Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • वैय्यावृत्ति

       (0 reviews)

    वैय्यावृत्ति विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. दूसरे की वैयावृत्य करते समय अपनी वेदना मालूम नहीं पड़ती वह अपने कष्ट की ओर नहीं  देखकर सामने वाले को आराम देना चाहता है। यह आकांक्षा सम्यग्दृष्टि की होती है। वह सोचता है कि यह किसी प्रकार से बच जाये और धर्म धारण कर ले।
    2. अटेचमेंट नहीं हो सहयोग में यानी उसकी ईहा। यदि हो रही है कुछ कार्य की तो उसे भी समझाएँ कि ये क्या कर रहे हो?
    3. प्रभावित नहीं होना, न ही करना।
    4. वैय्यावृत्ति का क्षेत्र बहुत लम्बा-चौड़ा है। जो वैय्यावृत्ति करने में कमजोरी रखता है वह संघ के विघटन में कारण होगा। प्रशम संवेगादि भी नहीं रहेंगे। वात्सल्यादि भी नहीं रहेंगे। सम्यक्तव के आठ अंग का पालन भी कहाँ हुआ?
    5. प्रभावना प्रवचन ये तीर्थ की (धर्म की) वैय्यावृत्ति है। बौद्धिक वैय्यावृत्ति है।
    6. जिसके लिए जो कार्य दिया जाये और वह कार्य नहीं करे तो सब कार्य गड़बड़ हो जायेगा।
    7. वैय्यावृत्ति करने वाले की बहुत विवेक से कार्य करना चाहिए क्योंकि वैय्यावृत्ति का फल रोग की निवृत्ति है।
    8. मन की मालिश मधुर वचन के द्वारा हो सकती है। मृदुता तो हो, पर व्यंग्यात्मक हो तो वह ठीक नहीं।
    9. हाथ-पैर दबाना ही वैय्यावृत्ति नहीं है। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों के साथ निरंतराय आहार करा देना सबसे बड़ी वैय्यावृत्ति है।
    10. भगवान् के संदेश के अनुसार अपने आप को बनाना भी भगवान् की वैय्यावृत्ति है।
    11. उनकी भावना के अनुरूप अपने आप को बनाना उपास्य की उपासना जैसी आगम में विधिवत बताई गई है वैसी ही करना यह अरहंत भगवान् की वैय्यावृत्ति है।
    12. वैय्यावृत्ति करने से कर्म निर्जरा होती है और तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण होता है।
    13. रोगी को किसी व्यक्ति विशेष को नहीं देखना चाहिए अपने आहार औषध को ले लेना चाहिए। नहीं वही व्यक्ति से आहार दिलाओ वो ही मेरे साथ जाये यह सब ठीक नहीं हैं।
    14. सही निदान, औषधि, आहार और वैद्य इन चारों के निमित्त से उपचारक सही-सही वैय्यावृत्ति कर पाते हैं।
    15. गर्मी में भी गर्म पानी से माथा या सिर धो लिया जाता है तो बहुत जल्दी शांति मिल जाती है।
    16. वैय्यावृत्ति तो इस ढंग से होना चाहिए कि किसी को पता भी न चले, चाहे बहिनें करें चाहे श्रावक करें। वैय्यावृत्ति के समय कुछ विरोधी बिन्दु सामने रखेंगे तो वैय्यावृत्ति का फल भी नहीं मिलेगा। और जिसकी वैय्यावृत्ति होगी वह भी अधिक अस्वस्थ्य हो जायेगा।
    17. जिनसे उपवास नहीं होता तो उपवास करने वालों की वैय्यावृत्ति करने का सौभाग्य प्राप्त करने में आनन्दित हों।
    18. कितना भी कोई कुछ सुना दे लेकिन वैय्यावृत्ति नहीं छोड़े इसको कहते हैं कर्तव्यनिष्ठता। इसको (वैय्यावृत्ति को) करने से अपना सम्यक दर्शन और प्रौढ़ होता है। स्थितिकरण, उपगूहन, वात्सल्य भी इससे पुष्ट होता है। इससे बड़ा और कौन सा काम है? वैय्यावृत्ति के लिए समय बहुत देना पड़ता है। किसके माध्यम से करायें। कैसे करायें? सबकुछ सोच-विचार कर कार्य करना आवश्यक होता है।
