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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • वचन/शब्द

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    वचन/शब्द विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. मधुर वचन गर्मी में भी काश्मीर का वातावरण ले आते हैं।
    2. आदर सूचक शब्दों को बोलने की आदत डालिए इससे आपकी भाषा समिति सुधरेगी लोग सुनने को तरसेंगे।
    3. आपके एक शब्द के कारण किसी के सम्यक्त्व को धक्का लग सकता है।
    4. मुख है तो खोल लेते हैं यह ठीक नहीं। आपके वचनों से कोई संयम से असंयम में भी जा सकता है।
    5. ज्ञान के साथ वचन हो तो अच्छे लगते हैं |
    6. प्रयोग के समय यदि चर्चा की तो सब विस्मृत हो जायेगा।
    7. ज्यादा चर्चा का अर्थ है हम क्रियान्वय कम कर रहे हैं।
    8. समय को बचाना इस युग की सबसे बड़ी जरूरत है।
    9. जिस विषय को अमल में लाना है उसकी ज्यादा चर्चा नहीं करें।
    10. जो कोस की बात नहीं है उसे ठण्डे बस्ते में रख दो। क्या है? क्यों है? आदि-आदि प्रश्न सिर दर्द कराने वाले हैं।
    11. भगवान् को याद करो यदि उसी समय कर्तव्य याद आ जाये तो समझो भगवान् याद आ गये कर्तव्य उनने ही तो बताये हैं।
    12. ड्यूटी के समय भी आप भगवान् के पास ही हो उनका ही तो काम कर रहे हो।
    13. नियमावली को याद नहीं करना, उनका पालन करना।
    14. कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो यूजलेस हो हर किसी में कोई न कोई गुण अवश्य होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि हर किसी के सामने धोक दे दें। चीज एक है लेकिन योगी के लिए वरदान तथा भोगी के लिए अभिशाप सिद्ध हो सकती है।
    15. राग रूप वचन को सुनने से व्यक्ति रागी हो जाता है और रागद्वेष होने से व्यक्ति दुष्ट संकल्प कर लेता है। इस संकल्प से अति घोर पाप होता है। इसलिए ऐसे राग रूप वचनों से बचना चाहिए।
    16. कुछ लोग सुनने की इच्छा का निरोध करते हैं और कुछ लोग सुनाने की इच्छा रखते हैं तो उनके लिए सुनाने की इच्छा का भी निरोध कर लेना चाहिए।
    17. ऐसे सचित शब्दों को मत बोलो जिससे दूसरे का चित्त उखड़ जाये।
    18. जिस प्रकार यथालब्ध आहार की बात करते हैं वैसे ही यथालब्ध शब्द सुनने के भी आदी या अभ्यस्त होना चाहिए।
    19. दूसरे को संतुष्ट करने के चक्कर में हमें नहीं रहना चाहिए। आज किसी को संतुष्ट नहीं कर सकते हैं। इसलिए हमें वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए।
    20. हमें वीतराग कथा करनी चाहिए। वाद-विवाद की बात नहीं करनी चाहिए। संवेगनी-निर्वेगनी कथा करना चाहिए।
    21. दया के साथ वचन होते हैं तो उनमें स्खलन नहीं होता।
    22. मधुर शब्दों के द्वारा विरोधी के कान भी ठण्डे पड़ जाते हैं।
