी खो रहा है। जैसे जब हम अपने कन्धों पर या सिर पर भार लिये हुए चलते हैं तो केवल नीचे की ओर ही दृष्टि जाती है। सामने भी ठीक से देख नहीं पाते। आसमान की तरफ देखने की तो बात ही नहीं है। ऐसे ही है संसारी प्राणी के लिए मोह का बोझा। मोह उसके सिर पर इतना लदा है, कहो कि उसने लाद रखा है कि मोक्ष की बात करना ही मुश्किल हो गया है। विचित्रता तो ये है कि इतना बोझा कन्धों पर होने के बाद भी वह एक दीर्घ श्वांस लेकर कुछ आराम जैसा अनुभव करने लगता है और अपने बोझ को पूरी तरह नीचे रखने की भावना तक नहीं करता। बल्कि उस बोझ को लेकर ही उससे मुक्त हुए बिना ही मोक्ष तक पहुँचने की कल्पना करता है। भगवान के समाने जाकर, गुरुओं के समीप जाकर अपना दुख व्यक्त करता है कि हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता है। आप दीनदयाल हैं। महती करुणा के धारक हैं। दया-सिन्धु, दयापालक हैं। करुणा के आकार हैं, करुणाकार हैं। आपके बिना कौन हमारा मार्ग प्रदर्शित कर सकता है? उसके ऐसे दीनता भरे शब्दों को सुनकर और आँखों से अश्रुधारा बहते देखकर सन्त लोग विस्मय और दुख का अनुभव करते हैं। वे सोचते हैं कि कैसी यह संसार की रीत है कि परिग्रह के बोझ को निरन्तर इकट्ठा करके स्वयं दीन-हीन होता हुआ यह संसारी प्राणी संसार से मुक्त नहीं हो पाता | शुर्चेभार्व: शौच्यम्।' शुचिता अर्थात् पवित्रता का भाव ही शौचधर्म है। अशुचि भाव का विमोचन किये बिना उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। शुचिता क्या है और अशुचिता क्या है? यही बतलाने के लिए आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में एक कारिका के माध्यम से सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन करते हुए कहा है कि स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१३) शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसमें पवित्रता यदि आती है तो रत्नत्रय से आती है। रत्नत्रय ही पवित्र है। इसलिए रत्नत्रय रूपी गुणों के प्रति प्रीतिभाव रखना चाहिए। रत्नत्रय को धारण करने वाले शरीर के प्रति विचिकित्सा नहीं करना चाहिए।चिकित्सा का अर्थ ग्लानि से है। या कहें कि एक प्रकार से प्रतिकार का भाव ही चिकित्सा है और विचिकित्सा का अर्थ विशेष रूप से चिकित्सा या ग्लानि लिया गया है। विचिकित्सा का अभाव होना ही ‘निर्विचिकित्सा-अंग' है। जीवन में शुचिता इसी अंग के पालन करने से आती है। शरीर तो मल का पिटारा है, घृणास्पद भी है। हमारा ध्यान शरीर की ओर तो जाता है लेकिन उसकी वास्तविक दशा की ओर नहीं जाता। इसी कारण शरीर के प्रति राग का भाव या घृणा का भाव आ जाता है। वासना की ओट में शरीर की उपासना अनादिकाल से यह संसारी प्राणी करता आ रहा है। लेकिन उसी शरीर में बैठे हुए आत्मा की उपासना करने की ओर हमारी दृष्टि नहीं जाती। विषयों में सुख मानकर यह जीव अपनी आत्मा की उपासना को भूल रहा है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रवचनसार में कहा है कि- कुलिसायुहचक्कहरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं। देहादीण वड़ी करेंति सुहिदा इवाभिरदा॥ (प्रवचनसार-७७) अर्थात् इन्द्र और चक्रवर्ती पुण्य के फलस्वरूप भोगों के द्वारा देहादि की पुष्टि करते हैं और भोगों में लीन रहते हुए सुखी जान पड़ते हैं, लेकिन वास्तविक सुख वह नहीं है। लोभ के वशीभूत हुआ संसारी प्राणी विषय रूपी वासना में लिप्त होने के कारण आत्मिक सुख से वञ्चित हो रहा है। चार कषायों के द्वारा चार गतियों में निरन्तर भटक रहा है। नरकों में विशेष रूप से क्रोध के साथ, तिर्यच्चों में माया के साथ, मनुष्यों में मान के साथ और देवों में लोभ के साथ यह जीव उत्पन्न होता है। वैचित्र्य तो यह है कि और लोभी बनकर आज यह संसारी प्राणी देव बनना चाहता है। एक तरह से और लोभी ही होना चाहता है। देखा जाए तो स्वर्ग में भी सागरोपम आयु वाले इन्द्र और अहमिन्द्र को भी विषय कषाय के अभाव में होने वाली आत्मानुभूति का अनुभव क्षण भर को भी नहीं होता। भले ही उन्हें सुखानुभूति मनुष्यों की अपेक्षा अधिक रही | प्रत्येक असंयमी संसारी प्राणी की स्थिति जोंक की तरह है। जैसे जोंक किसी जानवर या गाय/भैंस के थनों (स्तनों) के ऊपर चिपक जाता है और वह सड़े-गले खून को ही चूसता रहता है। ‘वैसे ही स्वर्ग के सुखों की भी ऐसी ही उपमा दी गयी है। ‘आचार्यों ने हमारे लोभ के भिन्न-भिन्न उपाय करते हुए भिन्न-भिन्न उपदेश दिये हैं। किसी भी तरह लोभ का विरेचन हो जाये, यही मुख्य दृष्टिकोण रहता है लेकिन इतने पर भी ऐसा उदाहरण सुनकर भी संसारी प्राणी लोभ का विरेचन करने के लिए तैयार न हो, तो उसका कल्याण कौन कर सकेगा? जिस लोभ को छोड़ना था, उसी लोभ के वशीभूत हुआ। आज संसारी-प्राणी अपनी ख्याति, पूजा, लाभ और यश-कीर्ति चाह रहा है। स्वर्गों में सम्यकद्रष्टि के लिए भी ऐसी उपमा देने के पीछे आशय यही है कि विषय भोगों की लालसा यदि मन में है तो वह मुक्ति में बाधक है। आज प्रगति का युग है, विज्ञान का युग है। लेकिन देखा जाये तो दुर्गति का भी युग है। क्योंकि आज आत्मा में निरन्तर कलुषता आती जा रही है। लोभ-लालसा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। जितने सुविधा के साधन जुटाये जा रहे हैं, उतना ही व्यक्ति में तृष्णा और असन्तोष बढ़ रहा है। कीचड़ के माध्यम से कीचड़ धोना सम्भव नहीं है। कीचड़ को धोने के लिए तो वर्षा होनी चाहिए। पवित्र-जल की वर्षा से ही पवित्रता आयेगी। समसंतोसजलेण जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंजु। भोयणगिद्धिविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं॥ निर्मल शौच धर्म उसे ही होता है, जो समता और संतोष रूपी जल के द्वारा अपने तीव्र लोभ रूपी मल के पुञ्ज को धोता है और भोजनादि अन्य पदार्थों में अत्यन्त आसक्त नहीं होता। स्वर्गों में देव पूरी तरह विषय भोगों का परित्याग तो नहीं कर सकते जैसा कि मनुष्य जीवन में कर पाना सम्भव है। लेकिन वे देव भी जहाँ-जहाँ भगवान् के पंचकल्याणक होते हैं वहाँ-वहाँ अवश्य जाते हैं और परिवार सहित विषय-भोग को गौण करके उन महान् आत्माओं की सेवा, आराधना करके अपने आत्मा-स्वरूप की ओर देखने का प्रयास करते हैं। भगवान की वीतराग-छवि और वीतराग स्वरूप की महिमा देखकर वे मन ही मन विचार भी करते हैं कि हे भगवन्! आपकी वीतरागता का प्रभाव हमारे ऊपर ऐसा पड़े कि हमारा रागभाव पूरा का पूरा समाप्त हो जाए। आपकी वीतराग छवि से समत्व की ऐसी वर्षा हो कि हम भी थोड़ी देर के लिए शान्ति का अनुभव कर सकें और राग की तपन से बच सकें। यदि देवगति में रहकर देव लोग इस प्रकार की भावना कर सकते हैं तो आप लोग तो देवों के इन्द्र से भी बढ़कर हो। क्योंकि आप लोगों के लिए तो उस मनुष्य काया की प्राप्ति हुई है जिसे पाने के लिए देव लोग भी तरसते हैं। आपकी यह मनुष्य काया की उपलब्धि कम नहीं है, क्योंकि यह मुक्ति का सोपान बन सकती है। लेकिन यह उसे ही सम्भव है जो विषय-भोगों से विराम ले सके। जब तक हम विषय-भोगों से विराम नहीं लेंगे तब तक आत्मा का साक्षात् दर्शन सम्भव नहीं है। पवित्र-आत्मा का दर्शन विषय-भोगों के विमोचन के उपरान्त ही सम्भव है। यदि कषायों का पूरी तरह विमोचन नहीं होता तो कम से कम उनका उपशमन तो किया ही जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र जैसे महान् आचार्य धन्य हैं, जिन्होंने इस भौतिक युग में रहते हुए भी जल से भिन्न कमल के समान स्वयं को संसार से निलिप्त रखा और विषयकषाय से बचते हुए अपनी आत्मा की आराधना की। विषय कषाय से बचते हुए वीतराग प्रभु के द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलने का प्रयास किया। रात-दिन अप्रमत्त रहकर, जागृत रहकर उस जागृति के प्रकाश में अपने खोये हुए, भूले हुए आत्मतत्व को ढूँढ़ने का प्रयास किया। इतना ही नहीं ऐसे महान् आचार्यों ने हम जैसे मोही, रागी, द्वेषी, लोभी और अज्ञानी संसारी प्राणियों के लिए, जो कि अंधकार में भटक रहे हैं, अपने ज्ञान के आलोक से पथ प्रकाशित करके हमारी आँखें खोलने का प्रयास भी किया है अज्ञानतिमिरान्धानाम् ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरून्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरूवे नमः॥ ज्ञानरूपी अञ्जन-शलाका से हमारी ऑखों की खोलकर अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर दिया है। ऐसे परम गुरुओं को हमारा नमस्कार होवे। उनके अपार उपकार का स्मरण करना चाहिए। ऐसे महान् आचार्यों के द्वारा ही हजारों-लाखों वर्षों से चली आ रही अहिंसा-धर्म की परम्परा आज भी जीवन्त है। वस्तुत: ध्वनियाँ क्षणिक हैं, लेकिन जो भीतरी आवाज है, जो दिव्यध्वनि है, जो जिनवाणी है, वही शाश्वत और उपकारी है। एक बार यदि हम अपना उपयोग उस ओर लगा दें तो बाह्य-ध्वनियों की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इस भीतरी ध्वनि के सामने दुनियाँ की सारी बाहरी शक्ति फीकी पड़ जाती है। जैसे प्रभाकर के सामने जुगनू का प्रकाश फीका है, कार्यकारी नहीं है, इस प्रकार उत्तम शौच का पान करने वाले मुनियों के लिए बाह्य-सामग्री कार्यकारी मालूम नहीं पड़ती और वे निरन्तर उसका विमोचन करते रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार का मंगलाचरण करते हुए कहा है कि- वंदितु सव्वसिद्ध ध्रुवमचलमणोवमं गदि पत्तो। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं॥ हे भव्यजीव! मैं शाश्वत, अचल और समस्त उपमाओं से रहित ऐसी पञ्चमगति को प्राप्त सब सिद्धों को नमस्कार करके श्रुत-केवली भगवान् के द्वारा कहे गये समयप्राभूत ग्रन्थ को कहूँगा। उपनिषदों में शुद्ध तत्व का वर्णन करते हुए जो बात नहीं लिखी गयी, वह आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने लिख दी कि एक सिद्ध भगवान् को नहीं, सारे सिद्ध भगवानों को प्रणाम करके ग्रन्थ का प्रारम्भ करता हूँ। सिद्ध एक ही नहीं हैं, अनन्त हैं। सभी में, प्रत्येक जीवात्मा में सिद्धत्व की शक्ति विद्यमान है। आचार्य महाराज ने भीतर बैठी इसी शुद्धात्मा की शक्ति को दिखाने का प्रयास किया है और कहा है कि यदि थोड़ा-थोड़ा भी, धीरे-धीरे भी लोभ का मल कम करके भीतर झाँकने का प्रयास करोगे तेा जैसे दूध में घृत के दर्शन होते हैं, सुगंधी का पान करते हैं, रस का अनुभव आता है, ऐसे ही शुद्धात्मा का दर्शन, पान और अनुभवन सम्भव है। आप दूध तपाकर मावा बनाते हैं। उसे कहीं-कहीं खोवा या खोया भी कहते हैं। वस्तुत: वह खोया ही है। दूध को 'खोया' तभी मिला खोया। (हँसी) यूँ कहो कि जो खो गया था, वह मिल गया। हमारा आत्म-तत्व मानों खो गया है और कषायों के नीचे दब गया है यदि हम लोभ को खो दें, तो हमारा खोया हुआ आत्म-तत्व हमें मिल जायेगा। तब खोया मिल जायेगा। लोभ की स्थिति बड़ी जटिल है। इसके माध्यम से ही सभी कषायों की सेना आती है। आचार्यों ने लिखा है कि क्रोध, मान, माया और लोभ ये सभी क्रम-क्रम से उपशम या क्षय को प्राप्त होती हैं। सबसे अन्त में लोभ जाता है। लोभ की पकड़ भीतर बहुत गहरी है। इस लोभ के पूरी तरह क्षय होते ही वीतरागता आने में और भगवान बनने में देर नहीं लगती। मन में यह जागृति आ जाये कि- "जानूँ कि मैं कौन हूँ" तो सारी सांसारिक लोभ, लिप्सा समाप्त होने लग जाती है। भीतर प्रज्ज्वलित होने वाली आत्म-ज्ञान की ज्योति में अपने स्वभाव की ओर दृष्टि जाने लगती है। हमें ज्ञात हो जाता है कि भले ही मेरी आत्मा के साथ कर्म एकमेक हुए के समान हों और वह शरीरादि बाह्य सामग्री नोकर्म के रूप में मुझे मिली हो। रागद्वेषादि भाव मेरे साथ मिलजुल गये हों। लेकिन इन सभी कर्म, नोकर्म और भाव-कर्म से मैं भिन्न हूँ। वास्तव में, बाहरी संबंधों में अपने को मुक्त कर लेने के उपरान्त हमारी आत्मा की दशा ऐसी हो जाती है कि फिर बाह्य वस्तुओं को पहचानना भी मुश्किल सा लगने लगता है। एक निर्मोही की दृष्टि में बाह्य पदार्थों की जानकारी पाने के लिए उत्सुकता शेष नहीं रह जाती। संसारी प्राणियों में बहुत सारी विचित्रताएँ देखने में आती हैं। मनुष्य की विचित्रता यह है कि वह सब कुछ जानते हुए भी अपने जीवन में कल्याण की बात नहीं सोचता। मैं पूछता हूँ आप सभी लोगों से कि आपने कभी परिग्रह को पाप समझा या नहीं? आपने वस्तुओं के प्रति अपने मूछ भाव को पाप समझा है या नहीं? आप सभी यह मानते हैं कि हिंसा को हमारे यहाँ अच्छा नहीं माना गया, झूठ भी पाप है। चोरी करना भी हमारे यहाँ ठीक नहीं बताया। कुशील की तो बात ही नहीं है। इस तरह आप चारों पापों से दूर रहने का दावा करते हैं किन्तु जो पापों का सिरमौर है, जो परम्परा से चला जा रहा है परिग्रह, उसे आप पाप नहीं मानते। बात यह है कि उसके माध्यम से सारे के सारे कार्य करके हम अपने आपको धर्म की मूर्ति बताने में सफल हो जाते हैं। भगवान का निर्माण करा सकते हैं, मन्दिर बनवा सकते हैं चार लोगों के बीच अपने को बड़ा बता सकते हैं। इस तरह आपने परिग्रह को पाप का बाप कहा अवश्य है, लेकिन माना नहीं है। बल्कि परिग्रह को ही सब कुछ मान लिया है। सोचते हैं कि यह जब तक है तभी तक हम जीवित हैं या कि तभी तक घर में दीपक जल रहा है। हमें लगता है कि धन के बिना धर्म भी नहीं चल सकता। देखने में भी आता है कि अच्छा मञ्च बनाया है, बड़ा पण्डाल लगाया है तभी तो घण्टों बैठकर प्रवचन सुन पा रहे हैं। लेकिन ध्यान रखना धर्म की प्रभावना के लिए धन का उतना महत्व नहीं है जितना कि धन को छोड़ने का महत्व है। यह भगवान् महावीर का धर्म है जिसमें कहा गया है कि जब तक धन की आकांक्षा है, धन की महिमा गायी जा रही है, तब तक धर्म की बात प्रारम्भ ही नहीं हुई है। किसी आँग्ल कवि (इंग्लिश पोयट) ने कहा है कि सुई के छेद से ऊँट पार होना सम्भव है, लेकिन धन के संग्रह की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को मुक्ति सम्भव नहीं है। हमारे यहाँ धर्म के अर्जन की बात कही गयी है, धन के अर्जन की बात नहीं कही गयी, बल्कि धन के विसर्जन की बात कही गयी है। हम इस मनुष्य पर्याय की दुर्लभता को समझे और यह भी समझे कि हम इस दुर्लभ वस्तु को किस तरह कौड़ियों के दाम बेच रहे हैं। किस तरह धन के पीछे हम अपना मूल्यवान आत्म-धन नष्ट कर रहे हैं। जैसे कोई हमेशा अंधकार में जीता रहे तो उसे कभी दिन का भान नहीं हो पाता, उसे पूर्व और पश्चिम दिशा का ज्ञान भी नहीं हो पाता। ऐसे ही जो व्यक्ति हमेशा धन की आकांक्षा में और विषय भोगों की लालसा में व्यस्त रहता है उसे यह पहचान ही नहीं हो पाती कि भगवान् वीतराग कैसे हैं? उन्होंने किस तरह परिग्रह का विमोचन करके तथा लोभ का त्याग करके पवित्रता, वीतरागता पायी है। ध्यान रखना वीतरागता कभी धन के माध्यम से या लोभ के माध्यम से नहीं मिलती। ‘‘परितः समन्तात् गृह्णाति आत्मानम् इति परिग्रहः" जो आत्मा को चारो ओर से अपनी चपेट में ले, वह परिग्रह है। लोग कहते हैं ग्रह दशा ठीक नहीं चल रही, तो मैं सोचता हूँकि परिग्रह से बड़ा भी कोई ग्रह है, जो हमें ग्रसित करे? परिग्रह रूपी ग्रह ही हमें ग्रसित कर रहा है। इसी के कारण हम परमार्थ को भूल रहे हैं और जीवन के वास्तविक सुख को भूलकर इन्द्रिय सुखों को ही सब