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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. पाषाणेसु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथाघृतम्। तिलमध्ये यथा तैल देहमध्ये तथा शिव: || काष्ठमध्ये यथा वह्निशक्ति रूपेण तिष्ठति। अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः॥ दूध में घृत विद्यमान है, किन्तु उसे प्राप्त करने के लिये एक निश्चित क्रिया की जाती है। घृत बनाने के लिये मथना तथा तपाना आवश्यक है। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि तथा दुग्ध में घृत स्वभाव से विद्यमान है उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा में परमात्मा की विद्यमानता स्वभाव से ही है कहीं बाहर से नहीं आई । विज्ञान के इस युग में भी सुगंधित घृत की प्राप्ति के लिये प्राचीन पद्धति ही अपनायी जाती है। निश्चित प्रक्रिया से स्वर्ण, तेल, घृत निकालने के पश्चात् शेष पदार्थ मूल्यहीन रह जाता है। तेल निकाला तिल गायब, घृत निकाला दूध गायब। अनन्त काल से प्रभु भीतर सोया है उसे साधना के बल पर एक बार जगा लें तो इस देह के बंधन से मुक्त हो सकते हैं। धर्मानुरागी बंधुओं! प्राप्त हुए इस शरीर से क्यों मोह करते हो इस काया की अमरता नहीं है। शरीर के मिलने तथा बिछुड़ने की यह क्रिया अनादि काल से जारी है तथा अनन्तकाल तक जारी रहेगी। गले का हार स्वर्ण आभूषण होता है, पाषाण नहीं। पाषाण से हम स्वर्ण को निकाल लेते हैं किन्तु कैसी विवशता है कि हम परमात्मा की प्राप्ति का यत्न नहीं करते, शरीरका मोह नहीं छूटपाता। देखिए कष्ट में अग्नि रूप शक्ति है पर वह दिखती नहीं, शक्ति का उद्धाटन होते ही लकड़ी जलकर राख हो जाती है। काष्ठ जलने के पूर्व भी अग्नि नहीं दिखती और जलने के बाद भी अग्नि नहीं दिखती इसी तरह इस देह में विद्यमान आत्मा का स्वभाव है। दूध में जामन डालने के साथ ही क्रिया आरम्भ हो जाती है। दूध की भारी मात्रा को जमाने के लिये चम्मच भर जामन ही पर्याप्त होता है। जामन डालते ही दूध का स्वरूप परिवर्तित होने लगता है तथा उसके कण एकत्र हो जाते हैं निश्चित अवधि के पश्चात् दूध का रूप दही में बदल जाता है। अब इसमें दूध का कोई गुण नहीं है। स्पर्श, स्वाद, गंध सब अलग। फिर क्रिया आरम्भ होती है मथने की, इस क्रिया के पश्चात् मथे पदार्थ से अलग करते हैं नवनीत, नवनीत निकल गया छौंछ रह जाता है मूल्यहीन । जैसे कि आत्मा निकलते ही शरीर व्यर्थ हो जाता है। फिर नवनीत को तपाकर घृत की प्राप्ति होती है। बस इसी तरह की पद्धति, इसी तरह का मार्ग मोक्ष का भी है। तपाने से कमियाँ (विकृति) जलकर पृथक हो जाती हैं। घृत पृथक हो जाता है, इस बचे हुए शेष पदार्थ को मरी कहते हैं। घृत निकल गया मरी नीचे रह गई, अब वह मात्र शुद्ध घृत है जो कभी अब दूध नहीं बन सकता। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि अर्हत भगवान् नवनीत के समान हैं सिद्ध भगवान् घी के समान है तथा हम सभी दूध के समान हैं। इसमें धर्म संस्कारों की जामन डाल कर जमाओ और फिर वैराग्य की मथानी से स्वयं का मंथन करो। सब कुछ आपके सम्मुख है, आवश्यकता है मात्र ज्ञान के उद्धाटन की। दूध और घी में बहुत अन्तर है उसके गुण धर्म पृथक्-पृथक् है। देख लीजिये इस अंतर को आप। दूध में छवि नहीं दिखती किन्तु तपाकर प्राप्त घृत में आपकी छवि दिखती है तथा तल के दर्शन भी हो जाते हैं। घी में हम भी दिखे और नीचे क्या है यह भी दिखे क्योंकि घृत स्वपर प्रकाशक है। आरती घृत से होती है क्योंकि वह शुद्ध है, दूध से आरती सम्भव नहीं। भगवान् भी घृत की आरती से ही प्रसन्न होते हैं, दूध में घृत की बाती भी डाल दो तो कुछ क्षण पश्चात् वह भी बुझ जायेगी जबकि दूध में घृत भी विद्यमान है किन्तु गुण धर्म घी का नहीं है। वह इसलिए कि तपकर शुद्ध होकर ही घृत का रूप रंग गुण प्राप्त होता है। घृत के ऊपर मनों-मन टनों-टन दूध की मात्रा डालने पर भी घृत ऊपर आ जाता है। दूध के ऊपर आसन होता है। घी का। ऐसा ही आत्मा परमात्मा का संबंध होता है। दूध रूपी आत्मा से घृत परमात्मा का आसन सदैव ऊपर होता है। चाहे मात्रा में दूध कितना भी क्यों न हो। घी दूध में था, अलग हुआ, ऊपर जा बैठा उच्चासन पर, ऐसे ही ऊपर उठने के लिये परीक्षा से गुजरना होता है। घी ने भी अग्रिपरीक्षा देकर उच्चासन पाया है। मूल्य की दृष्टि से भी घृत मूल्यवान है। लेकिन भैया! यह घी सबको पचता नहीं क्योंकि हमारा लीवर कमजोर है। दूध में घृत मिलाकर भी फेंटो तब भी दूध घृत एक नहीं हो सकता। बंधुओ! सिद्ध परमेष्ठीरूपी घृत की महिमा गाते-गाते जिह्वा नहीं थकती किन्तु इस बनने की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा है मोह की। दूध का मोह नहीं छूटरहा। इस मोहभाव को छोड़कर यदि हम अभ्यास करना शुरू कर दें तो हमें उपलब्धि हो सकती है। दूध से घी की प्राप्ति में मंथन, तपन के साथ निश्चित समय की भी आवश्यकता है। इंतजार करना होता है। सर्वोदय क्षेत्र में आकर आप लोगों ने इन आठ दिनों में पूजन किया है। भक्ति आराधना की है। अब वापस जाने की बेला में एक-एक मथानी आपको मंथन हेतु जरूर ले जाना चाहिये यदि आप घृत रूपी मुक्ति को चाहते हो तो। आप सभी ने दान दिया है, धन का सदुपयोग किया है किन्तु यह संसारी प्राणी सब कुछ करते हुए भी हिसाब-किताब लगाता है यह इसकी कमजोरी है। मैंने इतना दान दिया, यह काम करवाया, इतना खर्च किया। मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूँकि आपकी दुकान पर जब इनकमटेक्स अधिकारी आते हैं। तब आप सोच-विचार, हिसाब-किताब करते हैं क्या कि कितना दिया? नहीं करते क्योंकि वहाँ तो बचना है और बहुत सारा माल जो दबा रखा है उसे बचाना है। बिना किसी को बताये आप दे देते हैं। इसी तरह की उदारता यदि धर्म के क्षेत्र में भी आ जाये तो फिर कहना ही क्या। इस बात को आप गम्भीरता पूर्वक सोचें और जीवन में उतारने का प्रयास करें। एक बार यह आत्मा घृत के समान परमात्मा पद को प्राप्त कर ले तो फिर लौटकर इस संसार में आना ही नहीं पड़ेगा। वह परम पद, शुद्ध पद, हम सबको प्राप्त हो इसी भावना के साथ। 'महावीर भगवान् की जय'
  2. गंध रहित फूल मूल्यहीन होता है वह धूल में मिल जाता है। धर्म एक सुगंध है। धर्ममय जीवन से प्रस्फुटित सुगंध अनेक नासिकाओं को संतृप्त करती है। धर्म सनातन होता है, अभेक्ष्य। किन्तु आज वह सनातन कम, तनातन अधिक है। कुशल भ्रमर गंध की गवेषणा कर ही लेता है। वह गंध विहीन फूल के निकट जाकर भी संतृप्त नहीं हो सकता। गंध विहीन गुलाब को रखने से स्वयं भी अतृप्त रहते हैं क्योंकि वह तो कृत्रिम था। धर्म सुगंध के समान है इसलिये वह आसपास के क्षेत्र को सुवासित कर देता है। धर्म का अनुभव होते ही ताजगी आ जाती है। फिर एक ताजगी, एकता जगी। हम गंध विहीन पुष्प से भ्रमित हो जाते हैं भ्रमर के समान। श्रमणों के पास आने के लिये श्रम तो करना पड़ता है किन्तु भ्रम दूर हो जाता है। धर्म को आधार नहीं मिलता तो वह पलायन कर देता है। गंध एक धर्म है, योग्यता शक्ति है। फूल का मूल्य गंध पर आधारित होता है। गंध रहित फूल कोई नहीं खरीदता। अहिंसा धर्म अपनाते ही राग कम होता जाता है तथा जीवन में खुशबू आने लगती है। व्यक्ति में विद्यमान गुण धर्मों के माध्यम से ही उसके धार्मिक होने की पहचान होती है, जिस प्रकार अग्नि में तपा-तपाकर ही स्वर्ण की पहचान होती है। पीलापन पीतल में भी होता है और स्वर्ण में भी किन्तु स्वर्ण बहुमूल्य है। पीतल का मूल्य कम है। पीतल अपेक्षाकृत भारी है उसमें कड़ापन नहीं स्वर्ण मृदु है इसलिये कड़ा नहीं बनता उसका किन्तु कड़ा पीतल का बनता है। स्वर्ण का कड़ा भी सौ टंच सोने का नहीं बनता यदि बना तो कड़ा नहीं रहेगा। वह धर्मात्मा की पहचान वेश पर आधारित नहीं है नाही देश पर। धर्म सनातन होता है अभेद्य होता है, इस सनातन धर्म में अभेद्य आम तत्व पर ही दृष्टिपात करें। आज तो तनातन है। होना प्टनाटन चाहिये था सौ टंच खरा। इस सनातन आत्म धर्म पर तनातन का बट्टा लगने से धर्म गायब हो रहा है। जिस युग में बुरा भी बूरा (मीठा) सा लग जाये वही सतयुग है तथा जिस युग में खरा भी अखरता है वह कलयुग है। आज तो बात भी अखर जाती है, खरी बात तो और भी अखर जाती है। आप कहने लगते हैं कि उसने मुझे खरी-खरी बातें कहीं अखर गयी। वस्तु का दोष नहीं होता, दोष है तनातन का। जिस प्रकार नर्मदा अमरकंटक से पश्चिम की ओर जाती है। पर वह किसी एक स्थान से नहीं बंधती, बहती रहती है, उसे सभी जन अपना मानते हैं यह बात पृथक् है, इसी तरह धर्मात्मा किसी देश का नहीं वह तो देशवासियों से जुड़ता है। धूप-वर्षा में चलता रहता है। रुकता नहीं वरन् रुकी गाड़ी भी चला देता है। सनातन धर्म हीरा कहलाता है किन्तु मुख से नहीं कहता। परख जौहरी करता है। सनातन अनन्त से आया है, सत् है। आत्मा सत्त भी है चित्त भी। सतचित मिट नहीं सकता यह त्रैकालिक सत्य है। हमारे पास सतचित है पर आनंद नहीं है। आनंद की अनुभूति स्वयं के विश्वास पर निर्भर है। यदि यह अनुभूति हो जाये तो फिर सच्चिदानंद अमर है। विश्वास के अभाव में कांटे की चुभन है। इस चुभन का कारण तनातन है। चित्त कुपित हो गया पित्त बढ़ जाता है। वात बढ़ा, सन्निपात हो गया, फिर सन्निपात ग्रसित को आठ-आठ आदमी पकड़े तो भी वश में नहीं आता तथा मूच्छित करने पर भी वश में नहीं रहता। सन्निपात समाप्त होते ही सनातन रूप सतचित आनंद की लहर आ जाती है। यह आनंद भी अलग-अलग तरह से लिया जाता है। मनुष्य को अपनी प्रशंसा सुनने में ही आनंद आता है, दूसरे की हो तो मुँह फेर लें। क्यों आनंदित हुए? मन को अच्छा लगा इसलिए। आप श्रोत है आनंद के। हम सन्निपात के रोगी हैं तथा वैद्य है वृषभादिक महावीर भगवान् पर्यत तीर्थकर भगवान् राम। यदि हमारा अपना ही तनातन दूर नहीं हुआ तो सन्निपात नहीं मिटेगा, भले ही कोई वैद्य हो। किन्तु यह मिट सकता है जबकि आस्था हो, विश्वास हो, रोगी को तब। रोगी को चिकित्सक पर विश्वास नहीं होगा तो न तो वह इलाज कराएगा न ही औषधि असरकारक होगी। विश्वास सबसे महत्वपूर्ण चीज है। सन्निपात का रोगी बकता है, रोता है-लातें मारता है। चिकित्सक रोगी के लात मारने से निष्प्रभावी रहता है। पित्त शांत हो, गुस्सा शांत हो तो आनंद की अनुभूति हो जाती है। हम भी भगवान् बन सकते हैं तनातन छोड़कर। पित्त हो तो रसगुल्ला भी कड़वा लगता है। मान को चढ़ाओ भगवान् के चरणों में, इसके बिना आनंद की अनुभूति नहीं। संतों के पास आनंद है। अत: संत बनो, संयमी बनो। संतोषी व्यक्ति पुष्ट हो जाता है थोड़े से भोजन से भी किन्तु जिह्वा असंतोषी है। पेट कहता है इंड (समाप्त) लेकिन जिह्वा कहे एंड (और), और अधिक कीर खाया तो परिणाम भयंकर। बंधुओं! यह लोभ, तृष्ण नागिन के समान है जो हमारी आत्मा को डसती है। यह नागिन तो एक बार ही डसती है किन्तु तृष्णा की नागिन भव-भव में डसती है। संत का सान्निध्य पाकर तृष्णा का विष शीघ्र ही उतरने लगता है। संत पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप। उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप || गर्म जल भी आग को बुझा देता है क्योंकि आग बुझाना उसका गुण धर्म है ऐसे ही संत से किया गया अनुराग भी पाप कर्मों का नाश करता है। गर्म होने पर भी जल अपना स्वाभाविक गुण धर्म नहीं छोड़ता किन्तु मनुष्य गर्म होकर क्यों अपना स्वभाव छोड़ देता है। यह सब विश्वास की कमी और वास्तविकता की पहचान के अभाव में हो रहा है। राम और महावीर के आदर्श को सामने रखकर अपने आतमराम को पहचानें और उसे ही पाने का प्रयास करें। 'महावीर भगवान् की जय!'
  3. मानव जाति एक है। जब तक मानव जाति में ‘विशेष' मानव का विशेषण विद्यमान है समाजवाद नहीं आ सकता। विशेष को भी सामान्य बना देना ही समाजवाद है। जब तक स्थिति 'सामान्य' नहीं हो जाती विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है तथा जैसे ही स्थिति सामान्य होती है शांति मिल जाती है। कफ्यूं वहाँ लगाया जाता है जहाँ स्थिति असामान्य होती है। ऐसी असामान्य स्थिति में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु स्थिति के सामान्य होते ही सब कुछ ठीक हो जाता है। ऐसे ही मानव जाति में सामान्य से हटकर विशेष होते ही विभाजन हो जाता है जिससे समाज में असमानता व्याप्त हो जाती है। असमानता त्यागकर सामान्य हो जाना ही समाजवाद है। मनुष्य आँख खोलते ही माँग करने लगता है इसका आरंभ ही भूख से होता है। विशेषता की भूख लगते ही स्थिति असामान्य हो जाती है। प्रत्येक प्राणी को सत्य को अस्तित्व के रूप में स्वीकार करना चाहिए। विशेषता मान का प्रतिफल है। अगर दृष्टि में संकीर्णता हो तो मान की उत्पत्ति होती है। सामान्य वातावरण नहीं होने पर धर्म की छूट भी उल्टी के रूप में बाहर आ जायेगी। यह बात सत्य है कि हम सामान्य रूप धारण करके ही एकाकार हो सकते हैं तथा विशेषता विभाजन भेद रेखा को भी समाप्त कर सकते हैं। पंगत में खाना परोसते समय दृष्टि तथा व्यवहार समान रहता है। खाना परसने वाले की दृष्टि में पंगत में बैठे सभी मनुष्य समान रहते हैं किन्तु जब बाजार में वस्तु खरीदने जायें तो तुलना ही तुलना। तुला पर तुलना, सस्ते महंगे में तुलना। मनुष्य की दृष्टि परोसने वाले के समान समानता की होनी चाहिये न कि दुकानदार ग्राहक के समान तुलना की। संसार का प्रत्येक मनुष्य मूल्यवान वस्तु की इच्छा रखता है। तथा उसे पाने सदैव तत्पर रहता है। इस संबंध में प्रत्येक की अपनी दृष्टि है तथा प्रत्येक का अपना-अपना दृष्टिकोण। बहुमूल्य वस्तु की प्राप्ति की इच्छा केवल मानवों में ही नहीं, देवों में भी होती है। देव भी पंचेन्द्रिय के दास बन जाते हैं। होड़ लग जाती है प्राप्ति के लिये किन्तु यहाँ पर भोग्य नहीं भोक्ता महत्वपूर्ण है। भोक्ता चेतन है भोग्य अचेतन। देव भी जो महान् तथा विशेष माना जाता है, महादेव के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है। देव का दास देखता है कि मेरा स्वामी भी महास्वामी का दास है। तीन लोक के नाथ वही महादेव है जिन्हें इन्द्र देव भी पूजते हैं। ‘षट्खण्डाधिपति भरत चक्रवर्ती' भी 'आदिनाथ भगवान् के चरणों में भक्ति से झुककर सामान्य हो जाता है। अरे चक्रवर्ती तो क्या इन्द्र भी सोचता है कि वह भी इंद्रियों का दास है। बंधुओं! क्षणभंगुर दूश्य है यह सब। यहाँ सब कुछ समाप्त हो जाता है। सूर्य भी बारह घंटे पश्चात् अस्त हो जाता है। राजा, महाराजा, इंद्र आदि क्षणभंगुर चमकीले पदार्थ सब शांत हो जाते हैं। कल जहाँ बहार थी, वैभव था, हरियाली छायी थी, वह सब समाप्त हो जाता है। पतझड़ आ जाते और पतझड़ की जगह पुनः बसंत बहार छा जाती है। बालक गोद में दूध पीता आया था जवान होते ही विषयों में लीन हो जाता है। सूरज चाँद छिपे निकले,ऋतु फिर-फिर करआये। प्यारी आयु ऐसी बीते, पता नहीं पाते॥ कालचक्र घूमता ही रहता है, आया-गया, आ रहा है, जा रहा है ऐसा ही सब चलता जा रहा है। रात्रि का रूप, दिन का स्वप्न, दीर्घकालीन स्वप्न, अल्पकालीन स्वप्न । देवों की दीर्घकालीन आयु भी कब बीत जाती है पता ही नहीं चलता, किन्तु दुख की घड़ी काटे नहीं कटती। काल-महाकाल बन जाता है। यह सब मोह की परणति है, सर्वस्व त्याग कर स्वयं में खोते ही यह सब बंध टूट जाते हैं। रूप में परिवर्तन होता है किन्तु वह अरूप नहीं होता। पीला रूप देखते ही काला छोड़ देते हैं। ‘पीले स्वर्ण' की रक्षा ‘काले लोहे' के ताले से की जाती है स्वर्ण की रक्षा के लिये स्वर्ण का ताला नहीं लगाया जाता। स्वर्ण विशेष है। जिस दिन स्वर्ण की रक्षा के लिये स्वर्ण का ही ताला होगा सब समान हो जायेगा तब रक्षा की आवश्यकता ही नहीं। इन्द्रलोक में ताला नहीं लगता क्योंकि वहाँ चोरी नहीं होती। कोई किसी का स्वामी नहीं, दास नहीं, सब समान हैं। स्वामी तो आपके भीतर विद्यमान है। ऊँच-नीच में कषाय है, कषाय समाप्त होते ही दृष्टि समान हो जाती है। महादेव के सामने भक्तों की दृष्टि में समानता आ जाती है। समानता आते ही सब प्राप्त हो जाता है। भगवान् चिन्मयाकार हैं, आप अपनी दृष्टि अगल-बगल में न दौड़ायें। प्रभु से आप अपनी तुलना कर जान लो कि क्या अंतर है? अंतर अंतर्घट से ज्ञात हो जाता है। दृष्टि में समानता आ जाना ही वास्तविक ज्ञान है वही भगवान् है। भिन्न-भिन्न पदार्थों को देखकर ऊँच-नीच की जो दृष्टि बनती है उसमें भगवान् को देखते ही बदल जाती है। विषय, विषयातीत होने पर महत्वपूर्ण हो जाता। विषयातीत को खोजने के लिए स्मरण करते ही प्रभु दिखाई देते हैं। अभी अष्टानिका पर्व है। सौधर्म इन्द्र नंदीश्वरद्वीप जाकर सपरिवार भगवान् की पूजा-अर्चना अवश्य करता हैं, किन्तु मनुष्य देवों से भी श्रेष्ठ है क्योंकि मानव ही महात्मा तथा महामानव बनने का गुण रखता है। 'मान मिटते ही मानव महात्मा बन जाता है'। महामानव के चरणों में देव-मनुष्य सभी नमन करते हैं। सिद्धत्व की आराधना करते हुए चक्रवर्ती भी सब कुछ त्यागकर सामान्य प्राणी बनना चाहता है। प्रभु जैसा बनना चाहता है। सिद्ध परमेष्ठी के पास जाने का प्रयास करो, और यह विशेषता से नहीं एकाकार सामान्य रूप धारण करने से ही संभव है। असामान्य अशांति है, कोलाहल है। सर्वोदय में देवों का आगमन हो चुका है किन्तु आप लोग देवों से प्रभावित न होकर महादेव देवाधिदेव की आराधना करें। इसी में आपका कल्याण है। ‘महावीर भगवान् की जय!'
  4. अशुद्धि का अंत कर जिन्होंने परम पद प्राप्त कर लिया है, हम उन्हीं सिद्ध परमेष्ठी की आराधना करने के लिये यहाँ पर एकत्रित हुए हैं। इस आत्मा में विद्यमान अशुद्धि की आदि नहीं किन्तु अन्त अवश्य है। दो छोर हैं एक आदि और एक अन्त किन्तु हमारी यात्रा का प्रवाह इन दो छोरों से परे अनादि अनन्त हैं। तराजू के पलड़ो की तरह भारीपन/बोझ नीचे आता है तथा हल्की वस्तु ऊपर उठती है। यदि हम अपने जीवन को दोषरहित, पाप के भार से रिक्त करेंगे तो वह ऊपर उठ जायेगा। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिये जीवन को खाली करना सर्वप्रथम आवश्यक है। हमारे अन्दर विद्यमान इस संभावना के संरक्षण की भावना सद्भावना पर ही निर्भर है। आप सभी अनेकान्त के उपासकों को ७ दिन तक इस एकांत स्थान पर आकर धर्मध्यान करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। यह बहुत बड़े पुण्योदय/सौभाग्य की बात है। इस शांत शीतल निराकुल स्थान के बारे में क्या कहूँ‘यहाँ ध्यान लगाने की आवश्यकता नहीं, ध्यान स्वयं ही लग जाता है।” आनंद और सुख तुम्हें सब कुछ मिल जायेगा आवश्यकता है केवल सोये हुए आत्म भगवान् को जगाने की। यही जैन दर्शन का उद्देश्य और उसकी विशेषता है। जैनधर्म का मूल अहिंसा और अपरिग्रह है किन्तु हम हैं कि आवश्यकता से भी अधिक वस्तुओं के संग्रह में लगे हुए हैं। एक-एक कौर भोजन करने वाला यह 'कवलाहारी' इंसान मनोंमन संग्रह की उत्सुकता रखता है। यही संग्रहवृत्ति उसके पतन का कारण बनती है। हम पंच परमेष्ठी की आराधना भक्ति कर अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास करें। ‘महावीर भगवान् की जय!'
  5. अनंत काल से मानव की यात्रा जारी है किन्तु मंजिल नहीं मिल रही। जिस यात्रा से मंजिल न मिले वह भटकन है तथा आज भटके मनुष्यों का बहुमत है। सब भटके हुए है इसलिये यह ज्ञात नहीं हो पा रहा कि मंजिल विहीन यात्रा जारी है। भटकन समाप्त होने के लिये आवश्यक है, यात्रा तो हो किन्तु सही दिशा में सरिता की उस बूंद के समान जो अनंत सागररूपी मंजिल प्राप्त कर लेती है। ऐसी यात्रा से भटकने पर विराम लगता है तथा प्राप्ति होती है मोक्ष की। ऐसा कोई पशु नहीं सुना जो चलतेचलते रास्ते में भटक गया हो और कोई ऐसी नदी नहीं सुनी जो मंजिल तक न पहुँच कर बीच में ही सूख गई हो किन्तु मनुष्य हमेशा भटकता रहा है। प्राणी समुदाय में सर्वाधिक भटका प्राणी मनुष्य है। नदी उद्गम से यात्रा प्रारंभ कर सागर में जा मिलती है बीच में रुकती नहीं है। पक्षी भी अपनी मंजिल को प्राप्त करने के लिये उड़ान भरता है किन्तु मनुष्य भटक जाता है। हमारी प्रत्येक क्रिया उन्नति की प्रतीक नहीं है। बोलते समय हम कितने ही निरर्थक शब्दों का प्रयोग करते हैं, प्रत्येक सोच सार्थक नहीं होती तथा प्रत्येक कदम सही दिशा में नहीं उठता। कितना सोचना है, बोलना है, चलना है, यह यदि उचित अनुपात में नहीं होता तो समझ लो भटकन है। जो क्रियायें मंजिल की तरफ नहीं ले जाती वह भटकन की कारक हैं। सागर तक पहुँचना नदी का लक्ष्य है। यदि कोई नदी स्वयं नहीं जा पाती तो अन्य नदियों से मिलकर सागर प्राप्त कर लेती है। जन्म से कोई नदी बड़ी नहीं होती, बीच में अनेक नदियाँ मिलती जाती है जो बड़ा रूप धारण कर लेती है और वह मिल-मिलकर सारा जल जा मिलता है अपनी मंजिल सागर से। सरिता की एक-एक बूंद का लक्ष्य रहता है समुद्र। बूंद-बूंद के मिलन से, जल में गति आ जाय। सरिता बन सागर मिले, सागर बूंद समाय॥ बूंद, बूंद से मिलती है तो जल में गति आ जाती है। एक बूंद दूसरी बूंद को स्पंदित कर यात्रा करती है। जब आँत स्पंदित होती है तभी भोजन की यात्रा पूर्ण होती है, बीच में रुक जाये तो परिणाम भयंकर हो जाता है। भोजन की यात्रा पूर्ण होने पर ही निकले, इससे जीवन चलता है। भोजन की यात्रा पूरी होने पर ही परिणाम अनुकूल निकलता है। जल में गति तब आती है जबकि एक बूंद दूसरे को धक्का दे और तभी वह परस्पर मिलकर सागर का रूप धारण कर विराट हो जाती है। बूंद-बूंद से सागर है तथा बूंद-बूंद में सागर है। मनुष्य यदि कर्तव्यनिष्ठ हो तो सही दिशा में उठे हुए एक कदम से वह महात्मा बन जाता है। आवश्यकता है सही दिशा की। यह अपने आप ज्ञात नहीं होती निर्देशन से ज्ञात होती है किन्तु निर्देशक तो अनंतकाल से निर्देश दे रहा है। फिर भी सही दिशा में कदम नहीं। इसलिये कि बहुमत तो भटकने वालों का है। वह सही दिशा का अनुभव ही नहीं करता वरन् भटकन को ही सही दिशा मान लेता है। माँ बच्चों को, फिर वे बच्चे अपने बच्चों को वर्षों से उपदेश देते आ रहे हैं कि कैसे खायें, कैसे पियें, कैसे चलें, कितना खायें, यह भी बताते हैं कि पेट में थोड़ी जगह बची रहें। जगह नहीं रहेगी तो स्पंदन ही रुक जायेगा किन्तु आज तो मनुष्य मशीन हो गया है। उसके पास सोचने का समय ही नहीं। निर्देशक तो ठीक निर्देश दे रहा है किन्तु हम ही गलत कर रहें हैं। बंधुओं! गलत क्रिया से थकान तो आती है पर मंजिल नहीं आती। मनुष्य का रूप ऐसा हो गया कि महान् बनना था पर विकराल होता जा रहा है। कमियों के संबंध में एक दिन उपदेश देते हैं, सुधार कराते हैं किन्तु दूसरे दिन दस कमियाँ दूसरे प्रकार की आ जाती है। उनके लिये पुन: उपदेश दो। एक उपदेश से ही सार्थक क्रिया की जाये तो कल के उपदेश की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वर्तमान के आधार पर भविष्य का रूप निर्माण होता है। जिस संपत्ति का संग्रह कर हम भविष्य की सुरक्षा करते हैं वह भविष्य की सुरक्षा करने वाली नहीं। संसार की संपत्ति के संग्रह कर्ता 'सिकंदर' का भी भविष्य खाली हाथ, सिकंदर की अर्थी से उसके दोनों खाली हाथ बाहर थे। हमें अपने पुण्य पर विश्वास कम है, आशा है। अधिक इसीलिये सम्पति का संग्रह ज्यादा है। अभी की श्वांस का विश्वास नहीं फिर कल की आशा क्यों ? आस्था कम आशा अधिक रख कर जीना ही भविष्य की चिन्ता का कारण है। ध्यान रखो! विश्वास अधिक और आशा कम होने पर भविष्य निश्चित होगा। नेतृत्व की भूख आज मनुष्य का स्वभाव बन गई है। वास्तव में स्वामित्व की भावना ही नेतृत्व है और यही भटकन की जनक है। निरन्तर बढ़ती हुई इसी स्वामित्व भावना की वजह से यहाँ प्राणी भिन्न-भिन्न पदार्थों पर अधिकार स्थापित करना चाहता है किन्तु यह पंक्तियाँ भूल जाता है कि- दुनियाँ में सैकड़ों आये चले गये | सब अपनी करामात दिखा के चले गये || इस भटकन के रहस्य को समझकर इससे बचने का प्रयास करो, मंजिल जरूर प्राप्त होगी। 'अहिंसा परमो धर्म की जय !'
  6. जीवन के अंतरंग तथा बहिरंग, पक्षों के परस्पर समन्वय तथा संतुलन से ही सफलता मिलती है। अंतरंग भावों के बाद ही बाह्य पक्षीय भाषा की परिभाषा बनाई जा सकती है। आंतरिक पक्ष ही बाह्य पक्ष का श्रोत है, जन्मदाता है। उत्तम परिणाम की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि अांतरिक पक्ष पर ध्यान दें। मंजिल पर पहुँचने के लिये उपयुक्त स्थान का टिकट लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उपयुक्त गाड़ी में बैठना भी आवश्यक है। दोनों की उपयुक्तता से ही मंजिल की प्राप्ति होती है। जीवन का संचालन आंतरिक तथा बाह्य पक्षों पर आधारित है। किन्तु अंतरंग पक्ष पर दृष्टि नहीं पड़ती तथा बाह्य पक्ष दिखाई देता है, इसीलिये मानव सहज ही दिखने वाले बाह्य पक्ष को ही प्रधान मान लेता है। वस्तुत: बाह्य पक्ष का श्रोत भीतरी पक्ष है। वायुयान बाहरी पक्ष है तथा अंदर बैठा चालक भीतरी पक्ष। दिशा सूचक यंत्र के माध्यम से दिशा निर्धारित कर, चालक सही संचालन कर वायुष्यान को मंजिल तक ले जाता है, किन्तु भीतरी पक्ष के रूप में विद्यमान चालक के सही न होने पर वायुयान मंजिल नहीं पा सकता। बालक जिसे भाषा का ज्ञान नहीं है, संकेतों से अपने भावों को प्रदर्शित कर माँग की पूर्ति करता है। भावों के प्रदर्शन को भाषा से मजबूती मिलती है किन्तु भाषा गौण है भाव प्रधान। जैसे भाव उत्पन्न होंगे वैसे ही भाषा प्रकटित होगी। प्यार की भावना से अबोध बालक को गाल पर काटने पर बालक की मुख मुद्रा हास्यमय हो जाती है किन्तु गुस्से में च्यूँटी काटने पर बालक की आँखें अश्रुमय हो जाती है। क्यों होता है ऐसा? इसीलिये कि जैसे भाव उत्पन्न होंगे वैसा ही परिणाम प्राप्त होगा। जैसा भाव वैसी भाषा तथा यही परिणाम का आधार है। धर्म, विवेक आतरिक भाव है; भाषा, चाल, रूप बाहरी पक्ष हैं। भीतर भावों में परिवर्तन आने पर बाह्य स्वयमेव बदल जाता है। प्रकृति के भूषण को दूषित कर प्रदूषण मनुष्यों के द्वारा ही फैलाया जा रहा है। प्रकृति के नियमों का उल्लंघन पशुओं द्वारा नहीं होता। विचारों में उत्कर्ष पशुओं में भी होता है क्योंकि प्रकृति की परीक्षा में जानवर शत-प्रतिशत अंक लेकर उत्तीर्ण है जबकि मनुष्य अनुतीर्ण। माना यह जाता है कि वैचारिक क्षेत्र में मनुष्य प्रौढ़ होता है। किन्तु पशु कभी भी अपनी कार्य सीमा का उल्लंघन नहीं करते। जब तक दंड का भय न हो मनुष्य के उद्दंड होने की संभावना बनी रहती है। इसीलिये चालाक कहा जाता है। गिरने के भय से ही चाल सही रहती है नहीं तो गिरकर दंडित होना पड़ता है। चलते समय अांतरिक भाव से जान लेते हैं कि नीचे देखकर चलना है, ऐसे ही चलने में तल्लीन है तथा बाहर आवाज सुनकर पलट कर देखते ही पैर डगमगा जाते हैं, ठोकर लगती है, गिरने का दंड भी भोगना पड़ता है। यदि अंदर के भावों के अनुरूप सावधानी बरती होती तो ठोकर भी नहीं लगती, न ही गिरने का दंड भोगना पड़ता। प्यार करने के लिये आवश्यक है कि दूसरा पक्ष भी विद्यमान हो तभी आप प्यार कर सकते हैं। अन्यथा कोई दीवाल से प्यार नहीं करता सामने वाला पक्ष हो तब ही प्यार संभव है। एक पक्ष से कोई काम नहीं हो सकता। सामने वाले पक्ष के साथ-साथ देश, काल का भी महत्व है। श्री कृष्ण की पटरानी ‘रुक्मिणी' का पुत्र 'प्रद्युम्न' जन्म के बाद ही चला जाता है, बहुत तलाश की नहीं मिला, रुक्मिणी उदास हो जाती है पुत्र के वियोग में। सोलह वर्ष पश्चात् प्रद्युम्न अचानक वापस आता है युवा होकर। चारों तरफप्रसन्नता छा जाती है। माँ बेटे को देखते ही उदास हो जाती है। माँ! मैं आ गया हूँ, ठीक है, माँ प्रत्युतर में कहती है, फिर उदास क्यों? पूछने पर कहती है बेटा! जब तू गया था बालक था, आया तो जवान होकर, तो क्या हुआ? तुझे प्यार कर जो आनंद प्राप्त होता उससे वंचित हूँ, यह सोचकर उदास हूँ। माँ को आनंदित करने के लिये प्रद्युम्न को पुनः बालक का रूप धारण करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि प्यार करने के लिये केवल दूसरे पक्ष की ही आवश्यकता नहीं, वरन् यह भी आवश्यक है कि देश काल के अनुरूप सुपात्र हो। भरी सभा में खो जाना आश्चर्य जनक लगता है किन्तु खो सकते हैं। भीतरी पक्ष सोचतेसोचते तल्लीन हो जाते हैं तथा खो जाते हैं। भरी सभा में डूब जाते हैं विचारों में, बाह्य पक्ष के रूप में तो बैठा हूँ किन्तु फिर भी कहते हैं कि वह खो गया, कब? जब विचारों में लीन हो तब। अंदर की दशा देखकर ही कह देते हैं- वह खो गया। प्रधानता भीतरी पक्ष की है। बाहरी पक्ष से विचारों को जोड़ते ही समस्याएँ आ जाती है किन्तु भीतरी पक्ष में तल्लीन होते ही समस्याएँ समाप्त। समस्या बाह्य पक्ष के साथ है। भीतरी जगत् समस्या विहीन है। उत्तर तब ही दिया जाता है जब प्रश्न पूछने वाला हो। सुंदर वस्त्र धारण कर बाजार भ्रमण के लिए जाते है आप यदि बाजार बंद हो कोई न मिले तो आप वापस आकर सोचेंगे कि व्यर्थ ही सुंदर वस्त्र धारण किये जब कोई देखने वाला ही नहीं। दूसरा पक्ष न हो तो सुंदर वस्त्रों का धारण करना भी व्यर्थ है। अपने दुख का स्मरण होते ही हमें उसकी अनुभूति हो जाती है। कोई पूछ ले तो दुखी हो जाते हैं क्षण भर पूर्व दुखी नहीं थे स्मरण आते ही दुख की अनुभूति। कैसा परिवर्तन? एकाएक दुखी हो गये। स्मरण हुआ, विचार आया, भाव उत्पन्न हुए तो दुखी, नहीं तो कंटकों में भी अमरकंटक की बहार का अनुभव कर सकते हैं। जैसे भाव होंगे वैसी अनुभूति होगी। दुख की सामग्री में भी सुख की अनुभूति दुख के प्रभाव को समाप्त कर देती है अन्यथा परम सुख की सामग्री सन्मुख होने पर भी अभाव की अनुभूति दुख का ही अनुभव कराती है। हम सुख के मार्ग को प्रशस्त कर सकते हैं विपरीत धारणा को समाधान बनाकर दुखी व्यक्ति के प्रति हम सहानुभूति प्रकट करते हैं -कहते है चिंता मत करो मेरा वरदहस्त है। इतना सुनते ही उसे दुख से छुटकारा मिल जाता है। सहानुभूति व्यक्त करने वाले का क्या खर्च हुआ? कुछ नहीं, किन्तु इतना भी नहीं कर सकते। भावों का खेल है, सब कुछ आपका है। अभय दान देकर भय दूर करो। बचना-बचाना हमारे हाथ में नहीं, किन्तु भाव उत्पन्न करते ही अनुभव करना-कराना हाथ में है। आज तो भावों का भी व्यापार हो रहा है। विश्व कल्याण कर सकते हैं, किन्तु भावों का प्रदर्शन तो शर्त के साथ होता है। तुम मेरे लिये क्या कर सकते हो? एक ही प्रश्न उठ रहा है सब तरफ। भाषा के प्रयोग से भावों को प्रकट करते हुए हाथ का संकेत भी करना होता है। केवल भाषा उतना काम नहीं करती, संकेतों की भी आवश्यकता होती है। चलते समय पैर के साथसाथ हाथ भी चलते हैं किन्तु चलना तो पैर से ही होता है। व्यवस्थित चलने के लिये हाथ भी चलाना होता है। दोनों पक्ष समन्वय से चले तभी चलना सरल है। चलते समय भाव पक्ष को सावधान रखना होता है अन्यथा पैर काँटो पर पड़ जाता है। भावों में शैथिल्य का परिणाम कष्ट देता ही है। भावपक्ष की विकृति का परिणाम चुभन है। अपने भावों में कोमलता की दृष्टि रखें थोड़े संयम के साथ। न तो बिलकुल ढीले रहने से काम चलने वाला है, न ही बिलकुल चुस्त–दुरुस्त रहकर। उचित अनुपात तथा देश काल को ध्यान में रखकर इतनी सुविधा से चलें कि गिरें नहीं। बंधुओ! सावधान रहकर अनुपात का उचित प्रयोग आवश्यक है चाहे धार्मिक क्षेत्र हो या लौकिक अथवा पारलौकिक परिणामों की विशुद्धि ही धर्म है, नहीं तो बाम्बे का टिकट लेकर दिल्ली की गाड़ी में बैठने से बाम्बे नहीं आयेगा, टिकट भले ही बाम्बे की हो। मंजिल का आनंद तो दिशासूचक से देखकर सही दिशा में यात्रा करने से ही प्राप्त होगा। इस तरह यदि हम अपने आप ही सावधान हैं तो ठीक, अन्यथा समाधान भी नहीं मिलने वाला। दान देने के लिये दान लेने वाले की भी आवश्यकता है तथा दान देना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है सुपात्र त्यागी दान पाने वाला। 'पात्र के बिना दान नहीं दान के बिना पात्र नहीं' दोनों के गठबंधन से ही सार्थक होता है दान। हम कौन हैं ? हमारे कर्तव्य क्या हैं? यह जान लेने पर हमें उद्देश्य की पूर्ति करने में सरलता हो जाती है। आज जितनी सुविधा बढ़ती जा रही है मनुष्य के सामने उतनी ही दुविधायें बढ़ती जा रही हैं। आज आविष्कार आवश्यकता की पूर्ति के लिये नहीं, किन्तु आवश्यकता के कारक (करने वाले) हो रहे हैं। भारत वर्ष विकासशील राष्ट्र है विकसित नहीं क्योंकि यहाँ पर अब पहाड़ा भी पहाड़ सा हो रहा है। यदि केलकुलेटर न हो तो हम गणना भी नहीं कर सकते, स्मृति क्षीण होती जा रही है। क्या यही विकास है? यात्रा की सफलता के लिये आवश्यक है कि यंत्र भी ठीक हो तथा चालक भी स्वतंत्र हो। गाड़ी अच्छी हो तभी यात्रा सफल होगी। दोनों पक्षों का समन्वय सफलता का आधार है। जिस गाड़ी में हॉर्न छोड़कर सब कुछ बजता हो और ब्रेक छोड़ कर सब कुछ लगता हो, उससे यात्रा केसे सफल होगी ? अंदर से चालक के रूप में ठीक से संचालन हो तभी यात्रा ठीक रहेगी।' अपने विचारों को देखें सम्हालें परिमार्जित करें तभी जीवन में निखार आयेगा”। अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि अंतरंग और बहिरंग पक्ष के समन्वय से ही हमारा कल्याण संभव है। 'महावीर भगवान् की जय!'
