Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पर्व 9 - उत्तम त्याग

       (1 review)

    णिव्वेगतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु ।

    जो तस्स हवेच्चागो, इदि भणिदं जिणवरदेह॥

    जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह को छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। उत्तम त्याग की बात है। दान और त्याग-ये दो शब्द आते हैं। दोनों में थोड़ा सा अन्तर है। रागद्वेष से अपने को छुड़ाने का नाम 'त्याग" है। वस्तुओं के प्रति रागद्वेष के अभाव को ‘त्याग' कहा गया है। दान में भी रागभाव हटाया जाता है किन्तु जिस वस्तु का दान किया जाता है, उसके साथ किसी दूसरे के लिए देने का भाव भी रहता है। दान पर के निमित्त को लेकर किया जाता है किन्तु त्याग में पर की कोई अपेक्षा नहीं रहती। किसी को देना नहीं है, मात्र छोड़ देना है। त्याग ‘स्व” को निमित्त बनाकर किया जाता है।


    दान-रूप त्याग के द्वारा जो सुख प्राप्त होता है वह अकेले 'स्व' का नहीं, 'पर' का भी होता है। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ में आया है कि 'स्वपरानुग्रहहेतोः' 'स्व' के ऊपर अनुग्रह और 'पर' के ऊपर भी अनुग्रह जिससे हो वही दान रूप त्याग धर्म है। जो धर्म में स्खलित हो गये हों, मोक्षमार्ग से च्युत होने को हों, संकट में फंसे हुए हों, उनको सही मार्ग पर लगाना यह तो हुआ 'पर' के ऊपर अनुग्रह और 'स्व" के ऊपर अनुग्रह। इस माध्यम से होने वाला पुण्य का संचय है। पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि 'परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः स्वोपरोकारः पुण्यसञ्चय:' जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यकदर्शन, ज्ञानादि की वृद्धि होती है, यही 'पर' का उपकार है और दान देने से जो पुण्य का सञ्चय होता है वह अपना उपकार है।


    आचार्यों ने दान, पूजा शील और उपवास को श्रावक के प्रमुख कर्तव्यों में गिना है। अतिथि सत्कार करना भी प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है। यह सभी शुभ क्रियाएँ लोभ को शिथिल करने के लिए हैं। जो लोभ कर्म हमारे आत्मप्रदेशों पर मजबूती से चिपक गया है, जिससे संसारी की नि:श्रेयस और अभ्युदय की गति रुक गयी है, उस लोभ-कर्म को तोड़ने का काम यही त्याग धर्म करता है।


    त्याग और दान का सही-सही प्रयोजन तो तभी सिद्ध होता है, जब हम जिस चीज का त्याग कर रहे हैं या दान कर रहे हैं, उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान-सम्मान पाने का लोभ न हो। क्योंकि जिस वस्तु के प्रति मोह के सद्भाव में कर्मों का बंध होता है, वही वस्तु मोह के अभाव में निर्जरा का कारण बन जाती है। बंधन से मुक्ति की ओर जाने की सरलतम उपाय यदि कोई है तो वह यही त्याग धर्म और दान है।

    'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय' (दौलतराम कृत-जिनेन्द्रस्तुति) सामान्य व्यक्ति भी अहितकारी वस्तुओं को सहज ही छोड़ देता है। विष को जिस प्रकार सभी प्राणी सहज ही छोड़ देते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि विषय-भोग की सामग्री को अहितकर जानकर छोड़ देते हैं। विषयों को छोड़ने से नियम से भीतर पड़ा हुआ कषाय का संस्कार शिथिल हो जाता है। 'पद्मनंदी-पञ्चविंशतिका' द्वितीय अध्याय में तो एक स्थान पर यह उल्लेख किया है कि अतिथि के दर्शन से जो अहोभाव होता है, उसके निमित्त से मोह का बंधन ढीला पड़ जाता है। सत्पात्र को दान देकर वह निरन्तर अपने मोह को कम करने में लगा रहता है।


