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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • व्रत

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    व्रत विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. दृढ़ता के साथ ही व्रतों का निर्दोष पालन होता है।
    2. व्रत उस वस्तु की भाँति है जिसकी देख रेख न की गयी तो उसमें जंग लग सकती है। कषाय रूपी चूहे खा लेंगे, पापरूपी चोर चुरा लेंगे।
    3. व्रत को निर्दोष पालन करने के लिए हमेशा जाग्रति रखनी पड़ती है।
    4. वही व्रत अंगीकार करना चाहिए जिससे शरीर और मन पर गलत प्रभाव न पड़े।
    5. मन से, वचन से, काय से निर्दोष चर्या होती है, उसी को रिद्धि-सिद्धि हो जाती है।
    6. स्वदार संतोष व्रत के बिना संतान पर संस्कार नहीं पड़ सकते।
    7. स्वदार में संतुष्ट रहने वाला आगे चलकर मुनि बन सकता है। सभी दुष्कर्म इसी अब्रह्म के पीछे लगे हुए रहते हैं। अनंत वासनाओं ब्रेक लगाने के लिए स्वदार संतोष व्रत हो जाता है। जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए अनंतानुबंधी चली गई फिर संसार चुल्लू भर बचता है वैसे ही यह व्रत हो गया तो पाप चुल्लू भर बचता है।
    8. अहिंसाणुव्रत को ग्रहण किये बिना आज संस्कृति बच नहीं सकती।
    9. महान् आत्माओं के द्वारा ग्रहण किया जाने वाला महाव्रत होता है। महान् उपलब्धि प्राप्त कराता है महाव्रत।
    10. कोई भी व्रत काम चलाऊ नहीं होना चाहिए क्योंकि निरतिचारपूर्वक व्रत पालन करने से तीर्थंकर प्रकृति के बंध में वह कारण है।
    11. व्रत में छूट रखोगे तो निर्दोषता नहीं आ सकती।
    12. व्रती होने के बाद वृद्धों जैसी चाह हो जाती है, प्रदर्शन आदि सांसारिक कार्यों में उत्साह नहीं रहता, ज्ञान की बात नहीं अनुभव की बात याद रहती है आज किताबें बहुत होती जा रही हैं लेकिन ज्ञान संकीर्ण होता जा रहा है। बहुत नहीं पढ़ो बल्कि बहुत बार पढ़ो।
    13. वैराग्य के साथ व्रत नहीं लेते इसलिए उसमें आनंद नहीं आता। इसका आनंद इन्द्र अहमिन्द्र को भी नहीं मिलता।
    14. रागद्वेष को मिटाने के लिए ही व्रती बना जाता है।
    15. व्रत स्वयं के लिए लिए हैं दूसरे को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिए।
    16. आत्म साक्षात्कार के बिना व्रत आदि कोल्हू के बैल जैसी यात्रा है।
    17. त्यागे हुए विषयों की ओर व्रतियों की दृष्टि नहीं जाना चाहिए वरना कोल्हू के बैल जैसी दशा होगी। खली खाने को मिलती है। पंचेन्द्रिय के विषय खली के समान हैं।
    18. व्रत निर्दोष पालने हेतु उनकी पाँचों भावनाओं को हमेशा भाओ।
    19. ध्यान रखें व्रत अणुरूप नहीं है महाव्रत रूप हैं। यह ध्यान नहीं रखा तो दिन तो कट जायेंगे लेकिन कर्म नहीं कटेंगे।
    20. व्रतों का शोधन करो एवं आत्मा का शोध करो।
    21. थाली आने के पूर्व में अपने को सोचना है कि हमें भी भूख मिटाना है या नहीं मिटाना है तो थाली में जो आये उसे उसी से मिटा लो, इधर उधर थाली में मत देखो कि किसकी थाली में क्या परोसा गया, ऐसे ही जिसे जो व्रत संयम मिला है उसे अच्छे से रुचिपूर्वक प्रयत्नपूर्वक पालन करने का प्रयास करना चाहिए, दूसरे को क्या व्रत संयम मिला है यह नहीं देखना।
    22. व्रत पालन के क्षेत्र में कभी भी खानापूर्ति नहीं करना चाहिए |
    23. उस प्रकार के व्रत नियम पालन करना चाहिए जिसमें मन और शरीर दोनों संशय में न रह जायें। संक्लेश भी न हो।