  7. क्षारमय होना ही प्रलय है। सागर क्षारमय है, जगत् क्षारमय हो जाये तो प्रलय है, किन्तु इसी क्षार के उचित अनुपात से मधुरता भी आती है। उचित अनुपात ही धर्म है। धर्म है, तो जीवन है, जीवन को क्षारमय नहीं अनुपातिक बनाकर आप दुनिया के किसी भी कोने में जायें धर्मात्मा कहलायेंगे। आटा में नमक उचित मात्रा में मिलाने पर ही मधुर स्वाद आता है। नमक कम रहे तो फीका लगता है, अधिक हो तो खारा हो जाये। दोनों ही दशा मधुरता की नहीं है, ऐसे ही जीवन में मधुरता लाने के लिए क्षार का उचित अनुपात रखना चाहिए'आटे में नमक के बराबर"। नमक का कोई व्यंजन नहीं बनता वरन् व्यंजन स्वादिष्ट रखने के लिए उचित मात्रा में नमक मिलाया जाता है। नमक का व्यंजन क्षारसागर होगा किन्तु क्षारसागर नहीं क्षीरसागर से जीवन सुखमय होगा। पाक शास्त्र की इस गहराई का मनुष्य जीवन से गहरा संबंध हैं। खारा जीवन खीरमय नहीं हो सकता किन्तु खारे की एक डली खीर में मधुरता घोल देती है। यही अनुपात तो धर्म है। अज्ञान, मोह, कषाय से जीवन क्षारमय हो जाता है। अपना जीवन ऐसा हो कि सबको मधुरता दे स्वयं भी मधुर रहे। स्व-पर को माधुर्यमय कर दे। स्वादिष्ट खाना खिलाते हुए क्षार शब्द के उपयोग से खाने का स्वाद बिगड़ जाता है तथा मधुर शब्दों के उपयोग से रूखा-सूखा भोजन भी स्वादिष्ट लगता है। धर्म की बात अनेक विद्वान् करते हैं, आवश्यकता है धार्मिक वातावरण बनाने की तथा यह वातावरण तब ही संभव है जब अनुपात उचित हो। धर्म के अनेक रूप हैं कर्तव्य भी धर्म का ही एक रूप है किन्तु उचित काल पर उचित स्थान पर उचित धर्म से ही परिणाम अनुकूल मिलते हैं। जिस प्रकार घर में आये मेहमानों को सुस्वादु व्यंजन उपलब्ध करायें किन्तु समयानुकूल बात न करें तो मेहमान अपमान का अनुभव करेगा, कहेगा कि आदमी खाना तो खिला रहा है किन्तु प्रेम व्यवहार के दो शब्द भी नहीं बोलता। इसके विपरीत भूखे मेहमानों को भोजन न देकर केवल मीठी मीठी बातें करें तो भी मेहमान को क्रोध आयेगा, क्योंकि भोजन नहीं करा रहा। अकेले बातों से पेट भरने वाला नहीं, भले ही उसे मोती का हार पहना दी। भूखे को स्वागत में हार की नहीं, आहार की जरूरत होती है बंधुओं! भूखे भजन न होय गोपाला, ले लो अपनी कठी माला। तात्पर्य यह है कि देश, काल के अनुरूप व्यवहार करें तथा अनुपात उचित रखें, तभी परिणाम अनुकूल निकलेगा। अन्यथा जो काल पर न आये वही अकाल है। काल पर वर्षा नहीं तो अकाल पड़ गया। फसल नहीं, अनाज नहीं, भूख नहीं मिटी, भुखमरी छा गयी। भोजन समय पर न मिलना भी अकाल है। इस परिस्थिति में भूखे के पास अनाज पहुँचाना भी धर्म है, राहत है। देश, काल, द्रव्य, भाव के अनुरूप ही चलना चाहिए। समय पर भोजन नहीं मिलने से भूख मर जाती है, मंदाग्नि हो जाती है। वैभव की आवश्यकता नहीं, भारत में संभव की आवश्यकता है। शंकर की आराधना करना है वैभव की नहीं, भव की भी नहीं। धर्म को पकड़ना आसान नहीं है, ज्ञान के साथ स्थान का भी ध्यान रखना चाहिए। नमकीन स्वादिष्ट होता है नमक नहीं। नमक को खाओ तो भी काम नहीं चलता, नमक के बिना भी कोई महत्व नहीं है। केवल अनुपात का महत्व है। इसी प्रकार व्यवहार ऐसा करो कि दूसरे के जीवन में भी मधुरता की लहर उत्पन्न हो। रूखासूखा भोजन भी स्वादिष्ट हो सकता है, इसके लिये वैभवशाली के यहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है। मछली जल में रहती है तथा उसके जीवन के लिये आवश्यक वायु उसे जल में ही उपलब्ध हो जाती है, उसे हवा की सुविधा के लिये हवा में लाओगे तो उसका जीवन संकटमय हो जायेगा। उसके लिये हवा वहीं उपलब्ध है। इसी प्रकार खुली हवा में रहने वाले प्राणी को जल में हवा नहीं प्राप्त हो सकती। जल में ले जाने पर हवा के प्राणी का जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा। इसकी अज्ञानता से कल्याण का प्रयास भी अनुकूल परिणाम नहीं दे सकता। मछली का जीवन जल में ही सुरक्षित है। हवा की उपलब्धता के लिये हवा में लाने से उसके प्राण ही संकट में आ जायेंगे। नमक का विधि अनुसार उपयोग ही मधुरता उत्पन्न करता है। यहीं मधुरता धर्म है, यही जीवन है। नमक अधिक होने से क्षारमय हो जायेगा। क्षारमय होना ही प्रलय है क्योंकि क्षारमय जगत् तभी होगा जब क्षारयुक्त सागर के जल से धरती जलमग्न हो जायेगी। सागर के गुणधर्म से उत्पन्न नमक का उचित मात्रा में, अनुपात में प्रयोग करने से स्वाद में वृद्धि होती है और यह प्रयोग की समझ ही धर्म है। क्षारयुक्त जीवन को उचित अनुपात से मधुर बना देना ही धर्म है। इसी धर्म के अपनाने से हमारा जीवन सुखमय होगा। अन्त में हमें इतना ही ख्याल रखना है कि हमारे अभाव में किसी का जीवन नीरस न बने और सद्भाव से खारापन न आये, वरन् यही प्रयास हमें धार्मिक सिद्ध करेगा। सबका जीवन उन्नत धार्मिक और सहयोगात्मक बने इसी मंगल भावना के साथ. 'अहिंसा परमो धर्म की जय !'
  8. कल कभी आता नहीं, कल की आशा व्यर्थ है। जीवन एक यात्रा है तथा यह लोक कर्मभूमि है। भोगों में रच-पच कर प्राणी लगातार हानि उठा रहा है तथा अनुचित अध्यवसाय का फल प्राप्त कर रहा है। आत्मा का स्वभाव जानना है तथा सुव्यवस्थित जानना ही विज्ञान है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जानने के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जानना मूल स्वभाव है। आत्मा के क्षेत्र में जानने को स्वाध्याय कहा जाता है। सही दिशा में ज्ञान की तरफ बढ़ने से, सही अध्यवसाय होता है। विफलता हाथ लगने से मनुष्य निराश हो जाता है जबकि विश्वास से ओत-प्रोत चींटी भी पर्वत पर चढ़ जाती है। ऊँची दीवार पर चढ़ने का यत्न करते हुए वह बार-बार गिरती है फिर भी प्रयास कर अंत में सफल हो जाती है। चींटी अपनी शक्ति उद्घाटित कर चढ़ने का तब तक प्रयास करती है जब तक सफलता न मिल जाये, यही है। चरैवेति-चरैवेति। जब विश्वास नहीं तो प्रयास नहीं, प्रयास नहीं तो सफलता भी नहीं, विफलता है तो निराशा है। प्रमुख है विश्वास जो सफलता की नींव है। प्रत्येक मनुष्य की अपनी यात्रा है। सबकी यात्रा पृथक्-पृथक् है। जीवन निकल गया, अनन्त काल से निकल रहा है। मनुष्य के रूप में जन्मे। यह जन्म बहुत बड़ी राशि के रूप में प्राप्त हुआ है किन्तु जब जा रहे है तो क्या हाथ में है? राशि लेकर आये तथा कर्ज लेकर गए यही क्रम जारी है। हानि ही हानि। एक छोटा-सा दृष्टांत है कि एक गाँव से तीन व्यक्ति निकले बराबर राशि लेकर। तीनों ने व्यापार कर धन कमाने के लिए अलग-अलग रास्ते पकड़े इस वायदे के साथ कि पाँच वर्ष के अंतराल के पश्चात् इसी स्थान पर पुन: मिलेंगे। पाँच वर्ष व्यतीत हो गए तीनों अध्यवसाय पुरुषार्थ प्रयास कर वहीं मिले। दो ने एक से पूछा, भैया! क्या लाये? क्या बतायें? हानि हो गई, जो लाये थे वह भी डूब गया। दूसरे ने बताया कि न कुछ कमाया न खोया जितनी राशि ले गए थे उतनी ही है। तीसरे ने बताया भैया! मुझे तो बहुत लाभ हुआ इतना कमाया कि रखने को स्थान नहीं। आज हमारा अध्यवसाय प्रथम व्यक्ति की भांति है जो लाया वह भी गाँवा दिया। कमाने वाला जानता है कि कितनी शक्ति से कमाया जाये इतना कमा सकते हो कि रखने को जगह न रहे। ज्ञान के मार्ग पर अध्यवसाय कर कई गुना कमाई करने वाले ने पूर्ण व्यवसाय कर लिया। गँवाने वाले का आवागमन क्रम जारी है। राशि बनी तो मनुष्य का जन्म लिया कर्ज में डूब गए, फल भोगा तीन गतियों के रूप में। आप देखिये! एक भिक्षुक भी अध्यवसाय कर रहा है। सुबह से शाम तक देखा कि झोली भरी कि नहीं। भर गई तो ठीक है अन्यथा वह गली, ग्राम तक बदल देता है कि यहाँ लाभ नहीं है। इतना ज्ञान तो वह रखता ही है कि जिस गली, ग्राम में लाभ नहीं उसे छोड़ दो, किन्तु मनुष्य देख रहा है कि उसके अध्यवसाय में हानि है, कर्ज में डूबता जा रहा है किन्तु व्यवसाय वही करेंगे आरंभ, सारंभ, भोग। भोग के योग्य सामग्री का बार-बार भोगना है उपभोग। भोग और उपभोग से कर्मभूमि को भी इस इंसान ने भोगभूमि बना डाला। बंधुओं! वह अध्यवसाय करो जिससे आत्मा का विकास हो, कल्याण हो। स्वभाव में ग्रहण करने की क्षमता है। बच्चे अध्ययन करते हैं परीक्षा के समय विद्यार्थी यह अनुभव कर लेता है कि उसे सफलता नहीं मिलेगी तब वह सफल छात्र की नकल करता है सफलता के लिए। परीक्षा में पास होना है। अकल तो है नहीं तो सफल की नकल कैसे? यदि सही दिशाबोध नहीं है। सही दिशाबोध होना आवश्यक है, बार-बार प्रशिक्षण के पश्चात् भी आत्मबोध नहीं क्योंकि आशा अधिक है आस्था कम। आस्था अधिक रखो आशा कम क्योंकि यह आत्मा का क्षेत्र है, आत्मा का अध्यवसाय। आत्मज्ञान महत्वपूर्ण बोध है। दुनियाँ का बोध किया किन्तु आत्मा का नहीं तो वह बोध नहीं बोझ है। इससे आत्मिक शांति मिलने वाली नहीं। वर्ष में एक आज है तथा ३६४ दिन कल, किन्तु मात्रा अधिक होने पर भी कल का कोई अस्तित्व नहीं कल कभी आता नहीं। व्यापारी दुकान पर लिखता है— 'आज नगद कल उधार'। क्योंकि वह जानता है कि कल कभी होता ही नहीं। व्यापार के क्षेत्र में तो आज का महत्व है, कल का नहीं। अज्ञान दशा में सोया हुआ। आज ही कल का श्रोत है। हमें कल की चिंता है जो कि किसी ने देखा नहीं। आज की चिंता नहीं। वर्तमान में जो सुख का अनुभव नहीं कर सकते वह कल के सुख के लिए चिंतित है। जो कल विश्वास किया था उसका लाभ लिया आज। अत: शांति का अनुभव हो रहा है। कल की चिंता मृग मरीचिका है, झूठे जल की प्रतीति के पीछे भागना मात्र। चिंता तो आज की भी नहीं होना चाहिए। विश्वास है तो दिन भी आयेगा, दिनकर भी। वह आवश्यकता की पूर्ति करेगा। काम करें, कर्तव्य निभायें। एक-एक पल कीमती है, एक-एक पल विकास होना चाहिए। कल की क्या? आज का समय भी सही निकलेगा यह नहीं बताया जा सकता। घड़ी देखी, जब तक समय बताया घड़ी के कटे आगे सरक गए। आज की निर्भरता कल पर नहीं है वरन् अज्ञान दशा में सोये आज पर कल निर्भर है। सुख वही है जो बाहर से नहीं, आत्मा में उत्पन्न हो। वास्तव में आत्मबोध का नाम ही सुख है। दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान | कहीं न सुख संसार में, सब जग देखो छान || तृष्णा के वशीभूत होकर धनाढ्य व्यक्ति भी दुखी है। मृग की भांति मरीचिका के पीछे दौड़ रहा है। हमने धन की लिप्सा में अपना मौलिक जीवन खो दिया। पदार्थ के विकास में नहीं परमार्थ के विकास में सुख छिपा है, यह विश्वास रखो! आस्था रखो। इसी आस्था और विश्वास के सहारे हम अपने पुरुषार्थ को सही करें तो निश्चित ही हमें सुख मिलेगा। जो आज तक नहीं मिला। ‘महावीर भगवान् की जय !'
  9. अभी-अभी आद्य वक्ता ने कहा कि 'सार-सार को गहि रहे, थोथा देड़ उड़ाय' यह पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी किन्तु कहना जितना सरल है, ग्रहण करना उतना ही कठिन । सार को गहने की सीख सूपा से सीखी। सूपा में सार बचता है तथा असार बाहर हो जाता है किन्तु आज तो चलनी का युग है जिसमें सार नीचे गिर जाता है तथा असार ऊपर बचा रहता है। भूसा तथा कचरा मिश्रित धान से सार रूपी धान को पृथक् करने की क्रिया सूप से होती है, किन्तु यह स्वत: नहीं होती। सार से असार अलग करने के लिए सूप को फटकार देना होता है तथा इस क्रिया के लिए दृष्टि सजग रखकर यह आवश्यक है कि उचित फटकार दी जाये अन्यथा सार-असार पृथकीकरण संभव नहीं। सार-सार को गहने की उक्ति के दर्शन सूप से किए जा सकते हैं, ऐसे ही जीवन में सार-सार को गहते हुए असार को उड़ा देने से ही मुक्ति मिलती है। इसके लिए सजगता की, जागृति की, आवश्यकता है किन्तु हमने आज तक यही नहीं किया। फटकार भी दिया तो दूसरे को नुकसान पहुँचाने के लिए तथा लाड़-प्यार भी दिया तो ऐसा दिया कि वह सब कुछ भूलकर उठ ही न सके। फटकार की आवश्यकता इसलिए कि जागृति आये तथा प्यार ऐसा न हो कि विकास अवरुद्ध हो जाए। दोनों को चाहिए मगर होश के साथ। आपके पास जोश है, रोष है, दोष है, कोष है पर होश नहीं है। सूपा को होश से फटकारो तभी वजनदार धान बचेगी, नहीं तो वो असार के साथ बाहर चली जायेगी। कैरम खेलने वाला जानता है कि गोट में कितना कट मारा जाये कि गोट तो पाकेट में चली जाये साथ ही अपनी अन्य गोट का मार्ग भी प्रशस्त करे। कट मारने के लिए आवश्यकता के अनुरूप ही तर्जनी को इशारा दिया जाता है। होश के साथ कट मारने पर ही मार्ग प्रशस्त होता है तथा गोट पाकेट में जाती है। हम असफल इसलिए हुए हैं कि हमने आज तक होश के साथ कट नहीं मारा। गुरुओं ने हमें ज्ञान दिया किन्तु चक्षु तथा कर्ण तो कार्य ही नहीं कर रहे हमारे इसीलिये हम आत्मिक सुख से वंचित हैं। वातावरण धूमिल हो रहा तथा धूल कणों के कारण स्वयं को ही नहीं पहचान पा रहे। आइना देख लो स्वयं को जान लो, किन्तु स्मरण रहे कि आइना भले ही छोटा हो किन्तु हो साफ-सुथरा। धूमिल होगा तो देख ही नहीं सकते। दर्पण स्वभाव से साफ-सुथरा है किन्तु स्वयं के हाथों के स्पर्श से धूमिल हो जाता है तथा उसमें ऐसे तत्व चिपक जाते हैं, जिससे न तो आइना साफ दिखता है न स्वयं देखने वाला साफ दिखता है। आदिकाल में आदिनाथ अंत में महावीर तथा बीच में राम, हनुमान रूपी आइने में हमने स्वयं को नहीं देखा। आइना चाहिए, किन्तु कैसा? सबको ऐनक लगाते देख अज्ञानी ने भी ऐनक लगा लिया, पढ़ने में बहुत साफ दिखता है, किसी ने बताया कि केवल फ्रेम है इसमें काँच नहीं लगा। कैसे कहते हैं आप? ऐनक लगाया साफ दिखने लगा है। काँच से सुविधा मिलती है किन्तु वह तो पढ़ा-लिखा था ही नहीं और ज्ञात ही नहीं क्योंकि दृष्टि ही नहीं केवल फ्रेम लगाकर भ्रमित है वह, कि साफ दिख रहा है। दृष्टि हो तो ज्ञात हो कि काँच तो लगा ही नहीं था, फिर सुविधा कैसी? वह काँच क्या दिखायेगा जब तक आँख ही न हो। केवल भ्रम है, अत: कह सकते हैं कि अंधत्व अभिशाप है। जानने का प्रयास ही जागृति है, जागृति है तो जगत् है। जब जागृति नहीं, होश ही नहीं, कि क्या मूल्यवान है? क्या सार है? क्या असार है? फिर कैसे गहे सार-सार? सार का ज्ञान बहुत गूढ़ है इसकी बातें तो अनेक विद्वान् करते हैं किन्तु गहते नहीं। गहने के लिए दृष्टि चाहिए, समझ भी। यथा ‘तुम कैसे पागल हो।' वाक्य है दूसरी तरह देखे तो ‘तुम कैसे पाग लहो’ पाग का अर्थ रास्ता सार तथा व्यंजन भी होता है। सार को चाहते हो पाग को चाहते हो तो दृष्टि साफ करो, तभी 'पागल हो' अन्यथा पागल हो। अनेक जीव पाग लहते हुए, रास्ता प्राप्त कर चले गए किन्तु हम पागल बैठे हैं। जहाँ चाह है वहाँ राह है। इच्छाशक्ति दूढ़ हो तो रास्ता भी है तथा मंजिल भी। राह नहीं तो राहत भी नहीं। अकाल पड़ता है तो राहत की माँग की जाती है, अकाल से निपटने की राह तलाशी जाती है। राह मिली, राहत मिली। सुबह उठकर क्या-क्या करना है संकल्प ले लिया, किन्तु काम क्या कर रहे हो मात्र संकल्प तथा विकल्प। चलना किस दिशा में है, कौन-सी राह चलना है, जिसमें राहत मिले इतना विचार ही नहीं। सही राह की परवाह नहीं। न परवाह, न राह, जोश नहीं, होश नहीं, कोष है मात्र? कितना मूल्य है? यह भी होश नहीं। बैंक में कैशियर के पास कोष है, किन्तु वह उसका मालिक नहीं, किन्तु कोष है। जिस दिन अपने आपको मालिक समझा नौकरी गयी। ऐसा ही हम अनन्त ज्ञान के भंडार हैं, सूर्य पुंज है, चंद्रकांति है समझ लिया। क्यों समझा? क्योंकि सब कहते है, कौन कहता है? दूसरे कहते हैं। स्वयं क्या कहते हो? सब कहते हैं आग के लिए हवा करो, किन्तु होश नहीं हवा की आवश्यकता आग को उदीप्त करने के लिए है। सुलगाते समय तो हवा न आए इसके लिए ओट की जाती है। (स्मरण रहे सुलगाते समय हवा की तो आग कभी सुलगेगी नहीं) किन्तु हवा से अग्नि उदीप्त की जाती है, ऐसी ही हवा गुरु की वाणी है ज्ञान उदीप्ति के लिए। बुद्धि का उद्घाटन नहीं प्रयोग पुरुषार्थ नहीं तो फिर पागल हो न कि पाग लहो। अस्सी की उमर होने को आयी होश नहीं आया। जिदगी ढलान पर है। समय कम है क्योंकि दिन ढलने को है। सूप पर ऐसी फटकार दो कि धान बची रहे भूसा उड़ जाये, असार उड़ा दो। चलनी में सार नहीं रहता वह तो नीचे गिर जाता है। चलनी के स्वभाव के श्रोताओं सावधान रहो, नहीं तो सार गिर जायेगा असार रह जायेगा। तात्पर्य यह है कि आत्मा को मत फटकायें। पाप को बुरे भावों को फटकायें। स्वभाव से प्यार करो। क्रोध, मान, माया, मोह, ईष्या आदि आत्मा का स्वभाव नहीं है, इन्हें फटकारों। यही नींव हैं, पृष्ठभूमि है, साधना है। शून्यमय जीवन को देखकर गुरुओं को करुणा आ जाती है, जैसे कि बच्चे में जब तक चलने-फिरने के लक्षण न दिखें, माता-पिता सोचते हैं कि चलेगा कि नहीं, सुनने के लक्षण नहीं दिखे तो सोचते हैं बहरा तो नहीं तथा जब तक बोले नहीं तो सोचते हैं कि गूंगा तो नहीं तथा देखने के लक्षण नहीं दिखने पर सोचते हैं कि अंधा तो नहींव्याकुल हो जाते हैं, ऐसे ही गुरु करुणा से भर जाते हैं। गुरु सोचते हैं कि यह अपना हित चाहता है कि नहीं, ठीक उस बालक की तरह। वात्सल्य उमड़ आता है, माता-पिता के समान गुरु चिंतित हो जाते हैं। स्व हित के बिना विश्व हित संभव नहीं। कैसे करेंगे विश्व हित? होश के लिए स्वयं को उद्घाटित करना होता है, वरना बिना काँच का चश्मा लगा है, भले कहें बहुत अच्छा दिखता है। ऐसी स्थिति में युग-युग बीत जायेंगे पर परिवर्तन नहीं होने वाला। इसीलिए आइना साफ हो, भले ही वह छोटा हो। याद रखो, अंधा दर्पण नहीं देख सकता जब तक प्रकाश का अवलोकन न हो । ‘मैं हूँ, मैं हूँ” बार-बार यह कहने वाला व्यक्ति अस्थिर है क्योंकि यदि हो तो कहने की आवश्यकता क्या है। कहीं न कहीं कोई कमी जरूर है। बंधुओं! हमें चालनी के समान नहीं बनना। सूप जैसा बनकर फटकारो किन्तु होश के साथ। रोष उस पर करो जो दुख देता है। क्रोध को जान लो उस पर रोष करो क्योंकि वह दुख देता है। अंधकार कितना ही घना क्यों न हो उसे एक छोटे से दीपक का प्रकाश भी दूर कर देता है। अज्ञानता का अंधकार कभी टिक नहीं सकता ज्ञान दीप के सम्मुख। क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह रूपी चोर नहीं आ सकते यदि होश है ज्ञान दीप है अपने पास तो। एक बार भीतरी भावों को पहचान लो रास्ता अपने आप दिखने लगेगा। स्वरूप का बोध होते ही हमें राहत मिलती है। हम भी भगवान् बन सकते हैं बस शक्ति के उद्घाटन की आवश्यकता है। चाहते हुए भी अभी तक यह शक्ति क्यों नहीं उद्घाटित हुई इस पर ध्यान देना जरूरी है। परखने वाले को परखो और पर को खो दो। अपने आप में तत्पर हो जाओ इसी में सार है। 'ब्रह्म में लीन' कहना आसान है पर होना नहीं किन्तु होने में आनंद है कहने में नहीं। ‘महावीर भगवान् की जय !'
  10. वायुयान निकलने के बाद जैसे आकाश में मार्ग का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता, फिर भी वायु मार्ग है, वायुपथ है। इसी तरह मोक्ष का भी मार्ग है। भव्य जीवों ने इस मार्ग से यात्रा की है, किन्तु वायु मार्ग की तरह वह दिखता नहीं है। वायुयान को सही दिशा का ज्ञान दिशासूचक यंत्र से होता है क्योंकि वायुमार्ग का चिह्न तो दिखता नहीं इसी प्रकार-अदृश्य मोक्षमार्ग की दिशा का ज्ञान दिशासूचक यंत्र रूपी गुरु से होता है। दिशा सूचक यंत्र का काम है दिशा का बोध कराना। किस दिशा में जाना है यह निर्णय यात्री पर निर्भर है, गुरु द्वारा बतायी गई सही दिशा पर चलेंगे तो यात्रा सफल होगी अन्यथामोक्षमार्ग के प्रथम यात्री भगवान् ऋषभनाथ थे; जिन्होंने विश्व को न केवल राह दिखायी वरन् उस पर यात्रा भी की। यात्रा कठिन थी। राजप्रासाद को त्याग कर कंकड़, पत्थर पर नग्न पद यात्रा की। कोई यदि पूछता है कि कहाँ जा रहे हो, तो उत्तर देने का भी समय नहीं था। एकदम मौन निरन्तर यात्रा जारी रही। युग के आदि में रास्ता नहीं था, आस्था भी नहीं भोग विलास रूपी अंधकार व्याप्त था। आदिनाथ भगवान् ने यात्रा आरंभ की तथा बताया कि भोग से भरपूर जीवन ठीक नहीं। उन्होंने पहले उपदेश धमोंपदेश नहीं दिया पहले यात्रा की। कोई साथ चले उन्होंने इसकी भी आवश्यकता नहीं समझी। मखमल बिछे राजदरबार को त्यागकर कंकड़, कंटक के पथ पर युग के आदि में आदिनाथ के पैर पड़े। भगवान् से पहले गुरु चलते हैं। गुरु पथ पहले बनाते हैं फिर बताते हैं। गति, पश्चात् प्रगति, फिर उन्नति। उन्नति का अर्थ है ऊपर चढ़ना। ऊपर चढ़े बिना उन्नति ही नहीं। वायुमार्ग शून्य आकाश में चिह्न रहित है। मोक्षमार्ग पर चलने के लिये चिह्न नहीं देखना, चलो तो मार्ग क्या मोक्ष भी मिलेगा। मार्ग महत्वपूर्ण है मंजिल नहीं। मोक्ष मार्ग पर चलना सरल नहीं भावों का खेल है। इस युग में सर्वप्रथम मार्ग बनाया तथा बताया आदिनाथ प्रभु ने किन्तु उनसे पहले मोक्ष पाया 'अनंतवीर्य' तथा ‘बाहुबली' ने। मोक्ष प्राप्ति में भगवान् आदिनाथ पीछे हैं किन्तु मुक्ति का मार्ग खोलने वाले वह प्रथम भव्य जीव है। केवलज्ञान भी सर्वप्रथम उन्हें ही प्राप्त हुआ। भगवान् आदिनाथ आविष्कारक हैं, उनके द्वारा निशान पाकर अनंतवीर्य तथा बाहुबली ने पहले यात्रा पूरी कर ली, यह बात पृथक् है। बंधुओं! हमें साधना पथ पर बढ़ना चाहिए। यह पार्थिव जीवन भी क्या जीवन है। जीना तो जीने के समान है। जीने का तात्पर्य सीढ़ी जो चढ़ने के लिये है अन्यथा जी.ना। जीवन वही जो जीना चढ़ गये। हम भी आज के इस पवित्र प्रसंग पर अपने जीवन को समझे और प्रभु के पथ पर बढ़ने का प्रयत्न करें। हमें भी एक दिन वही पद मिलेगा, जो आदिनाथ भगवान् ने प्राप्त किया है।
  11. भ्रमित पथिक के लिये महान् जीवों का इतिहास ‘मार्ग सूचक’ प्रतीक की भांति है। अतीत पर दृष्टिपात करने से सही रास्ता मिलता है। सही रास्ते पर की गयी यात्रा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। किन्तु संसारी प्राणी की आँखों पर अज्ञानता की पट्टी बंधी हुई है। जिससे यह मनुष्य कोल्हू के बैल की भांति यात्रा तो करता है पर मंजिल की प्राप्ति नहीं हो पाती। यात्रा आरम्भ करने के पश्चात् रुकना ठीक नहीं, नर्मदा नदी की तरह। नर्मदा का स्रोत अमरकंटक में है। आगे बढ़ने पर अनेक बाधाओं का सामना नर्मदा को करना पड़ा। फिर भी बीच में आये बाधक पहाड़ों को काटते हुए वह बढ़ती ही गई मंजिल की ओर। पहाड़ को काटा, धार बना दी पत्थरों में धारा ने। इससे सिद्ध होता है कि पुरुषार्थ किये बिना आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। बाधा आने पर नर्मदा, अमरकंटक वापस नहीं आयी। खंभात की खाड़ी तक यात्रा कर सागर में जा मिली। यात्रा पूर्ण होते ही निर्वाण प्राप्त हो गया। मध्य में रुकना नर्मदा ने नहीं स्वीकारा। बाधाएँ रोक नहीं पायी, धारा को। वापस भी नहीं कर पायी तभी तो सागर मिला। भगवान् 'आदिनाथ' की दीर्घकालीन यात्रा भी इसी तरह पूरी हुई। आज विज्ञान का युग है हमने उद्यम किया नहीं, सफलता कैसे मिले? उद्यम करने पर ही सफलता मिलती है। नदी की परिक्रमा करने वालों को ज्ञात होता है कि मुक्ति कैसे मिलती है। आदि, मध्य, अंत की यात्रा परिक्रमा है। कितना परिश्रम करने के पश्चात् सफलता प्राप्त होती है। लक्ष्य को पाने के लिये संकल्पित नर्मदा बीच में रुकी नहीं सामने पहाड़ आये, चट्टानें आयीं कई तरह की बाधायें आई किन्तु उसने सभी बाधाओं से कहा हटो, नहीं तो कटो, अब यह धारा रुकेगी नहीं। आदिनाथ भगवान् से लेकर भगवान् महावीर तक धारा की यह परम्परा चली आ रही है। हम पुरुषार्थी बनें, प्रयास करें किन्तु यह भी ज्ञात रहे कि सही दिशा में किया गया प्रयास ही प्रयास है। गलत मार्ग पर चलना आभास मात्र है। आये गये भटकन जारी है कोल्हू के बैल की तरह। आँखों पर अज्ञानता की पट्टी बांधे यात्रा जारी है। पट्टी खुलते ही देखा वहीं के वहीं खड़े हैं दिन भर चलकर भी। तेली, तेल निकाल लेता है तथा कोल्हू का बैल रोता है कि करम फूट गये। अरे रास्ता तय करने के पूर्व यह तय कर लो कि जाना किस ओर है? दिशा का पता नहीं, यात्रा आरम्भ कर दी कोल्हू के बैल की तरह। क्या करें, आँख पर तो पट्टी बंधी है अज्ञानता की। पथ का ज्ञान कर लो, परम पद प्राप्त कर चुके महापुरुषों से। उद्गम अलग, तट अलग, अंत समर्पण है। लम्बी यात्रा के पश्चात् नर्मदा नदी सागर के सामने अपना समर्पण कर देती है अब नर्मदा, नर्मदा नहीं रही वह सागर में समा गई, यही उसका अपने आराध्य/गन्तव्य के प्रति समर्पण है। इस समर्पण में हमारा अहंकार बाधक बनता है लोक जीवन में यह कई-कई रूपों में प्रकट होता रहता है। कोई काम किया तथा नाम अंकित कर दिया। अगले जन्म में पड़ोस में जन्म लिया तथा उस नाम को मिटा दिया। ज्ञात नहीं है स्वयं का नाम स्वयं मिटा दिया। आप अपने लिये ही खतरा बन जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे एक हाथ में आप दीया लिये हैं तथा हवा के झोंके से बचाने के लिये दूसरे हाथ की ओटकर लेते हैं फिर भी कभी-कभी अपने श्वांसों से दीया बुझ जाता है। बाहरी बाधा से तो दीया की रक्षा कर ली किन्तु स्वयं की श्वांस ने बुझा दिया। आपने ही जलाया, आपने ही बुझा दिया। यह भी क्या जीवन है? क्या करना है? किस ओर से प्रारम्भ करना है यह महापुरुषों की यात्रा से ज्ञात हो जाता है। 'आदिनाथ भगवान् निर्वाण के बारे में सोच रहे हैं। हम भी भगवान् बन सकते हैं हम से तात्पर्य समान गुणधर्म से हैं। एक भाव होने पर ही हम हैं। अपने भावों में 'हम' नहीं 'तुम' हो जाता है। जो धारा चट्टानों से कट जाती है वह अनेक हो जाती है किन्तु जो चट्टानों को काट देती है वह एक रहती है। साधना के क्षेत्र में हमेशा मैदान मिले ऐसा नहीं है। ऊबड़-खाबड़ रास्ते, दरिया, रेतिला, भूमि सभी मिलती है। फिर जैसा रास्ता मिला वैसा ही बहना धारा का स्वभाव है, किन्तु उसे बहना है। नर्मदा का जल मीठा है इसीलिये कि ठहरा नहीं है, बहता है, हल्का भी है, हल्का होने से जीवन मधुर होता है तथा भीतरी रूप झलकता है अर्थात् प्रकट होता है। गंगा आकाश से भले ही उतरी मानी जाती है किन्तु उसका प्रवाह धरती पर ही है। स्वर्ग में नहीं, गंगा जल पृथ्वी पर है। धरती पर ही तीर्थ है स्वर्ग में तीर्थ नहीं। गंगा की यात्रा पूर्ण होते ही समुद्र से मिल जाती है। जीवन, धारा के समान प्रवाहमय है। बहना रुक जायेगा तो पानी सड़ जायेगा। नहीं तो बहते पानी में सड़ा पानी भी मिलने पर वह भी स्वच्छ हो जाता है। इसलिये रुकना हमारा धर्म नहीं।‘रमता जोगी बहता पानी' तभी स्वच्छ है, रुके हुये भी रुके नहीं। यहाँ-वहाँ कितना रुकना है। रुकने के लिये तो मोह ही सबसे बड़ी बाधा है। किन्तु अब मोह नहीं है तो रुकने का प्रश्न ही नहीं। रुकने का अर्थ है आकर्षण। किसका आकर्षण? स्वयं का? जड़ का ? चेतन का ? फल की प्राप्ति का आधार स्वयं के विचार हैं। शुद्ध अवस्था के अनुभव के बिना शांति मिलने वाली नहीं है। शास्त्र के माध्यम से इसका ज्ञान मिलता है। पूर्व में जो कहा गया वही पुराण है। आज हमारा पुराण से संबंध छूटता जा रहा है। धन से संबंध स्थापित होता जा रहा है। मूल्यों में कमी आ रही है। राष्ट्र की मुद्रा का मूल्य कम होने से राष्ट्र का सिर झुक जाता है। किन्तु मूल्य बढ़ने से विश्व में नाम होगा। कृषि प्रधान देश होते हुए भी गेहूँ बाहर से आ रहा है। यह इस देश की स्थिति है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी इस देश की। महापुरुषों द्वारा दिया हुआ यह दीया बुझने को है, इसे बचालो। वह बुझ रहा है स्वयं की दीर्घ श्वांस से। बिजली दीया का विकल्प नहीं। बिजली तो चंचला है, चपला है, क्षण आयु की है। विज्ञान स्वाभाविक ज्ञान से दूर है। दीपक को देखने से स्वभाव का ज्ञान होता है। दीया की लौ ऊध्र्वगामी होती है, किन्तु विद्युत की रोशनी ऊध्र्वगामी नहीं है। ऊध्र्वगामी लौ नहीं तो लौ (लगन) नहीं। यह ध्यान रखों! पुरुषार्थ के अभाव में लक्ष्य पूर्ण नहीं हो सकता। लक्ष्यहीन अपने आपको हम कहाँ कैसे ले जा रहे यह ज्ञात ही नहीं। दूसरों को चलाना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना स्वयं को सही दिशा में चलाना। आदिनाथ और महावीर भगवान् के इतिहास से ज्ञात होता है कि हमें किस ओर जाना है। उन्हीं प्रतीक संकेतों को जानकर यदि हम सम्यक्र पुरुषार्थ करते हैं तो भगवान् के समान हमारा भी कल्याण सुनिश्चित है।
  12. सरिता के गहरे स्थल पर जल ठहरा हुआ सा लगता है, किन्तु यह भ्रांति है वस्तुत: प्रवाह, ठहरा हुआ नहीं है। इसी प्रकार मानव जीवन का प्रवाह भी सदा गतिमान रहता है उसमें ठहराव का आभास भ्रांति मात्र है। नगर-नगर, डगर-डगर चलकर पवित्र पूर्वजों ने सन्मार्ग बनाया था, उनके चरण चिह्नों का अनुसरण कर यात्री को सार्थक यात्रा करना श्रेयस्कर है। वर्षों की साधना के पश्चात् अतीत में पूर्वजों ने रास्ता बनाया था। भविष्य की चिंता समाप्त करने के लिये अतीत का ज्ञान पर्याप्त है। हमें अतीत ज्ञात है किन्तु भविष्य अज्ञात है। नदी बहती जाती है किन्तु उसके तट पर बने घाट ज्यों के त्यों रहते हैं। ये घाट सरिता के समीप होकर भी प्यासे हैं क्योंकि घाट स्थिर है, यह स्थिरता ही इसकी अतृप्तता का कारण है। इसी तरह ठहरा हुआ मनुष्य भी प्यासा रहता है, घाट पर आकर भी प्यासा। प्यास बुझाने के लिये प्राणी घट-घट की यात्रा करता है। किन्तु अन्तर्घट की बात नहीं करता।'प्राण जाय पर प्रण न जाई, रघुकुल रीति सदा चली आई'। इस तरह का प्रण अन्तर्घटना से मिलता है। जिसके घट में ऐसे घटक का निर्माण हुआ वह अमृत घट बन गया। नहीं तो घाट पर बैठा फिर भी प्यासा। नर्मदा कहे जब प्यास नहीं बुझा सकता तो घाट पर आया क्यों? घाट नर्मदा की रक्षा के लिए नहीं बनाया गया। अरे, वह तो भूले भटके राही की प्यास बुझाने के लिये बनाया गया है।किन्तु प्यास बुझे तो कैसे? वह तो घाट पर आकर खड़ा है, घट भरने के लिये। नर्मदा भरी है, भरी रहेगी। फिर भी घाट पर जाकर घट नहीं भरे तो, नर्मदा क्या करें? एक बार झुक जा, अपना घट भर ले तो यह घट अमृत घट बन जायेगा प्यास बुझ जायेगी। अपनी यात्रा पर बडो। रुको नहीं, रुकना जीवन का उद्देश्य नहीं और आप रुक सकते भी नहीं। चलना तो है ही, संकल्प पूर्वक चलो जीवन प्रशस्त होगा। मोक्ष मिलेगा। रास्ता भी गायब हो जाता है जहाँ मंजिल आ जाती है। मोड़ पर अथवा चौराहे पर रास्ता गायब नहीं होता। जिसने मार्ग पहचान लिया वह अविरल बढ़ता ही रहता है। आवश्यकता है केवल मार्ग देखने की, और उसे देखने के लिये कोई अलग से प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं। आँख खुलते ही मार्ग दिखने लगता है। बंधुओं! यहाँ पर घाट भी है और प्याऊ भी लगा है किन्तु पीने की तो सोचो। पनघट पर आकर प्यासे हो। पनघट देखकर भीतर का घट बाध्य करता है। पनघट के आसपास हरियाली रहती है तथा ज्ञात होता है कि यहाँ पानी मिलेगा। भगवान् को हम एक प्रकार से नदी का प्रवाह मान सकते हैं। पाट को शास्त्र के रूप में तथा भूले भटके यात्री के लिये गुरु प्याऊ के समान है। नदी का प्रवाह तो बोलेगा नहीं, शास्त्र रूपी घाट भी नहीं बोलता, किन्तु प्याऊ के रूप में बैठे हुये गुरु जीवंत है वह दिग्भ्रमित राही की प्यास बुझाने वाले हैं इसीलिये वे गोविंद से भी श्रेष्ठ हैं। भारतीय संस्कृति में चरणों का महत्व है मस्तक का नहीं। यह मस्तक चरणों में झुकाने के लिये है। तथा आस्था की विद्यमानता हृदय में है। मस्तिष्क में शंकायें, आशंकायें, जिज्ञासायें रहती हैं तथा हृदय में चरण के लिये आस्था। हृदय साफ रहने पर विज्ञान की तो क्या 'केवल ज्ञान' की भी प्राप्ति हो सकती है। राग-द्वेष रहित गुरु के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर प्यास बुझाओ। ऐसी आत्मा संसार को भी तृप्त करा सकती है। किन्तु भौतिकता से नहीं। भौतिक प्यास बुझाने से स्थायी तृप्ति नहीं मिलती है। घाट इसीलिये प्यासा है आज तक क्योंकि वह प्रवाह को अपने अन्दर नहीं आने देता, अडिग है स्थिर है झुकता नहीं। नर्मदा का प्रवाह आगे बढ़ जाता है, घाट प्यासा रह जाता है। इन सबमें महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस सबके पहले हमारे अन्दर प्यास बुझाने की रुचि/भावना होनी चाहिए। यदि अन्दर प्यास न हो तो वो पानी पीना उसी तरह हानिकारक हो जाता है जिस प्रकार बिना भूख के किया गया भोजन, इससे रोग की वृद्धि ही होती है। वस्तुत: हमें इन सब बातों का ज्ञान होना चाहिए। यह ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह तो आत्मा का स्वभाव है। जिसकी पहिचान/अनुभूति इन हरे भरे जंगलों में आराधना कर रहे संतों से हो जाती है। संत के सान्निध्य में सूखे वृक्ष भी हरे भरे हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे पनघट के समीप हरियाली विद्यमान रहती है। संकल्प और साधना का बहुत महत्व है बन्धुओं! यह बात हम सभ्यता से दूर कहे जाने वाले आदिवासियों से सीख सकते हैं। वह जंगलों में रहते हैं। जंगली जानवरों, हिंसक पशु, सिंह आदि के साथ उनका मेल-मिलाप रहता है। उनके पास तरह-तरह की साधनायें रहती हैं, मंत्र-तंत्र की शक्ति रहती है। जिनके बल पर वह उन हिंसक पशुओं को भी नियंत्रित करते हैं। साधना के बल पर उनकी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। और उनकी दृढ़ता तो देखिये कि वह सभ्य समाज द्वारा प्रदत प्रबंधों का भी प्रयोग नहीं करना चाहते। यह सब साधना की ओर लक्ष्य रखने से होता है। अंत में आप सभी से यही कहना चाहूँगा कि अन्तर्घट की यात्रा पूर्ण होते ही, घट अमृत से भर जाता है। इससे अनन्तकालीन रोग भी चला जाता है तथा स्व-पर कल्याण होता है। इसी में जीवन की सार्थकता है। जिस प्रकार सरिता का अंतिम लक्ष्य सागर है उसी प्रकार जीव का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है आवश्यकता है केवल उस ओर बढ़ने की।
  13. धरती स्वर्ग से महान् है। स्वर्ग के देवगण भी माटी के इस जगत् में आने के लिये लालायित रहते हैं। माटी की महिमा महान् है तथा इसकी तुलना में स्वर्ण तुच्छ है। स्वर्ण मुकुट में माटी का तिलक लगाने से स्वर्ण की आभा में वृद्धि हो जाती है मिट्टी में एक ही बीज वपन करने से अनेक फल प्राप्त होते हैं जबकि स्वर्ण में यह गुण नहीं है। 'धरती' शब्द को विलोम करने से 'तीरध' शब्द बनता है। अर्थात् धरती ही तीर पर धरने। पहुँचाने वाली है यानी धरती में ही यह शक्ति है जो संसार के किनारे पहुँचा सकती है मोक्ष का मार्ग धरती से ही है स्वर्ग से नहीं। परीक्षार्थी मुक्ति की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो उसे मोक्ष मिल जाता है किन्तु पूरक आने पर स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि स्वर्ग की प्राप्ति अधर में लटकने के समान है। सन्मार्ग की राह में त्रुटिहीन यात्रा से अंतिम लक्ष्य, मोक्ष पहुँच सकते हैं, किन्तु साधन में यदि कुछ त्रुटि हो तो यात्री स्वर्ग तक ही यात्रा कर पाता है, उसे मार्ग का विराम कह सकते हैं। जो विराम करे वह मोक्ष से वंचित रह जाता है। देवराज इन्द्र भी नर-नारायण की वंदना करते हैं। मैथिलीशरण गुप्तजी ने एक जगह लिखा है - नारायणा-नारायणा धन्य है नर साधना । इन्द्रपद ने की है जिसकी शुभ आराधना॥ धरती पर स्वर्ग लाने की कल्पना नहीं होना चाहिए क्योंकि धरती स्वर्ग से श्रेष्ठ है। हमारे संग्रह किये गये भण्डार में स्वर्ण नहीं किन्तु सुवर्ण होना चाहिए। उत्तम वर्ण। आचरण ही प्रभु को पा सकता है। आज पश्चिमी देशों में प्रभु की अपेक्षा मशीनों का ज्यादा महत्व है तथा कहा जा सकता है कि उत्पादन बढ़ रहा है जबकि यथार्थ में उत्पादन नहीं उत्पात बढ़ रहा है/असंतोष बढ़ रहा है। सोने के संसार में रहने वाले देवताओं की प्रबल इच्छा/धरती के जग में आने की होती है क्योंकि स्वर्ग अर्थात् सोना जड़ है। जबकि धरती जीव/जागृत है। इसीलिए धरती के पूतों को चाहिए कि वे मिट्टी को माथे पर लगाये, स्वर्ण को नहीं। परमात्मा बनने की शक्ति प्रत्येक आत्मा में है जीवन-मरण की पहेली का ज्ञान होते ही प्रभु का स्मरण होता है। प्रभु का स्मरण करने वाले भक्त का जीवन धन्य हो जाता है। प्रत्येक आत्मा भगवान् आदिनाथ भगवान् महावीर या प्रभु राम बन सकती है। लघुत्व से गुरुत्व की यात्रा ही रघुपति राघव बनाती है, यह ज्ञान प्रभु भक्ति में लीन होने पर ही होता है। हमें यह भी जान लेना आवश्यक होता है कि आप जो भक्ति/उपासना कर रहे हैं, वह सही दिशा में है अथवा नहीं। यह निश्चित है कि भक्ति से मुक्ति मिलती है किन्तु उपासना सही हो तब। हमारी आकांक्षा युक्त भक्ति तथा बिना विवेक की माँग कैसे अभिशाप बन जाती है, इस बात को समझने के लिये आपके सामने एक उदाहरण रख रहा हूँ। एक गृहस्थ व्यक्ति लम्बी अवधि से भक्ति कर रहा था किन्तु उसे अपेक्षित फल नहीं मिल रहा था। वह भत भगवान् के पास पहुँचा तथा अपनी व्यथा व्यक्त की। भगवान् ने उसे एक वर माँगने की आज्ञा दी उसने वरदान माँगा कि वह जिसे स्पर्श करे वह स्वर्ण बन जाये। वरदान रूप आशीर्वाद के पश्चात् भक्त का सब कुछ स्पर्श करने से स्वर्ण बन जाता है। यहाँ तक कि घर, सामान, पत्नी आदि भी। दुख से कातर हो वह प्रभु से पुन: पूर्वस्थिति में आने की अनुनय करता है, किसी भी तरह से वह उस दुख से मुक्ति पा लेता है एवं संतोषी बन जाता है। इस प्रकार यह जानना जरूरी है कि लोभ-अविवेक और आवश्यकता से अधिक बुद्धि भी हानिकारक होती है। प्रत्येक मनुष्य को अपने विवेक के अनुसार ही राह बनाना चाहिए। भक्ति का लक्ष्य भी सही रखना चाहिए। तभी सही फल मिलता है। अन्यथा वह इसी भत की तरह पछताने पर मजबूर हो जाता है।- मंत्र जाप की परिगणना के लिये हमें माला की आवश्यकता होती है। जाप की परिगणना के लिये सहायक चाहिए जबकि पैसे गिनने के लिये किसी सहायक की आपको आवश्यकता नहीं होती बल्कि अंगुलियाँ त्वरित गति से नोट की परिगणना करती है। इसी प्रकार आपके पास रुपये-पैसे आते हैं तो निद्रा दूर रहती है किन्तु जैसे ही प्रभु को स्मरण करने के लिये माला हाथ में आती है निद्रा देवी आ जाती है। पर निन्दा करते समय मनुष्य बढ़ चढ़कर वार्ता करता है; किन्तु स्वयं कि आलोचना सहन नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि आपको प्रभु की नहीं, नोटों की चाहत ज्यादा है। इसीलिए प्रभु तो मिलते नहीं तथा नोट ही अंगुलियों की कसरत कराते रहते हैं। इसी प्रकार करते-करते यह जीवन निरर्थक ही बीत जाता है। बन्धुओं, हमारी अनाकांक्ष भक्ति का ही यह परिणाम है कि युग निर्मल है तथा भगवान् और भक्त के बीच यह सम्बन्ध टिका हुआ है। हमें अपने इस जीवन में माटी के मार्ग की कीमत जानकर मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य बनाना चाहिए, स्वर्णमय स्वर्ग का नहीं।
  14. धीरे-धीरे फैलती हुई यह बात 'भरत चक्रवर्ती' के कानों तक पहुँच गई कि चक्रवर्ती इतने बड़े वैभव संपत्ति रंगमहलों में रहकर कैसे धर्मध्यान कर पाता होगा। भगवान् की भक्ति करने की तो उसे फुर्सत ही नहीं मिलती होगी। सारी बात को सुन-समझकर चक्री ने उनमें से एक मुखिया को बुलाया और कहा कि तुम्हें हमारे महल में अन्दर घूमने जाना है और ध्यान रखना! कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या है पूरा देखकर के आना है। जो आज्ञा कहकर वह जाने लगा-चक्रवर्ती बोला, इस तेल से भरे कटोरे को भी साथ में ले जाओ किन्तु इतना ख्याल रखना कि एक बूंद तेल भी न गिर पाये इसका अन्यथा ये तलवारधारी भी आपके साथ जा रहे हैं। शीघ्र ही पूरा महल घूमकर मेरे पास वापस आओ। चक्रवर्ती की शर्त और साथ में चलती तलवार देखकर उसके होश ही उड़ गये। महलों में पूरा घूमकर वह वापस आ गया, पूछा! क्यों ? क्या-क्या देखकर आये हो, कुछ बताओ। कटोरा नीचे रखते हुए उसने कहा राजन्! घूमा तो पूरा महल, पर देखा कुछ भी नहीं। हर समय तेल से भरे कटोरे पर ही ध्यान केन्द्रित रहा कि कहीं एकाध बूंद गिरी तो साथ में मौत ही चल रही है। राजन्! क्षमा करें मुझे सारी बात समझ में आ गई। बंधुओं! यह छोटी-सी कथा ही नहीं किन्तु एक ज्ञानी के जीवन की कथा है। जिसने इस संसार में मौत की अनिवार्यता समझ ली है फिर वह संसार की क्षणभंगुरता में रचता-पचता नहीं है। उसे सदा ही अपने कर्तव्य का ध्यान बना रहता है। यह उदाहरण भरत चक्रवर्ती के सम्बन्ध में दिया जाता है, भले ही उसका जीवन विरत नहीं था किन्तु तत्व ज्ञान से उनके जीवन में उदासीनता तो रही होगी। हमें भी जीवन मिला है, मन-वचन-काय की शक्तियाँ मिली है, इसका उपयोग हम कैसे करें, इतना ज्ञान होना जरूरी है। इनके उपयोग व दुरुपयोग पर ही हमारा जीवन पुण्य-पापमय बनता है। वचन-काय को तो फिर भी नियंत्रित किया जा सकता है किन्तु मन की दशा बड़ी विचित्र है, इसे सम्हालना बहुत ही कठिन है। कठिन जरूर है पर असम्भव नहीं। अभ्यास और वैराग्य के बल पर इसे कंट्रोल में रखा जा सकता है। सारे धर्म त्याग पर ही टिके हुए हैं, राग की नींव पर कोई भी धर्म टिक नहीं सकता। हम इस रहस्य को समझे और राग की भूमिका से ऊपर उठने का प्रयास करें। मेरे तेरे पन का भाव और पर पदार्थों में ऐक्य बुद्धि ही आकुलता/अशांति की जनक है, संसार में दुख की कारण है। एकत्व भावना सुख की मूल है, यही एक भावना ऐसी है जो विश्व में और आत्मा में शांति ला सकती है। यह धर्म की ही बात नहीं किन्तु बाहरी व्यवहार जगत् में भी इसका बहुत महत्व है। इस बाहरी एकता में भी विचारों की एकता अपने आपमें बहुत कुछ महत्व रखती है। यदि हमारे विचारों में एकता है तो हजारों व्यक्ति भी एक ही हैं, सुखी है। विचारों की विविधता द्वन्द और वैमनस्यता की जनक है, दुख संघर्ष की मूल है। जितने भी मत-मतान्तर बने हैं इस धरती पर वे सारे वैचारिक मतभेद के कारण ही बने हैं, किन्तु सारे मत-मतान्तरों में समन्वय और समाधान देना जैन दर्शन की मुख्य विशेषता है। यह संसार बहुत बड़ा है, यहाँ पर सब कुछ है लेकिन हमें क्या करना है, और कैसे रहना है? यदि इतना याद रख लिया जाय तो अपना कल्याण हो सकता है। चक्रवर्ती का जीवन एक आदर्श श्रावक का जीवन था, जो सब कुछ करते हुए भी अपने धर्म-कर्तव्य को नहीं भूलता था। नवनिधियाँ, चौदहरत्न, ९६ हजार रानियाँ, अपार वैभव, सब कुछ रहते हुए भी भगवान् की भक्ति और विषयों में उदासीनता, बहुत दुर्लभ है इस तरह का जीवन पाना। चक्रवर्ती के सामने है ही क्या, आप लोगों के पास, फिर भी उसी में उलझे हुए हो। राम और रावण का इतिहास सभी जानते हैं दोनों में अन्तर इतना ही था कि रावण पर वस्तु पर भी दृष्टि रखता था जबकि राम अपनी वस्तु की सुरक्षा। रावण की यही दृष्टि अशांति और संघर्ष का कारण बनी। समय आपका हो रहा है, हमें यही समझना है कि अपनी वस्तु क्या है और उसकी सुरक्षा हम कैसे करें ? जड़ पदार्थों के बीच रहकर भी हम चेतन आत्मतत्व को न भूलें। हमारे पास विचारों में एकता और विशाल दृष्टिकोण हो तो आज भी वह राम राज्य आ सकता है, फिर बाहरी अन्तर कोई ज्यादा महत्व नहीं रखेगा। ‘महावीर भगवान् की जय!'