    दान के माध्यम से ‘स्व' और ‘पर' के अनुग्रह में विशेषता यह है कि ‘पर' यानि दूसरा तो निमित है, उसका अनुग्रह हो भी और नहीं भी, लेकिन 'स्व” के ऊपर अर्थात् स्वयं के ऊपर अनुग्रह तो नियम से होता ही है। मान लीजिये, जैसे तालाब में बाँध बना दिया जाता है और पानी जब तेजी से उसमें भरने लगता है तो लोगों को चिंता होने लगती है कि कहीं पानी के वेग से बाँध टूट न जाये, क्योंकि संग्रहित हुए पानी की शक्ति अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। जो बाँध बनाते हैं वे लोगों को समझा देते हैं कि हमने पहले से ही व्यवस्था बना रखी है। घबराने की कोई बात नहीं है। हमारे पूर्वजों ने पहले ही हमें शिक्षा दे रखी है कि कहीं प्रवेश करो तो बाहर आने का रास्ता पहले ही देख लेना चाहिए, नहीं तो भीतर जाकर अभिमन्यु की तरह स्थिति हो सकती है।


    तालाब को बाँधते समय ही पानी के निकालने की व्यवस्था कर दी जाती है। मोरी (गेट) बना देते हैं, तब पानी अधिक होने पर उसमें से अपने आप बाहर निकलने लगता है। आपको ‘जयपुर' की घटना याद होगी। कैसी भयानक स्थिति बन गयी थी? राजस्थान में हमेशा पानी की कमी रहती है पर उस समय ऐसी वर्षा हुई कि लगातार दो दिन तक पानी ही पानी हो गया और भारी क्षति हुई। कारण यही था कि पानी तो आता गया, लेकिन निकलने का मार्ग नहीं था। आप समझ गये होंगे कि संग्रह ही संग्रह करते जायेंगे तो क्या स्थिति बनेगी? परिग्रह की सीमा होनी चाहिए। दान करने की आवश्यकता उसी परिग्रह को सीमित बनाये रखने के लिए है।


    आप यहाँ तीर्थ क्षेत्र पर बैठे हैं। सुबह से शाम तक धर्मध्यान चल रहा है। यहाँ पर किसी प्रकार की द्विविधा नहीं है। सभी रागद्वेष से बचकर वीतराग धर्म की उपासना में लगे हैं। यही यदि आप किसी बड़े शहर में करना चाहते तो दुनियाँ भर की परेशानियाँ आतीं। नगर-पालिका से या और लोगों से जगह के लिए स्वीकृति (परमीशन) की आवश्यकता पड़ती। वहाँ शोरगुल के बीच धर्मध्यान करना संभव नहीं हो पता। लेकिन यहाँ इस तरह की कोई परेशानी नहीं है। यहाँ बंध नहीं है। यहाँ तो धर्मध्यान के द्वारा असंख्यात गुणी निर्जरा ही हो रही है। तीर्थक्षेत्र का यही प्रभाव है, या कहिये श्रावक के चार धमों- 'दाणां-पूजा-सील मुववासो सावयाणां चउव्विही धममो' (कसायपाहुड) दान, पूजा, शील और उपवास में से विशिष्ट दान का सुफल है।


    महापुराण में आचार्य जिनसेन लिखते हैं कि भूदान, ग्रामदान, आवासदान, यह सभी दान अभयदान के अन्तर्गत आते हैं। ‘पाड़ाशाह' ने यहाँ मन्दिर का निर्माण कराया। शान्तिनाथ भगवान की मनोज्ञ विशाल प्रतिमा जी की स्थापना करायी, जिससे आज तक लाखों लोग यहाँ पर आकर दर्शन-वंदन का लाभ ले रहे हैं। अभिषेक और पूजन करके अपने पापों का विमोचन कर रहे हैं। वीतराग-छवि के माध्यम से वीतरागता का पाठ सीख रहे हैं। पूर्व में कैसे-कैसे उदार-दाता थे, यह बात इन तीर्थों को देखकर सहज ही समझ सकते हैं। त्याग हमारा परम धर्म है। कितनी अच्छी पंक्तियाँ कवि दौलतराम जी ने छहढाला में लिखी हैं


    यह राग आग दहे सदा तातें समामृत सेइये।

    चिर भजे विषयकषाय अब तो त्याग निजपद बेइये ॥

    संसारी प्राणी अपने जीवन के बारे में न जाने कितने तरह के कार्यक्रम बनाता है, पर अहित के कारणभूत रागद्वेष-भाव को त्याग करने का कोई कार्यक्रम नहीं बनाता। बन्धुओ! विषय-कषाय का त्याग ही इस संसार के भीषण दुखों से बचने का एकमात्र उपाय है।


    इमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरो।

    जबलों न रोग जरा गहै तबलों झटिति निज हित करो ॥

    कितनी भीतरी बात कही है तथा कितनी करुणा से भरकर कही गयी है कि संसार की वास्तविकता की जानकर अब आलस मत करो, साहस करके इस शिक्षा को ग्रहण करो कि जब तक शरीर नीरोग है, बुढ़ापा नहीं आया, तब तक जल्दी-जल्दी अपने हित की बात कर लो। भविष्य के भरोसे बैठना ठीक नहीं है। भविष्य का कोई भरोसा भी नहीं है। अगले क्षण क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। बाढ़ आती है और देखते-देखते लोग सँभल भी नहीं पाते और सब बाढ़ में बह जाते हैं। भूकम्प आते हैं और क्षण भर में हजारों की संख्या में जनता मारी जाती है। बन्धुओ! मृत्यु के आने पर कौन कहाँ चला जाता है, पता भी नहीं लगता। सारी की सारी सम्पदा यहीं की यहीं धरा पर धरी रह जाती है। नाम-पता सब यहीं पर पड़ा रह जाता है। इस बीच यदि कोई अपने मन में त्याग का संकल्प कर लेता है तो उसके आगामी जीवन में सुख-शान्ति की सम्भावना बढ़ जाती है।

     

    जीवंधरकुमार और उनके पिता राजा सत्यंधर की कथा बहुत रोचक है। प्रेरणास्पद भी है। जीवंधर के पिता जीवंधर के जन्म से पहले विलासिता में इतने डूबे रहते थे कि राज्य का कामकाज कैसा चल रहा है, ध्यान ही नहीं रख पाते थे। मन्त्री ने सोचा-अच्छी सन्धि (अवसर) है। उसने भीतर ही भीतर राज्य हड़पने की योजना बना ली और किसी को कुछ पता ही नहीं चला। जब मालूम पड़ा तो राजा सत्यंधर सोच में पड़ गये कि अब क्या किया जाए? जीवंधर की माँ गर्भवती थी और जीवंधर कुमार गर्भ में थे। वंश का संरक्षण करना आवश्यक है, इसलिए पहले जल्दीजल्दी उनको केकी (मयूर) यन्त्र चालित विमान में बिठाकर दूर भेज दिया और स्वयं युद्ध की तैयारी में लग गये। अपने ही मन्त्री काष्ठांगार से युद्ध करते-करते राजा सत्यंधर के जीवन का अन्त समय जब निकट आ गया तो वे विचार मग्न हो गये


    सर्वं निराकृत्य विकल्प – जालं, संसार-कान्तार-निपातहेतुम्।

    विवित्तमात्मान-मवेक्षमाणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे॥ २९॥

    (अमितगति आचार्य कृत भावना-द्वत्रिंशतिका)

    पहले राजा लोग बड़े सजग होते थे। पुत्र रत्न की प्राप्ति होते ही घर द्वार छोड़कर तपस्या के लिए वन में जाकर दीक्षा धारण कर लेते थे। यदि आकस्मिक मृत्यु का अवसर आ जाता तो तत्काल सब छोड़कर आत्म-कल्याण के लिए संकल्पित हो जाते थे। यही राजा सत्यंधर ने किया। वे रणांगण में ही दीक्षित होकर सद्गति को प्राप्त हुए। त्याग जीवन का अलंकार है, क्योंकि गृहस्थावस्था में भले ही राग भाव से विभिन्न प्रकार के अलंकार धारण किये जाते हैं, लेकिन मुनि अवस्था में त्याग भाव ही अलंकार है।


    पहले श्रावक होते हुए भी पण्डित वर्ग में त्याग की भावना कूट-कूट कर भरी थी। पं. दौलतराम जी के बारे में कहा जाता है कि वे छोटा सा वस्त्रों की रँगाई का काम करते थे। लेकिन ‘छहढाला' का निर्माण किया, जिसे पढ़ने पर स्वत: ही मालूम पड़ जाता है कि कैसी भीतरी त्याग की भावना रही होगी।'कब मिल हैं वे मुनिराज' जैसी भजन की पंक्तियाँ लिखीं मिलती हैं, क्योंकि उस समय उनको मुनिदर्शन का अभाव खटकता होगा। शास्त्र में जैसे त्याग तपस्या के उदाहरण लिखे हैं, उनको पढ़कर वे गद्गद् हो जाते थे और उसी की ओर अग्रसर होने की भावना रखते थे। तभी तो भजन के माध्यम से उन्होंने ऐसे भाव व्यक्त किये।