कुछ मान रहे हैं। जिसके पास जितना परिग्रह है या आता जा रहा है, वह मान रहा है कि परिग्रह (बाह्य पदार्थों का संग्रह) हमारे हाथ में है और हम उसके मालिक हैं। लेकिन ध्यान रखना परिग्रह आपके वश में नहीं है बल्कि आप ही परिग्रह के वशीभूत हैं, परिग्रह ने ही आपको सब ओर से घेर रखा है। तिजोरी के अन्दर धन-सम्पदा बन्द है और आप पहरेदार की तरह पहरा दे रहे हैं और सेठ जी कहला रहे हैं। क्या पहरा देने वाला सेठ जी हो सकता है? वह तो पहरेदार ही कहलायेगा वह मालिक नहीं नौकर ही कहलायेगा। धन संपत्ति मालिक बनी हुई है और आराम से तिजोरी में राज्य कर रही है, आप उसी की आरती उतार रहे हैं और स्वयं को धन्य मान रहे हैं। दीपावली के दिन भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी, लेकिन आज आप लोग परिग्रह रूपी धनसंपत्ति को लक्ष्मी मानकर उसी की पूजा कर रहे हैं, जो अज्ञानता का ही प्रतीक है। आचार्यों ने परिग्रह संज्ञा को संसार का कारण बताया है और संसारी प्राणी निरन्तर इसी परिग्रह के पीछे अपने सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन को गाँवा रहा है। जिस आत्मा में परमात्मा बनने की, पतित से पावन बनने की क्षमता है वही आत्मा परिग्रह के माध्यम से, लोभ-लिप्सा के माध्यम से संसार में रुल रहा है। एक बार यदि आप अपने भीतरी आत्म-वैभव का दर्शन कर लें तो आपको ज्ञात हो जायेगा कि अविनश्वर सुख-शांति का वैभव तो हमारे भीतर ही है। अनन्त गुणों का भण्डार हमारे भीतर ही है और हम बाहर हाथ पसार रहे हैं। कम से कम आज आप ऐसा संकल्प अवश्य लेकर जाइये कि हम अनन्त-काल से चले आ रहे इस अनंतानुबंधी संबंधी अनन्त लोभ का विमोचन अवश्य करेंगे और अपने पवित्र स्वरूप की ओर दृष्टिपात करेंगे। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि- अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं। जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्विठ्ठसंठाणं॥ (समयसार- ५४) जो रस रहित है, जो रूप-रहित है, जिसकी कोई गन्ध नहीं है, जो इन्द्रियगोचर नहीं है, चेतना-गुण से युक्त है, शब्द रहित है, किसी बाहरी चिह्न या इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार बताया नहीं जा सकता, ऐसा यह जीव है आत्मतत्व है। जिन आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र और आचार्य पूज्यपाद जैसे महान् निष्परिग्रही आत्माओं के द्वारा इस आत्मस्वरूप की उपासना की गयी है, उन्हीं निष्परिग्रही आत्माओं के हम भी उपासक हैं, होना भी चाहिए। अभी जैसे आप स्वयं ही अनुभव कर रहे हैं कि देह रूपी परिग्रह तक का ध्यान भूलकर किस तरह तन्मय होकर धर्मलाभ लिया जा सकता है। भाई! अपने जीवन को इसी प्रकार लोभ-मल से बचाकर पवित्र होने का, शौच-धर्म प्राप्त करने का उपाय करना ही सच्चा पुरुषार्थ है। आज सीप का नहीं, मोती का, आज दीप का नहीं, ज्योति का स्वागत करना है और अपने जीवन को, आदर्श भास्वत करना है। संसारी प्राणी इस रहस्य को नहीं जान पा रहा है कि शुचि क्या है और अशुचि क्या है? इन दोनों के बीच भेद क्या है? यह क्रम अनादि से चला आ रहा है, लेकिन संसारी प्राणी जैसे इस बात से अनभिज्ञ हैं। जहाँ पर कमल उगता है वही देखा जाए तो नीचे कीचड़ भी देखने में आता है। सीप में से मोती निकलता है और दीप में ज्योति जलती है, प्रकाश होता है। मोती मूल्यवान है तथा प्रकाश की महत्ता है। भगवान् के चरणों में चक्रवर्ती जैसे महापुरुष अज्जुलि भर-भर कर मोती ही चढ़ाते हैं। कीचड़ में उगने वाला कमल भगवान् के चरणों में चढ़ाया जाता है। कीचड़ को कोई छूना भी नहीं चाहता। किन्तु आज उस कमल का, उस ज्योति का और मोती का अनादर किया जा रहा है और अशुचि रूप कीचड़ में ही जीवन लथपथ हो रहा है। संसारी प्राणी मोती को छोड़कर सीप में ही चाँदी की कल्पना करके फंसता जा रहा है। इसी प्रकार अशुचि का भण्डार यह शरीर भी है। हम शरीर को ही आदर देते जा रहे हैं। अस्सी साल का वृद्ध भी दिन-भर में कम से कम एक बार दर्पण देखने का अवश्य इच्छुक रहता है। किन्तु आत्मतत्व देखने के लिए आज तक किसी ने विचार नहीं किया। यह कोई नहीं सोचता कि ऐसा कौन सा दर्पण खरीद ले जिसमें मैं अपने आपका वास्तविक रूप देख सकूं। आकर्षण का केन्द्र शरीर न होकर उसमें रहने वाली आत्मा ही आकर्षण का केन्द्र हो जाये। लेकिन संसार की रीत बड़ी विपरीत है। बहुत कम लोगों की दृष्टि इस ओर है। गगन का प्यार, धरा से ही नहीं सकता और मदन का प्यार कभी जरा से ही नहीं सकता। यह भी एक नियति है, सत्य है कि सज्जन का प्यार कभी सुरा से हो नहीं सकता। विधवा को कभी अंगराग रुचता नहीं, कभी सधवा को भी संग त्याग रुचता नहीं, संसार से विपरीत रीत, विरलों की ही होती है कि भगवान् को कभी भी राग दाग रुचता नहीं? मैं मानता हूँ अशुचिता से अपने आपके जीवन को ऊपर उठाना, हँसी-खेल नहीं है। लेकिन खेल नहीं होते हुए भी उस ओर दृष्टिपात तो अवश्य करना चाहिए। ऐसे-ऐसे व्यक्ति देखने में आते ằ fh vàơi Commentary सुनने में दिन-रात लगा देते हैं और भूख-प्यास सब भूल जाते हैं। शरीर की ओर दृष्टि नहीं जाती। यह एक भीतरी लगन की बात है। जैसे खेल नहीं खेलते हुए भी खेल के प्रति आस्था, आदर और बहुमान होने के कारण यह व्यवहार हो जाता है। उसी प्रकार यदि आज हम स्वयं आत्मतत्व का दर्शन नहीं भी कर पाते, उसे नहीं पहचानते तो कोई बात नहीं। किन्तु जिन्होंने उस आत्म-तत्व को पहचाना है उनके प्रति आस्था, आदर और बहुमान रखकर उनकी बात तो कम से कम सुनना ही चाहिए। माँ उस समय चिन्तित हो जाती है, जब लड़का अच्छा खाना नहीं खाता और खेलकूद के लिए भाग जाता है। उसी प्रकार सारे विश्व का हित चाहने वाले आचार्यों को भीतर ही भीतर उस समय चिन्ता और दुख होता है, जब संसारी प्राणी अपने उस स्वभाव से जिसमें वास्तविक आनन्द है जो वास्तविक सम्पदा है, उससे एक समय के लिए भी परिचित नहीं हुआ। आचार्य समन्तभद्र महाराज, जो दर्शन (फिलासफी) के प्रति गहरी रुचि और आस्था रखते थे और जिनकी सिंह गर्जना के सामने हाथियों के समान प्रवादियों का मद (अहकार) गल जाता था। वे कहते हैं संसारी प्राणी ने आज तक पवित्रता का आदर नहीं किया है और अपवित्रता को ही गले लगाया है। यही कारण है कि उसे आत्म-तत्व का परिचय नहीं हुआ। अशुचिमय शरीर में बैठे हुए आत्मा का जो ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है, दर्शन नहीं हुआ। कीचड़ के संयोग से लोहा जंग खा जाता है लेकिन स्वर्ण, कीचड़ का संयोग पाकर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता। ऐसे ही शरीर के साथ रहकर भी आत्मा अपने ज्ञान-दर्शन गुण को नहीं छोड़ता। हाँ, इतना अवश्य है कि स्वर्ण-पाषाण की भाँति हमारा आत्मा अभी अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाया है। जैसे स्वर्ण पाषाण में स्वर्ण है और उसे विधिवत् निकाला जाये तो निकल सकता है, उसी प्रकार आत्म-तत्व को कर्म-मल के बीच से निकालना चाहें तो निकाला जा सकता है। वास्तविक मल तो सही कर्म-मल है जो अनादिकाल से आत्मा के साथ चिपका हुआ है और आत्मा में विकार उत्पन्न करता है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये आत्मा की विभिन्न दशाएँ हैं। इनमें से अपनी परमात्मदशा को विधिवत् निकाल लेना ही सच्चा पुरुषार्थ है और जो ऐसा करता है वह फिर शरीर को महत्व नहीं देता। बल्कि आत्मा को बचाकर पवित्र बनाने का प्रयास करने में जुट जाता है। शरीर का इतना ही महत्व है कि उसके माध्यम से आत्म-तत्व को प्राप्त करना है यह ज्ञानी जानता है और शरीर को सावधानी पूर्वक