  15. भारतीय साहित्य में लिखा मिलता है कि ‘रेवा तटे तपः कुर्यात्' इस पद की ओर मेरा ध्यान गया तथा अमरकंटक का ख्याल आ गया। यहाँ से निकली हुई नर्मदा नदी ही जैन ग्रन्थों में रेवा के नाम से आई है। जिसे कहीं-कहीं पर 'मैकल निम्न' भी कहा गया है, आम्रकूट पर्वत का भी उल्लेख आता है जैन ग्रन्थों में। इस नदी के तट पर मुनियों ने ध्यान लगाकर मुक्ति प्राप्त की है। इंदौर के पास ऑकारेश्वर और सिद्धवर कुट की संगम स्थली प्रसिद्ध है। अभी-अभी हम बिहार करते हुए आ रहे हैं। यहाँ का सुहाना शांत वातावरण और प्राकृतिक छटा देखकर सारी थकान दूर हो गई। आप सभी जानते हैं कि ठंड काफी पड़ रही है किन्तु अब इस जनवरी की ठंड में स्व में ध्यान लगाकर तपस्या का सही आनंद लिया जायगा। आसपास अंचल के लोगों का उत्साह और यहाँ के साधकों की सौहार्दमयी भावनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे हम अपने ही स्थान पर आ गये हो। अभीअभी एक साधक आद्यवता ने कहा कि संसार में दो बातें श्रेष्ठ हैं, एक विद्या और दूसरी सागर, किन्तु जिनके पास दोनों हो उनका कहना ही क्या? सुनकर मैंने भी विचार किया और मेरी दृष्टि में इससे भी श्रेष्ठ दो बातें हैं इस दुनिया में-एक गुरु और दूसरे प्रभु। गुरु सामने है और प्रभु है अदृश्य। गुरु हमारे लिये अदृश्य प्रभु तक पहुँचाने के लिए मार्गदर्शाते हैं। आज संघ का आगमन ही हुआ है, समय कम है। इस सर्वोदय तीर्थ पर आकर हम यही भावना करते हैं कि सभी का कल्याण हो सभी का जीवन मंगलमय बनें। ‘महावीर भगवान् की जय!' गुरुवर आचार्य श्रीज्ञानसागरजी महाराज की जय!
  16. .........मान का अर्थ है असावधान, लेकिन ज्ञान का अर्थ सावधान नहीं है, बल्कि ज्ञान की स्थिरता, ज्ञान की अप्रमत्त दशा का नाम सावधान है। ...........हमें अपने खोये हुए स्वभावभूत तरल अस्तित्व को प्राप्त करना है। क्योंकि उस स्वभाव का सहारा लेकर हम स्वयं पार हो सकते हैं। जो भी प्राणी स्वभाव में रमण करने वाली उन महान आत्माओं का सहारा लेंगे वह भी द्रवीभूत होकर अनंत संसार से पार हो सकते है। ...........हमारे पास क्या है? केवल छोड़ने के लिए राग-द्वेष, विषय कषायों के अलावा और कुछ भी तो नहीं है। आपको हम किन वस्तुओं को दिखा कर के खुश कर सकते है? भगवन्! आप हमारी वस्तुओं से खुश नहीं होंगे.......लेकिन उन वस्तुओं के विमोचन से अवश्य खुश होगे । वर्षों तक धन का उपार्जन किया गया है। कीमती-कीमती वस्तुओं का संकलन किया गया है। अब संकलन के प्रति उपेक्षा का भाव उमड़ आया है। जितनी संपदा है उसकी लेकर वह अपने देश की ओर लौट रहा है। अभी तक विदेश की यात्रा की थी, अब स्वदेश की ओर जाना है, बीच में अपार जलराशि से युक्त समुद्र पड़ता है। सारी की सारी संपदा जलपोत में भर दी गई और जलपोत चल पड़ा। सभी यात्री निश्चिन्त है, कोई भी चिन्ता नहीं है, क्योंकि अब जीवन में निर्धन होने का कोई सवाल नहीं उठेगा वह आ रहा है देश की ओर। जहाज चलाने वाले जहाज चला रहे हैं और सेठ जी आनन्द के साथ बैठे हैं। तभी एक घटना घट जाती है। समुद्र में तूफान बहुत तेजी के साथ आता है। इतनी तेजी के साथ आता है कि जहाज को बीच में ही रोकने की आवश्यकता पड़ जाती है। जहाज को तुरन्त रोक दिया गया, सारी की सारी संपत्ति जहाज में भरी हुई है, जहाज का जो चालक था वह कहता है कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। तूफान आया है चला जायेगा, और तूफान कुछ ही देर में चला गया, यात्रा पुन: चालू हो गई। कुछ ही समय बीता होगा कि एक और सूचना पुन: मिल जाती है। जहाज को जल्दी-जल्दी यहाँ से हटा लीजिए.क्या मतलब? मतलब यह है कि पाँच मिनट के उपरांत जहाज हट जाना चाहिए। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या कहना चाहते है? सब कुछ अभी समझ में आ जायेगा मेरे कहने से आप जहाज को हटा लीजिए, उत्तर देने में और गड़बड़ हो जायगा। किस तरफ हटाऊँ ? तब वह कहता है कि ठहरों देखता हूँ, अभी इस ओर हटा दीजिए। पाँच मिनट के बाद इस ओर भी हटा दीजिए। हटाने के उपरान्त वह फिर कहता है कि थोड़ा और सरकाइए। इतना तो हटा दिया, हटा तो दिया लेकिन! थोड़ा सरकाना और आवश्यक है। कितना सरकाए? सिर्फ पचास कदम फिर और कहता है कि अब पच्चीस कदम और सरकाओ सरकाने के उपरान्त भी वह पहाड़ जब बिल्कुल पास आ गया तब ज्ञात हुआ। कैसा था वह पहाड़? सफेद ऐरावत हाथी के समान । इतना बड़ा पहाड़ और वह हटा क्यों नहीं? क्या कोई द्वीप है? या कोई स्थान बचा है या नीचे पाताल से कोई विद्याधर विद्या के माध्यम से ऊपर उठा रहा है या ऊपर से किसी ने कुछ फेंका है? क्या हो रहा था सब समझ में आ गया। वह यदि आकर टकरा जाता तो जहाज के कितने टुकड़े होते पता तक नहीं चलता - "तिल-तिल करें देह के खण्ड" यह तो कम से कम हो ही जाता लेकिन। जहाज के कितने टुकड़े होते, खस-खस के दाने जैसे छोटे-छोटे हो जाते, तिल के बराबर हो जाते। पता तक नहीं पड़ता क्या था, क्या नहीं था? पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह पहाड़ है। तैरने वाले पहाड़ अलग होते है और गढ़े हुए पहाड़ अलग होते है। गढ़े हुए पहाड़ इतने खतरनाक नहीं होते जितने की तैरने वाले। और यह पहाड़ कैसे तैरते रहते है। क्या किसी ने इन्हें प्रशिक्षण दिया? जब हम तैरना सीखे थे छोटे में, तो डरते-डरते सीखे थे। २०-२५ किलो ग्राम भी वजन नहीं था शरीर का और वह कितना बड़ा जलाशय, कितना वजनदार फिर भी वह डूबता नहीं, लेकिन तैरने वालों को भी डुबोना चाहता है। यह सब किसका परिणाम है, इसमें क्या रहस्य छुपा हुआ है? तो फिर मालूम चला जो तैरने के लिए सहायता प्रदान करता है, जिसको पीकर प्राणी सुख शांति का अनुभव करता है। जो जीवन प्रदान करने में कारण है, वही जब अकड जाता है, उसे जब गुस्सा चढ जाता है,उसमे जब विकृति आ जाती है, जब ‘वह विभाव परिणमन कर जाता है, तब वही जल, जीवन प्रदान न करके मरण की ओर ले जाता है। खुद तो डूबता नहीं किन्तु दूसरों को डुबो देता है। वह क्या है? बंधुओ! तो वह जलीय तत्व की विकृति है, जो जल बहता था, बहना ही जिसका जीवन स्वभाव था और तरल होने के कारण जो भी तैरना चाहे उसमें गिर कर तैर सकता है, तैरने वाले की मदद कर सकता है, नाव की तरह भावशुभाशुभ रहित शुद्धभावनसंवरभावे। डॉट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावे। (बारह भावना मंगतरायकृत) बारह भावना में आप लोग बोलते हैं न, यदि निर्जरा तत्व जिसके पास है और आस्त्रव तत्व नहीं है संवर तत्व आ गया है तो वह नाव अब कभी डुबेगी नहीं। नाव की शोभा पानी के अन्दर है किन्तु यदि नाव के अन्दर पानी आ जाये तो उसकी शोभा नहीं। नाव के अन्दर पानी नहीं होना चाहिए और पानी के अन्दर नाव होना ही चाहिए, तभी तो पार हो सकता है। पानी इतना खतरनाक नहीं है और जहाज में तो पानी नहीं आया था फिर इतना खतरा क्यों हुआ? नाव में पानी तो नहीं आया था यह बिल्कुल ठीक है, लेकिन पानी के परिणमन कई प्रकार के हुआ करते है और जल का ऐसा घनीभूत परिणमन हो गया कि खतरनाक साबित हो गया। बड़े-बड़े जहाजों को डुबोता ही नहीं बल्कि चूर-चूर कर देता है। रत्नाकर का माल रत्नाकर में ही जाना चाहिए, एक पाई भी किसी को नहीं मिलेगी, खाली हाथ लौटना पड़ेगा। इसको बोलते हैं बफीला पहाड़, ‘हिमखण्ड', सफेद फक्क रहता है कालेपन का एक दाग भी नहीं। आज तक हमने दागदार कई पदार्थों को देखा लेकिन बेदाग-दार यदि कोई पदार्थ है तो वह हिमखण्ड ही है। जिधर से भी आप देखिए चेहरा उभरा हुआ ही मिलेगा, देखने में बहुत सुन्दर लगता है छूने में अच्छा शीतल लगता है लेकिन यदि आकर के टकरा जाये तो फिर देखो......! जल की विकृति इस प्रकार हानिकारक हो सकती है। आत्मा का भी ऐसा ही स्वभाव है, वह जल के समान तरल मृदु और तैराक है। किन्तु जब वह राग-द्वेष के वशीभूत होकर के अपने आपके स्वभाव को भूल जाता है, तब वह ऐसा घनीभूत (कठिन) पदार्थ बन जाता है कि वह खुद भी टक्कर खा जाता हैं और दूसरों को भी टक्कर दे देता है और जब वह इस चक्कर में आ जायगा तो फिर कहना ही क्या? उसका माथा फूट जायेगा घूम जायेगा शेष कुछ भी बचने वाला नहीं है, नामोनिशान तक नहीं बचेगा। इतना खतरनाक वैभाविक परिणमन होता है जल का। संसारी प्राणी सूक्ष्मत्व गुण को खो चुका हैं और सरल स्वभाव को खो चुका है। मृदुपने को खो चुका है। ऐसी स्थिति में वह खुद भी बाधित होता है दूसरों से और दूसरों को भी बाधित करता है। यह घनापन इसके (जल के) पास क्यों आया? और पहाड़ बनकर एक स्थान पर रहता तो फिर भी ठीक था, संकेत वगैरह से कार्नर मोड़ा ले लें। लेकिन जब पहाड़ ही कार्नर लेने लग जाये तो फिर बचें कैसे हम? कब ले ले, कैसे ले ले पता तक नहीं पड़ता और दूसरी बात यह है कि वह पहाड़ कैसे आते है, पानी के अग्र-भाग पर थोड़े दिखते रहते हैं। लेकिन नीचे कहाँ तक विस्तार रहता है पता तक नहीं पड़ता। अब हमें सोचना है, कि ज्ञान जब कठोर हो जाता है तब स्वयं को और दूसरों को खतरा पैदा कर देता है, मानी प्राणी के समान किसी के समान किसी के सामने झुकता नहीं है। मान का एक अर्थ ज्ञान भी है और मान का अर्थ कषाय भी है। जिसका ज्ञान बढ़ता चला जाता है उसको बोलते है वर्धमान, लेकिन गत-मान, वो मान से रहित है और वर्धमान है। ओर हम अर्धमान भी नहीं है हमारी स्थिति बहुत गड़बड़ है। हम मान चाहते हैं, कौन-सा मान चाहते हैं। और वह भी ज्ञान वाला नहीं कषाय वाला मान चाहते हैं। यह मान ज्ञान की एक विकृति है, ज्ञान के ऊपर ही कषाय का प्रभाव पड़ता चला जा रहा है। और उसका परिणाम यह निकल रहा है कि ज्ञान अपने जानने रूप काम (स्वभाव) को छोड़कर मान/सम्मान के चक्कर में फंसता चला जा रहा है। संसार के माध्यम से उसे कभी मान मिलने वाला नहीं है, संसार के द्वारा उस मान का कभी सम्मान होने वाला नहीं है। अज्ञानी क्या जानता है मान/सम्मान करना, मान-सम्मान करना तो ज्ञानी का काम है। और अज्ञानी जो है वह अज्ञानी के द्वारा स्वागत चाहता है, ज्ञानी तो कभी भी उस अज्ञानी का स्वागत करेंगे नहीं, किंतु जो अज्ञानी होगा वह बहकाव में आ जायेगा और कर लेगा। बड़ा विचित्र है, इसकी भूख को अब कैसे मिटाए? बात मान-सम्मान करने की है, मान मिलता जाता है और अपमान हो जाता है क्योंकि जो अन्दर बैठा हुआ मान (ज्ञान) है, वह इस प्रकार का खेल-खेल जाता है। इस क्षणभंगुर मान के पीछे संसार दौड़ रहा है जिसका कोई अस्तित्व नहीं उसके पीछे दौड़ रहा है। किन्तु जहाँ पर अनंत मान (ज्ञान) स्वागत के लिए खड़ा है उसके पीछे तो वह भागता नहीं है। उसके पास तो जाता नहीं है। उसको देखने का प्रयास ही नहीं करता। यहाँ पर यदि कोई एक व्यक्ति भी निरभिमानी होकर अपने आत्म स्वरूप का चिंतन करने लग जाता है तो सिद्ध परमेष्ठियों जैसा सुख-वैभव आनंद दिखने लगता (उन जैसा संवेदन प्रारम्भ हो जाता) है। उस आत्मा के अन्दर अनंतसिद्धों जैसा झलकन प्रारम्भ हो जाता है कि मैं भी इसी रूप में जाकर के मिलूगा। उसी कम्पनी, उसी टीम (पार्टी) में जाकर के मिलूगा। जो तीन लोक में मानियों (ज्ञानियों) की सबसे बड़ी टीम है। वहाँ पर बड़े छोटे का सवाल नहीं किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। ऐसा अनुपम अस्तित्व इसकी (अहंकारी /मानी) दृष्टि में नहीं आता। इसी मान की वजह से ही उस हिमखण्ड का पूरा का पूरा रूप देखने में नहीं आ रहा है। संसारी प्राणी नश्वर वस्तुओं के पीछे अपने स्वभाव को भूल रहा है और यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति कर रहा है। तब एक ने देखा इधर बैठे बैठे (क्योंकि जहाज पर बहुत सारे सदस्य रहते ही है) कहा कि यह थोड़ा भी टकरा जाता तो वर्षों की कमाई.....! और कमाई तो फिर भी ठीक है क्योंकि और कमा लेंगे लेकिन कमाने वाले का अस्तित्व भी पता नहीं पड़ेगा। ऐसा अद्भुत परिणमन ऐसी विषम स्थिति सोचकर के वह सबको कहता है - कितना! कठिन—तम पाषाण जीवन रहा हमारा कितने पथिक-जन ठोकर खा गए इससे रुक गये/ गिर गये/फिर गये कितने? फिर ! कितने! पग लहु-लुहान हो गये कितने? गहरे-घावदार बन गये समुचित उपचार कहाँ हुआ उनका ? होता भी कैसे? पापी-पाषाण से उपचार का विचार-भर उभरा इसमें आज! यह भी सुभगता का संकेत है इसके आगे पग बढ़ना संभव नहीं हे! प्रभो! यही प्रार्थना है, पतित-पापी की कि इस जीवन में नहीं सही अगली पर्याय में तो ....! मर.....हम.....मरहम बनें....! हे प्रभु यह प्रार्थना स्वीकार हो, कितना कठोरतम जीवन है हमारा क्षणभंगुर मान-सम्मान के लिए हमने अपने आपके जीवन को इतना कठोर बना दिया और यह एक जीवन में नहीं......दो जीवन में नहीं.बार-बार कई जीवन में! धिक्कार है संसार के मान के लिए। आज तक एक बार भी तो मान नहीं मिला और मिला हुआ जो स्वभावभूत ज्ञान मान है वह भी चौपट होता चला गया। निगोदिया जीवों में अक्षर के अनन्तवें भाग भी उस मान की (ज्ञान की) परणति हो जाती है। लेकिन जैसे-जैसे कषाय की कमी होती है तब हल्का होकर ऊपर उठता जाता है।..तो यह संसारी जीव निगोद तल से ऊपर उठता-उठता यहाँ तक आया है जैसा कि यह बर्फ का पाषाणखण्ड समुद्र में से तैरता-तैरता उठता-उठता यहाँ तक आया है और अब उस हिमखण्ड को ऊपर उठने में सहायक जल नहीं अब आकाश मण्डल है.केवल विकास। पतन से विकास होता-होता आया है। मनुष्य जीवन में आने के उपरान्त भी वह सारी की सारी पर्याय उस हिमखण्ड की भांति नीचे-नीचे दबा रखी है। ऊपर देखता हुआ मान-सम्मान के लिए आ रहा है। मुझे वह मान-सम्मान देता है तो ठीक है, नहीं तो ऐसा टक्कर मारूंगा. ऐसा टक्कर मारूंगा कि कुछ मत पूछो। क्योंकि मुझे उस जहाज को पाताल भेजना है। और स्वयं भी इस पर्याय हिमखण्ड की पर्याय को समाप्त कर जल में घुल मिलकर एकमेक होकर रहना है, उसी में घुल मिल जाना है। और अपने खोए हुए स्वभावभूत तरल अस्तित्व को प्राप्त करना है क्योंकि उस स्वभाव का सहारा लेकर हम स्वयं पार हो सकते है और जो कोई भी सहारा लेना वह भी द्रवीभूत होकर अनंत संसार से पार हो सकते हैं। यह तो हिमखण्ड ने सोचा, लेकिन आपने क्या सोचा? कितना कठिनतम है पाषाण जीवन तुम्हारा कितने पथिक ठोकर खा गए इससे, कितने गिरे, कितने रुके, कितने फिर गए पथ से, विपरीत दिशा में, कितने पग लहुलुहान हो गए और कितने गहरे हो गए घावदार वे पग, उपचार हुआ नहीं, न स्वयं का और न दूसरों का। उपचार करने के भाव आए आज तक? अब कुछ-कुछ भाव उभर रहे हैं,मृदुतामय सहानुभूति का सूत्रपात हो रहा है। यह भी सौभाग्य की बात है। फिर भी हे! भगवन्! एक बार तो अर्जी (प्रार्थना) मंजूर करो, इस जीवन में नहीं सही अगली पर्याय में तो मर-हम, मरहम बने। (श्रोता समुदाय में शांत संवेदनामय वातावरण) अब कम से कम अपने को मरहम बनना है, पारस मल्हम। एक पारस मल्हम है न, पैरों में यदि कोई छाले आए, चोट लगे और कुछ भी हो तो पारस मल्हम लगाते हैं। यह मल्हम शायद नीमच से निकलता है। लाल-लाल रहती है यह मल्हम, इसकी डिबिया भी बहुत ही बढ़िया रहती है। एडवरटाइजमेन्ट (विज्ञापन) तो कहना ही क्या, उस मल्हम का उपयोग दुनिया भर की चोटों को दूर करने में किया जा रहा है। लेकिन हम कषायों के माध्यम से कितने व्यक्तियों के पैरों में, कितने व्यक्तियों के मुलायम हृदयों में चोट पहुँचा देते है। कितना कष्ट कितनी वेदना.वो दिल ही जानते होंगे। वह दिल कहते हैं कि आपकी मरहम भी नहीं चाहिए हमें, किन्तु कम से कम मेरे ऊपर लट्टमार न करे तो बहुत अच्छा होगा। कैसा जीवन बना है हमारा। इतना कठोर हिमखण्ड के समान। और यह मत समझी, जो कहने वाला है और आगे कहेगा यह खुद भी उसी ग्रुप (पार्टी) का है इस प्रकार की हमारी स्थिति को देखकर के आचार्य महाराज कहते हैं कि अरे! संसारी प्राणी तू मान के पीछे क्यों पड़ा हुआ है? क्यों इतना कठोर अहंकारी बना हुआ है, पानी के स्वभाव को तो देखो कितना तरल है मुलायम हैं एवं सभी के लिए हितकारी है और वह सेठ उस हिमखण्ड को संबोधित करते हुए कहता है हे मानी प्राणी जरा देख ले इस पानी को और हो जा पानी......पानी....[मूकमाटी से.] लेकिन यह सब आज तो कथन तक ही सीमित रह गया है। हम मृदुता की बात करते हैं, हम ऋजुता की बात करते हैं, हम निरभिमानिता की बात करते हैं लेकिन बीच-बीच में वह टोकता रहता है कि देखो मुझे ज्यादा नीचे पीछे हटा दिया गया तो हम हड़ताल कर देंगे और ऐसे-ऐसे वो हड़ताल कर जाते हैं कि सामने वाले व्यक्ति का जीवन बहुत ही ऊँचा उठ गया हो तो भी पुन: वह एक बार और नीचे आ जाता है। उस उत्साह की बात, कुछ विशुद्धि के साथ परिणामों में उज्ज्वला पाकर के ऊपर पहुँच भी जाते हैं। लेकिन वह ऊपर की पहुँच जो है लहरों के साथ गई है और लहरों के ऊपर जिस समय नाव पहुँचती है उस समय ऐसा लगता है नाव तैर नहीं रही नाव उठ रहीं है। लेकिन नाव में उठने की क्षमता अपने आप नहीं आई। किन्तु लहरों के माध्यम से आई है, उसी प्रकार कर्म भी कभी-कभी उपशमित जैसा मंद/क्षीण जैसा हो जाता है। मान जब कुछ दबने जैसा हो जाता है तो ऐसे लगने लगता है कि हम तो बिल्कुल निरमिभानी हो गए, वर्धमान के पास पहुँच ही रहे है। लेकिन ज्योंही वह लहर नीचे आ जाती है तो लगने लगता है हम तो जमीन पर ही खड़े हैं। वे आसमान में हैं क्योंकि वे वर्धमान हैं, नीचे रहने का उनका काम नहीं है और उनके स्वागत के लिए हमें यहीं पर खड़ा रहना होगा। कभी भी आकर हम उनका स्वागत मान/सम्मान नहीं कर सकते। पहले से प्रतीक्षा करना पड़ेगी/हमें उन्हें यूं ही (ऊपर की ओर गर्दन मोड़कर इशारा) देखना पड़ता है और गर्दन के पास इतनी क्षमता कहाँ है कि उनको यूं ही देखते रह जाए। बार-बार मन में विचार उठता रहता है कि ऐसा कौन-सा अपराध इस संसारी प्राणी ने किया है और क्षण-क्षण / पल-पल करता जा रहा है। अपने स्वभाव को भूलकर विभाव परिणमन से परिणत हो रहा है। एक बार तो.इस जीवन में नहीं सही, लेकिन. मर. हम.बस मरहम बनें........! ऐसे मुलायम बन जाये ताकि कठोरता हमारे पास आए ही नहीं। लेकिन बात ऐसी है कि जिह्वा/रसना कह रही है उसके पास न आँख है, न दाँत है, न हड़ी है और कुछ भी नहीं है, यह मुड़ती रहती है बार-बार। रसना बहुत ही मुलायम मृदु है, लेकिन शब्द ऐसे निकालती है कि अच्छे-अच्छों के दाँत टूट जाए। रसना के ऊपर वह हलुआ खिसक जाता है इतनी मुलायम होती है वह, रसना के ऊपर आज तक किसी ने ठोकर नहीं खाई किन्तु रसना के माध्यम से (वचनों के द्वारा) ऐसे-ऐसे व्यक्ति ठोकर खा जाते हैं कि फिर जीवन पर्यत उस मुंदी चोट का अनुभव करते रहते हैं। उस चोट के दर्द को सहन करते रहते हैं। ऐसी इसके पास शक्ति है यह शक्ति कहाँ से आ गई? यह सब भावों की परणति है, अन्दर बैठी हुई उस आत्मा की विकारी परणति है। मान को अपने को जीतना है। वह मान प्रतिपल बंध को प्राप्त हो रहा है और होता रहेगा नवमें गुणस्थान तक। थोड़ी-सी स्थिरता बिगड़ जायेगी तो ऐसी-ऐसी मान की कठोर चट्टानें सामने आ जायेगी कि उनसे गुजरना दूभर हो जायगा। भगवान् महावीर जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो चुका है, समवसरण की रचना हो चुकी है, चारों ओर बुंदुभि बज रही हैं, पंचाश्चर्य हो रहे हैं, सब कुछ हो रहा है। असंख्यात देव तिर्यञ्च सभी आ रहे हैं समवसरण में आत्म कल्याण करने। किंतु प्रभु मौन है कोई जान नहीं पा रहा है किसकी कमी है यहाँ पर? सब चिन्ताग्रस्त थे। इन्द्र को यह बात अवधिज्ञान के माध्यम से ज्ञात हुई कि एक ऐसे शिष्य की कमी है जो कि उनकी उस दिव्य वाणी को सुन सके, समझ सके। वह कौन है शिष्य? इन्द्र समझ गया इन्द्रभूति होना चाहिए, किंतु इन्द्रभूति की गर्दन में साईटिका हो चुकी है. इसलिए वह मुड़ती ही नहीं। वह ऐसी बैल के सींग के समान जबरदस्त है कि मेरे सामने कोई है ही नहीं। नो (NO) कोई नहीं, आइ एम ओनली (I am Only) केवल मैं ही हूँ। वह भी है. ऊं हूँ, दूसरा संभव ही नहीं। हो कैसे सकता है? मेरे सामने.नहीं। पीछे संभव है, नीचे संभव है। आजू-बाजू संभव है लेकिन सामने.ऊं हूँ। अब इन दोनों का मेल कैसे हो, कौन मुड़े? वह भी (महावीर) ऊपर अड़ गए कि हम नीचे नहीं उतरेंगे और यह (इन्द्रभूति) कहते हम नहीं जायेंगे किसी के पास। वा भैय्या......वा, वो भी मान का तमाशा और यह भी मान का तमाशा । वो भी (इन्द्रभूति) मानी है, और यह भी (महावीर) मानी (ज्ञानी) है। दुनियाँ कह रहीं है कि भैय्या एक तो मानलो। इन्द्र समस्या में उलझा हुआ है कि किसके पास जाए। वर्धमान कुछ कह नहीं सकते और यह इन्द्रभूति महावीर के पास जा नहीं सकते। कुछ न कुछ तो उपाय करना ही होगा, ऐसा विचारकर इन्द्र ने माया की शरण में जाना ही उचित समझा। और इन्द्र ने अपना रूप बदलकर वृद्ध ब्राह्मण का भेष बनाकर इन्द्रभूति के सामने विनम्रता पूर्वक एक प्रश्न रख दिया। और कहा कि इसका अर्थ क्या है? समझाओ! इन्द्रभूति पूछने लगा तुम कहाँ से आए हो? यह प्रश्न किसने दिया? वह (वृद्ध ब्राह्मण) कहने लगा कि हम तो वहाँ से (महावीर के पास से) आए हैं। अर्थ हमें समझ में नहीं आया है, आपके अलावा यहाँ पर इतना ज्ञानी कौन हैं? इसलिए यह प्रश्न मैंने आपके सामने रख दिया। आपके गुरु कौन हैं? महाराज वो वहाँ पर हैं। जल्दी बताओ कहाँ पर हैं? उन्हीं को तो देखना हैं। अपने को क्या करना हैं, प्रश्न तो ऐसे यद्वा तद्वा उठते ही रहते हैं, आपको जो कठिनाई आ रही है, उसको वही पर चलकर हल करेंगे और आपके गुरु से भी वही पर मुलाकात हो जायेगी। आजकल तो बहुत सारे गुरु बन रहे हैं, ये नये नये कहाँ से आ गये गुरु.होगा कोई इन्द्रजालियाँ, ऊपर चढ़कर सिंहासन पर और तमाशा दिखा रहा है। बैठ गया भोली भाली जनता को ठगने का अच्छा तरीका अपना रक्खा है। चलो तुम मेरे साथ अभी पाँच मिनट में ठीक कर दूँगा तुम्हारे गुरु को और ज्योंहि समवसरण के पास जाकर मानस्तम्भ को देखता है त्योंहि पानी-पानी हो जाता है। भीतरी ज्ञान जो मान रूपी रथ पर आरूढ़ था वह नीचे उतर गया। ऐसा उतर गया......ऐसा उतर गया कि 'बस तर ही गया।' आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय। यूँ कबहूं इस जीव को साथी सगा न कोय। (भूधरदासकृत बारह भावना) इस जीव को अकेला ही जन्म लेना पड़ता है और अकेले ही मरण करना पड़ता है। इस संसार मैं अपनी आत्मा के अलावा सगा-सच्चा साथी इस जीव का कोई नहीं है। वह इंद्रभूति भगवान् महावीर का दर्शन करता हुआ कहता है कि अभी तक कितना कठिनतम पाषाण जीवन रहा हमारा.......;किन्तु अब पाषाण खण्ड, पाषाण खण्ड ही नहीं रहा अब तो इसमे बहुत कुछ रौनक आ गई, पाषाण भी बहुत मुलायम होते हैं। अरे भैय्या पाषाण को भी यदि किसी अच्छी वस्तु का पुट मिल जाये तो उसमें भी निखार आ जाता है। एक से बढ़कर एक पहलू पाषाण में निकाले जाते हैं। मूंगा,नीलम, कोहिनूर आदिक क्या हैं? पाषाण ही तो हैं। मात्र पाषाण खण्ड के ऊपर ही नहीं कठोर से कठोरतम, मानी से मानी जीवों में भी कई पहलू (सुन्दरता का निखार) निकाले जा सकते हैं। उन पहलुओं में भी दर्पण के समान अपने मुख को देख सकते हैं। लेकिन कठोरता को हटाकर उसमें मुलायमपना, सुन्दरता लाने की विधि अलग है। बड़ा परिश्रम करना पड़ता है उसे कीमती बनाने में। मान में परिणत हुआ ज्ञान वहाँ जाकर के नतमस्तक हुआ और जो मैंने पहले कहा था कि ज्ञानावरण पाँच कर्म होते हैं, आठ नहीं होते, मिथ्यात्व के कारण ही तीनों मति, श्रुत, अवधि ज्ञानों में विपरीतता आती है, अत: ज्ञानावरण कर्म के मूल भेद पाँच ही है आठ नहीं जो ज्ञान उनका (इन्द्रभूति का) उल्टा था वह पलट गया, सही-सही समीचीन हो गया। यह दृश्य सब देखते रह गए और वह इन्द्रभूमि चन्द ही मिनटों में दीक्षित होकर भगवान् का प्रथम शिष्य बन गया। क्या महावीर ने बनाया? यदि महावीर ने बनाया होता तो ६६ दिन रुकते नहीं पहले ही बना लेते। लेकिन महावीर को बनाना नहीं था इंद्रभूति को बनना था। जब उसकी आँखें खुले तब काम बने। आप ऑख बंद करके बैठो और कहो कि सूर्य का उदय हुआ कि नहीं कुछ दिखता तो नहीं।......तो भैय्या क्या आँख के भीतर ही आ जाये सूर्य? (श्रोता समुदाय में हँसी), बन्धुओ! जरा सोचो तो वह कैसे आयेगा? आपको जागृत होकर उठना पड़ेगा, उस उपादेय तत्व की प्राप्ति हेतु पहले से प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। वस्तु तत्व की इतनी ही मर्यादा है वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता-एक बार एक मुहावरा पढ़ा था, 'तिल की ओट में पहाड़' क्या मतलब हुआ। इसका? तिल तो इतना छोटा है और पहाड़ इतना बड़ा। तिल की ओट में पहाड़ यह कुछ समझ में नहीं आया। पहाड़ की ओट में तिल कहते तो फिर भी ठीक था। लेकिन यह कैसे? मुहावरा बनाते समय उसका ज्ञान विपरीत तो नहीं हो गया था। लेकिन यह बात सही है कि तिल की ओट में ही पहाड़ होता है। हम यदि आँखों के सामने जहाँ पर काली-काली गोलक बनी रहती है एक छोटा-सा तिल रख लें तो सामने वाला सारा का सारा पहाड़ समाप्त हो जाता है। मधुवन जैसा विशाल पहाड़, पाश्र्वनाथ हिल जो कि लगभग आठ हजार फीट वाला है, वह भी नहीं दिखेगा। मतलब यह हुआ कि हम आँखें खोले तो दिखे वस्तु तत्व। वस्तु तत्व बहुत बड़ा है, विशाल है लेकिन हम सब गड़बड़ कर देते हैं कषायों के वशीभूत होकर। केवलज्ञान होने में कोई देर नहीं लगती यदि कषायों से दूर हटकर हम अपने उपयोग को अपनी आत्मा में लगाए तो खटाक से केवलज्ञान हो सकता है। कषायों को तो रखें हम अपने पास और निष्कषाय की बात करें। यह बात शोभा नहीं देती। दिनों-दिन ऐसा होता जा रहा है ऐसी धारणा बनती जा रही है। अब बोलने-लिखने का कार्य बिल्कुल कम होना चाहिए। कुछ ऐसी दुकानें होती हैं जहाँ पर दुकानदार बहुत बोलते हैं कुछ दुकानें ऐसी होती हैं जहाँ बोलने के लिए कुछ होता ही नहीं। विदेशों में दुकानों में सारी की सारी वस्तुएं रखी रहती हैं उन पर मूल्य लिखा रहता है। ग्राहक दुकान पर आता है और बिना बातचीत किए पैसा रखता और वस्तु लेकर चला जाता है। यह विदेशी पद्धति है। इसी प्रकार अब हमें करना है, ज्यादा बोलने से कीमत बढ़ने वाली तो है नहीं। ज्यादा कीमत बता करके नीचे आने से वस्तु तत्व का मूल्य और कम हो जाता है किन्तु इस प्रकार की आप लोगों को आदत ही पड़ चुकी है। दुकान पर ग्राहक के आते ही दुकानदार समझ जाता है कि ग्राहक किस प्रकार का है और ग्राहक भी दुकानदार को समझता है। अब-देखिये आप-ग्राहक दुकानदार से कहता है एक धोती का जोड़ा निकाल दो इस-इस (कोई भी नाम) डिजायन की, अच्छी क्वालिटी वाली। ग्राहक पूछता है, सेठ जी इसके दाम कितने हैं? आजकल तो क्या बतायें बाजार का हाल, सबमें दसगुणा होता जा रहा है। जिस प्रकार वस्तुतत्व में दस गुणी वृद्धि और दस गुणी हानि हुआ करती है, उसी प्रकार बाजार के भाव दस-दस गुणें, सौ-सौ गुणें, हजार-हजार गुणें, बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए भैय्या सही-सही मैं कह देता हूँकि सौ रुपए जोड़ा कीमत है। ग्राहक कहता है क्या कहा सौ रुपए जोड़ा? कहीं सोकर के तो नहीं आ रहे हो। जल्दी में सौ रुपए जोड़ा कहने लगे, जैसे घर का ही काम हो चाहे जितना मूल्य रखते जाओ। घर का ही काम समझ रक्खा है व्यापारियों ने, ऐसा झुंझलाते हुए उस ग्राहक ने कहा । पुन: वह कहता है कि सेठ जी यदि आपके धोती के जोड़े की कीमत १०० रुपए बढ़ गयी तो हमारे दाम की भी कीमत नहीं बढ़ी होगी क्या? ध्यान रखो १०० रुपए कीमत कह रहें हो कहीं नींद तो नहीं लगी है, सपने में तो नहीं कह रहे हो? हम तो १० देते हैं, एक ही तो शून्य कम हुआ है, देना हो तो दे दो नहीं तो कोई दूसरी दुकान तलाशते हैं। दुकानदार भी ग्राहक की जेब में हरे-हरे नोटों का बंडल देखता है तो ललचा जाता है। ग्राहक जब दुकान से उठकर चलने लगता है तो फिर सेठ जी कहते है.......ये ना पचास दे दी, पचास रुपये! एकदम इतने कम, क्या भाव उतर गया बाजार का? माल तो वो ही है। अरे भैय्या आप समझते तो है नहीं......भाव नहीं उतरा। .अभी-अभी फोन आया है कि पचास रुपये में दे सकते हो किन्तु पचास से कम नहीं करना। ग्राहक कहता है......ऐसा करो मैं दस मिनट और बैठ जाता हूँ ताकि दूसरा फोन और आ जाये तो अच्छा रहेगा (श्रोता समुदाय में हँसी) ज्यादा से ज्यादा हम बारह रुपये देते हैं, कोई बात नहीं २५ कर लो, नहीं-नहीं। साढ़े बारह भी नहीं। पन्द्रह कर लो चलो कोई बात नहीं। चौदह कहने लग जाते हैं, कोई बात नहीं भैय्या १३ दे दो, लो ले जाओ, अच्छी बात है कहता हुआ ग्राहक १३ रुपये में खरीद लेता है (व्यापारियों में विशेष हँसी)। इसका मतलब क्या हुआ? तो ऐसा करने से वस्तुतत्व का मूल्य घट जाता है। १०० रुपये में कह करके १३ रुपये में बेचने की अपेक्षा, पहले ही १३ रुपये कह दो और ग्राहक को सचेत कर दो कि इसमें एक पैसे का भी फेरबदल नहीं होगा। कृपा कर आप मेरी दुकान पर पाँच मिनट से ज्यादा न बैठे, खरीदना हो तो ठीक-नहीं तो ठीक। भाव एक ही रहेगा ध्यान रखना। इस प्रकार करने से न तो नौकरों की आवश्यकता न समय व्यर्थ खर्च होगा, न ग्राहकों से विसंवाद और न ही इनकमटेक्स ऑफिसर का डर। वह इनकमटेक्स वाला ऑफिसर आयेगा कहेगा कम से कम चाय तो पिला दो, क्यों चाय पिला दो! सीधे नाक की सीध में चले जाओ वहाँ पर होटल है (श्रोता समुदाय में हँसी) लेकिन ऐसा वही व्यक्ति कह सकता है जो ईमानदारी के साथ व्यापार करता है। जो व्यक्ति सौ के दो सौ लेता है उस व्यक्ति के लिये ही चाय पिलाने की आवश्यकता पड़ेगी चाय पीने का मैं विधान नहीं कर रहा, वह तो छोड़नी ही चाहिये किन्तु आप लोगों की आदत बता रहा हूँ वही ऑफिसरों के आगे पीछे घूमा करता है। यहाँ पर तो सारा का सारा विषय कषायों का ही बाजार है। जैसे वस्तुतत्व का एक ही भाव हुआ करता है वैसे ही आप भी अपनी वस्तु का एक ही भाव रखिये। ज्ञान को आप ज्ञान के रूप में ही आँकिए। ज्ञान के द्वारा खोटा काम करना गलत है। उपयोग का उपयोग करिए आप। किन्तु आप लोगों की यह विशेषता है कि आप लोग उपयोग (ज्ञान-दर्शन) का दुरुपयोग करते हैं। इसी में सुख शांति का अनुभव करते हैं। संसारी प्राणी का यह रिकार्ड है कि आज तक यह उपयोग का दुरुपयोग ही करता आया है। किन्तु जिसने अपने अस्तित्व की सही-सही पहचान कर ली, वह फिर तीन काल में भी उपयोग का दुरुपयोग नहीं कर सकता। नित्यावस्थितान्यरूपाणि द्रव्य नित्य है अवस्थित है उसके गुण नित्य हैं अवस्थित हैं। जितने गुण थे, उतने ही हैं, और आगामी काल में भी रहेंगे। उनमें किसी प्रकार का घटन-बढ़न, फेरबदल सम्भव नहीं। जब यह लक्षण बाँध दिया गया तो उसका दुरुपयोग करना, वस्तुतत्त्व को मनचाहा परिणमाने का प्रयास करना अहंकार का एक रूप है और यही तो कषाय है। वस्तुतत्व की सही-सही परख और उसका सदुपयोग करने वाला ही ज्ञानी होता है। इससे हटकर पक्षपात के वशीभूत होकर विषय कषायों की पुष्टि के लिए जो वस्तुतत्व का विवेचन-व्याख्यान होता है वह समीचीन नहीं माना जाता, असमीचीन रहता है, महान अज्ञानता मानी जाती है। हमें मान करना है, लेकिन किसके ऊपर? मान करो तो ऐसा करो कि दूसरे की तरफ देखो ही नहीं.....है कोई ऐसा मान करने वाला इस सभा में? आप दूसरे के द्वारा वाह-वाह चाहते हैं लेकिन किसी दूसरे का सम्मान करना नहीं चाहते......तो अर्थ यह हुआ कि न ही इसको मान मिलेगा और न ही केवलज्ञान मिलेगा। यदि केवलज्ञान चाहते हैं तो दूसरे को भूल जाओ, दूसरे को भूलना ही तो एक प्रकार से उसको नहीं मानना है। एक का तिरस्कार करना और एक को आवश्यक नहीं समझना इसमें बहुत अन्तर है। यदि दूसरों से आदर, सत्कार, नमस्कार चाहते हो तो दूसरों का तिरस्कार मत करिए। यदि ज्ञान स्थिर हो जाये, उपयोग का परिणमन सहज स्वरूप जैसा होने लगे तो केवलज्ञान प्राप्त होने में देरी नहीं, एक सेकेंड भी नहीं लगेगा और वह अक्षय अनन्त अविनाशी केवलज्ञान खटाक से उत्पन्न हो जायगा। ज्ञान यदि पदार्थों की ओर जा रहा है, पदार्थों से प्रभावित हो रहा है तो गलत काम कर रहा है। ज्ञान जब पदार्थों की और नहीं जायेगा तो जितने पदार्थ है वे सारे के सारे ज्ञान में झलक आएंगे। इसी का नाम है केवलज्ञान। पदार्थों का ज्ञान झलक आना खतरनाक नहीं है, किन्तु सही खतरा तो उद्यमशील ज्ञान में है जो कि विश्व को जानने में लगा हुआ है। जो विश्व को जानने का प्रयास करेगा वह कभी भी सर्वज्ञ बन नहीं सकता किन्तु जो स्वयं को जानने का प्रयास करेगा वह स्वयं को तो जान ही जायेगा, साथ-साथ सर्वज्ञ (केवलज्ञानी) भी बन जायेगा। लेकिन इतना माध्यस्थ होना, इतना अपनी वस्तु को महत्व देना खेल नहीं है। बहुत बड़ा काम है, बहुत अधिक पुरुषार्थ की जरूरत है। बल्कि यह कहना चाहिए कि यही एक शेष काम बचा है करने योग्य। बाकी सब काम अनन्तों बार कर चुके, लेकिन प्रयोजनभूत तत्व की उपलब्धि आज तक नहीं हुई। अब या तो आप दुनिया को समता की दृष्टि से देखिए ही नहीं। कोई भी बड़ा छोटा नहीं है सब एक समान है यदि इस प्रकार समता आ जाती है आपके जीवन में......