    एक बात और ध्यान रखने योग्य है कि त्याग की साक्षात् जीवित मूर्ति के समागम के बिना त्याग के मार्ग में अग्रसर होना सम्भव नहीं है। जैसे कहा जाता है कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है अर्थात् पकने लगता है, ऐसे ही त्यागी-व्रती को देखकर त्याग के भाव सहज ही जागृत हो जाते हैं।


    बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च॥ ३७॥

    तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५

    बन्ध होते समय दो अधिक शक्त्यंश वाला, दो हीन शक्त्यंश वाले का परिणमन कराने वाला होता है। कोई त्यागी ऐसा अद्भुत त्याग कर देता है कि जिसे देखकर रागी के मन में भी त्याग भाव आ जाता है। लेकिन यह भी ध्यान रखना कि त्याग स्वाधीन है अर्थात् अपने आधीन है। त्याग की भावना उत्पन्न होना स्वाश्रित है। निमित्त को लेकर उसमें तेजी आ जाती है। इसी अपेक्षा यह बात कही गयी है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा है कि-

     

    कर्मपरवशे सान्ते, दु:खैरन्तरितोदये ।

    पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता॥१२॥

    सांसारिक सुखों की वाञ्छा व्यर्थ है, क्योंकि सांसारिक सुख सब कर्माधीन हैं। कर्म का उदय कैसे-कैसे परिवर्तन लायेगा, कहा नहीं जा सकता। एक ही रात में नदी अपना रास्ता बदल लेती है और सब तहस-नहस हो जाता है। सुन्दर उपवन के स्थान पर रेगिस्तान होने में देर नहीं लगती। चले जा रहे हैं रास्ते में और अचानक जीप पलट गयी। जीवन का अन्त हो गया, तो जीप क्या पलटी, वह तो भीतरी कर्म ही पलट गया। यही तो कर्माधीन होना है। सांसारिक सुखों की आकांक्षा दुख लेकर आती है, और दुख का बीज छोड़कर जाती है। ऐसे सांसारिक सुखों में निकांक्षित सम्यग्दृष्टि आस्था नहीं रखता। सम्यग्दृष्टि तो अर्थ (सम्पत्ति) में नहीं, परमार्थ में आस्था रखता है।


    जैसे सांसारिक मामलों में सही व्यापारी वही माना जाता है, जो अपने व्यापार में दिन-दूनी रात-चौगुनी वृद्धि करता है और अर्थ के माध्यम से अर्थ कमाता है। ऐसे ही परमार्थ के क्षेत्र में परमार्थ का विकास परमार्थ के माध्यम से होता है अर्थात् अर्थ के त्याग के माध्यम से होता है। जितना-जितना आप अर्थ के बोझ से मुक्त होंगे, अर्थ का त्योग करते जायेंगे, उतना-उतना परमार्थ भाव के द्वारा ऊपर उठते जायेंगे। परमार्थ भाव से दिया गया दान अकेले पुण्यबंध का कारण नहीं है, वह परम्परा से मुक्ति में भी सहायक बनता है। वह यहाँ भी सुखी बनाता है और जहाँ भी जाना हो, वहाँ भी सुख की ओर अग्रसर कराने वाला होता है।


    यहाँ प्रसंगवश कहना चाहूँगा कि ‘दौलत' का अर्थ निकालें तो ऐसा भी निकल सकता है कि जो आते समय व्यक्ति के सामने सीने पर लात से आघात करती है तो अहंकारवश व्यक्ति का सीना फूल जाता है। वह अकड़कर चलने लगता है। लेकिन वही दौलत जाते समय मानों अपनी दूसरी लात व्यक्ति की पीठ पर मारकर चली जाती है और व्यक्ति की कमर झुक जाती है। वह मुख ऊपर उठाकर नहीं चल पाता। यही दौलत की सौबत का परिणाम है। ज्ञानी वही है, जो वर्तमान में मिलने वाली विषय भोगों की सामग्री (धन-सम्पदा आदि) के प्रति हेय-बुद्धि रखता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार जी में कहा है कि