सुरक्षित रखकर आत्म-तत्व को प्राप्त करने में लग जाता है। हमें जानना चाहिए कि आत्म-तत्व के द्वारा ही शरीर को महत्व मिलता है अन्यथा उसे कोई नहीं चाहता। वह अशुचिमय है और आत्मा से पृथक् है। हमारा कर्तव्य है कि हम उसकी अशुचिता को समझे और उसके प्रति आसक्ति को छोड़कर रत्नत्रय से पवित्र आत्मा के प्रति अनुरक्त हों। वीतराग यथाजात दिगम्बर रूप ही पवित्र है, क्योंकि इसी के माध्यम से आत्मा चार प्रकार की आराधना करके मुक्ति को प्राप्त होती है और पवित्र होती है। वस्तुत: पवित्रता शरीराश्रित नहीं है लेकिन यदि आत्मा शरीर के साथ रहकर भी धर्म को अंगीकार कर लेती है तो शरीर भी पवित्र माना जाने लगता है, क्योंकि तब उसमें राग नहीं है और उसमें द्वेष भी नहीं है। वह सप्त-धातु से युक्त होते हुए भी पूज्य हो जाता है। शरीर के साथ जो धर्म के द्वारा संस्कारित आत्मा है, उसका मूल्य है और उस संस्कारित आत्मा के कारण ही शरीर का भी मूल्य बढ़ जाता है। जैसे कोई व्यक्ति धागे को गले में नहीं लटकाता किन्तु फूलों की माला के साथ या मोती की माला के साथ वह धागा भी गले में शोभा पाता है और फूल सूख जाने पर फिर कोई उसे धारण नहीं करता। इसी प्रकार यदि धर्म साथ है तो शरीर भी शोभा पाता है। धर्म के अभाव में जीवन शोभा नहीं पाता। उसे कोई मूल्य नहीं देता तथा उसे कोई पूज्य भी नहीं मानता। हमारे यहाँ जड़ का आदर नहीं किया गया। आदर तो चेतना का ही किया जाता है। जो इस चेतना का आदर करता है, उसका परिचय प्राप्त कर लेता है, वही वास्तविक आनन्द को प्राप्त कर लेता है। वही तीन लोक में पूज्यता को प्राप्त होता है। जैसे कोई अन्धा हो या आँख मूंद कर बैठा हो तो उसे प्रकाश का दर्शन नहीं होता और वह सोच लेता है कि प्रकाश कोई वस्तु नहीं है, अंधकार ही अंधकार है। उसी प्रकार संसारी प्राणी लोभ के कारण अन्ध हुआ है उसे आत्म-तत्व प्रकाशित नहीं हो रहा है। उसे रत्नत्रय का दर्शन नहीं हो पा रहा है और उसका जीवन अंधकारमय हो रहा है। वह सोचता है कि जीवन में आलोक सम्भव ही नहीं है। लेकिन जो अाँख खोल लेता है, लोभ को हटा देता है, विकारों पर विजय पा लेता है, उसे प्रकाश दिखायी पड़ने लग जाता है और उसका जीवन आलोकित हो जाता है। शरीर के प्रति रागभाव हटते ही शरीर में चमकने वाला आत्म-तत्व का प्रकाश दिखायी पड़ने लगता है और वह आत्मा उस औदारिक अशुचिमय शरीर से युक्त होकर परम औदारिक शरीर को प्राप्त कर लेता है। परम पावन हो जाता है। बन्धुओ! आज अशुचि का नहीं, शुचिता का आदर करना है। सीप का नहीं, मोती का आदर करना है। दीप का नहीं, ज्योति का स्वागत करना है और अपने जीवन को प्रकाशित करना है। ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने वाले के लिए समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि वह शरीर के बारे में ऐसा विचार करें मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं। पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति । यो ब्रह्मचारी सः॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१४३) ब्रह्मचारी वह है, जो शरीर को मल का बीज मानता है, मल की उत्पति का स्थान मानता है और दुर्गध तथा घृणास्पद चीजों का ढेर मानकर उससे राग नहीं करता। उससे विरक्त रहकर अपने ब्रह्म अर्थात् आत्म-तत्व का ही अवलोकन करने में आनन्द मानता है। जिस शरीर को शुद्ध बनाने के लिए, सुगंधित बनाने के लिए हम नाना प्रकार के उपाय करते हैं, वह शरीर कैसा है उसका विचार करें तो मालूम पड़ेगा कि केशर चन्दन पुष्प सुगंधित वस्तु देख सारी। देह परसते होय अपावन निशदिन मलझारी। (मंगतरायकृत बारहभावना) केशर लगाओ, चाहे चन्दन छिड़को या सुगंधित फूलों की माला पहनाओ, यह सब करने के उपरान्त भी शरीर अपावन ही बना रहता है। ये सभी चीजें शरीर का सम्पर्क पाकर अपावन हो जाती है। ऐसा यह शरीर है। शरीर की अशुचिता के बारे में ऐसा विचार किया जाए तो शरीर को सजानेसँवारने के प्रति लोभ कम होगा और आत्म-तत्व की ओर रुचि जागृत होगी। शरीर की अशुचिता और आत्मा की पवित्रता का चिन्तन करना ही उपादेय है। आप शरीर की सुन्दरता और गठन देखकर मुग्ध हो जाते हैं और कह देते हैं कि क्या पर्सनालिटी है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो व्यक्तित्व, शरीर की सुन्दरता या सुडौलता से नहीं बनता, वह तो भीतरी आत्मा के संस्कारों की पवित्रता से बनता है। अशुचिता हमारे भावों में हो रही है, उसे तो हम नहीं देख रहे हैं और शरीर की शुचिता में लगे हैं। हमें भावों में शुचिता लानी चाहिए। भावों में निर्मलता लानी चाहिए। भावों में मलिनता का कारण शरीर के प्रति बहुत आसक्त होना ही है। इसी की सोहबत में पड़कर आत्मा निरन्तर मलिन होती जा रही है। आत्मा की सुगन्धि खोती जा रही है और आत्मा निरन्तर वैभाविक परिणमन का ही अनुभव कर रही है। सम्यकद्रष्टि शरीर को गौण करके आत्मा के रत्नत्रय रूप गुणों को मुख्य बनाता है। वह जानता है कि जब तक शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहेगी, आत्मा का दर्शन उपलब्ध नहीं होगा। इसलिए शरीर के संबंधों को, शरीर के रूप लावण्य को, शरीर के आश्रित होने वाले जाति और कुल के अभिमान को, लोभ को गौण करके एक बार आत्मा के निर्मल दर्पण में झाँकने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है। सिद्ध परमेष्ठी तो पारदर्शी काँच के समान हैं और अहन्त भगवान काँच के पीछे चाँदी का Polish (लेप) लगे हुए दर्पण के समान हैं। लेकिन यह संसारी प्राणी तो दर्प का पुतला बना हुआ है। लोभ का पुतला बना हुआ है। शरीर के प्रति जो दर्प (अभिमान) है उसे छोड़ने के उपरान्त ही दर्पण के समान निर्मल अहन्त पद की प्राप्ति सम्भव दर्पण स्वयं कह रहा है कि मुझमें दर्प न अर्थात् अहंकार नहीं रहा। सब उज्ज्वल हो गया। जैसा है वैसा दिखायी पड़ने लगा। बन्धुओ! शरीरवान होना तो संसारी होना है। शरीर से रहित अवस्था ही मुक्ति की अवस्था है। शरीर से रहित अवस्था ही वास्तव में पवित्र अवस्था है। अशरीरी सिद्ध परमात्मा ही वास्तव में परम पवित्रात्मा है। छहढाला की तीसरी ढाल में कहा है ज्ञानशरीरी त्रिविधकर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता | ते हैं निकल अमल परमातम भोगें शर्म अनन्ता || ज्ञान ही जिनका शरीर है, जो तीनों प्रकार के कर्ममल-द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म अर्थात् शरीर रूपी मल से रहित हैं ऐसे सिद्ध परमात्मा ही अत्यन्त निर्मल हैं और अनंत सुख का उपभोग करते हैं। हमें भी आगे आकर अपने सिद्धस्वरूप को, आत्मा की निर्मलता को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
  23. लक्ष्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार वे व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पा सकते हैं जो अपने लक्ष्य प्राप्ति के साधनों के अलावा अन्य किन्हीं पदार्थों से न चिपके हों। निर्वाण का लक्ष्य रखकर ही हमारी दृष्टि प्रत्येक कार्य को करने में हो ताकि हमें एक दिन लक्ष्य प्राप्त हो। मंजिल पर पहुँचने के लिए उपयुक्त स्थान का टिकट लेना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उपयुक्त गाड़ी में बैठना भी आवश्यक है। जो क्रियाएँ मंजिल की तरफ नहीं ले जाती वह भटकन की कारक है। जब तक रोग का निदान नहीं होगा, तब तक रोगी का रोग दूर नहीं होगा। उसी प्रकार हमें भी लक्ष्य को पहले देखना होगा। रोग का निदान न होने पर जीरा की जगह हीरा भी खिला दे तो भी उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। हमें लक्ष्य कमल के फूल के समान कीचड़ से अलग होने का बनाना है। लक्ष्य अर्थ संग्रह का नहीं पर गुणों के संग्रह का हो। सच्चा साधक वह है जो प्रत्येक श्वांस में लक्ष्य को सामने रखता है और लक्ष्य के विपरीत बाधक कारणों से अपने को बचाकर गंतव्य की ओर निरंतर गतिशील रहता है। यदि हम अपने लक्ष्य को याद रखें तो हमको समय की ओर देखने की आवश्यकता नहीं पड़ सकती, क्योंकि लक्ष्य स्वयं एक समय है। लक्ष्य को देखो समय को नहीं। हमारा जीवन लक्ष्य को निर्धारित करने पर पवित्र बन सकता है समय को नहीं। जो किसी कार्य में अत्यधिक डूबा हो उसे लोग पागल कहते हैं। यहाँ पागल का मतलब है मुक्ति। इसलिए दुनिया में जब तक अपने लक्ष्य के लिए पागल नहीं बनोगे उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता।