तो आपकी यह बलिहारी है। यदि विश्व को देखकर पर पदार्थों को देखकर समता नहीं आती है तो क्यों किसी की ओर जाते हो? अपने आप में बैठे रहिए न, क्या बात हो गई। दो व्यक्ति थे, एक सेठ साहूकार था दूसरा गरीब। अमीर ने गरीब को दबाने का प्रयास किया तो गरीब कहता है हाथ जोड़कर भैय्या! सेठ जी आप अपने घर में होंगे, हम अपनी कुटिया में सेठ। जब हम आपके घर पर कुछ माँगने आए तो अपना सेठपना दिखाना। यह तो गवर्नमेंट का रोड है ध्यान रखना। यह सब अभिमान अपने घर में करिए। मान करना सबसे ज्यादा प्रिय काम है संसारी प्राणी का। एक स्थान पर ऑग्ल कवि ने लिखा है उसका भाव में आप लोगों को बता रहा हूँ कि यह व्यक्ति अपना जन्म स्थान छोड़ सकता है, अपने परिवार को छोड़ सकता है, अपनी मित्र मंडली को छोड़ सकता है, अपनी संपत्ति आदि सब कुछ छोड़ सकता है। विषय-कषाय, ऐश-आराम सब कुछ छोड़ सकता है, शरीर के प्रति निरीह भी हो सकता है। लेकिन इसके उपरान्त एक खतरनाक घाटी और आती है उस साधक के जीवन में, उस घाटी में प्राय: करके ब्रेक डाऊन हो जाती है (ब्रेक फेल हो जाती है) वह घाटी क्या है? "Going behind reputation is the last weakness of Saint." ख्याति-पूजा के पीछे भागना यह साधक की अंतिम कमजोरी है। इस कमजोरी के उपरान्त शेष कोई कमजोरी है ही नहीं। साधक लोग सबसे ज्यादा इसी घाटी में फेल हो जाते हैं। सब घाटियों को पार करने के उपरान्त इस महाघाटी को भी सावधानी पूर्वक पार करना ही साधक का सच्चा पुरुषार्थ माना जाता है। एक बार यदि इस घाटी में पैर फिसल जाता है तो पुन: उठना बहुत मुश्किल है। अत: समय रहते हुए सचेत हो जाओ बन्धुओ! और इस घाटी से मुख मोड़कर अपनी ओर आ जाओ। साधक आत्माओं की साधना तो अलग ही प्रकार की रहती है। कैसी रहती है - निंदा करें स्तुति करें तलवार मारे या आरती मणिमयी सहसा उतारें। साधु तथापि मन में समभाव धारें, बैरी सहोदर जिन्हें इकसार सारे। निजानुभवशतक/७४ यह साम्य पारिणाम। कोई निंदा करे, कोई स्तुति करे, कोई आरती उतारे, कोई मारे कुछ भी हो श्मशान हो, भवन हो या वन हो, कोई मतलब नहीं जिसको हमने छोड़ा है, पर जान करके, पर मान करके फिर यदि उसकी ओर हमारी दृष्टि जाती है तो उस दृष्टि में अभी वीतरागता की ओर कसर है। यदि यह कसर, यह कमी दृष्टि से नहीं निकली तो समझो कुछ निकला ही नहीं। सही तो दृष्टि में ही कचरा है। जब दृष्टि विलोम हो जाती है, तो वह वस्तुस्थिति की सही-सही पहचान न कर उसे अयथार्थ रूप से (कुछ का कुछ) ग्रहण करने लगती है। जब एक बार धारणा बन गई तो वह गुम क्यों हो गई? कमजोर धारणा हमेशा खतरनाक मानी जाती है। सही तो दूष्टि की ही दूढ़ता होती है और दृष्टि की दृढ़ता से ही आचरण में दूढ़ता आती है। यह एकांत भी नहीं है क्योंकि यदि दृष्टि में चंचलता है तो वह नियम से जल्दी-जल्दी चल नहीं सकता। उसके चलने में हमेशा अस्थिरता ही रहेगी। गाड़ी की तेजगति प्रदान करते समय दृष्टि की निस्पंदता परम अनिवार्य है। इसलिए चश्मा वगैरह (या और कोई वस्तु) लगा लेते हैं जिससे पलक वगैरह भी न झपकाना पड़े। ८० किलोमीटर की रफ्तार से गाड़ी जा रही है किन्तु असावधानी पूर्वक एक पलक भी झपक जाये तो एकाध दो फलाँग गाड़ी यूं ही चली जाती है और एक्सीडेंट हो जाता है। सावधानी पूर्वक दृढ़तापूर्वक रहकर जीवन की गति में रफ्तार देना बहुत कठिन है। जब वस्तुतत्व ही इतनी तेज रफ्तार से घूम रहा है और यदि हम पलक मारकर प्रमादी बन कर दूसरों की तरफ देखने लगें तो कितने पीछे रह जायेगें? ज्ञात भी नहीं रहेगा कि हम किस बिन्दु पर खड़े थे। आप लोग दुकान में मापतौल करते हैं तो कैसे करते हैं, एक.....एक एक दो, दो.....दो दो तीन, ऐसा क्यों करते हैं? इसलिए करते हैं कि कहीं भूल न हो जाए। लेकिन आप लोग चालाकी क्या करते हैं? यदि सामने वाला थोड़ा इधर......उधर देख रहा है तो गिनती करते हैं। एक......एक एक दो, दो......दो चार (श्रोता समुदाय में हंसी) यह भी हो सकता है आप वस्तुतत्व को देखना चाहते हों। ज्ञान कहीं अन्य लोगों (पदार्थों) की ओर चला जायेगा तो क्या होगा? बंधुओ! मुनाफा होगा......नहीं, मुनाफा नहीं होगा। इसी प्रकार ज्ञान को हम यदि क्रोध की ओर, मान की ओर, माया की ओर, लोभ की ओर ले जायेंगे तो हानि ही हानि होगी, ज्ञान को तो अपनी आत्मा में ही केन्द्रित करना चाहिए। आत्मा की ओर आते ही ज्ञान का उपयोग केवलज्ञान प्राप्त कराता है, मान से रहित अनन्त मान (ज्ञान) प्राप्त कराता है। सावधान रहने की बड़ी जरूरत है, मानी व्यक्ति कभी सावधान हो नहीं सकता, मान का अर्थ तो है असावधान, लेकिन यह नहीं समझना चाहिए कि ज्ञान का अर्थ भी सावधान नहीं है। ज्ञान की स्थिरता ज्ञान की अप्रमत्त दशा का नाम है सावधान। एक शब्द अवधान भी है, अवधान का अर्थ ज्ञान की धारणा ज्ञान की सामथ्र्य। ज्ञान की एक प्रकार से जाग्रति। मात्र ज्ञान तो सोया हुआ ही रहता है और निगोदिया जीव भी कितना सोया हुआ रहता है? बहुत सोया हुआ रहता है। बहुत सो गया (सोता तो नहीं) उसके पास अवधान शक्ति नहीं है। यदि आप ज्ञान को जागृत रखोगे तो आपके ज्ञान की मात्रा का अवधान बढ़ता चला जायेगा और जितने-जितने आपके ज्ञान के अवधान की मात्रा बढ़ती चली जायेगी, उतने-उतने आप केवलज्ञान के निकट पहुँचते जाओगे। एक बार एक लेख पढ़ा था, कोई पचास अवधानी होता है कोई शतावधानी होता है। इसका मतलब क्या? मतलब यह है कि ज्ञान की स्थिरता मालूम पड़ती है। और ज्ञान की स्थिरता यह बात कह रही है कि इसके अवधान अर्थात् धारण करने की इतनी क्षमता है। जब तेज रफ्तार से गाड़ी जाती है उस समय उस पटरी में हलचल मच जाती है। आप लोगों की भी ज्ञान की ऐसी ही पटरी है कि दो किलोमीटर गाड़ी चलती नहीं और फैल हो जाती है। आजकल तो चार सौ-चार सौ किलोमीटर की रफ्तार से गाड़ी चलती है। पटरी कितनी मजबूत होगी, आजू-बाजू के स्थान कितने मजबूत होंगे। विश्वास के साथ इतना सारा माल भरकर सेठ-साहूकार बैठ जाते हैं यात्रा करते हैं। कितना विश्वास! कितनी धारणा!! कितनी मजबूती!!! लेकिन आप लोगों के अवधान क्या बतायें हम? एक अवधान भी सही-सही नहीं और शतावधान की बात करते हैं। जरा विचार तो करो ! हमारा ज्ञान शतावधान कैसे बनेगा? इधर-उधर की चंचलता रहती है। मान की वजह से ही ज्ञान का मूल्य कम होता जा रहा है। मान की वजह से ही हमारा ध्रुव (लक्ष्य) बिल्कुल खिसकता चला जा रहा है, मान की वजह से ही हमारा पतन हो रहा है एवं हम दूसरों की दृष्टि में कठोर बने हुए हैं। यदि आप मृदुता रूप मार्दव धर्म का आनन्द (अनुभव) चाहते हो तो मान का अवसान अनिवार्य है। इसी विषय से संबंधित एक कविता दे रहा हूँ जिसमें भाव यह है कि भगवान् के पास पहुँचने में, अपनी आत्मा के पास पहुंचने में क्या करना आवश्यक होता है तो प्रभु के विभु त्रिभुवन के निकट जाना चाहते हो तुम.....! उस मन्दिर में जाने टिकट पाना चाहते हो तुम......! वहाँ जाना बहुत विकट है मानापमान का अवसान! अनिवार्य है सर्व प्रथम...........! जिस मन्दिर का चूल शिखर गगन चूम रहा है और प्रवेश द्वार धरती सूँघ रहा है वहाँ जाना बहुत विकट है। (डूबो मत, लगाओ डुबकी) शायद समझ में नहीं आया होगा आप लोगों को इसका अर्थ। देखो कितने बड़े-बड़े मन्दिर बने हुए हैं जिनके शिखर देखने से ऐसा लगता है जैसे आकाश छूने को लालायित हो। इसी पपौरा क्षेत्र के मन्दिरों को देख लीजिए कितनी विशाल शिखरें हैं। आप कितने ही ऊँचे हो लेकिन देखते समय टोपी हो तो टोपी गिर जाये, साफा हो तो साफा गिर जाये और यदि साफा को बाँधनें का प्रयास करोगे तो आप स्वंय गिर जाओगे (श्रोता समुदाय में हँसी) इतना विशाल इतना बड़ा शिखर है मन्दिर का। इस प्रकार का आकर्षण देखकर हर कोई व्यक्ति कहता है कि चलो भगवान् के पास जल्दी– जल्दी चलो तो वहाँ पर कहते हैं, खड़े हो जाओ और सावधान होकर सामने देख लो क्या बना हुआ है?'प्रवेश द्वार जो कि धरती सूघ रहा है। वह कहता है तुम सेठ साहूकार हो तो अपने घर के, यहाँ पर तो झुकना ही पड़ेगा। मंदिर निर्माण कराने वालों ने दरवाजे छोटे-छोटे बनाए क्योंकि उनका कहना है कि हम दरवाजा तो बड़ा बनाना चाहते थे किंतु पैसे कम पड़ गए, हमने सारा का सारा पैसा, शिखर बनाने में लगा दिया और हम बड़ा बनाना भी नहीं चाहते किंतु बड़ों को झुकाने का प्रशिक्षण अवश्य देते हैं इस प्रकार के मन्दिर और छोटे-छोटे प्रवेश-द्वार बनाकर। ताकि उनकी थोड़ी रीड़ मुड़ जाये/झुक जाए। जो काम अस्पताल में नहीं होता, वह मन्दिर में प्रवेश करते समय हो जाता है। आप झुककर के आइए, अपने अहंकार को गलाइये, भगवान् के सामने नत मस्तक हो जाइए फिर अपने आप में लीन हो जाइए। फिर वहाँ से वापस लौटने की इच्छा नहीं होगी। इस प्रकार के लक्ष्य को रखकर ही छोटे-छोटे दरवाजे बनाए जाते थे। लेकिन आज की बात क्या बतायें, जमाना इनलार्जमेंट (विस्तार) का है। लेकिन हमारा तो कहना है कि यदि और कोई सार्टहैंड हो तो उसी का प्रयोग करो ताकि ये लोग झुककर ही नहीं बैठकर के प्रवेश करें उस पवित्र मन्दिर के अन्दर जिसका शिखर गगन चूम रहा है और उन्हें प्रवेश द्वार के छोटा बनाने का रहस्य भी ज्ञात हो जाए। मान को समाप्त करने का यह बहुत आसान तरीका है। अन्यत्र स्थानों पर हमने बहुत सारे मन्दिर देखे लेकिन एक साथ सामूहिक रूप से समतल भूमि पर इतने सारे विशाल शिखरों वाले मन्दिर इस क्षेत्र की ही देन है। लेकिन इस क्षेत्र के आसपास रहने वाले व्यक्ति कहें. हमारी देन है तो नहीं, ऐसा मत कहिए, इनसे सीख लीजिए। इन मन्दिरों पर क्या किसी का नाम लिखा है कि उन्होंने (किसी व्यक्ति का नाम) बनवाया था। एक-एक शिखर के जीणोंद्धार के लिए आज हजारों रुपये भी लगा दिए जाये तो भी यह मजबूती नहीं आ सकती। अभी भी कुछ मन्दिर ऐसे हैं जिनके जीणोंद्धार की कोई आवश्यकता नहीं। इतना महान् कार्य कराने के उपरान्त, इतनी सम्पति खर्च करने के उपरान्त भी किसी के मन में नाम लिखवाने की भावना तक नहीं हुई। नाम यह मान का प्रतीक है, मान को घटाने के लिए अन्यत्र कोई स्थान नहीं था। इसलिए भगवान् के पास आकर के उनकी पूजा, स्तुति, गुणगान करके घटा रहे हैं और जहाँ तक नाम की बात है सो हमारा नाम आतमराम है। उसे लिखना है तो लिखिए, लेकिन वहाँ पर आतमराम का भी इतना महत्व नहीं है, क्योंकि परमात्मा बैठे हुए हैं। अत: बंधुओ आज तक नाम, काम, पर्यायबुद्धि के वशीभूत होकर जो बहिरात्मा बने हुए हैं उसे छोड़कर अन्तर आत्मा बनना चाहिए। दौलतराम जी अपने छहढाला में क्या कहते हैं ?- बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजे। परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनंद पूजे। (छहढाला ३/६) कैसे हैं हमारे परमात्मा? अपनी आत्मा के आनन्द में लीन हो चुके हैं। अत: बंधुओं! हमेशा परमात्मा का ध्यान किया करो और अन्तरात्मा बनकर बहिरात्मा को तिलांजलि दे दी। यह नाम उस बहिरात्मा की ओर ले जाने वाला है। नाम का अवसान ही आत्मा और परमात्मा से मेल कराने में कारण है। मन्दिर में प्रवेश करते ही घर, परिवार, धन, संपत्ति सब कुछ समाप्त हो जाता है, बाहर क्या हो रहा है? पता तक नहीं पड़ता और अन्दर भगवान् और भत के अलावा कुछ रहता ही नहीं। ऐसे-ऐसे मंदिर हैं जहाँ पर बैठकर के घंटों-घंटों सामायिक की जा सकती है ध्यान लगाया जा सकता है ऐसा करने के उपरान्त भी दिल नहीं भरता। किन्तु जो व्यक्ति पेट भर खाकर के भीतर जायेगा तो वह बैठ नहीं सकता ध्यान नहीं लगा सकता, क्योंकि वहाँ पर एयरकंडीशन्ड (वातानुकूलित) व्यवस्था के मंदिर हैं। गर्मी के दिनों में लू नहीं लगती और सर्दी के दिनों में ठंडी नहीं लगती। ऐसे वातानुकूलित हैं ऐसे वातानुकूलित हैं कि बस भगवान् से ही बात होती हो। केवल इन्ट्रेस्ट (रुचि)चाहिए। भीतर जाने के उपरान्त घंटों-घंटों मान का अवसान हो सकता है। भगवान् का दर्शन मात्र होने से भक्त अपने आपको धन्य मानने लगता है। वह कहता है कि भगवन् आप तो धन्य हो ही आपका जीवन तो महान है ही किन्तु आज में भी धन्य हो गया, कृतकृत्य हो गया, यह दोनों नेत्र सफल हो गए आपके दर्शन पाकर। प्रभु का जीवन कितना मुलायम है कितना नाजुक है, बिल्कुल शुद्ध सौ टंच सोने के समान और हमारा जीवन कितना पाषाण जैसा कठोर है। भगवान् के प्रति हम क्या कर सकते हैं, हमारे पास है ही क्या? केवल छोड़ने के लिए राग-द्वेष, विषय कषायों के अलावा और कुछ भी तो नहीं है। हम किन वस्तुओं को दिखाकर के खुश कर सकते हैं? और हमारी वस्तुओं को देखकर के खुश होने वाले नहीं हैं भगवान्! लेकिन उन वस्तुओं के विमोचन से अवश्य खुश होते हैं भगवान। लेकिन हम आपके समान कषायों को छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हैं। आप तो बहुत ही बलवान हैं! कषायों को छोड़ना ही सही मायने में छोड़ना है, त्याग है। इन्द्रभूति ने ज्योंही देख लिया, बस उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं। पहले प्रभु का दर्शन किया मानस्तम्भ का दर्शन हुआ, इसके पहले इन्द्रभूति ने उपदेश नहीं सुना और बिना उपदेश के ही सारी की सारी बात उन्होंने सुन ली, जो भगवान् महावीर कहना चाहते थे। वह (इन्द्रभूति) बिना बोले ही समझ गए-क्योंकि उनका मान गल गया था और मार्दवता, मुलायमपना आ गई थी। जो मान था उसका प्रमान (ज्ञान) के रूप में आविर्मान होने लगा। वह तो पहले से ही सब कुछ जानते थे उन्हें अब सुनने की कोई आवश्यकता नहीं थी। जो ज्ञान उल्टा हो गया था वह सुलट गया, सम्यग्ज्ञान में परिणत हो गया । गदगद कण्ठ से वह कह रहा था, भगवन्! अभी तक मैं अज्ञान दशा में था भारी भूल कर रहा था, आज आपको देखने से मेरी आँखें खुली हैं, आपके चरणों में मेरा निश्चत ही भला हो जायेगा, क्योंकि आत्मकल्याण का सही तो यही मार्ग है। ऐसा विचार कर अपने जीवन को समर्पित कर देता है। फिर बाद में दिव्यध्वनि खिरी है। पहले शिक्षा नहीं, पहले दीक्षा। दीक्षा का अर्थ है संकल्पित होना अर्थात् कषायों का विमोचन। इस प्रकार संयमित होने के उपरान्त केवलज्ञान प्राप्त करने में देरी नहीं लगती, मात्र एक अन्तर्मुहूर्त ही पर्याप्त है। गौतम स्वामी भगवान् महावीर के प्रथम शिष्य बन गए, गणधर की उपाधि से विभूषित हो गए और 'डायरेक्ट डिसायपल ऑफ वर्द्धमाना' और दिव्यध्वनि खिरना प्रारंभ हो गई। अन्त में एक विशेष बात और कहूँगा। वह यह है कि शिष्य और शीशी को डाँट लगाना अनिवार्य होता है। यदि शिष्य और शीशी को डॉट नहीं लगाते तो काम समाप्त हो जायेगा, अन्दर भरी हुई औषध गिर जायेगी। किन्तु यदि आप डाँट लगाते है तो जो काम आप चाहते हैं, उससे सौ गुना और हो जाता है। इसका मतलब क्या हुआ? तो मतलब यह हुआ कि रोग निवृत्ति के लिए आप वैद्यजी या डाक्टर साहब से दवाई लाए थे, ध्यान न रहने के कारण आप शीशी का ढक्कन लगाना भूल गए और किसी का हाथ लगने से वह लुढ़क गयी तो सारी की सारी दवाई मिट्टी में मिल गयी, खराब हो गई। और हमारा जो उद्देश्य था वह अधूरा रह गया। मात्र खाली शीशी हमारे पास बची रहेगी जिसकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। किन्तु.....नहीं! हम इस प्रकार सावधानी पूर्वक मजबूती के साथ डॉट लगाए कि शीशी लुढ़क भी जाये तो भी अन्दर का माल (औषधि) ज्यों की त्यों सुरक्षित बना रहे। अर्थ यह हुआ कि दवाई से भी अधिक महत्व डाँट (ढक्कन) का है। इसी प्रकार शिष्य में, गुरु महाराज, भगवान् बहुत माल भर देते हैं। लेकिन ऊपर से यदि डॉट नहीं लगाते हैं तो गड़बड़ हो जाता है। अत: डाँट लगाना आवश्यक है। लेकिन होशियारी की बात है। कहीं डाँट लगाते समय जरा भी चूक गए तो डाँट ही अन्दर चली जाती है (श्रोताओं में हँसी।) फिर निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। आप फिर दवाई निकालना चाहेंगे तो शीशी का कण्ठ छोटा होने के कारण बार-बार वह गले में फंस जाती है तो बाहर का बाहर और भीतर का भीतर ही रह जाता है। एक बार अपने जीवन में एक घटना घटी थी, बिल्कुल भीतर डॉट चली गई थी, मैं बारबार सुई के द्वारा थोड़ा ऊपर खिसकता था जिसके कारण उसके छिलके तो आने लगे छोटे-छोटे, लेकिन वह डॉट नहीं निकल रही थी। बहुत परिश्रम करने के उपरान्त डाँट निकाल पाए तो मैंने सोचा भैय्या! बड़ा कठिन काम है डाँट लगाने का। अब पुन: उसको कैसे लगाए? तो डॉट के ऊपर थोड़ा सा कागज चिपका दिया दो तीन राउंड फिर धीरे से दबा दिया। किन्तु ऐसा नहीं दबाते कि डॉट और अंगूठा दोनों ही अन्दर चले जाये (श्रोता समुदाय में हँसी) अतः बंधुओ समय आपका हो रहा है, मैं बस यही कहना चाहूँगा कि यदि शिष्य और शिशु या शीशी के द्वारा काम लेना चाहते हो, अनादिकाल से प्रवाह रूप से आई हुई परम्परा को चलाना चाहते हो तो ऐसे डाँट लगाओ कि वह बार-बार कहें कि और एक बार डॉट लगा दो और अपना और दूसरों का सभी का हित हो सके। हमें अपने अन्दर बैठे हुए जो क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी शत्रु हैं उन्हें समाप्त करना है उन्हें अपनी आत्मा की सीमा से अनन्त काल के लिए बाहर भगाना है। यदि हम ऐसा करेंगे तब कहीं जाकर हमारी आत्मा सिद्धों के समान शुद्ध बन सकती है पवित्र बन सकती है और उस परम ‘मार्दव धर्म' की शरण में जाकर ही यह आत्मा अनंत सुख का भाजन बन सकती है......|
  17. महावीर ने किसी बात पर अपने जीवन को बाँधा नहीं था। महावीर का जीवन तटस्थ नहीं किन्तु आत्मस्थ था, हाँ......स्वस्थ अवश्य था। वह तटस्थ नहीं था, किन्तु तट के बीच में बहने वाली गंगा थी। तटों को बाँधने वाला महावीर नहीं था। तट उस महावीर को चाहते थे। महावीर भगवान् उस जन्म को इष्ट बुद्धि से नहीं देखा करते थे। आप लोगों को जो पसंद आ रहा है वह सब महावीर को नापसंद था। दुनियाँ की ओर मत देखो अपने आप की ओर देखो। महावीर ने कभी भी दुनियाँ की ओर दृष्टिपात नहीं किया, यदि किया है तो दुनियाँ के पास जो गुण हैं, उनको लेने का प्रयास किया। महावीर में अपने आप को देखो, अपने 'मैं' को देखो, महावीर में। कौन कहाँ से आया है, आया है तो उसे जाना होगा और जाना है तो कहाँ जाना है? हम आने की बात करते हैं और आने की बात महोत्सव के रूप में करते हैं बहुत मुस्कान के साथ, उसे बहुत प्रेम के साथ, लाड़ प्यार के साथ अपनाते हैं। और उसे अपनाते समय उस दफन का और उतार करके उस कफन का हम ध्यान नहीं करते। कोई आज आया है तो जाने को लेकर आया है.महाराज भी आये हैं तो.....। ध्यान रखना ! इस बात को आप समझ लें, तो महावीर बन जायेंगे.। पर आपको महावीर नहीं बनना है इसलिये आप इसे याद नहीं करते। महावीर ने किसी बात पर अपने जीवन को बाँधा नहीं था। महावीर का जीवन तटस्थ नहीं लेकिन स्वस्थ अवश्य था वह तटस्थ नहीं था। किन्तु तट के बीच में बहने वाली गंगा थी। तटों को बाँधने वाला महावीर नहीं था। तट उस महावीर को चाहते थे। एक तथ्य है, एक भावना है, जो जाने के साथ लगा हुआ है। जो व्यक्ति निशा में उस ऊषा का दर्शन करता है और उस ऊषा में निशा को खोजता है, देखता रहता है। आना है उसके साथ जाना भी है यह जानना भी अनिवार्य है। महावीर जानते थे और पहचानते थे कि आना है तो अभी एक बार जाना है। और यह आना सार्थक इसलिये नहीं है, कि आने के साथ जाना लगा हुआ है। महावीर जाने का मार्ग नहीं पूछते थे लेकिन जाने के मार्ग को दृष्टि में रखकर आते थे। मैं महावीर भगवान् का उपासक हूँ। आप भी हैं, लेकिन आप जाने को भूल जाते हैं। आने और जाने में एक जो सहजता है, वह महावीर भगवान् का जीवन था क्योंकि वह एक बुद्ध थे, एक विचारक थे, एक चिन्तक थे, वह एक पहलू के बारे में चिन्तन करते थे। जो हुआ उसके बारे में उनका कोई चिन्तन नहीं चलता था, जो होने वाला है उसके बारे में अवश्य चिन्तन होता था। आप जैसे वृद्धों का हुए के बारे में जो चिन्तन होता है वह अज्ञानता से कुछ ही दिनों में चिन्तायुक्त हो जाता है। या यूँ कहना चाहिये कि उसका जीवन निस्सार मय बन जाता है। अर्थहीन हो जाता है। जिसमें कुछ पाने की, कुछ होने की, गन्ध नहीं है जैसा कि फूल (Fool), तो Fool नहीं, Full फुल होना चाहिए। फूल को 'क्या बोलते हैं अंग्रेजी में? फूल (Fool) का अर्थ मूर्ख होता है, और फुल (Full) का अर्थ भरा हुआ, जीवन भरा हुआ हो। हमारा एक पहलू निकल गया, दूसरा जो आने वाला पहलू है, उसके द्वारा ही हम अपने जीवन को भर सकते हैं। जो निकल गया वह खाली हुआ लेकिन भरेगा तो वह आने वाले के द्वारा ही। लेकिन यह ध्यान रखें.आना जब तक जाने के साथ सम्बन्ध को नहीं रखेगा तब तक वह परिपूर्ण नहीं बन सकता यह वस्तु का परिणमन है। जो कि वैकालिक सत्य है, यथार्थ है। महावीर कभी मंगल गीत से, स्वागत से प्रभावित नहीं हुए, क्योंकि वह समझते थे कि........... "जिन्दगी एक काँच का प्याला है, जो हाथ से छूट गया।" क्या मायना? क्या अर्थ निकाला? जिन्दगी कुछ है.......हाँ है, क्या है? वह एक काँच का प्याला मात्र, जो हट गया तो क्या रह गया? कभी भी, अभी भी तैयार रहिये, जाने के लिए। आने के लिए आपको बहुत साथ देने वाले हैं लेकिन जाते समय साथ कौन देता है पता है......पता है ? जिसने आप को प्रेम के साथ, लाड़ प्यार के साथ बहुत मैत्री के साथ, अपनाया था। वह आपको दफनाने के लिए और कफन उतारने के लिए वहाँ तक जाता है। ध्यान रखिए.......संसार की रीति, संसार का स्वार्थ, संसार का स्वभाव, संसार का परिणमन, सिर्फआने वाले का साथ देता है, जाने वाले के साथ कोई नहीं जाता। आने के लिए तैयार हैं। महाराज......खुरई में आने की बात करो, जाने की नहीं। तो भइया,.....आने की बात तो हो गई। अब रही कौन सी, बता दीजिये? आने को तो आ गए, उसी समय लग जाता है भीतर.क्या पता महाराज कब जाते हैं? जाने के लिए तो मन नहीं है आपका, लेकिन जब आने का पता नहीं था। उसी प्रकार सीधी साधी बात है। जब कई बार नारियल चढ़ाये गये, फिर भी कोई पता नहीं था। जब आ गए तब विश्वास हुआ। तो उसी प्रकार जाने का भी कोई भरोसा नहीं रखना चाहिए कि कब जाते हैं? और इसमें जब आप गूढ़ता से सोचेंगे तो महावीर का जीवन क्या था? और ऐसा क्यों था? यह सब रहस्य खुल जायेगा। एक लेख पढ़ा था, जो कि बहुत मार्मिक था। उसमें पूरा पूरा अध्यात्म भरा हुआ था। यदि आप लेना चाहें तो, नहीं तो नहीं.....क्या था? एक लाड़ली प्यारी लड़की थी अपने माता पिता की एक ही थी। लाड़ प्यार के साथ पाली पोसी थी। तन उसका सुन्दरता की मूर्ति था सब कुछ था कमी कुछ भी नहीं थी और वह युवती हो गई। जीवन जवानी की ओर बढ़ रहा है। माता पिता ने सोचा कि इसके लिए योग्य वर की आवश्यकता है। किसी प्रकार बहुत मेहनत परिश्रम के उपरान्त उसके अनुरूप उनको वर मिला। सब चले वहाँ......शादी में लीन थे। वह अवसर, वह तिथि, वह मंगल बेला आई.फेरे पड़ रहे हैं। वह मेंहदी भरा हाथ, ओठों पर लगी हुई लाली, वह भाल पर लगा हुआ कुमकुम का तिलक शोभित हो रहा था। सारी की सारी तैयारी थी वह मंगल बेला बहुत ही आनन्ददायक लग रही थी किन्तु क्या था? सात फेरे और सात तत्व हुआ करते हैं, जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। ज्यों ही सातवाँ फेरा पड़ा त्यों ही वर मुक्त हो गया! आपको अच्छा नहीं लग रहा है। जब सुनने में अच्छा नहीं लग रहा है, यदि ऐसा घट जाये तो? यह घटना घटी हुई है इसलिए बता रहा हूँ। सातवाँ फेरा ज्यों ही पूरा हुआ कि वह दूल्हा वहीं पर गिर गया। सारे के सारे लोग हाहाकार मचाने लगे कि क्या हो गया? और उसी समय किसी ने रिकार्ड लगा दिया। राजा राणा छत्रपति, हॉथिन के असवार। मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार|| किसी ने कहा अरे! भाई यह क्यों लगा रहे हो? वह बोला सही लगा रहा हूँ। जब जा ही रहा है अपनी-अपनी बार, उसकी बारी आ गई, उसका समय आ गया, उसकी बेला आ गई। वह बन्धन......बन्धन नहीं था वह बन्धन के उपरान्त मुक्ति थी। कौन कहाँ तक निभा सकेगा कौन उस मंगल बेला को अन्त तक निभा सकेगा? संभव नहीं। समय समय पर गुजरना। कोई भी द्रव्य, कोई भी वस्तु, कोई भी पदार्थ कोई भी परिणति, कोई भी घड़ी! वह टिकी हुई नहीं रह सकती। गंगा बहती रहती है। टिक जायें तो तालाब हो जाये और वह गंगा नहीं मानी जा सकती, वहाँ कोई भी स्नान नहीं करेगा। कोई भी वस्तु रुक जाये तो वह वस्तु नहीं मानी जाती। यदि महावीर रुक जायें तो वह महावीर, महावीर नहीं हैं। महावीर तो सतत बढ़ते जा रहे हैं इसलिए उनका नाम रखा वर्द्धमान, आपने नहीं रखा.....वह अपने आप में वर्द्धमान थे प्रत्येक वस्तु वर्द्धमान है, आगे बढ़ती रहती है, पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं उठता। पीछे मुड़कर देखने वाला अज्ञानी माना जाता है। जिसे पीछे का हिस्सा अच्छा लगता है उसको भविष्य में जो घटना घटने वाली है, उसका संवेदन सम्भव नहीं, क्योंकि वर्तमान खो जाता है। महावीर खो जाने वाले नहीं थे। वे मौजी थे, वे खोजी थे, किन्तु! वे पीछे मुड़कर देखने वाले नहीं थे। कितना भी आप चिल्लाओ उन्हें बुलाओ वह लौटकर आने वाले नहीं हैं। उनका समय आगे के लिए है पीछे के लिए नहीं। उनका समय मुड़न शील नहीं बढ़न शील है, अतीत में था और आगे भी रहेगा। यह वैकालिक सत्य है। आप वस्तु तत्व को समझने की चेष्टा करो। वहाँ पर उस मंगल बेला में इस प्रकार की घटना घटती है तो वहाँ पर जो वृद्ध होगा, जो ज्ञानी होगा वह विचार अवश्य करेगा कि घटना घट गई तो घट गई, हो गया तो हो गया। अभाव सो अभाव। अब वह भाव में परिणत होगा ही नहीं। घटी हुई घटना के बारे में किसी का कोई बस नहीं चल सकता। जो मुड़ गया सो मुड़ गया.....चला गया.....सो चला गया। वह अतीत......कभी भी भविष्य नहीं बनेगा। उसमें अब कुछ होने की गुंजाइश नहीं। आप कुछ चाहते हैं! क्या चाहते हो? जो कुछ हो रहा, उसको जानना चाहो, तो बहुत अच्छा है। चाहेंगे तो उसे पकड़ने का प्रयास अवश्य करेंगे, उसको स्थिर बनाने की चेष्टा करेंगे। जो न भूतो, न भविष्यति। जो ज्ञानी थे, अपने आप चिंतन की धारा में बहने लगे, प्रभावित होने लगे। अब उनके सामने वह पण्डाल, वह मंगलबेला नहीं रही। वह जानते थे कि यह एक दिन होने वाला है। हाथ में जो मेंहदी लगी है, अब उस मेंहदी की महक नहीं आ रही है और हाथ में जो कंगन चूड़ियाँ पहनाई गई हैं, अब वह चूड़ियाँ बेड़ियाँ लगने लगी......पर नव वधू उन्हें तोड़ने का प्रयास कर रही है। अब मृत्यु तो हो चुकी, पति का अवसान हो चुका है। उस गन्ध का, उन ओठों की मुस्कान का अवसान हो चुका है। वह गहरे चिन्तन में डूब गई और अपने अस्तित्व के बारे में सोचने लगी। कितने दिन लगे थे इस मुहूर्त को निकालने में और यह शरीर कितने लाड़ प्यार के साथ पला था, पोसा गया था, कितने व्यक्तियों की मोहक वस्तु बनी थी।उसी वस्तु को आज में इन्हीं आँखों से देख रही हूँ। वह सोच रही है, फिर क्या सोचना? माता पिता सारे के सारे रुदन में लगे हुए हैं लेकिन वह रुदन नहीं कर रही है। भीतर एक भाव.......एक तरंग उठ रही है वह भीतर महावीर के दृश्य को देख रही है। महावीर आया था कहाँ चला गया? महावीर जयन्ती कितने बार मनाई गई किंतु मनाई क्यों जा रही है? क्या आप उसी बालक के रूप में मना रहे हैं, क्या आप उस ही पहलू के बारे में सोच रहे हैं, आप क्या आज के जीवन के बारे में ही सोच रहे हैं? क्या आपके पास मृत्यु के बारे में सोचने की बुद्धि नहीं है, इतना ही ज्ञान है, वस्तु इतनी ही है। सहयोग के साथ वियोग लगा हुआ है, आने के साथ जाना लगा रहता बल्कि वह कनेक्टेड रहता है उस कनेक्टेड स्थिति को हम देख नहीं पाते हैं। वह देख रही है, धीरे-धीरे कंगनों को तोड़ रही है और वह जो भाल पर गुलाबी लाल-लाल तिलक लगा था उसको निकाल दिया, अब वह मात्र कलंक के रूप में था, वह घड़ी मात्र कलंक के रूप में थी। वह जो भाल था, निष्कलंक था उसके भीतर लाल लाल रंग था और वह सोचती है राग का जो समय था वह अब चला गया, अब विराग का समय आ गया। अब सुहाग का समय नहीं......अब सुहाग तो भाग गया। भाग्य जग गया क्योंकि.......अब आज जो बन्धन था, उसी समय बन्धन के साथ-साथ मुक्ति भी मिल गई, उन्हें पर्याय से मुक्ति मिल गई और मुझे अब साक्षात मुक्ति मिलने वाली है। मुझे इस मोह से मुक्ति मिल सकती है, यदि पांडाल वाले चाहें तो.....? तो कौन क्या कर सकता है? ऐसी भी घटना घट सकती है। यहाँ नहीं घटी . आज नहीं घटी। लेकिन ऐसी कोई प्राचीन पर्याय नहीं, जो घटी न हो। सब कुछ घटी है लेकिन इसके साथसाथ हमारी बुद्धि भी घटी है, हम कुछ सोच नहीं पा रहे हैं। उपाय के साथ अपाय को-भी सोचना यह विद्वान का कार्य है। यदि सुख है तो उसके पीछे दुख भी है, अन्धकार है तो ज्योति भी है। हम केवल ज्योति के बारे में विचार करें, नहीं.अन्धकार भी आ जाये तो उसमें भी देखने की शक्ति आनी चाहिए। महावीर भगवान् का जीवन कहता है कि भैया! अंधकार में जो देखा जा सकता है, वह प्रकाश में सम्भव नहीं। प्रकाश में सुविधा मिल सकती है पर विश्वास नहीं। अविश्वसनीय स्थान में आप अकेले हों, सो नहीं सकेंगे। भले-ही आप १० दिन के निन्द्रालू क्यों न हो। और जहाँ पर यह विश्वास हो जाता है कि यहाँ पर सब प्रकार की सुविधा है आराम है। जहां पर किसी भी प्रकार का डर न हो वहीं पर आपकी नींद आ जायेगी। अजगर की नींद ले जाओगे आप.....यह क्यों? और वह क्यों? महावीर भगवान् के प्रकाश के माध्यम से आप अपने जीवन को प्रकाशित करना चाहते हैं ‘न भूतो, न भविष्यति'। एक बल्ब जल गया तो दूसरा जल जाये यह कोई नियम नहीं......कनेक्शन पहले आवश्यक है। आपके पास कनेक्शन नहीं, यदि है तो केवल वायर है, पर उसमें करेन्ट नहीं, यदि करेन्ट भी है तो आपको बटन दबाना नहीं आता और यदि बटन दबाना भी सिखादें तो आप कहते हैं कि महाराज हमारा मन नहीं होता। अब स्थिति आप लोगों की यह है, क्या करें? सब कुछ फिटिंग तो हो चुकी है लेकिन आपकी इच्छा नहीं है। भगवान् महावीर के उपासक मात्र कहने भर के लिये हो। आपने कभी सोचा है कि जीवन के साथ मृत्यु, दुख के साथ सुख आने के साथ जाना, ऊषा के साथ निशा, यह सब कुछ एक जुड़न है। जीवन भी एक जुड़न को लेकर चल रहा है। प्रत्येक पदार्थ का परिणमन जुड़न के साथ है, एक के साथ चल नहीं सकता वह धीरे धीरे। वर चला गया लेकिन वह वधू घबराती नहीं है। मेंहदी में से अब गन्ध नहीं आ रही है, उस तिलक में से अब सौभाग्य नहीं झलक रहा है, मंगल-सूत्र टूट गया है, बंधा ही नहीं टूट गया.........कैसी विचित्रता कैसा अद्भुत परिणमन! फिर भी किसी का ध्येय नहीं होगा चिन्तन करने का कि वह संयोग उतना ही था। नहीं.नहीं कोई बात नहीं, वह इतना ही था लेकिन अभी जीवन तो बहुत है, इसीलिए आप लोग क्या सोचते हैं? क्या क्या विचार करते हैं? बहुत कुछ विचार कर जाते हैं। वह हो या न हो, लेकिन मन तो चिन्तन कर ही जाता है भइया यह तो ठीक नहीं है ऐसा कैसे हो गया? हो गया कोई बात नहीं, ऐसा तो होता ही रहना है, यह तो संसार की रीति है। इतना सुकुमार जीवन है ऐसा थोड़े ही होता है। ऐसा नहीं सोचना चाहिये, अभी बहुत दिन हैं बेटा। आप लोग ऐसा कहकर ऐसी घटनाओं से प्राप्त वैराग्य के क्षणों को यूँ ही...........लापरवाही के साथ टाल देते हैं। मालूम है आपको। नेमिनाथ भगवान् के बारे में क्या किस्सा निकला था? आप लोग ताज्जुब करेंगे नेमिनाथ भगवान् की शादी कब हुई थी? हुई से मतलब आधी जो कुछ भी हुई थी? हाँ.......