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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • विनय

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    विनय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. सम्यक ज्ञान के आठ अंगों में से विनय अंग/बहुमान में बहुत कमी होती जा रही है। सम्यक दर्शन के आठ अंगों की चर्चा तो बहुत हो जाती है लेकिन सम्यक ज्ञान के आठ अंगों की चर्चा, उनके प्रयोग प्राय: लुप्त होते जा रहे हैं। प्राय: त्यागी, व्रती, स्वाध्यायशील आदि को तो इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। जैसे श्रीजी को विनयपूर्वक अभिषेक के लिए विराजमान करते हैं, शिरोधार्य करके लाते हैं, बहुमान के साथ लाते हैं ऐसी प्रक्रिया प्रचलित है। ऐसे ही जिनवाणी की विनय का प्रचार प्रसार होना चाहिए। प्रयोग के कारण विवेक जागृत हो जाता है।
    2. अष्टांग युक्त जिनवाणी का बहुमान होता है तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है।
    3. सम्यक दर्शन भी नहीं हो तो भी सम्यक दर्शन के सम्मुख भी हो तो भी वह मनोज्ञ है। उसका यथायोग्य बहुमान होता है।
    4. विनय करने से कर्म की निर्जरा होती है। वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है। सामने का वातावरण भी शान्त हो जाता है। संयम भी विशुद्ध रहता है अत: विनय करो।
    5. रात के बारह भी बज गये हों तो भी विनय को नहीं भूलना चाहिए।
    6. गुरो: सर्वत्र अनुकूल वृत्ति विनय है। इसका हमेशा पालन अति अनिवार्य है इसके बिना मोक्ष का द्वार बन्द।
    7. मूल सूत्र मत भूलो और कुछ भूलो तो भूलो। मूल सूत्र यानि बड़ों की विनय करना और बड़ों से पूछकर काम करना बड़ों के अनुकूल चलना।
    8. कर्म का उदय आने पर भी विनय को कोई छीन नहीं सकता।
    9. उपवास से भी बड़ा विनय तप है लेकिन दुर्लभ है। दुर्लभ चीज सहजता से नहीं मिलती। कर्म निर्जरा भी दुर्लभ है दुर्लभ चीज मिली है आज महत्वपूर्ण चीज की ओर ध्यान नहीं जा रहा है।
    10. विनय उपकरण है, मोक्ष का द्वार है। विनय के साथ जो-जो नहीं मिलना है वह भी मिल जाता है। गुरुओं से, बड़ों से, विनय एक मंत्र है, तप है जिसके द्वारा चिर दीक्षित आचार्य भी नव दीक्षित मुनि से प्रभावित/आकर्षित हो जाते हैं।
    11. थोड़ा विनय व चतुराई से कार्य करें तो चौगुना कार्य हो जाता है।
    12. निर्दोष चारित्र का पालन करना, दिगंबरत्व को सुरक्षित रखना यही जिनलिंग की विनय है।
    13. विनय सबसे बड़ा टॉनिक है।
    14. करुणा, विनय, नम्रता, कोमलता से पहाड़ भी हिल जाता है। वात्सल्य से सब कुछ हो जाता है, यह हमारा सिद्धान्त है।
    15. दीनता-हीनता नहीं स्ट्रिकता होना चाहिए। विनय को व्यवहार कुशलता के साथ करना चाहिए। गुण ग्राहकता देख लेना चाहिए।
    16. दूसरों के दु:ख को देखकर हम काँप जायें, अपने दु:ख में दूसरे को नहीं काँपना यह वात्सल्य है।
    17. पहाड़ टूट जाने पर भी स्वयं के लिए कोई आवाज नहीं हो, सहनशक्ति रखना। पर दूसरे के थोड़े भी दु:ख में शांत नहीं रहना तुरन्त ही दु:ख दूर करने का भाव होना चाहिए कार्यरूप में। विष्णुकुमार मुनि ने ७०० मुनिराजों के दु:खों से पीड़ित होकर वात्सल्य भाव से, गुरु आज्ञा से उनकी रक्षा की।
    18. यदि कोई कहे कि हमें वात्सल्य नहीं मिलता, तो विनय करो, विनय सीखो तुम्हें वात्सल्य अवश्य मिलेगा।
    19. विनय आने से मृदुता गुण भी आ जाता है, जिससे गुरु भी प्रभावित हो जाते हैं प्रभावित करने का भाव नहीं रखता।
    20. ज्ञान, दर्शन, चारित्र तो पोथी का विषय हो गया किन्तु उपचार विनय पोथी का नहीं प्रयोग का विषय है।
    21. उपचार विनय ज्ञान, दर्शन, चारित्र का उपासक है।
    22. ज्ञान, दर्शन, चारित्र थ्योरिटिकली है, उपचार विनय प्रेक्टिकल है। प्रेक्टिकल में १०० प्रतिशत मिलते हैं, थ्योरिटिकल में तो कम ज्यादा भी मिल सकते हैं।
    23. श्रवण करना, ग्रहण करना, धारण करना और श्रद्धा करना ये चार बातें जिसके पास नहीं हैं,वे अविनेय हैं।
    24. विनय का अर्थ दीन हीन होना नहीं है, आगम की आज्ञा है।
    25. अपने मान के अभाव में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह विनय है। वह सबसे बड़ा पूज्य माना जाता है जो विनय तप अपनाता है। छाया में बैठकर भी यह तप कर सकते हैं।