  24. मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो | अज्जवधम्मं तड़यो, तस्स दु संभवदि णियमेण || जो मनस्वी पुरुष कुटिल भाव वा मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव नाम का धर्म होता है। 'योगस्यावक्रता आर्जवम्' योगों की वक्रता न होना ही आर्जव धर्म है ऐसा श्री पूज्यपाद स्वामी ने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में कहा है। मन, वचन और काय इन तीनों की क्रियाओं में वक्रता नहीं होने का नाम 'आर्जव' है। ऋजोर्भावो ऋजुता का भाव ही आर्जव है। ऋजुता का अर्थ है सीधापन। ध्यान करते समय ध्यान के काल में आनन्द कब आता है? कौन सी वह घड़ी है जो आनन्द लाती है? तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि घड़ी देखते हुए ध्यान करने वालों के जीवन में ऐसी घड़ी नहीं आयेगी क्योंकि आपका मन अपने में लीन नहीं है। अपनी सीमा का उल्लंघन कर रहा है। अपनी सीमा से वहाँ तात्पर्य है मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को सीमित करना और उसमें वक्रता नहीं आने देना। सीधे होने के उपरान्त ही एकाग्रता सम्भव होती है और एकाग्रता आये तो आनन्द की प्राप्ति स्वत: होने लगती है। ध्यान में एकाग्रता लाने के लिए ध्यान में बैठने से पहले समझाया जाता है कि रीढ़ की हड्डी सीधी करके बैठना। जिस व्यक्ति के अभी रीढ़ में सीधापन नहीं आया, शरीर में सीधापन नहीं आया, वह ध्यान में एकाग्रता कैसे ला पायेगा? जीवन की रीढ़ सीधी होनी चाहिए, क्योंकि चारित्र ही जीवन की रीढ़ है। यदि वह न हो अथवा हो पर वक्र हो, तब आर्जव धर्म नहीं आ पायेगा। विषय-कषाय में उलझे हुए उपयोग को वहाँ से हटाकर योग की ओर ले आना और फिर योगों की व्यर्थ प्रवृत्ति को रोककर दृष्टि को अपने में स्थिर करना, सीधे अपने से सम्पर्क करना, एक पर टिक जाना, प्रकंपित नहीं होना, चंचल नहीं होना ही ऋजुता है। यही आर्जव-धर्म है। जैसे जल के पास शीतलता है, तरलता भी है, अग्नि बुझाने की क्षमता भी है और बहने का स्वभाव भी है। इसके अलावा कोई आकर उसमें अपना मुख देखना चाहे तो झाँकने पर मुख भी दिख जाता है। यह जल की विशेषता है। लेकिन यदि जल स्पन्दित हो, तरंगायित हो, हवा के झोंकों से उसमें लहरें उठ रही हों, तब आप उस जल के सामने जाकर भी अपना मुख नहीं देख पायेंगे। जल में क्षमता होते हुए भी उस समय वह प्रकट नहीं है क्योंकि जल तरंगित हो गया है। इस प्रकार भोगों के माध्यम से आत्मा में होने वाले परिस्पन्दन के समय आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप में अनुभव नहीं किया जा सकता। एक बात और है कि यदि जल शान्त भी हो और हमारी दृष्टि चलायमान हो, तो भी जल के तल में पड़ी वस्तु देखने में नहीं आयेगी। लेकिन जो व्यक्ति जल की वक्रता होते हुए भी अपनी दृष्टि को निस्पंद कर लेता है तो वह लहरों को भेदकर भीतर की वस्तु को देखने में भी समर्थ हो जाता है। जिसकी दृष्टि में एकाग्रता रहती है, उसको नियम से उन लहरों में भी रास्ता मिल जाता है। इसी प्रकार साधक को अपने मन-वचन और काय की चञ्चलता के बीच एकाग्र होकर अपने आत्मस्वरूप का दर्शन करने का प्रयास करना चाहिए। अपने यहाँ भेदविज्ञान की बड़ी विशेषता बतायी गयी है। भेदविज्ञान का अर्थ इतना ही नहीं है कि जो बहुत मिले-जुले पदार्थ हैं, उन्हें अलग-अलग करना, किन्तु भेदविज्ञान का अर्थ यह भी है कि भेद करके भीतर पहुँच जाना। लहरों के कारण वस्तु हमें ऊपर देखने में नहीं आती, लेकिन यदि हम भीतर डूब जायें तो ऊपर उठने वाली लहरों के कारण भीतर किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पहुँच सकती। जो व्यक्ति एक बार वस्तु के स्वरूप में डूब जाता है तो फिर बाह्य में पर्याय की चंचलता उसे बाधक नहीं बनती। अभी जिसकी दृष्टि में भेदने की क्षमता नहीं आयी तो वह ऊपर उठने वाली लहरों के समान पर्यायों को ही देखेगा और उन्हीं में उलझता रहेगा। उन्हीं को लेकर रागद्वेष करता रहेगा। वह जितना-जितना रागद्वेष के माध्यम से उलझेगा, उतना-उतना स्वयं को देख नहीं पायेगा। वह कहेगा अवश्य कि देख रहा हूँ, लेकिन मात्र सतह को ही देख पायेगा। किसी को बुखार आ जाता है तो कोई हकीम-वैद्य की तरह हाथ की नब्ड्रा देखने लगे, तो क्या देखेगा? केवल नाड़ी की फड़कन को ही देख पायेगा। फड़कन देखना तो आसान है, उसे सभी देख लेते हैं लेकिन भीतर कहाँ क्या रोग हुआ है, इसका ज्ञान तो नाड़ी के विशेषज्ञ को ही हो सकता है, क्योंकि नाड़ी का स्पन्दन भीतर की व्याधि की सूचना देता है। अकेले नाड़ी की फड़कन को देखना जैसे पर्याप्त नहीं है इसके माध्यम से भीतर की व्याधि को जानना भी आवश्यक है, इसी प्रकार 'भेदं कृत्वा यद् विज्ञानं तद्भेदविज्ञानम्' या कहो कि 'भेदस्य यद्वज्ञानं तद्भेदविज्ञानम्' भेद करके जो जानता है वह भेदविज्ञानी है अथवा भेद को अर्थात् भीतरी रहस्य को जो जानता है वह भेदविज्ञानी है। जिन परमपैनी सुबुधि छैनी, डारि अंतर भेदिया । वर्णादी अरु रागादि तैं निज-भाव को न्यारा किया। छहढाला भेदविज्ञानरूपी अत्यन्त पैनी छेनी के द्वारा, जो एक जैसा दिखाई पड़ रहा है, वह पृथक्पृथक् हो जाये। उसका भेद समझ में आ जाये, तो अपने निज-स्वभाव को उससे पृथक् किया जा सकता है। एक हंस होता है तथा एक बगुला होता है। दोनों सफेद होते हैं और दोनों की चोंच होती है लेकिन हंस की चोंच के भीतर ऐसी विशेषता है कि वह दूध और जल को पृथक् -पृथक् बना देता है और दूध का आसानी से सेवन करता रहता है और जल को छोड़ता जाता है? तात्पर्य यह हुआ कि जिसके पास भेद-विज्ञान आ जाता है वह सीधे अपनी निजी वस्तु तक पहुँच जाता है और व्यर्थ के रागद्वेष में नहीं उलझता। जब तक हम इस रागद्वेष में उलझते रहेंगे तब तक हम अपने भीतर वहाँ नहीं पहुँच पायेंगे जहाँ ऋजुता का पारावार है। वास्तव में देखा जाये तो दूसरे की ओर जाना ही टेढ़ापन है। रागद्वेष करना ही उलझना है। अपनी ओर आना हो तो सीधेपन से ही आना सम्भव है। रागद्वेष के अभाव में ही सुलझा जा सकता है। जैसे सीधी तलवार हो तो ही म्यान में जायेगी किन्तु यदि टेढ़ी हो तो नहीं जायेगी। ऐसे ही यदि ज्ञान का विषय सीधा ज्ञान ही बन जाये तो नियम से समझना काम हो जायेगा। किन्तु यदि ज्ञान का विषय हम अन्य किसी को बनाते हैं और बाह्य पदार्थों के साथ अपने ज्ञान को जोड़ते हैं तो वक्रता नियम से आयेगी, रागद्वेष रूपी उलझन खडी हो जायेगी। जैसे सीधे देखते हैं तो कोई Angle (कोण) नहीं बनता, टेढ़ापन नहीं आता। यदि थोड़ा भी अपने सिवाय कोई आजू-बाजू की वस्तुओं पर दृष्टिपात करता है तो आँख को मोड़ना पड़ेगा और कोण बन जायेगा अर्थात् दृष्टि में वक्रता आ जायेगी। इसी प्रकार मोह-माया के वशीभूत होकर यह जीव अपने-आत्म स्वभाव की ओर जब तक दृष्टिपात नहीं करता जो कि बिल्कुल