कब गये थे? आप लोगों के यहाँ शादी के जो मुहूर्त निकलते हैं वह श्रावण में नहीं निकलते। समझ में आ गया मुझे श्रावण में क्यों नहीं निकलते। जबकि नेमिनाथ के जमाने में श्रावण में शादी होती थी और नेमिनाथ भगवान् की बारात जूनागढ़ लेकर गये थे। आप लोगों ने सोचा, बहुत अच्छे चिन्तक हो आप! जब नेमिनाथ भगवान् जैसे पुण्यशाली के जीवन में विवाह सम्बन्ध छूट सकता है और इतना पुण्य अपना तो है ही नहीं, इसलिए श्रावण में शादी बन्द करो। धन्य हो भगवान्! आप लोग सोचते हैं, लेकिन राग के बारे में, विराग के बारे में नहीं सोचा करते। उस तिलक को देखते हो लेकिन तिलक के अभाव में वह भाल देखो तो सही, कितना विशाल लगता है। अब वह राग नहीं विराग आ गया। अब सुहाग तो भाग गया, लेकिन भाग्य जाग गया। वह मन ही मन सोच रही है कि नीचे पैरों में पहने हुए नूपुर और सारी की सारी रंग बिरंगी दुनिया से सम्बन्ध समाप्त करो। अपने ही हाथों से दूर करके वह पांडाल में कह देती है कि अब आपका और मेरा कोई संबंध नहीं है। आज से मैं अपने अस्तित्व को बस त्रिलोकीनाथ प्रभु महावीर के चरणों में अर्पित करती हूँ। और वैराग्य से ओत-प्रोत वह शरण-हीन कन्या भगवान् महावीर की उपासिका बन जाती है। महावीर कह देते हैं कि बेटा अब तुझे शीघ्र ही संसार से छुटकारा मिल जायेगा क्योंकि तुम्हारे पास तत्व चिन्तन की दृष्टि है, वस्तु को पकड़ने की दृष्टि है, तुम जानती हो कि वस्तु का परिणमन कैसा होता है। तुम जानती हो कि कौन आया था और कौन गया, किधर से आया था और किधर गया। वह आया भी नहीं है गया भी नहीं है, जिया भी नहीं है, मरा भी नहीं है, केवल एक आवरण था जो इधर का उधर हट गया। वह तो मृत्युंजयी हमेशा बना रहता है क्योंकि आत्मा की मृत्यु नहीं है। कृष्ण, अर्जुन के लिए सम्बोधित कर रहे हैं। यह कारिका गीता में आती हैं, कृष्ण क्या कहते हैं, देखो - जातस्य मरणं ध्रुवं, ध्रुवं जन्म मृतस्य च तस्मात् हे! मध्यम पाण्डवः मा शोचनीय । अर्जुन तू क्या पागल बन गया? जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु की गोद में जाना होगा, जिसने मृत्यु पाई है उसे जन्म के झूले में झूलना होगा। यह संसार की रीति है।.....यहाँ पर डरने की कोई आवश्यकता नहीं......। जो आता है वह जायेगा, जो जाता है वह आयेगा, आना जाना बना रहता है। हे अर्जुन! इस रहस्य को जान करके कर्तव्य पथ से च्युत नहीं होना। कोई भाई नहीं है, कोई बहिन नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई शिष्य नहीं। कर्तव्यपालन ही तुम्हारा धर्म है। अर्जुन कहता है कि प्रभो! यदि गुरु भी गलत काम कर रहे हैं तो भी उनके ऊपर धनुष तीर चलाना कैसे संभव है? कृष्ण कहते हैं- अर्जुन तू बिल्कुल भयभीत हो गया. द्रोणाचार्य इस समय द्रोणाचार्य नहीं है वह गुरु नहीं है क्योंकि वे पक्षपात कर रहे हैं। और यदि तू मोहाक्रान्त होकर, बहाना बनाकर, रणांगन से डरकर भागना चाहता है तो तुझे कदापि उस परम बोधि-ज्ञान का मार्ग नहीं मिलेगा क्योंकि, कहावत है - जो कम्मे शूराः सो धम्मे शुराः। जो कर्म में शूर है वह धर्म में शूर है। जो कर्म में शूर नहीं है वह धर्म में शूर कैसे हो सकता है? जो घर में ठीक ठीक काम नहीं कर रहा है तो क्या संन्यासी होने की क्षमता उसके पास है ? तू कर्तव्य पथ से च्युत हो रहा है। तेरे लिए इस रणांगण में संबोधन की आवश्यकता है और कृष्ण जी भी सम्बोधित कर रहे हैं। मरना और जीना तो लगा हुआ है यह समझने की बात है। यदि आत्मा को पाना चाहते हो तो अर्जुन! मेरी बात मान ले। इसको गुरु गुरु न मान.....भाई भाई न मान......माता माता, पिता पिता न मान.......क्योंकि ये मोही हैं, ये स्वार्थी हैं.......ये क्या चाहते हैं? ये आत्मा को नहीं चाहते, धर्म को नहीं चाहते, वस्तु तत्व को नहीं चाहते, ये तो धर्म को अपने अनुरूप बनाना चाहते हैं। ये तो कर्तव्य को भी अपने अनुसार चलाना चाहते हैं, ये आत्मा को संसार में रुलाना चाहते हैं। जो चले वही कर्तव्य......जो कहे वही कथन.......जो दिखे वही दृश्य हो ......ऐसा नहीं होता, किन्तु वस्तु का दृश्य अपने आप में रहता है। हम अलग प्रकार से उसे देखने की चेष्टा करें। हमारे पास वह ज्योति आ जाये, हमारे पास वह चेष्टा आ जाय जिसके द्वारा हम ज्यों का त्यों उस वस्तु के दृश्य को देख सके। वस्तु को आप देखना चाहते हो, जीवन को यदि परखना चाहते हो, यदि कोई रहस्य है......उसे उद्घाटित करना चाहते हो तो किसी भी एक बात पर अड़ करके नहीं रहो। जन्म की आप जय जय कार करने वाले मृत्यु के सामने जाकर देखेंगे तो आपके घुटने टिक जायेंगे। जो हमेशा मरण के साथ जीता रहता है और मरण को जीने का एक प्रकार से दृश्य दिखाता है कि जीवन यह होता है। जो व्यक्ति मरण से डरता जायेगा वह व्यक्ति तीन काल में भी जी नहीं सकता। यह मरण ही हमारे लिए प्रकाश प्रदान करने वाला है और यह भव हमें भव-भव तक भटकाने वाला है। आप जन्म की पूजा नहीं करिये, जन्म संसार का प्रतीक है। यह ध्यान रखना कि हम साधना के बलबूते मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं और इस अविनश्वर पद को प्राप्त करने वाली वह वस्तु हमारे पास ही है लेकिन हम उसे देख नहीं पा रहे हैं। उसको देखने की आप चेष्टा करिए। वह मंगल ग्रह जहाँ पर कार्य हो रहा था वहाँ से वह साध्वी के वेश में आती है। बिल्कुल पतिव्रता स्त्री के रूप में सफेद वस्त्र के साथ, हाथ खाली है और रची हुई मेंहदी भाग जाती है। सब कुछ श्रृंगार निकल गया बल्कि अब वस्तुत: आत्मा का श्रृंगार प्रारम्भ हो गया । महावीर क्या इस जन्म में अटकना चाहेंगे, महावीर क्या आप लोगों के इन गीतों को सुनना चाहेंगे? यदि यह पसंद होता तो वे यहीं रह जाते। आप लोगों का यह आरती उतारना, आकर्षक चेष्टायें करना, तुम्हारा मोह, प्रेम, प्यार उनको बिल्कुल पसंद नहीं था। सभी नापसंद था। भले ही आप लोग इनके होकर कहें कि महावीर हमें बहुत पसंद करते थे किन्तु यदि महावीर बोलना प्रारंभ कर दें तो इस सभा में कोई भी पसंद नहीं आयेगा उनको, क्योंकि सब लोग जन्म को चाहने वाले हैं मृत्यु से सभी लोग डरकर भागने वाले हैं। मात्र भागने से मृत्यु नहीं छूटेगी। फिर भी हिरन के समान, खरगोश के समान आप भाग रहे हैं। कहाँ तक भागोगे? मृत्यु की गोद में तो आपको जाना ही होगा। रोते हुए मृत्यु की गोद में जाओगे तो वीर के उपासक नहीं कहलाओगे। यदि उसका साहस करके स्वागत करते हो तो फिर वास्तव में आप महावीर के पथ के पथिक कहलाओगे । आल्वेज वेलकम कहते हैं तो आल्वेज वेल गो भी हो जावेगा। आल्वेज वेलकम ही लिखते हैं आप। हम किसी बॉर्डर पर चले जाते हैं तो यू.पी. आ रही है एम. पी. छूट रही है, गुजरात आ रहा है राजस्थान छूट रहा है, महाराष्ट्र आ रहा है। वहाँ पर आप एक ही बोर्ड से दो काम निकालते हैं। क्या कहते हैं? वेलकम, वेल गो कोई नहीं कहता। हमने कहा पुन: पधारिए की अपेक्षा अच्छे पधारे क्यों नहीं कहते? अच्छे पधारे कहें तो बहुत अच्छा लगेगा कोई नहीं कहता। महावीर कहते हैं आपने आइए पहलू तो जान लिया अब जाइये को जाने। जायेंगे तो हम अकेले रह जायेंगे, अकेले हो जायेंगे। महावीर भी अकेले थे। आइये-आइये जब तक कहते रहेंगे तब तक यह झगड़ा चलता ही रहेगा। अकेला होना चाहते हैं आप फिर भी भीड़ को लेकर के जाना चाहते हो। दो की भीड़ में भी सम्भव नहीं है, वह रास्ता बहुत संकीर्ण होता है। वहाँ से एक ही व्यक्ति पास हो सकता है। आजकल तो पुल बन रहे हैं। इधर से कोई आ जाये,उधर से भी कोई आ जाये और फिर एक्सीडेन्ट हो जायें तो नीचे आ जायें। सोचने की भी इतनी फुर्सत नहीं है कि संकरा पुल है और हम निकल जाते हैं। यह सोचो और विचार करो कि वह एकत्व वह अकेलापन महावीर चाहते थे। मुझे कुछ नहीं चाहिए जो है वह पर्याप्त है। जो घट रहा है वही मेरे लिए दृश्य है, वही सब कुछ है। उसके लिए ही मैं हूँ उसके लिए और कुछ नहीं। जो होगा वह सामने अवश्य आयेगा क्योंकि वह हमारा गुण धर्म है स्वभाव है। हमारे पास जो कुछ आता है वह जाता है उसमें हर्ष विषादादि न करें। आने जाने को एक साम्य दृष्टि से देखें, इस रहस्य को देखने के लिए आँखें चाहिए और ऐसी आँखें चाहिए जिसके ऊपर किसी प्रकार के चश्मा की आवश्यकता नहीं हो, कोई काँच की आवश्यकता नहीं हो केवल रियल होना चाहिए। उस पाण्डाल में जहाँ विवाह हो रहा है, सातवाँ फेरा समाप्त भी हो गया, बन्धन भी हुआ और मुक्ति भी मिल गई। शादी भी हुई और बरबादी भी, वहीं पर एक साथ जीवन का आदि और वहीं पर अन्त। बिल्कुल एक समय में आदि और अन्त दोनों की अनुभूति। यह रहस्यमय जीवन हमें समझ में नहीं आ रहा है। महावीर का आना, आना नहीं था और महावीर का जाना, जाना भी नहीं था। आना और जाना एक साथ होता है और उसी में उनको वह सुगन्धी आती है वह ज्योति मिलती है उस अनुभूति का उस ज्योति का लाभ हमें किसी प्रकार से आज तक नहीं हुआ। उसके लिए आप यदि चाहें तो आज से सोचें कि हम किस दृष्टि से जी रहे हैं और किस चिन्ता में डूबे हुए हैं और हमारी यह चिंता कब हटेगी? हमें वह ज्ञान कब प्राप्त होगा जिसमें आना और जाना सहज रूप से घटित हो रहा है? किसी प्रकार हर्ष नहीं, किसी प्रकार का विषाद नहीं, इस प्रकार का साहस वहाँ के राजा को नहीं था। इस प्रकार का साहस हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता, यह महान व्यक्ति का कार्य है। यह तो मात्र साधु महाराजा का कार्य है। भगवान् महावीर ने उस जन्म को कभी इष्ट बुद्धि से नहीं देखा करते थे, जहाँ पर देवों ने आकर पंचाश्चर्य व्यक्त किए, सुगंध वृष्टि कर दी, फूलों की वृष्टि हुई, मंद-मंद पवन बहाई और अनेक प्रकार के मंगल गीत हुए पर यह सब पसंद नहीं आया। आप लोगों को जो भी पसंद आ रहा है वह सब महावीर को नापसंद था। कौन-सी वह दृष्टि है, आप लोगों को प्राप्त हो तो बताओ बन्धुओ यह जीवन-जीवन नहीं। जिंदगी आखिर क्या है?‘काँच का एक प्याला है जो हाथ से छूट गया” वह कभी इसी समय हाथ से छूट सकता है, छूटेगा, तो कुछ के नहीं और ध्यान रखना। जिसको आप प्यार के साथ ओठों से लगाकर के दूध पी रहे थे नीचे गिरते ही आप उस पर पैर रखना भी पसंद नहीं करेंगे और पड़ भी जायगा तो आपके पैर लहूलुहान हो जायेंगे। जीवन का अर्थ समझे बिना उसका कुछ भी मूल्य नहीं है जो कुछ भी है उसको हम भविष्य में ढालने का प्रयास करें। भविष्य की कीमत हो सकती है अतीत की जो घड़ियाँ हैं वह सब फैल है, उनका कोई मूल्य नहीं है। मूल्यहीन पदार्थों के बारे में सोचना एक प्रकार से बुद्धि का अपव्यय है। उसके बारे में सोचो मत यही एक मात्र परिणमन है। महावीर बहाव को सोचने वाले थे, स्वभाव को सोचने वाले थे। हम इस बहाव में बहते चले जाते हैं, लेकिन इस बहाव के स्वभाव को नहीं सोच पाते, मात्र हमारी एक यही कमी है। भगवान् महावीर की इस ज्योति के माध्यम से हमें बस-यही ज्ञान प्राप्त हो जाय......हे भगवान् ! हमें भी वह कैसे प्राप्त हो, तो कहते है | दिल के आईने में है तस्वीरे यार, जरा गर्दन झुकाके देख ले.........। दुनियाँ की ओर मत देखो। अपने आपकी ओर देखो। महावीर ने कभी दुनिया की ओर दृष्टिपात नहीं किया। उनको क्या आवश्यकता थी, दुनियाँ से बढ़कर भी उनके पास गुण थे, स्वयं में बहुत सारा भंडार भरा हुआ था, दूसरे से लेने की आवश्यकता नहीं.....। जो कुछ भी अपने भीतर है उसमें उतर करके अपने आपको देखा, निहारा, सुना और कहा, बाहर कुछ भी नहीं है। बाहर तो अनंत काल से देखता आया हूँ। इस जीवन में तो कम से कम शुरूआत, सूत्रपात हो जाये कि मैं अपने आपको निहारूं, अपने आपको जानूँ, पहचानूँ।'क्या मैं कम हूँ? मैं कौन हूँ, क्या मैं छोटा हूँ? क्या मैं बड़ा हूँ? किसी रूप में देखें तो सही मैं कौन हूँ। यह एक मात्र गहराता चला जाय और ऐसी ध्वनि-प्रतिध्वनि निकलती जाय, भीतर ही भीतर। भले आप कान बंद कर दोगे फिर भी वह भीतर ही भीतर प्रतिध्वनित होती चली जायेगी। "हमारे सामने केवल मैं ही रह जाय तो उसमें से अनेक महावीर फूट सकते हैं, अनेक राम अवतार ले सकते हैं, अनेक पाण्डव उसी मैं की गहराई में से जन्म ले सकते हैं। उसी मैं की गहराई में महावीर बैठा हुआ है उसी मैं की गहराई में आप देखो। महावीर का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर महावीरत्व छुपा हुआ है। वह अनंत काल से यात्रा करता आया है, अनंतकाल तक यात्रा करता जायेगा, लेकिन वह धार कभी भी सूखेगी नहीं। राजस्थान में भी चले जाओ, अरब कंट्रीज.....में भी चले जाओ फिर भी वह धारा सूखेगी नही। वह धारा, धारावाहित बहती चली जायेगी। अक्षुण्ण यात्रा आत्मा की मेरे साथ चल रही है, डुबकी लगाने की आवश्यकता है। महावीर कहते है 'मैं' को पहचानो, तू को भूल जाओ। पहचानो कि मैं कौन हूँ? महावीर को पूछो मत, तुम ऐसा कह दो कि मैं कौन हूँ, अपने आप ही मालूम पड़ जायगा केवल देखने के लिये जाओ, दर्पण को कभी आपने पूछा है क्या कि तुम कौन हो? दर्पण कहता है कि मैं को देखो, अपने आपको देखो, अपने को देखो भले ही मुझमें देखो लेकिन अपने को देखो। मुझमें देखने के लिये आओगे लेकिन यह ध्यान रखना कि-मेरा दर्शन तुम्हें कभी हो नहीं सकता। मुझमें देखोगे पर अपने आपको देखोगे इसी का नाम दर्पण है। दर्पण अपने आपको नहीं दिखाता लेकिन दर्पण में जो कोई भी देखने को चला जाता है उसके मुख को दिखाता है। लेकिन यह देखना दर्पण के बिना संभव नहीं है।] गुण वश प्रभु तुम हम सम पर पृथक हम भिन्न तम दर्पण में कब दर्पण करता निजपन अर्पण। दर्पण में अर्पण करने चले जायेंगे तो अपना दर्शन हो जायगा। महावीर भगवान् में देखो, लेकिन अपने आपको देखो, अपने को देखो महावीर में, महावीर लुप्त हो जायेंगे और अपने आपका दर्शन हो जायेगा, महावीर सामने आ जायेंगे। गुणों की अपेक्षा से महावीर और हम एक हैं, देखने की आवश्यकता है। वह कौन-सी ज्योति है जो हमें आज तक उपलब्ध नहीं हुई है? हे भगवान्! हमें ऐसी बुद्धि, ऐसा उपयोग, ऐसा उत्साह दे दो ऐसी आँखें दे दो, ताकि हम अपने आपको देख सके। महावीर को देखने से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं और नहीं देखने से महावीर को कुछ हानि होने वाली नहीं है। किन्तु यदि हम महावीर में अपने आपको देख लेते हैं तो हमें बहुत लाभ होता है। हमारी चेष्टा आज तक ये नहीं हुई है। राम में हम अपने आत्म राम को देख सकते हैं। प्रत्येक वस्तु प्रत्येक द्रव्य में हम अपने स्वभाव गुण धर्म को देख सकते हैं लेकिन हम उसी को देखते रह जाते हैं और अपने आपको भूल जाते हैं, यह हमारी कमी है। महावीर भगवान् ने इस कमी को निकाली, इसलिये आज की तिथि पर २५०० वर्ष पूर्व जन्म लेकर उन्होंने जन्म से मृत्यु की ओर अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ की और वह यात्रा मृत्युजयी बनकर अनंत में लीन हो गई। नदी पहाड़ की चोटी से निकलती है, निकलते-निकलते बहुत से कंदरों, मरुभूमियों चट्टानों की गतों को वह पार करती है। नर्मदा की उस नदी को देख लो। वह पहाड़ को फोड़कर चली गई है, वह संगमरमर से कभी प्रभावित नहीं हुई है, संगमरमर को भी चीरती हुई चली गई और कहाँ पर जाकर मिली है, कहाँ पर? भैया ऑकारेश्वर में जाकर शांत हो गई। अपने आपको वहाँ तक ले जा करके रुकी उसी प्रकार आप भी यात्रा करो, लेकिन वहीं पर जाकर के रुकिये ताकि बार-बार की यात्रा बंद हो जाये, संसार परिभ्रमण रूप यह जनम-मरण की वेदना छूट जाये। आत्मा को शरीर धारण करना पड़ रहा है यही एक मात्र दुख है और एक मात्र यदि सुख है तो शरीर से छूटना ही है। जिस प्रकार वह अग्नि वहाँ पर जाकर फेंस गई, अपने आपकी पिटाई करवा रही है। कौन करवा रहा है, अग्नि की पिटाई कौन कर रहा? कौन यह व्यवहार उस बेचारी अग्नि के साथ कर रहा है, लोहार कर रहा है, लेकिन कब तक? जब तक उस अग्नि की संगति लोहे से है। तो लोहे की संगति से अग्नि की पिटाई हुई और अग्नि की संगति करके लोहा मुलायम बन जाता है, चाहे वह कितना भी कड़ा क्यों ना हो? वह स्वयं कड़े (हाथ में पहने वाला कड़ा) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अग्नि की संगति लोहे के लिये अच्छी हो गई लेकिन लोहे की संगति से अग्नि की पिटाई हो रही है। इसी प्रकार इस आत्मा ने शरीर में ऐसे आकर के आवास बना लिया है, जिसकी वजह से आत्मा की पिटाई हो रही है। जड़ की क्या पिटाई? पिटाई तो चेतन की हुआ करती है। पिटाई होने पर भी आत्मा घटी नहीं, मिटी नहीं और बढ़ी भी नहीं लेकिन पिटी अवश्य है और पिटती जा रही है, दृष्टि नहीं है। देखो स्वार्थ परायणता से संसार कहता है कि उसको तो वेदना हो रही है उसको तो भूख लगी है, उसको तो कष्ट हो रहा है। उसकी ओर ना देख कर के इधर मिठाई बाँट रहे है, यह पर्याय दृष्टि नहीं तो क्या है? मेरा जन्म नहीं हो सकता मेरा मरण भी नहीं हो सकता। ...............जीना और मरना एक प्रकार से शरीर की चेंजिंग है, मात्र परिवर्तन हैं और यह परिवर्तन अनंतकाल से होता आया है, अनंतकाल तक होता चला जायेगा, लेकिन मुझे तो उस रहस्य को समझना है। इस रहस्य को नहीं समझने का कारण है कि सुख-दुख की अनुभूति हो रही है, मैं ज्यादा क्या कहूँ ? आपका समय पूर्ण हो चुका है। आपको आना था यहाँ, आए, अब आपको यहाँ से जाना है (चूँकि जगह आपकी नहीं है)। सब लोगों ने निर्णय किया है कि हमारा काम है और हम बैठ जाये तो कोई आ नहीं सकता और बिठाते-बिठाते जब जगह नहीं मिली तो पीछे खड़े हो गए, जैसे चुनावी भाषण में खड़े होते हैं। अब खड़े हुए हैं। आप लोग यहाँ बैठे हुए हो, रास्ता निकलने को नहीं है...........। इसलिए आप आए हैं, यह आना और जाना तो बहुत क्षणिक है, लेकिन कभी आपने उसे जाने को याद किया है? जन्म जयंती के दिन भी आपको मृत्यु जयंती मनाना चाहिए, मृत्यु के समय जो घटना घटती है उसके बारे में भी कभी-कभी चिंतन करना चाहिये। विद्वान्, संत, ज्ञानी ऐसी घटनाओं में विषाद का अनुभव नहीं करते किंतु मृत्यु के समय में भी वह तटस्थ होकर के सोचने लग जाते हैं। जीवन यदि मिला है तो नियम से मिट्टी में मिलने वाला है, उससे पहले इसको कंचन-मय स्वर्णमय बना लें, यह हमारी होशियारी मानी जायेगी। ऐसा कार्य यदि एक बार हो जाये, तो हम महावीर भगवान् के समान बन जायें। हमने एक दृष्टांत आपको दिया, विवाह सम्बन्धी। ऐसी कई घटनाएं घट जाती है मालूम नहीं पड़ता। हम भूल जाते हैं क्योंकि उनसे दुख होता है और दुख होता है तो उसको भूलने की चेष्टा करते हैं और जिससे सुख मिलता है उसको याद करते हैं, यदि याद नहीं आता तो थोड़ा सिर खुजा लेते हैं, ताकि याद आ जाये किसी भी प्रकार से। यदि आप अनंत सुख को अपने आपमें अवगाहित करना चाहते हो तो उसे पाने के लिए वह चेष्टा क्यों नहीं करते, जो चेष्टा महावीर भगवान् ने की थी? जिस से उन्हें यह लाभ मिला कि उनका जीवन था वह अंतिम था उनकी मृत्यु भी अन्तिम थी, माता पिता जो कुछ भी थे वह अन्तिम माने जायेंगे, सब कुछ लास्ट। इसके उपरांत उन्हें इससे कोई मतलब नहीं.......वह जीवन हमारे लिए मंगलदायी है, प्रेरणास्पद है |वह घड़ी आने से पहले हम अपने आपको जागृत कर ले, हम अपने आपको ऊपर उठाने की चेष्टा करले। जैसे स्टेशन पर आप लोग गाड़ी आने से पहले अपने पेटी, बैग, बिस्तर इत्यादि जो कुछ भी सामान है उसको तैयार करके खड़े हो जाते हैं। उस आने वाली गाड़ी की ओर दृष्टिपात करते हैं, क्योंकि गाड़ी नियम से आने वाली है, उससे पहले हम स्टेशन पर न सोयें, लेकिन मजे की बात यह है कि आप इतने निश्चिन्त हो कि स्टेशन के ऊपर भी रेल चली आए तब भी आप सोते रहते हैं। महावीर भगवान् ने कहा कि चिंता मत करो जो कुछ होता है वह होता रहता है। अरे भैया! होता तो रहता है, बाद में स्टेशन पर ही आपका जीवन रह जायेगा, गाड़ी तो पार हो जायेगी। महावीर भगवान् जैसी अनेक गाड़ियाँ निकल चुकी हैं, पर आप लोग अभी यहीं पर ही बैठे हो, समझ में नहीं आ रहा है। बाहर निकलिये, स्टेशन पर खड़े हो जाइये, खाना पीना जो कुछ भी है......सब......सब कुछ....भले ही खड़े-खड़े खाली, लेकिन दृष्टि मात्र गाड़ी की ही ओर रहे अन्यत्र नहीं। उसी प्रकार मृत्यु की भी गाड़ी आने वाली है उससे पहले अपने आप को सचेत करते हो तो आप का जीवन स्वर्ण के समान निखर जायेगा। अन्यथा कई बार जन्में हैं, कई बार मृत्यु की गोद में चले गये हैं, कई बार कब्रिस्तान बने हैं और कई बार जन्म स्थान बने हैं और ये सब बनते बनते कितने स्थान खाली हुए हैं, यह सब भगवान् जानते हैं जो महावीर बन कर ऊपर गए हैं, नीचे वालों की दशा जानते हैं। इसलिए यहाँ उन्हें बोलना पसंद नहीं आया, रहना बी परंद नहीं आया, बातचीत करना तक परंद नहीं आया नहीं आया, क्योंकि वह हम लोगों की आदत भी जानते हैं। हम ऐसे हैं जैसे ठर्रा मूंग रहता हैं ना, और वह ठर्रा मूंग कभी सीझता नहीं हैं, कभी भीगता नहीं, उसके द्वारा कभी भी दाल नहीं बन सकती, क्या होगा? उसको बोए तो कभी वह धान पैदा नहीं कर सकता। ऐसे ही आप लोगों का जीवन भीगता नहीं, वर्षा होने के उपरांत तो भीगना चाहिए। महावीर जैसे तीर्थकर, राम जैसे पुरुषोत्तम पुरुष आए और उन्होंने धर्मामृत की वर्षा भी की, लेकिन आज तक आप गीले नहीं हुए। आप कहते हैं कि महाराजजी! भींग तो गए थे, लेकिन फिर सूख गए हैं। और ऐसा सुखा लिया आप लोगों ने, ऊपर ऊपर भींग गए होंगे भीतर से भिगाव नहीं आया था और भीतरी भिगाव ही एक प्रकार से भिगाव माना जाता है। एक से एक महान पुरुषों का संयोग आपको अपने जीवन में मिला फिर भी आप लोगों के जीवन में परिवर्तन न आये तो कौन से जीवन के माध्यम से आपमें परिवर्तन आने वाला है? साथ-साथ इस भूमि पर महावीर की यात्रा का स्पर्श हुआ, यहीं पर अनेक महान संतों ने विचरण किया, अपनी पदरज के माध्यम से हम लोगों को पवित्र बनाया लेकिन फिर भी हम लोगों के अन्दर वह पवित्रता आज तक नहीं आई। तो हमने पहले कहा था ध्यान रखना कि करंट बिना वह बल्ब वह ध्वनि कुछ भी हो वह हमें उपलब्ध नहीं होने वाली। केवल इधर-उधर लाईट फिटिंग करवाने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होने वाला है। करंट को प्रवाहित होने दो। महावीर भगवान् ने करंट को प्रवाहित किया था लेकिन हमने अपनी उस लाइन में उसको जगह नहीं दी। करंट यदि आ भी जाये तो भी हमने बटन नहीं दबाया, बटन दबाने के लिए हम कोशिश भी करें तो आप लोग कहते हैं कि महाराज इसमें बहुत तकलीफ होती है। दाम तो हमें देना पड़ेगा। आप देख लो, दाम नहीं देना चाहेंगे तो तीनकाल में वह माल मिलने वाला नहीं है जो भीतर घुसा हुआ है, अन्दर बैठा हुआ है। बन्धुओ! महावीर भगवान् की जयन्ती से हम अपने को अजर अमर बनाने का निष्कषायी बनाने का प्रयास करें तभी यह महावीर जयंती मनाना सार्थक है। वैसे तो आत्मा का न जन्म होता है और न मृत्यु केवल ऊपर का शरीर मात्र बदलता जाता है। जैसे पुराना वस्त्र जब जीर्ण शीर्ण होकर फटने लग जाता है तब उसे आप लोग चेंज कर देते हैं, वैसे ही जब तक यह आत्मा संसार से मुक्त नहीं होती तब तक यह नई नई पर्यायें, शरीर के रूप धरता चला जा रहा है। इसी प्रकार की यात्रा अनादिकाल से चली आ रही है। यही एक बंधन है, यदि इसके ऊपर उठना चाहते हैं तो महावीर भगवान् के आदर्शमयी जीवन को जानो, पहचानो और उसी के अनुरूप बनने की चेष्टा करो। अंत में चार पंक्तियाँ कहकर मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ - नीर निधि से धीर हो, वीर बने गंभीर। पूर्ण तैरकर पा लिया भव सागर का तीर॥ अधीर हूँ मुझे धीर दो सहन करूं सब पीर। चीर-चीरकर चिरलखें अन्तर की तस्वीर॥ || भगवान् महावीर स्वामी की जय || आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर महाराज की जय ||
  18. भारतीय संस्कृति मिटती सी जा रही है। फिर भी हम लोगों की धारणा है कि सतयुग आयेगा विश्व में शांति आयेगी और यदि हमारा आचरण ठीक नहीं है तो वह सतयुग वह विश्वशांति ‘न भूतो न भविष्यति'। जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है वह अन्याय को ही नहीं सारे विश्व को झुका सकता है अपने चरणों में..........। मैं जैन हूँ/मैं हिन्दू हूँ/मैं सिख/ ईसाई और मुस्लिम हूँ। हमारी इस प्रकार की मान्यता समाजरूपी विशाल सागर के अस्तित्व को समाप्त कर देगी। चिरकाल तक संघर्ष करने के उपरांत भी, अंत में धर्म की ही विजय होती है। क्योंकि! सत्य अमर है, और असत्य की पग-पग पर मृत्यु। जिस प्रकार बिना खिड़की या दरवाजे के कोई मकान सम्भव नहीं उसी प्रकार समस्त संसार में बिना गुणों के कोई मनुष्य नहीं। ...........गन्ध की आवश्यकता होने पर हम फूल या सुगंधित पदार्थों की गवेषणा करते हैं। प्रकाश की आवश्यकता होने पर सूर्यनारायण अथवा दीपक की प्रतीक्षा करते हैं। शीतलता की आवश्यकता होने पर सघन छायादार वृक्ष अथवा शीतल गंगाजल की प्रतीक्षा करते हैं। जिन-जिन पदार्थों से आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, उन पदार्थों के पास हम चले जाते हैं। पदार्थ ही हमारे लिये संतुष्टिदायक नहीं है किन्तु पदार्थ के अन्दर जो बैठी हुई ‘शक्ति' है, वह गुण-धर्म, वह 'प्रकृति' हमारे लिए सन्तुष्टि देने वाली है। पदार्थ के बिना गंध नहीं रह सकती और गंध के बिना पदार्थ नहीं रह सकता। सूर्य या दीपक के बिना हमें प्रकाश उपलब्ध नहीं हो सकता। नदी के बिना जल और वृक्ष के बिना छाया नहीं मिल सकती, तिल के बिना हमें तेल की उपलब्धि नहीं हो सकती। किन्तु! हम तेल के पास न जाकर तिल के पास जाते हैं। छाया के पास न जाकर छायादार वृक्ष के पास जाते हैं। शीतलता के लिए हम जल के पास चले जाते हैं और जल को अपनाना प्रारम्भ कर देते हैं। जिस समय से हमें यह सब पदार्थ अपने-अपने गुण-धर्मों को देना बन्द कर देंगे, उसी समय से हम इन पदार्थों को भूल जायेंगे। आज अभी एक सज्जन ने कहा है कि हम विश्व हिन्दू परिषद् की तरफ से बोल रहे हैं। ध्यान रहे ‘हिन्दू' बाद में आयेगा ‘हिंसा का त्याग ' पहले आयेगा। हिंसायां दूष्यति तिरस्कार करोति इति हिन्दू हिन्दू कोई व्यक्ति है, और उस व्यक्ति को ऊपर उठाने वाली वस्तु, वह गुण, यह प्रकृति है 'अहिंसा'। हम अहिंसा के उपासक हैं। धर्मी के बिना धर्म नहीं रह सकता, इसलिए धर्म की चाह से हम धर्मी की शरण में चले जाते हैं। हम किसी व्यक्ति की पूजा नहीं करना चाहते, किसी क्षेत्र से बंधना नहीं चाहते, किसी एक वस्तु को हम ऊपर नहीं उठाना चाहते। वह वस्तु, वह क्षेत्र, वह व्यक्ति अपने आप ऊपर उठेगा यदि उसके पास व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व धर्म है, स्वभाव है, गुण है, और गुण के अभाव में गुणी, धर्म के अभाव में धर्मी और व्यक्तित्व के अभाव में व्यक्ति कभी भी नहीं पूजा जाता। यह मात्र भारत देश की ही विशेषता है कि यह किसी भी प्रकार से उस व्यक्ति की पूजा नहीं कर सकता। उस क्षेत्र को नहीं उठाना चाहता, क्षेत्र अपने आप उठेगा यदि क्षेत्र के पास योग्यता है। फूल के पास गंध हो तो फूल अपने आप भगवान् के चरण कमलों में चला आयेगा, यहाँ तक कि रागी के कण्ठ का हार बन जायेगा। लेकिन! जिस समय उस फूल की गंध उड़ जायेगी तो ध्यान रखो! आप उसे पैरों से भी कुचलना पसन्द नहीं करेंगे। आज यदि भारत टिका है, तो उन सारभूत वस्तुओं के मूल्यांकन से ही टिका है। वस्तुगत धर्म, स्वभाव, गुण है, उसी की वजह से ही है। वस्तुत: हम गुणों को देखकर उसी गुणी को ऊपर उठाने का प्रयास करें। वह गुणी कोई भी हो सकता है। बस गुण होना चाहिए, फिर जाति से शरीर से, मजहब से अथवा किसी कौम से कोई मतलब नहीं है। राजा या रंक उसके सामने कोई वस्तु नहीं है। जिसके पास गुण है वह नियम से पूजा जायेगा। एक मात्र अहिंसा धर्म की रक्षा के लिए उसका अनुसरण करने के लिए हमें कटिबद्ध होना है। आज तक हम लोगों ने याद नहीं किया, वह अहिंसा धर्म हमारे दिमाग से उतर गया और इसकी कीर्ति स्तुति हम लोगों ने नहीं गाई। यद्यपि! हमारे पास वह शक्ति उपलब्ध है फिर भी उसका मूल्यांकन आज तक हमने नहीं किया। उसी का परिणाम है कि पाप के भार से धीरे-धीरे यह धरती नीचे की ओर खिसकती जा रही है। आज आसमान में यदि कोई हाथ फैलाये तो आलंबन नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में ना तो हमें ऊपर आधार है और ना ही नीचे। हम बिलकुल निराधार हैं और निराधार होकर व्यक्ति कब तक जी सकता है? संभव ही नहीं! हम किसी एक नामधारी भगवान् को पुकारते हैं, हम किसी एक व्यक्ति की पूजा करना चाहते हैं तो उसके बीच अनेक प्रकार के आवरण और ले आते हैं। किन्तु! उस आवरणातीत सभी कलकों से रहित भगवान् और उस धर्म की पहिचान हमारी आँखों के द्वारा नहीं हो पाती। जिस दिन धर्म की सही-सही पहिचान हमारे द्वारा हो जायेगी, तो फिर ध्यान रखना! उसी दिन से भक्त और भगवान् के बीच की दूरी समाप्त हो जायेगी। असीम संसार-सागर भी स्वल्प दिखने लगेगा और हमारे अन्दर का कालुष्य भाव क्रमश: समाप्त होता जायेगा। गुलाब के फूल में यदि उसी प्रकार की गंध फूट रही हो, तो उसे हम पहिचान लेते हैं। और यदि कागज का फूल लाकर सामने रख दिया जाये तो आँखें तृप्त हो जायेंगी पर नासा कह देती है भैया! यह गुलाब का फूल नहीं है क्योंकि! मैं उपस्थित होकर भी उसकी गंध का पान नहीं कर पा रही हूँ। इससे स्पष्ट होता है ज्ञाता को, ज्ञानी को, भोक्ता को, ज्ञात होता है कि वस्तुत: यहाँ पर मायाचार है। यहाँ पर कुछ अभिनय नाटक-सा चल रहा है, जिससे मूल तत्व के अभाव में वस्तु फीकी-सी लग रही है और वस्तुत: भौतिक सामग्री का फीकी लगना ही, सुख शान्ति के रसास्वादन का प्रथम कदम है, पर पदार्थ से हटाकर निज की ओर आना है। हमें सुख शान्ति चाहिए, विश्व में शान्ति हम लाना चाहते हैं तो बन्धुओं! उसका अधिकरण उसकी आधारशिला कौन-सी वस्तु है? उसे देखना होगा। किसी पेड़ पौधे पर यह सुख शान्ति लटकी हुई नहीं है, जिस पर चढ़कर हम उसे तोड़ लें। किसी नदी नाले में वह धर्म बह नहीं रहा है, जिसको हम अपने घड़ों में समेट सकें और उसका पान कर सके। वह किसी दुकान में मिलने वाली वस्तु नहीं है। वह वस्तु तब मिल सकती है, जब हम गहराई से सोचें की यह प्राप्तव्य वस्तु किसका गुण धर्म है। भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति, जिसमें पश्चिमी संस्कृति ने पूर्वी संस्कृति के ऊपर एक ऐसा आवरण लाकर रख दिया है कि उसको हम पहचान नहीं पा रहे हैं। गंधहीन पुष्प को हम सूघते जा रहे हैं और हम सोच रहे हैं कि गंध क्यों नहीं आ रही है? क्या जुकाम तो नहीं हो गया? जिन्होंने इसको बेचा है, दिया है, उनका यही कहना है कि तुम अपनी नासा ठीक कर लो हमारा फूल तो ठीक है। और हम बिलकुल अन्धविश्वासी हैं कि उसमें ऐसे लग गए हैं, नासा की चिकित्सा भी हो गई, आशा है ही नहीं यहाँ पर कि उस मौलिक गंध को पकड़ सके। फिर भी हम भगवान् से प्रार्थना कर रहे हैं कि भगवन्! आपने फूल तो दिया लेकिन! नासा को काट लिया। ध्यान रखना बन्धुओ! भगवान् हमारी नासा को काटने वाले नहीं हैं। हमारे पास नासा है जानने की क्षमता है लेकिन! जिसे ज्ञेय बनाया है वह फूल है ही नहीं। फूल में गंध नहीं है, फिर भी हम उसी के चारों ओर मंडरा रहे हैं यह पूर्वी सभ्यता नहीं है। ज्ञान का महत्व है-ज्ञेय का नहीं, दर्शन का महत्व है दृश्य का नहीं। भोग का नहीं भोक्ता का मूल्यांकन करना प्रारंभ कर दें आप। वह भोक्ता पुरुष ज्ञानी है, संवेदक है उसके पास देखने की शक्ति है। आँखें हों तो दृश्य समाहित हो सकता है लेकिन! दृश्यों के ढेर भी लगा दिये जायें और यदि वहाँ पर दृष्टि नहीं है तो आप सृष्टि का निर्माण भले ही करते चले जाइये, तृप्ति तीन काल में होने वाली नहीं है। बाह्य पदार्थों में सुख नहीं है वह हमारे अन्दर ही भरा हुआ है। हम बाह्य पदार्थों की ओर न जाकर अपने आत्म तत्व की ओर आयें, धर्म यही सिखाता है। धर्म के माध्यम से ही हमारे जीवन में निखार आ सकता है धर्म के माध्यम से ही हमारी सारी की सारी योजनाएँ सफल होने वाली हैं। चाहे वे लंबीचौड़ी क्यों ना हों बहुत जल्दी हमारे अनुरूप ढल सकती हैं पूर्ण हो सकती हैं। केवल एक शर्त है, हमारी दृष्टि भीतर की ओर हो। ध्यान रखना! गुण प्रत्येक प्राणी के पास हुआ करते हैं। गुणों की गवेषणा हमारे पास होनी चाहिए। मैं आप से पूछना चाहता हूँकि आपके नगर में हजारों घर होंगे? आपने कभी ऐसा दृश्य देखा है क्या कि उन घरों में महाप्रासादों में कहीं भी एक न एक दरवाजा अथवा खिड़की ना हो। आपने देखा होगा, चार दीवालें मिलेंगी, भले ही घासफूस की हों, लेकिन उस महाप्रासाद में भी दरवाजा मिलेगा और उस कुटिया में भी। जिस प्रकार समग्र विश्व में बिना खिड़की या दरवाजे के कोई मकान सम्भव नहीं उसी प्रकार समस्त संसार में बिना गुणों के कोई मनुष्य नहीं। यह बात अलग है कि गुणों में हीनाधिकता