    उप्पण्णोदयभोगे वियोगबुद्धीय तस्स सो णिच्चं।

    कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी॥२२८॥

    ज्ञानी के सदा ही वर्तमान काल के कर्मोदय का भोग, वियोग बुद्धि अर्थात् हेय बुद्धि से होता है और ज्ञानी भावी भोगों की आकांक्षा भी नहीं करता। दान इत्यादि के प्रति ज्ञानी की हेय बुद्धि नहीं होती। पूजा, अभिषेक के प्रति भी हेय बुद्धि नहीं होती। अपने षट्-आवश्यकों के प्रति भी हेय-बुद्धि नहीं आती, मात्र विषयभोगों के प्रति हेयबुद्धि आ जाती है। दान आदि के माध्यम से जो पुण्य का अर्जन होता है, उसके प्रति भी हेयबुद्धि नहीं होती, किन्तु पुण्य के फलस्वरूप मिलने वाली सांसारिक सामग्री के प्रति उसकी हेय बुद्धि अवश्य होती है। सम्यग्दृष्टि जैसे-जैसे भोगों का त्याग करता जाता है, वैसे-वैसे ही उसे भोग सामग्री और अधिक प्राप्त होने लगती है लेकिन वह उसे त्याज्य ही मानता है और ग्रहण नहीं
    करता |


    भगवान् अभिनिष्क्रमण करते हैं, राजपाट और राजभवन के समस्त वैभवों का त्याग कर देते हैं और दीक्षा ले लेते हैं। तब राज्य के सभी जन उनकी सेवा के लिए साथ चलने को तत्पर हो जाते हैं। इन्द्र सेवा में आकर खड़ा हो जाता है, लेकिन भगवान् किसी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। वे अपनी आत्मा की खोज में वन की ओर गमन कर देते हैं और भीतर ही भीतर आत्मध्यान में लीन होते जाते हैं। उपसर्ग आने पर भी प्रतिकार करने के लिए बाहर नहीं आते और न ही किसी की अपेक्षा रखते हैं। तब जाकर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है, और अभी इतना ही नहीं, समवसरण की रचना होने लगती है। तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ समझी जाने वाली दैवीय सम्पदा समवसरण की रचना में लगायी जाती है। लेकिन भगवान्.भगवान् तो उस विशाल समवसरण के एक कण को भी नहीं छूते, वे तो कमलासन पर भी चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में विराजमान रहते हैं। यही हमारे वीतराग भगवान् की पहचान है।


    संसारी प्राणी जिस सम्पदा के पीछे दिन-रात भाग-दौड़ कर रहा है, वही सम्पदा भगवान् के पीछे आकृष्ट हो रही है और उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा कर रही है। तभी तो केवलज्ञान के उपरान्त भी उनके नीचे, आगे-पीछे चारों तरफ समवसरण के रूप में सम्पदा बिछी हुई है। अन्त में जब भगवान् योग-निग्रह अर्थात् मन-वचन-काय की सूक्ष्म क्रियाओं का भी निरोध करने चल देते हैं तो समवसरण की वह सम्पदा भी पीछे छूट जाती है। यह त्याग की अन्तिम परम घड़ी है। इसके उपरान्त ही उन्हें मुक्ति का लाभ मिल जाता है।


    बन्धुओ! आज तक त्याग के बिना किसी को मुक्ति नहीं मिली और मिलना भी सम्भव नहीं है। जब भी मुक्ति मिलेगी, त्यागपूर्वक ही मिलेगी। सोची, सुमेरु पर्वत और सौधर्म स्वर्ग के प्रथम पटल के बीच बाल मात्र का अन्तर होते हुए भी कोई विद्याधर चाहे कि स्वर्ग के विमानों में चला जाऊँ तो छलाँग मारकर जा नहीं सकता। यही बात मुक्ति के विषय में है कि कोई बिना त्याग के, यूँ ही छलाँग लगाकर सिद्ध शिला पर पहुँचना चाहे और सिद्धत्व का अनुभव करना चाहे तो नहीं कर सकता। त्याग के बिना यह सम्भव ही नहीं है।