सीधा है, तो नियम से वक्रता आती है। अपने स्वभाव से स्खलित होना पड़ता है। आर्जव धर्म अपने स्वभाव की ओर सीधे गमन करने पर ही सम्भव है। बच्चों को आनन्द तभी आता है जब वे सीधे-साधे न भागकर टेढ़े-मेढ़े भागते हैं। यही दशा वैभाविक दशा में संसारी प्राणी की है। उसे टेढ़ेपन में ही आनन्द आता है जबकि वह आनन्द नहीं है। वह तो मात्र सुखाभास है, जो दुख रूप ही है। विभाव रूप परिणति का नाम ही एक प्रकार से वक्रता है। जल में कोई चीज डालो तो सीधी नहीं जाती, यहाँ-वहाँ होकर नीचे जाती है। वैसे ही संसार में जब तक जीव रागद्वेष-मोह के साथ है तब तक वह चलेगा भी, तो जल में डाली गयी वस्तु के समान ही टेढ़ा चलेगा, सीधा नहीं चलेगा। उसका कोई भी कार्य सीधा नहीं होता। आप देख लीजिये आपके देखने में टेढ़ापन, आपके चलने में टेढ़ापन, आपके खाने-पीने, उठने-बैठने में टेढ़ापन, बोलने और यहाँ तक कि सोचने में भी टेढ़ापन है। सोचना स्वयं ही स्पन्दन रूप है अर्थात् विभाव है और विभाव ही टेढ़ापन है। वास्तव में परमार्थ से देखा जाये तो ऋजुता के स्वभाव में किसी भी प्रकार की विक्रिया सम्भव नहीं होती और विभाव के स्वभाव में किसी भी प्रकार की प्रक्रिया बिना विक्रिया के संभव नहीं होती। आपने युद्ध का वर्णन पुराणों में पढ़ा होगा। देखा-सुना भी होगा। दो तरह के आयुध होते हैं। कुछ जो फेंककर युद्ध में प्रयुक्त करते हैं वे 'अस्त्र' कहलाते हैं और कुछ हाथ में लेकर ही लड़ायी की जाती है वे 'शस्त्र' कहलाते हैं। धनुष बाण अस्त्र हैं। बाण से निशाना साधने वाला कितना ही दक्ष क्यों न हो यदि वह बाण टेढ़ा है तो लक्ष्य तक/मंजिल तक नहीं पहुँच पायेगा। पहले बाण का सीधा होना आवश्यक है फिर सीधा बाण लेकर जब निशाना साधते हैं तो दृष्टि में निस्पंदता होनी चाहिए और हाथ भी निष्कम्प होना चाहिए। हृदय में धैर्य होना चाहिए। अब तो समय के साथ सब कुछ बदल गया। धनुष के स्थान पर बंदूकें आ गयीं क्योंकि हृदय में, हाथ में और दृष्टि में सभी में चंचलता आती जा रही है। भय आता जा रहा है। आज तो छुप-छुप कर लड़ाई होती है। यह क्षत्रियता नहीं है, यह वीरता नहीं है बल्कि यह तो कायरता है। यह ऋजुता नहीं बल्कि वक्रता का परिणाम है। आज का जीवन भय से इतना त्रस्त हो गया है कि किसी के प्रति मन में सरलता नहीं रही। आज आणविक-शक्ति का विकास हो रहा है। दूसरे पर निगाह रखने के लिए Radar का उपयोग किया जा रहा है लेकिन यह सब चंचलता का सूचक है। जिस दिन यह चंचलता अधिक बढ़ जायेगी उसी दिन विस्फोट हो जायेगा और विनाश होने में देर नहीं लगेगी। बंधुओ! सुरक्षा तो सरलता में है। एकाग्रता में है। वक्रता या चंचलता में सुरक्षा कभी सम्भव नहीं है। आपने दीपक की लौ देखी होगी उससे प्रकाश होता रहता है और ऊष्मा भी निकलती रहती है। लेकिन यदि दीपक को लौ स्पन्दित हो तो प्रकाश में तेजी नहीं रहती। आप इस प्रकाश में पढ़ना चाहें तो आसानी से पढ़ नहीं सकते और दूसरी बात यह है कि उस समय ऊष्मा भी कम हो जाती है। सीधी निस्पंद जलती हुई लौ पर हाथ रखो तो फौरन जलन होने लगेगी। लेकिन यदि लौ हिल रही हो, प्रकम्पित हो तो हाथ रखने पर एकदम नहीं जलता। कुछ गर्माहट तो होती है लेकिन तीव्र जलन नहीं होती। कारण यही है कि लौ में एकाग्रता होने पर उसमें प्रकाश और ऊष्मा की सामथ्र्य अधिक बढ़ जाती है। लेकिन हवाओं के माध्यम से जब वही लौ चंचल हो जाती है, स्पन्दित होने लगती है, उसमें टेढ़ापन आ जाता है, वक्रता आ जाती है तो उसकी सामथ्र्य कमजोर पड़ जाती है। इसी प्रकार जब तक हमारा ज्ञान, माया रूपी हवाओं से स्पन्दित होता रहता है तब तक उसमें एकाग्र होने और जलाने की क्षमता अर्थात् कर्मों को जलाने या कर्मों की निर्जरा करने की क्षमता नहीं आ पाती। इसलिए हमें अपने ज्ञान को एकाग्र अर्थात् सीधा बनाना चाहिए। ज्ञान की वक्रता यही है कि वह पर पदार्थों को अपना मानकर उनकी ओर मुड़ने लग जाता है। उनमें उलझने लग जाता है और यदि वह पर पदार्थों को पकड़ने की जगह अपने में स्तब्ध, स्थिर एवं एकाग्र हो जाये तो वही ज्ञान कमों की निर्जरा में सहायक हो जाता है। ज्ञान का दूसरे की ओर दुलक जाना ही दीनता है. और ज्ञान का ज्ञान की ओर वापिस आना ही स्वाधीनता है। धन्य है वह ज्ञान जो पर पदार्थों की आधीनता स्वीकार नहीं करता, धन्य है वह ज्ञान जो बिल्कुल टंकोत्कीर्ण एक मात्र ज्ञायक पिण्ड की तरह रहा आता है। धन्य है वह ज्ञान जिस ज्ञान में तीन लोक पूरे के पूरे झलकते हैं, लेकिन फिर भी जो अपने आत्म आनन्द में लीन हैं। सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज-रहस-विहीन ॥ संसारी प्राणी ज्ञान की चंचलता के कारण या कहें संसार में भटकने और उलझने की इच्छा के कारण त्रस्त हो रहा है और दीन-हीन हो रहा है। अपने स्वभाव की ओर देखने का पुरुषार्थ करें तो सुलझने में देर नहीं लगेगी। जिस प्रकार खाया हुआ अन्न देह में, रग-रग में मिलकर रुधिर बन जाता है, उसी प्रकार हमारे जीवन में सरलता या सुलझापन हमारा अभिन्न अंग बन जाये तो जीवन धन्य एवं सार्थक हो जायेगा। अपव्यय के रूप में उस कार में से एक बूंद भी पेट्रोल नीचे नहीं गिरा। मशीन भी ठीक काम कर रही थी पर देखा गया कि कार रूक गयी। उसमें एक बूंद पेट्रोल भी नहीं बचा। अपने गन्तव्य तक पहुँचने के लिए जितना पेट्रोल आवश्यक था उतना उसमें डाला गया था, लेकिन वह पहले ही कैसे समाप्त हो गया? तब उसे चलाने वाले ने कहा कि कार तो और अधिक भी चल सकती थी, लेकिन रुकने का कारण यही है कि रास्ते की वक्रता के कारण पेट्रोल अधिक खर्च हुआ और दूरी कम तय की गयी। अगर रास्ता सीधा हो तो इतने ही पेट्रोल से अधिक दूरी तक कार को ले जाया जा सकता था। यदि सरल-पथ हो तो वह लाभ मिल सकता है। बंधुओ! आज आर्जव-धर्म की बात है। ऋजुता के अभाव में जब जड़ पदार्थ भी ठीक काम नहीं कर सकता, तो फिर चेतन को तनाव तो होता ही है। वक्रता तनाव उत्पन्न करती है। हमारे उपयोग में वक्रता होने के कारण मन में वक्रता, वचन में वक्रता और काय-चेष्टाओं में भी वक्रता आ जाती है। जैसा हम चाहते हैं, जैसा मन में विचार आता है, वैसा ही हम उपयोग को बदलना प्रारम्भ कर देते हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। यही तनाव का कारण बनता है। वास्तव में जैसा हम चाहते हैं उसके अनुसार नहीं, बल्कि जैसी वस्तु है उसके अनुसार हम अपने उपयोग को बनाने की चेष्टा करें तो ऋजुता आयेगी। हमें जानना चाहिए कि उपयोग के अनुरूप वस्तु का परिणमन नहीं होता। किन्तु ज्ञेयभूत वस्तु के अनुरूप ज्ञान जानता है, अन्यथा वह ज्ञान अप्रमाणता की कोटि में आ जाता है। विचार करें वक्रता कैसे आती है और क्यों आती है? तो बात ऐसी है कि जिस प्रकार के जीवन को हम जीना चाहते हैं या जिस जीवन के आदी बन चुके हैं उसी के अनुसार ही सब कुछ होता चला जाता है। जैसे किसी पौधे को कोई कुछ प्रबन्ध करके सीधा ऊपर ले जाने की चेष्टा करें तो वह पौधा सीधा ऊपर बढ़ने लगता है। यदि कोई प्रबन्ध नहीं किया जाए तो नियम से पौधा विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं में बँटकर यहाँ-वहाँ फैलने लग जाता है और उसकी ऊध्वगति रुक जाती है। इसी प्रकार यदि हम अपनी शक्ति को इधर-उधर नहीं दौड़ाते तो हमारी यह शक्ति एक ही दिशा में लगकर अधिक काम कर सकती है। लेकिन आज टेढ़ा-मेढ़ा चलना ही संसारी प्राणी का स्वभाव जैसा हो गया है और निरन्तर इसी में शक्ति का अपव्यय हो रहा है। वक्रता बढ़ती जा रही है। वक्रता का संसार दिनोंदिन और मजबूत होता जा रहा है। सरलता की शक्ति को पहचानना होगा। सरलता की शक्ति अद्भुत है। आज