पाई जाती है। बस! देखने की आवश्यकता है। गुणों की गवेषणा करने वाली दृष्टि अपने आप गुणों को पकड़ लेगी। लेकिन हम ब्रह्मा को भी दोषी सिद्ध कर देते हैं, कि गुलाब का फूल तो बनाया लेकिन काँटों के बीच में बना दिया, इतनी गलती तो हो गई है। हाँ. आपकी नाक में ही पैदा कर देते? आपकी नाक में भी गुलाब का पौधा लग जाये, फिर भी आपको ज्ञान नहीं होगा। चूँकि आपकी नासा, आपकी ज्ञान की धारा बाहर ही भाग रही है भीतरी गवेषणा करने की शक्ति उसके पास नहीं है। हम ज्ञेयों के ऊपर मँडरा रहे हैं, ज्ञान के ऊपर हमारा कोई लक्ष्य नहीं। जो धर्म की गवेषणा करता है, जो धर्म की खोज करता है वह व्यक्ति गुणों को ढूँढ लेता है, गुणों की पहचान किये बगैर हम तीन काल में धर्मात्माओं को नहीं देख सकते धर्म के अभाव में धमों और धमों के अभाव में धर्म तीनकाल में मिलने वाला नहीं है। दोनों का संबंध अभिन्न है दोनों का जीवन एक है। यदि स्वर्ग से भी रत्नों की वर्षा हो जाय, तो भी आप लोगों को तृप्ति नहीं मिलने वाली क्योंकि आप लोगों की दृष्टि गुणों की ओर नहीं उन मणि-मालाओं की ओर है। किन्तु उसका उपभोक्ता रागी है, द्वेषी है, कषायी है, विषयी है, लोभी है, दूसरों के सुख को देखकर जलने वाला व्यक्ति तीन काल में तृप्ति, सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। पड़ोस की दुकान में अग्नि लगी हो और उसकी लपट आपकी दुकान तक ना आये यह तीन काल में भी सम्भव नहीं है। ऐसी ही विषय-कषाय की लपटें हैं, जो स्वयं को एवं दूसरे को भी सुख-शान्ति का अनुभव नहीं करने देती। देश-विदेश में ही नहीं सारे विश्व में जलन प्रारम्भ हो चुकी है। क्यों? तो इस प्रश्न का एक ही उत्तर है, गुणों का अभाव। जिस प्रकार भवन या कुटिया में एक न एक दरवाजा अवश्य होता है, उसी प्रकार चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भी वस्तु हो उसमें गुण अवश्य मिलेंगे। गुणों को देखने की आवश्यकता है, आप लोग अपनी आँखों के ऊपर जो अज्ञानता का चश्मा लगाये हो, उस चश्मा को उतारें, जिसके द्वारा हमें गुण देखने में नहीं आ रहे हैं। भले ही आप माइक्रोस्कोप लगा लीजिए, लेकिन! इस आधुनिक माइक्रोस्कोप से भी यह महान् कार्य संभव नहीं है। पदार्थ को देखकर मात्र भोग वृत्ति का होना गुणों को नियम से गौण कर देता है। एक मात्र भोग ही उसके सामने आयेगा। उसके सामने वह चैतन्य मूर्ति जो संवेदनशील आत्मा है, वह तीन काल में आने वाली नहीं है। आज हमें सोचना है कि वह शान्ति कैसे प्राप्त हो? उस शान्ति को देने वाले कौन हैं? तो वह अपने आप ही प्रश्न का उत्तर पा जाता है कि यदि शान्ति कहीं है तो मात्र आत्मा में है। ज्ञान यदि आत्मा का गुण है तो ज्ञान गुण के माध्यम से ही आत्मा, सुख का अनुभव कर सकता है। बाहर में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो सुख शान्ति का अनुभव करा दे। वह शान्ति का पान करने वाला व्यक्ति किसी डिबिया में बन्द करके रखने वाली वस्तु नहीं है। भोग की ओर दौड़ लगाने वाला यह युग धर्म का नाम तो लेता है किन्तु धर्म की भावना नहीं रखता। जब सुख-शान्ति प्राप्त करने का हमने लक्ष्य ही बनाया है तो जिन्होंने सुख-शान्ति प्राप्त की है उनकी हम पहले गवेषणा करें। ताकि ! उनके निर्देशन के माध्यम से हम अपने आत्म तत्व तक पहुँचने का प्रयास कर सके। ये महान् आत्माएँ ऐसी हैं जिन्होंने आत्मनिर्भर होकर निष्कलंक अवस्था को प्राप्त किया है। जो किसी को किसी भी रूप में लाभ पहुँचाने की दृष्टि नहीं रखते हैं। क्योंकि लाभ हानि तो अपने उपादान के अनुरूप होती हैं। इसलिए ऐसे प्रभु! जो अपने आप में स्थिर हैं उनकी हम गवेषणा करें तभी इन आँखों के द्वारा उन्हें हम देख सकेंगे, उनके वास्तविक स्वरूप को समझ सकेंगे। उनके माध्यम से हमें वह दिशा बोध प्राप्त होगा जो अकथनीय है। जिसके द्वारा हम अपने अन्दर स्थित होकर जान सकेंगे, पहिचान सकेंगे और वह तत्व जो अनादिकाल से अननुभूत है, उसे अनुभूत कर सकेंगे। भगवान् ने हमारे लिए यही आदेश दिया है, कि तुम जो चाहते हो उसका दिशा बोध पहले प्राप्त कर लो। सर्वप्रथम आत्मा क्या है? इसको पहचानो और उस आत्म तत्व को प्राप्त करने सत्य का पक्ष, न्याय का पक्ष अनिवार्य है। उस मार्ग को पहचानने की जिज्ञासा आप रखिए! रामनवमी यहाँ पर कुछ दिनों पहले मनाई जा चुकी है, और बीच में आ गए थे हमारे आराध्य प्रभु! महावीर भगवान्, महावीर जयंती के उपलब्ध में आपने उनके पावन आदशों को सुना समझा। उसी श्रृंखला में त्रयोदशी के बाद पूर्णिमा के दिन किसका जन्म हुआ था? वो कौन थे? बजरंगबली............! वह व्यक्तित्व अनोखा था, जिसका भारतवर्ष में बड़ा महत्व है। राम ने भी उसे मंजूर किया था, महावीर ने भी उसे मंजूर किया था, क्योंकि भगवान् महावीर बाद में हुए थे और राम-हनुमान का काल एक ही है। उस समय राम ने उस व्यक्तित्व से क्या लाभ उठाया? उस व्यक्तित्व के पास ऐसी कौन-सी विशेषता थी? उसे आज हमें संक्षेप में समझना है। यद्यपि भगवान् महावीर के उपासक जैन माने जाते हैं राम भगवान् के उपासक ब्राह्मण माने जाते हैं और बजरंगबली के उपासक पहलवान माने जाते हैं। इन लोगों ने हनुमान का रूप क्या माना है सो वे ही जानें। विष्णु की उपासना करने वाले वैष्णव हैं। बुद्ध की उपासना करने वाले बौद्ध हैं। इस प्रकार विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से ज्ञात हो चुका है। लेकिन! यह ध्यान रखना है कि यह बिखरा हुआ अस्तित्व किसी काम का नहीं है। मैं जैन हूँ/ मैं हिन्दू हूँ/ मैं सिख/ ईसाई और मुस्लिम हूँ इस प्रकार की मान्यता हमारे समाज रूपी सागर के विशाल अस्तित्व को समाप्त कर देगी। टुकड़ों-टुकड़ों में बँटकर एक बूंद के रूप में रह जायेगी, जिस बूंद को समाप्त होने में देरी नहीं लगेगी मात्र थोड़ी सी सूर्य की तपन पर्याप्त है। पथ पर आने के उपरांत जब बहुत सारे पथ फूटते हैं चौराहा आ जाता है, तब प्राय: करके मनुष्य भूल जाता है। पथ एक होगा तो राही तीन काल में नहीं भूलेगा। लेकिन! एक पथ को चुनना पड़ता है और आजू-बाजू को गौण करना अनिवार्य होता है। आँखें प्राय: करके पथ से विचलित होकर अन्य पथ की ओर जाती हैं। राम को होश नहीं है, वे विचलित से घूम रहें हैं सीता का हरण हो चुका है। नदी के पास जाकर पूछते हैं : - हे गंगा! मेरी सीता कहाँ गई है? बता दे! तू इतनी दूर से आ रही है, सरकती-सरकती संभव है तेरे पास आकर उसने स्नान किया हो, पानी पिया हो, संध्या वन्दन किया हो? अरहंत-परमेष्ठी का तेरे तट पर आकर ध्यान किया हो? मुझे बता दे, फिर वे जाकर वृक्ष से पूछते हैं, हे आम्र वृक्ष! तू बता दे, तुम्हारे फल जैसे कोमल-कोमल रसदार उसके गाल थे, वे सूख रहे होंगे, न जाने कैसी स्थिति होगी? तुम्हीं बता दो। इस प्रकार राम, कंकर-पत्थर तक से सीता के बारे में पूछते जा रहे हैं। कितनी दयनीय स्थिति होगी? उस समय किसी ने बताया तक नहीं था। ऐसे विषम वातावरण में एक और घटना घटती है। एक भूले भटके विपत्तिग्रस्त व्यक्ति से दूसरा विपत्तिग्रस्त व्यक्ति मिल जाता है और कहने लगा, हे शरणदाता! प्रजा रक्षक मुझे बता दीजिए मेरी पत्नि कहाँ चली गई? उसे कौन चुरा कर ले गया, मेरे लिए रास्ता बता दो? जब दूसरा रोने लगता है तो एक के रोने में थोड़ी सी कमी आ जाती है और दूसरा हँसने वाला मिल जाता है तो हँसने में भी कमी आ जाती है। दोनों ही बात है भैया! कोई हँस रहा हो, सामने कोई हँसने वाला आ जाता है, तो हँसने वाला रो भी सकता है। क्योंकि कोई उसको क्रिटीसाइज (आलोचना, निंदा) के रूप में हँस दे तो? दो बार आप हँसोगे तो नियम से सामने वाला व्यक्ति सोचेगा कि यह क्यों हँस रहा है? आगे-पीछे देखने लग जाता है, तुम जो हँसी की बात कर रहे हो बताओ तो सही क्यों हँस रहे हो? यह कहते ही गंभीरता आ जाती है। सामने वाला जो व्यक्ति हँस रहा है उसके ऊपर रोष अभिव्यक्त हो जाता है। राम ने आते ही उससे पूछा :- तुम्हें क्या हो गया है? मेरी प्यारी पत्नि को भी किसी ने हर लिया! दुखित स्वर में उसने कहा। अच्छा कोई बात नहीं। राम ने सांत्वना दी। और उसी समय राम ने सबको कहा कि इसकी पत्नी को जल्दी लाकर के दे दो। यह बहुत दुखी है, कहीं इसके प्राण ना चले जायें ! इसकी पत्नी दिलाना हमारा परम कर्तव्य है। शरणागत दीन दुखी असहाय जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, संकटों से बचाकर उनका पथ प्रशस्त करना यही क्षत्रिय धर्म है। इस प्रकार किसी व्यक्ति की पूर्ति करा देने पर हमें भी अपनी खोई हुई चीज मिल जायेगी और वह व्यक्ति खुश होकर अपनी मदद भी करेगा। जितने व्यक्तियों की संख्या बढ़ेगी मार्ग उतना ही प्रशस्त होता जायेगा। इस व्यक्ति को जरूर अपनाओ, हमारे जैसा ही इसका दुख है। कुछ समय बाद सभी के प्रयास से सुग्रीव को अपनी पत्नी सुतारा मिल गई। फिर वह खुशी के साथ चला गया, कहाँ चला गया? घर? संभव ही नहीं। अब घर कैसे चला जायेगा पत्नी को लेकर के? जिसने इतना बड़ा उपकार किया है उसके अलावा अब उसका कौन सा घर है? वह वहीं पर साथ रह गया। वहाँ पर उसे, उस अजेय पुरुष के व्यक्तित्व का ज्ञान हुआ, जिसका आज के दिन जन्म हुआ था। न्याय का पक्ष लेने वाला वह व्यक्ति था। कोई भी व्यक्ति क्यों न हो? एक बालक भी उस ओर हो जायेगा जिस ओर न्याय का पक्ष है। न्याय प्रिय व्यक्ति अन्याय का पक्ष नहीं लेता, चाहे अन्याय का पक्ष सागर जितना विशाल क्यों न हो? न्याय किसे कहते हैं :- नयति सत्पथेन प्राप्तव्यं इति न्यायः न्याय वह है जो चलने वाले पथिक को गन्तव्य तक पहुँचा देता है। जो इट वस्तु है उसको प्राप्त करा देता है। उसने ज्यों ही सुना त्यों ही वहाँ पर आकर के कहा कि आप चिंता मत करिये! जब तक यह जीवित रहेगा तब तक आपकी सेवा के लिए तत्पर है। लेकिन! इसको एक मात्र सत्य की आवश्यकता है बस, यही अपनी खुराक है। हमारा केवल न्याय का पक्ष है हमें किसी को मारना नहीं है हमें किसी को सताना नहीं है। यदि हमें कोई सताता है तो उसका विरोध करना हमें आवश्यक होगा। हम लड़ेंगे, लेकिन किसलिए लड़ेंगे? दूसरे की वस्तु छीनने के लिए नहीं, किन्तु! कोई हमारी वस्तु छीनने के लिए आता है तो उसका प्रतिकार हम अवश्य करेंगे। यह हमारी नीति है, यह हमारा पक्ष है यह हमारा धर्म है और इसी के बल बूते पर हम जियेंगे। जी चुके हैं, जी रहे हैं। विश्व में शांति इसके बिना संभव नहीं है। लड़ने से कहीं क्रांति हो रही है, कहीं कोई मिट रहा है ऐसा नहीं है। लड़ाई बन्द करने से किसी का जीवन चले ऐसा भी नहीं है। लड़ाई लड़े किन्तु! न्याय पूर्वक लड़े। आज लड़ाई कौन लड़े? आज रणांगण में कौन कूदता है? आजकल तो छुप-छुप करके रडार के माध्यम से लड़ाई चल रही है। रडार फेल हो जाय तो ये लोग भी फैल हो जायेंगे। आप लोग तो मशीन के द्वारा काम लेते हो। मशीन चलती रहेगी काम चलता रहेगा, मशीन बन्द.आप भी बन्द। एक दिन वह आने वाला है, जब लोगों को उसी द्वापर युग. उसी सतयुग की ओर दृष्टिपात करना पड़ेगा। वही आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा। अन्यथा संभव नहीं है। क्योंकि आज कुआँ नहीं हैनल आ गया। नल भी बन्द हो जाय तो-दस मंजिल के ऊपर आपकी क्या स्थिति होगी? भगवान् ही मालिक है। इसके उपरान्त भी आप कोशिश कर रहे हैं कि वह नल हमारे घर में ही क्यों? हमारे बाजू में आ जाय, और बगल में ही क्यों? हमारे मुंह में ही टोंटी खुल जाय। यह भी संभव है, खुल भी सकती है लेकिन! उस टोंटी का बटन कहाँ पर लगाओगे और कैसे खोलोगे? प्रमाद बढ़ता चला जा रहा है। न्याय का पक्ष लेना मेरा जीवन है, अन्याय का पक्ष लेने मैं नहीं जाऊंगा, मैं आपकी इच्छा पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ। जब तक मैं हूँ तब तक आपको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। वह चला गया सर्वप्रथम वहाँ जहाँ पर रावण का वृतांत उसको सुनने में आया था। रावण और हनुमान निकट संबंध को रखने वाले थे। फिर भी हनुमान ने रावण के विपरीत काम करना प्रारम्भ कर दिया। विद्याधरों का अधिपति रावण माना जाता था और यदि रावण के पक्ष की ओर हनुमान हो जाता तो मालामाल हो जाता। आप होते तो माल की ही ओर देखते। लेकिन! हनुमान ने माल की ओर देखा तक नहीं। भीतर बैठा है मालिक, अपने आप ही माल आ जायेगा, माल की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ मालिक नहीं है, इसलिए माल सप्लाई हो रहा है, बाहर की ओर। भीतर मालिक होना चाहिए। भोक्ता, वह स्वामी, वह प्रभु, वह शक्ति आत्मा की, उसके माध्यम से हम तीन लोकों को हिला सकते हैं। हनुमान ने रावण से कहा कि मैं आपकी ओर नहीं बोलूगा, मैं सीता से संवाद करना चाहता हूँ। सीता कहाँ पर बैठी है? मुझे वहाँ पर भेज दो। इसके के उपरान्त विभीषण को साथ लेकर हनुमान जाते हैं उस उद्यान में जहाँ पर सीता बैठी थी.......ग्यारह दिन की उपवासनी। ग्यारह दिन हो गए थे पति का विछोह हुए। अन्न पान सब कुछ त्याग कर दिया है। आज की सीता तो आप जानते ही हैं! आज रामजी भी कहाँ हैं जो हम सीता की बात कर दें? महिलाओं को देखकर के पति कहता है कि कम से कम सीता जैसा जीवन तो लाओ, और वह पत्नि कहती है कि हाँ......हाँ......ठीक है आप रावण जैसे बन बैठे हो घर में और सीता की बात कर रहे हो! बात दोनों की ठीक है। वह चाहता है कि मेरी पत्नी सीता जैसी बन जाये, और वह चाहती है कि मेरा पति राम बने। पर दोनों का जीवन राम जैसा नहीं और सीता जैसा भी नहीं। आजकल तो उन महापुरुषों के फोटो तक समाप्त हो रहे हैं। कम से कम उन चित्रों को तो देखो जिन चित्रों में वह चरित्र आज भी झलकता है, वह धर्म टपकता है, वह कीर्ति, वह स्वभाव, वह सारा का सारा जीवन तैरकर आँखों के सामने आ जाता है। रामायण की कोई भी एक पंक्ति ले लीजिए अपने आप, वह दण्डक वन.....वे दशरथ.वे कैकयी.......वे राम, भरत, लक्ष्मण, वे हनुमान, वे सीता। जैसे टेलिविजन चल रहा हो, साक्षात् चित्र उतरकर मानस-पटल पर आ जाते हैं। आप पुराणों को पढ़ना प्रारंभ कीजिए और उपन्यासों को लपेटकर रख दीजिए, नहीं तो उपन्यासों के साथ-साथ आपका भी नाश हो जायेगा । भैया! उपन्यास को पढ़कर ना आज तक कोई संन्यासी बना है और न ही बनेगा, हाँ.....उपन्यास की शैली में यदि हम उस चरित्र को देखना चाहें तो यह बात संभव है। उपन्यास की शैली से मेरा विरोध नहीं है। लेकिन! भावना, दृष्टि, हमारा उद्देश्य साफ-सुथरा रहना चाहिए। उन महापुरुषों के कार्य उनके गुणों को हम पहचानने का प्रयास करें। वह ग्यारह दिन का उपवास किये बैठी है। हनुमान जाकर के सर्वप्रथम वन्दना करते हैं और कहते हैं कि मैं राम के पास से आया हूँ। विश्वास नहीं होता, ग्यारह दिन निकल चुके हैं राम का विछोह हुए, बारहवें दिन क्या होगा ज्ञात नहीं? किंतु सीता को विश्वास था। जहाँ पर धर्म है, जहाँ पर न्याय है, जहाँ पर शील व्रत है, जहाँ पर कर्तव्य है वहाँ पर सब कुछ पलट सकता है। रात्रि बारह घंटे की होती है लेकिन! प्रभात को देखकर डरती है, सूर्य नारायण के नाम से ही काँपती है, उससे दूर भागना चाहती है। छिन्न-भिन्न हो जाती है । वह पाप का उदय कब तक चलेगा? भीतर पुण्य जगमगा रहा है। उसके प्रकट होने से पाप का उदय नौ.......दो ग्यारह हो गया। सीता हनुमान से प्राप्त मुद्रिका रख लेती है उसके भीतर उसे राम का दर्शन होता है। हनुमान के मुख से सारा वृतांत सुन लेती है, और धीरजता की शीतल श्वाँस लेने लगती है। हनुमान कहते हैं कि यहाँ से हम आपको बहुत जल्दी ले जायेंगे, आप चिंता मत करिए! और अब कम से कम अन्नपान ग्रहण करना स्वीकार कर लीजिए। हम सब कुछ करेंगे। देख लीजिए वह हनुमान रावण की ओर नहीं गया और विभीषण को भी अपनी और ले लिया यह सब हनुमान का खेल है। उसने रावण से भी कह दिया कि हम न्याय का पक्ष लेने वाले हैं। वह विभीषण भी अपने बड़े भैया का पक्ष छोड़ देता है, सेना को छोड़ देता है, वित्त वैभव को छोड़ देता है। अपनी रक्षा का कोई सवाल नहीं उठा उसके मन में। वह सोचता है कि जहाँ पर धर्म है........सत्य है...........न्याय का पक्ष है, वहाँ पर रक्षा अपने आप होगी। जंगल में गायें चरती हैं और यदि चरवाहा अंधा है तो वहाँ पर भी पीछे से गोपाल (कृष्ण) आ जाते हैं गायों की रक्षा करने के लिये। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पाप-पुण्य है, अपने द्वारा किए हुए कर्म है। कर्मों के अनुरूप ही सारा का सारा संसार चल रहा है किसी के बलबूते पर नहीं। अभी-अभी मैं तेजो-बिन्दु उपनिषद् पढ़ रहा था उसमें लिखा है : - रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्म दृष्टेष्ट तुकारण। संहारे रुद्र को सर्व एव मित्थेपि-निश्चनो॥ इस श्लोक में बहुत अच्छी बात कही है। सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा है। जब साहित्य का, ग्रन्थों का अवलोकन किया तब ज्ञात हुआ कोई ब्रह्मा, विष्णु सृष्टि का कर्ता नहीं है। कोई रुद्र नहीं है जो उसका संहार करता हो। बंधुओ! ब्रह्म महान् दयालु होता है.वह संरक्षक है। विष्णु कभी इस बारे में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और महेश भी इस प्रकार का कार्य नहीं करेंगे। वह महाईश माने जाते हैं, महावीर माने जाते हैं। जो महान् वीर होते हैं वह हिंसक हों यह सम्भव नहीं है। इस प्रकार की कर्तव्य बुद्धि, संरक्षण बुद्धि और विनाशक संहारक बुद्धि को समाप्त करके तीनों को मिथ्या समझो। भीतर बैठा हुआ आत्मा ही अपने अच्छे बुरे परिणामों का कर्ता है। इसलिए वह आत्मा एव ब्रह्म: अस्ति आत्मन: और उसका परिपालन करने वाला होने से वही एक विष्णु है। वहीं अंत में अपने परिणामों को मिटाता है अत: वही एक महान् महेश है। इस प्रकार एक ही आत्मा ब्रह्मा, विष्णु और महेश है। इस प्रकार तेजोबिन्दु में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो भीतर गहराई में डूबकर लिखा गया है। दूसरे पर कर्तृत्व का आरोप लगाना मिथ्या है। दूसरे को भोक्ता समझना बहुत गलत है। अपने आपके स्वतन्त्र अस्तित्व को समझने के लिए ये वाक्य अमृत जैसे हैं। एक बार इसका गहन अध्ययन होना चाहिए। इसके माध्यम से हमें अपने जीवन में क्या ग्रहण करना-क्या छोड़ना? यह सब ज्ञात हो जायेगा। वस्तुत: संसारी प्राणी दूसरे के जीवन पर जीना चाहता है। अपने जीवन की डोर दूसरे के हाथ सौंपना चाहता है। कभी मालिक तो कभी नौकर बनना चाहता है। किन्तु! अपनी तीनों शक्तियों में जो मौलिक तत्व हैं उनको जानने की कोशिश नहीं करता। तो उस समय हनुमान ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं मैंने न्याय का पक्ष लिया और विभीषण को भी अपनी ओर मिलाया। मैं राम के पास गया हूँ रावण के पास नहीं। रावण को कोई नहीं चाहता, जबकि उसके पास आधिपत्य बहुत है और वह सार्वभौम माना जाता है। उसके पास सब कुछ है, बटन दबाते ही काम हो जाता है। पर बटन दबाते समय भी माइंड रखना आवश्यक है। बटन को दबाते समय यदि उसका ही बटन दब जाये तो फिर.बड़ा मुश्किल होगा। सब अपने पुण्य-पाप के ऊपर निर्धारित है। यह ध्यान रखना! कोई शक्ति प्राप्त हो जाये लेकिन! उस शक्ति का प्रहार, उस शक्ति का प्रयोग तब तक नहीं हो सकेगा जब तक धरती पर सत्य-अहिंसा है.धर्म है। जब तक अहिंसा है तब तक तीन काल में प्रलय संभव नहीं। धरती पर हिंसात्मक घटनाएँ तभी घटेगी जब मानव के अन्दर से भावनाएँ बदल जायेंगी। आणविक शक्ति का आविष्कारक आइंस्टीन महान् वैज्ञानिक माना जाता है। अंत में उसने लिखा है कि इस प्रकार का आविष्कार करके मैंने बहुत बड़ी गलती की है। परन्तु मैंने! ज्ञान की दृष्टि से, शक्ति की परीक्षा के लिए इस प्रकार का प्रयास किया था, मेरी दृष्टि विनाश की नहीं थी। किन्तु! तब तक यह संसार सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकेगा जब तक इसके भीतर से क्रोध, मद, मत्सर नहीं जायेगा। जिस दिन मानव का दिल और दिमाग फेल (खराब) हो जायेगा उसी दिन इस शक्ति के द्वारा प्रलय हो जायेगा। जब तक हमारे भीतर का ज्ञान सही-सही देवता की उपासना करता रहेगा तब तक यह दुष्कार्य तीन काल में संभव नहीं है। हमारी इस भौतिक निधि को फिर भी कोई ले जा सकता है। लेकिन हमारी भीतरी निधि, संस्कृति को मिटाने का हकदार इस धरती पर कोई नहीं है। वह अक्षुण्य बनी रहेगी। यह संस्कृति अभी वर्षों तक टिकने वाली है लेकिन! वह अपने आप नहीं टिक सकती। उसे टिकाने के लिए, स्थायी रूप प्रदान करने के लिए चारित्रनिष्ठ न्याय का पक्ष लेने वाले विभीषण, हनुमान जैसे महान् पुरुषों की जरूरत है। उन तीनों ने मिलकर रावण को हराया। सीता भी वापस मिल गई। राम लंका को जीतकर आ गए। अब प्रश्न उठता है लंका का राज्य किसको दिया जाये, देख लीजिए न्याय का पक्ष। रावण को तो दिया नहीं जा सकता, तो फिर किसे दिया जाय? अपने नाम से किया जाय, नहीं......विभीषण को दिया गया। यह है........न्याय का पक्ष। इसलिए हनुमान साथ दे रहे हैं। हनुमान को भी दे देते तो वह कहते-नहीं यह न्याय का पक्ष नहीं है और राम भी इस प्रकार की भूल कैसे कर सकते थे? सम्भव ही नहीं था। इतना काम तो हो गया, हमें और आगे बढ़ना है। हनुमान की परीक्षा और है। जो राम के लिए निर्देशन दे रहे थे वे भक्त भले माने जाते थे लेकिन! यह ध्यान रखना ये भक्त नहीं थे। भक्त बनकर देख रहे थे कि भगवान् आगे क्या करते हैं? प्रजा को कैसे चलाते हैं। ऐसा व्यक्तित्व था हनुमान का कि उन्होंने राम को समय-समय पर निर्देशन दिये। भक्ति की ओट में ही ऐसा काम होता गया है। राम का पूरा समय सुख-शान्ति के साथ व्यतीत हो रहा था। लेकिन! बाद में कुछ अपवाद के कारण राम ने अपने सेवक से कहा कि बस! ले जाओ सीता को और वन में छोड़ देना। इतना सुनते ही सब लोग अवाक् रह गये। हनुमान ने निडर होकर कहा - इसलिए सीता लाकर दी थी हमने? आज आप भूल रहे हैं। प्रभु! जरा अपने दिमाग से काम लो, हम आपके सामने कुछ भी नहीं हैं लेकिन! फिर भी कह सकते हैं भगवान् के साथ यदि भक्त ही वार्ता न करें तो कौन करेगा? हाँ! भगवान् बोलते तो हैं ही नहीं और भक्त ही भगवान् से बोलते है। आप भगवान् होकर के यदि अन्याय करें तो यह शोभा नहीं देता। हनुमान तुम चुप बैठो! मेरी दूर-दृष्टि देखो! यह कह कर राम चुप हो गये। हमने समझ लिया है कि आपके पास माइक्रोस्कोप आ गया है। दूर-दृष्टि.अरे! कैसे? वहाँ पर सृष्टि दिख रही है कि आगे क्या होने वाला है? हमने समझ लिया है कि आगे बहुत अन्याय हो जायेगा इस पक्ष का कोई समर्थन करने वाला नहीं है। यदि आप उस समय होते तो क्या करते? क्यों भैया! समर्थन करते। बात ऐसी है कि हमारे अनुकूल काम सौंप दे तो हम समर्थन कर देते हैं और यदि न सौंपे तो विरोध कर देते हैं। आज का न्याय केवल अर्थ के ऊपर निर्धारित है। अर्थ मिलता है तो परमार्थ को गौण किया जा सकता है और यदि अर्थ नहीं मिलता है तो उसका विरोध भी किया जा सकता है। अर्थ की दृष्टि तीन काल में परमार्थ को नहीं देख सकती और परमार्थ को गौण करने से अर्थ की दृष्टि संसार को निर्लज्ज बना सकती है। इसकी सारी की सारी बुद्धि का हरण कर मूर्ख बना सकती है। केवल अर्थ की दृष्टि भारतीय सभ्यता नहीं है। यहाँ पर मात्र अर्थ का समार्जन संरक्षण नहीं है किन्तु! पुरुषार्थ भी होता है। इस अर्थ में पुरुषार्थ का अर्थ है क्या? अर्थ-पुरुष-अर्थ दो अर्थों के बीच में पुरुष है। जिसका मतलब है कि अर्थ यानी धन, पुरुष (आत्मा) के प्रयोजन के लिए है, आत्मोन्नति में कथचित् सहायक है। अर्थ जीवन के विकास के लिए कारण है। यदि इस प्रकार का उपयोग नहीं है तो वह अर्थ, अनर्थ का मूल बन जाता है। धन की तीन ही गति हैं दान, भोग और नाश। उसके अलावा चौथी कोई गति नहीं है। अत: भलाई इसी में है कि अजित राशि को अपने और दूसरों के हित में लगाएँ और अंत में हनुमान ने राम का डटकर विरोध किया। अन्ततोगत्वा राम की आज्ञा से सीता दंडक वन में छोड़ दी गई। तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, तुम्हारा कर्तव्य है राजाज्ञा का पालन करना और हम भी राजाज्ञा का पालन कर रहे हैं। रोते हुए कृतांतवक्र से, सीता ने कहा। हाँ मातेश्वरी, राजा की आज्ञा मैं आज तक मानता आया हूँ लेकिन! अब प्रभु चरणों में यही प्रार्थना करता हूँकि आगे के लिए कभी राजा की नौकरी न करनी पड़े। बस यही चाहता हूँ। आपके प्रति यह ठीक नहीं हुआ। कृतांतवक्र ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा। नहीं.......नहीं वे मेरे पति देव हैं। उनसे बस यही कह देना कि सीता को छोड़ दिया तो कोई बात नहीं पर धर्म का पथ.....न्याय का पक्ष नहीं छोड़ें, वरना! यह संसार गर्त में चला जायेगा। आप राजा हैं, प्रजापालक हैं, समझदार हैं, फिर भी समझदारों से भी कभी-कभी गल्तियाँ हो जाती हैं। चलते समय ठोकर लग सकती है और आप गिर सकते हैं। आप गिर न जायें बस! यही कामना है। तुम निर्भय होकर वापस जाओ, मैं अपने भाग्य के भरोसे ही इस दण्डक वन में रहूंगी। बस! मेरा यह अन्तिम सन्देश उन तक पहुँचा देना। सीता ने कृतांतवक्र को समझाते हुए कहा। और भारी मन से कृतांतवक्र सीता को वहीं पर छोड़कर अयोध्या वापस चला गया। कृतांतवक्र ने जाकर सीता का सन्देश राम से कहा। सब की आँखों में आँसू हैं। कोई भी व्यक्ति सुख का अनुभव नहीं कर रहा है। इसलिए अब न्याय का पक्ष और लेना है। ..........एक घोड़ा राम के द्वारा छोड़ा गया है। उस घोड़े पर लिखा हुआ है कि जो कोई भी इस घोड़े को पकड़ेगा उसे राम के साथ युद्ध करना होगा। इस शक्तिशाली घोड़े को पकड़ने की सामथ्र्य बड़े-बड़े शूरवीर योद्धा भी नहीं रखते थे। वह घोड़ा भी उसी वन में चला गया है जहाँ पर उस गर्भवती सीता ने एक साथ दो पुत्रों को जन्म दिया था। जिनके लव और कुश नाम रखे गये हैं। वे दोनों बच्चे वहाँ पर आश्रम में पले। सब कुछ साधुवत् चल रहा है किन्तु! अंग-अंग से क्षत्रियता टपक रही है। बालकों ने घोड़े को इस तरह पकड़ लिया जैसे आपके बच्चे छोटे-छोटे कुत्तों को पकड़ लेते हैं। भले ही उन्हें कुछ शिक्षण नहीं मिला था, लेकिन! परम्परा से वह गोत्र, वह जाति....... वह खून कहाँ चला जायगा? कुल के संस्कार जीवित थे, जिन संस्कारों के माध्यम से क्षत्रियता उभर आई और क्षण मात्र में घोड़े के ऊपर बैठ गए। जो घोड़े के साथ चल रहा था उसने कहा - तुम कौन हो? ए! हमें क्या पूछते हो, उन राम से कह देना कि घोड़ा हमने पकड़ा है। दोनों कुमारों ने वीरता पूर्वक कहा। और उस घोड़े को सीता के पास ले गये। सीता कहती है-बेटा! तुमने गलत कर दिया। क्या गलत कर दिया माँ? लव और कुश ने एक साथ कहा। बेटा! यह श्री राम का घोड़ा है और इसको तुमने पकड़ा है इसके ऊपर बैठ भी गए। अब राम क्या करेंगे क्या पता? सीता ने आशंका पूर्वक कहा। कौन है राम? लव ने शीघ्रता से पूछा। और सीता चुप रह गई, क्या उत्तर दे इनको? कुछ बोली नहीं। माँ! बता दें उसको भी हम इसी प्रकार पकड़ कर लायेंगे आपके पास। क्या हमने कोई अन्याय किया है, कोई अपराध किया है? नहीं. इसके ऊपर लिखा है कि जो कोई इसे पकड़ेगा उसे राम के साथ युद्ध करना होगा। आप क्यों चिंता करती हैं? वे तो अपने आप ही आ जायेंगे और उनको भी पकड़कर आपके सामने रख देंगे हम। कुश ने क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाते हुए कहा। नहीं............नहीं बेटा। ऐसा मत कही। सीता गंभीरता पूर्वक बोलीं। क्यों क्या बात हो गयी माँ? दोनों ने एक साथ कहा। अब क्या होगा? सब राज खुल जायेगा। यह सोचकर सीता मूछित हो जाती है। मूच्छा हटने पर सीता ने मजबूर होकर लव-कुश को सारी कथा वार्ता सुना दी, जिसे सुनकर दोनों का खून खौलने लगा और वे युद्ध के लिए तैयार हो गए। हनुमान को भी यह बात मालूम पड़ गई। पहले धर्म-युद्ध हुआ करते थे। आज भी लड़ने वालों को युद्ध की सारी नीतियाँ अपनानी चाहिए। युद्ध कुद्ध होकर के नहीं किया जाता, बल्कि! धर्म को अपने पास रखकर किया जाता है। रणांगण में यदि हाथ से तलवार छूट जाती थी तो दूसरी तलवार हाथ में देकर के कहते थे कि आ जा! अब लड़। छल पूर्वक नहीं मारा जाता था। यह क्षत्रियता एक प्रकार से आवश्यक कार्य है। जो आक्रमण आवे उस आक्रमण को रोकने की विधि का नाम है युद्ध। न प्रहारो शोभना गतिः क्षत्रियाणां (क्षत्रियः) । क्षत्रियों के हाथ में जो कोई भी शस्त्र है वह शरणागत निरपराध व्यक्तियों के ऊपर उठाने के लिए नहीं है। जो अपराध करता है, अन्याय करता है उसको रोकने के लिए है। "आगत एव प्रहार योग्यो अपराधी" इस प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम् में महाकवि कालिदास ने लिखा है कि जो अपराधी है और उसके ऊपर जो शस्त्र नहीं उठाता वह क्षत्रिय नहीं है। क्षतात् पापात् रक्षति इति क्षत्रियः। जो क्षत्रिय है, वह पाप से बचाता है, युग को, स्वयं को और दूसरों को और पुण्यमय जीवन बना देता है। आज शस्त्र का प्रशिक्षण किस रूप में दिया जा रहा है? बन्धुओ! भारतीय सभ्यता मिटती सी जा रही है फिर भी हम लोगों की धारणा है कि वह सतयुग आयेगा विश्व में शान्ति आयेगी और यदि हमारा आचरण ठीक नहीं है तो वह सतयुग. वह विश्व में शान्ति ‘न भूतो न भविष्यति '' | बात मालूम पड़ते ही हनुमान जी आ गये और इस प्रकार के वातावरण में वे लवकुश का पक्ष लेते हैं, और कह देते हैं कि आज से राम-हनुमान युद्ध प्रारम्भ होगा। श्रीराम के लिए सिर्फ लक्ष्मण काम कर रहे हैं। हनुमान ने कहा कि जहाँ न्याय का पक्ष है वहाँ मैं रहूँगा। राम ने जिन-जिन शस्त्रों को चलाया उन-उन शस्त्रों को हनुमान ने कागज के फूल की भाँति उड़ा दिया। किन्तु! यह ध्यान रखना जब राम शस्त्र छोड़ते हैं तो उस समय हनुमान'जय श्रीराम' कहकर उसका प्रतिकार करते हैं। राम इधर से बाण छोड़ते हैं। तो हनुमान उसे बीच में ही छिन्न-भिन्न कर देते हैं। यदि उधर से अग्निबाण आता है तो इधर से वे जल बाण छोड़कर उसे ठंडा कर देते हैं। इस प्रकार पाँच-छह दिन तक घनघोर युद्ध हुआ। सब कुछ समाप्त हो गया, अन्त में राम सोचते हैं कि अब क्या करें? अब कुछ नहीं करना है। इन बच्चों के सामने देखो! हारने की नौबत आ गई। आज हनुमान भी हमारे विरुद्ध हैं जो अब तक सब कुछ था। अब अन्तिम अमोघ शस्त्र, चक्र-रत्न ही शेष रह गया है, और उस समय चक्र को राम मुस्कान के साथ छोड़ देते हैं। तो राम का छोड़ा हुआ चक्र, लव-कुश हनुमान सहित तीनों की ऐसे परिक्रमा करता है जैसे आप मुनि महाराज की परिक्रमा करते हैं वन टू श्री) और चला गया, उस चक्र की कांति फीकी पड़ गई। अपना शौर्य, बल, कौशल कुछ भी नहीं दिखाता। चक्र सोचता है कि मैं राम जैसे अकर्तव्यशील पुरुष की ओर जाने वाला नहीं हूँ। कर्तव्य का अनुपालन करने वाला हूँ। धन्य है राम के प्रति हनुमान की भक्ति! और धन्य है लव-कुश! धन्य है वह पतिव्रता सीता! सब कुछ आँखों से देख रही है कि अब क्या होगा? क्या हुआ? हनुमान भी भूल गये, राम के पक्ष को गौण कर दिया। दुनियाँ राम की ओर है, लेकिन उस चक्र रत्न ने भी आज राजा का महत्व कम कर दिया। आज राम की क्षत्रियता धूमिल हो गई लेकिन! वंश वही था इसलिए और उठ गई, द्विगुणित हो गई। राम की क्षत्रियता को उज्ज्वल बनाने वाले दो पुत्र लव-कुश और न्याय का पक्ष लेने वाले वह हनुमान थे और उस समय क्या बताएँ? हमने सोचा कि वस्तुत: यहाँ पर न्याय का पक्ष है। जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है वह अन्याय को ही नहीं सारे विश्व को झुका सकता है अपने चरणों में। लेकिन! उन चरणों में धर्म निहित है, वे चरण अहर्निश चल रहे हैं। चलते आए हैं। चलते रहेंगे। कभी थकेंगे नहीं, डिगेंगे नहीं। उन चरणों में आकर प्रणिपात करना होगा अन्याय के पक्ष की। यह संस्कृति आज की नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष की भी नहीं है। धर्म चिरकाल तक संघर्ष करता चला जाता है किन्तु अन्त में विजय धर्म की ही होती है। विजय सत्य की ही होती है। सत्य अमर है और असत्य की पग-पग पर मृत्यु। सही सो अपना है, अपना सो सही नहीं। हम अपना सही कहते हैं। सत्य ही अपना है। उस सत्य को देखने के लिए हमें ऑखों की आवश्यकता है। उस सत्य को परखने के लिए हमारे पास क्षमता नहीं है। हमारे पास वह ज्ञान कहाँ है? जो इस प्रकार के संघर्ष मय जीवन में भी अडिग रूप से उस उपास्य, सत्य की पहचान कर सके। सामान्य दीपक जलते और बुझ जाते हैं किन्तु! एक रत्न दीपक होता है। जो बुझता नहीं है हमेशा प्रकाश प्रदान करता है। जो न्याय का पक्ष लेता है वह कभी बुझता नहीं, चाहे झंझावात, प्रलय का भी समय आ जाये, तो भी वह जलता रहता है। किसी प्रकार से वह हताश नहीं होता, सभी की सेवा के लिए वह न्याय के पक्ष की शरण लेता है। वह सोचता है कि अन्याय की शरण लेकर मेरा विकास.