    ध्यान रखना, त्याग के द्वारा जो अतिशय-पुण्य का सञ्चय सम्यग्दृष्टि को होता है, वह पुण्य का सञ्चय मोक्षमार्ग में कभी भी बाधक नहीं बन सकता। पुण्य के फल में राग भाव होना बाधक बने तो बन सकता है। क्योंकि पुण्य के फल में हर्ष-विषाद की सम्भावना होती है। पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में पुण्य की परिभाषा कही है कि 'पुनाति आत्मानं पूयतेनेन इति वा पुण्यम्जो आत्मा को पवित्र बना दे या जिसके द्वारा आत्मा पवित्र होता है वह ‘पुण्य' है। घातिया-कर्मों के क्षय करने के लिए यही सातिशय पुण्य आवश्यक है। तभी केवलज्ञान की प्राप्ति करके आत्मा स्व-पर प्रकाशक होकर पवित्र होती है।


    इस तरह का पुण्य चाहने से नहीं मिलता। पुण्य के फल के प्रति निरीहता आने पर अपने आप मिलता है। जैसे किसी व्यक्ति का पैर फिसल जाए और वह कीचड़ में गिर जाये तो सारा शरीर कीचड़ से लथपथ हो जाता है, तब उस कीचड़ से मुक्त होने के लिए उसे जल की आवश्यकता महसूस होती है। जल उस कीचड़ को साफ करके स्वयं भी शरीर के ऊपर अधिक नहीं टिकता। जो दो चार बूंदें रह भी जाती हैं, वे मोती के समान चमकती रहती हैं और कुछ देर में वे भी समाप्त हो जाती हैं। यही स्थिति पुण्य की है। पाप-पंक से मुक्त होने के लिए पुण्य के पवित्र जल की आवश्यकता पड़ती है। जो त्याग के फलस्वरूप स्वत: मिलता जाता है।


    भगवान् की भक्ति पाप के क्षय में तो निमित है ही, साथ ही साथ, कर्तव्य-बुद्धि से की जाने पर पुण्य के सञ्चय में भी कारण बनती है। उसे तात्कालिक उपादेय मानकर करते जाइये तो वह भी मोक्षमार्ग में साधक है। केवल शुद्धोपयोग से ही संवर होता है या निर्जरा होती है, ऐसी धारणा नहीं बनानी चाहिए। शुभोपयोग को भी आचार्यों ने संवर और निर्जरा का कारण कहा है। उसे भी परंपरा से मुक्ति का कारण आचार्यों ने माना है। इसलिए दान और त्यागादि शुभ क्रियाओं के द्वारा केवल पुण्य बंध ही होता है, ऐसा एकान्त नहीं है। इन शुभ-क्रियाओं द्वारा और शुभ भावों के द्वारा संवरपूर्वक असंख्यात गुणी निर्जरा संयमी व्यक्ति को निरन्तर होती है। व्रत के माध्यम से, भक्ति और स्तुति के माध्यम से तथा षडावश्यक क्रियाओं के माध्यम से संयमी व्यक्ति संवर और निर्जरा दोनों ही करता है, तभी दानादि क्रियाएँ ‘पर' के साथ-साथ 'स्व' का अनुग्रह करने वाली कहीं गयी हैं।

     

    एक उदाहरण याद आ गया। युधिष्ठिर जी पांडवों में सबसे बड़े थे। दानवीर माने जाते थे। एक बार एक याचक ने आकर उनसे दान की याचना की। वे किसी कार्य में व्यस्त थे तो कह दिया कि थोड़ी देर बाद आना या कल ले जाना। भीम जी को जब मालूम पड़ा तो वे आये और बोले भइया! ये भी कोई बात हुई। क्या आपने मृत्यु को जीत लिया है? क्या अगले क्षण का आपको भरोसा है कि बचेंगे ही? अभी दे दो। अन्यथा विचार बदलने में भी देर नहीं लगती। बन्धुओ! त्याग का भाव आते-आते भी राग का भाव आ सकता है क्योंकि राग का संस्कार अनादिकाल का है, इसलिए 'शुभस्य शीघ्रम्' वाली बात होना चाहिए। ताकि त्याग का संस्कार आगे के लिए भी दृढ़ होता जाये।


    राग के द्वारा संसार के बंधन का विकास होता है तो वीतराग भावों के द्वारा संसार से मुक्त होने के मार्ग का विकास होता है। जो वीतराग बने हैं, जिन्होंने उत्तम त्यागधर्म को अपनाया है, उनके प्रति हमारा हार्दिक अनुराग बना रहे। उनकी भक्ति, स्तुति और उनका नाम स्मरण होता रहे, यही संसार से बचने का एकमात्र सरलतम उपाय है, प्रशस्त मार्ग है।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now


×
×
  • Create New...