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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. परिग्रह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार संग्रह का नाम परिग्रह नहीं है, अनावश्यक संग्रह का नाम परिग्रह है। वह अन्यायी है जिसने अनाप-शनाप इकट्ठा कर रखा है। संग्रह की चिंता से वही मुक्त होता है जो घरबार छोड़कर महाव्रती बन जाता है। परिग्रही यदि कोई है तो वह एक मात्र मानव है। पेट तो सबके पास है लेकिन मनुष्य पेट के अलावा पेटी भी रखता है। वस्तुओं को संग्रह करने की ललक का नाम परिग्रह है। हर्ष का संदेश मिलता है तो गदगद हो जाते हैं, विषाद के विषय में ज्ञात होते ही खदबद हो जाते हैं किन्तु दोनों स्थितियों में परिणाम एक सा होता है। लेकिन परिग्रह सुनते ही मूर्छित हो जाते हैं। असमता में रक्तचाप कभी-कभी चुपचाप हो जाता है, मूछित हो जाते हैं। परिग्रही मूछित रहते हैं, नींद सयानी होती है, सदा निश्चिंत के पास आती है। जिससे परिचय हो जाता है वो ज्यादा अच्छा लगने लगता है तो दु:ख से परिचय करें क्योंकि आप बार बार वहीं जाते हैं जहाँ दु:ख होता है। घर में दु:ख होने के बावजूद हम वहाँ जाते हैं क्योंकि परिग्रह के माया-मोह से आप ग्रसित हैं। स्वस्थ होने का मात्र एक ही उपाय है परिग्रह का विमोचन। आज वित्त का अर्जन तो बहुत हो रहा है लेकिन वित्त का उपयोग कैसे करें इसके लिए दिमाग नहीं चल रहा है। यदि अनावश्यक उत्पादन किया जाता है, तो उनका दिमाग नियम से खराब चल रहा है। मात्र धन का संग्रह करना ही बुद्धिमानी नहीं है बल्कि संग्रहित धन का सही-सही उपयोग करना बुद्धिमानी है। खानदानी पैसा और नया पैसा में क्या अंतर है? ओल्ड को गोल्ड माना जाता है। और नया बोल्ड माना जाता है। जिस देश में कृतघ्नता पलती है, उसके पास कितना भी वित्त आ जाये वह किसी काम का नहीं होता। धन की पूजा करने से धन नहीं आता, धन के ऊपर तिलक लगाने से धन का विकास नहीं होता, किन्तु धन का यथोचित स्थान पर उपयोग करने से ही उसका विकास होगा। जितना आरम्भ परिग्रह छूटेगा उतनी ही व्यक्ति के निर्विकल्पता होती है। जितना आरम्भ परिग्रह उतनी विकल्पता होती है। आचार्यों ने परिग्रह संज्ञा को संसार का कारण बताया है और संसारी प्राणी निरंतर इसी परिग्रह के पीछे अपने स्वर्णिम मानव जीवन को गंवा रहा है। कभी सोचा आपने! कमर में लटकाने वाला चाबी का गुच्छा धन का रक्षक तो हो सकता है धर्म का नहीं। वस्तु के अभाव में महँगाई नहीं होती पर वस्तु संग्रह से महँगाई होती है। वही धन परिग्रह है जो धार्मिक क्षेत्र में खर्च न होकर अन्य सांसारिक कार्यों में खर्च होता है। जिस प्रकार सूर्योदय से पूर्व उजाला होने की आभा पूर्व सूचना है, उसी प्रकार बहु आरंभ, बहु परिग्रह अति संक्लेश परिणाम नरकगति का उदय होने की आभा पूर्व सूचना है। अपव्यय की ओर दृष्टि न होने से आज धन की अधिक आवश्यकता हो रही है। वस्तुओं के मूल्य की बात नहीं चैतन्य का मूल्य करना चाहिए। जहाँ अन्य वस्तुओं का मूल्य है वहाँ भोग भूमि होगी, कर्मभूमि नहीं। दुनिया की सम्पदा से हमारा जो नहीं होने वाला है ऐसा अमूल्य पदार्थ जीव हमें मिला है। धन संग्रह करोगे तो संग्रहणी की बीमारी होगी। धन सात्विक होगा तो बढ़ता जायेगा। हम पहले लक्ष्य बनायें फिर जीवन की कुछ कड़ियों में अर्थ की व्यवस्था आवश्यक होती है। अर्थ पुरुषार्थ मूलक होता है। दो अर्थों के बीच वह पुरुष (आत्मा) है। आत्मा को प्राप्त करना चाहते हो तो अर्थ की कुछ आवश्यकता है किन्तु जो अर्थ की ओर ही जाता है उसका पुरुष (आत्मा) गोल हो जाता है।
  2. परिणाम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार अपने परिणाम को बिगाड़कर दूसरों के परिणाम सुधारने का भाव करना इसमें कोई शोभा नहीं है। जिसके जीवन में संवेग और निर्वेग भाव हो वह मुनि कभी भी वैराग्य पथ पर असफल नहीं हो सकते हैं। पिच्छी की रक्षा मात्र नहीं करना है, परिणामों की रक्षा करना है। जड़ की रक्षा क्या करना? चेतन की रक्षा करो। अपने परिणामों को सुधारो। अपने परिणामों को बिगाड़ना नहीं। अपने कर्तव्य में कमी लाना नहीं। अपना कर्तव्य करने के बाद सामने वाला नहीं सम्हल रहा, अपने परिणामों को नहीं सम्हाल रहा तो अपन ज्यादा क्या कर सकते हैं? अपना कर्तव्य नहीं खोना। परिणामों को अच्छा बनाये रखने के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। संक्लेश परिणाम नहीं करना चाहिए इससे असाता का बंध होगा। शांत परिणाम रखना चाहिए इससे साता का बंध होता है। हर समय विशुद्धिरूप परिणाम होने से असाता कर्म साता रूप में परिणत होकर उदय में आ सकता है। सब काम परिणामों के माध्यम से होता है। संक्लेश नहीं करना चाहिए, प्रशम भाव रहना चाहिए। हमेशा तत्व चिंतन करना चाहिए। तत्व चिंतन नहीं करने का परिणाम है पर में जल्दी परिणमन हो जाता है। आज सारा वातावरण प्रतिकूल ही है फिर भी अपने भाव संभालकर रखें। आगे की भूमिका बना लें। बस इतना पुरुषार्थ रहे कि कषाय न भड़के। ये (व्रतों की) दुकान बहुत महंगी है इसमें कभी भी कमी नहीं करना चाहिए। क्षण क्षण अपने परिणामों को संभालना चाहिए। मनुष्य पर्याय को पाकर भी निगोद चला जाता है और एक निगोदिया जीव मनुष्य पर्याय को प्राप्त हो जाता है। यह सब अंतरंग परिणामों का फल है। द्रव्य का प्रदर्शन हो सकता है पर भावों का प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। भावों की महिमा अपरम्पार है। द्रव्य का अकेला महत्व नहीं है, भाव के माध्यम से द्रव्य का महत्व बढ़ जाता है।
  3. संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के द्वारा दी गई विभिन्न परिभाषा का संकलन विवेक के साथ प्रत्येक घड़ी बिताने का नाम ही वास्तव में जीवन है। यदि कोई व्यक्ति विवेक से ही हाथ धो बैठता है, तो उसका जीना जीना नहीं बल्कि चलते फिरते शव के समान है उसका जीवन जीना। विचार विवेक ही आत्मा के महान् प्राण माने गये हैं वह उज्ज्वल और अखण्ड रूप में सदा विद्यमान रहते हैं इन्हीं के माध्यम से इनका आगे का विकास होता है और ये प्राण कभी भी भौतिक प्रभाव में नहीं आने वाले। संसार में कर्तृत्व बुद्धि, भोकृत्व बुद्धि और स्वामित्व बुद्धि इन तीन प्रकार की बुद्धियों के द्वारा ही संसारी प्राणी की बुद्धि समाप्त हो गई है। वह बुद्धिमान् होकर भी बुद्ध जैसा व्यवहार कर रहा है। जीवन का इतिहास आदर्श प्रस्तुत करने वाला होना चाहिए। बुराई देखें अपनी और अच्छाई देखें सबकी, आदर्श प्रस्तुत करने की यही अच्छी विधा है। शिक्षा जीवन चलाने के लिए नहीं, किन्तु वह जीवन का विकास करने उसे सुधारने के लिए ही साधन है। हम काँटों पर चलना सीखें यानि कठिनाइयों से गुजरना सीखें उनसे घबराए नहीं और फूलों से बचें, यानि भोग विलासिता से अपने को दूर रखें, जीवन हमारा महक जायेगा हम धन्य हो जायेंगे। जीवन में आनंद के अनुभव के लिए श्रेणी चढ़ो। एक-एक कक्षा पार करो। कक्षा तो बढ़ती जाती है लेकिन समझदारी नहीं आती तो आनंद कैसे आये? शरीर के प्रति निरीहता नहीं है तो आनंद का अनुभव नहीं होता। यदि जीवन अच्छा ही चाहते हो तो कठिनाइयों से कभी डरो नहीं और डरने से कभी भी कठिनाई छूटती नहीं। नहीं समझे। अब शेष जीवन कितना है? कुछ पता तो है नहीं इसलिए करते जाओ। आप लोग कहते हैं जल ही जीवन है। ठीक वैसे ही समय ही जीवन है। समय बचाओ। समय मिला है तो अरिहंत सिद्ध, अरिहंत सिद्ध करते जाओ।
  4. श्रुत ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है। किन्तु आत्म स्वभाव पाने के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक है। श्रुतज्ञान होने के उपरान्त ध्यानरूपी बोध के द्वारा उस ज्ञान को ऊपर की ओर ले जाया जाता है। जिसके लिए महान् संयम साधना की आवश्यकता पड़ती है। अव्रती के वश का यह काम नहीं है। श्रुत की सार्थकता तो तभी मानी जायेगी जब हेय उपादेय की जानकारी प्राप्त कर, हेय से बचने एवं उपादेय को ग्रहण करने का प्रयास करेगा। अक्षय तृतीया से जो यह मंगल कार्य प्रारम्भ हुआ था इस मंगलमय श्रुत पंचमी के अवसर पर सानन्द सम्पन्न हुआ। आत्मा के पास एक ऐसा धन है ज्ञान का जिस धन के माध्यम से आत्मा धनी कहलाता है और वह धन जब जघन्य अवस्था का अनुभव करने लग जाता है तो वह आत्मा दरिद्र हो जाता है। इन आगम ग्रंथों की वाचना के समय पर निगोदिया जीवों का प्ररूपण आया था और उस निगोदिया जीव का प्ररूपण करते हुए बताया गया उसे सुनकर ऐसा लग रहा था कि आत्मा का यह पतन अन्तिम छोर को छू रहा है। किन्तु सावधान! दरिद्रता का अर्थ क्या होता है? धन का पूर्ण अभाव नहीं किन्तु धन की न्यूनता, बहुत कमी लेकिन बहुत कमी कह करके भी हम उसको अभाव नहीं कह सकते। एक पैसा भी पैसा है और वह पैसा एक रुपये का अंश है। एक-एक पैसा निकालते चले जाइये आप, रुपये का कोई भी अस्तित्व नहीं है। ज्ञान का पतन हुआ लेकिन ध्यान रखें उसका अभाव नहीं हो सकता। यह सही धन है, इस धन का जब हम संरक्षण करते हैं और संरक्षण ही नहीं संवर्धन करते हैं तो आत्मा की ख्याति बढ़ती चली जाती है। ज्ञान के माध्यम से आत्मा प्रकाश में आ जाता और आत्मा ऐसे प्रकाश में आ जाता कि विश्व को भी वह प्रकाशित कर देता है। 'श्रुत पंचमी' पर कम समय में भी अपने चिन्तन के माध्यम से कई लोगों ने अपनी बात रखी। स्पर्श इन्द्रिय का विषय आठ प्रकार का, रसना इंद्रिय का पाँच प्रकार का रस, प्राण इन्द्रियो का विषय दो प्रकार की गंध, चक्षु इन्द्रिय का विषय रूप पाँच प्रकार, श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है शब्द। पाँच इन्द्रियाँ है हमारे पास, शब्द को सुनने के लिए कर्ण आवश्यक है लेकिन यह ध्यान रखिये सम्यग्दर्शन की उत्पति के लिए जब पंडित जी (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री, बनारस) वाचना कर रहे थे प्रात:काल की बात है और जय धवलाकार ने बहुत अच्छे ढंग से कहा पाँच इन्द्रियों का होना आवश्यक है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। शब्द को सुनने के लिए कान मिल गया तो पर्याप्त हो गया, नहीं! संज्ञी होना आवश्यक है। जो कोई उपदेश देते हैं यह तो असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी अपने कानों के द्वारा ग्रहण कर सकता है किन्तु शब्द अलग वस्तु है और तद्विषयक जानकारी अलग वस्तु है। श्रुत यह मन का विषय है और मन का विषय शब्द नहीं हुआ करता है। यह ध्यान रखना कान से शब्द सुने जा सकते हैं किन्तु ध्यान किसके द्वारा होता है? मन के द्वारा। तो मन लगाकर के यदि इन शब्दों को हम सुन लेते हैं तब कहीं जाकर के आचार्यों के भाव हमारे साथ और आत्मा के साथ हो सकते हैं अन्यथा नहीं, पुरुषार्थ इतना अपेक्षित है। केवल वता अपनी बात को रखता और वह श्रोता सारा का सारा पीता चला जाता तो आज तक इन सभी का कल्याण हो जाता। श्रुत शब्दात्मक नहीं हुआ करता। यहाँ अभी-अभी कई लोगों ने कहा यह वाचना जो हुई है, पण्डितों ने कितने अच्छे ढंग से इसकी वाचना की है। यह सारा का सारा शब्द ही तो है, नहीं तो कानों से सुनने में आ जाता। शब्द पढ़ने में नहीं आ सकते यहाँ पर शब्द संयोजना नहीं है केवल उन शब्दों के संकेत हैं और ये संकेत सारे अर्थ को लेकर के हैं। अरहंत के द्वारा अर्थ रूप श्रुत का व्याख्यान हुआ है और उसे गणधर देव ने गूंथकर ग्रन्थ का रूप दिया क्योंकि अर्थ हमेशा अनंतात्मक होता है और अनंत को हम ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखते और उस अनंत को हम सुन नहीं सकते, शब्द को सुन सकते हैं। शब्द इस अनंत अर्थ को अभिव्यक्त करने में सहायक हो जाता है उस अर्थ का संकेत इसमें किया गया है। कितनी छोटी सी किताब है? बहुत छोटी सी किताब है लेकिन इसके अर्थ की ओर जब देखते हैं तो लोक और अलोक दोनों में जाकर हमारा ज्ञान छोर को छूने के लिये मचलता रहे। वह छोरज्ञेय की छोर, ज्ञेयार्णवान्तर्गता:, ज्ञेय रूपी महान् सागर जिसके ज्ञान में अवतरित हो जाता है, झलक जाता है। उस ज्ञान की महिमा अपरम्पार है, उस अर्थ के लिये यह सब संकेत दिये गये हैं, इन संकेतों को सचेत होकर यदि हम पकड़ लेते हैं तो ठीक है अन्यथा नहीं। जिसका मन इन संकेतों को पकड़ने के लिये हो गया है किन्तु वह यदि मूछित है अथवा यूँ कहना चाहिए पञ्चेन्द्रिय के विषयों से प्रभावित हुआ है तो इन संकेतों को पकड़ करके भी वह भावों में अवगाहित नहीं हो सकता। अन्तर्मुहूर्त के भीतर वह जो सर्वार्थसिद्धि के देव हैं, उन्हें भी सुख का अनुभव नहीं हो सकता, उससे बढ़ करके सुख का अनुभव एक संज्ञी पञ्चेन्द्रिय यहाँ पर बैठा हुआ संयत जो है, अनुभव कर रहा है अथवा श्रावक जो है संयमासंयम का अनुभव कर रहा है अथवा त्याग तपस्या की ओर बढ़ते हुए चरण जो कि सवार्थसिद्धि को भी पीछे रख रहे हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? इन संकेतों के माध्यम से हमारी गति बाहर नहीं होती किन्तु वह यूँ (हाथ का इशारा) आ जाती है। देखो सूर्य प्रकाश देता है, प्रकाश से कार्य होता है लेकिन यह ध्यान रखना प्रकाश से तो कार्य होता है लेकिन सूर्य के प्रकाश देने मात्र से हमारा कार्य पूर्ण नहीं होता। प्रात:कालीन सूर्य प्रकाश तो देता है लेकिन तपता नहीं है। तपना भी आवश्यक होता है वह कब तपता है, जब उदयाचल को छोड़े तब तप सकता है। हमारी वृत्ति श्रुत के अभाव में क्या हो रही है? जिस प्रकार सूर्य प्रात:कालीन किरणों को फेंक देता है पृथ्वी की ओर उस समय हम उसके सामने खड़े हो जाते हैं तो उसके विपरीत दिशा में बहुत लम्बी-चौड़ी छाया हमारी पड़ती है और जब वह अस्ताचल की ओर चला जाता है उस समय में भी पूर्व दिशा की ओर हमारी लम्बी-चौड़ी छाया फैल जाती है, यह दशा हमारी श्रुत के अभाव में हो रही है और जिस समय श्रुत का आधार यह आत्मा ले लेता है उस समय क्या स्थिति आ जाती है। मध्याह्न के समय की बात देखो मध्याह्न में हमारी छाया कहाँ पर होती है, होती भी है या नहीं? होती तो है लेकिन मध्याह्न में दूसरे पदार्थों की पूजा नहीं करती किन्तु हमारे चरणों की आरती उतारती है, पूजन करती है। जिस समय हमारी छाया हमारे चरणों की पूजा करेगी उस समय समझ लेना हम मध्य में रहेंगे मध्यस्थ होकर के रहेंगे, उस समय हमारी आँखें काम नहीं करती क्योंकि इतनी तेज धूप रहती है और पंडितजी (पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर) बार-बार कहा करते हैं महाराज! हम इसको बोलते हैं ततूरी। ततूरी का अर्थ बहुत अच्छा बताया था। मुझे क्या मालूम था कि ततूरी का अर्थ इतना गंभीर है। तप्ता उर्वी ततूरी। जिस समय उर्वी अर्थात् पृथ्वी तप जाती है, आकाशमंडल सब तप जाते हैं, उस समय ततूरी होती है। ततूरी होती है तो आप क्या करते हैं? अपने पास एक गमछा रखते हैं। गमछा के द्वारा क्या करते हैं? सिर पर उस गमछे को कान के ऊपर से लाकर के यूँ (हाथ का इशारा) बाँध लेते हैं ताकि बाहरी आवाज सुनना बंद हो जाये। भीतरी आवाज को अब सुनो। बाहरी आवाज बंद हो गयी, भीतर का संगीत प्रारंभ हुआ और ततूरी के समय यदि कान ठण्डे रह जाते हैं तो आप किसी भी रोग से घिरेंगे नहीं, नहीं तो लू लग जायेगी, इधर-उधर की बातें सुनोगे तो लू लग जायेगी और केवल जिनवाणी का श्रवण करोगे तो फिर कहना ही क्या? बड़े आनंद का अनुभव करोगे। मध्याह्न हमारे जीवन के लिये कल्याणकारी है। किसान लोग आज बहुत शान्ति का अनुभव कर रहे हैं, क्यों कर रहें हैं? इसलिये शान्ति का अनुभव कर रहे हैं कि अब मृगशीतला आ गयी है और कुछ ही दिन के उपरान्त वर्षा होगी तो बीज बोयेंगे फिर कुछ ही दिनों में अंकुरित होकर के फसल लहलहाएगी। यदि धरती तपेगी नहीं तो उसकी कभी भी कीमत नहीं है। तपी हुई धरती में बीज समय पर वर्षा के काल में बोये जाते हैं तो शीघ्र ही अंकुरित हो करके फसल आ जाती है, लहलहाती है और उस समय किसानों के साफा भी ध्वजा के समान लहलहाते हैं। उसी प्रकार जब तक श्रुत के माध्यम से हम अपने आप को नहीं तपायेंगे तब तक उस अनंत केवलज्ञान की उत्पति नहीं होने वाली । हम केवल बाल भानु की किरणों को देखने के लिये (सूर्य को) देखते हैं, या तो Sunrise (सूर्योदय) को देखते हैं या Sunset को, हमें मालूम नहीं पड़ता वो लोग क्या अनुभव करना चाहते हैं? उनसे सही पूछा जाये, इन दोनों को छोड़ दो किन्तु Sunlight (सूर्यप्रकाश) को देखो। देखा नहीं जाता महाराज, इसलिये गोगल (चश्मा) लगा लो और देखो वह क्या कहना चाह रहा है। जिस समय वह श्रुत-आत्मस्थ हो जायेगा तो नियम से उस श्रुत से क्या होगा? विश्रुत होगा। श्रुत का अर्थ तो बता दिया गया, अब. विश्रुत का क्या अर्थ है? विश्रुत का अर्थ है ख्याति। तीन लोक में उसकी ख्याति फैल जायेगी। अभी तक मुहल्ले में ख्याति फैलती थी या तो आसपड़ौस में, ज्यादा से ज्यादा हो तो गाँव में फैल जाये, जिले में फैल जाये, राष्ट्र में फैल जाये लेकिन तीन लोक में किसी की ख्याति नहीं फैलती, तीन लोक में उसी की ही ख्याति फैलती है जो संपूर्ण श्रुत को पीकर के विश्रुत हो गया। श्रुत को गौण करके ऊपर उठ गये विश्रुत अर्थात् श्रुताभाव और विश्रुत का अर्थ प्रसिद्धि भी है। सबसे ज्यादा प्रसिद्धि तीन लोक में उन्हीं की होती है जिन को आप बोलते हैं विश्रुत अर्थात् श्रुत से ऊपर उठे हुए हैं। श्रुतज्ञान भी आत्मा का स्वभाव नहीं है किन्तु आत्म स्वभाव पाने के लिये श्रुतज्ञान कारण है और उस श्रुत के माध्यम से जो अपने आपको तपाता है और ऐसा तपाता है कि बस श्रुतज्ञान नीचे रहकर के वह जो ज्ञान था वह ज्ञान केवल 'ज्ञान' रह जाता है। श्रुतज्ञान आवरणी ज्ञान है अर्थात् आवरण में से झाँकता हुआ वो सूर्य है जो बादलों की घटाओं से झाँक रहा है। जब मेघ घटाओं का पूर्ण अभाव हो जायेगा तो सूर्य अपने सम्पूर्ण प्रकाश के साथ बाहर दिखने लगेगा। उस तपे हुए सूर्य पिंड से सारी धरती को प्रकाश मिलेगा और सुख-शान्ति छा जायेगी किसानों के हृदय में। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण कर्म का जब पूर्ण क्षय होगा तब नियम से आत्मा में एक नई दशा उत्पन्न होगी, इसी दशा को प्राप्त करने के लिये यह श्रुत है और वह केवल मन का विषय है। "श्रुतमनिन्द्रियस्य" हमारे पास पाँच इन्द्रियाँ हैं और मन एक है लेकिन वह इन्द्रिय नहीं है, वह श्रुत का अंग है, उपांग है, उसको अनंग बोलते हैं वो अंतरंग है भीतर रहता है उसके पास अंग नहीं है किन्तु अंग के भीतर अंतरंग होता है और उस अंतरंग के द्वारा ही सब कुछ कार्य होने वाला है। यदि अंतरंग विकृत होगा और केवल बहिरंग साफ सुथरा होगा तो उसके द्वारा काम ठीक नहीं होगा। भीतरी अंतरंग जिसका शुद्ध होगा वह सारा का सारा श्रुत पी लेगा। आचार्यों ने कहा है-जिसका अंतरंग ठीक-ठीक हो गया है उसके लिये श्रुत अंतर्मुहूर्त में पूरा का पूरा प्राप्त हो जाता है और अंतर्मुहूर्त के भीतर ही भीतर उसे नियम से कैवल्य की उपलब्धि हो सकती है। वर्तमान में श्रुत ज्ञान जो कुछ भी आप लोगों को उपलब्ध है इससे अब आगे बढ़ने वाला नहीं है। इसमें विकास संभव नहीं है। क्योंकि अवसर्पिणी काल होने से वह धीरे-धीरे घटता चला जा रहा है। और वह समय आया धरसेन आचार्य के जीवन काल में जो कि वह एक-एक अंग का भी पूर्ण ज्ञान नहीं था फिर आज उसका शतांश क्या सहस्रोश भी नहीं रहा। आज सुबह पढ़ लेते हैं, शाम को पूछो तो उसमें से एक कड़ी (पंक्ति) हम ज्यों का त्यों नहीं बता सकते। थोड़ा सा मन इधर-उधर चला गया, उपयोग फिसल गया तो कहाँ से कहाँ चले जाते हैं। संज्ञी में से असंज्ञी मार्गणा में चले जाते हैं या असंज्ञी से संज्ञी मार्गणा में चले जाते हैं। क्या विषय चल रहा था पता तक नहीं पड़ता। पूर्व आचार्यों के उपयोग की स्थिरता उनका श्रुत के प्रति बहुमान आदि देखते हैं, तो उनमें से हमारे पास एक छोटा सा कण भी शेष नहीं रहा किन्तु भाव भक्ति श्रद्धा ही एकमात्र हमारे पास साधन है और यह श्रद्धा विश्वास नियम से वहीं तक ले जायेगा जहाँ तक पूर्व आचार्य गये हैं। उनके पास तक हम भी जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं किन्तु हम श्रुत को विश्रुत बना करके आत्मा में लीन हो जायें जिसके लिए यह साधन है उस साध्य के लिए ही यह सब कुछ है। एक स्थान पर आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में कहा है - शब्द ज्ञान नहीं क्योंकि शब्द कुछ भी नहीं जानता इसलिए ज्ञान भिन्न है शब्द भिन्न है इस प्रकार भगवान का कथन है। इन संकेतों के माध्यम से हम भीतरी ज्ञान को पहिचान लेते हैं तो इस श्रुत को भी हम ज्ञान कह सकते हैं अन्यथा यह केवल कागज है। भारतीय मुद्रा को लेकर जिस प्रकार अन्यत्र चले जायेंगे तो वहाँ पर कोई कार्यकारी नहीं, वहाँ की मुद्रा को लेना आवश्यक है, वहाँ का व्यक्ति यहाँ पर आ जाता है तो यहाँ की मुद्रा उसे खरीदने की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार यदि हम श्रुत का भिन्न क्षेत्र में उपयोग लेते हैं तो इसका कोई भी मूल्य नहीं है। यदि स्वक्षेत्र में काम लेते हैं तो उसे केवलज्ञान होने में मात्र अंतर्मुहूर्त की देरी लगती है। श्रुत को पीते चले जाओ जब तक पेट नहीं भरता, डकार जब तक नहीं आती तब तक इधर-उधर देखो नहीं। हम लोग जो कोई भी कार्य करते हैं वह शिथिलता के साथ और अस्थिरता के साथ करते हैं। पूजन के लिए बैठ जाते हैं तो स्तुति याद आ जाती है, स्तुति के लिए बैठते हैं तो जाप याद आ जाती है, जाप के लिए बैठते हैं तो स्वाध्याय के लिए ग्रंथ सामने आ जाते हैं, ग्रंथ आते ही हमें तो महाराज जी को पड़गाहन करना है, और पड़गाहन से महाराज जी आ भी गये तो बड़े महाराज कहाँ गये? हमारी मन की यात्रा कैसीकैसी चलती है। उन व्यक्तियों के लिए हमारा कहना भैया! आचार्यों ने जो आवश्यक बताये हैं उसको यदि मनोयोगपूर्वक शांति के साथ करोगे तो सारा का सारा फल मिल जायेगा इसलिए कहा है "विधि द्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेष:" (तत्त्वार्थसूत्र/अध्याय ७/सूत्र ३९) कोई भी क्रिया करो विधि के अनुसार करो। कोई भी क्रिया करो दाता और पात्र को देखकर करो। द्रव्य किसके लिए किस रूप में देना चाहिए? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर करने से ही क्रिया फलवती होती है। किसी को दवाई में गोली दे दी वैद्य जी ने, कहा सुबह शाम लेते जाओ पेट ठीक हो जायेगा। २० गोली थी उसने पूछा नहीं वैद्यजी से कि एक बार में कितनी लेना है। एक ही दिन में उसने इकट्ठी बीस गोली ले ली। गर्मी ज्यादा हो गई, बर्दाश्त नहीं हुई, २० दिन की खुराक एक दिन में ले लें तो क्या होगा? सहन नहीं कर सका और आंखें जलने लगी भूख-भूख कहने लगा। भूख क्यों लगी, गोली खाने से लगी। अरे भैया! अब तो पेट भी गड़बड़ होने लगा। आस्था बिगड़ गई, अनुपात चाहिए। स्वाध्याय करो कहने से प्राय: ऐसा ही होता है इसलिए संभव है, अष्टमी, चतुर्दशी के दिन वीरसेन भगवान् ने पढ़ने का निषेध किया है। लेकिन हम लोग क्या करते हैं उस व्यक्ति के समान गोली एक दिन में ही खा लेते हैं। एक वर्ष में जो स्वाध्याय करना चाहिए उसे एक माह में कर लेते हैं। रात-दिन एक कर लो किन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए। उसके प्रति बहुमान, उसके प्रति विनय, उसके लिए कुछ काल अपेक्षित है। कोई भी एक वस्तु को ग्रहण करते हैं तो उसके बाद ग्रहीत वस्तु का चिंतन करना आवश्यक होता है। फिर धारणा बनाओ और आगे बढ़ो। हम यह नहीं करते हुए बंदर के समान मुख भर लेते हैं, जबकि बंदर इसलिए भर लेता है कि आप लोग ले न लें। एकांत में जाकर उसको निकाल कर खा लेता है और आप लोग क्या करते हैं, कल और सुन लेंगे, क्या बात हो गई उसका कुछ भी पाचन नहीं होता। श्रुत हमारे लिए बहुत बड़ा साधन है। श्रुतज्ञान के बिना आज तक किसी को न मुक्ति मिली और न आगे मिलेगी। अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान का मोक्षमार्ग में कोई महत्व नहीं है किन्तु श्रुतज्ञान का मोक्षमार्ग में महत्व है,केवलज्ञान इसका फल है। यह साधन है तो नियम से फल मिल जाता है और यदि इसका (श्रुत का) अन्यत्र काम लेते हैं तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा। हमें श्रुत के माध्यम से आजीविका नहीं चलाना है, इसे व्यापार का साधन नहीं बनाना है क्योंकि यह पवित्र जिनवाणी है 'वीर हिमाचल' से निकली हुई है। किसी रागी द्वेषी की यह वाणी नहीं है। अत: इसका दुरुपयोग न कर सदुपयोग करना चाहिए। प्राप्त जो श्रुत है उसके माध्यम से स्व-पर कल्याण करना चाहिए। श्रुत का फल बतलाते हुए परीक्षामुख में आचार्य माणिक्यनन्दी जी कहते हैं कि - (परीक्षामुख, अध्याय ५/सूत्र १) श्रुत की सार्थकता तो तभी मानी जायेगी जब हमारे अन्दर बैठा हुआ मोहरूपी अज्ञानान्धकार समाप्त हो जायेगा और हेय उपादेय की जानकारी प्राप्त करके हेय से बचने का प्रयास करेगा और उपादेय वस्तु को ग्रहण करेगा अर्थात् चारित्र की ओर अपने कदम बढ़ायेगा। भले ही ज्ञान अल्प हो, उसकी चिन्ता नहीं करना बंधुओ क्योंकि यह पंचमकाल है इसमें नियम से ज्ञान में, आयु में, शरीर और अच्छी सामग्रियों में ह्रास होता जायेगा। यह अवसर्पिणी काल है अत: अपने अल्पश्रुत (क्षयोपशमावस्था) की ओर ध्यान न देकर आगे बढ़ने का प्रयास कीजिए। महावीर भगवान् और कुन्दकुन्द के समान तो किसी का ज्ञान है नहीं किन्तु भगवान् महावीर जैसा ज्ञान प्राप्त करने के लिए यानि श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में परिणत करने के लिए हमें संयमित होकर के सदा गति करते रहना है और यदि इस प्रकार की हमारी गति हो जायेगी तो हमारी प्रगति, हमारी उन्नति होने में देर नहीं। हमारा यह अल्पज्ञान भी एक अन्तर्मुहूर्त में अनंत में परिणत हो सकता है। जिस प्रकार नदी छोटी होकर के भी समुद्र की ओर ढलती है चूँकि उसकी दिशा है इसलिए वह नदी नियम से एक दिन सागर का रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार जिसकी दृष्टि मुक्ति की ओर हो गयी है उसका भी एक दिन ऐसा आयेगा कि वह केवलज्ञान रूपी महान् सागर में समा जायेगा। यही एकमात्र उद्देश्य रहना चाहिए, सम्यक् श्रुतज्ञान से आपूरित हर आत्मा का। इसी भाव को मैंने एक कविता में बाँधा है। धरती से फूट रहा है । नव-जात है और पौधा धरती से पूछ रहा की यह आसमान को कब छुएगा छू.......सकेगा क्या नहीं ? तूने पकड़ा है | गोद में ले रखा है इससे छोड़ दे ....| इसका विकास रुका है ओ.... माँ....| माँ की मुस्कान बोलती है भावना फलीभूत हो बेटा....| आस पूरी हो। किन्तु आसमान को छूना आसान नहीं है मेरे अन्दर उतर कर जब छुएगा गहन-गहराइयाँ तब....कहीं....संभव...