मेरी रक्षा तीन काल में संभव नहीं। मुझे उड़ना नहीं है अन्याय के पक्ष को उड़ाना है। राम और लक्ष्मण की आँखों में (यह दृश्य देखकर) हर्ष के आँसू आये बिना नहीं रहे। वे सोचते हैं कि ये और कोई नहीं हमारी संस्कृति की सन्तान हैं। वे ऐसे पुत्र थे, जो कुल दीपक माने जाते हैं। वे रत्न-दीपक के समान थे, जो बुझने वाले नहीं थे। लेकिन! यह ध्यान रखना रत्न- दीपक को बहुत जोखिम के साथ रखा जाता है। रत्न-दीपक अपने आप में बहुत कीमती होता है, हर प्रकार के लोग उसके प्रकाश में नहीं देख सकते। रत्न दीपक के माध्यम से तत्व की गवेषणा की जाती है। रत्न-दीपक आँखों की मौज के लिए नहीं है किन्तु! खोई हुई वस्तु को ढूँढ़ निकालने के लिए है। राम, सीता को लेकर अयोध्या आ जाते हैं। परीक्षा.......न्याय की परीक्षा हो गई। लेकिन! अभी प्रीवियस हुई है। फाइनल इक्जामिनेशन और बाकी है। सीता को अभी अग्नि-कुण्ड में प्रवेश करना है। यह संसार सत्य की बहुत परख करता है, भले ही उसके पास क्षमता हो अथवा न हो। इसको सत्य की पहचान है ही नहीं। हनुमान रोने लगे..............और लक्ष्मण ने आगे बढ़कर राम के मुख पर हाथ रख दिया और कहने लगे। ऐसी कठिन आज्ञा मत दो, ऐसा अनर्थ मत करो मेरे भ्राता........! नहीं...............नहीं जब राम कहते हैं, सही कहते है, अभी और परीक्षा बाकी है, मुझे विश्वास है कि मेरी सीता निर्दोष है इसमें फेल नहीं होगी। राम ने अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए कहा। यह सब मालूम होते हुए भी, वह परीक्षा ले रहे हैं। इसी का नाम है अज्ञान। केवल विश्व को दिखाना है। वस्तु की शक्ति पूरी-पूरी आँकने वाला व्यक्ति तीन काल में वहाँ पर जीत नहीं सकता क्योंकि उसके लिए संघर्ष करना होगा। सारी प्रजा को जब मालूम है कि, सीता निर्दोष है तो फिर क्यों परीक्षा ले रहे हो? हनुमान के प्रश्न ने राम को झकझोर दिया। हनुमान चुप रहो! मेरा निर्णय अटल है। राम ने दृढ़ता के साथ कहा। तो क्या सीता के अग्नि प्रवेश में मैं ही कारण बन रहा हूँ? इसीलिए सीता दी थी तुम्हें? हनुमान के सशक्त प्रश्न ने राम को निरुतर कर दिया। धन्य है.........वह सीता जो अग्नि परीक्षा के लिए तैयार हो जाती है। अग्नि कुण्ड की लपटें...........आकाश को छू रही हैं। लक्ष्मण का मुँह उतर गया है, हनुमान रो रहे हैं। प्रजा देखना नहीं चाहती पर राम देख रहे हैं। सीता कहती है : - पाषाणेषु यथा हेम, दुग्ध मध्ये यथा घृतम्। तिलमध्ये यथा तैल, देह मध्ये तथा शिव:। काष्ठ मध्येयथा वह्नि, शक्तिरूपेण तिष्ठति। अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति सः पंडितः॥ (परमानन्द स्तोत्र, श्लोक २३/४) जिस प्रकार पाषाण में कनक विद्यमान है, दूध में घृत विद्यमान है, काष्ठ में अग्नि विद्यमान है। उसी प्रकार शक्ति रूप से इस देह में शंकर विद्यमान है। हे भगवन्! यदि मैं इस परीक्षा में पास हो गई, तो फिर यह संसार मेरे योग्य नहीं रहेगा। इस संसार का चक्कर छोड़ मैं आपके चरणों में आ जाऊँगी। इस प्रकार का संकल्प लेकर ज्यों ही सीता ने अग्नि कुण्ड में प्रवेश किया, त्यों ही अग्नि कुण्ड, जल का सरोवर बन जाता है। उसके बीचों-बीच सहस्त्र दल कमल पर सीता विराजमान हो जाती है, और आँख बंद कर शुद्धोऽहं-बुद्धोऽहं कहती हैं। सारे के सारे लोग जयजयकार करते हुए नतमस्तक हो जाते हैं। राम कहते हैं परीक्षा हो चुकी है, अब आप घर चलिए। अब घर कहाँ वन में ही रहना ठीक है। मैंने परीक्षा दी और उसमें पास हुई, इससे शील धर्म की लाज बच गई। आज मैं कलंकित नहीं हुई किन्तु! अग्नि में तपने से मेरे शीलव्रत में निखार आया है। अब अग्नि परीक्षा के बाद मुझे घर पर अच्छा नहीं लग रहा है। सीता ने कहा। राम को अब भी घर अच्छा लग रहा है। सीता को घर अच्छा नहीं लग रहा है और वह कुण्ड से बाहर निकल कर आर्यिका के व्रतों को अंगीकार करती है। केशों का लोन्च कर मात्र एक श्वेत साड़ी रख लेती हैं अपने पास। अहन्त प्रभु! शिवशंकर, जो दुनियाँ से निशंक हैं, आरंभ परिग्रहों से दूर हैं, ऐसे उन अहन्त प्रभु के ध्यान में लीन हो जाती हैं। राम जाकर वंदना करते हैं कि मातेश्वरी! मेरा जीवन धन्य हो गया, तुमने इस प्रकार की अंतिम परीक्षा और शिक्षा भी दे दी कि मैं तुमसे भी परे हूँ। अब मैं और परीक्षा के लिए नहीं कह रहा जब अग्नि परीक्षा हो गई तो फिर कोई परीक्षा शेष नहीं रही। अग्नि परीक्षा होने के उपरांत स्वर्ण की पूरी-पूरी कीमत मालूम पड़ जाती है। आत्मा पृथक् है, देह पृथक् है, इस बात को आपने चरितार्थ कर दिया। इतना कहकर राम अपने महल की ओर चले गये। हनुमान ने जाकर राम से कहा कि आज से मैंने आपका पक्ष लेना बन्द कर दिया। आज से मेरा संकल्प है कि मैं इस धरती पर किसी का भी पक्ष नहीं लूगा। मुझे भी उसी ओर जाना है जिस ओर सीता ने कदम बढ़ाए हैं। और वे भी जाकर वन में परम दिगम्बरी दीक्षा धारण कर लेते हैं। हनुमानजी जीवन भर न्याय का पक्ष लेते रहे परन्तु अंत में कहते हैं कि अब मैं सिर्फमोक्षमार्ग का ही पक्ष लूगा। उसी के माध्यम से मुझे मुक्ति का लाभ होने वाला है। वे कामदेव थे जिनको देखने के लिए महिलाएँ तो क्या अप्सरायें तक तरसती थीं। सारी की सारी महिलाएँ हनुमानजी को चाहती थीं लेकिन! वे किसी को नहीं चाहते थे। जिन्होंने आज तक राम का पक्ष लिया था, उस पक्ष को भी छोड़ दिया क्योंकि राम अभी घर में रह रहे हैं। इसलिए हनुमान वन में चले गए। वनवास का-अर्थ वन में जाकर वास करना, भगवान् को भी छोड़ दिया। इतना ही नहीं जीवन में एकत्व को पाने वह अध्यात्म.वह ध्यान की धारा.वह अन्तरंग समाधि, भीतरी योग साधना में वे लीन हो जाते हैं। जहाँ तक मुझे स्मृति है कि हनुमानजी का तीर्थ स्थल वह सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी माना जाता है, जो कि महाराष्ट्र प्रान्त में है। यहाँ पर एक ऐसी प्रतिमा है जिसका मुख दीवाल की तरफ है। कोई दर्शक दर्शन करने चला जाता है तो उसे पीठ का ही दर्शन होता है, मुख का दर्शन नहीं होता। ऐसा क्यों है? तो स्मरण आ रहा है मुझे कि संसारी प्राणी विश्व की ओर देख रहा है। विषय भोगों की ओर देख रहा है, लेकिन! वे अप्रतिम सौंदर्य के धनी किसी को नहीं देख रहे हैं। वे कहते हैं कि आत्मज्ञ बनने के लिए विश्व की ओर से मुख फेरना होगा। समस्त सांसारिक कार्यों से दृष्टि हटाकर उन्होंने अपने अजर-अमर-अविनाशी, आत्म-तत्व की ओर दृष्टिपात किया। विश्व हिंदू परिषद् वालों को यह पाठ स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे उन राम के अनुरूप, लक्ष्मण के अनुरूप, हनुमान के अनुरूप अपने जीवन को बनायें। अहिंसा का पालन करें, हिंसा से दूर रहें........वही सत्य है..........वही तथ्य है............वही उपास्य है............वही शरण है.........वही हमारा जीवन है। कहीं से आप देखना प्रारंभ कीजिए, किसी को भी आप उठा लीजिए, वस्तु आपको अखण्ड, अविनश्वर एक दिखेगी। एक से एक पदार्थ कई हैं, उनमें से उपादेय एक मात्र आत्म-तत्व है उसी को अपनाना होगा। हनुमानजी ने अंत में परम सिद्धत्व पद को प्राप्त किया। जैन पुराणों के आधार से मैंने आपके समक्ष कथा का वस्तु स्वरूप रखा। आप लोगों को पसन्द आया हो तो ठीक है, नहीं आयें हो तो हनुमानजी को तो अवश्य पसन्द आया था और मैं समझ गया कि इससे उज्ज्वल चरित्र हनुमानजी का अन्यत्र मिलने वाला नहीं है। हनुमानजी के सामने राम भी नतमस्तक हुए। क्योंकि राम के पहले हनुमान ने मुक्ति का लाभ लिया। राम के भत होते हुए भी उन्होंने राम के लिए ऐसे-ऐसे सूत्र दिये जिनसे राम का भी जीवन धन्य हो गया। हम लोगों का ज्ञान, ज्ञेय की ओर जा रहा है, इसलिये दुख का अनुभव कर रहा है। हम ज्ञान का मूल्यांकन करें, इन्हीं शब्दों के साथ आपके समक्ष ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत है - ज्ञान ही दुख का मूल है, ज्ञान ही भव का कूल। राग सहित प्रतिकूल है, राग रहित अनुकूल। चुन-चुन इसमें उचित को, मत चुन अनुचित भूल। सब शास्त्रों का सार है, समता बिन सब धूल। महवीर भगवन की जय......| आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज की जय.........।
  19. "भावना भवनाशिनी" इस बात को मैं आस्था के साथ स्वीकार तो करता हूँ लेकिन यह/ वह और बलवती बने इस विश्वास के साथ आप लोगों के सामने रख रहा हूँ। बीच में एक व्यक्ति ने कहा था कि चाबी के पास ऐसी शक्ति रहती है कि जो हथौड़े में भी नहीं होती लेकिन कभी-कभी जब चाबी गुम जाती है तो हथौड़े का प्रहार भी करना पड़ता है। चाबी गुमने के बाद ताला तोड़ना अपराध नहीं है। ताला जब खुलता नहीं तब तोड़ा ही जाता है। हिंसा को रोकने के लिये कोई प्रतिहिंसा करता है तो उसे हिंसा की संज्ञा नहीं दी जाती। व्यवहार में जैसे पुलिस हिंसात्मक दंगे के लिए गोली फायर भी करती है लेकिन हिंसक नहीं मानी जाती। लगती है उसमें हिंसा सी लेकिन अहिंसा को जगाने के लिये वही एक काम आती है। यदि तेज आवाज के साथ बोलने से हिंसा होती है तो सबसे ज्यादा दिव्यध्वनि में हिंसा होनी चाहिए थी लेकिन होती नहीं। शंखनाद किया जाता है तो उस नाद में हिंसा नहीं होती। हिंसा को हिंसा की वृत्ति से दूर करने के लिये वह शंखनाद किया जाता है तभी सामने वाला व्यक्ति भयभीत होता है अन्यथा नहीं। जब दुर्योधन ने अपनी नीति नहीं छोड़ी तब पाण्डवों को मजबूरन युद्ध का शंखनाद करना पड़ा। आज भारत की राजनीति में जो दुनीति आ गई है तब महाभारत को याद कर लेना चाहिए। आज भारत भूमि रक्त से ओतप्रोत हो रही है। ऐसी स्थिति में परीक्षा की घड़ी है भारतवासियों की। एक बार कृष्ण के हाथ में चोट लग गई, उस समय सत्यभामा एवं रुक्मणी पास में थीं। दोनों ने पूछा क्या हो गया? ओ हो! हाथ में खून बह रहा है, बहुत कष्ट है? सत्यभामा कहती है रुको, मैं कपड़ा लाती हूँ बांधने के लिए। वह कपड़ा लेने चली जाती है खून बहता रहता है। वहीं पर रुक्मणी थी, क्या हो गया? ये देखो धारा बह रही है वह कपड़ा लेने नहीं दौड़ी उसने सोचा कपड़ा लेने जाऊंगी तब तक तो कितना खून वह जायेगा। अत: उसने पहनी हुई साड़ी के पल्ले को फाड़कर बाँध दिया। वह बहुत बढ़िया साड़ी थी। उसको उसने फाड़ दिया और उसको बाँध दिया। तब तक सत्यभामा आ जाती है कपड़ा लेकर के लेकिन वह पुराना कपड़ा ले आती है। जहाँ पर जीवन का सवाल है वहाँ पर जड़ वस्तुओं का महत्व नहीं होता है। हम लोग जहाँ पर हैं वहीं पर जीवन का संहार हो रहा है लेकिन सत्यभामा जैसे प्लानिंग बना रहे हैं, योजनाएँ बन रही हैं और कागज के पत्रों के ऊपर हम कुछ लिखकर के कुछ भेज रहे हैं और नेता लोग बड़े-बड़े चश्मा लगाकर के पढ़ेंगे विधानसभा में। पढ़ने वाले व्यक्तियों की आँखों में वे अक्षर लाल-लाल नजर नहीं आ रहे हैं क्योंकि उनके आँखों पर गोगल (धूप का चश्मा) लगी हुई है इसलिए वो खून के अक्षर भी आज हरे-हरे जैसे नजर आ रहे हैं। अरे बंधुओ! योजनाएँ मत बनाओ, जो पशु कट रहे हैं उनको अपने कपड़े फाड़ कर पट्टी बांधने की जरूरत है। करोड़ों की तादाद में उन पशुओं का हनन हो रहा है और हनन करके मांस का निर्यात कर रहे हैं और आप प्रार्थना कर रहे हैं उनसे । वो क्या सुनेंगे? सत्यभामा को जैसे साड़ी प्यारी थी कृष्ण के खून से अधिक, उसी प्रकार नेताओं को धन प्यारा है पशुओं के खून से अधिक। भामा के पास कितना प्यार था पति के प्रति? उन्होंने बड़ी-बड़ी साड़ियाँ और जीवन के लिये बहुत कुछ दे दिया लेकिन खून को बन्द करने के लिये उनके पास कोई कपड़ा नहीं मिला क्योंकि यह कपड़ा पहनने का है, यह खून बन्द करने का नहीं। इतनी अक्ल नहीं है, विवेक नहीं। आज जड़ की रक्षा के लिए चेतन का खून बहाया जा रहा है। विश्व की सारी संपदा को लेकर भारत में रख दो। भारत में कोई किसी प्रकार से उन्नति नहीं होनी वाली है। भारत ने जड़ सम्पदा से कभी अपना विकास नहीं किया उसकी उन्नति तो अहिंसा के माध्यम से ही हुआ करती है। द्रोपदी के सम्बन्ध में भी एक घटना आती है उन्होंने भी एक बार अपना आँचल फाड़कर बाँध दिया था श्रीकृष्ण को जिससे खून बहना बंद हो गया था। किसका पक्ष लिया, पाण्डवों का पक्ष नहीं लिया। सारी की सारी सभा देखती रही। कौरवों में महान्--महान् व्यक्ति भी रहे लेकिन सत्यभामा जैसे प्लानिंग बना रहे हैं। सबको सभा देखती रही। वह उस द्रोपदी का चीर जब खींचने लग जाते हैं। किसी को हिम्मत नहीं थी और वो कहाँ थे? सत्यनारायण! पता नहीं है लेकिन वह साड़ियाँ तो आती रहती थी। साड़ियों के ढेर लगते चले गये, पाण्डव तो देखते रह गये और वह दुर्योधन व दु:शासन पसीना-पसीना बहाते रह गये और लज्जा से नीचे झुक गये। जिसे दासी कहकर पुकारा उसके चरणों में झुक करके कहते हैं- यह हमारी गलती है। पशु कुछ समय तक देख सकते हैं आप लोगों के अत्याचार और अनाचार। यह ध्यान रखना, सती के ऊपर प्रहार होता हुआ सत्य एवं समर्थ व्यक्ति भी अगर देखता है तो वह भी सत्य एवं समर्थ का नहीं, असत्य का ही समर्थन कर रहा है। आप लोग अहिंसा के समर्थक और पुजारी हैं और आपके सामने-सामने गौ-माता के ऊपर प्रहार हो रहे हैं। माता ही नहीं महा माता है। जन्म की माँ तो साल-छह माह ही दूध पिलाती है यह गौ-माता का तो सारी जिन्दगी आप लोग दूध पीते रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की नस-नस में इस गीमाता का दूध बहता रहता है। ऐसी गौ-माता को जीवित कटता हुआ देखते हो, कितने शर्म की बात है? कितने पाप की बात है? जिस देश में कृतघ्नता पलती है उसके पास कितना भी वित्त आ जाये, कुछ काम का नहीं। आप लोगों को कहते-कहते मैं थका नहीं ये आप ध्यान रखना, लेकिन कभी-कभी वाणी का महत्व भी कम हो जाता है। क्यों कम हो जाता है? जब कान बहरे हो जाते हैं तो वाणी काम नहीं करती। काम करने के लिये आँख पर्याप्त है और ध्यान रखना कि ऑख भी चली जायें और कान भी चले जायें एक मात्र दिल और आस्था पर्याप्त है। वह बिना ऑख खोले और बिना बोले भी काम कर सकते हैं। आप लोगों को अब बोलने की आवश्यकता नहीं और देखने की भी कोई आवश्यकता नहीं। एक निष्ठा के साथ उस दिशा में पूरी शक्ति, जितनी शक्ति लगाकर काम करना है, प्रारम्भ कर दीजिये। अहिंसा उसके बिना हम जीवित देख नहीं सकते। पुराण पोथियों में जो अहिंसा के एक मात्र वर्णन/परिभाषा है, वह वस्तुत: उसका स्वरूप नहीं है। शब्दों का हम स्वरूप देख सकते हैं ग्रन्थों में लेकिन जीवित अवस्था में अहिंसा का दर्शन देखना चाहते हैं तो आप लोगों को चाहिए मांस निर्यात और निर्यात के कारणों पर विचार कर उसे रोकें। एक व्यक्ति ने कहा निर्यात उसका भी किया जा सकता है जो मांस निर्यात कर रहे हैं अर्थात् ऐसे नेताओं का भी निर्यात हो जाना चाहिए तभी कार्य ठीक होगा। लेकिन यह सब व्यंग नहीं एक ढंग हो जाए। वस्तुत: इस समय मुस्कान की बात नहीं इस समय सिद्धान्त की बात है। यह गोष्ठी हंसने के लिए नहीं, व्यंग के लिए नहीं किन्तु एक भीतर के ढंग की। अन्तरंग को आप खोलकर सामने लाकर के रखिए और ऐसे अन्तरंग बनाईये कि निश्चत रूप से सामने वाले का हृदय परिवर्तन हो जाए। भक्ति के द्वारा कुछ समय तक काम होता है फिर बाद में युक्ति और शक्ति काम करती है। युक्ति और शक्ति के काम करते समय भक्ति काम नहीं करती है ऐसी बात नहीं है, वह रूप भी आना आवश्यक है। जिस समय अपनी ही अहिंसा की मौत होते हुए देखते हैं उस समय हम आराध्य को ही खो रहे हैं। यह भारत आराध्य को खोने नहीं देगा अन्यथा आराधना किसकी करेगा यह? ये आराधक/ये भक्त है और भगवान् यदि नहीं होगा/आराध्य नहीं रहेगा तो भक्ति हमारी अधूरी ही नहीं बल्कि समाप्त हो जायेगी। भगवान् और भत के बीच में भक्ति के अलावा दूसरा कोई आ जाता है तो वह भक्त कभी भी सहन नहीं कर सकता। वह पर्दा उसके लिये हानिकारक सिद्ध हो जाता है। अहिंसा के सामने यदि हिंसा ताण्डव नृत्य करने लग जाती है तो उसको दूर करने के लिये शंखनाद भी आवश्यक होता है और उस समय अर्जुन को कृष्णजी ने उपदेश दिया था। अर्जुन को/ योद्धा को कायरता की बात नहीं करना चाहिए और काया की भी बात नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति काया में बैठकर भी कायरता की बात कर रहा है वह काया के भीतर जो आत्म तत्व है उसको भूल रहा है। उस आत्मतत्व को याद करने की आवश्यकता है और ऐसे अर्जुन को संबोधित करने वाले वो कृष्ण रणांगन में कह देते हैं "जातस्य मरण ध्रुवम् ", जो जन्म लेता है उसका मरण भी निश्चत है/ध्रुव है। "ध्रुव".....जो जन्म लेता है, उसका मरण भी निश्चत है, ध्रुव है। 'ध्रुवं जन्म मृतस्य च' वह मरण होने के पश्चात् जन्म भी निश्चत होता है। किन्तु जो व्यक्ति पाप का दास बनकर के पाप की उपासना में लगा है उसको मार्ग पर लाने के लिए रणांगन में भी जाना पड़ता है। उसे धनुष बाण के माध्यम से सत्मार्ग दिखाना भी क्षत्रियता है। कोई भी व्यक्ति चाहे गुरु हो या शिष्य हो या माँ हो, पिता हो, भाई हो, बहिन हो जो व्यक्ति गलत लाईन पर चल रहा हो, उसे लाईन तक लाने के लिये उसको यह आवश्यक होता है। यह क्षत्रियों का धर्म माना जाता है। यह बनियों का धर्म नहीं है। इतना कहना पर्याप्त था, अर्जुन धनुष उठाकर रणांगन में कूद जाता है। जो गुरु द्रोणाचार्य इनको शिक्षा देने वाले हैं, दीक्षा देने वाले हैं और जो सारा का सारा पढ़ाने वाले हैं, उन्हीं गुरु के ऊपर ही शिष्य के तीर कमान चालू हो जाते हैं। आप लोंग कमान सम्हाल लो। तीर को कोई सम्हालने की आवश्यकता नहीं। तीर हाथ में नहीं रखा जाता, कमान हाथ में रखा जाता है। तीर को पीछे लेकर उसके ऊपर लगाने की आवश्यकता है। बीच में एक व्यक्ति ने बहुत अच्छा इशारा किया कि बहुत सारे तीर हैं लेकिन हाथों में कमान नहीं है। इसका अर्थ हमें तो यही समझ में आता है कि आप लोग तीर के काम आ गये हैं लेकिन नेतृत्व के अभाव में आपके पास कमान नहीं रहा। अब आवश्यकता है कि सारे के सारे तीर मिलकर एक नेतृत्व रूपी कमान को वहाँ पर भेज दो और जितने भी व्यक्ति हैं जो हिंसा के समर्थक हैं उन सारे के सारे को अलग निकाल दो। बाण से कोई भी नहीं डरता किन्तु डरता है कमान से। कमान यदि ठीक नहीं रहेगी, टूटी हुई, मुड़ी हुई कमान रहे तो बाण आगे नहीं भेजा जा सकता। इसको हम भेजेंगे भी तो कोई काम करने वाला नहीं है। ऐसे कमान की आवश्यकता है हमें कि जो कमाल करके दिखा सके। चिल्लायेंगे तो कुछ भी नहीं होने वाला। अहिंसा के नारे को किनारों तक पहुँचना चाहिए। लहर को अवश्य किनारे तक पहुँचाना चाहिए। छोटी-छोटी लहर की आवश्यकता है जो अन्त तक पहुँच जाये और उनको वो जागृति प्रदान कर सके। धन्य हैं वे दिन जिस समय हम सारे के सारे नेतृत्व को सुनकर के देख करके अवश्य कहेंगे कि हे अर्जुन! हम आपके सामने कुछ कहना नहीं चाहते। तुम क्या चाहते हो वह करके दिखाता हूँ।अब बताना कुछ नहीं, अब तो बता चुके और कर चुके, अब तो समझना आवश्यक है। अभी भी यदि नहीं समझते हो तो हट जाओ वहाँ से। यह कहना आवश्यक है कि लोकतंत्र में राजनीति नहीं चलना चाहिए। राजा हो तो राजनीति चले लेकिन आज प्रत्येक राजनीति चलाना चाहता है। राजा तो होता ही नहीं प्रजातन्त्र में। राजनीति गौण होना चाहिए और प्रजा के हित में ही सारे कार्य सम्पन्न होना चाहिए तभी यह संस्कृति जीवित रह सकती है अन्यथा नहीं रहेगी। यह देश भोग प्रधान नहीं दया प्रधान है, अब ये ध्यान रखना। यदि प्यार की परीक्षा का समय है। कृष्ण का नहीं कृष्ण की गाय का खून बह रहा है। उन्हें रुक्मणी एवं द्रोपदी के समान आँचल फाड़कर बांधने की जरूरत है। इतने सारे कट रहे हैं फिर भी आप लोगों को अपने ही खून का प्यार है तो वह शाकाहार/ये अहिंसा की उपासना आप लोगों में कहाँ चली गई? समझ में नहीं आता है। संगोष्ठियों का भी प्रभाव पड़ रहा है लेकिन पढ़ाते हुए वह यहीं-यहीं तक रुक रहा है। यह सारीसारी उत्तेजना, ये सारे-सारे नारे, ये सारी-सारी तालियाँ यहीं तक ही रह रही हैं, वह बाहर तक नहीं जा पा रही हैं। कल भी, परसों भी हमने यही कहा था कि यदि अहिंसा धर्म का संरक्षण करना चाहते हो तो अहिंसा का अलख जगाओ। अब बहुत ज्यादा देर लगाना अच्छा नहीं लग रहा है। अति होने के उपरान्त इति भी हुआ करती है। निश्चत रूप से हिंसा अब अति की ओर चली गई अत: इति निश्चत है, ऐसा समझता हूँ। पत्थर जब पिघल सकता है तो आपका दिल कोई पत्थर तो नहीं। जब बड़े-बड़े क्षत्रियों के दिल भी टूट गये और पिघल गये और पानी-पानी हो गये तो क्या आप उनसे भी बढ़कर हैं क्या? नहीं। इस धरती पर अहिंसा के उपासक बड़े-बड़े क्षत्रिय भी आँखों से पानी लाये हैं क्योंकि इस पीड़ा को वे अपनी आँखों से देख नहीं सकते थे। छाती के ऊपर तीर की मार को सहन करने वाले/ वे छाती के तीर उस अहिंसा के सामने पानी-पानी हो जाते थे। ऐसे वंश में आज जन्म लिये हुए हैं और आज आपकी वह अहिंसा और वह देश का गौरव समाप्त हो गया। आज आपकी वह अहिंसा और वह देश का गौरव और वंश का एक प्रकार से स्वाभिमान आप में से कहाँ निकल गया? पता नहीं या पैसे के कारण आपकी बुद्धि दिनों-दिन भ्रष्ट ही होती चली जा रही है। मैं ज्यादा न कह करके समय ज्यादा हो गया है इतना समय ज्यादा लेना नहीं चाहिए था मुझे लेकिन फिर भी ले लिया क्योंकि आपने अन्त में मुझे रखा था इसलिए मैं अन्त में यही कहना चाहता हूँ- आज जिस उत्साह के साथ यहाँ पर कवि लोग आये हैं जो भिन्न-भिन्न लोग मंचों के द्वारा अपनी कविता के पाठ करने वाले भी मांस निर्यात बन्द के बारे में आस्था के साथ बहुत-बहुत दूर-दूर से आये हैं, मैं उनको बहुत ही अच्छे ढंग से आशीर्वाद देता हूँ और वो जहाँ कहीं भी जायें इस बात को पहुँचाएँ और अहिंसा के बिगुल को बजाते हुए इसमें यश और सफलता प्राप्त करते ही जायें, इस प्रकार का मेरा भाव है और आशीवाद है।
  20. (चारित्र चक्रवतीं आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज की ८२ वीं पुण्य तिथि पर परम पूज्य आचार्य प्रवर श्री विद्यासागरजी महाराज का उपदेश) आचार्य समन्तभद्र महाराज ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में श्रावकों को जागृति देने के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का वर्णन किया है। आज समन्तभद्र महाराज हैं जो सिंह गर्जना के साथ काम करते हैं क्योंकि वहाँ पर किसी प्रकार की लचकदार बात समझ में नहीं आती। जो व्यक्ति सच्चे देव शास्त्र गुरु की उपासना करता है वही व्यक्ति सम्यक दर्शन का पात्र है। लेकिन उनके सम्यक दर्शन के बारे में प्रश्न चिह्न (?) लगता है। जो भय के कारण, कषाय के कारण अन्य कोई बात कर देता है तो उसके लिये कहा जाता है कि सम्यक दर्शन रूपी दिव्य रत्न का लाभ उस व्यक्ति के लिये नहीं होता। मोक्षमार्ग भयभीत व्यक्तियों को नहीं होता, मोक्षमार्ग लोभ लालच के साथ नहीं चलता, मोक्षमार्ग कषायों के साथ सम्बन्ध नहीं रखता, मोक्षमार्ग तो एक निभीक और निरीह व्यक्ति के लिए ही कल्याणकारी है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के ऊपर श्रद्धान करने वाला सम्यक दर्शन का पात्र होता है। विषयों से और कषायों से ऊपर उठना पहले अनिवार्य है। भले ही उस मोक्षमार्ग के ऊपर विश्वास रखने वाला विषयी हो सकता है, कषाय करने वाला हो सकता लेकिन जिसके ऊपर विश्वास रखा जा रहा है वह कषाय से रहित होना चाहिए नहीं तो मोक्षमार्ग सुरक्षित नहीं रह सकता। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि जिसके ऊपर श्रद्धान किया जाता है वह गुरु कैसा होना चाहिए ? विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः। ज्ञान-ध्यानतपो-रक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१०) जो व्यक्ति मोक्षमार्ग में आरूढ़ होने के उपरान्त पक्ष व्यामोह को नहीं छोड़ सकता तो उस व्यक्ति ने मोक्षमार्ग को अपनाया ही नहीं ये ज्ञात होता है। इसलिए आ. समन्तभद्र महाराज की आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ऐसे ही गुरु थे। पंथ व्यामोही उनको अपने ढंग से उनकी चर्या को प्रस्तुत करते हैं यह गलत बात है। ज्ञानसागरजी महाराज ने एक बार शान्तिसागरजी महाराज का एक संस्मरण सुनाया था, उसको ज्यों का त्यों आपके सामने हम प्रस्तुत कर देते हैं। राजस्थान में अजमेर जिलान्तर्गत ब्यावर एक उपनगर है। महाराज जी की समाधि के बाद हमारा प्रथम चातुर्मास वहीं पर हुआ था वहाँ की ये बात है। वहाँ पर दो नसियाँ हैं। एक बड़ी नसियाँ मानी जाती है, उस नशियां में दोनों शान्तिसागरजी महाराजों का चातुर्मास हो रहा था। एक छाणी के शान्तिसागर महाराज जी के नाम से विख्यात थे और दूसरे दक्षिण के शान्तिसागर जी के नाम से प्रसिद्ध थे जिनकी आज पुण्यतिथि मनाई जाती है। जनता बहुत बावली है। जनता को हमेशा इतिहास का सही-सही ज्ञान कर लेना चाहिए। इतिहास का ज्ञान जिसको सही नहीं होता वह निश्चत रूप से पक्षपात रूपी अन्धकार में भटक जाता है और इस प्रकार का पक्षपात उसके लिये वह अभिशाप ही सिद्ध हो जाता है। उसके द्वारा बहुत प्रकार की भ्रान्तियाँ भी फैल सकती हैं तो जब ये (उस ज्ञानसागर जी) ब्रह्मचारी अवस्था में गये थे, भूरामल नाम इनका प्रसिद्ध था। वाणी भूषण कवि भूरामलजी पहुँचे। वहाँ पर। गाँधीजी की ड्रेस में और उनके उस सान्निध्य में ७-८ दिन का सौभाग्य प्राप्त किया। दो शान्तिसागर महाराज को देख करके भूरामलजी प्रभावित हो गये थे। पंडित भूरामलजी साहित्य के सर्जक थे। अपनी जिनवाणी की सेवा करते हुए गूढ़ रहस्य को समझते हुए आबाल गोपाल को साहित्य के माध्यम से जैन दर्शन क्या है? इसको समझाने का, दिखाने का प्रयास इनके मन में हमेशा बना रहा। साहित्य एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम मुनि कौन होते है? वीतरागता क्या होती है? यह सब ज्ञात हो जाता है। साहित्य वह पदार्थ है जिसके माध्यम से देव-गुरु-शास्त्र का स्वरूप यथार्थ के रूप में समाज के सामने रखा जाता है। मुनि-महाराजों के साहित्य की सेवा करनी चाहिए, हमेशा वो कहा करते थे। जब पं. भूरामलजी ने देखा उभय शांतिसागर महाराज जी को, उनकी मुद्रा को। यह भी शान्त लग रहे हैं और यह भी शान्त लग रहे हैं। इनको देखते हैं तो इनसे शान्त ये लगते हैं। दोनों शान्तिसागर जी महाराजों को वहाँ के लोगों ने परिचय कराया। दोनों महाराजों ने पं. भूरामल की विद्वता के बारे में पहले से ही सुन रखा था कि इन्होंने महाकाव्यों का सृजन किया है। भूरि-भूरि प्रशंसा हुई उनकी। महाराजों ने कहा कि इतना कठिन साहित्य का सृजन कठिन साधना के माध्यम से आपने कैसे किस ढंग से इसका सम्पादन किया? आदि बातें/चर्चायें हुई। उन आठ दिनों में उन्होंने मुनि चर्या के बारे में बातें जो सुनी/देखी तो कई शंकाएँ दूर हो गई। कई लोग जो शान्तिसागर जी के सम्बन्ध में कहते थे वे पंथ व्यामोह वाले हैं, भूरामलजी ने उनकी चर्या में नहीं देखी। यानि जिस प्रकार की चर्चाएँ होती हैं वे निराधार होती हैं। चर्चा करने वाले व्यक्ति हमेशा-हमेशा बीच में उसको क्या बोलते हैं नमक मिर्च मिलाकर कहते हैं। जिसको बोलना चाहिए, ये तो निश्चत बात है कि नमक मिर्च लगाने से स्वादिष्ट लगता है इसको बघार भी बोलते हैं। लेकिन कभी-कभी ज्यादा बघार के कारण बिगड़ भी जाता है, बिगाड़ देता है, जला हुआ हो जाता है। कोई भी पक्षपात नहीं, कोई भी आग्रह, पंथ व्यामोह नहीं था। ऐसी परम्परा को देखकर जो धारणा बना रखी थी वह सबसे पहले उन्होंने समाप्त कर दी और चर्चा के माध्यम से साहित्य चर्चा, सिद्धान्त चर्चा, अध्यात्म चर्चा के माध्यम से जितने दिन वहाँ व्यतीत किये वे भूरामल जी के लिए स्मरणीय रहे। पंथ व्यामोही श्रावक, हमारे गुरु- हमारे गुरु कह-कह कर गुरु के व्यक्तित्व को संकीर्ण बना देते हैं। हमारे क्या ये तो विश्व के गुरु हुआ करते हैं। पंथ व्यामोही गुरु दुनियाँ के प्राणी मात्र का कल्याण नहीं कर सकता। वह तो अपने पंथ के व्यामोहियों के व्यामोह में जकड़ कर कूप मंडूक बन जाता है। शान्तिसागर महाराज के नाम से पंथ के बारे में प्रचार-प्रसार वर्तमान में चलता है यह वस्तुत: गलत है। गुरु महाराज से सुनने के उपरांत किसी के सामने हम कह सकते हैं, प्रथम बार मैं कह रहा हूँ कि दोनों प्रकार के शान्तिसागर जी महाराज को देखने से दिगम्बरत्व का सच्चा स्वरूप पता चला। आज ये कम से कम भी ४०-४५ वर्ष पूर्व की बात हो गई कम से कम कह रहा हूँ उस समय की ये बात है। दोनों आचार्य ने कहा कि पंथ व्यामोहता श्रावकों की व्यामोहता है, आगम की नहीं। उत्तर-दक्षिण में हम भटक जाते हैं। हमें गुणों की अपेक्षा से परिचय प्राप्त कर लेना चाहिए। कुन्दकुन्द देव ने प्रवचनसार में देव-गुरु-शास्त्र के बारे में पहचान का अर्थ क्षेत्र से नहीं बताया, कुल से नहीं बताया, जाति से नहीं बताया, वंश से नहीं बताया, बताया है मूलगुणों के माध्यम से। गुण सुरक्षित रहेंगे तो हमारे देव-गुरु-शास्त्र सुरक्षित रहेंगे, वो यदि सुरक्षित नहीं रहेंगे तो केवल नाम शेष मात्र रहेगा। जिनदर्शन का मूल उद्देश्य सिद्धान्त है गुणों की उपासना करना और गुणी व्यक्तियों को पैदा कर देना जिसके माध्यम से गुणियों की पहचान समाप्त न हो जाय। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को जिस पंथ के बारे में सोचा जाता है, मैं समझता हूँ यह अभिशाप का ही एक प्रतीक है। महाराज जी में यह तिल-तुष मात्र भी नहीं था। महाराज जी को मैं मानता हूँ और आप किस रूप में मानते हैं यह भी मैं जानता हूँ। मेरे वचन आप लोग के किये कटु लग सकते हैं लेकिन मैं गुणों की उपासना करना ही श्रेष्ठतर समझता हूँ क्योंकि मैं आचार्य ज्ञानसागर जी का शिष्य हूँ ये ध्यान रखना! और उन्होंने ये ही कहा कि गुण जब तक रहेंगे तब तक जैन धर्म रहेगा, जिस दिन गुण समाप्त हो जायेंगे जैन धर्म का नाम नहीं रहेगा। ये पवित्र धर्म गुणों के ऊपर आधारित है और गुण बाजार में खरीदे नहीं जा सकते। गुणों को पैदा करना होगा आत्मा में और गुणों के लिये साधना की आवश्यकता होती है और गुण किसी व्यक्ति के चिपकने से नहीं हो सकते। गुण के लिये द्रव्य की ओर उस स्वरूप की ओर देखना पड़ता है तब कहीं वह जाकर के सामने आता है। आज समाज के बीच में ३०-४० वर्ष से मैंने भी कुछ देखने का प्रयास किया वस्तुत: समाज, एक भोली समाज जिसे कहना चाहिए, स्वाध्याय की हीनता होने से इस स्वरूप तक नहीं पहुँचती और परिणाम स्वरूप जो आदर्श है उन आदशों के ऊपर धूल फेंकने का प्रयास करती रहती है। ध्यान रखना यदि दर्पण के ऊपर धूल चिपक जाये तो न ही दर्पण की पहचान होगी, न ही दर्पण में अपना मुँह दिखेगा। हमें अपने स्वरूप की पहचान के लिये सर्वप्रथम उस आदर्श को आदर्श के रूप में रखने का प्रयास करना चाहिए। दोनों शांतिसागर जी महाराज के बारे में जब बातें सुनीं तब ऐसा लगा और गुरु महाराज से ऐसी बात सुनीं और गुरु महाराज ने ऐसी बात कहीं तो इस बात को अवश्य रखना चाहिए समाज के सामने। जो वर्तमान में परम्परा कहकर एक अन्धकार फैलाया जा रहा है उसको निश्चत रूप से दूर किया जा सकता है लेकिन मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं कहना चाहता है। (History of Achary Shanti Sagar Jee) क्या है, ये जानने का प्रयास करना चाहिए। दूसरा एक संस्मरण जो संस्मरण के रूप में नहीं किन्तु श्रमण के जीवन परिचय से मिला। आ. शान्तिसागर जी अपने संघ के साथ उस व्यक्तित्व के पास गये। कालान्तर में शान्तिसागर जी महाराज को भी उन जैसा बनना था, पद प्राप्त करना था। एक संन्यस्त महाराज हैं जिनकी दक्षिण में समाधि हुई है। एक लेख जो पढ़ा था, जो ५० वर्ष पूर्व का लेख हो सकता। लेख से क्या है? कैसा है? यह मैं नहीं जानता। लेकिन शान्तिसागरजी महाराज वहाँ पर उपस्थित अवश्य थे और उनका फोटो भी अपने सामने आता है। आचार्य शान्तिसागरजी शान्त मुद्रा में उस व्यक्ति को देख रहे हैं, दर्शन कर रहे हैं और जो उनकी साधना सल्लेखना की चल रही है, उसको वे सराह रहे हैं। सुना उसमें जो पढ़ा। ये वे व्यक्ति संन्यस्त थे, जो प्राय: करके गुफा में रहते थे। एक एन. उपाध्ये के बारे में भी एक लेख पढ़ा जो सम्भव है, उन्हीं का हो सकता है। महाराज कम से कम सात दिन में एक बार आहार के लिए उठते थे। इस लेख के अनुसार तो ये ज्ञात होता है और अन्त में जब उन्होंने सल्लेखना ले ली तो एक साथ सर्वविध भुति का त्याग कर दिया। कई लोगों ने इसके बारे में टीका टिप्पणी प्रारम्भ कर दी, एक साथ कैसे त्याग कर दिया? जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में ८ या ९ दिन में आहार लेने की साधना की है उस व्यक्ति की युक्ति के बारे में आपकी टीका टिप्पणी वह कानों तक ही नहीं ले जायेगी। उस आदर्श मूर्ति के सामने जाकर आचार्य शान्तिसागरजी महाराज अपने संघ सहित बैठे हैं। उसका शायद चित्र भी हमने देखा होगा, चित्र भी है संभव है। उस चित्र की गवेषणा कर लेनी चाहिए। कौन बड़ा? यहाँ पर कौन छोटा? इसको अपने मस्तिष्क से निकाल दीजिए और यदि आप नहीं निकालते तो ध्यान रखना आप सही मायने में आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को नहीं जानते हैं। बीच के व्यक्तियों की बात सुनना नहीं चाहिए। जो शान्तिसागरजी महाराज पहले स्वीकार कर रहे हैं उस बात को पहले समझने का प्रयास करना चाहिए। गुफाओं में रहने वाले वे मुनि महाराज, वे कौन हैं? नाम से ही तो गड़बड़ हो जाता है लेकिन शान्तिसागर महाराज जी उनके पास गये उस आदर्श को देखे, फोटो सामने है। क्यों गये शांतिसागर महाराज जी? सोचने की बात है। इसलिए गये, जिसने अपने जीवन काल में इस प्रकार की कठिन तपस्या करके अंत में अन्त:क्रियाधिकरणं, तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं, समाधिमरणे प्रयतितव्यम्॥