    26. अपना नाम ऊँचा करना चाहते हो तो विनय को अपनाओ।
    27. विनय महान् तप है, आत्मगत कर्मों की निर्जरा में साक्षात कारण है।
    28. विनयरूपी तप की अग्नि मान को जला देती है।
    29. जो तत्व का श्रवण, ग्रहण, मनन कर लेता है फिर भी अमल नहीं करता वह अविनेय है। जो विशेष रूप से तत्व तक ले जाता है वह विनेय है।
    30. विनय/नम्रता का अर्थ दीनता नहीं विनय/नम्रता का अर्थ यथार्थता है। नम्रता का अर्थ सही सही परख है, गुणों का अभिवादन है। गुणानुवाद तो करना चाहिए उसमें दीनता नहीं अभिमान भी नहीं करना चाहिए।
    31. जितनी नम्रता रखोगे उतना विकास की ओर बढ़ेंगे।
    32.  शोभा नम्रता में है, उद्ण्डता में नहीं।
    33. विनय जब अंतरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर से प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्धृत होती है और व्यवहार में भी प्रदर्शित होती है।
    34. विनय का महत्व अनुपम है, यह वह सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है।
    35. विनय आत्मा का गुण है और ऋजुता का प्रतीक है।
    36. यह विनय तत्व मंथन से ही उपलब्ध हो सकती है।
    37. विनय का अर्थ है-सम्मान, आदर, पूजा आदि।
    38. विनय से हम आदर और पूजा तो प्राप्त करते ही हैं, साथ ही सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त कर सकते हैं।
    39. क्रोधी, कामी, मायावी, लोभी सभी विनय द्वारा वश में किये जा सकते हैं।
    40. अविनय में शक्ति का बिखराव है, विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण है।
    41. हमको शब्दों की विनय भी सीखना चाहिए। शब्दों की अविनय भी बड़ी हानिकारक सिद्ध हो सकती है।
    42. विनय गुण समन्वित व्यक्ति की केवल यही भावना होती है कि सभी में यह गुण उद्भूत हो जाये। सभी विकास की चरम सीमा का स्पर्श कर लें।
    43. विनय से कषायों का हनन होता है।
    44. विनय करने से मान अपने आप चला जाता है।
    45. भगवान् महावीर कहते हैं-मेरी उपासना चाहे न करो, विनय गुण की उपासना करो किन्तु विनय का मतलब यह नहीं कि आप भगवान् महावीर के समक्ष तो विनय करें और पास पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें।
    46. विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य कार्य भी साध्य बन जाते हैं।
    47.  यह विनय गुण ग्राह्य है, उपास्य है, आराध्य है।
    48. अपने पड़ोसी की विनय करो। कोई घर पर आ जाये तो उसका सम्मान करो क्योंकि एक नीतिकार ने कहा है-मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन। अर्थात् सम्मान आदर से तृप्ति होती है, भोजन से नहीं।
    49. मुनि महाराज तो केवल आपके लोटे कलश देखकर ही तृप्त हो जाते है। अत: विनय करना सीखो।
    50. विनय गुण आपको सिद्धत्व प्राप्त करा देगा।
    51. गुरु के वचन मोक्षमार्ग पर याद रखना सबसे बड़ी विनय है।
    52. जहाँ विनय है, वहाँ पर कभी भी गृहीत मिथ्यात्व का बोल वाला नहीं होता। ये लिख लो अच्छे ढंग से।
    53. बड़ों के प्रति विनय, भक्ति के प्रति वात्सल्य भाव है और छोटों के प्रति स्नेह करना यह भी वात्सल्य का ही अंग है।
    54. दोष दूर करना और दोष बताना/दिखाना इसमें बहुत अंतर है। दूर करने का कार्य वात्सल्य होने पर ही होता है।
    55. आदर, प्रेम, सेवा अपने साधर्मी के प्रति करना, रागद्वेष नहीं करना, यहीं अपने आप में कसौटी है।
    56. मैत्री प्राणिमात्र के साथ वात्सल्य भाव साधर्मी के प्रति होता है, पर के प्रति सद्भाव के भाव पर्याय बुद्धि के साथ नहीं हो सकते हैं। दृष्टि में विशालता लाओ।
    57. सबके लिए वात्सल्य नहीं होता किन्तु अपने पक्ष सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और सदाचार एवं सद्दविचारों के साथ वात्सल्य भाव होना चाहिए और सामान्य के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए क्योंकि उससे मोक्षमार्ग बना रहेगा।
    58. वैय्यावृत्ति विवेक के साथ करें और वात्सल्य भी विवेक के साथ करें। वात्सल्य समय-समय पर होता है।

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