जो कार्य यन्त्र नहीं कर सकता, पहले वही कार्य मनुष्य मन्त्र के माध्यम से अपनी शक्ति को एक दिशा में लगाकर कर लेता था। बात ऐसी है कि धारणा के बल पर जिस क्षेत्र में हम बढ़ने लग जाते हैं वहाँ पर बहुत कुछ साधना अपने आप होती चली जाती है। वस्तुत: यह एक दृष्टिकोण का कार्य है। एक आपने विचार बना लिया, या जिस रूप में धारणा बना ली, उसी रूप में वह वस्तु देखने में आने लगती है। जिस दिशा में हमारी दृष्टि सीधी-साफ होती है उसी दिशा में सफलता मिलना प्रारम्भ हो जाती है। वक्रता का अभाव और ऋजुता का सद्भाव होना चाहिए। जैसे आपकी दृष्टि किसी वस्तु को या मान लीजिये पाषाण को देखने में लगी है। और उसे साधना के बल से अनिमेष देखने लगे, तो सम्भव है कि उस दृष्टि के द्वारा पाषाण भी टूट सकता है और लोहा भी पिघल सकता है। इतनी शक्ति आ सकती है। किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि दृष्टि को सीधा रखा जाए और प्राणप्रण से उसी में लगाया जाए। ། मान लीजिये, आप बैठे हैं और जगह ऐसी है कि इधर-उधर जाने की कोई गुञ्जाइश नहीं है। अचानक एक बड़ा सा काला बिच्छू पास बैठा हुआ दिख जाए तो मैं पूछना चाहता हूँ कि आप अपने शरीर के किसी भी अंग-उपांग को हिलायेंगे-डुलायेंगे क्या? नहीं हिलायेंगे, बल्कि एकदम स्तब्ध से होकर बैठे रह जायेंगे, जैसे कि कोई योगी ध्यान में बैठा हो। सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम ध्यावतें। तिन सुथिर मुद्रा देखि मृग गण उपल खाज खुजावते॥ छहढाला (छठवीं ढाल) मन-वचन-काय की क्रियाओं का भली प्रकार निरोध करके जैसे कोई योगी अपनी आत्मा के ध्यान में लीन हो जाता है। उसकी स्थिर-मुद्रा को देखकर वन में विचरण करने वाले हिरण लोग उसे चट्टान समझकर अपने शरीर को रगड़ने लग जाते हैं। ऐसी ही दशा उस समय आपकी हो जायेगी। आपके पास यह शक्ति इस समय कहाँ से आ गयी? वह कहीं अन्यत्र से नहीं आती, अपितु यह शक्ति तो पहले से ही विद्यमान थी। पर आप उस समय हिल जाते तो बिच्छू ही आपको हिला देता। इसलिए प्राणों की रक्षा की बात आते ही आपने अपनी ऋजुता की शक्ति का पूर्ण निर्वाह किया। अपनी शक्ति का सही उपयोग किया। प्रत्येक क्षेत्र में यही बात है। आप चाहें तो धर्म के क्षेत्र में भी यही बात अपना सकते हैं। शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और शैक्षणिक आदि सभी विधाओं के लिए एकमात्र दृष्टि की ऋजुता ही उपयोगी है। यदि एक ही वस्तु पर ध्यान केन्द्रित हो जाए तो नियम से क्रांति घटित हो जायेगी। एक व्यक्ति बहुत ही प्रेम-भाव के साथ देखता है। उसकी दृष्टि में सरलता होती है तो सामने वाला व्यक्ति भी उसकी और सहज ही आकृष्ट हो जाता है। कोई व्यक्ति जिसकी दृष्टि में वक्रता है, जिसके भावों में कुटिलता है तो उसे देखकर हर कोई उससे बचना प्रारम्भ कर देता है। जैसे मुस्कराती हुई माँ की दृष्टि ज्यों ही सीधी बच्चे के ऊपर पड़ती है तो वह बच्चा रोना भूल जाता है और देखने लगता है। इतना सरल हो जाता है कि सब कुछ भूलकर उसी सुख में लीन हो जाता है। यही सरलता की बात है। जब हम Geometry (ज्यामिति) पढ़ते थे, उस समय की बात है। उसमें कई प्रकार के कोण बनाये जाते थे। एक सरल-कोण होता था। एक सौ अस्सी अंश के कोण को सरल-कोण बोलते हैं। सरल कोण क्या है? वह तो एक सीधी रेखा ही है। हमारी दृष्टि में आज भी इतनी सरलता आ सकती है कि उसमें सरल-कोण बन जाये। हम सरलता के धनी बन सकते हैं। जिसकी दृष्टि में ऐसा सरल कोण बन जाता है तो वह श्रमण बन जाता है। वह तीन-लोक में पूज्य हो जाता है। लेकिन हमारे जीवन में ऐसे बहुत कम समय आ पाते हैं, जबकि दृष्टि में सरल कोण बने और दृष्टि में सरलता आये। ऑख के उदाहरण के माध्यम से हम और समझें कि हमारी दोनों ऑखों को दोनों ओर दायेंबायें अपनी विपरीत दिशा की ओर भेज करके सरल कोण बनाना चाहें तो यह संभव नहीं है। दो आँखों से हम दो काम नहीं कर सकते। जब वस्तु के ऊपर दोनों आँखों की दृष्टि पड़ती है और दृष्टि चंचल नहीं हो तो ही वस्तु सही ढंग से दिखायी पड़ सकती है, अन्यथा नहीं। बहुत कम व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपनी दृष्टि को स्थिर रख पाते हैं और सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। नासाग्र दृष्टि ही ऐसी सरल दृष्टि है जहाँ विपरीतता समाप्त हो जाती है और समता आ जाती है। दृष्टि वहाँ दृष्टि में ही रह जाती है। दृष्टि का एक अर्थ यहाँ प्रमाण-ज्ञान से भी है और दृष्टि कोण का अर्थ नय ज्ञान से है। ‘नयन' शब्द में देखा जाए तो नय+न अर्थात् नयों के पार जो दृष्टि है वही वास्तव में शांत निर्विकल्प और सरल दृष्टि है। नयनों को विश्राम देना हो, आराम देना हो, उनकी पीड़ा दूर करना हो तो एक ही उपाय है कि दृष्टि को नासाग्र रखो। भगवान् कैसे बैठे हैं?'छवि वीतरागी नग्न मुद्रा दृष्टि नासा पे धरें।' हमारी यानि छद्मस्थों की दृष्टि वह मानी जाती है जो पदार्थ की ओर जाने का प्रयास करती है। और सर्वज्ञ की दृष्टि वह है जिसमें पूरे के पूरे लोक के जितने पदार्थ हैं-भूत, अनागत और वर्तमान वे सब युगपत् दर्पण के समान झलक जाते हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपाय का मंगलाचरण देखिए तज्जयति परं ज्योतिः, समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणातल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ उमास्वामी महाराज ने अपने तत्वार्थसूत्र में कहा है कि 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' और एकाग्रता का अर्थ बताते हुए अकलंक स्वामी अपने तत्वार्थवार्तिक में लिखते हैं कि 'व्यग्रतानिवृत्यर्थम्। एकाग्रताशब्दस्य प्रयोग:' एकाग्रता शब्द का प्रयोग व्यग्रता के निरोध के लिए आया है। जहाँ पदार्थ को देखने की व्यग्रता नहीं है, वहीं दृष्टि सरल है। केवलज्ञान के लिए ऐसे ही ध्यान की आवश्यकता है। ऐसी ही एकाग्र अर्थात् सरल दृष्टि की आवश्यकता है वस्तु को जानने के लिए। व्यग्र हुए ज्ञान के द्वारा केवलज्ञान नहीं होगा। जब ज्ञान स्थिर हो जायेगा उसमें व्यग्रता रूप वक्रता का अभाव हो जाएगा, वह ध्यान में ढल जायेगा तभी केवलज्ञान की उत्पत्ति में सहायक होगा। पूरे आगम ज्ञान का अध्येता भी क्यों न हो वह भी, तब तक मुक्ति का अधिकारी नहीं बन सकता, अपनी आत्मा की अनुभूति में लीन नहीं हो सकता जब तक कि उसकी व्यग्रता नहीं मिटती। जब तक कि दृष्टि रागद्वेष से मुक्त होकर सरल नहीं होती। व्यग्रता दूर करने के लिए ध्यान की एकाग्रता उपाय है। ध्यान के माध्यम से हम मन-वचन-काय की चेष्टाओं में ऋजुता ला सकते हैं और इन योगों में जितनी-जितनी ऋजुता/सरलता आती जायेगी, उपयोग में भी उतनी-उतनी व्यग्रता/वक्रता धीरे-धीरे मिटती जायेगी। आचार्यों ने वक्रता को माया-कषाय के साथ भी जोड़ा है और माया को तिर्यच आयु के लिए कारण बताया है। माया तैर्यग्योनस्य। तिर्यक्र शब्द का एक अर्थ तिरछा या वक्र भी है। इधर-उधर दृष्टि का जाना ही दृष्टि की वक्रता है। इधर-उधर कौन देखता है? वही देखता है जिसके भीतर कुछ डर रहता है। आपने कबूतर को देखा होगा। एक दाना चुगता है लेकिन इस बीच उसकी दृष्टि पता नहीं कितनी बार इधर-उधर चली जाती है। मायाचारी व्यक्ति को दिशा जल्दी नहीं मिलती। मायाचारी, तिर्यच्च गति का पात्र इसी से बनता है। माया अथार्त व्रक्र्ता भी कई प्रकार की है अनंतानुबंधी जन्य वक्रता अलग है अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यान कषायजन्य वक्रता अलग है और सज्ज्वलन की वक्रता अलग है। आचार्यों ने अनन्तानुबन्धी जन्य वक्रता के लिए बाँस की जड़ का