हो... आसमान को छूना आसान नहीं है....। (डूबो मत लगाओ डुबकी) क्या कहती है धरती? धरती यह कह रही है कि तू आसमान में चढ़ना चाहता है, भावना बहुत अच्छी है और मैं भी यही चाहती हूँ तू आसमान में जा, ऐसा जा तुझे देखकर के जो पतित व्यक्ति हैं वह भी एक बार मन में विचार लीन हो जायें। हाँ,. हाँ. जीवन इतना उन्नत हो सकता है लेकिन बेटा यह सब बातें मात्र जमा खर्च के रूप में नहीं होना चाहिए। यह यात्रा उस पौधे की तभी संभव है जब वह पौधा गहन गहराईयों में उतरेगा, अंकुर बीज के रूप में रहता है, वह बल, वह शक्ति अंकुर के रूप में आ जाती है। वह ध्यान रखना विकास दोनों ओर से चलता रहता है। इधर अंकुर के रूप में आ गयी वह बीज की शक्ति और ऊपर आ गया, उससे भले आधा होकर वह पौधा नीचे की ओर गया, मुस्कान के साथ, माँ कहती है बेटा तू धरती को कभी नहीं छोड़ना, धरती को छोड़ना चाहता है किन्तु धरती को न छोड़ते हुए आसमान में जाना और आसमान में जाना तभी संभव है जब धरती के भीतर जो कठोरता है उसको भी फोड़कर, भेदकर तुझे नीचे जाना है इसलिए माँ, धरती के साथ सम्बन्ध एकता का होगा। ध्यान रखना ऊपर हवा के द्वारा यूँ यूँ (हिलते हुए हाथ का इशारा) पेड़ कर रहा है लेकिन जड़ में किसी प्रकार का स्पंदन संभव नहीं। जड़ में यदि ऊपर जैसा स्पंदन होने लग जाय तो फिर शीर्षासन जैसा लग जायेगा। शीर्षासन का मतलब ऊपर का नीचे, नीचे का ऊपर हो जाना। मजबूती के साथ रहना सीखी। सर्कस दिखाने वाले क्या करते हैं? सारे के सारे अंग को हिलायेंगे भिन्न-भिन्न प्रकार के Action (हाव-भाव) करेंगे लेकिन पैर उनके मजबूत रहते हैं, उसी प्रकार वृक्ष की जड़ें बहुत मजबूत रहती हैं। जब कभी भी पेड़ गिर जाता है, झंझावात, तूफान में तब दूसरे दिन जाकर के देखो ऊपर के साथ-साथ भीतर क्या-क्या आयाम चल रहा था। उस वृक्ष की कैसी-कैसी छोटी बड़ी जड़ें कठिन-कठिन पत्थर को भी काट करके भीतर जाने की कोशिश करती थी और भीतर से ही आहार पानी का प्रबंध करती थी, किंतु धरती से ज्यों ही ढिलाई हो गयी त्यों ही सारा का सारा खेल समाप्त हो गया। पेड़ धरती से संबंध छोड़कर उखड़ गया, जीवन बर्बाद कर लिया। बंधुओ! जीवन जब तक रहे तब तक जिनवाणी माता को कभी मत भूलो और जिनवाणी माँ को भूलकर अन्यत्र कहीं चले जाओगे तो तुम्हारी भी वही दशा होगी, पैर ऊपर होंगे और नीचे सिर होगा। शीर्षासन लगाना पड़ेगा। हम उन्नति चाहते हैं लेकिन उन्नति किस रूप में होनी चाहिए? किसको उन्नति कहते हैं? यह ख्याल में नहीं है। वह क्या कहता है पौधा? मुझे छोड़ दो, तो धरती कहती है, मैं कैसे छोड़ें, तेरी नादानी बहुत है। तुझे छोड़ दूँ अर्थात् जमीन में दरार पड़ जाये तो तू कहाँ चला जायेगा, क्या आसमान को देख सकेगा? पाताल को ही देख सकेगा और तुम्हारा जीवन समाप्त हो जायेगा। श्रुत को आधार बनाकर चलो और श्रुत के द्वारा वहाँ तक जाना है, कहाँ तक? जहाँ तक महावीर भगवान पहुँचे हैं। बारहवें गुण स्थान के अंतिम समय तक उस श्रुत का आधार वह साधक लेता है और हम लोग थोड़ा सा कुछ आने लगा तो अहंकार करने लग जाते हैं। वह माँ कहती है तू नादान है, आप श्रुत का आदर किया करो, किस रूप में करो, तो जिस रूप में बताया गया है उसी रूप में करना आवश्यक है। केवल बाहरी श्रुत का आदर, आदर नहीं है। आचार्यों ने कहा है ज्ञान का फल क्या है? ज्ञान का प्रयोजन क्या है? ज्ञान का प्रयोजन ध्यान है, ध्यान का प्रयोजन केवल ज्ञान है, सुख है, शान्ति है। हमारे श्रुत में यदि अस्थिरता होगी तो ध्यान रखना तीन काल में भी हमारी यात्रा ऊध्र्वगति के रूप में नहीं होगी। श्रुत का आधार लो और उन्नति को अपनाते चले जाओ। कहाँ तक अपनाते चले जाओ, जहाँ तक श्रुत की पूर्णता/पूर्ति नहीं होती। जैसे-जैसे ऊपर चले जाओगे वैसे-वैसे देखने में आयेगा वह आसमान बहुत-बहुत विशाल, कितना? जिसकी कोई थाह नहीं। श्रुत की कभी भी थाह नहीं पकड़ सकते हैं। श्रुत के माध्यम से ऊपर-ऊपर बढ़ते चले जाओ एक सीमा आयेगी उसके उपरान्त केवलज्ञान हो जायेगा, निरावरण ज्ञान ही उस आसमान को छू सकता है जहाँ पर लोक का अंत भी हो जाता है। अलोक में भी वह प्रविष्ट हो सकता है। ज्ञान की महिमा बड़ी अपरम्पार है। उस ज्ञान की महिमा को पाने के लिए बड़े बड़े आचार्य कुन्दकुन्द जैसे भी कहते हैं। बन्धुओ! मेरे पास कहाँ ज्ञान है? गणधर परमेष्ठी भी कहते हैं- मेरे पास इतना ज्ञान कहाँ हैं? ज्ञान तो वह है जो निरावरण हुआ करता है। जिस प्रकार एक व्यक्ति के पास बहुत कुछ धन है, वह कम धन वाला भी सोचता है कि मेरे पास बहुत कुछ धन हो गया किंतु जब ऊपर देखता है तो लगता है मेरे पास कुछ धन नहीं है। उसी प्रकार गणधर परमेष्ठी भी कहते हैं। मेरा क्या ज्ञान मेरा क्या धन-धन तो वस्तुत: केवलज्ञानी के पास है। श्रुत तो केवल उसका साधन मात्र है। जब साधन मात्र है तो उसको हम साध्य मान करके नहीं चलें किन्तु साध्य तो वही है, निरावरण केवलज्ञान। उसको पाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं-हमें ध्यान की बड़ी आवश्यकता है। उस ध्यान में जब लीन होंगे तब स्थिरता के कारण आगे की ओर हमारी यात्रा होगी। आगे की ओर जैसे-जैसे यात्रा होगी वैसे-वैसे हमारा बल भी बढ़ता चला जायेगा, जिम्मेदारियाँ बढ़ती चली जायेंगी। पानी का बहाव निम्नगा माना जाता है। वह नीचे की ओर चला जाता है। पानी हमेशा बहता रहता है यात्रा करता रहता है। जल का यह स्वभाव है। उसी प्रकार उपयोग भी यात्रा करता रहता है। उपयोग का भी यही स्वभाव है। अत: देख लीजिये जल का यदि कुछ उपयोग करना है, सिंचन विभाग खोलना है तो क्या करते हैं? क्या कीचड़ के द्वारा बाँध बांधते हैं? नहीं! नदी के तट तो कीचड़ के ही रहेंगे, मिट्टी के रहेंगे, सीमेंट कांक्रीट के नहीं रहते लेकिन बाँध बांधेगे तो कंक्रीट के ही बांधेगे। बाँध बांधने के उपरान्त क्या करते हैं-डेंजर लिख देते हैं- सावधान रहें जल की यात्रा अभी भी चालू है। जब जल नीचे की ओर न जाकर के ऊपर की और चला जाता है तो उस समय खतरा और अधिक बढ़ जाता है। जब तक ऊपर की ओर जल की यात्रा नहीं होगी तब तक सिंचन विभाग सामथ्र्यशाली नहीं हो सकता, जिसके माध्यम से सारी की सारी जमीन तृप्त होगी लेकिन यह बात ध्यान रखना कि वह जल निम्नगा न होकर के ऊध्र्वगा हो जाएगा तो खतरा भी अधिक रहेगा। यदि बाँध टूट जाये तो एक साथ नदी तट आदि सब कुछ समाप्त हो जायेगा। ज्ञानोपयोग की धारा हमेशा बहती रहती है। बहने वाले उपयोग का इतना महत्व नहीं है। श्रुतज्ञान होने के उपरांत ध्यान रूपी बाँध के द्वारा उस ज्ञान को ऊपर की ओर ले जाया जाता है जिसके लिए महान् संयम की आवश्यकता है। प्रकृति के वश का यह काम नहीं है। श्रुत का सदुपयोग तो यही है कि उस को संयम का बाँध बना कर के ऊपर उठा लेना और ऐसा उठा लिया कि कुछ मत पूछो भैया! जैसे पंडित जी (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धांतशास्त्री, बनारस) वाचना के समय बार-बार लब्धि स्थानों के बारे में बताते थे कि कैसे श्रेणी चढ़ी जाती है। किस प्रकार साधक अपनी साधना को ऊपर उठाता है, कितना परिश्रम होता है ? उसके परिश्रम से यह नहीं समझों कि साधना अधिक करनी पड़ती है किन्तु चुटकी बजाते अल्प समय में भावों में विशुद्धता, भावों में उत्कृष्टता ऐसी लाता है कि उसको ऊपर चढ़ने में देर नहीं लगती। इसी प्रकार आप लोगों को भी साधना करना है, बोलते बोलते ही (अल्प समय में) संयमित होकर ऊपर एक एक गुणस्थान चढ़ते जाइये। जैसा कि अभी कहा था कि श्रुतज्ञान रूपी उस प्रवाह में संयम रूपी बाँध बांध करके ऊध्र्वगति दे दी है और ऊपर जाकर के क्षपक श्रेणी में लीन हुआ। बारहवें गुणस्थान में क्षीण-कषाय-वीतरागछद्मस्थ होता है तो अन्तर्मुहूर्त में वह कहाँ चला जाता? वह नीचे नहीं आता ऊपर जाता है, केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। संयम रूपी बाँध में बंधे हुए श्रुत की यह महिमा है। त्याग तपस्या का यह प्रभाव है। जैसे-जैसे जल को तपाया जाता है वैसे-वैसे वह वाष्प बनकर ऊपर चला जाता है। अब उसे किसी आधार की कोई आवश्यकता नहीं वह बहुत ऊपर चला जाता है। एक बार छद्मस्थ अवस्था की सीमा का उल्लंघन हो जाता है फिर बाद में वह अंतरिक्ष (केवलज्ञान प्राप्त होने पर धरती से ऊपर उठ जाता है) में चला जाता है क्षितिज पर नहीं रहता। अंतरिक्ष में जाने के उपरांत कोई बाधा नहीं होती उसके पास ऑटोमेटिक ईंधन (पेट्रोल) है और वह वहीं पर घूमता रहता है। नभमण्डल में क्या हो रहा है? सारा मामला रडार के द्वारा वह पकड़ लेता है। उसी प्रकार श्रुतज्ञान के प्रवाह को संयम के बाँध के द्वारा ऊपर ले जायेंगे तो वह अनंत-शक्ति को लेकर के आसमान में रहेगा। किसी भी प्रकार से उसको क्षति नहीं पहुँचेगी। मैंने एकमात्र यही उदाहरण दिया है। इस उदाहरण के माध्यम से ज्ञान की गति को ऊध्र्वगति देना है। जिसका एक मात्र लक्ष्य संयमी हो जाना है और यही एकमात्र सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य होना चाहिए कि मेरा जो उपलब्ध श्रुतज्ञान है इसी में मुझे राजी नहीं होना है। संतुष्ट नहीं होना है किंतु मैं इस ज्ञान को निरावरण कब देखेंगा? निरावरण देखने का एकमात्र यही ध्येय है। नीचे वाली वस्तु को ऊपर ले जाने में बहुत कष्ट होता है। आप लोग पाँच खण्ड के ऊपर बैठ कर के टोंटी के द्वारा जल पीते हैं वह जल कैसे आया? टोंटी के द्वारा तो आया लेकिन पाँच खण्ड पर कूप का जल टोंटी के द्वारा आया कैसे? यहाँ वहाँ जब आप देखेंगे, पता लगायेंगे तब मालूम पड़ेगा। पहले कम से कम दस खण्ड ऊँचाई को लेकर एक टैंक बनाया गया है। तब कहीं पांचवें खण्ड में वह पानी आ रहा है वह, नीचे से ऊपर नहीं। पहले ऊपर ले जाया गया, कौन से हॉर्सपावर की मशीन चल रही है वहाँ पर? बहुत बड़ी शक्ति की आवश्यकता है। श्रुतज्ञान को ऊपर उठाना खेल नहीं है हॉसपावर शक्ति आवश्यक है और आप लोगों के पास जो है वह हासपावर तो है ही नहीं। महाराज हमें भी आगे बढ़ाओ, क्या बढ़ाओ इस प्रकार मात्र उपदेश देने से और सुनने से ज्ञान नहीं बढ़ता, ज्ञान को ऊध्र्वगमन नहीं मिलता किन्तु संयम के द्वारा ही हम श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में ढाल सकते हैं। आज तक कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने संयम लिये बिना ही श्रुतज्ञान को केवलज्ञान का रूप दे दिया हो । जब कभी भी हमें श्रुतज्ञान से केवलज्ञान मिलेगा उस संयम की बलिहारी है। संयम रूपी बाँध को बाँधने वाले इंजीनियर की भी बलिहारी है ऐसा इंजीनियर कौन होता है? तो आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं हमारे पास आ जाओ तो यहाँ मंच पर एक साथ सौ व्यक्तियों को भी अंतर्मुहूर्त में इंजीनियर बना देंगे और वो अपने जीवनकाल में ऐसे बाँध बांध सकेंगे जिसके माध्यम से अनंतकाल तक उसका प्रवाह रहेगा। बन्धुओ! श्रुत की क्या विशेषता बतायें श्रुत तो वही है जो केवलज्ञान के लिए साक्षात् कारण माना है उस श्रुत की आराधना आप लोगों ने एक-डेढ़ माह लगातार सिद्धान्त ग्रन्थों के माध्यम से की उसकी वाचना सुनी। जिस जिनवाणी का, गुफाओं में बैठकर के धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबली एवं वीरसेन आचार्य जैसे महान् श्रुत-सम्पन्न व्यक्तियों ने सम्पादन किया उसको आप लोग आज एअरकंडीशन में बैठकर सुन रहे हैं, फिर भी कोई बात नहीं लेकिन इस प्रकार के ध्यान अध्ययन की साधना करते-करते एक दिन आपको वह समय उपलब्ध हो सकता है जिस दिन उसी प्रकार का वह संयम आप लोगों के जीवन में प्राप्त हो और नियम से प्राप्त होगा। विश्वास रखना और उसी के द्वारा आपको उसी प्रकार का फल मिलेगा जिस प्रकार का फल महावीर भगवान् को मिला था और अन्त में उन गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को स्मरण कर रहा हूँ। जिनके परोक्ष आशीर्वाद से ही यह सारे के सारे कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो रहे हैं। उन्हीं की स्मृति में - तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष।
  5. प्राचीन रसोईशाला विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार पहले शुद्ध हवा, शुद्ध भोजन, आदि-आदि सब कुछ था। हाथों से गेहूँ को पीसते थे तो हाथों की एक्साइज हो जाती थी। कूटना-पीसना-बीनना तथा पानी भरना आदि-आदि सब काम अपने हाथों से करते थे, कोई नौकर या मशीनें नहीं थी इससे पूरे शरीर की एक्साइज हो जाती थी। अब तो कुछ नहीं बचा सब कुछ मशीनों से कार्य होने लगे हैं और एक्साइज अलग से करना पडती है। पहले तो चूल्हे पर रोटी बनती थी धुंआ निकलता था, आँखों से नाक से पानी निकल जाता था तो आँख, नाक, गला सब ठीक हो जाते थे। अब तो शुद्ध हवा की बात तो दूर शुद्ध आवास तक नहीं बचे। पहले घरों में झरोखे, खिड़कियाँ आदि आदि होती थी, मात्रा से हवा का सेवन होता था। फसल भी उत्तम होती थी उसमें शुद्ध खाद डलती थी। आजकल तो केमिकल्स मिले रहते हैं, खाद में तो अन्न भी उतना ताकतवर बलशाली नहीं रहा। इसका स्वास्थ्य पर भी, शरीर पर भी प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि अन्न उतना शक्तिशाली नहीं रहा। आजकल तो बर्तनों को धोते बस हैं कि मांजते भी हैं। आजकल प्राय: मांजने की प्रक्रिया, बर्तन को राख से शुद्ध करने की प्रक्रिया समाप्त सी होती जा रही है। बर्तनों को मांजना और धोना होता है। आजकल तो धोना बचा है रोना धोना बचा है। भूख लगती है तो सब खा लेता है कब्ज होती है या पेट खाली रहता है तो वात गैस का भूत कबड्डी का ग्राउण्ड बनाकर खेलने लगता है। समय पर भोजन करो नहीं और थोड़ी चाय बिस्किट खा लिए हो गया काम कौन सी कम्पनी की, कैसे बनी कुछ पता नहीं आखिर घर की ही कम्पनी काम करती है।
  6. पाठशाला के संस्कार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आज के बच्चों को घर की रोटी घी की अच्छी नहीं लगती है और जिसे गैय्या भी नहीं खाती वह बिस्किट अच्छे से खाते हैं। आज टी-पार्टी में रोटी-दाल, खिचड़ी, दलिया आदि नहीं चलता है इसके अलावा सब चलता है। नहीं चलने वाला भी चल जाता है तथा चलने वाला बैठ जाता है। पहले ऐसी पाठशालाएँ होती थी, अनपढ़ कहलाते थे लेकिन सब व्यवस्थित कार्य करते थे। बहिन कहती है भैया से-हमारी रसोई कैसी बनी बताओ? आप सीखने के लिए बनारस गई थी क्या? नहीं, फिर इतनी अच्छी रसोई किससे सीखी? बहिन कहती है। माँ, दादी माँ के पास रहे और सीख गये। ऐसी थी पहले की पाठशाला। आज तो पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं और रसोई के नाम पर बनाई बाजार की खाद्य सामग्री ले आते हैं क्योंकि बनाने का टाइम नहीं है। कौन बनाये? कौन टाइम वेस्ट करे? इसलिए अब तो सीधी लगी लगाई होटल की थाली ले आओ उड़न तश्तरी जैसे। आधुनिकता में सब भूल गये यह है आज की शिक्षा। वह बहिन दादी को देखती रहती थी कि मुट्टी सेनापकर चावल डालकर धोकर फिर अंगुली से पानी नापकर चूल्हे पर सीझने रख देती थी। देख-देख कर वह भी सीख गई इसको बोलते हैं एक्सपीरियंस और इसी के साथ मेमोरी जुड़ गई। आज तो मेमोरी है ही नहीं। मेमोरी होने से ५० व्यक्तियों के लिए वे संकेत दे सकते हैं। अंशोपचार करना, संकेत देना, पढ़ना आदि दस प्रतिशत काम करता है जबकि प्रेक्टिकल प्रयोग जो है वह ९० प्रतिशत काम करता है जीवन में। प्रयोग जो है वह जीवन में बहुत प्रेरणा देने वाला होता हैं।
  7. पाप-पुण्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार प्राय: पुण्य का उदय आने पर मुख कमल खिल जाता है और जब असाता का उदय आता है, तब जैसे सूर्य का उदय न होने पर कमल मुरझा जाता है इसी प्रकार मुख मुरझा जाता है। दरिद्र हो जाता है। वह भूल जाता है कि उषा काल के पीछे अंधेरी शाम भी आयेगी। संसार में कहीं दु:ख नहीं है, दु:ख तो अपने अंदर है, हमें दु:ख का अनुभव कर्म के उदय में होता है उनको कर्मों को जब तक हम साफ नहीं करेंगे तब तक सुख हम लोगों को उपलब्ध नहीं होगा। पापी की यदि उन्नति करना चाहते हो तो पापों को उखेड़ दो, पापों को तिरस्कृत कर दो। करने योग्य कार्य को जब तक नहीं करता है तब तक अयोग्य ही कहलायेगा। पुण्य में कमी आये और पापों में अधिकता हो ऐसे कार्य न करें इस प्रकार की जाग्रति हमेशा रखनी चाहिए। जैसे साइकिल में हवा भरने में तो बहुत देर लगती है लेकिन पंक्चर होने में, हवा निकलने में टाइम नहीं लगता है। उसी प्रकार पाप की उदीरणा में टाइम बहुत कम लगता है पुण्य करने में टाइम लगता है। पुण्य करना चाहते हो तो इसी ढंग से करो की मोक्षमार्ग सम्बन्धी ही सामग्री मिले। संसार बढ़ाने वाली वस्तुओं की माँग न करें। आज पाप का प्रक्षालन तो नहीं पाद प्रक्षालन हो रहा है। जो जिस वस्तु के प्रति आकृष्ट होता है वह उसे कभी नहीं मिलती। पुण्य से निरीह रहोगे तो अनंत सम्पत्ति आयेगी पर यदि उस संपत्ति का उपभोग करोगे तो वह पुण्य पाप में बदल जायेगा। जिसमें निरीहता होती है उसमें निर्भीकता अपने आप आ जाती है। पुण्यबंध तो फिर भी सरल है, पर पुण्य के उदय में उसका सदुपयोग करना बहुत कठिन है। अभी पुण्य तेज है तो दुर्लभता के बारे में सोच लेना चाहिए। संतोष धारण करने से अनंत पाप कम हो जाते हैं। संतोष गृहस्थों का एक महान् गुण है। परिग्रह को ब्रेक लगाना चाहते हो तो स्वदार संतोष व्रत धारण करो। विदेशों में विडम्बना हो रही है वहाँ कोई व्रत नहीं है। पाप के डर से मर्यादा में रहना चाहिए, किसी के अनुशासन से नहीं। अभिमान से पुण्य भी पतला होने लगता है। जैसे पवित्र प्रासुक भोजन भी क्रोध में जहर बन जाता है। पुण्य के द्वारा ही पाप छोड़ा जाता है, पुण्य को छोड़ने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। पाप-पुण्य दोनों एक साथ नहीं छोड़े जा सकते। पुण्य है ही नहीं तो क्या छोड़ोगे बताओ? पाप छूटने पर पुण्य आता है। भोजन सामग्री भोगते हैं तो पाप बंध होता है और उसे पूजन में लगाते हैं तो मंगल द्रव्य बन जाती है और पाप को नष्ट कर पुण्य बढ़ता है यही बनियावृत्ति है। लाभ-हानि समझे बिना दुकान कैसे चलाओगे? जिनके चरणों में पाप नहीं पलता उनके चरणों की पूजा से हमारा पाप कटता है। जो पाप में लीन रहता है वह अपने आप में लीन नहीं हो सकता। यदि सभी पाप से डरने लगें तो स्वर्ग यही आ जावेगा। यदि शत्रु से बचना चाहते हो तो पाँच पापों से बचो। जो आत्मा को पवित्र कर दे वह पुण्य और जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है। जब तक हम पुण्य का आस्रव नहीं करेंगे, तब तक यथाख्यात चारित्र को प्राप्त नहीं कर पायेंगे। पुण्य के कारण भूल भुलैया नहीं है भावों के कारण भूल भुलैया है। जो व्यक्ति देव पूजा को केवल बंध का कारण मानता है, वह घोर अंधकार में है और ऐसा उपदेश दूसरे को दे रहा है वह वज़मय पाप की लकीर खींच रहा है। पाँच पाप ही दु:ख हैं, अन्य कोई दु:ख नहीं हो सकता है। जो व्यक्ति दु:खी होता है वह साता का बंध नहीं कर सकता है।
  8. नेता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जो सही दिशा की ओर स्वयं चले और पीछे वालों को सहायक बने और पीछे मुड़कर नहीं देखता वह सही नेता है। महावीर भगवान स्वयं ही निकले थे स्वयं के नेता स्वयं थे। अपने को बनती कोशिश विचारों का स्थितीकरण करना आवश्यक है। वैचारिक स्थितीकरण करने का नाम नेतृत्व है। वैचारिक उपगूहन, वात्सल्य जो कर सके उसके पास नेतृत्व की क्षमता मानी जाती है। मुझे आवश्यक्ता है ऐसे नेता की। लेकिन अपनी तरफ से नेतृत्व चाहना नेतृत्व के गुण नहीं हैं। जिसके पास नेतृत्व है वह कर्तव्य की ओर देखता है नेतृत्व की ओर नहीं। नेतृत्व लिया नहीं जाता, नेतृत्व दिया जाता है। दिये जाने के बाद भी सामने वाला कहता है मेरे में कहाँ ऐसी क्षमता? आपको अगर क्षमता दिख रही है तो आप जाने, बाकी मैं अपने को इस योग्य नहीं समझता। ऐसी लघुता वाला ही नेतृत्व के योग्य होता है। जो स्वयं नेतृत्व में रह सकता है, रहता है वही नेतृत्व के योग्य हो सकता है। जो स्वयं नेतृत्व में नहीं वह स्वयं नेतृत्व सम्हाल नहीं सकता। गुणों की ओर जिसकी दृष्टि है उसके नेतृत्व को सम्भाला तो वश की बात है, लेकिन जिसकी अवगुणों की ओर दृष्टि है उसके नेतृत्व को सम्भालना बहुत कठिन कार्य है। जो न अपने मित्र पर, न अपने बन्धुओं पर, न अपने परिवार और न ही अपने मन पर विश्वास रखे वह राजा कहलाता है। जो राजा होता है धर्म ध्यान कम कर पाता है, पर वह धर्म ध्यान करने में सहयोगी होता है। सिंहासन बैठने के लिए नहीं सिंह की तरह चारों दिशाओं में अवलोकन और एक ही दहाड़ में ही सबको दुरुस्त कर देने के लिए है। कहाँ है ऐसा सिंह/नेता? अखबार में खबर छाप कर स्वयं बेखबर ही रहे यह ठीक नहीं है। सब लाभ पायें ये अच्छा है लेकिन स्वयं भी लाभ लेने का यतन करें। आज एक दूसरे की रक्षा करने के लिए कोई तैयार नहीं। जो रक्षा के लिए नियुक्त किये गये,वही भक्षक बनते चले जा रहे हैं। शाकाहार, धर्म-प्रभावना, संस्कृति का संरक्षण आदि करना चाहते हो तो मतदान का सही जगह, सही समय पर उपयोग करें। सही नेता वही है जो धर्म की रक्षा करे, स्वयं बना रहे धर्मात्मा और अन्य का भी सहयोग कर सके। हम डायरेक्ट सीनियर होना चाहते हैं। तब जूनियर कौन बनेगा? किन्तु यह एक सिद्धान्त है कि किसी भी क्षेत्र में डायरेक्ट हम सीनियर नहीं हो सकते। योग्यता के अनुसार हो सकते हैं। सिंहासन खाली पड़ जाये इसकी कोई चिंता नहीं, लेकिन सिंहासन पर कोई गलत व्यक्तित्व न चला (बैठ) जाये, इसकी चिंता रखनी चाहिए, राजा-महाराजा को। तभी जनता का संरक्षण संभव है। पीछे चलने वाला ये सोचे कि आगे वाला उसके अनुसार चले तो यह गलत है। पीछे वाले को ही आगे बढ़कर आगे वाले के अनुसार चलना पड़ेगा। लोकतंत्र जीवित तभी रहेगा जब विवेक के साथ नेतृत्व करने वाले को चुना जायेगा। नेतृत्व करने वाला अधर्मी, अदयालु हो तो धर्म भी समाप्त हो जायेगा। पिता का निधन तभी से जानो जब सात्विक धन समाप्त हो जाये।
  9. संसाररूपी महान् चक्की में सारा का सारा संसार पिसता जा रहा है, सुख की बाधा और दुख से भीति संसार के प्रत्येक प्राणी को है। फिर भी सुख की प्राप्ति और दुख का अभाव क्यों नहीं हो रहा है ? जिसने धर्मरूपी कील का सहारा लिया है, जिसने रत्नत्रय का सहारा लिया है, वह तीन काल में पिस नहीं सकता, क्योंकि केन्द्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में हमेशा घुमाव। सुख के साथ प्राप्त हुआ जो ज्ञान है वह दुख के आने पर पलायमान हो जाता है। कपूर के समान उड़ जाता है। एक दोहा रखा जा रहा है आपके सामने जो आप लोगों को ज्ञात है और कण्ठस्थ भी होगा - चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। पिता और पुत्र दोनों हवा खाने जा रहे हैं। दवा खाने नहीं (हँसी), चर्चा चल रही है। पिताजी आध्यात्मिक हैं, दर्शन का अच्छा ज्ञान और उम्र के लिहाज से तो वृद्ध हैं ही और जाते-जाते कहते हैं अपने पुत्र से कि देख ले बेटा! उस ओर जिस ओर मेरी अंगुली है यह चक्की जो चल रही है, यही दशा इस संसार की है। संसाररूपी महान् चक्की में सारा का सारा संसार पिसता जा रहा है सुख की बाधा और दुख से भीति संसार के प्रत्येक प्राणी को है, फिर भी सुख की प्राप्ति और दुख का अभाव क्यों नहीं हो रहा है? इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि बेटा-यह संसारी प्राणी संसार में ही रुलता रहा है। इसको दुख का अनुभव करना ही होगा क्योंकि दो पाटों के बीच में धान का दाना साबुत नहीं बच सकता। बेटा कहता है पिता जी जरा इस पर भी तो ध्यान दो, एक दोहा और भी तो सुनने में आता है चलती चक्की देखकर करत कमाल ठिठोय | जो कीले से लग गया मार सके नहिं कोय || पिता जी-यह कोई एकान्त नहीं है, यह कोई सिद्धांत/नियम नहीं है कि संसार के सारे के सारे प्राणी दुख का ही अनुभव करते हैं। कौन कहता है कि संसार के सारे जीव जन्म-मरण रूपी पाटों के बीच पिसते ही रहेंगे? जिसने धर्मरूपी कील का सहारा ले लिया है, जिसका जीवन ही धर्म बन गया है उसके लिए ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है दुनियाँ में जो मार सके, संसार में भटका सके। पिता जी इस रहस्य को हर कोई नहीं जानता और इस रहस्य को जानने की चेष्टा भी नहीं करता। इस संसारी प्राणी की क्या स्थिति है? तो आचार्य समन्तभद्र जी स्वयम्भू स्तोत्र में कहते हैं कि- विभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नाऽस्य लाभः । तथापि बालो भयकामवश्यो, वृथा स्वयं तष्यत इत्यवादी:॥ यह अज्ञानी प्राणी मृत्यु से डरता है किन्तु उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता और निरन्तर मोक्षसुख को चाहता है किन्तु उसकी प्राप्ति उसे नहीं होती फिर भी भय और काम के वशीभूत हुआ यह अज्ञानी प्राणी कष्ट सहता रहता है। वह कहता है पिता जी इन परिस्थितियों से वही डरता है जो इस रहस्य को नहीं जानता और वही इस संसार रूपी चक्की में पिसता रहेगा। इस रहस्य को जानने वाला ही इस संसार समुद्र से पार उतर सकता है। ऐसी कोई.कहीं से नौका नहीं आने वाली जो पार करा दे। कबीर और कबीर का पुत्र, नाम क्या है भैया? जब कोई अच्छा कार्य करता है तो आप कहते हैं कि वाह.आपने तो ' कमाल' कर दिया! कमाल कर दिया!! कमाल कर दिया!!! समझ में नहीं आता था मुझे इसका मतलब, अब ज्ञात हुआ कि जब पिता जी से भी आगे बढ़ जाता है बेटा, तब उसका नाम पड़ता है 'कमाल'। वह पिताजी से कैसे आगे बढ़ता है देख लीजिए आप, यदि आप भी उसके अनुसार कमाल करें तो आपका भी नाम हो जाएगा कमाल! लेकिन आप लोग कुछ कमाल का काम नहीं करते। वह कहता है पिता जी ऐसी बात नहीं है। यह जो चक्की का उदाहरण आपने दिया वह उदाहरणाभास है, दृष्टान्त जो दिया वह दृष्टान्ताभास है, कैसे है बेटा? उत्सुकता जाग्रत हुई कम से कम देख तो लिया जाए क्या कहता है? लेकिन ऐसी गहराई में पहुँचा दिया कमाल ने कबीर को। वाह बेटा! कमाल कर दिया तुमने ऐसा कह दिया उन्होंने-ऐसी दृष्टि दी मुझे कि संसार को सुखी कैसे बना दिया जाए, दुख का अभाव कैसे हो? तो कहीं भागने की आवश्यकता नहीं है उसी चक्की में रहिए लेकिन चक्की के चक्कर में मत आइए। आप लोग चक्कर में आ जाते हैं इसलिए पिस जाते हैं। उस ही चक्की में रहिए लेकिन कहाँ पर रहिए? आजकल चक्की तो है नहीं, क्या बताएं? आप लोग पीसते ही नहीं। एक बार देखा था, जिस समय छोटा था, जो चक्की चलाने वाला था, वह बीच-बीच में हाथ डालकर यूँ यूँ (हाथ का इशारा) करता था, मैंने सोचा धान तो डालता नहीं है और अँगुली डालकर यूँ-यूँ करता है, क्या ये भी कमाल कर रहा है? उसके अन्दर अंगुली ले जाने की क्या आवश्यकता थी? तो हमने पास जाकर देखा चक्की चल रही है और वह बीच-बीच में यूँ-यूँ करता था। यूँ-यूँ करते-करते जो धान के दाने वहां नहीं जा रहे थे रुके हुए थे तो अँगुली के माध्यम से वे चक्की के चक्कर में आ जाते और पिस जाते, हमने सोचा वाह भाई वाह! धान में भी कमाल है और इसकी अंगुलियों में भी कमाल है क्योंकि अपनी अँगुली तो सुरक्षित बचा लेता है। कील का सहारा जिसने ले लिया उसको कोई कह नहीं सकता कि तूपिस जायगा। चाहे हजार बार चक्कर क्यों न लग जाए। केन्द्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में हमेशा घुमाव रहता है, केन्द्र में द्रव्य का अवलोकन होता है। सुख और दुख यह सब अपनी-अपनी दृष्टि के ऊपर निर्धारित है। संसार में जितने जीव रहते हैं सभी को दुख होता है ऐसी बात नहीं है। ध्यान रखिये जेल में सबको दुख नहीं होता, जो कैदी हैं जिसने अपराध किया है, जो न्याय-नीति से विमुख हुआ है, जिसको जेल में बंद कर दिया है उसे ही दुख होता है किन्तु उस ही जेल में, उन्हीं सीखचों के अन्दर जेलर भी रहता है किन्तु उसको रंचमात्र भी दुख नहीं होता। उस जेलर को क्यों दुख नहीं होता? और कैदी को दुख क्यों? तो बंधन कैदी के लिए है जेलर के लिए नहीं। मजे की बात तो यह है कि कैदी फिर भी रात में आराम की नींद सो सकता है किन्तु रखवाली करने वाला जेलर सोता तक नहीं फिर भी खुश रहता है और प्रभु से यही प्रार्थना करता रहता है कि हे भगवन्! यह जेल कभी न छूटे इसमें हमारा दिन दूना-रात चौगुना विकास होता रहे किन्तु एक सुख का अनुभव कर रहा है और एक दुख का। इसका अर्थ यह हुआ कि सुख और दुख का अनुभव करने में कारण व्यक्ति की विचारधारा ही बनती है, मन की स्थिति के ऊपर ही आधारित है उसका संवेदन, बिना उपयोग के वह सुख और दुख संभव नहीं। समयसार में 'आचार्य कुन्दकुन्द देव' कहते हैं कि उपयोग की धारा जब भाव रूप में परिणत हो जाती है अर्थात् उन-उन पदार्थों की ओर अथवा कर्मफल की और वह जाती है, तो उस समय उस भाव के द्वारा कर्म का समार्जन हुआ करता है अन्यथा इन कर्मों को कोई बुला नहीं सकता। उदयमात्र बंध का कारण नहीं है किन्तु अपने अन्दर विद्यमान राग-द्वेष-विषय-कषाय एवं पर पदार्थों में ममत्व बुद्धि का होना ही बंध का कारण है। वस्तु बंध के लिए कारण नहीं है बल्कि उस वस्तु के प्रति हमारा जो अध्यवसान भाव है वही बंध का कारण है। संसार में रहना तो अपराध है ही किन्तु संसार में लीन होकर रहना और महा अपराध है। इस अपराध से छुड़ाने के लिए ही संत लोग हमारे लिए हितकारी मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं उनका जीवन, उनका साहित्य भी हमें एक नई दिशा नया बोध दे रहा है, यह सारा का सारा उन्हीं के परिश्रम का फल है।....कमाल हो गया कबीर को ज्ञान हो गया कि वस्तुत: बात सही है कि जिसने धर्मरूपी कील का सहारा ले लिया रत्नत्रय का सहारा ले लिया, तो वह तीन काल में पिसेगा नहीं, चक्की के चक्कर में आएगा नहीं। संसार में आवागमन करते हुए भी जिसने संयम का आधार ले लिया अब उसको भटकाने-अटकाने वाली तीन लोक में कोई शक्ति नहीं। दूसरी बात यह है कि जहाँ कहीं भी धर्मात्मा पुरुष चला जाएगा वहाँ जाने से पहले लोग स्वागत सत्कार के लिए खड़े रहेंगे और हाथ जोड़कर कहेंगे कि किधर से आ रहे हैं आप? आइये हम आपकी सेवा के लिए तैयार हैं, हमारी सेवा मंजूर कर हम सभी को अनुग्रहीत कीजिए। महान् पुण्यशाली, महान् धर्म के आराधक होने का यह परिश्रम है कि जहाँ कहीं भी धर्मात्मा चला जाये पग-पग पर उसकी पूजा हुआ करती है किन्तु जिसने धर्म का सहारा नहीं लिया ‘खाओ पीओ मौज उड़ाओ' वाली बात जिसके जीवन में है उसे तो कुछ समयोपरान्त पग-पग पर ठोकरें खाना पड़ेगी और अनंतकाल तक इसी संसार रूपी चक्की में ही पिसना पड़ेगा। असंयमी का जीवन महान् संक्लेशमय कष्टदायक होगा और एक समय ऐसी स्थिति आ जायेगी जैसी गर्मी के दिनों में होती है। छाया में आप बैठे हो आराम के साथ प्रवचन सुन रहे हो और यदि छाया नहीं होती तो क्या स्थिति होगी? ठीक वैसी ही स्थिति संयम के अभाव में संसारी प्राणी की होती है। ध्यान रखें संयोगवश कभी यह जीव देवगति में भी चला जाता है तो वहाँ पर भी संयम के अभाव में प्राप्त हुए इन्द्रिय सुखों के छूटते समय और अपने से बड़े देवों की विभूति को देखकर संक्लेश करता है जिस संक्लेश का परिणाम है कि उसका अध: पतन ही हुआ करता है और उसे दुख सहना पड़ता है। 'विषय चाह दावानल दह्यो, मरतविलाप करत दुख सह्यो' (छहढाला/पहली ढाल) जो सुख मिला है वह आत्मा के द्वारा किए हुए उज्ज्वल परिणामों का परिणाम है और जो दुख मिला है वह भी आत्मा के द्वारा किए हुए अशुभ परिणामों का फल है। यह संसार एक झील की भाँति है जो सुखदायक भी है और दुखदायक भी है। यदि नौका विहार करके झील को पार किया जाये तो आनन्द की लहर आने लगती है किन्तु असावधानी करने से सछिद्र नाव में बैठने से प्राणी उसी झील में डूब भी जाता है। इस बात को आप उदाहरण के माध्यम से समझ लीजिए, समय ज्यादा नहीं लेना है, बस थोड़े में ही कमाल करना है अब देख लीजिए आप एक व्यक्ति Underground में है, उसका पालन-पोषण शिक्षण सब Underground में हो रहा है Ground भी Underground में बने हुए थे। आना-जाना, खाना-पीना, सोना, उठना-बैठना सब Underground में ही होते थे। वहाँ पर सारी की सारी व्यवस्था वातानुकूल (एयर कण्डीशन) और मनोनुकूल (मन के अनुरूप) थी। उनके लिए प्रकाश की व्यवस्था कैसी थी? सूर्यप्रकाश और बिजलियों का प्रकाश सहन करने की क्षमता उनकी आँखें में नहीं थी, देखते ही ऑखों में पानी आ जाता था, इसलिए हीरा-मोती वगैरह से बने हुए रत्नदीपक का प्रबन्ध रहता था, रत्नदीपक के प्रकाश में ही जिनका जीवन पल-पल, पल रहा था, बाहरी वातावरण को सहन करने की शक्ति जिनके शरीर में नहीं थी और यदि छोटा सा सरसों का दाना भी बिस्तर पर आ जाए तो उन्हें रात भर नींद नहीं आती थी। मुझे समझ में नहीं आता कि वहाँ पर सरसों का दाना गया ही क्यों? लेकिन सुख की उत्कृष्टता दिखलाने के लिए कवियों ने भेजा है। यह ध्यान रखना उनका शरीर इतना कोमल था कि सरसों का दाना तो फिर भी ठीक है यदि मुझसे पूछा जाय तो मैं तो यही कहूँगा कि मखमल के जो बाल हैं वह भी चुभते होंगे उनको। इससे संबंधित एक बात और सुनाऊँगा बाद में।.