    23. हर एक व्यक्ति को इस प्रकार बोलना चाहिए कि सामने वाला चुम्बक की तरह खिचता चला आय ।
    24. वाक्य में कभी भी तकिया कलाम नहीं होना चाहिए इससे वकृत्व कला समाप्त हो जाती है।
    25. सर्वप्रथम बोलने से पहले सोचो और खोल सोचो। मराठी में खोल अर्थात् डीप/गहराई के अर्थ में प्रयोग होता है। अच्छे ढंग से सोचो।
    26. व्रती को सोचना चाहिए बोलना नहीं, बोले तो फालतू नहीं बोले।
    27. अविरत सम्यक दृष्टि कम सोचता है और ज्यादा भी बोल सकता है लेकिन व्रती को मना किया है।
    28. व्रती के लिए कहा है-उतना ही बोलिए जिसके द्वारा अपना भी हित हो, दूसरे का भी हित हो। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो आगम में कहा है-अहिंसा व्रत का पालन वह सही नहीं कर रहा है।
    29. मनोबल के साथ जो बोला जाता है उसका प्रभाव पड़ता है मोक्षमार्ग में, यदि मनोबल के बिना सही सात्विक विचार के बिना आपके शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वह किसी काम के नहीं मोक्षमार्ग में और उसके द्वारा अहित के सिवाय कुछ होने वाला नहीं।
    30. अनुकंपा के भाव के साथ जो व्यक्ति बोलता है उस व्यक्ति के वचनों में ऐसा प्रभाव रहता है कि जन्म जात वैर को छोड़ करके वहीं एक ओर सिंह बैठेगा और दूसरी ओर गाय बैठती है।
    31. असंयमी बोले तो दूसरे पर प्रभाव नहीं पड़ेगा और कोई त्यागी तपस्वी बोलता है तो उसका अपने आप ही प्रभाव पड़ता है। इसलिए वक्तु प्रामाण्यात यह सूत्र चरित्रार्थ होता है।
    32. मोक्षमार्ग सम्बन्धी जो शब्दों के निर्माण हैं वह केवल अनुकम्पा से पूरित होते हैं और दिशाबोध देते हैं।
    33. एकवचन में शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए जैसे ए इधर आ. ऐसा नहीं बोलना चाहिए। आइये.इधर बैठिये ऐसा कहें। उन्हें नहीं बोलकर उन्होंने शब्द को बोलना चाहिए। लाड़ प्यार की भाषा अलग है। लेकिन अन्य वचन का प्रयोग ही अच्छा है।
    34. अपशब्द बोलने वालों को भगवती आराधना में गटर की नाली के समान कहा है। कोई कहे गंगा का नीर कर दो तो कोई कैसे करेगा।
    35. कर्णप्रिय शब्दों के सुनने से, बोलने से भी कभी-कभी बहुत विशुद्धि बढ़ती है।
    36. शब्द की गति में भावात्मक पुट भी सहायक होता है। जोर से भी बोला गया शब्द प्रशस्त कल्याणमय भावना से युक्त होने के कारण किसी के कानों को आघात नहीं होता। धीरे से बोला गया शब्द भी यदि अशुभ है, स्वार्थमय है, द्वेष से युक्त है, संक्लेश से युक्त है तो भी कर्णों को आघात होता है।
    37. बोलने से सबसे ज्यादा श्रम होता है। चिंतन का श्रम भी होता है बोलने में। प्रयोजनभूत बोलो इसी का अर्थ है-मापतौल कर बोलो। शार्ट एण्ड स्वीट। असत्य से बचकर हितकारी बोलना।
    38. इसे नोट करो-जब बिना बोले चल सकता है फिर क्यों बोलें?