    19. मन मिलाने का, वात्सल्य पाने का, एक ही उपाय है वैय्यावृति ।
    20. वैय्यावृत्ति विधिवत् होना चाहिए। अनुशासित रूप से होना चाहिए। वैय्यावृत्ति के लिए तो सारे काम बन्द हो जाना चाहिए और वैय्यावृत्ति में लगना चाहिए।
    21. संघ का निर्वाह जो होता है, वह आपस में वैय्यावृति में लगने से होता है।
    22. वैय्यावृत्ति जो कर रहे हैं वो शुभोपयोग के साथ हैं।
    23. मीठे-मीठे वचनों से मन की वैय्यावृत्ति की जाती है।
    24. तप करना चाहते हैं तो सबसे बड़ा तप है वैय्यावृत्ति।
    25. साधना में सहयोग मिलाना ही वैय्यावृत्ति है।
    26. समता, विवेक, सूझबूझ सभी गुण होना चाहिए तभी सही वैय्यावृत्ति कर सकता है। ऑपरेशन जैसी सावधानी रखना होती है।
    27. मूलगुण (व्रत) वाला ही उत्तरगुण वैय्यावृत्ति कर सकता है।
    28. श्रावक, धर्म के लिए दान देकर वैय्यावृत्ति करता है। जिस समय जो आवश्यक हो उसकी पूर्ति करना वैय्यावृत्ति है।
    29. मानसिक, वैय्यावृत्ति पारलौकिक वैय्यावृत्ति है। जब तक वैय्यावृत्ति नहीं करोगे तब तक अंतरंग तप नहीं होगा।
    30. जो वैय्यावृत्ति नहीं करता उसके व्रत ठूंठ वृक्ष से पक्षी की भाँति उड़ जाते हैं। आवश्यक और सीमा के अनुरूप ही वैय्यावृत्ति होनी चाहिए।
    31. वात्सल्य अंग को रखना चाहते हो तो वैय्यावृत्ति को भूलना नहीं चाहिए।
    32. गुणों के प्रति अनुराग नहीं रखेगा वह वास्तविक वैय्यावृत्ति नहीं कर सकता। गुणों के प्रति आदर होने से वैय्यावृत्ति करता हुआ आगे उन्हीं गुणों को प्राप्त करता है।
    33. वैय्यावृत्ति करने वाला नियम से ही विनयशील होता है।
    34. वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं, दूसरो की सेवा में निमित बनकर अपने अंतरंग में उतरना ही सबसे बड़ी सेवा है।
    35. रोगी को सुख पहुँचाने का उपाय हमेशा-हमेशा केवल शारीरिक नहीं रहता किन्तु मानसिक भी रहता है।
    36. यदि आप बाहर अच्छे ढंग से तेल घी के माध्यम से अंगोपांग की मालिश कर रहे हैं और उसके साथ-साथ व्यंग्य की एकाध पुड़िया छोड़ते चले जाओ तो क्या होगा?
    37. मन की भी मालिश हुआ करती है, वैय्यावृत्ति हुआ करती है और वह मन की वैय्यावृत्ति जो है वह मधुर वचनों के माध्यम से हुआ करती है।
    38. सेवा करने वाला वास्तव में अपने ही मन की वेदना मिटाता है यानी अपनी ही सेवा करता है।
    39. दूसरे की सेवा में भी अपनी ही सुखशांति की बात छिपी रहती है।
    40. लौकिक दृष्टि से हम दूसरे की सेवा भले कर लें किन्तु पारमार्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ी सेवा अपनी ही हो सकती है।
    41. शरीर की सड़ांध का हम इलाज करते हैं किन्तु अपने अन्तर्मन की सड़ांध/उत्कट दुर्गंध को हमने कभी असह्य माना ही नहीं।
    42. आत्मा में अनादि से बसी हुई दुर्गंध को निकालने का प्रयास ही वैयावृत्य का मंगलाचरण है।
    43. स्वयंसेवक बनो, पर सेवक मत बनो।
    44. पवित्र सेवा की भावना और मंत्रोच्चार में जो शक्ति है बंधुओ! वह जीवन को उन्नत तो बनाती ही है किन्तु शांति समृद्धि का साम्राज्य भी स्थापित करती है।
    45. सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है।

    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...