उनको भोजन के लिए कमल पत्रों में रखे हुए चावल का ही भात बनता था और उसे भी वह एक-एक दाना चुगते थे क्योंकि अन्य विधि से भात बना दिया जाये तो उन्हें हजम नहीं होता था, पेट में दर्द हो जाता था। अब आगे और कमाल की बात सुनाऊँ कि वह इतने सुकुमाल थे कि यदि उनके सामने ककड़ी का नाम ले दिया जाये तो उन्हें जुकाम हो जाता था (श्रोता समुदाय में हँसी). खाने की बात तो बहुत दूर रही। इस प्रकार होते हुए उनका जीवन कैसे चल रहा था, भगवान ही जाने। उनकी माँ थी, पत्नियाँ भी थी, सब कुछ कार्यक्रम जैसा आपका चल रहा है वैसा ही चलता था। किन्तु समय ने पलटा खाया अब ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है उन्हें, जीवन के अन्दर एक किरण जाग्रत होती है, रत्नदीपक की किरणें तो मात्र बाहरी देश को आलोकित करती थीं, किन्तु भीतरी देश को प्रकाशित करने की क्षमता उनमें नहीं थी। अतः भीतरी देश को प्रकाशित करने के लिए ज्ञान की, वैराग्य की किरणें फूटती हैं। आत्मा के अन्दर उन किरणों ने कमाल कर दिया, जीवन की रूपरेखा ही बदल दी, अज्ञान अन्धकार समाप्त हो चुका, इसलिए रात्रि में वह चुपचाप उठता है, पत्नियाँ सोई हुई थी, इधर-उधर देखता है, रेशम की साड़ियाँ रखी हुई दिख जाती हैं, उन सभी को एकत्रित कर एक दूसरे से गाँठ बांध एक खिड़की से बांध देता है और बिना किसी से कहे साड़ियों के सहारे नीचे उतरना प्रारंभ कर देता है। जिसके पैर आज तक सीढ़ियों पर नहीं टिके आज वही रस्सी का Balance संभाले हुए है। एक साथ तो नीचे नहीं आए क्योंकि कार्य की पूर्णता क्रमश: हुआ करती है, ये सब क्रियायें कुछ समय को लेकर हुआ करती हैं, एक समय में नहीं हुआ करती। सभी कार्यों के लिए समय अपेक्षित रहता है बस केवल ज्ञान एवं वैराग्य जाग्रत होना चाहिए। प्रत्येक कार्य संपादित हुआ करते हैं और होते ही रहते हैं, असंभव कोई चीज नहीं है। एक उदाहरण छोड़ दिया था हमने! कौन-सा है. हाँ रत्न कम्बल, जिसे ओढ़ने-बिछाने के लिए खरीदा था जिसको खरीदने की क्षमता वहाँ के राजा की नहीं थी। इतना अमूल्य था वह जिसे देखकर उसकी कीमत सुनकर राजा कहता कि यदि इसे खरीद लूतो मेरा सारा का सारा भण्डार खाली हो जायेगा, ले जाओ इसको मैं इसे नहीं खरीद सकता। उस रत्न कम्बल को उसी नगर में रहने वाले सेठजी ने खरीद लिया और बेटा सुकुमाल को उपयोग करने दे दिया लेकिन वह दूसरे ही दिन कहता है कि पिताजी इसके बाल मुझे चुभते हैं। कोई बात नहीं बेटा इसको अब हम वापिस तो नहीं कर सकते अत: माता-पिता ने अपनी बहुओं (सुकुमाल की पत्नियों)के लिए जूतियाँ बनवा दी...। अब बोलिए आप! इनके सुख वैभव की पराकाष्ठा। इतना कोमल शरीर था किन्तु आज वही नंगे पैरों चला जा रहा है, पगतल लहूलुहान हो गए, कोमल-कोमल पगतल होने के कारण लाल-लाल खून बहने लगा, कंकर-काँटें चुभते जा रहे थे फिर भी दृष्टि नहीं उस तरफ और अविरल रूप से आत्मा और शरीर के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की अनुभूति करने के लिए कदम बढ़ रहे थे, बाहर की ओर दृष्टि नहीं है यदि है तो वह कहती है कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। चलिए मंजिल तक पहुँचना है और वह पगडंडी ढूँढ़ता-ढूँढ़ता एकाकी चला जाता है उस ओर जिस ओर से मांगलिक आवाज आ रही थी, जिस ओर अपना काम होना था। वीतराग मुद्रा को धारण करने वाले एक मुनि महाराज से साक्षात्कार हो जाता है। रागी और विरागी का अनुपम मिलन! वह भी वीतरागी बनने के अभिमुख हुआ है, पगतल से खून निकल रहा है फिर भी काया के प्रति कोई राग नहीं, आह की ध्वनि तक नहीं आ रही है ओठों तक.और भीतर में भी रागात्मक विकल्प तरंगें नहीं उठ रही हैं। वह सोच रहा है तीन दिन के उपरान्त तो इस शरीर का अवसान होने वाला है, बहुत अच्छा हुआ, मैं अन्त समय में तो कम से कम इस मोहनिद्रा से उठकर सचेत हो गया और महान् पुण्य के उदय से सच्चे परम वीतराग धर्म की शरण मिल गयी। अब मुझे कुछ नहीं करना है, आत्म कल्याण करने के लिए बस उस उपादेयभूत वीतरागता को प्राप्त करना है, जो कि इस संसार में सर्वश्रेष्ठ और सारभूत है। जिसकी प्राप्ति के लिए स्वर्गों के इन्द्र भी तरसते रहते हैं, जिस निग्रंथ दशा के माध्यम से केवलज्ञान की उत्पत्ति होने वाली है, अक्षय अनंत ज्ञान की उपलब्धि मुनि बनने के बाद ही होती है। इस शुद्धात्मा की अनुभूति के लिए हमें राग-द्वेष विषय कषाय इन सभी वैभाविक परणतियों से हटना होगा, तभी हम उस निर्विकल्पात्मक ज्ञानीपने को प्राप्त कर सकेंगे। उस ज्ञानी आत्मा की महिमा क्या बताऊँ - णाणी रागप्पजहो, सव्वदव्वेसु कम्म मज्झगदो। णो लिप्पदि कम रयेण दुखकष्ट्रुम मज्झे जहा कणयं॥२२९॥ अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरयेण दुख, कडूममज्झे जहा लोहं॥२३०॥ (समयसार/निर्जराधिकार) कितनी सुन्दर हैं ये गाथा। आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि ज्ञानी वह है जो कर्मों के बीच में, विषयों के बीच में रहता हुआ भी अपने स्वभाव में रहता है जैसे कीचड़ के बीच में स्वर्ण रहते हुए भी अपने गुण धर्म को नहीं छोड़ता, निर्लिप्त रहता हुआ सदा अपने स्वरूप में ही स्थिर रहता है। जगत-जगत में रहता है किन्तु वह ज्ञानी जगत में भी जगत (जागृत) रहता है; अपने आप में जागृत रहता है औरों को भी जगाता है। वह अपनी आत्मभक्ति में ही दौड़ता चला जाता है, भागता रहता है और स्वभाव में लीन हो जाता है। बाहरी भागना यह पर्याय दृष्टि का प्रतीक है और भीतर ही भीतर भागना, भीतर ही भीतर विहार करना यह यथाख्यात विहार, विशुद्धि संयम का प्रतीक है। वह अपनी आत्मा में ही विहार करता जा रहा है। कोई तकलीफ नहीं कोई परेशानी नहीं। देख लीजिए मुनि महाराज के मुख से वचन सुनकर दिगम्बर दीक्षा धारण कर लेता है। दीक्षा लेने के उपरान्त और क्याक्या होता है, अब देखेंगे आप कमाल की बात- अब सूत्रपात होता है मोक्षमार्ग का। उपसर्ग और परीषहों से गुजरने वाला ही मोक्षमार्गी होता है। आचार्य कुन्दकुन्द देव, आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने अपने अध्यात्म ग्रन्थों में लिखा है कि जो सुख के साथ प्राप्त हुआ ज्ञान है वह दुख के आने पर पलायमान हो जाता है, कपूर के समान उड़ जाता है और जो कष्ट-दुख परीषह झेलकर ज्ञान अर्जित किया जाता है वह अनुकूल-प्रतिकूल वातावरण में भी स्थायी बना रहता है। ध्यान रखो पौधे को मजबूत करना है, तैयार करना है, अंकुरित बीज का विकास करना है तो मात्र खाद पानी ही पर्याप्त नहीं है उसे प्रकृति के अन्य वातावरण की भी आवश्यकता रहती है। यदि आप सोचते हो कि बीज को छाया में बोने से अच्छी सुरक्षा हो जाएगी, किन्तु यह ध्यान रखना वह बीज अंकुरित तो होंगे लेकिन पीले-पीले हो जायेंगे, टी०बी० के मरीज जैसे उसमें खून नहीं रहता है, उसमें ओज नहीं रहता है, किन्तु वही बीज यदि खुले मैदान में वो दिया जाये, खाद पानी मिले, सूर्य प्रकाश भी मिले तो वह पीला नहीं हरा-भरा रहता है। और वह सूर्य की प्रखर किरणों से दावे के साथ कहता है मेरे पास अब वह हिम्मत है कि मैं तुम्हें सहन कर सकता हूँ और तुम्हें पचाने के उपरान्त हमारा विकास ही होगा, विनाश नहीं। इसलिए जिस प्रकार पौधे को पुष्ट बनाने के लिए, हरा-भरा बनाने के लिए कठिनाइयों से गुजरने की आवश्यकता पड़ती है ठीक उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र को पुष्ट बनाने के लिए उपसर्ग और परीषहों से गुजरने की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान में विकास, ज्ञान में निखार एवं मजबूतपना चारित्र के माध्यम से आता है। आज तक ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो उपसर्ग और परीषह को जीते बिना केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध परमेष्ठी बन गया हो। महाराज भरत चक्रवर्ती को तो सिद्ध पद प्राप्त हुआ है। भैया! ग्रन्थ खोलकर देखिए तो मालूम पड़ जायेगा कि मुनि बने बिना तो उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है। पर हाँ.यह बात जरूर है कि उन्हें अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त हो गया लेकिन अल्पकाल होकर के भी छट्टा-सातवाँ, छट्टा-सातवाँ, सहस्त्रवार गुणस्थान परिवर्तित होता है यह आवश्यक है। आराधना के बिना संभव नहीं है, अल्पकाल हो या चिरकाल किन्तु आराधना के बिना आत्मा का उद्धार होने वाला नहीं है। संयम को धारण करके कोमल-कोमल काया वाला वह सुकुमाल दीक्षित होकर जंगल में चला जाता है। ध्यान में एकाग्रचित होकर खड़े हो जाते हैं किन्तु पूर्वजन्म के बैर से बंधी हुई उसकी भावज रास्ते में पड़े हुए खून के दाग सँघती हुई उसी स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ पर मुनिराज सुकुमाल स्वामी ध्यान मग्न थे। उनके असाता कर्म के तीव्रोदय से एवं स्वयं वैर के वशीभूत होकर उस स्यालिनी को क्रोध आ गया और वह झपट कर बच्चों सहित मुनिराज की काया को विदीर्ण करने लगी, खाने लगी, उसके साथ उसके छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। "एक स्यालनी जुग बच्चायुत पाँव भखयो दुखकारी।" (समाधिमरण पाठ) बड़ा वाला समाधिमरण पाठ है उसमें बहुत अच्छा विश्लेषण है उपसर्गों का और उन उपसर्गों को सहन करने वाले मुनियों के नाम भी दिए हैं। तो उस समय सुकुमाल मुनि और उनके दोनों पैरों को वह स्यालिनी खाना प्रारंभ कर देती है। अभी-अभी उदाहरण दिया गया था कि उन महाराज जी को चीटियाँ काट रही थी, वो महाराज जी तो हट्टे-कटे होंगे लेकिन हमारे महाराज तो भैया!. कमाल की बात है सुकुमाल की बात है और दूसरी बात यह है कि वहाँ पर चीटियाँ खाती थी किन्तु यहाँ पर स्यालिनी खाती है और वह भी जुग बच्चा युत। तीसरी बात यह है कि वहाँ पर चीटियाँ घी खाती थी और यहाँ पर घी नहीं खाती, Direct (सीधे) अन्दर जो मांसपेशियाँ हैं उन्हें अपना भोजन बना रही हैं। इस प्रकार तीन दिन तक अखंड उपसर्ग चला जो अपवर्ग का सोपान माना जाता है स्वर्ग का तो है ही। जिसके द्वारा स्वर्ग और मोक्ष के कपाट खोले जाते हैं। ....धन्य है वह जीव जिसको सरसों का दाना चुभता था, सूर्य प्रकाश को भी सहन करने की क्षमता जिनकी आँखों में नहीं थी और जिसमें यह बल नहीं था कि वह मोटे-मोटे चावलों से बने भात को खा सके और उन्हें पचा सके और वही संहनन वही काया सब कुछ वही, क्योंकि एक बार प्राप्त होने के उपरान्त जीवनपर्यन्त संहनन बदलता नहीं उसमें कोई Change नहीं, कोई गया, यह भीतरी अंतर है परिणामों की बदलाहट है। भीतरी गहराई में जब आत्मा उतर जाता है तब किसी प्रकार का बाहरी वातावरण उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता। "आचार्य वीरसेन" स्वामी ने एक स्थान पर कहा है कि जब एक अनादिकालीन संसारी प्राणी मिथ्यात्व से ऊपर उठने की भूमिका बनाता हुआ उपशमकरण करना प्रारंभ करता है तो ध्यान रखो। उस समय तीन लोक की कोई शक्ति उस पर प्रहार नहीं कर सकती, किसी भी प्रकार के उपसर्ग का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला और उपसर्ग की स्थिति में भी उसकी मृत्यु तीन काल में संभव नहीं है। यह सब माहात्म्य आत्मा की विशुद्धि, भीतरी परिणति का है। आत्मानुभूति के समय बाहर कुछ भी होने दीजिए किन्तु अंदर बसंत बहार चलती रहती है। कुछ लोग काश्मीर जाते हैं, कुछ लोग धूप का चश्मा पहनते हैं, मान लीजिए किसी को यह साधन नहीं मिला तो हम कहते हैं कि भीतरी वस्तु का विचार करिए और शिखर के ऊपर जाकर बैठ जाइये, जेठ की तपती दुपहरी हो तो भी वहाँ पर काश्मीरी तलहटी से कम नहीं.! उससे भी अधिक बसंत बहार बहना प्रारम्भ हो जायेगी। यह धारणा का ही परिणाम है, आस्था/विश्वास का ही परिणाम है। जिस भावना का प्रभाव जब दूसरे पर पड़ सकता है यहाँ तक कि जड़ पदार्थ पर भी पड़ सकता है.तो फिर क्या चेतन आत्मा के ऊपर प्रभाव नहीं पड़ सकता? धन्य है वह एकत्व की भावना, वह भावना कैसी थी - अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदा रूवी। णवि अत्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि॥ (समयसार/४३) धन्य है Underground में रहने वाले आज चौपात पर हैं, शिलाओं पर हैं। आज स्यालिनी के द्वारा शरीर खाया जा रहा है,लेकिन वह भाग्यशाली भीतर से बाहर नहीं आता। देखा तक नहीं कि स्यालिनी कुछ कर रही है। यदि छठे गुण स्थान में आ भी जाते हैं तो कहते हैं कि तेरी खुराक तू खा ले, मेरी खुराक मैं खा रहा हूँ। धन्य हैं वे. क्या परिणाम हैं? मैं सोच रहा हूँ कि आप तो उनसे अधिक बलवान हैं, उनको तो पसीना जल्दी आ जाता था लेकिन आप तो.यहाँ पर डेढ़ घण्टा हो रहा है और ज्यों के त्यों बैठे हुए हो, आसन में फर्क नहीं आया, यह बात अलग है कोई जगह नहीं मिलने से नहीं बदली है। परिणामों की विचित्रता है, अपने परिणामों को शरीर से पृथक् कर आत्मा की ओर तो कम से कम कर लीजिए। आप प्रवचन सुनते हैं, भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं स्वाध्याय भी करते हैं लेकिन इसका धर्म क्या ? इसका अर्थ क्या है? यह किस प्रकार के भावों से किया जाए? यदि आप इस क्रिया को विशुद्धता पूर्वक संकल्प लेकर के करते हो तो असंख्यातगुणी निर्जरा एक सैकेण्ड में कर सकते हो। वह सम्यग्दृष्टि जीव आठ मूलगुणों का पालन कर सकता है। बारह व्रतों को ग्रहण कर सकता है और आठ वर्ष की उम्र से लेकर पूर्व कोटि वर्ष तक पालन कर सकता है। इस प्रकार जीवनपर्यन्त निर्दोष व्रतों का पालन करते रहने से उस असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशव्रती तिर्यच-मनुष्य की असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा प्रतिसमय होती रहती है। किन्तु समस्त पूर्ववर्ती आचार्यों ने तो असंयत सम्यग्दृष्टि के लिए यही कहा है कि उसकी गुणश्रेणी निर्जरा तो सिर्फ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति काल में ही हुआ करती है अन्य समय में नहीं।. सामान्य निर्जरा का होना अलग बात है। गणेशप्रसादजी वर्णी कहा करते थे, देखो! ध्यान रखो कोई असंयत सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती है और वह भी सामायिक कर रहा है लेकिन उससे भी अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा एक मामूली तिर्यञ्च जो घासोपयोगी है उसकी हुआ करती है। बड़ा अच्छा शब्द प्रयोग किया है वर्णीजी ने ‘घासोपयोगी' अर्थात् सिर्फ घास खाने में जिसका उपयोग है वह चक्रवर्ती से भी असंख्यात गुणी निर्जरा कर सकता है, यह किसका परिणाम है तो आचार्य कहते हैं कि यह देश संयम का परिणाम है क्योंकि तिर्यञ्च देश संयम से ऊपर उठने की सामथ्र्य नहीं रखते हैं। सकल संयम पालन करने की योग्यता मनुष्य पर्याय में ही संभव है। सकल संयम धारण करने से क्या होगा?. तो जिस समय वह अणुव्रती सामायिक में बैठा है चाहे महान् उपसर्ग को सहन करने वाला वह सुदर्शन सेठ क्यों न हो और एक मुनिराज या तो शयन कर रहे हैं या भोजन कर रहे हैं या फिर किसी शिष्य को डाँट रहे तो भी उनकी उस सामायिक में लीन देशव्रती से असंख्यात गुणित निर्जरा होती है। मैं पूछना चाहता हूँ शयन के समय, भोजन के समय, शिष्य को डाँटते समय में भी असंख्यातगुणी निर्जरा!. हाँ भैया! दुकान कौन सी है देख लो। जिस प्रकार कई वर्षों के उपरान्त भी जौहरी की दुकान में ग्राहक आ जाने से दोनों (ग्राहक और दुकानदार) मालामाल हो जाते हैं, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में भी। सामान्य दुकानदारों की तरह उस जौहरी की दुकान में उठक-बैठक नहीं हुआ करती है, ग्राहक के लिए भी बढ़िया गद्दी तकिया बैठने के लिए मिल जाती है, नौकर चाय-पान लाता है, बाद में अपना कीमती नग दिखाया जाता है, साइज में बहुत छोटा होता है, हाथ से उसे छू नहीं सकते.केवल दूर से ही देख सकते हैं फिर भी उसकी कीमत क्या है ? एक लाख .....दो लाख....तीन लाख इतनी अधिक होती है | "हाँ हीरा मुख से कब कहे लाख हमारा मोल"| बस उसके ऊपर जैसे जैसे पहलू निकलते चले जाते हैं, वैसे-वैसे उसका मूल्य बढ़ता चला जाता है। जिस प्रकार पंखे की हवा में बैठे रहने वाले उन हीरे-जवाहरात के व्यापारियों के लिए १ मिनट में करोड़ों की आमदनी हो जाती है बिना पसीना बहाए, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में भी जैसे-जैसे एक-एक गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे विशुद्धि बढ़ने के कारण असंख्यात गुणित कर्मों की निर्जरा बढ़ती जाती है। प्रशस्त पुण्य प्रकृतियों का बंध होता जाता है, परिश्रम कम होता जाता है एवं लाभ अधिक बढ़ता जाता है। इसी प्रकार से एक-एक लब्धिस्थान बढ़ाते हुए मुनिराज सुकुमाल स्वामी कायोत्सर्ग में लीन थे। कायक्लेश तप भी एक महान् तप माना गया है किन्तु उन आत्मध्यानियों के लिए क्या कायक्लेश, उनका तो आत्मचिंतन चल रहा था, बाहर क्या हो रहा हैं पता भी नहीं था। बुन्देलखण्डी भाषा में काय अर्थात् क्या है क्लेश, तो कुछ भी नहीं है। क्लेश तो Underground में था यहाँ आने पर अब कुछ भी नहीं है। आप आगम के हर पहलुओं पर चिंतन करके देखेंगे तो ज्ञात होगा कि जो आभ्यन्तर तप के अलावा कायक्लेश आदि बाह्य तप है वह भी कर्म-निर्जरा कराने में कारण है। वह प्रवृत्ति, वह बाह्य तप भी शुभोपयोगात्मक है जो शुभोपयोग बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा कराता है और परम्परा से मोक्ष का कारण है किन्तु साक्षात् कारण तो शुद्धोपयोग ही है लेकिन यह बात भी ध्यान रखना उस शुद्धोपयोग का उपादान कारण तो शुभोपयोग ही है। सम्यग्दृष्टि साधक की जो कायक्लेश के माध्यम से निर्जरा होती है उसे वह क्लेश के रूप में नहीं देखता। छहढाला की वे पंक्तियाँ याद करने योग्य हैं उन्हें पुन: ताजा कर लीजिए। "आतम हित हेतु विरागज्ञान ते लखे आपको कष्टदान।" (छहढाला/दूसरी ढाल) जो मिथ्यादृष्टि हैं जिसकी बाहरी दृष्टि है वह वीतराग विज्ञान को क्लेश की दृष्टि से देखा करता है किन्तु सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु प्राणी निर्जरा तत्व की ओर देखता है तब कहीं जाकर उसकी आमदनी ज्यादा होने लगती है। बंधुओ! अब आप लोगों को भी इस प्रकार की दुकान खोलना चाहिए। जिसमें आराम के साथ बैठे-बैठे काम कम करना पड़े और माला-माल हो जाए किन्तु आप लोग तो तेल, नोन, लकड़ी रखने वाले किराने की दुकान वाले हैं, जिसमें कालीमिर्च धनिया, जीरा बेचते रहते हैं। पाँच-पाँच पैसे के लिए बार-बार उठते-बैठते रहते हैं, कोई ग्राहक आता है मान लो आपकी उम्र से बहुत कम उम्र वाला एक छोटा सा लड़का आया है पाँच पैसे लेकर, वह कहता है एक पैसे का तो गुड़ दे दो और एक पैसे का कुछ और दे दी. बाकी पैसे वापिस कर दो। तो उसमें भी आप उठक-बैठक करेंगे, दस बार हाथ धोयेंगे और वह भी ठंड के समय पौष माह में (श्रोता समुदाय में हँसी) भले ही हाथ ठिठुर जाए और उसे ठीक करने में पैसे खर्च हो जायें। यह स्थिति आप आपकी दुकान से सेठ-साहूकार बनना मुश्किल है, आपकी दुकान में डेढ़ गुनी हानि वृद्धि का क्रम चलता रहता है। वह क्रम तो ऐसा होता है कि जैसा का तैसा ही रहता है उसमें वृद्धि नहीं होती तो इस प्रकार की हीन विशुद्धि वाले व्यापारियों को केवलज्ञान तीन काल में हो ही नहीं सकता, इसलिए संयम यह कहता है कि एक सैकेण्ड में करोड़ों की आमदनी। इसको कहते हैं वीतराग विज्ञान का फल जो सुकुमाल स्वामी को प्राप्त हुआ, उनके द्वारा मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए एक आकस्मिक प्रयोग किया गया, जो सफल हुआ। जिसे प्राप्त करने उनकी एक धारणा थी, भावना थी, यह एक साधना का ही परिणाम था जो उत्तरोतर बढ़ता चला गया। और ऐसे महान् उपसर्ग को जीतकर उन्होंने सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया एवं अल्प समय में ही मोक्ष सुख प्राप्त करेंगे। इसी प्रकार की साधना एवं लक्ष्य बनाकर मंजिल की प्राप्ति के लिए कम से कम समय में विशेष कार्य करें। ज्ञान को साधना के रूप में ढालकर अध्यात्म को अपने जीवन में लाने का प्रयास करें। उसी परम आहलादकारी अध्यात्म को आत्मसात करें। तब कहीं जाकर आपका सुकुमाल जैसा कमाल का काम हो सकता है। ....सुकुमाल स्वामी की यह कथा बार-बार अपने चिंतन में लाओ क्योंकि आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि भैया! शुद्धोऽह, बुद्धोऽहं तो बहुत जल्दी चौपट हो जाता है। इसलिए उसको स्थिर बनाने के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन करना जरूरी है। प्रथमानुयोग का स्वरूप आचार्य समन्तभद्र जी ने स्नकरण्डक श्रावकाचार' में बताते हुए कहा है... प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि समाधि निधानं बोधति बोधः समीचीनः॥ महापुरुष की कथा, शलाका पुरुषों की जीवन गाथा, गाता जाता बोधि विधाता, समाधि निधि का है दाता। वही रहा प्रथमानुयोग है परम-पुण्य का कारक है, समीचीन शुचि बोध कह रहा, रहा भवोदधि तारक है॥ (रयणमंजूषा) एक पुरुष के कथानक को चरित्र कहते हैं। अनेक पुरुषों के कथानकों के वर्णन करने को पुराण कहते हैं। जो आज तक नहीं प्राप्त हुए ऐसे सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति को बोधि कहते हैं और प्राप्त हुए स्नत्रय की भलीभाँति रक्षा करते हुए उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि करने को समाधि कहते हैं। धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान भी समाधि कहलाते हैं। इस प्रकार पुण्यवर्धक चरित्र और पुराणों को तथा धर्मवर्धक बोधि-समाधि के वर्णन करने वाले शास्त्रों को प्रथमानुयोग कहते हैं। प्रथमानुयोग ग्रन्थों का अध्ययन जो कि बोधि-समाधि के निधान हैं, ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि में सहायक होता है, ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि आत्मोपलब्धि में सहायक है। अत: आत्मोपलब्धि के इच्छुक मुमुक्षुओं को प्रथमानुयोग का अध्ययन करना चाहिए ।
  10. निश्चय-व्यवहार विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आध्यात्मिक जीवन की ओर निरंतर अग्रसर होने के लिए अनासक्त भाव ही आधार हैं/स्तंभ हैं क्योंकि सांसारिक प्राणी मूर्च्छा के भंवर में पड़कर अपना बहुमूल्य जीवन व्यर्थ ही गवा देता है। अत: यह आवश्यक है कि आपके पास कितना ही वैभव एवं सम्पन्नता रहे आप उस सबसे अपनी मूर्च्छा अपने मोह भाव त्यागें और आकिंचन्य की ओर पग बढ़ायें। भले ही हम अनेकान्तवाद के उपासक हैं लेकिन ये एकान्त है कि एकांत में ही अकेले की मुक्ति होगी वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा वहाँ भी अपने को अपने आप ही का अनुभव करना पड़ेगा तनिक भी किसी दूसरे का अनुभव नहीं होगा। निश्चयनय ढाल है, आत्मा की सुरक्षा करता है और व्यवहारनय तलवार है जो दूसरों को फेंकता है। व्यवहारनय का अर्थ है-विश्व कल्याण। निश्चयनय का अर्थ है-आत्म कल्याण। यदि व्यवहारनय को नहीं मानोगे तो तीर्थ का उच्छेद हो जायेगा और निश्चयनय को नहीं मानोगे तो आत्मा का कल्याण नहीं हो सकेगा।
  11. निमित्त उपादान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार निमित्त भले ही जोरदार हो पर उपादान जोरदार नहीं तो समझो कुछ नहीं। सभी निमित्त जोरदार ही हो ऐसा नहीं। तीर्थंकर ने जिस तिथि में दीक्षा ली उसी में अन्य राजाओं ने दीक्षा ली, तिथि तो पावरफुल है देखो तो सही लेकिन उसमें कोई सफल हो गया कोई विफल। किसी दूसरे की कुण्डली तिथि अपने काम में नहीं आती। अपने उपादान की ओर ध्यान दो, ये सब बाह्य सहयोगी हैं। जो व्यक्ति निमित्त में आरोप लगायेगा उसका मोक्षमार्ग डगमगायेगा। जितने हम निमित्त की ओर टूटेंगे उतना ही संक्लेश परिणाम होगा। निमित्त की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देना है क्योंकि जब असाता का उदय होता है तब जो हमारे द्वेषी हैं वो ही निमित्त बनते हैं, मित्र नहीं। यदि मित्र निमित्त बने तो असाता का उदय भी नहीं रहेगा। समवसरण में देव जाते हैं लेकिन उनके (प्रभु के) चरणों में रहने पर भी देवों को क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता। उनके पास उपादान की कमी है इसलिए नहीं होता जिसके पास जितनी पात्रता है वह उतना ही पाता है। अधिक नहीं। दूसरों की कोई गलती नहीं है अपने कर्म पर जो विचार करता है उसी का नाम त्यागी है। निमित्त को देखने से कषाय जागृत हो जाती है इधर उधर न देखकर अपनी गलती देखो। सीता को देखो गृहस्थ में रहकर भी उसने कभी किसी को दोष नहीं दिया। सीता का पुरुषार्थ देखो कि रावण को भी दोषी नहीं ठहराया, राम को भी नहीं। वह तो ये कहती थी कि मेरे कारण राम को दु:खी होना पड़ा। निमित्ताधीन नहीं स्वाधीन बनो स्व के अधीन। अन्तर्मुखी होना चाहिए। निमित्ताधीन दृष्टि नहीं रखना चाहिए। जो व्यक्ति निमित्त पाकर भी अपने उपादान को जागृत नहीं करता वह अभी निमित्त-उपादान के वास्तविक ज्ञान से विमुख है। बाहरी निमित्त को भुला करके वास्तविक निमित्त जो हमारा कर्म है उसकी ओर आना ही एक मात्र शांति का रास्ता है। पल-पल हमें उसी का फल मिलता रहता है। निमित्त में कार्य नहीं हुआ करता, कार्य तो उपादान में ही होता है लेकिन निमित्त के बिना उपादान का कार्य रूप परिणाम भी न हुआ और न कभी होगा। दीपक में यदि तेल भर दिया पर बत्ती सारी जल गई है अथवा बत्ती ठीक है पर तेल छानकर नहीं भरा है, तब भी बत्ती नहीं जलेगी। अत: अंतरंग तथा बहिरंग निमित्त कारणों के होने पर ही कार्य पूरा होता है। निमित्त की ओर देखते हुए हमारी दृष्टि उपादान की ओर रहना चाहिए तब ही वह सामने वाला निमित्त हमारे उपादान को प्रेरणा का स्त्रोत हो सकता है। आदिनाथ भगवान मारीचि के पीछे नहीं पड़े समझाने का व्यर्थ पुरुषार्थ नहीं किया क्योंकि वो तो जानते थे इसलिए निमित्त में उलझने की कोशिश नहीं की थी।
  12. निमित्त विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार सीता, अंजना, चंदनबाला, अनंगसरा आदि सतियों को देखो इन्होंने असंयमी होकर भी निमित्त को दोष नहीं दिया। सीता को देखो उसने राम तो क्या रावण तक को दोष नहीं दिया। मेरा रूप ही दोषी है। हमारे दु:ख कोई दु:ख नहीं उन सतियों के दु:ख को देखो। असंयमी होते हुए भी उन पर दु:ख के पहाड़ टूट गये पर निमित्त को दोष नहीं दिया उन्होंने। निमित्त को दोष नहीं देना। एक ये ही साधना सही साधना है। जो उलझे हुए होते हैं, मैं उन्हें ये हाइकू दे देता हूँ- ‘राम, रावण, सीता क्या थे क्या होंगे,रामायण है।' कुन्दकुन्दाचार्य की गाथाओं को कब काम में लोगे? काम में लेंगे तो वो भी कृतार्थ होंगे कि मेरा शिष्य उन्हें काम में ले रहा है।