उदाहरण दिया है। गांठों में गाटें इस प्रकार उलझी रहती हैं कि उनको सीधा करना चाहो तो सीधी न हों। अप्रत्याख्यान जन्य वक्रता के लिए मेढ़े के सींगों का उदाहरण दिया है। मेढ़े के सींग घुमावदार होते हैं। प्रत्याख्यान जन्य वक्रता खुरपे के समान है। जरा से ताप के द्वारा उसे सीधा किया जा सकता है। अब हमें देख लेना चाहिए कि हमारी उपयोग की स्थिति कैसी है? उसमें वक्रता कितनी है और किस तरह की है, उसमें कितने घुमाव और कितने मोड़ हैं? इस वक्रता को निकालने के लिए पहले मृदुता की बड़ी आवश्यकता है। मृदुता के अभाव में ऋजुता नहीं आती। जैसे किसी लोहे की सलाई में वक्रता आ जाये तो उसको ताप देने के उपरान्त जब उसमें थोड़ी मृदुता आ जाती है तब एक दो बार घन उसके ऊपर पटक दिया जाए तो उसमें सीधापन आ जाता है। इसी प्रकार कषायों की वक्रता निकालने के पहले रत्नत्रय धर्म को अंगीकार करके तप करना होगा। तभी ऋजुता आयेगी और आर्जव धर्म फलित होगा। घर बैठे-बैठे उपयोग में ऋजुता लाना संभव नहीं है। सलाई को लुहार के पास ले जाना होगा अर्थात् घर छोड़ना होगा। ऐसे ही तीर्थक्षेत्र पर आकर अपने उपयोग को गुरुओं के चरणों में समर्पित करना होगा और वे जो तप इत्यादि बतायें उसे ग्रहण करके कषायों पर घन का प्रहार करना होगा, तभी उपयोग में सरलता आयेगी। आपने शुक्लपक्ष में धीरे-धीरे उगते चन्द्रमा को देखा होगा। शुक्लपक्ष में प्रतिपदा के दिन चन्द्रमा की एक कला खुलती है। लेकिन उसे देखना सम्भव नहीं है। दूज के दिन देखने मिले तो मिल सकता है। दूज के चन्द्रमा को कभी-कभी कवि लोग बंकिम-चन्द्रमा भी कहते हैं। अर्थात् अभी चन्द्रमा में वक्रता है, टेढ़ापन है और जैसे-जैसे चन्द्रमा अपने पक्ष को पूर्ण करता जाता है, वैसे-वैसे उसकी वक्रता कम होती जाती है, जब पक्ष पूर्ण हो जाता है तब वह बंकिम चन्द्रमा नहीं बल्कि पूर्ण चन्द्रमा कहलाने लगता है। इसी प्रकार हमारे भीतर जो ग्रन्थियाँ पड़ी हैं, उन ग्रंथियों का विमोचन करके हम पूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं। महावीर भगवान् का पक्ष अर्थात् उनका आधार लेकर जब हम धीरे-धीरे आगे बढ़ेंगे, तभी पूर्ण सरलता की प्राप्ति होगी। ग्रन्थियों का विमोचन करना अर्थात् निग्रन्थ होना, चारित्र को अंगीकार करना पहले अनिवार्य है। बारहभावना में पं. दौलतराम जी कहते हैं कि - जे भाव मोह तैं न्यारे, दूग-ज्ञान-व्रतादिक सारे | सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै || छहढाला (पाँचवी ढाल) सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी धर्म को धारण करके सभी प्रकार की अंतरंग और बहिरंग ग्रन्थियों का विमोचन करके ही अचल सुख को पाया जा सकता है। अकेले किताबी ज्ञान से कुछ नहीं होगा। जीवन की प्रत्येक क्रिया में धर्म का ध्यान रखना होगा। जिसके पास क्षमा धर्म है, वही क्रोध का वातावरण मिलने पर भी शान्त रहेगा। जिसके पास मान कषाय नहीं है वही लोगों के माध्यम से अपनी प्रशंसा सुनकर भी समता-भाव धारण कर सकेगा। यथाजात निग्रन्थ होकर ही कोई जीवन में वास्तविक ऋजुता का दर्शन कर सकता है। किताबों में, कोशों में या मात्र शब्दों के माध्यम से धर्म का दर्शन नहीं हो सकता। इतना अवश्य है कि कुछ संकेत मिल सकते हैं। धर्म का दर्शन तो जीवन में धर्म को अंगीकार करने पर ही होगा या जिन्होंने धर्म को धारण कर लिया है उनके समीप जाने पर ही होगा। बालक अपनी माँ के पास बैठकर अपने हृदय की हर बात बड़ी सरलता से कह देता है उसी प्रकार सरल हृदय वाला साधक जब यथाजात होकर सभी ग्रन्थियाँ खोल देता है और सीधा-सीधा अपने मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर देता है तो उसके जीवन में धर्म का दर्शन होने लगता है। वह स्वयं भी धर्म का दर्शन करने लग जाता है। माया जब तक रहेगी, ध्यान रखना इस जीवन में और अगले जीवन में भी वह शल्य के समान चुभती रहेगी। मायावी व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। जिस समय काँटा चुभ जाता है उस समय तत्काल भले ही दर्द अधिक न हो लेकिन बाद में जब तक वह भीतर चुभा रहता है तब तक वह आपको चैन नहीं लेने देता। स्थिति ऐसी हो जाती है कि न रोना आता है, न हँसा जाता है, न भागा जाता है और न ही सोया जाता है, कुछ भी वह करने नहीं देता। निरन्तर पीड़ा देता है। ऐसे ही माया कषाय मायावी व्यक्ति के भीतर-भीतर निरन्तर घुटन पैदा करती रहती है। बंधुओ! अपने उपयोग को साफ-सुथरा और सीधा बनाओ। जीवन में ऐसा अवसर बार-बार आने वाला नहीं है। जैसे नदी बह रही हो, समीप ही साफ-सुथरी शिला पड़ी हो और साफ करने के लिए साबुन इत्यादि भी साथ में हो, फिर भी कोई अपने वस्त्रों को साफ नहीं करना चाहे तो बात कुछ समझ में नहीं आती। कितनी पर्यायें एक-एक करके यूँ ही व्यतीत हो गयीं। अनन्तकाल से आज तक आत्मा कर्ममल से मलिन होती आ रही है। उसे साफ-सुथरा बनाने का अवसर मिलने पर हमें चूकना नहीं चाहिए। कषायों का विमोचन करना चाहिए। बच्चे के समान जैसा वह बाहर और भीतर से सरल है, उसी प्रकार अपने को बनाना चाहिए। यथाजात का यही अर्थ है कि जैसा उत्पन्न हुआ, वैसा ही भीतर और बाहर निर्विकार होना चाहिए। यही यथाजात रूप वास्तव में ऋजुता का प्रतीक है। यही एकमात्र व्यग्रता से एकाग्रता की ओर जाने का राजपथ है। इस पथ पर आरूढ़ होने वाले महान् भाग्यशाली हैं। उनके दर्शन प्राप्त करना दुर्लभ है। उनके अनुरूप चर्या करना और भी दुर्लभ है। रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे | उन ही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे || (मेरीभावना) ऐसी भावना तो हमेशा भाते रहना चाहिए। तिर्यञ्च भी सम्यकदर्शन को प्राप्त करके एक देश संयम को धारण करके अपनी-अपनी कषायों की वक्रता को कम कर लेते हैं तो हम मनुष्य होकर संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर यथाजात रूप को धारण क्यों नहीं कर सकते? कर सकते हैं। यथाजात रूप को धारण करने की भावना भी भा सकते हैं। जो उस यथाजात रूप का बार-बार चिन्तन करता रहता है, वह अपने उपयोग की सरलता के माध्यम से नियम से मुक्ति की मज्जिल की ओर बढ़ता जाता है और एक दिन नियम से मज्जिल को पा लेता है।
  25. राग-द्वेष विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार राग-द्वेष हमारे अंदर होते हैं पदार्थों में नहीं होते हैं इसलिए पदार्थों को देखकर राग-द्वेष नहीं करना बस यही जीता जागता समयसार है। समयसार और कोई वस्तु नहीं है। पदार्थों को देखते हैं तो उस समय हमारे अन्दर के समयसार का प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार करने से हम असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा कर जाते हैं। वैराग्य के बिना पंचेन्द्रिय के विषयों का निरोध नहीं हो सकता है। वैराग्य के साथ ही इन्द्रियों का निरोध होता है। राग-द्वेष नहीं करना ही सबसे बड़ी साधना है। यह साधना का मुख्य बिन्दु है। जितना आप द्वेष करते जायेंगे उतने आपके शत्रु बढ़ते चले जायेंगे और जितने आप हाथ मिलाते चले जायेंगे, वैसे आपके हाथ बढ़ते चले जायेंगे। जमकर दुश्मनी करो किन्तु इतना तो ख्याल रखो कि वक्त आने पर दुश्मन दोस्त बन जाये। जैसे लाइट का मीटर लगाते हैं तो लाइट जलाये या न जलाये मीटर चार्ज तो देना ही पड़ता है इसी प्रकार राग-द्वेष करो या न करो बंध तो होता ही रहेगा जब तक कषायरूपी मीटर से आपका सम्बन्ध होता है। जिसके पास राग-द्वेष है उसे हमेशा कर्म बंध होता रहता है। जैसे-बैंक में पैसे जमा कर दो फिर उसका ब्याज बढ़ता ही रहता है।
×
×
  • Create New...