    39. अपने से छोटा हो तब भी अपशब्द नहीं बोलना चाहिए। आपस में अरे यार जैसे शब्द प्रयोग नहीं करें।
    40. जब कोई आवेग में कुछ कहे तब अपने को कुछ नहीं बोलना। सुनने वाला जब व्यवस्थित हो जाये, उपशान्त हो जाये, सुनने को तैयार हो, तब सुनाना अन्यथा कुछ भी बोलने की आवश्यकता नहीं है। कुछ मत कहो। जैसे-६-७ डिग्री बुखार है तो उस समय औषधि नहीं देते, किन्तु बुखार उपशान्त हो जाये कुछ कम हो जाये तब औषधि का प्रयोग किया जाता है, अन्यथा उल्टी हो जायेगी।
    41. शब्द की मुख्यता नहीं, भाव गंभीर रहता है। शब्द सुनते ही शब्द तो छूट जाये पर भाव अवश्य भीतर पहुँच जाये। गहराई आनी चाहिए।
    42. बिना बोले भी यदि काम चल सकता है तो चलाना चाहिए। बोलकर यदि चलता है तो ज्यादा न बोलें। इससे ज्यादा शक्ति अजित होती है बोलने से शक्ति अधिक खर्च होती है।
    43. बोलते समय यह ध्यान रखो कि गुरु के विरुद्ध तो नहीं बोल रहे हैं।
    44. झूठ बोलने वाले बच्चे पर माता-पिता को भी विश्वास नहीं रहता। उस बच्चे का भाग्य फूट गया जो माता-पिता को सुखी नहीं रखता।
    45. अच्छे भाव हैं तो अपने आप ही अच्छे शब्द निकलते हैं लच्छेदार शब्दों की अपेक्षा।
    46. जैसे प्रासुक भोजन लेते हो ऐसे ही अपनी जिह्वा को प्रासुक रखो ताकि वह अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करे।
    47. सीमा शब्द की है अर्थ की नहीं। शब्द कैपसूल है, अर्थ दवाई है। शब्दों के कैपसूल बना बनाकर दिमाग में भर लिए हैं अब वो घुल नहीं रहे हैं। गुरु से निर्देशरूपी कैपसूल लेने पर यदि वह कैपसूल घुला नहीं तो यह नहीं कि वह कैपसूल गलत है, कैपसूल तो सही है पर सामने वाला जो है उसका रोग प्रबल है, प्रकृति इतनी प्रतिकूल है कि औषध काम ही नहीं कर पा रही है।
    48. किसी का पक्ष लेकर नहीं बोलना चाहिए देव, गुरु, शास्त्र का पक्ष लेकर बोलना चाहिए। आगमिक सत्य यह है बाकी आप जानो, मैं किसी का विरोध नहीं कर रहा हूँ बल्कि आगम का समर्थन कर रहा हूँ।
    49. प्रयोजन के अभाव में बोलना भी हिंसा का कारण बनता है। अहिंसा महाव्रत को पालने वाले रात को तो बोलते ही नहीं दिन में भी निष्प्रयोजन नहीं बोलते। बिना प्रयोजन घूमना-घुमाना नहीं चाहिए।
    50. राम-राम कहने से काम नहीं होता है राम के धर्म को और भावों को जानना ही सही राम है।
    51. जीभ (जिह्वा) के उपयोग से प्रस्फुटित वाणी द्वारा दूसरे जीव को जीत सकते हैं और उसी जीभ की वाणी से अपनी बतीसी भी तुड़वा सकते हैं।
    52. बाण से वश में करना सरल नहीं अपितु बात से वश में किया जा सकता है। बात का प्रभाव बाण के प्रभाव से गहरा होता है।
    53. आकुलता के बिना बोलना नहीं होता।
    54. वचन का प्रयोग करने में यदि प्रमाद नहीं है तो हिंसा गौण है। और यदि प्रमाद है तो हम हिंसा को गौण नहीं कर सकते।
    55. बोलते हुए आप अहिंसक रह ही नहीं सकते। इन सब बातों को देखकर ही तीर्थंकरों ने दीक्षित होते ही मौन व्रत को अंगीकार कर लिया था।
    56. सज्जनों के शब्द गंगा जल की तरह कलकल ध्वनि की तरह होते हैं। और दुर्जनों के शब्द/वचन नाली के पानी की तरह होते हैं।
    57. इतना मीठा बोलो कि भरी गर्मी में भी पित्त शांत हो जाये। पित्त कुपित हो जाये तो बहुत मुश्किल होता है।
    58. अपने मुख को बुरे शब्दों के द्वारा अशुद्ध नहीं बनाना। खूब अच्छे-अच्छे शब्दों का प्रयोग करो। सुगंधित मंजन से मुख शुद्धि के समान।

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