  13. धर्मध्यान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार धर्म ध्यान बहुत दुर्लभ है। स्वाश्रित है तो भी निमित्त दृष्टि होने से ये दुर्लभ होता जा रहा है। उपादान की ओर दृष्टि रखें। कर्मोदय की ओर दृष्टि रखें तो धर्मध्यान सहज सुलभ हो जायेगा। ज्यादा नाता रिश्ता हो जाये तो धर्मध्यान नहीं हो पायेगा। नाते रिश्ते से बच कर रहो धर्मध्यान करना है तो। दूसरों के निमित से आर्त्तध्यान नहीं करना चाहिए। आर्त्तध्यान रौद्रध्यान से बचने का पुरुषार्थ ही धर्मध्यान है। आर्त्तरौद्र ध्यान के साधनों से बचने का प्रयास करना चाहिए। धर्म ध्यान खेल नहीं लेकिन ज्ञानी के लिए यह बांये हाथ का खेल है। जो जो धर्मध्यान कर रहा है वह हमारा सहयोगी बन रहा है, हमारे शासन का सहयोगी बन रहा है। जो कोई भी धर्मध्यान करता है उससे मैं बहुत प्रसन्न रहता हूँ। उसी से प्रभावना होती है। उसी से संघ में समाज में खुशबू फेलने की भाँति वातावरण अच्छा बनता है। हम धर्मध्यान दूसरे के लिए नहीं कर रहे हैं अपने लिए कर रहे है चाहे रोग सहन करें, चाहे अन्य कोई कार्य करें इसमें दूसरों की कोई कमी मत देखो। हओ हाँ कहना सीखो इसी में धर्मध्यान है, इसी में कल्याण है अन्यथा किसी का धर्मध्यान नहीं हो सकेगा। जितना बड़ों को निर्विकल्प रखोगे उतना धर्म ध्यान होगा। गिरता हुआ है यह काल उसी में कुछ करना है। किसी भी बात को पहले बड़ों से कह दो एकदम निर्णय करना अच्छा नहीं है। बड़ों को विचार करके कहना पड़ता है। निष्प्रयोजन कोई भी चीज अपने पास नहीं रखना ये रौद्रध्यान के आइटम है उनका संरक्षण करना करवाना। ये सब रौद्रध्यान का विषय है। बनती कोशिश इन सब चीजों को टालने का प्रयास करना चाहिए। इन सबसे बचेंगे तब कहीं धर्मध्यान में लग पायेंगे। विपाक विचय धर्मध्यान के साथ जीना सीखो। देखो सीता के कर्म का उदय सास, माँ, पिता, भाई आदि किसी ने भी साथ नहीं दिया। ऐसा चिंतन करके अपने मन को शांत करना चाहिए। सीता ने कर्मोदय समझकर जीवन जिया। धर्मध्यान करना है तो जन संपर्क छोड़िए। जितना अनुशासन पक्का होगा उतना ही धर्मध्यान होगा। स्वास्थ्य खराब हो जाता है उस समय धर्मध्यान छूट जाता है तब मालूम पड़ता है। जब स्वास्थ्य अच्छा रहता है तो सब धर्मध्यान करना भूल जाते हैं इसलिए जब स्वास्थ्य अच्छा रहता है तो अच्छे से धर्मध्यान कर लेना चाहिए। अपने लिए जिससे धर्म साधन हो वह कार्य करना चाहिए। धर्मध्यान का उद्देश्य कभी भूलना नहीं चाहिए। कर्म का उदय आता है तब विचार करना कि भाग्य के अनुसार मिलता है यह विपाक विचय धर्मध्यान है। बस इतना करोगे तो विकल्प नहीं होगे। इस विचार से एक कर्मों की निर्जरा कर रहा है, एक नवीन कर्मों का बंध कर रहा है मोती चुगो कोई मना नहीं करेगा। पर की वेदना को देखकर रोना धर्मध्यान है और अपने स्वार्थ के लिए रोने को आचार्यों ने रौद्रध्यान कहा है। पर की पीड़ा को देखकर दु:खी होने वाले को धर्मप्रेमी कहा जाता है। धनप्रेमी दूसरों के लिए नहीं रो सकता। अपने दु:ख को भूलकर रहने से आर्त्तध्यान से बचा जा सकता है और पर के दु:ख में दु:खी होकर रक्षा करने से धर्मध्यान होता है। दूसरों के धर्मध्यान में बाधक नहीं बनना चाहिए। आर्त रौद्रध्यान तो मुफ्त मिलते हैं, लेकिन धर्मध्यान प्रयास से बहुत कम मिलते हैं खदान में एक हीरे की कणिका जैसा। यदि दृष्टि में वासना न हो तो धर्मध्यान में सहयोग देने के लिए ही विवाह होते हैं। पुराण ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि विवाह वासना पूर्ति के लिए नहीं होना। विवाह वासना को सीमित करने एवं धर्म संतान परंपरा के लिए है। अपने बारे में सोचो, अपने अनर्थों के बारे में सोचो दूसरों के भले के बारे में सोचो यह अपायविचय धर्मध्यान है। दूसरे के बुरे के बारे में सोचना दुध्यान है। रोओ पर दूसरे के दु:ख को देखकर दूसरे की समृद्धि देखकर नहीं। संसार के बाजार में धर्मध्यान मिलना कठिन है रौद्रध्यान तो मुफ्त में मिलता है। जिससे ममत्व हो, खतरा हो, रौद्रध्यान हो उससे ममत्व छोड़ दो। कर्मकाण्ड को मुखाग्र करने से कुछ नहीं होगा कर्म का उदय हमारा ही है ये विपाक विचय धर्मध्यान है। अपने किए हुए अनर्थ के बारे में सोचकर रोओ, प्रतिकूलता के बारे में सोचकर मत रोओ तो वह धर्मध्यान हो जायेगा। अपने किए हुए जो अनर्थ है और उसके द्वारा जो पाप बंध हो गया, भगवान् वो कब ठीक होगा? कैसे दूर होगा? कैसे धुलेगा? ऐसा सोचना भी अपायविचय धर्मध्यान होगा। हमें तो धर्मध्यान के लिए कुछ न कुछ अवसर मिल रहा है लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं जिनके लिए कोई अवसर नहीं मिल पाते हैं, उन्हें भी धर्मध्यान का अवसर प्राप्त हो उनका दु:ख दूर हो इस प्रकार से सोचना ये बहुत अच्छा धर्मध्यान माना जाता है। संयोग-वियोग होते रहते हैं लेकिन जब तक संयोग बना रहता है तब तक धर्मध्यानमय जीवन व्यतीत करना चाहिए। करोड़ों बार स्रोत पढ़ने के बाद भी भक्त्तामर का अखण्ड पाठ जीवन पर्यन्त भी करोगे तो भी उतना फल नहीं मिलेगा जितना कि आप पाँच मिनट बैठकर सब जीव सुख का अनुभव करें, इस प्रकार के धर्मध्यान करने से पा सकते हैं। बाहर की ओर चेतना नहीं जाने देना यही आकिंचन्य धर्म है, बाकी तो मात्र अभिनय है। जब तक तेरा मेरा लगा है तब तक आकिंचन्य को नहीं अपना सकता है जो इनको छोड़कर अपने आप में तल्लीन होता है, वह आकिंचन्य धर्म को अपनाता है। संयोग वियोग में आर्तरौद्र ध्यान होता है और योग में धर्मध्यान होता है। संयोग के दु:खों से वियोग कराने वाला योग होता है। जो परमात्म से मिला दे वह योग है। चिंता को आर्त्तध्यान कहा है और चिंतन को स्थिरता का अभाव कहा है। अपने लिए तो सब रोते है लेकिन जो रो रहा है उसके लिए रोने वाले कम हैं उस पर रोओ दूसरों के लिए रोओ तो अपाय विचय धर्मध्यान हो जायेगा। ये तो हम करते नहीं। सराग और वीतराग धर्मध्यान बताया है आगम में ये धर्मध्यान करो। ब्रेन को शांत रखो बिल्कुल फ्रिज जैसा ठण्डा रखें। माइंड से कम काम लो। माइंड से उतना ही काम लेना जितनी क्षमता है जबरदस्ती नहीं। माइंड लगाओ अपायविचय धर्मध्यान में, विचारों से यदि सबका कल्याण हो सब सुखी हों यह सोचे तो बहुत अच्छा है। आर्त्तध्यान रौद्रध्यान की पहचान कराओ उसे छुड़ाओ, फिर धर्मध्यान का शिविर लगाओ। मोक्षमार्ग में आर्त रौद्र ध्यान न हो यह ध्यान रखो। धर्मध्यान क्या है? आर्त-रौद्र नहीं करना बस। धर्मध्यान न हो कोई बाधा नहीं लेकिन आर्त्तध्यान की पहचान कर लो आर्त-रौद्रध्यान की कमी करना भी धर्मध्यान की ओर है। आर्त रौद्रध्यान कम करते जायें और साथ ही जो धर्मध्यान कर रहे हैं उनकी प्रशंसा करना प्रारम्भ कर दीजिये। धर्मध्यान करना नहीं आता ऐसा नहीं जब आर्त्तध्यान कर सकते हो तो धर्मध्यान भी कर सकते हो ।
  14. स्व की ओर आने का कोई रास्ता मिल सकता है तो देव-शास्त्र-गुरु से ही मिल सकता है, अन्य किसी से नहीं। हम जैसे-जैसे क्रियाओं के माध्यम से राग-द्वेषों को संकीर्ण करते चले जायेंगे वैसे-वैसे अपनी आत्मा के पास पहुँचते जायेंगे। आत्मा के विकास के लिए वीतराग स्व संवेदन की आवश्यकता है। स्व-संवेदन के माध्यम से हमें वो दर्शन हो सकते हैं जो आज तक नहीं हुए। पथ एक ही है, मार्ग एक ही है, जो सामने चलता है वह मुक्ति का पथ चाहता है और जो ' Reverse ' में चलता है वह संसार का पक्ष चाहता है। संसारी प्राणी को जो कि सुख का इच्छुक है उसे वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी, उपदेश देकर हित का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वे भगवान जिनका हित हो चुका है फिर भी जो हित चाहता है उसके लिए वे बहुत कुछ देते हैं, कृतकृत्य होने के उपरान्त भी वे सहारा देते हैं, इशारा देते हैं और हमें भी भगवान के रूप में देखना चाहते हैं। संसारी प्राणी सुख का भाजन बन तो सकता है। किंतु वह अपनी पात्रता को भूल जाता है, अपनी शक्ति को भूल जाता है, इससे यही परिणाम निकलता है कि वह सुखी बन नहीं पाता। वह भेद विज्ञान एक बार हो जाये, बस भगवान बन सकते हैं। महावीर भगवान व अन्य सन्तों ने जोर के साथ कहा है कि जो कोई भी धार्मिक क्रियायें हैं वे सब ‘मैं भगवान बनूँ, मैं भगवान बन सकता हूँ सर्वप्रथम इन्हीं लक्ष्य को लेकर होनी चाहिए, इसके उपरान्त ही वे सारी क्रियायें धार्मिक मानी जा सकती हैं। यह उसकी व्यक्तिगत दृष्टि के ऊपर आधारित है। वह यदि भगवान नहीं बनना चाहता है या भगवान बनने की कल्पना तक नहीं करता है तो ध्यान रहे उसकी सारी की सारी क्रियायें सांसारिक ही कहलायेगी। क्रियायें अपने आपमें न सांसारिक हैं न धार्मिक हैं। दृष्टि के माध्यम से ही वे क्रियायें धार्मिक हो जाती हैं और एक प्रकार से चारित्र का रूप धारण कर लेती हैं। चलना आवश्यक है किन्तु दृष्टि बनाकर चलना है, जब तक दृष्टि नहीं बनती तब तक उस चलने को चलना नहीं कहते। उदाहरण के लिए समझने के लिए आप कार-गाड़ी चला रहे हैं, चलाते-चलाते उसे रोक देते हैं और उसको 'Reverse' में डाल देते हैं। गाड़ी चल रही है कि नहीं? चल रही है किन्तु उल्टी चल रही है। उल्टी चल रही है तो उसे चलना नहीं कहेंगे । यद्यपि गाड़ी का मुख सामने ही है और आप लोगों का मुख भी सामने ही है लेकिन गाड़ी चल रही है पीछे की ओर, उसी प्रकार आप लोगों की दृष्टि के अभाव में जो कोई भी क्रियायें होती हैं वे सारी क्रियायें 'Reverse' गाड़ी' के अनुरूप होती हैं। गाड़ी जब ‘रिवर्स' में रहेगी तब तक वह पीछे ही जायेगी और पीछे अपने को जाना नहीं है, रास्ता आगे की ओर है। दिखता है कि हम जा रहे हैं, चल रहे हैं किन्तु अभिप्राय यदि संसार की ओर हो, मन में भगवान बनने का भाव न हो तो व क्रियायें ही क्या? वे क्रियायें मोक्षमार्ग के अन्तर्गत नहीं आ सकती। मोक्षमार्गी तभी कहला सकता है जब कि वह मोक्ष पाने की इच्छा करे, और मोक्ष पाने की इच्छा करता है तो निश्चित रूप से वह गाड़ी 'Reverse' में नहीं डालेगा। उसके कदम, उसके चरण अपनी शक्ति के अनुरूप उसी ओर बढ़ेंगे जिस ओर भगवान गये हैं, मुक्ति का पथ जिस ओर है। सामने चलता है तो वह मुक्ति का पथ चाहता है। और 'Reverse' में चलता है तो वह संसार का पथ चाहता है। दो ही तो पथ हैं - एक मुक्ति का और एक संसार का। बल्कि यूँ कह दो आप कि मार्ग एक ही है, एक ही प्रकार है, सामने चलना तो मुक्ति का मार्ग, पीछे की ओर चलना संसार का मार्ग । जयपुर से आगरा की ओर जायेंगे तो आगरा का साइन बोर्ड मिलेगा, आगरा से जयपुर की ओर आयेंगे तो इधर जयपुर का साइन बोर्ड मिलेगा, किन्तु पत्थर एक ही है, शिला एक ही है। इस ओर से जाते हैं तो आगरा लिखा मिलता है और उधर से आते हैं तो जयपुर लिखा मिलता है। अर्थ यह है कि मार्ग एक है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र रूप जो मोक्षमार्ग है उससे विलोम कर दो, आप को मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र यह संसार मार्ग बन जाता है। ऐसा नहीं है कि दो लाइनें चल रही हैं ये सम्यग्दर्शन की लाइन है और ये मिथ्यादर्शन की लाइन है दोनों एक साथ नहीं चल सकती क्योंकि व्यक्ति एक है और रास्ता भी एक ही है। दिशायें दो हैं, दिशायें भी कोई चीज नहीं है, जब चलता है तब दिशा बनती है, जब बैठा रहता है तो दिशा की कोई आवश्यकता नहीं है न दिशा की, न विदिशा की, न ऊपर की, न नीचे की। जब गति प्रारम्भ हो जाती है तब दिशा- बोध की आवश्यकता होती है जब चलना आरम्भ होता है तभी उल्टा-सीधा इस प्रकार की कल्पनायें उठती हैं। अत: भगवान बनने के लिए जो कोई भी आगम के अनुरूप आप क्रिया करेंगे वह सब मोक्षमार्ग बन जायेगा। इसके लिए क्रम के अनुरूप ही हम अपने कदम बढ़ायेंगे तो अवश्य सफलता मिलती चली जायेगी। सफलता भी ठीक-ठाक चलने से मिलती है और क्रम के अनुरूप चलने से मिलती है एक साथ तो हो नहीं सकती। हम कहते हैं- "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" रत्नत्रय की ओर भी प्ररूपणा करते हैं, सुनते हैं, सुनाते हैं, किन्तु इसमें अनुभूति नहीं होने का सही-सही कारण पूछा जाये तो उस ओर हमारा जीवन ढलता नहीं, वह ऊपर-ऊपर रह जाता है, जहाँ जीवन ढल जाता है वहाँ अनुभूति होती है। अनुभूति को आचार्यों ने बहुत महत्व दिया है। ज्ञान को महत्व नहीं दिया किन्तु अनुभूति को महत्व दिया। अनुभूति के साथ ज्ञान अवश्य होगा यह नितान्त आवश्यक है। ज्ञान पहले हो और अनुभूति बाद में ही यह कोई नियम नहीं, जिस समय अनुभूति होगी उस समय ज्ञान अवश्य होगा लेकिन जहाँ ज्ञान हो वहाँ पर अनुभूति हो यह नियम नहीं। समझने के लिए - लौकिक दृष्टि से कोई डॉक्टर M.B.B.S. हो जाता है, किन्तु वह उपाधि मात्र से डॉक्टर नहीं कहलाता उस परीक्षा के उपरान्त भी उसे Practical (प्रायोगिक) देना आवश्यक होता है। उस Practical (प्रायोगिक) में क्या ज्ञान दिया जाता है ? जो कोई ज्ञान था वह तो ले लिया फिर उसके उपरान्त क्या ज्ञान? ज्ञान और कुछ नहीं किन्तु जो Practical (प्रायोगिक) कर रहे हैं उसको देखना भी आवश्यक होता है, मजबूती के लिए दृढ़ता के लिए। आज तक जो कुछ भी परोक्ष रूप से जाना था उसे आज प्रत्यक्ष रूप से देखेगा प्रयोगशाला में । फिर एकदो साल उनको प्रशिक्षण (Traning) देना पड़ता है। प्रशिक्षण पाने के बाद ही वे अस्पताल खोल सकते हैं या रोगी की चिकित्सा कर सकते हैं। इसी प्रकार आप लोगों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्रचारित्र के बारे में ज्ञान तो बहुत प्राप्त कर लिया, पर अनुभूति की ओर आपकी दृष्टि नहीं जा रही। हमने इस ज्ञान को किसलिये प्राप्त किया है ? यह आपका ज्ञान तब तक कार्यकारी नहीं होगा जब तक कि अनुभूति की ओर दृष्टिपात नहीं करेंगे।'Practical' नहीं करेंगे। सैद्धान्तिक व प्रायोगिक (Theoretical &Practical) में यही तो अन्तर है। जो सैद्धान्तिक रूप में हमने जाना, देखा, अनुमान किया है, ध्यान किया है वह सारा का सारा प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष हो जाता है। इसलिये आचार्यों ने कहा है जब ज्ञान के माध्यम से उस आत्मानुशासन की ओर कदम बढ़ जाते हैं तो ध्यान रहे, वही मोक्षमार्ग बन जाता है, अन्यथा उस ओर कदम नहीं उठ रहे, कदम किस ओर उठ रहे हैं तो विलोम में Reverse में वह गाड़ी चली जायेगी, वह मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञानमिथ्याचारित्र के साथ चली जायेगी। इनका ज्ञान कोई मूल्य नहीं रखता। अनुभूति रागानुरूप हो रही है या वीतरागानुरूप हो रही है, परिणाम उसी के अनुरूप निकलने वाला है। मोक्षमार्ग की अनुभूति तब होगी जब जैसा हमने सुना, देखा, जाना है उसको वैसा ही अनुभव कर लिया जाये और अनुभव के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है जानने के लिए इतना पुरुषार्थ आवश्यक नहीं जितना कि अनुभव करने के लिए आवश्यक है। कोई भी कार्य बिना पुरुषार्थ के नहीं हो पाता। बैठे-बैठे जाना जा सकता है किन्तु बैठे-बैठे चला नहीं जा सकता। जिस समय जा रहे हैं उस समय देखा भी जाता है, जाना भी जाता है। मैं सदैव कहता हूँ - देखभाल कर चलना । इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन में जो कोई भी अनुभूति होती है वह इन तीनों की देख-भाल-चलना दर्शन-ज्ञान-चरित्र की समष्टि के साथ ही होगी। इसलिए आप लोगों को रागानुभव हो रहा है फिर भी सैद्धान्तिक (Theoretical) ज्ञान चल रहा है। इसलिए शांति, सुख, आनन्द जो मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा है। कुछ क्षण के लिए भी जो अनुभूति होती है, आचार्य कहते हैं - "सौ इन्द्र नाग नरेन्द्र व अहमिन्द्र के नाहीं कहयो" इसमें कोई सन्देह नहीं कि चाहे चक्रवर्ती हो चाहे अहमिन्द्र हो, अहमिन्द्र जो कि सर्वार्थसिद्धि इत्यादिक में रहते हैं, उनके पास नियम से सम्यग्दर्शन रहता है सौधर्म इन्द्र के पास क्षायिक सम्यग्दर्शन रहता है इन्द्र हो, नागेन्द्र हो, नरेन्द्र हो, धरणेन्द्र हो, कोई भी हो उसे वह मोक्षपथ उपलब्ध नहीं हो सकेगा क्योंकि ये सारे के सारे असंयमी हैं अर्थात् इन्हें सैद्धान्तिक ज्ञान तो हो सका है किन्तु प्रायोगिक (Practical) नहीं हो सकता। ये बात ठीक है कि प्रायोगिक उसी को मिलता है जिसने सैद्धान्तिक को अपना लिया है। M.B.B.S. उपाधि को जब तक प्राप्त नहीं करेगा, परीक्षा पास नहीं करेगा, तब तक वह प्रयोग में नहीं आ सकता पर जिसने प्रयोग को अपना लिया उसके लिये नितान्त आवश्यक है कि सिद्धान्त उसके पास है ही। तो अनुभव के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, अनुभव के लिए दर्शन ही पर्याप्त नहीं है, अनुभव के लिए तीनों की आवश्यकता है, समष्टि की आवश्यकता है। वह अनुभूति, वह अपनी आत्मा की एक प्रकार से परिणति-शुद्ध परिणति है उसमें लीन होने योग्य जो कोई भी परिणमन है वह सारा का सारा उसी व्यक्ति के लिए संभाव्य है। उसी के लिए वह द्वार खुला है जिसने इन तीनों को दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्राप्त किया है। जो व्यक्ति भगवान बनना चाहता है उसको सर्वप्रथम परमात्मा के दर्शन करने से जो सैद्धान्तिक बोध प्राप्त-होता है उसके माध्यम से वह अपने प्रयोग Practical पर आ जाता है। यह नितान्त सत्य है कि वह अपनी अनुभूति कर लेता है क्योंकि, 'मैं भगवान बन सकता हूँ इस प्रकार का जो विचार उठेगा वह भगवान को देखे बिना उठेगा नहीं, इसलिए भगवान का दर्शन करना परमावश्यक है। यदि भगवान बनने की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होगी, तो वह भगवान बनने का पुरूषार्थ करेगा इसलिए दर्शन परमावश्यक है भगवान का। लेकिन भगवान का दर्शन मात्र करने से यह नक्शा तो बन सकता है; यह भावना तो बन सकती है कि ‘मुझे भी भगवान बनना है" लेकिन इतने मात्र से भगवान नहीं बन सकते। आचार्य कहते हैं कि-यदि भगवान बनना चाहते हो तो आगे की प्रक्रिया और अपनाओ। देख लिया ऑखों से, पर पाया नहीं तो क्या आनन्द? उसे तो पाया कैसे जाता है ? आँखों से नहीं, आँखों से तो देखा जाता है, अनुभूति जो होगी, प्राप्ति जो होगी संवेदना जो होगी, आत्मा की या परमात्मा की उपलब्धि जो होगी उसके लिये संयम नितान्त आवश्यक होता है। यह संयम इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम के भेद से दो प्रकार का होता है और इसके उपरान्त वह अपने आप में लीन हो सकता है। यह मोक्षमार्ग का सिद्धान्त (Theory) है उसको समझ तो रहे हैं हम, लेकिन यह साहस नहीं कर पा रहे हैं कि उसमें किस प्रकार लीन हो जायें? और उसी को आचार्यों ने भक्ति गाथाओं से प्रत्येक पंक्तियों से यही खुलासा करने का प्रयास किया कि इसकी गति किसी न किसी रूप सेReverse न होकर सामने हो जाये और आप Reverse में ही मजा ले रहे हैं, किन्तु साथ में ध्यान रखो कि Reverse में क्या गाड़ी की गति तीव्र होती है ?. नहीं? धीमी-धीमी होती है, मजा भी नहीं आता। पर हम उसी को समझ रहे हैं कि गाड़ी चला रहे है। भगवान का दर्शन व आत्मा का दर्शन नितान्त आवश्यक है। भगवान के दर्शन तो हमने किये; किस दृष्टि से किये हैं ? इसका तो आप ही निर्णय कर सकते हैं कि किस दृष्टि से किये हैं। भगवान बनने की दृष्टि से किया होता तो यह अवश्य फलीभूत हो जाता और भगवान बनने की प्रक्रिया भी आपके जीवन में आ जाती। अभी कोई चिन्ह नहीं दिख रहे हैं, इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, कि-अपने जीवन में इस प्रकार का परिवर्तन जब तक नहीं लाओगे तब तक शांति का कोई ठिकाना नहीं। अनुभूति का मात्र विश्लेषण किया है और संसारी जीव की अनुभूति और मोक्षमार्ग की अनुभूति ये दोनों एक रूप नहीं हैं। अनादिकाल से रागरूप ही अनुभूति हो रही है आप लोगों को क्योंकि -सभी संसारी जीवों को जो संवेदना अनुभूति है वह रागानुभूति है। उस संवेदन की, उस अनुभूति की हम बात नहीं कर रहे वह तो नहीं चाहें तो भी हो रही है, उससे संसार का विकास हो रहा है आत्मा का विनाश हो रहा है, आत्मा के विकास के लिए स्वसंवेदन की आवश्यकता है पर, वीतराग स्वसंवेदन की। राग के अलावा, राग के बिना जो जीवन जिया जाता है वह है वीतराग। स्वसंवेदन के माध्यम से हमें वे दर्शन हो सकते हैं जो आज तक नहीं हुए। फिर क्या करें? और कुछ नहीं, आगम में जो उल्लेख किया है उसके अनुरूप अपना आचरण बनाने का प्रयास करो। धीरे-धीरे अपनी दृष्टि को, जिन-जिन पदार्थों को लेकर राग द्वेष उत्पन्न हो रहे हैं उन उन पदार्थों से हटाते चले जायें, जब तक यह प्रयास नहीं होगा तब तक कोई कार्य नहीं होने वाला है। प्रारम्भ यही से होगा और जहाँ राग का अभाव होगा वही पूर्णता आयेगी। जिन पदार्थों को देखकर हमारा मन राग में ढल जाता है, हमारा ज्ञान राग का अनुभव करना प्रारम्भ कर देता है, वह पदार्थ हमारे लिये वर्तमान में इष्ट नहीं है। उससे अलगाव रखो और अपने ज्ञान की शुद्धि करना प्रारम्भ कर दो। धीरे-धीरे पर से स्खलित होते हुए आप अपनी ओर आ जायेंगे। राग का केन्द्र आत्मा नहीं है, राग का केन्द्र जो कोई भी बनेगा उसमें पर पदार्थ निमित्त बनेगा। इसलिये पर का विचार मत करो, पर को प्राप्त करने की जिज्ञासा मत करो, पर के साथ सम्बन्ध मत रखो, आचार्यों ने यह बार-बार कहा है। ऐसा कोई शार्टकट नहीं जो कि पर के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी हम वहाँ पर पहुँच जायें। हाँ, महाराज यह रास्ता तो बहुत दूर दिख रहा है और हम खड़े होकर यही से देख रहे हैं कि कोई शार्टकट हो तो चले जाये। ऐसा शार्टकट कोई नहीं है। इस शार्टकट के पीछे ही सारा अतीत गुजर गया है। रास्ता एक है यह, इस पर आना ही होगा, अगर इस ओर जाना चाहते हैं। किन्तु जाना चाहते हुए भी जो कुछ हमने अर्जित किया है वह टूट न जाये, फूट न जाये यह सोचकर, इन्हीं को सुरक्षित रखना चाह रहे हैं। एक सेठजी थे, भगवान के अनन्य भक्त थे। एक दिन वे एक गजानन गणेश की प्रतिमा लेकर आये और खूब धूमधाम से पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। गजानन को मोदक बहुत प्रिय होते हैं इसलिए एक थाली में मोदक भी सजा कर नैवेद्य रूप में रखे, सेठ जी उस प्रतिमा के समक्ष प्रणिपात हुए, माला फेरी, उसकी आरती की और फिर वहीं पर बैठे उस प्रतिमा को निहारने लगे । इसी बीच एक चूहा आया और उस थाली में से एक मोदक लेकर चला गया। सेठजी के मन में विचार आया कि - देखो ? भगवान का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जो सबसे बड़ा है वह भगवान है जो सबसे वीर होता है वह भगवान होता है। ये गजानन-भगवान नहीं दिखते हैं, यदि ये भगवान होते तो इस चूहे से अवश्य ही प्रतिकार करते। एक इतना सा चूहा इनका मोदक उठा ले गया और ये कुछ न बोले, उसे हटाने की सामथ्र्य ही नहीं है इनमें, हो सकता है कि चूहा भगवान से बड़ा हो, मेरे समझने में कहीं भूल हो गई है, सेठजी ने उस चूहे को पाल लिया और पिंजरे में रखकर उसकी पूजा करने लगे। दो तीन दिन बाद के उपरान्त एक दिन चूहा जब बाहर आया तो उसे बिल्ली पकड़ कर ले गई, ओहो! अब अनुभव होता जा रहा है मुझे-सेठजी ने सोचा, मैं अब अनुभव की ओर बढ़ता जा रहा हूँ। जैसे जैसे उसका अनुभव बदलता जा रहा है उसका आराध्य भी बदलता जा रहा है और वह उसकी पूजा में लीन होता जा रहा है। अब उसने बिल्ली को पकड़ लिया क्योंकि सबसे बड़ी वही है। जिस चूहे को गजानन नहीं पकड़ सके उस ‘चूहे को इसने पकड़ लिया, अत: यही सबसे बड़ी उपास्य है। अब बिल्ली की पूजा होने लगी। सात-आठ दिन व्यतीत हो गये। बिल्ली का स्वभाव होता है कि-कितना ही अच्छा खिला दो -पिला दो पर वह चोरी अवश्य करेगी । एक दिन अंगीठी के ऊपर दूध की भगौनी रखी थी, बिल्ली चोरी से दूध पीने गई, सेठानी ने देख लिया -अरे देखो! जब सेठ जी इसे इतने आदर के साथ पाल रहे हैं, प्रतिदिन एक-आध किलो दूध पिलाते हैं तब भी यह चोरी करती है, तब भी इसका चोरी का भाव नहीं गया। सेठानी को क्रोध आया और उसने बिल्ली की पीठ पर एक लट्ट मार दिया, बिल्ली मर गई। सेठजी बाजार से आये, पूछा -बिल्ली कहाँ हैं ? मुझे पूजा करनी है। सेठानी ने कहा-कौन सी पूजन ? वह बिल्ली तो चोर है। सेठजी को पूरी घटना बताई, पहले तो खेद हुआ, लेकिन तुरन्त ही खेद दूर हो गया। खेद की बात थी ही नहीं जो मर गया, वह कमजोर है, वीर होता तो नहीं मरता । धन्य हो देव! धन्य हो! तुमने गजब कर दिया, बहुत अच्छा किया। गजानन चूहे से डर गये थे, चूहा बिल्ली की पकड़ में आ गया था और अब तुमने बिल्ली को समाप्त कर दिया पर तुमको समाप्त करने वाला कोई नहीं है। सेठ जी उसके चरणों में बैठ गये और उसके पैर पूजना प्रारम्भ कर दिया। देखो, अनुभूति बड़ों की ओर बढ़ रही है। अनुभूति होने के उपरान्त वह छूटता चला जाता है जो कि Theoretical है, सैद्धान्तिक है जो हमने मान रखा था। पर जब तक अनुभूति नहीं होती तब तक छोड़ना भी नहीं चाहिए। एक दिन प्रात: सेठ जी ने सेठानी से कहा कि आज हमें दुकान में अधिक काम है, हम साढ़े दस बजे खाना खायेंगे, खाना तैयार हो जाना चाहिए। सेठानी ने कहा ठीक है। प्रतिदिन पूजा होने के कारण सेठानी प्रमादी हो गई थी, समय पर रसोई बनी नहीं। जब सेठ जी आये तो बोली - आइये, आइये! अभी तैयार हो जाती है। सेठजी क्रोधित हो उठे - क्या तैयार हो जाती है, मैं कह कर गया अब भी तैयार नहीं है? सेठजी के हाथ में-जो कुछ था सेठानी पर उसी से वार कर दिया। सेठानी मूछित होकर गिर गई एक घण्टे तक नहीं बोली। सेठजी ने सोचा क्या बात है मर गई क्या? पानी सिंचन किया, थोड़ी देर बाद सेठानी को होश आ गया। सेठ जी सोच रहे थे कि अभी तक तो मैं सेठानी को सबसे बड़ा समझ रहा था किन्तु अब पता चला कि मैं ही बड़ा हूँ। अरे! मैं दुनिया के चक्कर में पड़ गया था। अब मुझे अनुभव हो गया कि मुझ से बढ़कर कोई भगवान है ही नहीं और वह अपने आप में लीन हो गया। आप लोग समझ नहीं पा रहे हैं रहस्य को। जब तक समझ में नहीं आता तब तक जो कोई प्रक्रियायें है उन प्रक्रियाओं को छोड़ना भी नहीं क्योंकि इन प्रक्रियाओं के माध्यम से अनुभव के लिए कुछ गुंजाइश है। ‘स्व' की ओर आने का कोई रास्ता मिल सकता है तो देव-शास्त्र-गुरु से ही मिल सकता है। अन्य किसी से नहीं मिल सकता है। इसलिये इनको तो बड़ा मानना ही है तब तक मानना है जब तक कि हम अपने आप में लीन न हो जायें। भगवान का दर्शन करना तो परम आवश्यक है, पर यह ही हमारे लिए पर्याप्त है, यह मन में मत रखना। भगवान बनने के लिए यदि आप भगवान की पूजा कर रहे हैं तो कम से कम मन में तो उठता है कि-अभी तक पूजा कर रहा हूँ पर भगवान क्यों नहीं बन रहा हूँ? दुकान खोलने के उपरान्त आप एक-दो दिन अवश्य रुक जायें पर फिर सोचते हैं कि-ग्राहक क्यों नहीं आ रहे, क्या मामला है? धीरे-धीरे विज्ञापन बढ़ाना प्रारम्भ कर देते हैं, बोर्ड पर लिखवाते हैं, अखबारों में निकलवाते हैं कि घूमते-घूमते कोई आवे तो सही। अर्थ यह है कि इतना परिश्रम करके जिस उद्देश्य से दुकान खोली है, उसका तो कम से कम ध्यान रखना चाहिए। तो भगवान की पूजा हम क्यों कर रहे हैं ? यह भी तो ध्यान रखना चाहिए। भगवान बनने के लिए कार्य कर रहे हैं यह तो ठीक है पर आप लोगों का भगवान बनने का संकल्प नहीं है तो फिर भगवान की पूजा क्यों कर रहे हो? हमें भगवान थोड़े ही बनना है हम तो श्रीमान् बनने के लिए पूजा कर रहे हैं, तभी आप टटोलते रहते हैं कि-पूजा तो कर रहा हूँ पर अभी बन नहीं रहा हूँ। लगता है कि वहाँ से ध्वनि निकल रही है-बन जायेगा। ध्वनि, अपने मन के अनुरूप ही निकलती है, ध्यान रखना। यह मनोविज्ञान है। 