    24. ग्रन्थ रचना करते समय आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं, उस प्रतिज्ञा को सिद्ध करने का प्रयास ग्रन्थ के अन्त तक रहता है। प्रतिज्ञा को ध्यान में रखकर ग्रन्थ रचना का समापन करते हैं। ऐसे ही व्रत संयम की जो प्रतिज्ञा ली है, उसको जीवन के अन्त तक सिद्ध करना आवश्यक है।
    25. व्रत पूर्ण होने का विकल्प नहीं होना चाहिए, व्रत विशुद्धि के लिए होना चाहिए। व्रत विकल्प के साथ नहीं, व्रत तो विशुद्धि के साथ पूर्ण किए जाते हैं।
    26. जो अनिष्टकारक होता है, उसके सेवन का तो हमेशा-हमेशा ही त्याग कर सकते हैं। लेकिन ऐसा त्याग कर दो कि शरीर क्षीण हो जाये फिर चश्मा से डबल चश्मा लगने लग जायेगा व्रतों का सही पालन न हो सके ऐसा नहीं होना चाहिए।
    27. मोक्षमार्ग में हमेशा अपनी निंदा, गह, आलोचना करना चाहिए दूसरे की नहीं। अपने व्रतों को शुद्ध बनाना हो, स्वयं की आलोचना सौभाग्य समझकर कर लेना चाहिए।
    28. देव, गुरु, शास्त्र की साक्षीपूर्वक जो व्रत लेते हैं, उनको दृढ़तापूर्वक निभाने का ही प्रयास होना चाहिए। अपने व्रत अच्छे ढंग से पलेंगे तो माता-पिता को भी संतुष्टि होगी अन्यथा उनकी आस्था कैसे बन पायेगी?
    29. व्रत लेकर कभी छोड़ना नहीं अन्यथा आगे नहीं बढ़ सकोगे।
    30. व्रत अपने लिए होते हैं दूसरों के कहने पर या दूसरों के लिए नहीं होते।
    31. अपवित्र को पवित्र बनाने का एक ही रास्ता है व्रत को धारण करना।
    32. व्रत के बिना कभी भी असंख्यात गुणी निर्जरा नहीं हो सकती है।
    33. अहिंसा व्रत की रक्षा सत्यादिक व्रत करते हैं अहिंसा व्रत मुख्य है।
    34. व्रती जन कभी भी कर्म सिद्धान्त को नहीं भूले।
    35. पाँच अणुव्रत को लेने के बाद व्रती नहीं कहलाता है, व्रतों की रचना करने से उनकी वृद्धि में तत्पर रहता है उसे ही व्रती संज्ञा दी जा सकती है।
    36. अपने आपकी कमी निकालने वाला व्रती कहलाता है।
    37. निरतिचार व्रत पालन से एक अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है, निरतिचार का मतलब है कि जीवन अस्त-व्यस्त न हो जाये।
    38. व्रत के पालन में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी गहरी छाप पड़ती है कि खुद का तो विस्तार होता ही है, अन्य भी इस व्रत के सम्पर्क में आ जाते हैं, वे भी बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकते।
    39. याद रखो-निरतिचार व्रत का पालन करने वाला स्वयं तो तिरता ही है दूसरों को भी तारता है। वह स्वयं तो अपनी मंजिल पर पहुँचता ही है, दूसरों के वहाँ पहुँचने में भी सबल सहायक बनता है।
    40. अरे भैया-तीर्थंकर भी व्रत लेते हैं किन्तु व्रत ऐसे नहीं जिनसे दूसरे का घात हो।
    41. व्रत ऐसे हो जो स्वयं को भी सुखकर हो और दूसरों को भी सुखकर हों। सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए ये व्रत बड़े मार्मिक है मौलिक चीज हैं और इनसे आगे कोई और खोज नहीं।
    42. व्रत कभी छोटा नहीं होता व्रत तो व्रत होता है जिसका फल अपरंपार और अपूर्व होता है।
    43. सब कुछ जाये लेकिन अपने श्रद्धान को, संकल्प को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए।
    44. व्रती के पीछे जो होता है उसका नाम अणुव्रती है।
    45. व्रत का जो अनुगामी/अनुचर होता है उसका नाम अणुव्रत है।
    46. आप अणुव्रती हैं तो पीछे-पीछे हो जाओ। महाराज के सामने मत होना।

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