'भगवान बन जायेगा।” वहाँ से ऐसी ध्वनि नहीं निकलती। क्योंकि मन में है कि कब साहूकार बन जाऊँ ? तो ध्वनि निकलेगी कि बन जायेगा। उसके माध्यम से आप अभी तक साहूकार बनने में ही लगे हैं। परिश्रम इसी में समाप्त हो रहा है, यह परिश्रम कितने भी दिन करते रहो, जड़ की उपलब्धि हो सकती है, सम्पत्ति की उपलब्धि हो सकती है पर भगवान की उपलब्धि इस दृष्टिकोण से नहीं हो सकती। हम जैसे-तैसे क्रियाओं के, अनुष्ठानों के माध्यम से राग द्वेषों को संकीर्ण करते चले जायेंगे कम करते चले जायेंगे-वैसे-वैसे अपनी आत्मा के पास पहुँचते जायेंगे। यह प्रक्रिया ही ऐसी है इसके बिना कोई भगवान हो ही नहीं सकता। ठहराव बाहर नहीं हो सकेगा। ठहराव केन्द्र में ही होगा। आप परिधि के ऊपर घुमा रहे हैं अपने आपको, जो घुमावदार चीज है उसका आश्रय लेने से आप भी घूमेंगे। देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को वीतरागता की ओर मोड़ लिया, वीतराग-केन्द्र की ओर मोड़ लिया वह अवश्य एक दिन विराम पायेगा। किन्तु यदि देव शास्त्र-गुरु के माध्यम से जो जीवन में बाहरी उपलब्धि की वाञ्छा रखता हो तो वही चीज उसे उपलब्ध हो सकती है, आत्मोपलब्धि नहीं। मुझे एक बार एक व्यक्ति ने आकर कहा कि, महाराज! हमने अपने जीवन में एक सौ बीस बार समयसार का अवलोकन कर लिया। कंठस्थ हो गया मुझे! बहुत अच्छा किया। आपने-मैंने कहा अब आपके लिये टेपरिकार्डर की भी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि कंठस्थ हो गया, लेकिन भैया आपने कंठस्थ किया है मैंने एक ही बार अवलोकन किया है और हृदयस्थ कर लिया। मैंने हृदयंगम कर लिया और आपने शिरोगम कर लिया। आपने उसे मस्तिष्क में स्थान दे दिया, हमने जीवन में स्थान दे दिया। आपको अभी आनन्द नहीं आ रहा है और हमारे आनन्द का कोई पार नहीं है। तो Quantity (संख्या) एक सौ बीस बार से अधिक है या एक की अधिक है ? किन्तु वह ज्ञान है, यह अनुभूति है और अनुभूति ही समयसार है। मात्र जानना समयसार नहीं है। समयसार की व्युत्पति आचार्य ने बहुत अच्छी की है-"समीचीन रूपेण अयति गच्छति व्याप्नोति जानाति परिणमति स्वकीयान् शुद्ध गुण पर्यायान् यः सः समयः" अर्थात् जो समीचीन रूप से अपने शुद्ध गुण पर्यायों की अनुभूति करता है, उनको जानता है, उनको पहचानता है, उनमें व्याप्त होकर रहता है, उसी में जीवन बना लेता है वह है-'समय और उस समय का जो कोई भी सार है' वह है -'समयसार"। जिस समयसार के साथ व्याख्यान का कोई सम्बन्ध नहीं रहता, आख्यान का कोई सम्बन्ध नहीं रहता और कषाय का कोई निमित नहीं रहता, उसमें मात्र एक रह जाता है बस एक में ही विराजमान हो जाता है, उस एक का ही महत्व है। ताश खेलते हैं आप लोग उसमें एक इक्के का बहुत महत्व है उसी प्रकार 'एक: अहंखलु शुद्धात्मा' ऐसा कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है। ताश के बादशाह से भी अधिक महत्व रहता है उस इक्के का। एक अपने आप में महत्वपूर्ण है, वह है - शुद्धात्मा। जिस दिन सेठजी ने गजानन को छोड़ दिया, चूहे को छोड़ दिया, बिल्ली को छोड़ दिया, पत्नी को भी छोड़ दिया उस दिन याचना की कोई आवश्यकता ही नहीं रह गई। इस प्रकार आपने कभी किया नहीं किन्तु यदि अनुभूति के बिना अपने आप में लग जाओगे तो पेट में चूहे कबड़ी खेलने लगेंगे क्योंकि जिसका जीवन पराश्रित है वह व्यक्ति उसी के ऊपर (आश्रय के ऊपर) आश्रित है, निर्भर है। इसलिये उसको उसी में आनन्द आता है और आता रहेगा भी। देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से हम लोगों को यह रास्ता तो मिल जाता है कि अपनी ओर आना किस प्रकार होता है क्योंकि देव-शास्त्र-गुरु शुद्ध पर्याय हैं। देव के माध्यम से भी शुद्धत्व का भान होता है, गुरु के माध्यम से भी शुद्धत्व का भान होता है, वीतरागता की ओर हमारी दृष्टि जाती है। उनकी जो कोई भी वाणी है उस वाणी में भी राग का, द्वेष का कोई स्थान नहीं रहता और मात्र वीतरागता ही उसमें प्रत्येक पंक्ति में, प्रत्येक अक्षर में मुखरित होती है, इससे उन तीनों के माध्यम से वीतरागता पकड़ में आती है और यह वीतरागता हमारे जीवन का एक केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। आप लोगों को राग है। एक व्यक्ति ने कहा कि-महाराज कुछ न कुछ अंश में तो हमें भी वीतराग मानना चाहिए आपको, हम इतनी वीतरागता की चर्चा आदि सुनते हैं। हमने कहा कि भैया हमने आपको कब रागी कहा? आप भी वीतरागी हैं। आप लोग कहेंगे बहुत अच्छा पर आप वीतरागी कैसे हैं ? वीतरागी इसलिये हैं 'विगत: रागः यस्य आत्मनः' अर्थात् जिस व्यक्ति का आत्मा के प्रति राग नहीं है वह वीतरागी है (श्रोता समुदाय में हँसी) आत्मा के प्रति राग है ही नहीं इसलिये आप लोग भी वीतरागी हैं और मैं रागी हूँ क्योंकि मुझे आत्मा के प्रति राग। इस प्रकार आप भी वीतरागी सिद्ध होते हैं, पर इससे मतलब नहीं, मन में कोई सन्तोष नहीं हो रहा आप लोगों को। इसलिये नहीं हो रहा कि आप अभी अनुभव राग का ही कर रहे हैं, द्वेष का कर रहे हैं, मद का कर रहे है, पर्यायों का कर रहे हैं किन्तु शुद्ध पर्याय का नहीं, अशुद्ध पर्याय का कर रहे हैं। जबकि भगवान ने यह देशना दी है कि-तुम्हारे पास भी यह भगवत्-पद विद्यमान है किन्तु अव्यक्त रूप से है, व्यक्त रूप से नहीं है शक्ति रूप से है व्यक्ति रूप से नहीं। जो अन्दर है उसको बाहर निकालना है, उसका उद्धाटन करना है उसके लिये ही मोक्षमार्ग की देशना है, यह और कोई चीज नहीं है। मोक्षमार्ग और कोई चीज नहीं, बाहर में कोई समयसार थोड़े ही है जो एक सौ बीस बार पढ़ लो आप। एक सौ बीस बार पढ़कर भी चार सौ बीसी करोगे तो कम से कम सोचो तो सही उसका प्रयोजन क्या सिद्ध होगा ? जिस व्यक्ति को समय की उपलब्धि हो गई, समयसार की उपलब्धि हो गई, क्या वह अपने समय को दुनियादारी में खर्च करेगा ? वह समय का अपव्यय नहीं करेगा। जिस व्यक्ति को निधि मिल जाती है क्या वह दस-बीस रुपये की चोरी करेगा ? कंठस्थ करने को मैं महत्व नहीं देता, मुख्यता नहीं देता, मुखाग्र करने को मैं मुख्यता महत्व नहीं देता, महत्व है-हृदयंगम करने का। मात्र शाब्दिक ज्ञान से कुछ नहीं होने वाला भले ही आप समयसार को पी ली, घोंट-घोंट कर पी लो। प्रयास तो आज तक यही हो रहा है। वैद्यजी के पास एक रोगी गया और ऐसी दवा देने के लिए कहा जिससे वह शीघ्र रोग मुक्त हो जाये। वैद्य जी ने देख लिया - एक पर्चा लिखकर दिया और बोले कि इसको दूध में घोल कर पी लेना। रोगी घर गया, एक कटोरी दूध लिया और उस पर्चे को उसमें घोलकर पी गया। (हँसी) दूसरे दिन वैद्यजी के पास गया। वैद्यजी ने पूछा-क्या बात है ? रोगी ने कहा कि-एक दिन में रोग ठीक थोड़े ही होता है। उन्होंने कहा अरे हमने औषधि ऐसी ही दी थी कि एक दिन में ठीक हो जाये। खैर, कौन-कौन-सी दुकान से दवा लेकर आये थे? गोलियाँ मिल गई थी क्या? रोगी ने पूछा - कौन सी गोली? आपने जो कागज दिया था वही तो थी औषधि। इसी प्रकार समयसार भी वही कागज है भैया! ये औषधि थोड़े ही है। औषधि कहाँ मिलती है ? जिस दुकान पर मिलती है वहाँ जाते, उसे ढूँढ़ते, खरीदते फिर लेते तो रोग ठीक हो जाता। एक सौ बीस बार लेने की (पढ़ने की) कोई आवश्यकता. नहीं थी और आप एक सौ बीस बार क्यों चार सौ बीस बार कर लो तो भी काम नहीं होता। परिश्रम व्यर्थ हो गया। क्या, आप 'सार्थक हो गया।' ऐसा समझ रहे हैं ? नहीं, सार्थक नहीं है, क्योंकि गाड़ी 'Reverse' में चल रही है। ऐसे यात्रा नहीं होगी, गाड़ी को सीधे रास्ते पर लगाओ। गति दो, तभी प्रगति होगी, मंजिल आयेगी।' Reverse' में जाओगे तो रास्ता कम नहीं होगा बल्कि बढ़ेगा। मंजिल दूर होती जा रही है, इस प्रक्रिया के माध्यम से अनुभूति के अभाव में यह सब एक बोझ का काम कर रहा है। अत: अनुभूति के लिए कुछ ही समय का प्रयास होता है तो कुछ समय के उपरान्त जीवन में क्रान्ति आ सकती है। जैसे-कहाँ तो गजानन गणेश की पूजा थी और कहाँ वह बिल्कुल अपनी ओर आ गया, अपने अलावा और कोई की पूजा नहीं रही। आप लोगों के लिए मन्दिर वे ही हैं, देव-शास्त्र-गुरु वे ही हैं, सब कुछ हैं किन्तु इसके उपरान्त भी आपकी गति उधर से इधर आ रही है। इसका अर्थ क्या है ? या तो आप घुमावदार रास्ते पर आरूढ़ हो गये हैं जिससे बार-बार घूमकर वहीं पर आ जाते हो, जैसे तेली का बैल आ जाता है। उसी प्रकार आपका जीवन व्यतीत हो रहा है। पहले छोटे थे अब बड़े हो गये किन्तु खड़े वहीं पर हैं। जो जवान हैं, उसके जीवन में परिवर्तन नहीं आता, जो प्रौढ़ हैं उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आता तो कोई बात नहीं! किन्तु जो वृद्ध हैं उनमें भी कोई अन्तर नहीं आये तो क्या मतलब है? वृद्धत्व के उपरान्त भी वृद्धत्व नहीं आता! वही रासलीला! एक साथ अन्तर हो ही नहीं सकता, यह विश्वास जम गया, इसलिए ऐसा हो रहा है। एक समय तो अन्तर आना चाहिए और नहीं आता तो पूछना चाहिए कि क्या बात है ? दो-तीन दिन औषधि लेने के उपरान्त यदि किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता तो पुन: Checking हो जाती है, पुन: उसकी चिकित्सा की जाती है कि क्या बात हो गई? कुछ न कुछ लाभ अन्तर तो होना चाहिए था, नहीं आता तो औषधि बदलते हैं पुन: निदान करते हैं। इस बात में तो बहुत शीघ्रता दिखाते हैं, पाँच-छह दिन में स्थिति परिवर्तन के अभाव में चिकित्सा परिवर्तन कर लेते हैं, इसमें महीनों नहीं लगाते, शीघ्रता से सही-सही औषधि देना प्रारम्भ कर देते हैं। घूमते-घूमते और रोग बढ़ता गया और जब असली दवाखाना आ जाता है उस समय वह रवाना हो जाता है। आपका जीवन आदि से लेकर अन्त तक बार्डर पर ही खड़ा है, सीटी बजने की देरी है; ऐसी स्थिति में भी आपका कोई निर्णय नहीं है, जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं है तो फिर आगे कैसे हो सकेगा? क्योंकि गाड़ी का मुख Platform पर ही मुड़ सकता है। एक बार स्टेशन से गाड़ी बाहर निकल जायेगी तो बाद में मुड़ नहीं सकेगी दुर्घटना में मुड़ जाये वह बात पृथक् है, किन्तु वह सामान्यत: नहीं मुड़ेगी क्योंकि हमने उसको उसी रास्ते पर चलाया है। स्थिति यही है। मनुष्य जीवन एक प्रकार का Platform है, Station है। अनादिकाल से जो जीव राग द्वेष की ओर मुड़ गया है उस मुख को हम वीतरागता की ओर मोड़ सकते हैं और उस ओर गाड़ी को चला सकते हैं। तो इस (मनुष्य जीवन) Station पर ही चला सकते हैं। Station आ जाने पर आपको नींद आ जाती है। आपकी निद्रा भी बहुत सयानी है। आलस्य आता है आपको। क्या करें महाराज? कर्म का उदय ही है कई लोग कहते हैं ऐसा ही है भैया! किन्तु समझो तो सही क्या होता है ? निद्रा वहीं पर क्यों आती है ? आलस्य वहीं पर क्यों आता है ? एक व्यक्ति ने कहा-जैसे ही मैं सामायिक करने बैठता हूँ, जाप करने बैठता हूँ, स्वाध्याय करने के लिए सभा में आ जाता हूँ तो निद्रा आ धमकती है, मुझे सोना ही पड़ता है। अच्छा, बहुत सयानी है न, निद्रा। आपके कर्म भी बहुत सयाने हैं कि ऐसे स्थान आने पर ही निद्रा आती है। इसमें कुछ न कुछ रहस्य अवश्य है। मैंने उनसे पूछा कि-जिस समय आप दुकान में बैठते हैं और नोट के Bundle गिनते हैं, उस समय कभी निद्रा आई है? महाराज उस समय (वहाँ पर) तो भूलकर भी नहीं आती। अच्छा यह अर्थ है। वहाँ पर नहीं आती और यहाँ पर आती है तो निद्रा को भी इस प्रकार अभ्यास कराया है आपने कि यहाँ पर आते ही नींद लेना है, सुनना नहीं है। एक शास्त्र सभा जुड़ी थी। एक दिन एक व्यक्ति से पंडित जी ने पूछा-क्यों भैया! सो तो नहीं रहे हो? वह कहता है- नहीं! वह ऊँघ रहा था। किन्तु फिर भी वह ‘नहीं’ ही कहता है। एक बार, दो बार, तीन बार, ऐसे ही कहा-उसने भी वही जबाब दिया और ऊँघता ही रहा। फिर पंडित जी अपना वाक्य बदल कर बोले-सुन तो नहीं रहे हो भैया? उसने तुरन्त उत्तर दिया नहीं तो (श्रोता समुदाय में हँसी) ठीक है भैया। ऐसे पकड़ में आये। सीधे-सीधे पूछने पर थोड़े पकड़ में आयेंगे आप लोग। सुन रहे हो? नहीं तो। बस यह 'नहीं तो” आपने याद कर रखा है। यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्द कह रहे हैं-समयसार पढ़ रहे हो? हाँ पढ़ रहे हैं। पढ़ रहे हैं तो परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा? समयसार को पूरा पढ़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, एक गाथा ही पर्याप्त है। समयसार की इतनी बड़ी पुस्तक में तो उन्होंने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है, मूर्तरूप दिया है, शब्द रूप दिया है किन्तु एक ही शब्द में उन्होंने कह दिया 'समय' और उसका 'सार' इसके शीर्षक के माध्यम से ही सारा काम हो जाता है। शुद्ध आत्मा को ही समयसार कहा है। इसमें (पुस्तक में) नहीं है वह, आप घोंट-घोंट कर किसे पीयेंगे? समयसार नहीं आयेगा। 'समयसार" जीवन का नाम है, चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है; पर की बात नहीं स्व की बात है। महाराज! ये बातें आप लोग सुनाते हैं, ये तो हम लोगों को अच्छी नहीं लगती। आप चटक मटक सुनाते चले जायें तो बहुत अच्छा होता एक घण्टा निकल जाता। आप एक घण्टे से इन्हीं बातों की पुनरावृत्ति (Repetition) करते जा रहे हैं। भैया! आत्मा की बात सुनना चाहते हो या दूसरी बात सुनना चाहते हो? हम क्या हैं ? यह आप लोगों को मालूम नहीं है तो फिर क्या सुनायें ? यह मालूम नहीं इसलिये तो हम यहाँ पर आये हैं – आप यह कह सकते हैं। पर मैं कहूँ उसको सुनना भी तो चाहिए। जिस ओर आपकी रुचि नहीं है उसी ओर तो रुचि जगाना है। जिस ओर रुचि है उसको जगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे उपदेश से उस रुचि को जगाना नहीं है और मैं उस रुचि को जगाने के लिए कहूँगा भी नहीं। बिना उपदेश के ही वह रुचि स्वयं जग जायेगी। धर्मोपदेश, विषयों में रुचि जगाने के लिये नहीं है, आत्मा की रुचि जगाने के लिये है। इस ओर रुचि नहीं हो रही है यह मैं भी जान रहा हूँ इसलिये-नहीं हो रही है कि उधर की चटक-मटक बहुत अच्छी लग रही है। एक बच्चे ने अपनी माँ से कहा-'माँ मुझे भूख नहीं लगी है आज।” ‘क्यों बेटा! क्या बात हो गई ? माँ ने कहा। कुछ नहीं माँ।” ‘तो खाने का समय तो हो गया खा ले, सब शुद्ध है, शुद्ध आटा है, घी है।” ‘मुझे अभी भूख नहीं है।” कुछ खा लिया था?' आज सुबह तो कुछ नहीं खाया था, आपने परसों एक रुपया दिया था न, वह रखा था, उससे आज मैंने चाट-पकौड़ी खा ली।” अच्छा यह बात है। जिसको चाट-पकौड़ी मुँह लग गयी, जो तेल में तली चीज खाता है उसके लिये अब शुद्ध घी काम नहीं करेगा। फिर कब काम करेगा? उसकी (चाट पकौड़ी की) आदत थोड़ी छूट जाये। हर समय तो आप चाट-पकौड़ी खाकर आते हैं, यहाँ एक घण्टा में शुद्ध घी की जलेबी भी खिला दूँ तो क्या काम चलेगा? यहाँ पर तो चाट-पकौड़ी आयेगी नहीं यहाँ तो शुद्ध घी की बात है। यदि इसमें थोड़ी सी वह (चाट-पकौड़ी) मिला दूँ तो इसका असली बाद बिगड़ जायेगा इसलिए उसको थोड़ा कम करो और फिर इसे चखो तो सही, कितना अच्छा लगता है। हम लोगों को विषय और कषायों को मन्द करना होगा और मन्द जबर्दस्ती किया जाता है, उसकी ओर रुचि होते हुए भी मन्द करना होगा, तभी स्वाद में बदलाहट आ सकती है, नहीं तो नहीं आयेगी। एक हाथ से वह खाते रहे और दूसरे हाथ से यह, तो हाथ तो दो हैं किन्तु मुँह तो दो नहीं हैं। भैया! जिह्वा तो एक ही है, स्वाद लेने की शक्ति तो एक के ही पास है। अभी जो चर्वण हो रहा है उसके साथ इसको मिलाओगे तो मिश्रण हो जायेगा और मिश्रण में सही स्वाद नहीं आ सकता। मात्र ज्ञान के साथ वह अनुभूति नहीं आ सकती। उसके साथ संयम की आवश्यकता है, इसलिये- यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ, जो आनन्द लहो, सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहि कह्यो। (छह.) स्वात्मानुभूति का संवेदन-आत्मा का जो स्वाद है वह स्वाद स्वर्गीय देवों के लिये भी दुर्लभ है और वहाँ के इन्द्र के लिये भी-दुर्लभ है, कहीं भी चले जाओ सबके लिए दुर्लभ है। केवल उसी के लिये मनुष्य के लिये यह साध्यभूत है, संभव है, 'जिन्होंने अपने आप के संस्कारों को परिमार्जित कर लिया है अर्थात् राग-द्वेष के संस्कार जिनमें बिल्कुल नहीं हैं। जिनकी अनुभूति में वीतरागता आनन्द उसको चाहते हो तो उस तरफसे गाड़ी को हटा दो। अब मोड़ दो उसे एक बार देव-शास्त्रगुरु के ऊपर विश्वास करके, इस काम को हाथ में लो, लोगे तभी काम होगा। मैं आपको विश्वास है, मात्र विश्लेषण हो सकता है। हम प्रशंसा कर सकते हैं, उस आत्मा की प्रशंसा कर सकते हैं किन्तु दिखा नहीं सकते। ऐसा कौन सा बुद्धिमान होगा जो परोक्ष-ज्ञान में अर्थात् श्रद्धान में आने वाली चीज को हाथ में रखकर दिखा देगा। ध्यान रहे केवली भगवान भी इसमें समर्थ नहीं हो पायेंगे। आत्मा आपको देखना होगा, वे आत्मा को दिखा नहीं सकेगे, वे आत्मा की बात बता सकेगे। समयसार पढ़ोगे तो वही बात आयेगी, गुरु के मुख से सुनोगे तो वही बात आयेगी, केवली भगवान के मुख से सुनोगे तो वे भी वही सुनायेंगे, वही वाणी तो इसमें अंकित है। अनन्त शक्ति के धारक होकर भी वे आपको अपनी आत्मा को हस्त में रख कर के दिखा नहीं सकेंगे, वह दिखाने की वस्तु नहीं है वह देखने की वस्तु है। किस प्रकार का उसका स्वरूप है ? यह तो बता देंगे, किन्तु बता देने के बाद आपका यह परम कर्तव्य है, प्रत्यक्ष ज्ञान में उतर कर उसका संवेदन करे। आप परोक्ष ज्ञान के ऊपर ही. निर्धारित रह करके किसी पुस्तक पर विश्वास रखकर के इन्हीं क्रियाओं पर विश्वास कर लेंगे, इसी में धर्म को पूर्ण मान लेंगे तो यह उचित नहीं होगा। अभी गाड़ी का मुख मात्र मुड़ा है। आप लोगों का मुख मुड़ सकता है, किन्तु अभी चला नहीं है, यात्रा कहते हैं चलने को । हाँ, गाड़ी का मुख मोड़ने को भी यात्रा कहते हैं किन्तु मोड़ने का अर्थ उसकी पृष्ठभूमि है, जब तक गाड़ी मुड़ेगी नहीं यात्रा नहीं होगी। इसलिए मोड़ना भी आवश्यक है आपने बहुत पुरुषार्थ किया, ध्यान रखना गाड़ी मोड़ने के लिये बहुत पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है और गाड़ी चालू करने के उपरान्त रेल का ड्राइवर तो आँख बंद करके बैठ सकता है पर कार का ड्राइवर नहीं। कार का ड्राइवर अगर आँख बन्द कर लेगा तो मुश्किल हो जायेगी। रेल का मुख स्टेशन की ओर मोड़ कर उसे गति दे दी जाती है और गाड़ी अपने आप पटरी पर चालू हो जाती है। यह भी पुरुषार्थ है आप लोगों का, कि कम से कम इस ओर दृष्टिपात तो किया, मुख तो मोड़ा पर आपकी गाड़ी चालू नहीं हो रही है। इसमें मुझे ऐसा लग रहा है कि ऐसा न हो कि आप गाड़ी को पुन: उसी ओर मोड़ लें क्योंकि उस ओर मोड़ना तो बहुत आसान है और उधर आपका अनन्तकालीन अभ्यास हो चुका है। इसलिए उस ओर बहुत जल्दी मुड़ सकता है। वीतरागता से राग की ओर मोड़ने में कोई प्रयास की आवश्यकता नहीं है, ऊपर की ओर पत्थर फेकने के लिए तो परिश्रम की आवश्यकता है पर नीचे फेकने के लिए कोई परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। आप चाहें या न चाहें पर वह अपने आप नीचे आ जाता है और आयेगा यह नियम है। इसी प्रकार वीतरागता की ओर जाने के लिये तो प्रयास की आवश्यकता है पर राग की ओर जाने के लिये प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं है। पूर्व संस्कारवश अपने आप ही आपके कदम उठ जायेंगे। अब समय हो गया आपके कदम घर की ओर उठ जायेंगे। पर निज घर किधर है यह आप लोगों को पता नहीं। अभी तो कदम उधर ही उठेगे, उनको इस प्रकार का अभ्यास दिया गया है, उनको इस प्रकार की Guidance मिल चुकी है कि वह यूँ भी चलें तो पैर उधर ही जाते हैं। अभ्यस्त हो चुका है जीवन, अपने आप ही Corner पर मुड़ जाते हैं। मेरा अभ्यास खुद की ओर मुड़ने में बढ़ रहा है और आपका अभ्यास घर की ओर जाने में बढ़ रहा है। यह संस्कार की बात है। प्रतिदिन किया हुआ कार्य इस प्रकार अभ्यस्त होता चला जाता है कि उसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। वीतरागता की ओर मोड़ने के लिये बहुत प्रयास हो रहा है, वाचनिक प्रयास, मानसिक प्रयास और कायिक प्रयास, गुरु के उपदेश बार-बार अनेक प्रकार के उदाहरणों के माध्यम से दिये जाते हैं इसके उपरान्त भी आपका उपयोग राग की ओर झुक ही जाता है। एक बार वह समय भी आ सकता है जबकि आपका राग पूर्णत: मिट सकता है क्योंकि संभाव्य ही नहीं नियम है यह कि - "राग आत्मा का स्वभाव नहीं है" और एक बार स्वभाव की उपलब्धि होगी तो फिर विभाव प्राप्त होगा ही नहीं। इसलिये कह सकता हूँकि एक बार प्रयास करके आप इधर आ जायेंगे तो फिर छूटने का कोई सवाल ही नहीं, पर थोड़ा पसीना आने दो, कोई बात नहीं, फिर यात्रा प्रारम्भ हो जायेगी। टिकट खरीदते समय पसीना आता है और लाइन में लगते समय पसीना आता है, ट्रेन में चढ़ते समय पसीना आता है किन्तु फिर बाद में बैठ जायेंगे, गाड़ी चलने लगेगी, इधर-उधर की हवा आनी प्रारम्भ हो जायेगी और आराम के साथ निद्रा लग जायेगी। इसी प्रकार मोक्ष-मार्ग में तकलीफ नहीं है बन्धुओ किन्तु मोक्षमार्ग में लगते-लगते तकलीफ महसूस होती है, कुछ तकलीफ जैसी लगती है, लगेगी कोई बात नहीं। प्रारंभ में औषधि कड़वी लगती है, पर बाद में परिणाम मीठा निकलता है निकलेगा, नियम रूप से निकलेगा। यह मोक्षमार्ग औषधि ही ऐसी है जो अनादिकालीन रोग को निकाल देगा और शुद्ध चैतन्य तत्व की उत्पति उसमें से होगी और आनन्द ही आनन्द रहेगा। अत: कुन्दकुन्द के साहित्य को पढ़कर अपने जीवन को उसी ओर ढालने का प्रयास करना चाहिए यही स्वाध्याय का, देव-शास्त्र-गुरु की उपासना का वास्तविक फल है, यदि यह नहीं है तो समझ लो कि वह सांसारिक उपलब्धि के लिए ही सिद्ध हो जायगा, कहाँ, क्या और कैसा करना है, किस ओर करना यही मोक्षमार्ग का प्रयास है। संसार मार्ग अनादि काल से चल रहा हो उसे नहीं अपनाना है, नहीं अपनाते हुए भी उस ओर जो उपयोग जा रहा है उससे दूर हटना है। अपनाना है तो एकमात्र मोक्षमार्ग जो कि स्वाश्रित है और स्वाश्रित होने के लिये-देव-शास्त्र-गुरु का आलम्बन नितान्त आवश्यक है।
  15. धर्म विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जैसे कोई व्यक्ति धागे को गले में नहीं लटकाता किन्तु फूलों की माला के साथ वह धागा भी गले में शोभा पाता है, इसी प्रकार यदि धर्म साथ है तो शरीर भी शोभा पाता है। धर्म के अभाव में जीवन शोभा नहीं पाता। परमार्थ के क्षेत्र में कान खुले रखना चाहिए लेकिन विषय भोग के क्षेत्र में तो कान बहरे ही होना चाहिए। परमार्थ के क्षेत्र में आँखें खुली रहनी चाहिए और विषय-वासना के क्षेत्र में अन्धा होकर रहना चाहिए। परमार्थ के क्षेत्र में कर्मों पर विजय पाने के लिए बाहुओं में शक्ति और प्रताप होना चाहिए लेकिन दूसरे के ऊपर प्रहार करने के लिए बलहीन होना चाहिए। धर्म किसी का नहीं है वह तो एक प्रवाह है यह नदी के समान है उसे कोई बांध नहीं सकता उसमें हम अपने पापरूपी मैल को धो सकते हैं। जो तत्काल सुख का अनुभव कराये, कर्मों से छुटकारा दिलाये और अभ्युदय की प्राप्ति कराए वही धर्म है। धर्म को धारण कर फल की आकांक्षा करना भूल है। फल की धारा तब तक अपने आप बनी रहती है, जब तक धर्म से सम्बन्ध बना रहता है। जब शरीर में ताकत है, तब ही धर्म धारण कर कर्मों से छुटकारा पा सकते हो। पूर्व में जो कर्ज लिए हैं, धन आने पर उस कर्ज लौटा देना चाहिए। इसी प्रकार जब हमारे पास शक्ति है तब ही बंधे हुए कर्मों से छुटकारा पा लेना चाहिए उसे कहते हैं निर्जरा। मंदिर, मस्जिद आदि धर्म नहीं है इनके माध्यम से धर्म समझ में आता है ये धर्म को समझने में धार्मिक भाव को जागृत करने में माध्यम है। जितनी आपके पास चद्दर है उतने ही पैर फैला दो तभी आपका धर्म निभेगा। जिसका जीवन वक्रता में है वह सरलता को भी गरलता में ही धारण करता है। अच्छाई को बुराई के रूप में जो अंगीकार करता है वहीं वक्रता को धारण करता है। इसको हटाकर अपने जीवन को आर्जवमय बनाओ। जिन अक्षरों के पढ़ने से धर्म हो, आत्मा का बोध हो वही अक्षर हमारे लिए सार्थक हैं। दसों दिशाओं में ये दशलक्षण धर्म दस बाण के समान है, जो रक्षा करने वाले हैं। दस प्रकार के (अंगरक्षकों) (धर्म) को साथ लेकर के चलते हैं, मुनि महाराज क्योंकि बहुत बड़ा रत्नत्रय का पिटारा है उनके पास। दसों दिशाओं में वो (दशलक्षण धर्म) चलते रहते हैं और बीच में मुनि महाराज चलते हैं रक्षा के साथ किधर से भी कोई भी आ जाये रणांगन में तब भी ये सुरक्षित रहते हैं। हम उत्तम प्रकार से मार्दव धर्म धारण कर लें ताकि मान हमारे पास आ न सके क्योंकि मान आने से रत्नत्रय में घाटा लग सकता है। हमारा स्नत्रय का हार टूट सकता है। जीव का धर्म निश्चय से दशलक्षण धर्म ही माना जाता है। वह ही एक प्रकार से हमारा स्वजन है। धर्म की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ेंगे, वैसे-वैसे स्व का तो विकास या उत्थान होगा साथ ही पर का भी होगा। स्ववश धर्म होना आज दुर्लभ है, परवश बहुत कुछ हो सकता है। हमें कहने की आवश्यकता न पड़े और हमारा जीवन स्वयं ही उपदेश देने लगे यही हमारा धर्म है। यही धर्म का माहात्म्य भी है। आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और स्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादि धर्मों से ही मानी जाती है। जो मान को जीतने का पुरुषार्थ करता है वही मार्दव धर्म को अपने भीतर प्रकट करने में समर्थ होता है। मानव का उबाल शांत करने पर ही मार्दवधर्म प्राप्त होता है। सिद्धत्व में ही ऋजुता है क्योंकि स्वभाव में किसी भी प्रकार की विक्रिया सम्भव नहीं होती और विभाव में किसी भी प्रक्रिया के नहीं होती। सुरक्षा तो सरलता में है। वक्रता या चंचलता में सुरक्षा कभी संभव नहीं है। उपयोग को विकारों से बचाकर राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए यही ब्रह्मचर्य धर्म है। टेढ़ापन (तेरापन) नहीं है सीधापन अपनापन है। धर्म की प्रभावना के लिए धन का उतना महत्व नहीं है जितना कि धन को छोड़ने का महत्व है। हमारे यहाँ धर्म के अर्जन की बात कही गयी है धन के अर्जन की बात नहीं कही गयी बल्कि धन के विसर्जन की बात कही गयी है। जब से जीवन प्रारम्भ होता है तब से धर्म का पालन करना चाहिए तब कहीं अंत में जाकर कुछ काम हो सकेगा। धर्म कोई हल्की-फुल्की चीज नहीं है जिसका पालन बुढ़ापे में हो सके। मोह के ऊपर प्रहार करने का नाम है धर्म। धर्म और मोह ये दो विपक्षी दल हैं। मोह धर्म को दबाना चाहता है और धर्म मोह को। धर्म तो श्रमण धर्म ही है। गृहस्थों का धर्म एक प्रकार से धर्म नहीं है बल्कि उनका अधर्म/ पाप कुछ कम हो गया है। अधर्म को कम करने में लगे हुए हैं गृहस्थ। संसारी प्राणियों को जो सहारा/आश्रय देता है, रक्षण करता है उसका नाम धर्म है। आप लोग जिस प्रकार धन की रक्षा करते हैं, उससे भी बढ़कर धर्म की रक्षा करना चाहिए। धर्म के द्वारा ही जीवन बन सकता है। जिस समय किसी धर्मात्मा के ऊपर संकट आ जाता है उस समय दूसरा धर्मात्मा यदि छुपने का प्रयास करता है तो वह कायर है। धर्मात्मा नहीं। आज देश में सबसे बड़ी समस्या भूख की नहीं, प्यास की नहीं, बल्कि भीतरी विचारों के परिमार्जन करने की है। इसी से विश्व में त्राहि-त्राहि हो रही है। यह समस्या धर्म और दया के अभाव से ही है। जो गर्त से निकाल करके उच्च स्थान पर आसीन करा देता है उसका नाम धर्म है। जिसने धर्म का पालन किया उसकी रक्षा वह धर्म हमेशा-हमेशा करता रहता है। यह श्रद्धान की बात है। धर्म हमारे भीतर है बस अधर्म को छाँटकर भगाने की आवश्यकता है। स्वरूप हमारे भीतर है बस कुरूप को छाँटकर बाहर फेंकने की आवश्यकता है। श्रावक धर्म का समीचीन पालन करो क्योंकि श्रावक की खान से ही मुनि निकलते हैं। बंधन जब तक नहीं टूटते तब तक कितने भी प्रबंध कर लो फिर भी कुछ होने वाला नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान होने को धर्म कहते हैं। इसी को भेद विज्ञान कहते हैं। जैसे प्रकाश के आते ही अंधकार भाग जाता है वैसे धर्म के आते ही अधर्म भाग जाता है । ज्ञानार्जन के लिए अपने आपको हमेशा जवान समझना चाहिए और धर्म के लिए वृद्ध समझना चाहिए। अर्थात् ज्ञानार्जन करते समय सोचना चाहिए कि अभी मुझे बहुत जीना है और धर्म करते समय सोचना चाहिए मौत सामने खड़ी है। धार्मिक कार्य में श्रीगणेश से लेकर इति तक जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वह सब संसार से छूटने के लिए ही हैं। धर्म एक सुगंध है इसलिए वह आसपास के क्षेत्र को सुवासित कर देता है। जिसके जीवन में धर्म है, न्याय है उसकी हमेशा उन्नति होती है विजय होती है अधर्म और अन्याय हमेशा हारता ही हारता है। धन साधन है जबकि धर्म साधना है। धन पेट के लिए है और धर्म आत्मा की शांति के लिए है। धर्म एक नदी के समान है। जो निष्पक्ष होकर सबको जल प्रदान करता है। बस धर्म भी इसी प्रकार होता है। धर्म एक सूर्य के समान है, सूर्य प्रकाश बिना भेदभाव के सबके घरों में अपना प्रकाश प्रदान करता है। धर्म भी ऐसा ही है। धर्म वही है जो सबको जीना सिखलाता है, धर्म वहीं है जो सुख से जीना सिखलाता है, धर्म वही जो पक्षपात करना छुड़वाता है, धर्म वहीं है जो शांति से जीना सिखलाता है। धर्म का अर्थ कर्तव्य होता है और कर्तव्य का अर्थ करने योग्य कार्य। अपने परिणामों को संभालना अपने आत्म परिणामों की संभाल करना ही धर्म है, यही करने योग्य कार्य है। जिसके पास क्षमा धर्म है, वही क्रोध का वातावरण मिलने पर भी शान्त रहेगा। धर्मरूपी रथ को हाँकने के लिए श्रमण और श्रावक रूपी दोनों पहिये की आवश्यकता होती है। ये हमारा परम सौभाग्य है कि जिस रथ को तीर्थंकरो ने चलाया है उसमें हम भी कुछ सहयोग दे सकते हैं। धर्म से धर्म बढ़ता नहीं है, त्याग संयम, साधना से धर्म वृद्धि होती है। शराणागत आए हुए दीन दुखी, असहाय जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना संकटों से बचाकर उनका पथ प्रशस्त करना यहीं क्षत्रिय धर्म है। काल की अपेक्षा श्रावक धर्म और मुनि धर्म में शिथिलता तो आयेगी लेकिन शिथिलता आना बात अलग है और अपनी तरफ से शिथिलता लाना अलग बात है आत्मानुभूति की कलियाँ धीरे-धीरे मुरझाती जायेंगी लेकिन समाप्त नहीं होगी। धर्म एक चुम्बक की तरह है, जिस तरह चुंबक में लोहा चिपका रहता है, ठीक उसी प्रकार पुण्यात्मा के पास लक्ष्मी बनी रहती है। धर्म के प्रति भावना जागृत होना बड़े पुण्य के उदय का काम है। बड़े महान् पुण्य के उदय का काम है जो धर्म ध्वजा धारण करता है । धर्म को हम भोग, ऐशो आराम के लिए ख्याति पूजा लाभ के लिए करते हैं परन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए हम जो करते हैं वह हमारे लिए ही है, हमारी उन्नति के लिए है, यह विश्वास पहले दृढ़ बनाना चाहिए। आचार्य कहते हैं ख्याति, पूजा लाभ के लिए नहीं किन्तु कर्मक्षय के हेतु धर्म होना चाहिए। यदि कोई भी हित है तो वह है धर्म। धर्म को छोड़ करके जितने भी पदार्थ हैं वो सारे के सारे हमारे हित में नहीं हो सकते। सत्य को छोड़कर मात्र इन्द्रिय सुखों के लिए असत्य का पोषण नहीं करना चाहिए। सत्य, अहिंसा धर्म का पालन करना चाहिए जिनके माध्यम से आत्मा का बल जागृत होता है। आपके आश्रित धर्म है, धन के माध्यम से धर्म नहीं होता है। संसाररूपी दुख से आत्मा को ऊपर उठा लें उसका नाम धर्म है। धार्मिक अनुष्ठानों में कामचलाऊ या खाना पूर्ति का भाव कभी नहीं होना चाहिए। भावपूर्वक एवं विधि पूर्वक समय से कार्य करना चाहिए। धर्म करने के लिए अधर्म के संस्कारों से बचना चाहिए। यदि आप लोग अपनी मन रूपी दीवाल पर धर्मध्यान रूपी रंग चढ़ाना चाहते हो तो पहले उस मन की कलुषता को खरोंच-खरोंच कर साफ करो। इसी का नाम संस्कार है। धार्मिक कार्यों में बाहरी सजावट की नहीं किन्तु भीतरी सजावट की मुख्यता होनी चाहिए। जैसे किसान बीजों को सुरक्षित करके शेष अन्न का सेवन करता है, उसी प्रकार हे भव्य प्राणी तू भी धर्म रूपी बीजों को बचाकर पुण्य रूपी फलों का सेवन करे। आज तक तुझे जो भी पुण्य रूपी फलों की प्राप्ति हुई है, वह धर्मरूपी बीजों का फल है। आज व्यक्ति अर्थ की लिप्सा में धर्म को भूल गया है। आज भारत ने अर्थ विकास को ध्यान में रखकर परमार्थ के विकास को भुला दिया है। धार्मिक कार्य रुचि पूर्वक करो करना पड़ रहा है ऐसा सोचकर नहीं करना किन्तु अन्य गृहकार्यों को करना पड़ रहा है, ऐसा सोचकर ही करो। इस मानसिकता के साथ गृहस्थ घर में रहकर भी धर्मध्यान करके कर्म निर्जरा कर लेता है। जिसका मन पवित्र होता है वह हमेशा धर्म ध्यान कर सकता है लेकिन जिसका मन कषायों से मलिन होता है, वह शीघ्रता से धर्मध्यान करने की भूमिका नहीं बना पाता। उस मन को डॉट कर अपने धर्मध्यान के विषय में एकाग्र करना आवश्यक होता है। मन को विषयों से हटाकर आवश्यकों में लगाना ही धर्म ध्यान है। कहीं भी रहो मन को विषय कषायों से बचाकर रखो यही धर्मध्यान है। राज्य की सीमा पर मिलिट्री सेना खड़ी है वह भी धर्मध्यान कर रही है। बार्डर पर तैनात होकर अपने कर्तव्य करती है, यही उसका धर्म ध्यान है। उसी के बल पर आप भी धर्मध्यान कर पा रहे हैं। ध्वजा की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है अत: मिलिट्री के समान धर्मध्वजा की रक्षा में हमेशा तत्पर रहिये। गुरु के पग चिह्न ही धर्म पथ हैं। जो जैनधर्म में कलंक लगाएगा, उसका भव-भव बिगड़ेगा। जैनधर्म की हंसी न हो ऐसा कार्य करना चाहिए। गुणों की उपासना जो सिखाता है वह अहिंसा धर्म है। जो अपनी आवश्यकताओं को जीतता है वह जैनधर्म है। बुराई को छोड़ने वाला और छुड़ाने वाला धर्म है धर्म व्यक्ति की अपेक्षा नहीं गुणापेक्षा होता हैं। मानव धर्म में कहा है- जिसको छोटा बालक भी बुरा कहता है, वह अधर्म है और जो अच्छा कहता है वह धर्म है। जो धर्म कर्म विनाशक नहीं होता वह समीचीन नहीं हो सकता। धर्म दिखाने और किसी पर मेहरबानी करने के लिए नहीं किया जाता बल्कि कर्म क्षय के लिए किया जाता है तभी वह समीचीन माना जाता है। पाप करोगे पापी कहलाओगे, धर्म करोगे धर्मात्मा, स्वयं के कार्यों के माध्यम से टाइटल मिलते हैं किसी की कृपा से नहीं। किसी ने कहा गुरुओं की कृपा भी तो काम करती है आचार्यश्री जी बोले कृपा मात्र से कुछ नहीं होता कृपा पाकर पला पौधा (छाया में पला पौधा) अच्छा नहीं होता, लचीला सा लगता है। इच्छा पूर्वक उत्साह पूर्वक, धर्मामृत का पान करना कराना चाहिए। धर्मामृत का सेवन करें चौबीसों घंटे मुनिराज इसका पान करते रहते हैं। अति परिचय एवं अति आग्रह से धर्म का, धर्मात्मा का महत्व कम होता जाता है। धर्म मात्र क्रियात्मक नहीं बल्कि श्रद्धात्मक एवं राग द्वेष का अभाव तथा आत्मस्थ रहना यह धर्म है। धर्म का पालन करने वाले को अद्भुत फल मिलता है लेकिन उन फलों को भोगने में उसका मन नहीं लगता, वह तो उसी रत्नत्रय की आराधना करता रहता है। हमारा बंधु/सगा संगी साथी कोई है तो वह है धर्म। हे आत्मन्! तू रोता क्यों है? तीन लोक की दुर्लभ वस्तु धर्म तुझे प्राप्त हुआ है। विशुद्धि का नाम धर्म नहीं है, प्रतिकूलता में शान्ति रखने का नाम धर्म है। पुरुषार्थ के माध्यम से कमाना धर्म है जैनधर्म है।
  16. ध्यान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ध्यान के केन्द्र खुल रहे हैं, ध्यान को केन्द्रित नहीं कर रहे हैं। अण्डर ग्राउण्ड में जाकर भी अण्डर में नहीं हैं। ध्यान की बात भीड़ में और ध्यान से बात एकान्त में। ज्ञान को ध्यान नहीं कहा किन्तु ज्ञान के विश्राम का नाम ध्यान है, वही कर्म निर्जरा में कारण होता है। ऐसे सूत्रों को बार-बार ध्यान में लाते रहना चाहिए तभी पूर्व के मोह के संस्कार जा पायेंगे अन्यथा सबका मन विचक जाता है। जिसका मन नहीं विचकता वही ध्याता है। आसन, समय, दिशा, स्थान इन्हें जो भूलते हैं, वे ध्यानी कहलाते हैं। पंचपरमेष्ठी की आराधना से ध्यान, स्वाध्याय व तप भी हो जाता है इसलिए इसका महत्व है। कल्याण दूसरों के आश्रित नहीं होता। कल्याण करने वालों को कल्याणक हो रहे या नहीं इसका ध्यान नहीं रहता । कल्याण करने वाला तो अपना कल्याण करके चला जाता है | तत्व चिंतन में नहीं ध्यान में एकाग्रता रहती है। पंचेन्द्रिय विषयों की उपेक्षा नहीं हुई तो ध्यान नहीं लग सकता। ध्यान विषयों में ही रहता है। पर (दूसरे के) संपर्क रूपी ईंधन से बचो, ध्यान अपने आप लग जायेगा। ध्यान का केन्द्र खोलना ठीक नहीं, ध्यान को केन्द्रित करना ठीक है। भेदविज्ञान की वेदी पर ही ध्यान की मूर्ति विराजमान होती है। पंच परमेष्ठी के ध्यान से विकल्प नहीं होते हैं, किन्तु संसार के सारे विकल्प छूट जाते हैं। चारित्र का उपसंहार ध्यान में होता है। आप लोगों के द्वारा दिया हुआ आहार प्राण के रूप में परिणत हो जाता है, जो कि ध्यान के लिए पेट्रोल का काम करता है। ध्यान रूपी गाड़ी को आगे बढ़ाता है। साथ ही आप लोगों की कर्म निर्जरा एवं पुण्य कार्य के आस्रव में कारण बनता है। ध्यान वही है जिसका उद्देश्य अच्छा है, ध्येय अच्छा है। ध्यान लगाना उपचार है। ध्यान लग जाना स्वस्थ्यता का प्रतीक। चिंतन का प्रयोग वायुमंडल में प्रवाहित चंदन जैसा होना चाहिए। मुझे भी लाभ मिले, अन्य भी लाभान्वित हो सके। चिंतन की सुगंध का विशाल कोष हमारे अंदर विद्यमान है, केवल प्रयोग में लाना है। चिंतन की सुगंध से संसार का संघर्ष समाप्त हो सकता है। परोपकारी लोग अपने द्रव्य से स्वयं के लाभ के साथ पर लाभ का भी चिंतन करते हैं। बारह भावना को चिंतन करने से निश्चित रूप से भव्य को सिद्धि का लाभ होगा। आनंद का लाभ होगा। वस्तु तत्व के चिंतन से जो बल मिलता है वह अति साहस से भी नहीं मिलता। जिसके ध्यान करने से पाँच प्रकार के संसार का परिभ्रमण नाश को प्राप्त होता है ऐसे आत्मतत्व का ध्यान आदर के साथ करो। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक् चारित्र और ध्यानादि के द्वारा मोहनीय कर्म को छोडो। मन को रोकने का नाम ध्यान है। चिंतन का नाम ध्यान है ही नहीं, क्योंकि चिंतन मन के द्वारा होता है। मन में ऐसी भावना करना कि सब जीव सुख का अनुभव करें यह भी ध्यान हुआ। करोड़ों जाप का उतना फल नहीं, जितना इसका है। सब जीवों का कल्याण हो ऐसा ध्यान करने से अपने आप ही स्वार्थ मिट जाते हैं, ध्यान में एक काम बहुत अच्छा हो जाता है कि स्वार्थ समाप्त हो जाता है। जीवों का ध्यान करो। जड़ का ध्यान छोड़ दो। जीव का ध्यान करते हैं तो भगवान दिखते हैं और अगर नहीं भी दिखते सब जगह लेकिन होने योग्य भगवान् तो जहाँ जाओ वहाँ पर आपको मिलेंगे। पाप की ओर दृष्टि नहीं ले जाना ही ध्यान है। ध्यान करो तो कोई बात नहीं लेकिन दुर्ध्यान से बचो। जो हिंसादि पाँच पाप नहीं छोड़ सकता उसके आर्तध्यान, रौद्रध्यान नहीं छूटेगा। शवासन नहीं लगाओ शिवासन लगाओ। अच्छे से बैठकर ध्यान करो।
  17. दोष और गुण विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दोषों के आविष्कार की प्रवृत्ति जब तक रहेगी तब तक वीतराग सम्यक दर्शन की भूमिका भी नहीं बनती। दोष निवारण के चार उपाय-१. पश्चाताप, २. निवेदन, ३. प्रायश्चित और, ४. सामयिक (समता) । कभी भी कोई विसंवाद आदि हो जाये, कोई दोष हो जाये तो उनकी शुद्धि करने के लिए एक कोई भी गाथा के अवलम्बन से जाप कर लिया। गलती के समय गुरु यदि शिष्य की गलती को नहीं बतायें तो गुणभद्राचार्य ने गुरु को ही अपराधी कह दिया। माँ-पिता जैसे बच्चों को बताते हैं, पालते-पोषते हैं बिल्कुल वैसी ही मुद्रा गुरुदेव की शिष्य को समझाते समय रहती है। दोष होने के कारण, प्रमाद से, संगति से, व्रतों के प्रति असावधानी बरतने से। दोषों के निराकरण में बुद्धि लगाओ तो अवश्य गुण बढ़ेंगे। आपके दोष किसी ने देखे अथवा न देखे तब भी आपको उसे शुद्ध करना है। एक-दूसरे की आलोचना करने की अपेक्षा आत्मा की आलोचना करो। दोषों के प्रति पश्चाताप होना चाहिए सिर्फ पाठ से कुछ नहीं होता। कमी को निकालने का नाम ही तो मोक्षमार्ग है। एक दूसरे की कमी बताने में आत्म आलोचना नहीं होती। अपने-अपने दोषों को सही बताने से सही आलोचना होती है। समर्पित होने के बाद दोषों की पुनरावृत्ति नहीं होना चाहिए। एक बार यदि गलती (दोष) होने के उपरान्त पश्चाताप प्रायश्चित हो जाता है तो बाद में पुण्यवर्धन होता चला जाता है। बिना प्रायश्चित के नहीं होता। पाप के प्रक्षालन के लिए ही तो प्रायश्चित होता है। असावधानी से बड़े-बड़े अपराध हो जाते हैं और सावधानी से बड़े-बड़े अपराध टल जाते हैं। दूसरों के दोष देखने में अंधे, बहरे, गूंगे हो जाना चाहिए, लेकिन हम दूसरों के दोष देखने में सहस्त्राक्ष हो जाते हैं। दोषों को पहचानो ग्रहण मत करो, गुण ग्रहण का भाव रखो। हंस दूध और पानी को अलगअलग नहीं करता बल्कि दूध को ग्रहण करता है और पानी को छोड़ देता है। उसी प्रकार आप भी दोष और गुण की पहचान रखिये, गुणों को ग्रहण करिये। दूसरे के दोष न देखना, न लेना ही अपने में गुण पैदा करना है। दोषों के बारे में जो जानकारी नहीं रखता वह कभी उन्नति नहीं कर सकता। तप वह रसायन है जिससे अभ्यंतर दोषों की शुद्धि होती है। दूसरे की आलोचना करने की अपेक्षा दूसरे के गुणों की प्रशंसा करो तो आगे जो शेष गुण अपने में नहीं है वे हमें प्राप्त हो जावेंगे। जिसकी दृष्टि दोषों की ओर नहीं गई वह अपने सम्यक दर्शन को बढ़ाते हैं परन्तु जो दोषों को देखते हैं वह स्वयं गिरते हैं और गिराते हैं। जो दूसरों के दोषों को देखता है वह अपना सम्यक दर्शन लुप्त करता है। गुणों की गवेषणा करने वाला चाहिए। यदि आप एक-एक गुण का चयन करते हैं तो हजारों लाखों गुणों का संचय हमारे पास हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चे रेत के घरौंदे बनाकर अपने पैर को चौखट बना लेते हैं। थोड़ी सी सावधानी के साथ वह पैर को निकालकर एक दरवाजा तो अवश्य बनाते हैं, ऐसे ही एक न एक गुण तो अवश्य ग्रहण करें। आज तक भगवान हम नहीं बन पाये इसका कारण यही है कि भक्त बनने का एक भी गुण हमने ग्रहण नहीं किया। गुणों का ही संसार में मूल्य है। इससे ही कद्र होती है। गुणवान की ही हर जगह मांग होती है। यदि हमारे पास से गुण निकल गये तो हम दिवालिया हो जायेंगे। हम प्राय: एक-एक गुण को लेकर चलते हैं ये गलत है। गुणों का साम्य हो कोई छोटा बड़ा न हो सभी के गुणों का विकास हो। जैसे-धीरे-धीरे एक-एक चीज हैं तो बच्चा अच्छे से खाता है और यदि सारी चीजें एक साथ परोस दी तो वह सोचता है क्या खाऊँ? इसी प्रकार छह आवश्यकों में प्रत्येक के प्रति हमारा उत्साह बना रहे तो आनंद आता है। गुण कभी गुणी नहीं होता व्यक्ति गुणी होता है। गुणी को ध्यान में रखो। दोष की परिभाषा-गुणों की ओर दृष्टि लाकर स्व दोषों की ओर ध्यान देना है और उन दोषों को हटाना है। गल्तियों की अनुभूति के लिए उनकी पहचान भी अनिवार्य है।
  18. ब्रह्मचर्य से अर्थ वस्तुत:, सही-सही मायने में है- चेतन का भोग। ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं है, भोग के साथ एकीकरण और रोग-निवृत्ति है। जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति, चेतन द्रव्य होते हुए भी जड़ माना जायेगा। जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य आत्मा नहीं है वह गुलाम है। बोध की चरम सीमा होने के उपरान्त ही शोध हुआ करता है। उस बोध को ही शोध समझ लें तो गलत है और आज यही गलती हो रही है। शोध का अर्थ है - अनुभूति होना। मणिमय मन हर निज अनुभव से, झग-झग झग-झग करती है, तमो - रजो अरु सतो गुणों के, गण को क्षण में हरती है। समय – समय पर समयसार मय, चिन्मय निज ध्रुव मणिका को, नमता मम निर्मम मस्तक तज, मृणमय जड़मय मणिका को || (निजामृतपान) धर्म प्रेमी बन्धुओ! भगवान् महावीर ने जो सूत्र हमें दिये, उनमें पाँच सूत्र प्रमुख हैं, उनमें से चौथा सूत्र है ब्रह्मचर्य जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पतित से पावन बनने का यह एक अवसर है। यदि हम इस सूत्र का आलम्बन लेते हैं तो अपने आपको पवित्र बना सकते हैं। ब्रह्मचर्य की व्याख्या आप लोगों के लिए नई नहीं है, किन्तु पुरानी होते हुए भी उसमें नयेपन के दर्शन अवश्य मिलेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-अपनी परोन्मुखी उपयोग धारा को स्व की ओर मोड़ना, बहिर्दूष्टि-अन्तर्दूष्टि बन जाये, बाहरी पथ-अन्तर पथ बन जाये। बहिर्जगत् शून्य हो जाये, अन्तर्जगत् का उद्धाटन हो। यह ध्यान रहे कि ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुत: सही-सही मायने में है - 'चेतन का भोग।' ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं, भोग के साथ एकीकरण और रोग निवृत्ति है। जिसको आप लोगों ने भोग समझ रखा है वह है रोग का मूल और ब्रह्मचर्य है जीवन का एकमात्र स्त्रोत। दस साल विगत प्राचीन बात है, एक विदेशी आया था, वह कह रहा था कि ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना कठिन है, आप इसे न अपनायें क्योंकि आज के जितने भी वैज्ञानिक हैं उन सबने यह सिद्ध किया है कि भोग के बिना जीवन नहीं है। मैंने भी उन्हें यही समझाया कि भोग जहाँ पर है वहीं पर तो मैं रोग समझता हूँ। आपके भोग का केन्द्र भौतिक सामग्री है और मेरे भोग की सामग्री बनेगी ‘चैतन्य शक्ति'। विषय वासना मृत्यु का कारण है, मृत्यु दुख है, दुख का कूप है और ब्रह्मचर्य जीवन है, आनन्द है, सुख का कूप है। आप सुख चाहते हैं, दुख से निवृत्ति चाहते हैं तो चाहे आज अपनायें, चाहे कल अपनायें, कभी भी अपनायें किन्तु आपको अपनाना यही होगा। रोग की निवृत्ति के लिए औषधपान परमावश्यक होता है। बिना औषधपान के रोग ठीक नहीं हो सकेगा। भगवान् महावीर ने जो चौथा सूत्र ब्रह्मचर्य का दिया है वह बहुत महत्वपूर्ण है, अपने में पूर्ण है। आज तक जितने भी अनन्त सुख के भोक्ता बने हैं उन सबने इसका समादर किया है और जीवन में अपनाया है, अपने जीवन में इसको स्थान दिया है, मुख्य सिंहासन पर विराजमान कराया है इसे, भोग-सामग्री को नहीं। ब्रह्मचर्य पूज्य बना किन्तु भोग सामग्री आज तक पूज्य नहीं बनी। हाँ ब्रह्मचर्य पूज्य तो आपकी दृष्टि में भी बना किन्तु पूजा तो भोग-सामग्री की हो रही है आप लोगों के द्वारा, यह एक दयनीय बात है, दुख की बात है। जैन साहित्य या अन्य कोई दार्शनिक-साहित्य देखने से विदित होता है कि आत्मा को सही-सही रास्ता तभी मिल सकता है जब कि हम उस साहित्य का अध्ययन, मनन, चिन्तन व मन्थन करें। हम मात्र उसे सुनते हैं। सुनने से पहले यह सोचना होगा कि हम क्यों सुन रहे हैं ? दवाई लेने से पूर्व हम यह निर्णय अवश्य करते हैं कि दवा क्यों ली जाये? एक घंटे यदि श्रवण करते हैं तो मैं समझता हूँ कि इसके लिए कम से कम आठ घन्टे चिन्तन-मननमन्थन आवश्यक है। मैं कैसे खिलाऊँ। आप लोगों को कैसे पिलाऊँ आप लोगों को, जबकि आप लोगों की पाचन की ओर दृष्टि ही नहीं है। वह पचेगा नहीं तो दुबारा खिलाना ही बेकार चला जायेगा। उस खाये हुए अन्न को मात्र विष्ठा नहीं बनाना है, उसमें से सारभूत तत्व को अपनी जठराग्नि के माध्यम से पकड़ना है। जठराग्नि ही नहीं तो फिर क्या होगा? संग्रहणी के रोगी को जैसे होता है कि ऊपर से डालते हैं वह वैसे ही निकल जाता है, उसी प्रकार आपकी स्थिति है। पर फिर भी कुछ गुंजाइश है, जठराग्नि कुछ उत्तेजित हो जाये और कुछ हजम हो जाये तो ठीक ही है। उपयोग की धारा को बाहर से अन्दर की ओर लाना है, तभी ब्रह्मचर्य व्रत पालन हो सकता है अथवा यूँ कहिये कि उपयोग की धारा जिस पदार्थ में अटक रही है उस पदार्थ से वह स्थानान्तरित (Transfer) हो जाये और गहराई तक उतरने लग जाये। चाहे अपनी आत्मा में भी जाये, चाहे दूसरे की आत्मा में भी जाये पर उपयोग को खुराक मिलनी चाहिए ‘आत्मतत्व' की, जड़ नहीं अपितु चैतन्य की! जहाँ पर बहुत सारी निधियाँ हैं, बहुत सारी संख्या बिछी हुई है। वह सम्पदा उस उपयोग की खुराक बन सकती है, सही-सही मायने में वही खुराक है और इसके लिए हमारे आचार्यों ने ब्रह्मचर्य व्रत पर जोर दिया है, क्योंकि उस आत्मा को एक बार तृप्त करना है जो अनादिकाल से तप्त है। ब्रह्मचर्य का विरोधी धर्म है ‘काम’, इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करनी है। यह काम और कोई चीज नहीं है, ध्यान रखिये वही उपयोग है जो कि बहिवृत्ति को अपनाता जा रहा है उसी का नाम है काम। वही उपयोग, जो कि भौतिक सामग्री में अटका हुआ है, वही काम है महाकाम है, यह अग्नि अनादिकाल से जला रही है उस आत्मा को। कामाग्नि बुझे और आत्मा शांत हो। उस कामाग्नि को बुझाने में दुनियाँ का कोई पदार्थ समर्थ नहीं है, बल्कि यह ध्यान रहे कि उस कामाग्नि को प्रदीप्त करने के लिए भौतिक सामग्री घासलेट-तेल का काम करती है। आपको यह आग बुझानी है, या उदीप्त करनी है ? नहीं, नहीं! बुझानी है, ये चारों ओर जो लपटें धधक रही हैं उसमें से अपने को निकालना है और वहाँ पर पहुँचना है जहाँ चारों ओर लपटें आ रही हैं शान्ति की, आनन्द की, सुख की। हम यहाँ एक समय के लिए भी आनन्द की श्वास नहीं ले रहे हैं। ऐसे दीर्घ श्वास तो निकल रहे हैं जो कि दुख के, परिश्रम के प्रतीक हैं श्वाँस की गति अवरूद्ध नहीं है, चल रही है, अनाहत चल रही है किन्तु आनन्द के साथ नहीं क्योंकि मृत्यु की स्मृति या मृत्यु का वार्तालाप भी सुनते ही हृदय की गति में परिवर्तन आ जाता है और विषय की, वासनाओं की जो लहर चल रही है उसमें आप रात दिन आपाद कण्ठलीन हैं, उसी का परिणाम दुख के साथ श्वास है, सुख के साथ नहीं। इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करना है अर्थात् अपने बाहर की ओर जा रहे उपयोग को जो कि भौतिक सामग्री में अटक रहा है उसे आत्मा में लगाना है। आत्मा में नहीं लगा पाते इसीलिए कामाग्नि धधक रही है। काम पुरुषार्थ का उल्लेख मिलता है भारतीय साहित्य में। कई लोगों की इस काम-पुरुषार्थ के बारे में यह दृष्टि रह सकती है कि काम-पुरुषार्थ का अर्थ भोग है, पर लौकिक नहीं चैतन्य का। सही-सही मायने में वह काम-पुरुषार्थ से ही मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर जाना है। वह काम-पुरुषार्थ की ओर देखते हुए, उसका अध्ययन करते हुए क्या मोक्ष-पुरुषार्थ में जा सकता है क्योंकि वहाँ से जाने का कोई रास्ता नहीं है? लेकिन काम-पुरुषार्थ का अर्थ बाह्य वातावरण में घूमते रहना ही नहीं लेना चाहिए, काम-पुरुषार्थ का अर्थ ही है गहरे उतरना। काम+पुरुष+अर्थ, इन तीन शब्दों के योग से ‘काम-पुरुषार्थ' यह पद निष्पन्न हुआ है। काम-पुरुष-अर्थ, काम अर्थात् भोग, पुरुष अर्थात् प्रयोजन। पुरुष के लिए काम आवश्यक है, पुरुष के दर्शन के लिए नितान्त आवश्यक है, इसके बिना वहाँ पहुँच नहीं सकते हम। अर्थात् चैतन्य भोग के बिना हम आत्मा तक पहुँच ही नहीं सकते। पहुँचना वहीं पर हैं-पुरुष तक पहुँचने के लिए यह काम (चैतन्य भोग) सहायक तत्व है। आप लोग अटकने वाला गुलाम होता है। आप तो गुलाम हैं आप मानो या न मानो, क्योंकि जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य पुरुष (आत्मा) नहीं है वह गुलाम तो है ही। जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति चेतन द्रव्य होते हुए भी जड़ माना जायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है और जो लक्ष्य से पतित हैं वे भटके हुए माने जायेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं है। काम-पुरुषार्थ से धीरे-धीरे उन्नत करने के लिये यह भारतीय आचार संहिता है जो कि विवाह के ऊपर जोर देता है। कई लोगों की दृष्टि हो सकती है कि विवाह अर्थात् ब्रह्मचर्य से स्खलित करना, किन्तु नहीं! ब्रह्मचर्य के और निकट जाना है यह शार्टकट है, घुमावदार रास्ता है वहाँ पर जाने के लिये, क्योंकि विवाह की डोरी में बंधने के बाद वह आत्मा फिर चारों ओर से अपने आप को छुड़ा लेता है और उस डोरी के माध्यम से वह आत्मा तक पहुँचने का प्रयास करता है। कोई किसी बहाव को देश से देशान्तर ले जाना चाहते हैं तो उसे रास्ता देना होगा तभी वह बहाव वहाँ तक पहुँच पायेगा अन्यथा बह मरुभूमि में समाप्त हो जायेगा। आप लोगों का उपयोग भी आज तक पुरुष के पास इसलिये नहीं पहुँच रहा है कि इस तक बहने के लिये कोई रास्ता आपके पास नहीं है और अनन्तों में जब बह बहने लग जाता है तो वह उपयोग सूख जाता है क्योंकि छद्मस्थों का ही तो उपयोग है। उस उपयोग के लिये, उस झरने के लिये कुछ रास्ता आवश्यक है, अनन्तों से वह रास्ता बन्द हो जाता है। इसके लिये सही-सही रास्ता आवश्यक है और वही है काम, वही है असली विवाह, जिसके माध्यम से वह वहाँ तक जा सके। आपने विवाह के बारे में सोचा है कुछ आज तक? जहाँ तक मैं समझता हूँ इस सभा में ऐसा कोई भी नहीं होगा जो विवाह से परिचित न होगा, लेकिन विवाह के उपरान्त भी वह पुरुष (आत्मा) के पास गया नहीं, इसलिए विवाह केवल एक रुढ़िवाद रह गया है। विवाह से अर्थ काम-पुरुषार्थ है और यह आवश्यक है, किन्तु इस विवाह के दो रास्ते हैं एक गृहस्थ आश्रम सम्बन्धी व दूसरा मुनि आश्रम सम्बन्धी। आप लोगों ने उचित यही समझा कि गृहस्थाश्रम का विवाह ही अच्छा है। अनन्त भोग सामग्रियों से आपको मुक्ति मिलनी चाहिए थी किन्तु नहीं मिल पाई। जिस समय विवाह-संस्कार होता है उस समय उस उपयोगवान आत्मा में संकल्प दिया जाता है पंडितजी के माध्यम से कि अब तुम्हारे लिये संसार में जो स्त्रियाँ हैं वे सब माँ बहिन और पुत्री के समान हैं। आपके लिए एकमात्र रास्ता है, इसके माध्यम से चैतन्य तक पहुँचने का। प्रयोगशाला में एक विज्ञान का विद्यार्थी जाता है, प्रयोग करना प्रारम्भ करता है जिस पर प्रयोग किया जाता है उसकी दृष्टि उसी में रुक जाती है और वह अपने आपको भूल जाता है पासपड़ोस को तो भूल ही जाता है, स्वयं को भी भूल जाता है। एकमात्र उपयोग काम करता है तब वह विज्ञान का विद्यार्थी सफलता प्राप्त करता है, प्रयोग सिद्ध कर लेता है प्रेक्टीकल के माध्यम से वह विश्वास को दृढ़ बना लेता है ऐसी ही प्रयोगशाला है विवाह। विवाह का अर्थ है दो विज्ञान के विद्यार्थी पति और पत्नि। पत्नी के लिये प्रयोगशाला है पति और पति के लिये प्रयोगशाला है पत्नी, पत्नी का शरीर नहीं आत्मा! यह ध्यान रहे कि वे ऊपर से स्त्री व पुरुष हैं पर अन्दर से दोनों पुरुष हैं (अर्थात् आत्मा हैं)। स्त्रियाँ भी पुरुष के पास जा रही हैं और पुरुष भी पुरुष के पास जा रहे हैं। दोनों पुरुष हैं पर ऊपर स्त्री पुरुष के वेद के भेद हैं। किन्तु वेद के भेद ही वहाँ पर अभेद के रूप में परिणत हो रहे हैं और अभेद की यात्रा प्रारम्भ हो रही है, यह है विवाह की पृष्ठ-भूमि! अभी तक आप लोगों ने विवाह तो किया होगा पर पति सोचता है पत्नी मेरे लिये भोग-सामग्री है और पत्नी सोचती है कि पुरुष-पति मेरे लिये भोग-सामग्री है, बस इतना ही समझकर ग्रन्थि बन जाती है, विवाह हो जाता है बंधन में बंध जाते हैं, इसलिये आनन्द नहीं आता। इसीलिये जैसे-जैसे भौतिक कायायें सूखने लगती हैं, बेल सूखने लगती है, समाप्त प्राय: होने लग जाती है तो दोनों एक दूसरे के लिये घृणा के पात्र बन जाते हैं। पति से पत्नी की नहीं बनती और पत्नी से पति की नहीं बनती और बस बीच में दीवार खिंच जाती है। वह तो लोक नाता है जिसे निभाते चले जाते हैं निभता नहीं निभाना पड़ता है क्योंकि अग्नि के समक्ष संकल्प किया था। दो बैल थे, वे एक गाड़ी में जोत दिये गये। एक किसान गाड़ी को हांकने लगा। एक बैल पूर्व की ओर जाता है तो एक बैल पश्चिम की ओर, बस परेशानी हो जाती है। बैलों को तो पसीना आता ही है, किसान को भी पसीना आना प्रारम्भ हो जाता, वह सोचता है कि अब गाड़ी आगे नहीं चल पायेगी। यही स्थिति गृहस्थाश्रम की है। आप लोगों का रथ प्राय: ऐसा ही हो जाता है। पत्नी एक तरफ खींच रही है तो पति दूसरी ओर, अन्दर का आत्मा सोच रहा है कि यह क्या मामला हो रहा हैं ? आप लोग आदर्श विवाह तो करना चाहते हैं दहेज से परहेज करने के लिए किन्तु आदर्श विवाह के माध्यम से अपने जीवन को आदर्श नहीं बना पाये। इसलिए आपका वह आदर्श विवाह एकमात्र आर्थिक विकास के लिए कारण बन सकता है किन्तु पारमार्थिक विकास के लिए कारण नहीं बनता। आदर्श विवाह था राम और सीता का। दोनों ने किस प्रकार उस विवाह के माध्यम से, डोरी के माध्यम से, सम्बन्ध के माध्यम से अपने जीवन को सफलीभूत बनाया। आपको याद रहे कि वह सीता भोग सामग्री थी राम के लिए, राम भोग सामग्री थे सीता के लिए। पर उनकी दृष्टि में अनन्त जो सामग्री बिछी थी चारों ओर वह भोग सामग्री नहीं थी, उस प्रयोगशाला में जो कोई भी पदार्थ इधर-उधर बिखरा हुआ है, विद्यार्थी को उनका कोई ध्यान नहीं रहता उसी प्रकार उन्हें बाहर की वस्तुओं से कोई मतलब नहीं था। उनकी यात्रा अनाहत चल रही थी। इसी बीच हजारों स्त्रियों के साथ जीने वाला रावण, एक भूमिगोचरी सीता के ऊपर दृष्टिपात करता है किन्तु सीता की आत्मा के ऊपर दृष्टिपात नहीं करता, सीता की आत्मा तक उसकी दृष्टि नहीं पहुँचती अपितु गोरी-गोरी उस काया की माया में डूब जाता है और अपने जीवन को भी वह धो देता है। यह ध्यान रहे कि उसकी दृष्टि सीता की आत्मा तक पहुँच जाती तो उसे अवश्य मार्ग मिल जाता, उसका जीवन सुधर जाता। सीता की चर्या के माध्यम से राम का जीवन सुधरा और राम के जीवन के माध्यम से सीता का जीवन सुधरा। वे एक दूसरे के पूरक थे। जैसे कि राह में दो विद्यार्थी परस्पर एक दूसरे के सहयोग से चलते जाते हैं, गिरते नहीं हैं। इस प्रकार वे दोनों भी चले जा रहे थे। इधर-उधर उपयोग न भटके इसलिए दृढ़ निश्चय करके एक ही विषय में दो विद्यार्थी जुटे हुए थे, वे राम और सीता। ज्यों ही रावण बीच में आया, तो राम सोचते हैं कि इसके लिए यहाँ पर स्थान नहीं है, हमारे जीवन के बीच में कोई नहीं आ सकता। कोई आता है तो वह व्यवधान सिद्ध होगा और उस व्यवधान को हम सर्वप्रथम दूर करेंगे। जब तक यह रहेगा तब तक हम दोनों का जीवन एक साथ चल नहीं सकता। फिर भी रावण आता है तो राम को कुछ प्रबन्ध करना ही पड़ता है। रावण को मारने का इरादा नहीं किया राम ने, मात्र अपने प्रशस्त मार्ग में आने वाले व्यवधान को हटाने का प्रयास किया और सीता के पास जाने का प्रयास किया उन्होंने। सीता ने जिस संकल्प के साथ इस ओर कदम बढ़ाया था, उसकी रक्षा करना, समर्थन करना राम का परम धर्म था और राम का समर्थन करना सीता का परम धर्म था। उन दोनों ने धर्म का अनुपालन किया। भोग का (सांसारिकता का) अनुपालन नहीं, योग (चैतन्य) का सहारा लिया, उसके बिना चल नहीं सकते थे, चलना अनिवार्य था, मंजिल तक पहुँचना था, इसलिए साथी को अपनाया यह ध्यान रहे कि विवाह पद्धति का अर्थ मोक्ष-मार्ग में साथी बनाना है। विवाह का अर्थ संसार-मार्ग की सामग्री नहीं है। विवाह तो पाश्चात्य शहरों में भी होते हैं पर वहाँ के विवाह, विवाह नहीं कहलाते । वहाँ पर पहले राग होता है और तब बन्धन होता है, यहाँ पहले बन्धन होता है, पीछे राग होता है, और वह राग, राग नहीं आत्मानुराग प्रारम्भ होता है। पहले संकल्प दिये जाते हैं फिर बाद में उनके साथ सम्बन्ध होता है, अन्यथा नहीं। इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ बहुत गूढ़ है। जब तक उनका (राम व सीता का) सांसारिक गृहस्थ धर्म चलता रहा तब तक उन्होंने एक दूसरे के पूरक होने के नाते अपने आप के जीवन को चलाया। अन्त में सीता कहती है कि हमने एम. ए. तो कर लिया अब पीएच. डी. करना है स्वयं का शोध करना है। शोध के लिए पर्याप्त बोध मिल चुका है, बोध की चरम सीमा हो चुकी है। बोध की चरम सीमा होने के उपरान्त ही शोध हुआ करता है। एम. ए. का विद्याध्ययन शोध के लिए आवश्यक है, उसके बिना शोध नहीं हो सकता उस बोध को ही शोध समझ लें तो गलत हो जायेगा, आज यही हो रहा है। शोध करना तो दूर रह जाता है मात्र इतना ही पर्याप्त समझ लेते हैं कि सोलहवीं कक्षा पास कर ली तो हमने बहुत कुछ कर लिया, पर वस्तुत: किया कुछ नहीं। शोध अब प्रारम्भ होगा अपनी तरफ से अनुभूति अब प्रारम्भ होगी। अभी तक अनुभूति नहीं, मात्र Guideline (दिशानिर्देश) मिली है। एम. ए. का अर्थ है दूसरे के Guidance (मार्गदर्शन) के माध्यम से अपने आप के बोध को समीचीन बनाना और फिर इसके उपरान्त अनुभूति का अर्थ-अब किसी प्रकार की Taxt BOOK नहीं है, कोई बन्धन नहीं है, अब शोध करना है। सीता के पास अब इतनी शक्ति आ चुकी थी कि वह राम से कहती है अब मुझमें इतनी शक्ति आ चुकी है कि आपकी आवश्यकता नहीं है। अब तीन लोक में जो कोई भी पदार्थ बिखरे हुए हैं, उनमें से किसी भी पदार्थ को निकाल कर उनमें से आत्मा को चुन सकती हूँ और बोध का विषय बना सकती हूँ। (जैसे कि सामान्य शोध छात्र पुस्तकालय में से अपने विषय की पुस्तक चुन लेता है) उसके माध्यम से मैं अपनी यात्रा बढ़ा सकती हूँ। अब राम, तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। अब स्वावलम्बी जीवन आ गया। अब विवाह की डोरी को तोड़ना चाहती हूँ ध्यान रखना पहले नहीं तोड़ी। वह कहती है अब मैं इस पाठशाला में नहीं रहूँगी। ऊपर उढूँगी और पंचमुष्टि केशलुचन कर लेती है। राम अभी शोध छात्र नहीं थे, अत: वे प्रणिपात हो गये उसके चरणों में। जिन्होंने विषय चुन लिया, शोध छात्र बन गया, ऊपर उठ गया वह अब विद्यार्थी नहीं, छात्र तो इसलिए मान लिया जाता है कि अभी भी कुछ कर रहा है। अब वह स्नातक से भी ऊपर उठ चुका है, अब वह विद्यार्थी नहीं है, भले ही उसे विद्यार्थी कहो पर वह अब मास्टर बन गया है। राम ने अभी इतना साहस नहीं किया था इसलिए उन्होंने सीता के चरणों में प्रणिपात किया और अपने आप को कमजोर महसूस करने लगे कि देखो यह एक अबला होकर भी शोध छात्रा बन गई। अब यह विश्व में बिखरी चैतन्य सत्ताओं के बारे में विचार करेगी, अध्ययन करेगी और उनके पास पहुँचने का प्रयास करेगी । अब सीता को राम की आवश्यकता नहीं है। राम-राम, श्याम... श्याम, रटन्त से विश्राम। रहे न काम से काम, तब मिले आतम राम॥ अब राम, राम न रहे सीता की दृष्टि में, अब दृष्टि में था आतमराम। प्रत्येक काया में छिपे हुए आतमराम को वह टटोलेगी, उन सब के साथ सम्बन्ध रखेगी, विश्व के साथ एक प्रकार से भोग यात्रा प्रारम्भ हो गई लेकिन ध्यान रहे अब आतमराम के साथ भोग है, राम के साथ नहीं। राम उस काया का नाम था, आतमराम काया का नाम नहीं है। उस अन्तर्यामी चैतन्य सत्ता में न पुरुष है, न स्त्री है, न नपुंसक है, न वृद्ध है, न बालक है, न जवान है, वह देव नहीं, नारकी नहीं, तिर्यञ्च नहीं, पशु नहीं, वह केवल आतमराम । चारों ओर आतमराम । वह सीता चल पड़ी, अकेली चल पड़ी। सीता की आत्मा कितने जबरदस्त बल को प्राप्त कर चुकी । अब वह किसी की परवाह नहीं करती। अब वह अबला नहीं है, सबला है। उसके चरणों में अब राम प्रणिपात कर रहे हैं, इस समय वे अबला थे और सीता सबला थी। वह ऊपर उठ चुकी थी। राम उससे कहते हैं कि ठहरो, मैं भी आ जाऊँ। सीता पूछती है, कहाँ आ जाऊँ? तुम्हारे साथ! किसलिए ? दोनों घर में रहें बाद में मार्ग चुन लेंगे। सीता कहती है - अरे! अब घर में रहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, मैं जब विद्यार्थी थी तब तक ठीक था, अब मैं विद्यार्थी से ऊपर उठ चुकी हूँ, अब आपकी कोई आवश्यकता नहीं, आपको धन्यवाद देती हूँ कि आप ने एम. ए. तक मेरा साथ नहीं छोड़ा, धन्यवाद बहुत धन्यवाद, पर अब पैरों में बहुत बल आ चुका है, आँखों को दृष्टि मिल चुकी है, अब मैं अनाहत जा सकती हूँ अब कोई परवाह नहीं, राह मिल चुकी है। राम ने अग्नि परीक्षा के बाद कहा था कि चलो प्रिये, घर चलो। वह अग्नि परीक्षा ही सीता के लिए मैं समझता हूँ स्नातक परीक्षा थी, वह उसमें सफल हो जाती है। वह राम से आगे निकल गई। राम ने बहुत कहा अभी मत जाओ। सीता कहती है-तुम पीछे आ जाओ, पर मैं अब नहीं रुक सकती, साथ नहीं रह सकती। साथ रहने पर बिखरे हुए विषय का संग्रह नहीं कर सकूंगी। इसलिए आप अपना विषय अपनायें और मैं अपना विषय अपनाती हूँ। अब आप मेरी दृष्टि में राम नहीं हैं आतमराम हैं। इस प्रकार लिंग का विच्छेद करके, वेद का विच्छेद करके, वह अभेद यात्रा में चली गई, यह घड़ी उसकी आत्मा की अपनी घड़ी थी। उसी दिन उसके लिए मोक्ष-पुरुषार्थ की भूमिका बन गई। यह काम पुरुषार्थ का ही सुफल था कि वह मोक्ष-पुरुषार्थ में लीन थी, अब वह मोक्ष पुरुषार्थी थी, काम पुरुषार्थी नहीं। राम ने सोचा कि - क्या मैं कमजोर हूँ ? उन्हें अबला से शिक्षण मिल गया। वे भी शोधछात्र बन गये। सीता को मालूम न था कि ये मुझसे भी आगे बढ़ जायेंगे। स्पर्धा ऐसी बातों में करनी चाहिए। आप लोग कमाने में, भौतिक सामग्री जुटाने में स्पर्धा करते हैं, ये आविष्कार हुआ, ये परिष्कार हुआ, लेकिन अन्दर क्या आविष्कार हुआ, यह तो देखो, अपने आपके ऊपर डॉक्टरेट की उपाधि तो प्राप्त कर लो। स्वयं पर नियन्त्रण नहीं है स्वयं के बारे में गहरा ज्ञान नहीं है तो मैं समझता हूँकि भौतिक ज्ञान भी आपका सीमित है। मात्र दूसरे ने जो कुछ कहा उसी को नोट कर लिया, पढ़ लिया। अन्दर ज्ञान के स्रोत हैं- वहाँ पर देखो, चिन्तन के माध्यम से देखो कितने-कितने खजाने भरे हुए हैं वहाँ पर, घुसते चले जाओ, अनन्त सम्पदा भरी पड़ी है, वह अनन्तकालीन सम्पदा लुप्त है, गुप्त है, आप सोये हुए हैं, अत: वह सम्पदा नजर नहीं आ रही। जब राम को सीता से प्रेरणा मिल जाती है, तब राम ने निश्चय कर लिया कि मुझे भी अब कॉलेज की कोई आवश्यकता नहीं, अब तो मैं भी ऊपर उठ जाऊँ। आप लोगों का जीवन कॉलेज में ही व्यतीत हो जाता है। शिक्षण जब लेते हो जब भी कॉलेज की आवश्यकता है और उसके उपरान्त अर्थ-प्रलोभन आपके ऊपर ऐसा हावी हो जाता है कि पुन: उस कॉलेज में आप को नौकरी कर लेनी पड़ती है। पहले विद्यार्थी के रूप में, अब विद्यार्थियों को पढ़ाने के रूप में, स्वयं के लिए कुछ नहीं है। उसी कॉलेज में जन्म और उसी कॉलेज में अन्त, यही मुश्किल है। डॉक्टरेट कर ही नहीं पाते एक बार स्वयं पर, अब दूसरे पर नहीं, अपने आप पर अध्ययन करो। राम ने संकल्प ले लिया और दिगम्बर दीक्षा ले ली। अब राम की दृष्टि में कोई सीता नहीं रही न कोई लक्ष्मण रहा। वे भी आतमराम में लीन हो गये। यह काम (आत्मा के लिए चैतन्य का भोग, काम पुरुषार्थ) की ही देन थी। मोक्ष-पुरुषार्थ में भर्ती कराने का साहस काम पुरुषार्थ की ही देन है। वह काम-पुरुषार्थ भारतीय परम्परा के अनुरूप हो तो मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर दृष्टि जा सकती है, आपके कदम उस ओर उठ सकते हैं। जब दृष्टि नहीं जायेगी तो कदम उठ नहीं पायेंगे। विवाह तो आप कर लेते हैं किन्तु आपको अभी वह राह नहीं मिल पाई। भारत में पहले बन्धन है फिर राग है, वह राग वीतराग बनने के लिए है। इसमें एक के ही साथ सम्बन्ध रहा है। अनन्त के साथ नहीं, अनन्त के साथ तो बाद में, सर्वज्ञ होने पर। पहले सीमित विषय, फिर अनन्त। जो प्रारम्भ से ही अनन्त में अधिक उलझता है उसका किसी विषय पर अधिकार नहीं हो पाता। आज पाश्चात्य समाज की स्थिति है कि एक व्यक्ति दूसरे पर विश्वास नहीं करता, प्रेम नहीं करता, वात्सल्य नहीं करता। एक दूसरे की सुरक्षा के भाव वहाँ पर नहीं हैं। भौतिक सम्पदा में सुरक्षा नहीं हुआ करती, आत्मिक सम्पदा में ही सुरक्षा हुआ करती है। विवाह के पश्चात् यहाँ आपका (भारतीय परम्परानुसार) विकास प्रारम्भ होता है और वहाँ (पाश्चात्य देशों में) विनाश। वह धारा इधर भी बहकर आ रही है। राम और सीता ने विवाह को, काम-पुरुषार्थ को अपनाया, उसे निभाया, उसी का फल मानता हूँ कि राम तो मुक्ति का वरण कर चुके और स्व आनन्द का अनुभव कर रहे हैं और सीता सोलहवें स्वर्ग में विराजमान हैं वह भी गणधर परमेष्ठी बनेगी और मुक्तिगामी होगी। हम इस कथा को सुनते मात्र हैं इसकी गहराई तक नहीं पहुँचते। काम पुरुषार्थ–काम-सम्बन्ध भले किन्तु पुरुष के लिए आत्मा के लिए, भोग चैतन्य का। आप पुरुष तक नहीं पहुँचते, शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग में ही दंग रह जाते हैं, बहिरंग में ही रह जाते, हैं, अन्तरंग में नहीं उतरते। आत्मा के साथ भोग करो, आत्मा के साथ मिलन करो, आत्मा के साथ सम्बन्ध करो। अभी कुछ देर पूर्व यहाँ मेरा परिचय दिया पर वह मेरा परिचय कहाँ था, आत्मा का कहाँ था ? मेरा परिचय देने वाला वही हो सकता है जो मेरे अन्दर आ जाये जहाँ मैं बैठा हूँ. सिंहासन पर नहीं, सिंहासन पर शरीर बैठा है। आप की दृष्टि वहीं तक जा सकती है, आपकी पहुँच भौतिक काया तक ही जा पाती है। मेरा सही परिचय है-मैं चैतन्य पुञ्ज हूँ जो इस भौतिक शरीर में बैठा हुआ है। यह ऊपर जो अज्ञान दशा में अर्जित मल चिपक गया है उसको हटाने में मैं रत हूँ, उद्यत हूँ मैं चाहता हूँ कि मेरे ऊपर का कवच निकल जाये और साक्षात्कार हो जाये इस आत्मा का, परमात्मा का, अन्तरात्मा का। आपके पास कैमरे हैं फोटो उतारने के, मेरे पास एक्सरे हैं, कैमरे के माध्यम से ऊपर की शक्ल ही आयेगी और एक्सरे के माध्यम से अन्तरंग आयेगा क्योंकि अन्तरंग को पकड़ने की शक्ति एक्सरे में है और बाह्य रूप को पकड़ने की शक्ति कैमरे में है। आप कैमरे के शौकीन हैं, मैं एक्सरे का शौकीन हूँ। अपनी-अपनी अभिरुचि है। एक बार एक्सरे के शौकीन बनकर देखो, एक बार बन जाओगे तो लक्ष्य तक पहुँच जाओगे। मैं चाहता हूँकि हम उस यन्त्र को पहचानें, ग्रहण करें, उसके माध्यम से अन्दर जो तेजोमय आत्मा अनादिकाल से बैठी है, विद्यमान है, वह पकड़ में आ जाये। लेकिन ध्यान रखना एक्सरे की कीमत बहुत होती है। प्रत्येक व्यक्ति गले में कैमरा लटका सकता है पर एक्सरे यन्त्र नहीं। एक बार एक्सरे से आत्मा को पकड़ लें बस, कैमरे से उतारा गया ढांचा बदल सकता है, शरीर बदल सकते हैं पर एक्सरे से उतारी गई आत्मा नहीं बदल सकती। अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है व्यर्थ में, हम लक्ष्य पर नहीं पहुँचे। दिपे चाम चादर मढ़ी हाड़ पिंजरा देह | भीतर या सम जगत में और नहीं घिनगेह || (बारह भावना) आपके पास तो घिनावने पदार्थ पकड़ने की मशीन है किन्तु सुगन्धित, जहाँ किसी प्रकार के घिनावने पदार्थ नहीं हैं, वह एक आत्मा है वह हमें मिल सकती है जब हमारी दृष्टि अन्तर्दूष्टि हो जाये। जब राम ने मुनि दीक्षा धारण कर ली, घोर तपस्या में लीन हो गये तो इतनी अन्तर्दूष्टि बन चुकी थी कि बाहर क्या हो रहा है उन्हें पता ही नहीं। प्रतीन्द्र के रूप में सीता का जीव सोचता है किअरे इन्होंने तो सीधा मोक्ष का रास्ता अपना लिया मुझे तो स्टेशन पर रुकना पड़ा ये लक्ष्य तक पहुँचने वाले हैं। सीता ने सोचा कि राम डिगते हैं कि नहीं, उसने डिगाने का प्रयास किया पर राम डिगे नहीं। उन्हें फिर बाहरी पदार्थों ने प्रभावित नहीं किया, इसी को कहते हैं ब्रह्मचर्य। अपनी आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है। इस ब्रह्मचर्य के सामने विश्व का मस्तक नत-मस्तक हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। उस दिव्य तत्व के सामने सांसारिक कोई भी चीज मौलिकता नहीं रखती, उनका कोई मूल्य नहीं है। इसलिये मैं उस दिव्य ब्रह्मचर्य धर्म की वन्दना करते हुए आप लोगों को यही कहूँगा कि आप लोग कैमरे को छोड़ दें और एक्सरे के पीछे लग जायें, अन्दर घुस जायें, कोई परवाह नहीं कि बाहर क्या हो रहा है ? बाहर कुछ भी नहीं होगा। अन्दर जो होगा उसे देखोगे तो बाहर कुछ घट भी जाये तो उसका प्रभाव आपके ऊपर नहीं पड़ेगा क्योंकि वह सुरक्षित आत्मद्रव्य है। बाहर कुछ भी कर लो, आत्मा इस प्रकार का Tank है कि जिसके ऊपर किसी भी प्रकार का गोला-बारूद असर नहीं करता वह अन्दर का व्यक्ति सुरक्षित रहता है किंतु वह बाहर आ जाये तो स्थिति बिगड़ जाती है। बाहर लू चलती है पर अन्दर शान्ति की लहरें चल रही हैं। उस अन्तरात्मा में लीन होने वाले व्यक्ति के चरणों में कौन नत-मस्तक नहीं होगा ? अवश्य नमस्कार करेंगे। लेकिन हम नमस्कार करके भी अपना उद्देश्य वह नहीं बना पाते कि हमें भी उस शान्त लहर का अनुभव करना है, उस शान्ति की अनुभूति अनन्तकाल में नहीं हुई है। आगे भी हो नहीं सकती, ऐसा नहीं है, हो सकती है लेकिन दृष्टि अन्दर जाये तो। काम-पुरुषार्थ को आप मात्र भोग मत मानो, वह भोग पुरुष के लिए है, आत्मा के लिए है। वास्तविक भोग वही है जो चैतन्य के साथ हुआ करता है। जब सर्वज्ञ बन जाते हैं, उस समय अनन्त चैतन्य के साथ मेल हो जाता है। उस मेल में कितनी अनुभूति, कितनी शान्ति मिलती होगी, यह वे ही कह सकते हैं, हम नहीं कह सकते। मात्र कुछ बिन्दु हमें उसके मिल जाते हैं ध्यान के समय तो हम आनन्द विभोर हो जाते हैं उस अनन्त सिंधु में गोता मारने वाले के सुख की कोई सीमा नहीं है। असीम है उसका सुख, असीम है वह शान्ति, असीम है वह आनन्द। वह आनन्द अपने को मिले इसलिए पुरुषार्थ करना है। मुनिराज भी निभोंगी नहीं होते, वे भी भोगी होते हैं किन्तु वे चैतन्य के भोक्ता बनते हैं, पाँच इन्द्रियों के लिये यथोचित विषय देते हैं किन्तु रागपूर्वक नहीं, भोग की दृष्टि से नहीं, अपितु योग की साधना की दृष्टि से- ले तप बढ़ावन हेतु नहीं, तन पोसतें तजि रसन को। (छहढाला-६वीं ढाल) विषय और भोग (काम) मात्र संपोषण की दृष्टि से माने गये हैं, किन्तु जब वह दृष्टि हट जाती है वे ही पदार्थ हमें मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना करने में कार्यकारी हो जाते हैं। मुनिराज के द्वारा इन्द्रिय विषय (निद्रा भोजन आदि) ग्रहण किये जाते हैं पर वे विषय-पोषण की दृष्टि से नहीं होते, योग दृष्टि उनके पास रहती है, जिसमें शरीर के साथ सम्बन्ध छूटता भी नहीं है, हटता भी नहीं है और मात्र शरीर के साथ भी सम्बन्ध नहीं रहता। किन्तु चैतन्य के साथ सम्बन्ध रहता है। मुनिराज का शरीर के साथ सम्बन्ध चैतन्य खुराक के साथ रहता है। सवारी तभी आगे बढ़ेगी जब उसमें पेट्रोल डालेंगे। आप लोग भी इस काम पुरुषार्थ के माध्यम से मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर बढ़ें और अनन्त सुख की उपलब्धि करें यही कामना है । मुझे जो यह इस प्रकार ज्ञान की, साधना की थोड़ी सी ज्योति मिली है वह पूर्वाचार्यों से (पूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज से) मिली है। हम पूर्वाचार्यों के उपकार को भुला नहीं सकते। वैषयिक दृष्टि को भूलकर विवेक दृष्टि से इनके उपकारों को देखो, इनके द्वारा बताये कर्तव्यों की ओर दृष्टिपात करो और देखो, कि इनके सन्देश किसलिए हैं ? स्व-आत्म पुरुषार्थ के साथ उनके उपदेश आप लोगों के उत्थान के लिए हैं किन्तु उनका अपनी आत्मा में रमण स्वयं के कल्याण के लिए था। कोई भी व्यक्ति जब स्वहित चाहता है और उसका हित हो जाता है तो उसकी दृष्टि अवश्य दूसरे की ओर जाती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। उन्होंने सोचा कि ये भी मेरे जैसे दुखी हैं, इनको भी रास्ता मिल जाये। आचार्यों को जब ऐसा विकल्प हुआ तो उन्होंने उसके वशीभूत होकर प्राणियों के कल्याण के लिए मार्ग सुझाया। महान् अध्यात्म साहित्य का सृजन किया और आज हमारे जैसे भौतिक चकाचौंध के युग में रहते हुए भी कुछ कदम उस ओर उठ रहे हैं तो मैं समझता हूँ कि बाह्य निमित से वे आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज आदि जो पूर्वाचार्य हुए उनका ऋण हम पर है और उनके प्रति हमारा यही परम कर्तव्य है कि उस दिशा के माध्यम से अपनी दिशा बदलें और दशा बदलें, अपने जीवन में उन्नति का मार्ग प्राप्त करें, सुख का भाजन बनें और इस परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखें ताकि आगे आने वाले प्राणियों के लिए भी यह उपलब्ध हो सके। आचार्य कुन्दकुन्द की स्मृति के साथ मैं आज का वक्तव्य समाप्त करता हूँ कुन्दकुन्द को नित नमूं , हृदय कुन्द खिल जाय | परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय || (दोहा दोहन)
  19. देव-गुरु–शास्त्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार यदि हमारा राग जागृत हो जाये या लोभ जागृत हो जावे उसके कारण हम तत्व को इधर-उधर करने लग जायेंगे, जो हमारे लिए अभिशाप सिद्ध होगा। वह घड़ी वरदान नहीं हो सकती, अभिशाप ही सिद्ध होगी क्योंकि जिनवाणी में परिवर्तन करना महान् दोष का काम है साथ ही महान् मिथ्यात्व का भी बंध होता है। जैसे छोटे से वट बीज के गर्भ में विशाल वट वृक्ष छिपा होता है, माटी के गर्भ में मंगल कलश छिपा होता है। ठीक वैसे ही हर आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति छिपी होती है। प्रत्येक जीव होनहार भगवान है। कच्चा माल पक्का बन जाने पर मूल्यवान हो जाता है। अत: कच्चे माल को सुरक्षित रखें। जैसे कच्चा घड़ा अवा में पकने पर लोगों की प्यास बुझाने में काम आते हैं। वैसे ही यह आत्मा भी तप के द्वारा परमात्मा बनकर धर्मोपदेश देकर धर्म पिपासुओं की प्यास शांत करता है। पंच नमस्कार मंत्र की जाप करने से परम स्वाध्याय हो जाता है क्योंकि पंच परमेष्ठी में सातों तत्व पाये जाते हैं। शास्त्र के द्वारा केवल उसी जीव की आत्मा जागृत हो सकती जो कान से बहरा नहीं है तथा पढ़ लिख सकता है परन्तु अरिहंत की प्रतिमा का दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्यक्त्व की प्राप्ति में तथा उसकी वृद्धि में सहायक है। इस दुनिया में दो बातें श्रेष्ठ हैं-एक गुरु और दूसरे प्रभु। गुरु सामने हैं और प्रभु हैं अदृश्य। गुरु हमारे लिए अदृश्य प्रभु तक पहुँचाने के लिए मार्ग दर्शाते हैं। आप सम्पदा के पीछे पड़े हैं और अरिहंत भगवान के पीछे संपदा पड़ी है यही दोनों में अन्तर है। यदि राग से तुम ऊपर उठना चाहते हो तो रागी को अपना विषय मत बनाओ, उसका ध्यान मत करो क्योंकि वह रागी जो कुछ कार्य कर रहा है, वही कार्य करने के भाव तुम्हारे भीतर आएंगे इसलिए जो रागातीत हैं पंचपरमेष्ठी उनकी उपासना करो। भगवान नासा पर दृष्टि रखते हैं। और आप आशा पर दृष्टि रखते हैं, बस इतना ही अन्तर है। पूजन में भावों की गौणता नहीं करना चाहिए। मन, वचन, काय को समर्पित करके पूजन करिये हेय बुद्धि से नहीं। पूजन में उपादेय बुद्धि रखो एवं भोजन में हेय बुद्धि रखो। कर्मफल के प्रति हेय बुद्धि रखो। निर्जरा के साधन को हेय बुद्धि से नहीं उपादेय बुद्धि से करो। जितनी भक्ति से जितने अधिक समय तक पूजन करो, उतनी अधिक कर्म निर्जरा होती है। प्रसन्न वदन, प्रसन्न चित्त होकर भावविभोर होकर भगवान् की भक्ति करना चाहिए, हेय बुद्धि से नहीं। यदि भगवान के गुणों की गंध आपके पास आ जावे तो पूजा करो, भगवान कभी नहीं कहते मेरी पूजा करो। अविनश्वर सुख के धनी संसारी से क्या चाहेंगे? बिना अपेक्षा के मृदंग जैसे दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश देते हैं। पंच परमेष्ठी की शरण सभी अपायों (दु:खों) को दूर करने का उपाय है। दुनिया में संघर्ष है पर प्रभु के चरणों में हर्ष। देव गुरु शास्त्र की उपासना के माध्यम से हमें अपनी श्रमण संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास करना चाहिए। उसमें चार चाँद लगाना तो बड़े भाग्यशाली जीवों का ही कार्य है लेकिन जितना मिला है उतना तो सुरक्षित रखने का प्रयास हमें करना ही चाहिए। सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति अपने आपको समर्पित करने वाला उनके अनुरूप चलने वाला मुमुक्षु आदर्श बनता है। विषय कषाय का चश्मा उतारो तो भगवान जरूर मिलते हैं। भगवान ने केवलज्ञान के द्वारा जाना किन्तु प्ररूपणा जो की, वह नयवाद के माध्यम से द्रव्यश्रुत जो है वही दिव्यध्वनि मानी जाती है। मूल श्रुत वही दिव्यध्वनि है। उसके बाद उसी के माध्यम से श्रुत का उद्भव बाद में हुआ है तो मूल श्रुत वह है। जब तक इस धरती तल पर सच्चे देव, शास्त्र, गुरु रहेंगे तब तक ही हमारी भीतरी आँखें खुली रहेगी। भीतरी आँखें जितनी पवित्रता के साथ खुलेंगी, उतना ही पवित्र पथ देखने में आयेगा। ज्यों ही इसमें दूषण आने लग जायेंगे तो पथ की पवित्रता भी समाप्त हो जावेगी। जब तक उपासक स्वयं उपास्य नहीं बन जाता, जब तक उसे उपास्य की उपासना करना अनिवार्य है।
  20. दूसरे की ओर विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दूसरे के प्रति अटेचमेंट नहीं हो। आउट आफ कोर्स की बात करना ही नहीं क्योंकि उनसे फिर कोर्स पूर्ण नहीं करा पाओगे। पहले बच्चे को मिठाई दोगे तो फिर रोटी नहीं खायेगा। फोर्स से नहीं कोर्स से होना चाहिए प्रश्नों के उत्तर। ज्यादा आकुलता के साथ आप ज्यादा कार्य करना चाहेंगे तो, आनंद जो आना चाहिए, नम्बर जो मिलना चाहिए वो नहीं मिल पाते। दूसरों को और किसी विषय में नहीं जीतो, जीतना है तो दिल जीती। जो व्यवस्थित नहीं हो रहा, स्वच्छन्दता से चल रहा है उसे एक बार कह दो, दो बार कह दो, बार-बार नहीं कही। दूसरे को व्यवस्थित मत करो, स्वयं को व्यवस्थित करो, अपने को देखो। आज उदारता समाप्त हो गई, नौकरी की ओर जाने से दीनता आ गई, स्वाभिमान चला गया पराश्रित चर्या हो गई। अपने जीवन में शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत जिसको विश्वास हो जाता है, कि हम दूसरे के यहाँ नौकरी नहीं करेंगे, हम स्वयं दूसरों को भी काम देंगे और बाहर से भीतर आयेंगे आत्मा की ओर। अंतर्जगत् की यात्रा सही शिक्षा से ही संभव है। गलत लाइन पर चलने की अपेक्षा सही रास्ते की ओर मुख करना बहुत अच्छा है। नौकर का अर्थ क्या? "कहे सो कर" उसी का नाम नौकर है। इसलिए पहले कहा जाता था नौकरी करो लेकिन अच्छे से करो। जैन लोग राजा के आधीन तो हो जाते हैं लेकिन इधर-उधर की नौकरी नहीं करते हैं। चर्या के समय दूसरों की ओर मत देखो, यदि देखना है तो गुणों की ओर देखो। हमें गुणों की वृद्धि के लिए दूसरे के गुणों की ओर देखना चाहिए। पर की उन्नति में अपनी उन्नति निहित है। पर के निमित्त से हमारा बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है। थोड़ी सी पर्याय दृष्टि हटा लो बहुत बड़ा कल्याण मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
  21. दिशा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार यदि दिशा सही नहीं मिले तो दशा कभी सुधर नहीं सकती बल्कि और दुर्दशा होती चली जाती है। जिस प्रकार दिशा सूचक यंत्र सही-सही दिशा का बोध कराता है उसी प्रकार वीतरागी सच्चे गुरु भी सही सही दिशा का बोध कराते हैं। दूसरों को चलाना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना स्वयं को सही दिशा में चलाना। आप कहते तो हैं यह भिन्न है यह भिन्न है लेकिन थोड़ी भी प्रतिकूल दशा आ जाये तो फिर खेद-खिन्न हैं। यह पर है, यह पर हैं, फिर भी उसी में तत्पर है यह क्या है? धन और सत्ता के मिलने से व्यक्ति पागल हो सकता है और दशा बिगड़ जाती है। दशा ठीक करना चाहते हो तो दिशाबोध प्राप्त करो । सही दिशा में किया गया प्रयास ही प्रयास है। गलत मार्ग पर चलना आभास मात्र है। आये गये, आये गये भटकन जारी है कोल्हू के बैल की तरह। बच्चों को आनंद तभी आता है, जब वे सीधे-सीधे न भागकर टेढ़े-मेढ़े भागते हैं। यही दशा वैभाविक दशा में संसारी प्राणी की है। उसे टेढ़ेपन में ही आनंद आता है, जबकि वह आनंद नहीं है। आजकल जो कार्य यंत्र नहीं कर सकता, पहले वही कार्य मनुष्य मंत्र के माध्यम से अपनी शक्ति को एक दिशा में लगाकर कर लेता था। साधन वही है जो साध्य को दिशा दे, कारण वही साधकतम है, जो कार्य को सम्पन्न करा दे, औषधि वही है, जो रोग की निवृत्ति कर दे, तप वही है, जो नर से नारायण बना दे। मनुष्य यदि कर्तव्यनिष्ठ है तो सही दिशा में उठे हुए एक कदम से वह महात्मा बन जाता है आवश्यकता है सही दिशा की। दिशा बदलने पर ही दशा बदलेगी। आपको मात्र निर्देशन डायरेक्शन की जरूरत है। जब दिशा ही खराब है, तो दशा भी खराब होगी। महावीर भगवान की दिशा 'भी' की ओर तथा हमारी दिशा 'ही' की ओर है। ६० साल ७० साल के हो जाने पर भी आप यही सोचते हैं कि मैं गद्दी का मालिक बना रहूँ चाबी बाँधे रहूँ बच्चों को नहीं दूँ, अगर चाबी दे दी तो घर वाले मुझे नहीं पूछेगे, मैं कहता हूँ कि अगर घर वाले नहीं पूछेगे तो मैं पूछूँगा। भगवान महावीर की पूजा घर में नहीं हुई, बाहर आकर 'ही' हटाकर 'भी' को अपनाने पर हुई। मन, वचन, काय बल जो हैं ये लड़ने के लिए नहीं होते, उन बलों के माध्यम से हम स्वयं भी लाभान्वित होते हैं। सही दिशा में काम करें तो औरों को भी बहुत लाभान्वित कर सकते हैं। सही दिशा में सही पुरुषार्थ बहुत कम समय लेता है, सही समय पर काम होता है निर्धारित समय से। मोक्षमार्ग में सम्यक दर्शन दिशा को बनाए रखो और चलते जाओ। लब्धि स्थान तो नीचे आते हैं लेकिन दिशा नहीं बदली आगे बढ़ते जाओ।
  22. दर्शन-ज्ञान-चारित्र विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ज्ञान दर्शन का विषय स्व और पर दोनों या षट्द्रव्य बन जाते हैं लेकिन चारित्र का विषय नियम से स्व आत्मा ही है चाहे सराग अवस्था हो या वीतराग अवस्था। चारित्र लेने के उपरान्त, दीक्षा के उपरान्त ये मत समझो कि हम दूसरों को उपदेश देने के लिए तैयार हो गए। नहीं बल्कि ये समझो कि चारित्र ले लिया तो आत्मा को ही विषय बनाने का लक्ष्य होना चाहिए। पेट का लीवर सम्यक दर्शन के समान है। वह ठीक है तो पूरी पाचन प्रणाली, स्वास्थ्य ठीक। उसी प्रकार सम्यक दर्शन है तो मोक्ष का मार्ग भी ठीक है। मद एक बार चिपक बस जाये फिर जीवन पर्यन्त नहीं जाता। अत: ये सम्यक दर्शन का घातक है। पहले चारित्र अंगीकार करो तब बारह भावना, चिंतन, समिति आदि कार्यकारी होगी। समय का दुरुपयोग नहीं समय का सदुपयोग, बड़ों के प्रति विनय, सबके प्रति वात्सल्य इससे अपना सम्यक दर्शन पुष्ट होता है। जिस प्रकार सम्यक दर्शन के आठ अंगों का पालन करते हैं उसी प्रकार से सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का भी सूक्ष्मता के साथ पालन करना चाहिए। जो परद्रव्य के साथ कर्तव्य, भोकृत्व, स्वामित्व के साथ एक अंश भी सम्बन्ध नहीं रखते है उन्हीं के चरणों में ये क्षायिक सम्यक दर्शन आदि का कार्य होता है। सम्यक दर्शन के ये वात्सल्य आदि गुण डिब्बे में रखकर बंद करने योग्य नहीं हैं इन्हें प्रयोग में लाना महत्वपूर्ण है। भावों के माध्यम से, इससे आत्म संतुष्टि और बढ़ जाती है। ग्लानि देखकर मन की नाक पहले सिकुड़ जाती है फिर शरीर की। ग्लानि जीतना सहज होना चाहिए प्रदर्शन के लिए नहीं। सम्यक दर्शन आज तक किसी को भी गुरु बनाये बिना नहीं हुआ। क्षायिक सम्यक दर्शन के लिए भी गुरु के पादमूल में जाना होगा। उपदेश से, बिम्ब दर्शन से क्षायिक सम्यक दर्शन प्राप्त नहीं होता। संज्ञी बने बिना सम्यक दर्शन नहीं हो सकता तो संज्ञी बने बिना मद भी नहीं हो सकता। लेकिन संज्ञीपने को प्राप्त करके आज तक हमने मद ही किया है अब सम्यक दर्शन को सुरक्षित रखना है। जैसे-जैसे सम्यक दर्शन आदि के साथ तप में विकास होता चला जाता है, वैसे-वैसे निर्जरा की वृद्धि होती चली जाती है। सम्यक दर्शन के साथ जन्म हो सकता है परन्तु वीतरागता जन्म से नहीं आ सकती। इसलिए जन्म से कोई भगवान् नहीं होता। समय रहते हुए हम जाग जायें और ज्ञान का जो सही-सही फल अज्ञान की निवृत्ति, कषायों की हानि, आत्मतत्व और स्नत्रय की प्राप्ति एवं रागद्वेष को कम करके चारित्र को अंगीकार करने रूप है उसे प्राप्त करें। इसी में आपकी भलाई है। तिर्यच सुनता है गुनता है परन्तु बोलता नहीं। इसी कारण तिर्यच जन्म लेने के कुछ समय बाद सम्यक दर्शन प्राप्त कर सकता है। मनुष्य सुनता है गुनता है किन्तु बोलता भी है। मनुष्य स्वयं उलझता है और उलझाता है दूसरों को फैंसाने के लिए जाल बिछाता है किन्तु तिर्यच ऐसा नहीं करते इसलिए सम्यक दर्शन प्राप्त करने की भूमिका मनुष्य से पहले तिर्यच के बन जाती है। सम्यक दृष्टि अपना सोचता है, पराया नहीं सोचता और न ही सोचना चाहिए। वीतराग सम्यक दृष्टि बनने के लिए, वीतराग सम्यक दर्शन को जो प्राप्त कर चुके हैं उनकी उपासना करो। वीतराग सम्यक दृष्टि की उपासना करने से सराग सम्यक दर्शन से वीतराग सम्यक दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। परिणामों में, संकल्पों में, भावनाओं में, जाग्रति रखने वाला व्यक्ति ही सम्यक दर्शन को सुरक्षित रख सकता है। यदि थोड़े समय के लिए अनादि काल का संस्कार उखड़ गया तो गुणस्थान ही चला गया। बाहर भले ही ज्यों का त्यों बना रहता है लेकिन भीतर से खोखला हो जाता है। सम्यक दृष्टि को यह विश्वास हो जाता है कि जितना जोड़ना है वह मुक्ति से सम्बन्ध जोड़ना है और जितना तोड़ना है वह संसार से सम्बन्ध तोड़ना है। रागद्वेष को मिटाने का लक्ष्य जब बन जाता है तो चारित्र को लेना अनिवार्य हो जाता है। सम्यक दृष्टि शरीर को गौण करके आत्मा के रत्नात्रय रूप गुणों को मुख्य बनाता है। सम्यक दृष्टि कर्म का फल तो भोगता है, पर कर्म करके फल नहीं भोगता।
  23. दृश्य को पाने के पहले दृश्य को देखने से भी सुख प्राप्त होता है, इसी को आस्था कहते हैं। विवेक के साथ प्रत्येक घड़ी बिताने का नाम ही वास्तव में जीवन है। सत्य और अहिंसा का बहुत गहराई से सम्बन्ध है यदि हमारे एक हाथ में सत्य है तो दूसरे में अहिंसा होनी चाहिए। दोनों मिल जाते हैं तो बड़े से बड़े राष्ट्रों की भी रक्षा की जा सकती है, उनका विकास किया जा सकता है। एक मछली जो पानी में रहती है जलचर प्राणी कहलाती है। जैसे-जैसे पानी की मात्रा कम होती है उसकी परेशानी बढ़ती जाती है, और पानी के सूखते ही चन्द मिनटों में वह प्राण छोड़ देती है। इसका मतलब यह है कि मछली को प्राण रक्षा के लिये जल अनिवार्य होता है। सारी व्यवस्थाएँ होने के उपरान्त भी यदि आप लोगों को कुछ समय के लिये ऑक्सीजन न मिले तो दम घुटने लगता है सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ठीक इसी तरह की बात थी-जंगल का वातावरण था, गर्मी के दिन और उस पर भी काफी तेज धूप। प्यास की वजह से कण्ठ सूख रहा था, अपने प्राणों की रक्षा के लिये पानी की तलाश में वह बहुत दूर तक निकल गया, काफी खोज के बाद भी जब उसे पानी नहीं मिला तब निराश निरुपाय वह अपने साथी घोड़े को छोड़कर एक घने छायादार वृक्ष के नीचे पहुँच जाता है। थकाहारा तो था ही, अत: कुछ विश्राम करने के विचार से वह वहीं लेट जाता है, फिर क्या था लेटते ही नींद आ गई। निर्जन वन है, चारों ओर कोई भी नहीं, पक्षी ही कभी-कभी अपनी आवाज से जंगल की नीरवता भंग कर देते हैं, किन्तु वहाँ पर पूछताछ करने वाला कोई नहीं, एकाध घण्टे के लिए उसे निद्रा आ जाती है। तात्कालिक कुछ आराम मिल जाता है पर वह नहीं के बराबर। प्यास बहुत सता रही थी जागते ही पुन: मन में भाव आया कि पानी की गवेषणा करना जरूरी है नहीं तो आज कैसे इस पीड़ा से बच सकते हैं। इसी बीच उसने एक दृश्य देखा, दृश्य के देखते ही उसके प्राण हरे-भरे हो गये, क्योंकि दृश्य को पाने के पहले दृश्य को देखने से भी सुख प्राप्त होता है। सन्तों ने इसी का नाम सम्यकदर्शन कहा है इसी को आस्था भी कहते हैं और आस्था जहाँ प्राप्त हो जाती है तब वह स्वयं ही रास्ता बताने लगती है। उसका दुख उसकी पीड़ा नहीं के बराबर हो जाती है। पीड़ा का अभाव तो नहीं लेकिन जब सुख प्राप्त करने की आस्था पूरी बन जाती है, विश्वास हो जाता है तो उसका दुख प्राय समाप्त हो जाता है। जैसे अध्ययनशील विद्यार्थी महीनों तक दिन रात एक करता है यहाँ तक कि निद्रा न आये इसलिए भोजन पर भी कंट्रोल करता है, चाय पी कर ही काम चलाता है किन्तु उत्तम श्रेणी में पास होने के परिणाम को पाकर सारी थकावट दूर हो जाती है। ठीक यही बात आप लोगों के साथ भी लागू हो जाती है। सफलता मिलने के उपरान्त तो प्रत्येक को हर्ष होता है यहाँ तो सफलता के चिह्न मात्र दिखाई दे जाने पर आनन्द की लहर आये बिना नहीं रहती। जो प्राण कण्ठगत थे उन्हें विश्वास हो गया कि मैं अब बच जाऊँगा। पानी दिख गया किन्तु वहाँ पर पानी कहाँ से दिख गया ? यह विचारणीय बात है। वहाँ पर पानी कहाँ से आया ? क्योंकि सारे जंगल को छान डाला था, फिर भी पानी कहीं नहीं मिलता था, यह ज्ञान उसे नहीं रहा और रह भी कैसे सकता है ? और एक धार उसे सामने से बहती हुई दिखाई दी, वह कहाँ से आ रही है ? इस ओर उसने दृष्टिपात नहीं किया। धार कहाँ पर गिर रही है बस इतना देखकर उसने सोचा कि यहाँ से हमारा काम पूर्ण हो जायेगा। वह धार उसी पेड़ के ऊपर से आ रही थी। इसे कैसे पिया जाय ? वह विकल्प मन में उत्पन्न हुआ। पेड़ बड़ का था। अत: उसने सोचा कि इसके पत्तों का यदि दोना बना लिया जाय तो उसमें धार का पानी इकट्ठा किया जा सकता है और तीन चार दोना भर कर पी लेंगे तो अपना काम हो जायेगा। धार के नीचे दोने को रखा और वहीं बैठकर भरने की प्रतीक्षा करने लगा। दो चार दोने और बना कर रख लिये अपने पास में। पहला दोना जैसे ही भरने को हुआ तो धीरे से उठा लिया और अब पीना है, बहुत प्रतीक्षा के उपरान्त पानी मिला है, अब ज्यों ही दोने को हलके हाथों से पकड़कर पीने को है, उसी समय अचानक एक पक्षी आया और इधर से (हाथ करके दिखाना) यूँ चला गया और उसके माध्यम से दोना धक्का खाकर नीचे गिर गया, कोई बात नहीं दोने को दुबारा रख लिया, उसके भरते ही पूर्व की भाँति उठा लिया और पीने ही वाला था कि वही पक्षी जो इधर गया था लौटकर आया और दोने को पुन: गिरा दिया। इस प्रकार का कार्य जब दो बार और तीसरी बार भी हो जाता है तब उस व्यक्ति को थोड़ा सा गुस्सा आ जाता है यह पक्षी कहीं प्रशिक्षित सा लगता है, मैं पानी पीना चाह रहा हूँ और यह बार-बार गिरा देता है, लगता है यह मेरे कार्य में व्यवधान करने के लिए ही आया है। जैसे किसी प्रश्न को यदि दो तीन बार दुहरा दिया जाय तो लगभग उत्तर का अनुमान लग सा जाता है, इसी प्रकार उसने भी अनुमान लगाया यह मेरे कार्य में व्यवधान उपस्थित कर रहा है। इस बार हाथ में चाबुक लेकर बैठा है, देखेंगे उसको, आने दो फिर से। इस बार भी दोना भर जाने के बाद ज्यों ही पीने को होता है पुन: वही पक्षी तेजी से आकर पंखों से गिरा देता है, दोना गिरते ही गुस्से में आकर उसने जोर से चाबुक मार दी। देखते ही देखते पक्षी...। छोटा सा तो था पक्षी, अब जरा विचार करो। उसके प्राण क्यों गये ? क्या पानी के अभाव में ? पानी के अभाव में तो नहीं गये क्योंकि पानी तो उसने पी रखा था। फिर उसके प्राण क्यों गये ? यह एक प्रश्न है हमारा। प्रश्न मंच चल रहा था न अभी। एक हमारा भी प्रश्न है ? आखिरकार उसके प्राण क्यों गये ? जान बूझकर चले गये ? मरना था इसलिए चले गये ? दूसरा बच जाय, उसके पानी को गिरा दूँ इस उद्देश्य से चले गये ? क्यों चले गये ? एक रहस्यमय प्रश्न है। धीरे-धीरे मैं कथा को आगे बढ़ाकर आप को सोचने के लिए सुविधा कर रहा हूँ ताकि उसका उतर आप सभी के Mind (दिमाग) में आ जाये लेकिन मेरे विचारों से छोटों की अपेक्षा बड़ों के Mind (दिमाग) में इसका उत्तर बाद में आयेगा ऐसा मेरा सोचना है इन्हीं सब बातों को सोचते हुए यद्यपि इस उदाहरण को कई बार सुनाया है, पर अब की बार कुछ अलग ही ढंग से रखा जा रहा है। चार बार भरा हुआ दोना हाथ से गिर गया, उसे भरने में समय भी लगता है। अत: उसके मन में भाव आ गया कि जहाँ से यह धारा आ रही है वहाँ देखना चाहिए और शीघ्र ही पेड़ के ऊपर चढ़कर देखता है जहाँ से धारा आ रही थी। उस को देखते ही हक्का-बक्का सा रह गया उसे ज्ञात हो गया कि स्रोत के मूल में क्या है ? और यह घटना इतनी बार क्यों घटी इसके पीछे तोते का क्या अभिप्राय था ? पूरा का पूरा भाव सामने आ जाता है। हम देखते हैं यह गाय, भैंस, यह घोड़े यह कुत्ते, यह जानवर, हमारी अपेक्षा निम्न कोटि के हैं, पर ऐसा नहीं है वे भी काफी समझदार होते हैं। हम अपने लिये तो समझते हैं कि हम ज्ञानी हैं, हम वैज्ञानिक हैं, हमारे पास बहुत शक्ति है, बहुत विवेक है, जीने की भी कला है, हम जीने वाले हैं। जीना ! आप जानते हैं जीना का अर्थ क्या है ? जीना का एक अर्थ छत पर जाने के लिये सीढ़ी होता है इसके उपरान्त ‘जी’ ना। जी आपके लिए सम्बोधन में बहुत अच्छा लगता है। और कभी कभी कहते हैं आपका जी मचल रहा है, यानि जीना में से जी का एक अर्थ यह भी है। जीना तो सबको आता है पर कैसे जीना यह सभी को ज्ञात नहीं है, पानी पीना तो सभी को आता है पर कैसे ? पीना छानकर या यूँ ही, यह विशेष बात है। आप सोचते हैं छना हुआ मिल जाये तो ठीक अन्यथा बिना छना ही पी लेंगे क्योंकि भीतर तो छने हैं ही, छन जायेगा। जब रस रुधिर आदि भी छानकर ही शरीर में काम आते हैं तब बिना छना पानी इसमें डाल भी दें तो कौन सी बड़ी बात ? नहीं बन्धुओ ऐसा नहीं है, 'वस्त्र पूत जल पिबेत्' वस्त्र के द्वारा छानकर ही पानी पीने के लिये कहा गया है। मछली का उदाहरण पहले इसलिये दिया था कि पानी के अभाव में मछली मर जाती है, हवा के अभाव में आप भी मर जाते हैं, उसी प्रकार प्राणों के रहते हुए भी हमारा जीना तब समाप्त सा हो जाता है जब हमारा विवेक काम नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति विवेक से ही हाथ धो बैठता है तो उसका जीना-जीना नहीं बल्कि संतों ने कहा है कि चलते-फिरते शव के समान है। उसका जीवन तो निकल चुका, उस व्यक्ति के सामने यही दृश्य उभर कर आया। वह विचारों में खो गया। ओ हो! मेरा अभी तक का जीना वास्तव में जीना नहीं रहा अब और क्या जीना ? वह एक पक्षी तोता था, जो शाकाहारी था, जिसको फल रुचते थे, वह बड़े चाव से फलों को खाता था, जहाँ कहीं भी पानी मिल जाता पीकर अपना जीवन बिता लेता। पिंजड़े के बन्धन को स्वीकार कर आपके द्वारा दी गई सुख-सुविधायें भी उसे पसन्द नहीं थी। आकाश में मुक्त स्वतंत्रता का जीवन जीने वाला पक्षी सभी को प्यारा हो जाता है, वह बहुत छोटा सा था पक्षी, मुट्ठी भर प्राण थे उसके, गिर गया जमीन पर और.मर गया। मरते दम तक अपने प्रण को निभाया। क्या प्रण निभाया था उसने यह विषय अब आपके सामने आ रहा है। वह एक राजा था। उसने एक व्यक्ति, दो व्यक्तियों को नहीं बचाया एक गाँव, नगर एक प्रांत को नहीं बचाया पूरे एक राष्ट्र को बचाया था। राष्ट्र को कैसे बचाया ? कैसे बच सकता है ? इतना बड़ा राष्ट्र एक पक्षी के द्वारा बच सकता है बन्धुओ! क्योंकि वह व्यक्ति राष्ट्र का मालिक था। सोचा आपने तोते ने ऐसा प्रयास क्यों किया ? इसलिये कि यह राजा इस जल को पी न ले, क्योंकि यह जल नहीं है किन्तु प्राण को लेने वाला जहर है। राजा ने ऊपर पेड़ पर जाकर जब देखा तो पाया एक महान् भयंकर अजगर सर्प जिसके मुख में से विष की धारा निकल रही थी और वह पत्तों के ऊपर से होते हुए एक धारा का रूप धारण किये थी। देखने से वह जल धारा जैसी ही लगती थी, तभी तो हर बार राजा उसे जल ही समझता रहा और तोता उसे बचाने का प्रयास करता रहा। पक्षी का पुरुषार्थ किसलिये था यह प्रश्न यदि किया जाये तो उत्तर अपने आप मिल जायेगा। उसके प्राण क्यों चले गये ? किसी के प्राण बचाने के लिये यदि प्राण चले जाते हैं तो कोई बात नहीं। और छोटे प्राणों की अपेक्षा यदि बड़े प्राणों को बचा लिया जाता है तो अपने आपमें बहुत बड़ी बात है। और धर्म की रक्षा के लिये यदि यह पार्थिव प्राण चले भी जाते हैं तो कोई बात नहीं क्योंकि आत्मा के प्राण तो वस्तुत: ज्ञानदर्शन ही हैं। विचार विवेक ही आत्मा के महान् प्राण माने गये हैं, वे उज्ज्वल और अखण्ड रूप में सदा विद्यमान रहते हैं, इन्हीं के माध्यम से इनका आगे का विकास होता है और ये प्राण कभी भी भौतिक प्रभाव में नहीं आने वाले । लेकिन यदि हमारा ध्यान उन प्राणों की ओर नहीं जाता या उन प्राणियों की ओर हम दृष्टिपात नहीं करते उनका महत्व नहीं समझते तो हमारे ये पार्थिव प्राण और उनकी रक्षा करना, सब व्यर्थ जैसा ही है। ......और राजा की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, इधर तोते की आँखों में आंसू नहीं है, ऐसा लग रहा है जैसे वह जिन्दा हो और देख रहा हो कि कहीं घटना घट न जाये, हो सके तो पुन: जीवन धारण करके उसको बचाऊँ, यह ज्ञान तोते को कैसे हुआ था ? कहाँ से हुआ था ? ध्यान रहे उसने भी एक संत के माध्यम से प्रवचन सुने थे, प्रवचन सुनने के लिये आप लोगों को तो व्यवस्था होती है, पर उस पक्षी ने कैसे सुना ? यह कैसी बात है, वाह! आपके लिये नीचे बैठकर सुनने की व्यवस्था है तो वह पेड़ के ऊपर बैठकर सुन सकते हैं, आवाज तो जा सकती है वहाँ तक, आप लोग फिर भी इस कान से सुनकर उस कान से छोड़ सकते हैं पर पक्षी ऐसे नहीं होते, वे बहुत ध्यान से सुनते हैं उन्हें भी भावभासन होता है। गाय, कुत्ते, कबूतर आदि बोलते नहीं और बोलने से किसी प्रकार का अभिव्यक्तिकरण भी नहीं हो सकता, संकेत मात्र होता है उनके भावों का। धन्य है! बिना बोले भी श्रद्धान किया जा सकता है, बिना बोले भी व्रत पाले जा सकते हैं, बिना दिखावट-प्रदर्शन किये भी बहुत कुछ हो सकता है। राजा का मन पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहा है, अब क्या करे वह ? 'अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत', चुग गई क्या, चुग कर उड़ भी गई। यही चूक गये आप लोग, अब चिड़िया वापिस कहाँ से आये ? अब कैसे आयेगी ? हमने आज तक बहुत कुछ कहा, बहुत कुछ सुना फिर भी हम अपना जीवन नहीं बना पाये। अपने लिये और दूसरे के लिये आज तक हमारा जीवन अभिशाप ही सिद्ध हुआ है। राजा का दिमाग बहुत तेज होता है क्योंकि उसके हाथ में सारी प्रजा का संरक्षण रहता है किन्तु जब वही राजा विवेक खो देता है तो सभी का अहित भी कर देता है। मुझे आज ज्ञान की बात नहीं करना है, आज तो मुझे विवेक की बात करना है। और वह विवेक कभी भी छोटा बड़ा नहीं होता, विवेक तो विवेक होता है। असली क्या ? नकली क्या ? धर्म क्या ? अधर्म क्या ? यह जब मिश्रण हो जाता है तब विवेक उसे विभाजित कर देता है। Mixing (मिश्रण) सहन नहीं है विवेक को। विवेक को हंस की उपमा भी दी जाती है। सभी पक्षियों में हस की विशेषता अलग होती है, उसकी चोंच में कुछ विशिष्ट शक्ति रहती है, जिसके कारण वह मिले हुए दूध पानी को पृथक्-पृथक् कर दूध-दूध पी लेता है। विवेकी ज्ञानी पुरुष की प्रकृति भी इसी तरह की होती है और ‘हंसा तो मोती चुगे' ऐसा भी कहा जाता है। जल में जलचर जीव-जन्तु, मछलियाँ आदिक रहती हैं किन्तु उन्हें न खाकर मानसरोवर के तट पर रहने वाला वह हंस सिर्फ मोतियों को ही चुगता है। पक्षी भी अपने ज्ञान के माध्यम से सब काम करते हैं। ज्ञान के माध्यम से विवेक के माध्यम से कार्य करना ही उनका बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। जिनका विवेक एक बार जाग्रत हो जाता है वे अधर्म से स्वयमेव बच जाते हैं। उनके लिये फिर किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। आपने देखा होगा यहाँ पर पचासों बन्दर घूमते रहते हैं, एक बन्दर को भी कुछ हो जाये तो एक ही आवाज में वे सब के सब इकट्ठे हो जाते हैं। उनके लिये आते समय, जाते समय, कूदते समय चोटें भी लग सकती है, तकलीफ भी हो सकती हैं, पर वे कहाँ आते हैं आपके चिकित्सालय में ? हमने एक हाथ का भी बन्दर देखा है, एक ही हाथ था उसका (एक टूटा हुआ था) उसके लिये कोई कठिनाई न आ जाये इसलिये उसके इर्दगिर्द उसके साथी अन्य बन्दर भी रक्षा के लिये रहते थे। अब सोचना यह है कि उनकी चिकित्सा कैसे हो ? दवाई की व्यवस्था क्या ? कैसे ? है, कोई व्यवस्था नहीं है पर पूरा निर्वाह और बहुत बढ़िया। शाकाहारी प्राणी वह शाखामृग माना जाता है, पेड़ की शाखाओं पर ही अपना जीवन गुजार लेता है। आप लोगों को चाहिए चार दीवार वाले मकान, मकान पर मकान और सारी व्यवस्थाएँ। एक टहनी के ऊपर एक शाखा के ऊपर पचासों बन्दर रहकर के रात गुजार लेते हैं, सुरक्षित रह जाते हैं, स्वतंत्रता के साथ रहते हैं। बन्दरों की कहानियों से, पक्षियों की कहानियों से, गाय, भैंस, सर्प इत्यादि की कहानियों से हमारे पुराण साहित्य संवृद्ध हैं और इन कहानियों के माध्यम से हमें आदर्श मिलता है, हमारा ज्ञान विवेक जाग्रत हो जाता है। उस तोते ने संकल्प लिया था कि अपने प्राण भले ही चले जायें किन्तु प्रण नहीं छोड़ेंगा। यदि मेरे से महान् व्यक्ति कोई, संकट में फैंसा है तो अपने प्राणों की भी बाजी लगाकर उसकी रक्षा करूंगा और जब तक कण्ठ में प्राण रहे तब तक उस व्यक्ति की रक्षा की। वह व्यक्ति कौन था ? वह एक राजा था। राजा को समझ में कब आया ? बच्चों से पहले आया कि बाद में आया। एक बार संकेत....समझ में नहीं आया, दो बार संकेत......नहीं आया, तीसरी बार और चौथी बार में भी संकेत समझ में नहीं आया प्राणान्त होने को है तब भी नहीं, जब प्राणों का विसर्जन उत्सर्ग हो गया, जब प्राण ही छूट गये, तब उसके दिमाग में Indirect (परोक्ष) बात आ गई कि प्राणों की रक्षा के लिये पानी की आवश्यकता तो होती है पर वह कैसा है ? कहाँ से आ रहा है ? इस पर, भी ध्यान देना जरूरी है। प्राण निकलते हुए भी तोते की आँखों में पानी नहीं आया है और राजा के प्राण नहीं निकले फिर भी ऑखों से पानी क्यों आता रहा, इस प्रश्न का हल हमने नहीं किया, इस समस्या का समाधान हमने नहीं किया बल्कि उस विवेकी तोते ने किया। राजा सोचता है, तोते ने मेरे प्राणों की रक्षा की और मुझे विवेक की शिक्षा दी। क्या-क्या नहीं दे दिया? ऐसी शिक्षा आज तक नहीं मिली हमें। ऐसा प्रसंग न कहीं देखा न कहीं सुनने को मिला कि एक छोटे से पक्षी के द्वारा महान् राष्ट्र के पालक राजा की रक्षा हो सकती है, निश्चित ही वह पक्षी राष्ट्र के लिये समर्पित धर्मात्मा था। बंधुओ! जो दिखाई देते हैं वह सब भेद बाहर के ही हैं, भीतर से सभी की आत्मा एक है, चेतन का स्वरूप प्रत्येक शरीर में एक जैसा है। मैं सुखी, मैं दुखी, मैं रंक-राव आदि अनेक विकल्पों के साथ हम जीते रहते हैं। मैं सेठ हूँ, मैं साहूकार हूँ, मैं दीन दरिद्री हूँ यह सब प्रत्यय These are External सब बाहरी प्रत्यय है, भीतरी आत्मा के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। धन जड़ है और आप चेतन अब यदि आप धन की वजह से अपने को बड़ा मानते हो आत्मा का विकास मानते हो तो अच्छे ढंग से धन को खूब भर लो ताकि अच्छा विकास हो जाये लेकिन ऐसा नहीं होता आत्मा के प्रदेश उतने ही रहते हैं जितने थे, ज्ञान भी उतना ही रहता है फिर विकास किस बात का ? यह मान्यता हमारे मन की है और ये मान के कारण हुआ करती है। कितना अज्ञान, कितना अविवेक हमारे जीवन में आता जा रहा है जिसकी वजह से इस आत्म तत्व का भी मूल्य कम होता जा रहा है। स्वार्थ सिद्धि और क्षणभंगुर जीवन की रक्षा के लिये अनाप-शनाप सामग्री का संग्रह पता नहीं इन्सान को कहाँ ले जायेगा। हमारी मान्यतावश लगता जरूर है प्रारम्भ में कि हमें कुछ सुख मिल रहा है, हमारी रक्षा हो रही है, पर यह सब भ्रम मात्र है सिर्फ मान कषाय की अपेक्षा है। जिन्होंने विवेक की धरती पर इन सब बातों को जाना है, सोचा है, विचारा है, उन्हीं का जीवन धन्य है और व्यक्तियों के जीवन तो प्रवाह मात्र हैं, हवा के झोंके की तरह आये और गये, हरी-भरी डालों पर पक्षी आये, बैठे और उड़ गये। अनन्त काल से यूँ ही जीवन व्यतीत हो रहा है, ज्ञान स्वभावी होकर भी हम भटकते चले जा रहे हैं। तोते के प्राण निकल गये, अब पानी कैसे पी सकता है वह राजा ? अभी तक कितना प्यासा था, कहाँ चली गई उसकी वह प्यास ? पानी की खोज करेगा क्या अब ? ऐसी स्थिति में कैसे कर सकता है वह खोज, सामने तोते का मृत शरीर पड़ा हुआ है, बस गहन गंभीर ऊहापोह, विचारों का मन्थन और प्यास गायब। अभी तक तो प्यास के द्वारा तड़फ रहा था, बैचेन था पर अब वह बैचेनी कहाँ चली गई ? बताइये आप, कोई बतायेगा क्या ? इस प्रश्न का कोई है उतर आपके पास ? पानी पिये वह, कौन रोक रहा है उसे ? प्राणों की रक्षा करना है न, प्राणियों की रक्षा करना है न, प्रजापालक प्रजारक्षक कहलाता है न। तब ये निरीह भोले-भाले पशु पक्षी भी तो प्राणी हैं, इनके भी प्राण हैं, इन्हें भी तो सुख - दुख का अनुभव होता है। दो न इन्हें शरण, करो न इनकी रक्षा, क्यों कर्तव्य को भूल रहे हो, निभाओ न अपना दायित्व और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी ही रक्षा कर ले, पीले न पानी। पर वह पानी नहीं है, वह है जहर जो कि सोते हुए सर्प के मुख से निकलकर धार जैसा बह रहा है। विषैले प्राणियों के अन्दर स्वभावत: ही जहर होता है, वह कुछ भी खा ले, पी ले पर वह अन्दर जाकर जहर ही बनेगा। और वह जहर उन्हें स्वयं घातक नहीं होता दूसरे प्राणियों को ही होता है। राजा के पास अब विवेक आ गया है, अब वह उसे पी नहीं सकता है, क्योंकि वह तो जल पीना चाह रहा था। इस विवेक को कहाँ से पाया राजा ने ? एक पक्षी से पाया। प्राय: करके जितने भी शाकाहारी पशुपक्षी होते हैं वे सब जहरीले प्राणियों को पहचानते हैं। हमारे से कहीं ज्यादा उन्हें प्रकृति का ज्ञान होता है। मौसम बिगड़ने वाला है या कोई आपत्ति आने वाली है इसकी सूचना उन्हें पूर्व में ही मिल जाती है और वे सावधान हो जाते हैं। कई पक्षी संकेतों को पाकर तालाब-सरोवर को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं क्योंकि अब पानी का स्तर बढ़ जायेगा और हमारी रक्षा यहाँ पर नहीं हो सकेगी। यह सब ज्ञान के माध्यम से होता है, इसलिये अब दूरदर्शन रखने की आवश्यकता नहीं बल्कि दूरदृष्टि रखने की आवश्यकता है। यह दूरदृष्टि कैसे प्राप्त होती है तो दूर देखने से नहीं बल्कि पास देखने से, कर्तव्य की ओर अग्रसर होने से प्राप्त होती है। निकट दृष्टि और दूरदृष्टि दोनों ही अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हैं जो केवल विवेक के आधार पर ही प्राप्त हो सकती हैं। इनके द्वारा जीवन का निर्वाह नहीं निर्माण होता है। अनन्त काल के लिये वह वैभव प्राप्त हो सकता है जो आज तक कभी प्राप्त नहीं हुआ है। आँखों को मलता हुआ राजा अपने हाथ में जो चाबुक लिये था, उसे देखता है। आह! जो चाबुक घोड़े को वश में करने के लिये था उस चाबुक का प्रयोग इस छोटे से प्राणी पर कर दिया। कहाँ चली गई थी उस समय दया ? ‘दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान' और 'धम्मी दया विशुद्धो' यह बोधवाक्य क्यों याद नहीं आये ? बंधुओ दया और अभय का धर्म से गहरा सम्बन्ध है। वीतरागी जीवन में हमें ये सहज ही दिखाई दे सकते हैं। शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा को देखिये....देखते ही रहिये, कितनी शान्ति मिलती है आत्मा को। एक-एक अंग से वीतरागता टपक रही है, अभय और करुणा मानो रग-रग से फूट रही हो। कुछ भी प्रतिकार नहीं है, चाहे आप कैसे ही भाव करो यहाँ तक कि प्रहार भी करो पर आपका प्रभाव उनके ऊपर कुछ भी नहीं पड़ने वाला। धन्य हैं वे भगवान् और उनकी प्रतीक ये मूर्तियाँ। इन मूर्तियों के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि हमें अपने जीवन की रक्षा करने का मतलब अपने आप की ही रक्षा करना है। यदि हम दूसरे के जीवन को समाप्त करेंगे तो क्रोध, मान, माया, लोभ के माध्यम से ही करेंगे तब निश्चित है कि उन कषायों के माध्यम से हमारा जीवन भी नष्ट हो जायेगा। हमारा यह जीना वास्तव में जीना नहीं वह तो एक प्रकार से मरने के समान है। यह मान रखा है हमने कि हम जीव हैं, जी रहे हैं। किन्तु यथार्थ जीवन तो वह जीवन है जिसमें शरीर भी छूट जाये तो परवाह नहीं क्योंकि शरीर सो मैं नहीं हूँ यह विवेक जब जागृत होता है तब सब पृथक्-पृथक् दिखने लगता है। शरीर में आत्मा विद्यमान है यह ज्ञान है लेकिन विवेक के आते ही वह शरीर से पृथक् प्रतिभासित होने लगती है। आज के वैज्ञानिक, शरीर के बारे में सब कुछ जानते हैं, यह सारी की सारी जानकारी डॉक्टरों, वैज्ञानिकों के पास रहते हुए भी वह उस Material (पदार्थ) से बनी काया पर मुग्ध हो जाते हैं परन्तु विवेक कभी मुग्ध नहीं होता और जल्दबाजी में कभी क्षुब्ध भी नहीं होता। जबकि यह राग सहित विज्ञान मुग्ध भी हो जाता है और क्षुब्ध भी हो जाता है, सब कुछ हो सकता है क्योंकि अभी कषायें हैं। प्राणों की रक्षा के लिये तोते ने संकल्प किया था, और अकेले अपने प्राणों की ही नहीं किन्तु दूसरों की भी रक्षा का प्रसंग आता है तो हम दूसरों की रक्षा पहले करेंगे और उस तोते ने एक बहुत बड़ा काम किया, एक बहुत बड़ा आदर्श प्रस्तुत किया। अपने घोड़े पर बैठकर राजा उस तोते को दरबार में ले गया और सभी के सामने राजा ने घटित घटना को दुहरा दिया, इस तोते ने एक व्यक्ति की रक्षा की, जहर पीते हुए व्यक्ति को बचाया मगर उस व्यक्ति ने जिसे इसने बचाया, इस तोते को मार डाला, ऐसी स्थिति में बताओ (सभा के लिये कहा).अब उस व्यक्ति के लिये क्या दण्ड दिया जाना चाहिए ? और अपनी बात को रहस्य में रख दी राजा ने। दरबार में सभी ने यही कहा कि उस ओर तो देखना भी नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसे उपकारक जीव के प्रति इस प्रकार का व्यवहार, वह यहाँ पर किसी भी प्रकार से रहने का अधिकारी नहीं, उसका जीना और मरना ' This are Equal दोनों समान हैं कोई अन्तर नहीं है, इस प्रकार के व्यक्ति धरती पर भार ही हैं। राजा पुन: कहता है, यदि वह व्यक्ति यही आ जाता है तो ? तो उसे इसी समय बाहर निकाल देंगे, राज्य में रहने नहीं देंगे, सभी ने एक स्वर में कहा। "वह व्यक्ति मैं हूँ", राजा ने कहा। आप! सब डर गये, एकदम सन्नाटा छा गया दरबार में। हाँ! वह व्यक्ति "मैं ही हूँ।" जब राजा यह कह देता है तब मंत्री सोच में पड़ जाता है, कुछ क्षण विचार कर कहता है, नहीं राजन्! आपके लिये दण्ड नहीं दिया जायेगा। यदि आपके लिये भी दण्ड दिया जाये तो हम सबका क्या होगा ? देखो! दुनियाँ अपने स्वार्थ के पीछे न्याय और सत्य का पक्ष भी नहीं लेती। पहले सभी ने कहा था कि ऐसा विवेकहीन व्यक्ति हमारे राज्य में रहने के लायक नहीं, उसे दण्ड मिलना चाहिए पर कहाँ गया वह न्याय ? राजा ने पुन: कहा कि नहीं, मुझसे अपराध हुआ है मुझे दण्ड मिलना ही चाहिए किन्तु इतना जरूर है प्रसंग कुछ अलग था, प्यास जोरों से सता रही थी, पानी पीने को गया, तोते ने उसे बारबार गिरा दिया, क्रोध आ गया और उतावली में यह घटना घट गयी, अपराधी तो हूँ ही, दण्ड मुझे अवश्य मिलना चाहिए। क्या दण्ड दिया जाय आपको राजन्! .राजन्! अभी मैं राजा नहीं हूँ दुनियाँ की दृष्टि में.। हाँ! मंत्री ने धीरे से कहा और फिर कहना प्रारंभ कर दिया कि महाराज गल्ती तो हुई है जो क्षम्य नहीं है, कुछ तो दण्ड मिलना ही चाहिए ? कुछ दण्ड क्यों अभी-अभी तो आप लोग बहुत कुछ कह रहे थे। हाँ राजन्! पर आपको विवेक आ गया, अपराध बोध हो गया यही सबसे बड़ा दण्ड है। यह थी पुरानी दण्ड संहिता, मर्यादा, दूरगामी दृष्टि, न्याय नीतियाँ। राजा ने अब कुछ हल्कापन सा महसूस किया, उन्हें लगा कि कुछ भार सा उतर गया है और उन्होंने कहा कि हम और आप सब मिलकर प्रजा की रक्षा करें और सुख-दुख में एक दूसरे के पूरक बनें। जीवन क्या है ? मरण क्या है ? इसके रहस्य को समझे। वस्तुत: यह तन-मन-धन और यह प्राण सब व्यवहारिक हैं, यह भीतरी नहीं हैं, सब क्षणिक वस्तु हैं, एक संयोग है जिसके साथ वियोग जुड़ा हुआ है। उषा बेला आती है तो निशा भी उसके साथ-साथ आ जाती है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात यह आज की देन नहीं बल्कि अनादि से चला आ रहा क्रम है। ज्यादा क्या कहूँ ? आपका जीवन और कुछ नहीं मात्र एक सप्ताह में बंधा हुआ है। जब कभी भी अतीत में झाँकेंगे हम तो सात दिनों में ही बंधे मिलेंगे। क्योंकि एक सप्ताह में सात ही वार तो होते हैं। तिथियाँ पन्द्रह बनाई गई हैं, वार (दिन) सात ही हैं, और दिन देखो तो १२ घंटे का ही होता है क्योंकि ८ घंटे की रात सोने में निकल जाती है। एक बार जीवन का लेखा-जोखा करके देखो, कितने दिन आये, कितनी रातें आई। यदि ५० साल की उम्र है, तो २५ साल तो रात में निकल गये, रहे आपके २५ साल सो उसमें खाने-पीने धन्धा-व्यापार रोग इत्यादि में बहुत सा समय निकल गया। बालपन, अज्ञान दशा में, विवेक के अभाव में कितना समय चला गया पता ही नहीं, यूँ समझिये वह मिला ही नहीं, वह मिलना कोई मिलना नहीं है वह तो मिट्टी में मिलना है। यह सब पार्थिव शरीर की लीला है, आत्मा की लीला तो अपरम्पार है, मगर कौन देखता है उसकी ओर ? सारी प्रजा ने समर्थन किया इस बात का कि अब अपने को उतावलेपन में कोई अविवेक पूर्ण कार्य नहीं करना है। कोई भी बात हो, पहले सोचो-विचारो फिर विवेकपूर्ण निर्णय लो तभी परिणाम कुछ अच्छा निकल सकता है। इसलिये ये तीन बातें जो किसी ने कही हैं हमें हमेशा ध्यान रखनी चाहिए। नो करी (NO CURRY) का अर्थ है, ताम सता न हो, नो वरी (NO WORRY) का अर्थ है, चिन्ता न हो और नो हरी (NO HURRY) का अर्थ है, उतावली न हो। तो वह उतावली कब होती है ? आगे-पीछे बिना सोचे विचारे उतावली कर जाते हैं और फिर बाद में पश्चाताप करते हैं। एक तोते ने विवेक से काम किया और एक राजा ने उतावली से काम किया, उतावली से काम करने का परिणाम एक निष्ठावान देशभक्त प्राणी को खो दिया और जीवन भर के लिये पश्चाताप हाथ लगा। वह महान् पक्षी जिसका जीवन ही आदर्शमय था, ज्ञानमय था क्योंकि उसने अपने जीवन को परोपकारमय बनाया, पर की रक्षा में लगाया उसका त्याग....त्याग है, क्योंकि दूसरों की रक्षा में उसने अपने आपको भी बिना किसी स्वार्थ के खो दिया। वह खोया कहाँ ? उसकी कथा, उसका आदर्श जीवन आज भी मौजूद है। इस प्रकार के भाव विचार ही जीवन में उच्च आचार को लाते हैं तथा उच्चतम स्थान दिलाने में कारण होते हैं। अच्छे कार्य करने से ही अच्छे पद मिला करते हैं। बुरा कार्य करने से कभी भी अच्छे पद नहीं मिला करते। अच्छे पद के लिये अच्छे कार्यों को भी कमर कस कर, कर लेना चाहिए। किन्तु यह भी ध्यान रहे कि सत्य के साथ ही अच्छे कार्य हुआ करते हैं। सत्य की भूमिका यदि नहीं है तो कोई भी कार्य अच्छा नहीं माना जायेगा। सत्य और अहिंसा का बहुत गहराई से सम्बन्ध है। यदि एक हाथ में हमारे सत्य है तो दूसरे में अहिंसा होनी चाहिए। दोनों मिल जाते हैं तो बड़े से बड़े राष्ट्रों की भी रक्षा की जा सकती है, उन्नति-विकास किया जा सकता है। समय आपका हो गया है, आज की इस तोते की कथा को यदि आप याद रखेंगे, उसकी दृढ़ धारणा, भावना और पुरुषार्थ को जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे तो निश्चित ही मानिये कि आपका जीवन भगवान् महावीर से जुड़ जायेगा। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रहादिक के जो उदाहरण हैं वह मात्र उदाहरण ही नहीं बल्कि जीवन है और जीवन ही नहीं एक प्रकार से उसे चलाने वाले प्राण हैं। यह धर्म का जीवन है, धर्म के प्राण हैं जो किसी प्रकार से नष्ट होने वाले नहीं; छूटने वाले नहीं हैं क्योंकि मिटने वाला आत्मा का स्वभाव नहीं होता। ज्यों का त्यों बना रहता है वही वास्तव में जीवन है। उसी प्रकार के जीवन के लिये, उसी आदर्श के लिये अब हम नये सिरे से सोचें, विचारें और विवेक से काम करें। तभी हमारा जीवन सुरक्षित, उन्नत और आदर्शमय हो सकता है।
  24. दान, अर्थ (धन) विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार चोरी करके दिया गया दान, धर्म नहीं, दान नहीं। नीति न्याय के अनुरूप देना दान है। पुरुषार्थ के माध्यम से कमाकर दान देना ही दान है। पुरुषार्थ के माध्यम से जो चीज आती है वह देना दान है। समुद्र में एकत्रित पानी काम में नहीं आता। ऐसे ही संग्रह किया हुआ अनाप-शनाप धन का दान देना धर्म नहीं है। घूस लेकर दान देना धर्म नहीं है। आत्मा के उज्ज्वल परिणामों से इकट्ठा करके दान देना ही धर्मात्मा का लक्षण है। अर्थ का यदि सदुपयोग नहीं किया जाता है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। समय रहते अर्थ (धन) का सदुपयोग कर लेना चाहिए। त्याग और दान का सही-सही प्रयोजन तो तभी सिद्ध होता है, जब हम जिस चीज का त्याग कर रहे हैं या दान कर रहे हैं उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान सम्मान पाने का लोभ न हो । बन्धन से मुक्ति की ओर जाने का सरलतम उपाय यदि कोई है तो वह यही त्याग धर्म और दान है। आहार दान की क्रिया श्रद्धामयी श्रावक और अभिमान रहित साधक के मध्य सम्पन्न होती है। यह दाता और पात्र का आदर्श रूप है। जैसे वस्त्र की गंदगी साबुन-सोड़े से निकलेगी वैसे ही दान पुण्य के द्वारा अपने अंदर की गंदगी को धो डाले । आप अपने धन के बांध में लीकेज न आने दें। धन को दया, करुणा, परमार्थ के कार्य में बहने दें, रोकें नहीं। अभिमान के साथ नहीं, दया धर्म के साथ दान देना चाहिए। अभिमान के साथ दिया हुआ दान, दान नहीं माना जाता है उसके माध्यम से तो सम्मान का आदान हो रहा है। अर्थ को अर्थ ही मानो, परमार्थ नहीं। अर्थ के द्वारा गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती। अर्थ का उपार्जन परमार्थ के साधन के लिए है अनर्थ के लिए नहीं। अभयदान के विषय में जो सोचता है वह सम्यग्दर्शन के बारे में विभिन्न पहलुओं से अध्ययन कर चुका है, यह ज्ञात होता है, क्योंकि तन, मन, धन और वचन इन सबको वह अपने व दूसरे के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में ही न्यौछावर करना चाहता है। दान की महिमा क्या बताऊँ यही एक ऐसा मार्ग है जो गृहस्थ के जीवन को संतुलित किये रहता है तथा सर्वस्व त्यागी तपस्वियों से भी जोड़ देता है। त्याग और दान का सही-सही प्रयोजन तो तभी सिद्ध होता है, जब हम जिस चीज का त्याग या दान कर रहे हैं, उसके प्रति हमारे मन में किसी प्रकार का मोह या मान-सम्मान पाने का लोभ न हो। बन्धन से मुक्ति की ओर जाने का सरलतम उपाय यदि कोई है तो वह यही त्याग धर्म और दान है। पूर्व में, व्यापार करने में चतुर व त्याग करने में चतुर, कोई था तो जैनियों का नाम पहले आता था पर आज हम नाम के पीछे पड़ गये। नाम-निक्षेप के पीछे पड़कर भाव-निक्षेप को हमने नहीं धारा | भाव-निक्षेप वाला ही कृत-कृत्य कहलाता है। वही सुखी बन जाता है। हमें अर्थ को चाहते हुए अनर्थ से बचते हुए अर्थ का त्याग करना है, इसमें घाटा नहीं है, दु:ख नहीं है, सुख का यह कारण है। धन को गाड़कर रखने की अपेक्षा दान देकर धन को गाढ़ा बनाओ। जो त्याग दिया उसको पीछे मुड़कर क्यों देखना यदि देखता है तो उसका यह भाव भी उसी प्रकार चला जायेगा, जिस प्रकार तेली का बैल आंख पर पट्टी बांध देने से वह यह समझता है कि सुबह से शाम तक हम बहुत बड़ी यात्रा करके आ गये। पर वह वहीं का वहीं बंधा रहता है। व्रती हो जाने पर अव्रती की ओर नहीं देखना चाहिए।
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