१२३॥ (रत्नकरण्डक श्रावकाचार) और मुनिपन की बात तो करते हैं और उस सल्लेखना के प्रति कितनी रुचि साधकों की है। वह रिजल्ट सामने आ रहा है। कौन-कौन उसके लिये समर्पित है? आचार्य समन्तभद्र स्वामी जयघोष के साथ कहते हैं मुझे सब मालूम है कि तुम्हारा तप कितना है? तप का फल 'सल्लेखना'! उसमें जो पास होता है, वही तप में पास, बाकी सब ठीकठाक है। इसलिए तप करते हुए सल्लेखना को ध्रुव के रूप में, आदर्श के रूप में सामने रखिये। जब वहाँ सल्लेखना के बारे में देखा, जाना, पहचाना, पूछा और अनुमान लगाया होगा कि हमारे लिये क्या होगा? जिन्होंने दस-दस उपवास करने के साथ आहार करने का अभ्यास किया। आप यदि संकल्प लेकर के करें तो कितना कर सकते हैं, जिसका अनुमान आप लगा सकते हैं। आप लोग अष्टमी के दिन एक उपवास करते हो तो एक महीने पहले सोचना पड़ता है। महाराज शान्तिसागर जी का नाम लेने से काम नहीं चलेगा। वह आदर्श जिनके जीवन में था, उनके सामने बैठे। लोगों की टीका टिप्पणी सुनकर के ऐसा लगा क्या बात हो गई आचार्य शान्तिसागरजी महाराज देखने के लिये गये हैं। आप उस व्यक्ति के बारे में क्या सोच रहे हैं? जो गुरु महाराज अपनी परीक्षा के बारे में सोच रहे हैं- मुझे क्या करना है? और आप लोग क्या सोच रहे हो? आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे में। ये सब गलत है। समाज में आज परम्पराओं को लेकर आचार्य पद को लेकर के जो इन दिनों में पत्र पत्रिकाओं में पुस्तकपुस्तिकाओं में टीका-टिप्पणी आलोचनाएँ यहाँ तक कि कोर्ट कचहरी तक हो गई। ये बहुत शर्म की बात है। समाज को इसके बारे में शान्ति रखना चाहिए। आचार्य शान्तिसागरजी की बात करते हो और अशान्ति फैलाते हो। उनकी जीवन चर्या का अध्ययन करने का प्रयास कर लेना चाहिए। पक्षपात से ऊपर उठोगे तभी मुनि की चर्या के बारे में आप सोच सकोगे, पहचान सकोगे और उनसे कुछ प्राप्त कर सकोगे नहीं तो दोनों कर खाली रखोगे। ये ध्यान रखना ये शान्तिसागर महाराजजी जब उनकी चर्या से प्रभावित हुए, क्यों हुए? "अन्त: क्रियाधिकरण तप: फल" मुझे भी सल्लेखना लेना है, क्या साधना है, उस सल्लेखना के समय पर ज्ञात हो जायेगा। इस प्रकार का एक आदर्श उनके सामने था। आ. शान्तिसागर जी के समय पर दूसरे शान्तिसागरजी थे, ये कई लोगों को ज्ञात नहीं होगा और जो ब्यावर में चातुर्मास इनका मिलकर के हुआ, आप ही बताओ यदि शान्तिसागरजी एक किसी पंथ को रखने वाले होते तो दोनों कैसे मिल करके एक ही जगह चातुर्मास करते? हमारा भी उसी नसियाँ जी में चातुर्मास हुआ था। एक दिन भी वहाँ पर किसी पंथवाद को लेकर के चर्चा आदि नहीं हुई। वर्तमान में आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को लेकर के जो बातें आ गई हैं, वे वस्तुत: शान्तिसागरजी से परे लगती है। भले वह बुरी लगती होंगी वर्तमान के युग को लेकिन इन बातों से तो ये जाहिर हो जाता है। उसको सुधारने का प्रयास करना चाहिए। मेरा कोई आग्रह नहीं, लेकिन सही बात कहने से चूकना नहीं चाहिए। जब आपने बिठा ही दिया इस बात को सुनाने के लिये तो अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और आचार्य शान्तिसागर जी कौन थे इसके बारे में सोच लेना चाहिए। अभिरुचि होना प्रत्येक साधु के लिये सहज होना चाहिए। जोश नहीं होना चाहिए रुचि होना चाहिए और रुचि पहले से ही होनी चाहिए और पहले से ही रुचि होगी तो अन्त में उसको सफलता मिल सकती है। मिले भी यह कोई नियम नहीं है। भगवती आराधना में एक प्रसंग है- जो व्यक्ति अपने जीवनकाल में सल्लेखना कर रहा है। उसके पास जाता है आस्था करके, देखकर के अपने साधना की तुलना करता है। उसमें योगदान देता है, सल्लेखना में क्षपक के लिये वैय्यावृत्ति आदि करता है। भगवती आराधना में उल्लेख मिलता है कि उसकी भी सल्लेखना निश्चत होती है क्योंकि जो जिसको चाहता उसके बारे में अभी से सार निकाल रहा हो तो उसको भी वह मिल सकता है किन्तु ये बिना रुचि के सम्भव नहीं, बिना साधना के सम्भव नहीं, बिना निष्ठा के सम्भव नहीं। मुझे भी ऐसा लगा एक साथ भक्त-प्रत्याख्यान कर दिया। ये क्रम कैसे रखा। लेकिन उसके साथ में जब नीचे की पंक्ति पढ़ी तो ज्ञात हुआ जो ८-९ उपवास Minimum एक ही वस्तु लेते थे, ये बात तो अलग ही है। ८-९ उपवास Minimum इसी बात को लेकर के आचार्य शांतिसागरजी उनके पास गये और देखा कैसे हैं? वहाँ पर जाकर देखा जिसके ६,७, ८, ९ उपवास हमेशा चलते रहते हैं, उनके भक्त प्रत्याख्यान तो पहले से किया हुआ लगता है। जो एक ही भोजन लेते हैं तो उसके लिये क्या त्याग करना? उसके लिए क्या बार-बार त्याग करवाना और त्याग बारबार करवाने के उपरान्त भी आप लोगों को याद आ जाती है। अपनी भावना से त्याग करने की भी भावना नहीं होती इसलिए त्याग करवाना पड़ता है। ऐसे भी आदर्श होते हैं जो पहले से ही त्याग। इतना त्याग? "त्याग के बिना मुनि की शोभा नहीं होती। सिंह वृत्ति के बिना मुनि का जीवन नहीं है।" दूसरों के कहने में जो मुनि महाराज आ जाते हैं उनके जीवन की शोभा नहीं है। जो असंयमी मुनियों के लिये कुछ कहना चाहते तो वह संयम मार्गणा में क्या समझता है? और वे मुनि महाराज कैसे जो असंयमी की बात मान रहे हैं? दोनों बातें सोचनीय होती हैं। इतिहास के पढ़ने से पता चलता है कि मुनि महाराजों में सिंह वृत्ति के दर्शन होते हैं। जो सिंह गर्जना से कम नहीं है। वो सिंह भी उन्हीं के चरणों में बैठ जाते हैं। उनके चरणों में नहीं बैठते, जो गुस्सा करता है। उनके चरणों में बैठते हैं जो शान्त स्वभावी होते हैं। वहाँ आकर के "उपल खाज खुजावते ।" वाली बात घटित हो जाती है। निन्दा करे स्तुति करे तलवार मारें या मणिमयी आरती सहसा उतारें। साधु तथापि मन में समभाव धारे, वैरी सहोदर जिन्हें इक सार सारे। ऐसी कुछ पंक्तियाँ हैं जो कि ब्याज में ही लिखी गई थी। इसमें कुछ सन्देह नहीं है वो फोटो भी आज दिखती है। उभय शान्तिसागरजी महाराज के उस संघ में आर्यिका नहीं, कोई बह्मचारिणी नहीं, कुछ भी नहीं। आज भी फोटो देखना हो तो देख सकते हैं। आचार्य शान्तिसागरजी की क्या परम्परा थी? इसका दर्शन करना हो तो ब्यावर चातुर्मास से अवगत कर लेना चाहिए। जो जैसा है उसको वैसा ही स्वीकार करना, वैसा ही कहना, उसका वैसा ही प्रस्तुतिकरण करें। जो जैसा है वैसा ही उसके ऊपर श्रद्धा करें इसी का नाम सम्यक दर्शन होता है। यदि आदर्श को अन्यथा रूप से अपनी पंथगत धारणाओं के अनुकूल बताकर दुनियाँ के सामने रखेंगे तो लोगों का उस आदर्श के प्रति भी अनास्था भाव हो जायेगा। आपके दोष आदर्श को दोषी बना देंगे। इसलिए आदर्श को आदर्श के रूप में ही रखना चाहिए अन्यथा उनके प्रति अनास्था भाव बहुत जल्दी आ जायेगा वैसे ही आस्था जमाना मुश्किल हो रहा है और उसमें थोड़ी सी गड़बड़ी हम बता देंगे तो अनास्था भाव उसके हो ही जायेंगे। वह सोचेगा ये ऐसे तो वो ऐसे कैसे? इसलिए आचार्य शान्तिसागर महाराज ने जिस जमाने में अपनी कठिन साधना को अपनाया, उसको अन्त तक निभाया उन्होंने। जीवन के बारे में क्या कहा जाये क्योंकि हमेशा-हमेशा वे साधना प्रिय थे। जिस समय वे थे उस समय रेडियो शायद ही होगा, उस समय टेलीफोन बगैरह बहुत कम काम करते थे। टेपरिकार्ड का प्रचलन कम था। पण्डित जी के मुख से सुना था, जब सम्मेदशिखर जी में संघ गया था तब महाराज जी का दर्शन करने सारा का सारा बिहार प्रान्त ही वहाँ पर आया हुआ था। प्रवचन सभा में जनता ज्यादा हो गई। माइक तो थे ही नहीं उस समय तो क्या करें? तो चारों कोनों में चार महाराजों को भी बिठा दिया। अलग-अलग कोनों की जनता ने अलग-अलग महाराजों से प्रवचन सुना। आज १० व्यक्ति होते हैं तो पहले माइक की आवश्यकता होती है, इतना अन्तर हो गया इस समय और उस समय में। ये प्रभावना का काल आ गया और वो भावना का काल था। प्रदर्शन के अलावा आज कुछ नहीं रहा। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र रूप स्नत्रय अलग वस्तु होती है और बाहरी क्रियायें अलग वस्तु होती हैं। क्रियाओं के माध्यम से परम्परा को निर्धारित करना यह एक प्रकार से इतिहास को नहीं जानने का प्रयास करना है अथवा आचार संहिता को भुलाने का प्रयास करना है। क्रियाओं के माध्यम से नहीं चलता धर्म। आगम ग्रन्थों में कहा गया है कि भिन्न-भिन्न देश की भिन्न-भिन्न क्रियाएँ हैं। लेकिन २८ मूलगुणों की प्रक्रियाएँ क्या भिन्न-भिन्न हैं? इसके बारे में सोच लेना चाहिए। ये मूलाचार का सिद्धान्त माना जाता है। एक संघ दूसरे संघ से मिल जाते हैं उस समय पता चल जाता है। इनकी और उनकी क्रियाओं में कितना अंतर है। आज शांतिसागर जी का नाम लिया जाता है, उनको अपनी क्रियाओं में शामिल करके परम्परा की दुहाई दी जाती है। जो शान्तिसागर की परम्परा थी, उसको भुला दिया और अपनी परम्परा को शान्तिसागर की परम्परा बताकर गुमराह किया जा रहा है। यह आचार्य शान्तिसागरजी की परम्परा नहीं मानी जा सकती। अखबार बाजी को महत्व देना ठीक नहीं। प्रत्येक व्यक्ति से ये हम सुनते रहते हैं और आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे में क्या कहा जाये आदर्श क्या है? अभी ये आपके सामने नहीं रखा। आपको देखने, जानने, मनन करने का इशारा किया है। आप लोग उस आदर्श मूर्ति को आदर्शमय रखने का प्रयास करेंगे। आज से दक्षिण और उत्तर, वो और इस प्रकार के भेदभाव किये बिना २८ मूलगुणों की उपासना करने वाले उन आदर्श मूर्तियों के बारे में आस्था करने का प्रयास करना चाहिए। एक बात अन्त में और कह देता हूँ। आचार्य ज्ञानसागर महाराजजी ने दूसरा एक संस्मरण (ब्यावर) सुनाया था। उनके सामने हुआ था घटित। आचार्य शान्तिसागर महाराज जी बैठे थे और चरणों में जाकर के एक पंथ व्यामोही व्यक्ति गया, वह व्यक्ति महाराज के चरणों के ऊपर दो फूल गुलाब के रखने लगा। महाराज जी ने तात्कालिक कहा ये क्या कर रहे हो तुम? महाराज ये पूजन सामग्री है, मैं तो चढ़ाऊँगा। कैसे कर रहे हो? तुम तो समझदार हो। महाराज! इससे आपको क्या मतलब, ये तो हमारा कार्य है, हम भगवान् के चरणों में भी चढ़ाते हैं। भगवान् के चरण और आपके चरण एक ही तो बात हैं। महाराज ने कहा-गलत बात है। जो बात शास्त्र में नहीं उसे क्यों करना चाहते हो। चरणों के ऊपर क्यों चढ़ाते हो? नीचे पाटे पर चढ़ाओ। प्रतिमा पर भी नहीं चढ़ाना चाहिए जो भी द्रव्य चढ़ाना है उसे वेदी पर चढ़ाना चाहिए। यह आचार्य शान्तिसागरजी ने जवाब दिया था और एक महान् विद्वान के लिए जबाब दिया था। इसकी चर्चा आज कहीं भी नहीं की जाती। इसका अर्थ आचार्य शान्तिसागरजी को पंथवाद में डालना चाहते हैं आप लोग? उनके जीवन का अध्ययन करने का प्रयास कीजिये। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे में, दया के बारे में क्या धारणा आप लोगों की है, यह सब ज्ञात होता चला जा रहा है। कहाँ उनकी दया दृष्टि और कहाँ तो तुम लोगों की पंथ-दृष्टि। उन्होंने कभी किसी पंथ का समर्थन नहीं किया। उन्होंने केवल अपने आगम के माध्यम से अपनी चर्या निभाने का प्रयास किया। ये बात अलग है कि कुछ क्रियाएँ उनके पास अलग हो सकती हैं, उस जमाने में जो मुनियों के पास होती थीं। इसका अर्थ ये नहीं है कि वे किसी पंथ के थे। मैं उनको किसी पंथ से बाँधना नहीं चाहता। इसलिए मैं आप लोगों के सामने ज्यादा कहना अब पसंद नहीं करता क्योंकि आप लोगों को ये सुनकर लगेगा कि महाराज जी ये ठीक नहीं कह रहे हैं। आपके लिये भले ही ठीक नहीं हो सकती। मैं आपकी मानसिकता के बारे में कुछ ज्यादा कहना नहीं चाहता लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँकि आपको जब यह बात सही लगेगी तभी आ शान्तिसागर जी की पहचान सही होगी। कई बातें हैं जो आज एक दिन में कही नहीं जा सकी। समय पर इसका उद्धाटन अवश्य हो सकता है। लेकिन शास्त्र, आगम प्रमाण और महाराज जी की साधना के साथ ही कही जा सकती है। उनके जीवन में उन्होंने जो संघर्ष किये उसके लिये कौन-कौन निमित्त हुए? क्या-क्या हुए? इसके लिये भी यह इतिहास उस बात का साक्षी है। आप लोगों को सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की उपासना करना चाहिए तभी आपका सम्यक दर्शन सुरक्षित रह सकता है। किसी एक व्यक्ति की पूजा जैन धर्म स्वीकार नहीं करता। व्यक्तित्व होना चाहिए और वह व्यक्तित्व पर्सनल्टी नहीं होती है। वह व्यक्तित्व गुणों की उपासना करने के फलस्वरूप प्राप्त होता है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने हमारे लिये जो कृपा की, आशीर्वाद दिया, दिशाबोध दिया, उसके माध्यम से इस साधना का मर्म क्या है? समझने का और सोचने का और उस तक चलने का हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आचार्य शान्तिसागर जी के बारे में आचार्य ज्ञानसागर जी पूर्ण विदित थे, परिचित थे, और वे कहते नहीं थे क्योंकि उनकी बात जो समझता नहीं उनके सामने कहने से उसका कोई महत्व नहीं होता। आप लोग सुनने के लिये बैठे इसलिए हमने कहा। हमारी तरफ से कोई यह इरादा नहीं मैं सुना दूँबुला-बुला करके क्योंकि रुचि के बिना सुनाना भी गलत होता है, ये एक नीति भी है। इसका अर्थ नहीं कि मैं आचार्य शान्तिसागरजी के बारे में कुछ नहीं कह सकता या जानता नहीं हूँ लेकिन मैं इसलिए नहीं कहता हूँकि सुनने की भी एक पात्रता होनी चाहिए और उसको समझने का भी एक साहस होना चाहिए और जो येन-केन-प्रकारेण ग्रहण कर लिया है उनके बारे में उसको तिलाञ्जलि देने का भी एक साहस होना चाहिए। उसी व्यक्ति के लिये ये रामबाण सिद्ध हो सकते हैं नहीं तो ये रावण बाण भी सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि जिस व्यक्ति की जिस प्रकार की धारणा रहती है उसी के अनुसार अर्थ निकालता रहता है। अर्थ अपने दिमाग से नहीं निकाला जा सकता, प्रसंग के अनुसार ही अर्थ निकाला जा सकता है और निकालना भी चाहिए। ऐसे गम्भीर व्यक्तित्व के बारे में, ऐसे महान् साधक के बारे में जो वर्तमान में, परम्परागत जिसको बोलना चाहिए, आस्थाएँ बन चुकी हैं, वह वस्तुत: आस्थाएँ साधार नहीं है। इस प्रकार कहने में हमें कोई बाधा नहीं होती है। ऐसे साधक की सिद्ध गति जल्दी-जल्दी हो ऐसी भावना है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की साधना को नहीं कहना चाहते हैं बल्कि पण्डित एवं कुछ साधु गण उनको पंथवाद में घसीटना चाहते हैं। उनके अन्तिम क्षणों में उन्होंने किस ढंग से साधना की थी, उसके बारे में समाज अवगत है। कुछ लिखा हुआ भी है, उसको आप पढ़िये, समझ लीजिये, जान लीजिये। उन्होंने दीर्घ साधना की थी उसको समझ करके आस्था का विषय बनाने का प्रयास कर लीजिये।
  21. यह भारत वर्ष है जहाँ पर धर्म की मुख्यता है और जब धर्म की मुख्यता हो जाती है तो धर्म यद्यपि एक होते हुए भी मानने वाले अनेक होने के कारण उसमें अनेक रूप देखने को मिल जाते हैं और मिलते हैं लेकिन इन सबका ध्रुव एक मात्र अहिंसा होता है जिसे धर्म के रूप में हम स्वीकारते हैं। अहिंसा एक निषेध वाचक शब्द है। वह किसका निषेध कर रहा है? हमें समझना चाहिए। विधान किसका है, निषेध किसका है? यह बात ज्ञात हो जाये तो हम बहुत जल्दी उसको प्राप्त कर सकते हैं। अहिंसा हिंसा का विपरीत रूप है। जहाँ पर हिंसा का तांडव नृत्य होता है, वहाँ पर हम अहिंसा के दर्शन नहीं कर सकते। हाँ, केवल कोशों में हम उसको पा सकते हैं। शब्दकोश उस वाक्यभूत अहिंसा के लिए है लेकिन फिर भी जब हम अपने आपको अहिंसा के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत नहीं कर सकते, वहाँ पर हमें उस समय एक मात्र कोश का सहारा ही लेना पड़ता है। इतिहास में अतीत की घटनाएँ आ जाती हैं उनको हम जीवित अवस्था में देख भी सकते हैं और नहीं भी देख सकते हैं। वह एक स्मारिका का रूप धारण कर लेता है। अहिंसक व्यक्ति का दर्शन सदा काल होना चाहिए लेकिन कुछ ऐसे प्रसंग होते हैं जो हमारे लिए चिंता के कारण बन जाते हैं। अहिंसा धर्म का ह्रास होता चला जा रहा है इसके उपरान्त भी यह नहीं कहा जा सकता है कि आज अहिंसा के दर्शन ही नहीं हो सकते। इसके दर्शन करने के लिए विचारों में समीचीनता पहले अनिवार्य है। आचार भी समीचीन बन जाता है जब विचार समीचीन होते हैं। हमारे कदम आचार की धरती पर तब पड़ते हैं जब हमारे हृदय में अथवा मस्तिष्क में सद्विचार उद्भुत होते हैं। विचार के अनुरूप ही अचार के कदम आगे बढ़ते चले जाते हैं परिणामस्वरूप आचार के कदम और कदमों के चिह्न हम लोगों को देखने के लिए मिल जाते हैं। विचार किसी गूढ़ अवस्था में रहते, मस्तिष्क में रहते हैं, हृदय में रहते हैं उनका प्रत्यक्ष दर्शन हम नहीं कर पाते हैं और यह संभव भी नहीं है। किन्तु उसकी परिछाया, उसके चिह्न, उसका मूर्त रूप हम आचार में देख सकते हैं। विचारों का कार्य रूप आचार है। भारत सदैव चरण और आचरण के चिहों की पूजा करता आया है किन्तु उन चरण चिहों की पूजा करता आया है जिन चरणों में अहिंसा पलती है। जिन चरणों में अहिंसा उतर आती है तो मस्तिष्क में समता/सहानुभूति के विचार विशेष रूप से घर बना लेते हैं। ऐसे महान् पुरुष जो विचारक होते हैं वे आचारवान भी अवश्य हुआ करते हैं। मौसम का जैसा प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार माहौल का भी प्रभाव पड़ता चला जाता है। मौसम का प्रभाव शरीर के ऊपर, साक्षात् पड़ जाता है और धीरे-धीरे मन पर भी प्रभाव पड़ने लग जाता है। अहिंसक विचारों का प्रभाव युग के ऊपर अवश्य पड़ता है लेकिन आज का युग कुछ आगे बढ़ गया है अर्थात् बहुत पीछे खिसक गया है। विचारों में जब भेद हो जाता है तो आचारों में भेद होना अनिवार्य होता है और आचारों में शैथिल्य बिना कारण के नहीं हुआ करता है। सदैव ही विचारों के द्वारा सोचा जाता है और उसी सोच के माध्यम से आचारों में भेद आता चला जाता है। एक घटना मैं सुनाता हूँ उस समय की जब विभीषण राम के शिविर में शरणागत होने आया है। युद्ध का समय ऐसा था कि हम अपने श्वाँस के ऊपर विश्वास नहीं रख सकते, वह समय ऐसा था कि हम अपने मन के ऊपर विश्वास नहीं रख सकते, वह समय ऐसा था कि हम अपनी छाया के ऊपर भी विश्वास नहीं रख सकते। पूछना पड़ता है युद्ध के समय में कि शत्रु का भाई आया है? अनेक शंकाएँ उठती हैं। शरणागत की आड़ में कोई षड्यंत्र भी तो हो सकता है लेकिन उसमें भी एक व्यक्ति ऐसा होता है जो इन सब प्रश्नों के लिए स्थान नहीं देता है। गुप्तचर ने समाचार दिया, विभीषण आप से मिलना चाहता है। रामचन्द्र जी ने कहा आने दें, सभी लोग आश्चर्य चकित कि शत्रु के भाई को बिना परीक्षा किये अन्दर आने की अनुमति दे दी। सभी लोग तो सोच रहे थे कि बन्दी बनाने की बात कहेंगे रामजी! जैसा यहाँ पर मौन है, कुछ समय के लिए मौन था वहाँ। फिर कहा गया भेज दो। जब भेज दो यह कह दिया तो भेजना ही पड़ेगा, बिना सोचे यह कार्य नहीं होना चाहिए। बिना सोचे आपने कहा भेज दो। वो कौन व्यक्ति है? उसके बारे में आपको अध्ययन करना आवश्यक है चूंकि आपका विषय है लेकिन आपका विषय होते हुए भी हम तो कम से कम कहना चाहेंगे क्योंकि यहाँ पर यदि गलत व्यक्ति आ जाये तो खतरा पैदा हो सकता है। जैसे नदी चढ़ जाने से नदी पर बने मकान के लिए खतरा होता है। यदि वह घुस करके शहर में नदी आ जाये उसका प्रबन्ध करना पहले आवश्यक होता है। चाहे वह दिन हो, चाहे रात हो, वह प्रबन्ध आवश्यक होता है, फिर यह नदी तो समुद्र की तरह है। सुनते हैं जब चक्रवात आ जाता है, समुद्र का बहुत सारा जल शहरों में घुस जाता है। तटों का उल्लंघन हो जाता है वहाँ की आबादी बबाद हो जाती है तो यह भी इसी प्रकार का है। रामचन्द्र जी ने कहा शरणागत के सम्बन्ध में ज्यादा विचार नहीं करना चाहिए। विभीषण को अन्दर बुलाया गया। चूंकि वह रावण का भैय्या था और रावण को तो आप समझते हैं इस भारत भूमि के लिए कैसा क्या था? प्रतिवर्ष उसके पुतले जलाये जाते हैं। प्रतिवर्ष उससे मनोरंजन करके उसको उपहास का पात्र बनाया जाता है। चूंकि उसके पीछे बहुत बड़ा इतिहास है। विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जो राम रावण विभीषण के बारे में नहीं समझता हो। बड़े-बड़े लेखक अपनी लेखनी का विषय बना चुके/बना रहे हैं। राम ने उसको ज्यों ही देखा, कोई अंतर नहीं आया, उनके मन में। जहाँ पर विराट् जीवन चलता है, विशालता होती है, वहाँ पर इस तरह की संकीर्णता के लिए स्थान नहीं मिला करते है | आपके पास आँख है आँख की पुतली है, उसमें तिनके बराबर स्थान है, इसमें से विराट जन समूह देखने में आ रहा है। यह रिफ्लेक्शन एक विशेषता मानी जाती है। बुद्धि जिसकी संकीर्ण होती है, उसके व्यक्तित्व में/बुद्धि में एक व्यक्ति टिकता है। बाकी सारा का सारा विपक्ष में खड़ा हो जाता है। शतरंज का खेल होता है। शतरंज खेलने वाला यदि संकीर्ण बुद्धि वाला है तो वह हार जायेगा। ऐसा हार जायेगा कि एक सैनिक के द्वारा भी राजा की टोपी गिर जायेगी। उसी शतरंज के समान युद्ध में दो सेनाएँ खड़ी हैं वहाँ अपनी सेना की मजबूती पर ही ध्यान नहीं देना है बल्कि शत्रु सेना की कमजोरी/मजबूती पर भी ध्यान देना है। प्रतिपक्ष को यदि भूल जायेगा, निश्चत है हारेगा और वह अपने पक्ष की कभी भी रक्षा नहीं कर सकता और यदि प्रतिपक्ष को भी अपने अंडर में लेना चाहता है तो वह तीन काल में अजेय होगा। विचारों में विशालता रखिए। कहाँ से किस ओर से विचारों का प्रहार हो रहा है इस ओर ध्यान रखिए और देखने वाला विवेक/बुद्धि हमेशा जागृत रखे और वह राम ज्यों के त्यों बैठे है, सामने वाला वह व्यक्ति आ जाता है। लक्ष्मण आदि और जो भी सहयोगी थे, वो सारे के सारे उसे देखकर भीतर ही भीतर गर्म होने लगते हैं, इस बात को वह राम बहुत अच्छे ढंग से देख रहे हैं और सोच रहे हैं। एकाएक राम के अधरों से शब्द निकलते हैं। आइये! कैसे आना हुआ। वह हाथ जोड़कर खड़ा होता है, ज्यों ही वह हाथ जोड़ता है, त्यों ही मन में जो संदेह था, वह थोड़ा-थोड़ा सा उतरने लग जाता है। लेकिन जब उसने कहा कि हे राजा राम आपसे अकेले में बात करना चाहता हूँ। यह सुनते ही लक्ष्मण का पारा गरम हो जाता है। यह षडयंत्री दिखता है, भैय्या को अकेला पाकर कुछ कर सकता है। लक्ष्मण ने कहा- नहीं जो कुछ कहना है सबके सामने कहिये। राम कहते हैं लक्ष्मण से चुप बैठ जाओ, अब क्या करें? हर बात में बैठ जाओ और वह भी चुप बैठ जाओ, बोलो भी नहीं। यहाँ तलवार निकाल कर खड़े होना चाहिए लेकिन क्या करें? भैय्या का आदेश और राम ने एकान्त समय दिया, विचार विमर्श हुआ। बाद में लक्ष्मण को भीतर बुलाया। लक्ष्मण ने देखा, विभीषण भैय्या के चरणों में बैठा है। विभीषण की आँखों में पानी बह रहा है और कह रहा है, हमारे बड़े भाई अनीति/अन्याय पर उतर आये हैं। राज्य का एवं प्रजा का नाश करने के मार्ग पर चल पड़े हैं, नीति की बातें अच्छी नहीं लगती हैं। विनाश कालीन विपरीत बुद्धि हो गई है। अत: मैं भाई का व्यामोह छोड़ कर सत्य का पक्ष लेने के विचार से आपकी शरण में आया हूँ। यह वचन सुनकर लक्ष्मण आश्चर्य चकित रह गया। राम की यह विशाल विचारधारा आज की नहीं वह तो बचपन की थी, बचपन की ही नहीं पूर्व जीवन की थी। ये तो बहुत सुदूर संस्कारों से संस्कारित थे। इनकी दीर्घ साधना का फल है और जब उनके चरणों में विभीषण रो रहा है, लक्ष्मण भी जो कठोर हृदय वाला था थोड़ा सा पसीज गया। लेकिन लक्ष्मण फिर भी राजा के नाते सोच रहा है- हम एकदम विश्वास करने लग जायें ये ठीक नहीं है। राजा का मन विश्वस्त नहीं होता और महाराज का मन विश्वस्त रहता है हमेशा-हमेशा क्योंकि मन के ऊपर अंकुश रहता है। जिस व्यक्ति के मन के ऊपर अंकुश रहता है, मन इधर-उधर की बात नहीं कर सकता है। जिसका संयम जीवन नहीं होता वही व्यक्ति बार-बार सोचता है कि कहीं ऐसा न हो जाये कि विश्वासघात हो जाये। अपने मन के ऊपर भी विश्वास नहीं करता है लेकिन जो संयमी होता है, संयम के सम्मुख होता है वह हमेशा-हमेशा अपने मन के ऊपर विश्वास रखता है। नहीं, ये साथ देगा क्योंकि उसका विचार करने के उपरान्त उत्पन्न हुआ है, देखा देखी नहीं हुआ करता और ये बात हुई और दोनों चरणों में बैठ जाते हैं, लक्ष्मण भी फिर कुशल क्षेम पूछता है। राम कहते हैं कि लक्ष्मण इनको अपनी सेना में भर्ती कराना। लक्ष्मण कहता है सेना में भर्ती कराना ये तो बगावत की बात आ गई। एक मिलिट्री दूसरी मिलिट्री को स्वागत करे, ये तो कहीं संभव नहीं। इनको हम यहीं पर बिठा सकते हैं लेकिन हमें विश्वास नहीं हो रहा है कि हमारी सेना में भर्ती होकर अपने भाई की सेना से ईमानदारी से लड़ेंगे! राम कहता है कि ऐसी बात नहीं है, वह रावण के सामने खड़ा होगा। तुम भी और मैं भी खड़े होंगे। लेकिन आज अन्याय के सामने न्याय खड़ा हो रहा है, यह ध्यान रखना। न्याय का यह पक्ष है। विभीषण ने रावण के अन्याय को सहन नहीं किया और राम के पास न्याय था। उसकी महक, उसकी सुरभि, उनकी नासिका तक पहुँच गयी। इसको कोई रोक नहीं सकता। आप नाक बंद कर लें लेकिन विचारों की गंध ऐसी हुआ करती है और आचारों की गंध वह कभी भी आपके किसी भी अवयव से घुस कर आपको संतुष्ट कर सकती है। भाई-भाई एक ही कोख से जन्म लेने वाले भाई की तरह विभीषण राम और लक्ष्मण का अपना हो गया। सब लोग विस्मित हो गये। दो का काम तीन में आ गया और ये ध्यान रखना तीन होते ही संगीत का प्रवाह अपने आप बढ़ने लग जाता है। एक नर्तक होता है, एक गायक होता है और एक वादक होता है फिर तालिया अपने आप ही बज जाती है। तब वह आनंद अपने आप आने लग जाता है तो ऐसी ही बात हो गयी। ये कैसी घटना? क्या आज यह संभव है? सामने वाला बहुत भ्रष्टाचार की ओर बढ़ रहा है, सामने वाला व्यक्ति विपरीत है, सुनते हैं आज राजनीति में कोई व्यक्ति काम करने लग जाता है तो कहने लग जाता है कि महाराज ये विपक्ष के नेता हैं। मैंने कहा- विपक्ष का कैसा नेता? भाई आपका पक्ष है, वो विपक्ष है। उनके लिए आप विपक्ष हो। दोनों विपक्ष हो गये। देश का पक्ष लेने वाला कोई यहाँ पर है कि नहीं? बड़ी विचित्रता है, हम हमेशा-हमेशा विपक्ष की ओर देख रहे हैं, लेकिन देश का क्या पक्ष होता है, इस ओर नहीं देखा जाता है और संकीर्ण बुद्धि का ये परिणाम होता है कि हमेशा-हमेशा पार्टियाँ खड़ी हो जाती हैं, सत्ता खड़ी हो जाती है। देश के लिए कौन हितकारी है? यह ज्ञात करना बहुत कठिन हो जाता है जबकि दोनों अंग देश के हैं। ये कर्तव्य होता है कि कोई चुन करके आ जाता है तो दूसरा भी पक्ष उसको सहयोग दे, ये बात अलग है कि अंधाधुन्ध सहयोग नहीं देना चाहिए लेकिन उसकी कार्य योजना में हाथ बँटाना चाहिए तभी देश की उन्नति हो सकती है। और एक दूसरे को विपक्ष मानते रहे तो देश की उन्नति नहीं होगी और आपकी जितनी योजना है वही देश की उन्नति के लिए कारण है। जब आप खड़े होंगे तो वह अड़ेगा वह खड़ा होगा तो आप अड़ेंगे। ऐसी स्थिति में देश वहीं पर खड़ा होकर के देखता रहेगा। मंदोदरी ने, विभीषण ने समझाया, प्रजा हार गयी समझाते-समझाते, अपना मन भी कभीकभी कहता है कि वस्तुत: ये ठीक नहीं कर रहा हूँ लेकिन फिर भी एक बात जब उठ गई तो उसको वापस लेना बहुत कठिन होता है। जो व्यक्ति गलत करे, गलत कदम उठाये और मुख से गलत बोले फिर भी कहे कि यह गलती मेरी नहीं है, अथवा मैं माफी नहीं माँगना चाहता हूँ। ऐसा कहे तो समझ लेना उसका हित होना संभव नहीं है। अहित के बारे में वह सोच रहा है, सही हित से वह वंचित रह रहा है और रावण की यही दशा हो गई। रावण कहता है कि जैसे मैंने पुरुषार्थ पूर्वक सीता को उठाया था उसी प्रकार राम का पुरुषार्थ हो, लक्ष्मण का पुरुषार्थ हो, फिर बाद में वह सीता मिलेगी। वह अपने आपको अहित के गर्त में धकेल रहा है और सामने वाला पक्ष कहता है- हे रावण! तू छोड़ दे, तू महान् योद्धा होकर के क्षत्रिय होकर के महान् नीतिज्ञ हो करके ऐसा क्यों कर रहा है? राम फिर भी कहते हैं, देख रावण मैं तुम्हें मारने के लिए नहीं आया हूँ लक्ष्मण को भी कह देता है कि इसके ऊपर किसी भी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग न करें। केवल इतना है कि हम सीता को सुरक्षित लेने आये हैं। लंका के आप राजा हैं आपको कोई मारेगा नहीं क्योंकि राजा के ऊपर कभी भी हाथ नहीं उठाया जा सकता है यह शतरंज खेल का एक नियम है। दूर से उसके लिए 'शह' दिया जाता है। यहाँ हटा दीजिए अपने राजा को। बस इतना ही या तो एकदम पीछे या आजू में, बाजू में या सामने या तिरछे कहीं भी एक घर वह चला जाता है। बस यही उसका कार्य है। अंत-अंत तक राजा के ऊपर हमला बोला नहीं जाता लेकिन राजा को घेरा जाता है अवश्य। रावण घिरता चला जा रहा है और ऐसे-ऐसे सैनिकों से घिरता चला जाता है, जब पतन होता है उस समय ही पतन का कारण नहीं होता। पतन के कारण बहुत पहले हुआ करते हैं। विचारों में, आचारों में अंतर होता चला जाता है। ये अब बातें देखकर के रावण को ऐसा लग रहा है कि मेरी हार निश्चत है और राम विजयी बनेगा और सीता को वह ले ही जायेगा। कोई बात नहीं लेकिन जब तक दम में दम रहेगा तब तक ये हरदम छोड़ने वाला नहीं है। यह भी इसका संकल्प है, कटिबद्ध है। ये कभी भी पीछे मुड़ करके देखेगा नहीं। क्षत्रिय है लेकिन क्षत्रियता रावण के पास नहीं रही। क्षत्रिय का अर्थ है जो पापों से बचाये प्रजा को, अहित से बचाये प्रजा को। जो व्यक्ति पाप के कुण्ड में स्वयं गिर रहा है प्रजा को वो कैसे बचा सकता है? यथा राजा तथा प्रजा वाली बात है। लेकिन आज राजा नहीं प्रजा है और प्रजा की सत्ता है। प्रजा के पास ऐसी क्षमता होनी चाहिए थी लेकिन नहीं है। आज प्रत्येक व्यक्ति ये नहीं सोच रहा है कि राष्ट्र की उन्नति किसमें है? वह अपनी बात सोचता है मुझे क्या मिलने वाला है? अरे देश को मिलेगा तो मुझे अवश्य मिलेगा। नहीं-नहीं देश को बाद में, पहले मुझे मिलना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा करेगा तो देश का क्या होगा? आज देख रहे हैं, आप बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ हैं और राजनीति क्या होती है ये पता नहीं है। जब तक प्रजा के हित में जो नहीं सोच रहा है, वह राजनीति नहीं जानता। वह राम-लक्ष्मण को जान ले, वह रावण को भी जान ले। रावण इतना बड़ा योद्धा फिर भी वह गिर गया, वह ऐसा गिर गया जैसे तूफान में बड़ का पेड़ गिर जाता है। सबसे बड़ा पेड़ होता है बड़ का लेकिन सबसे नाजुक पेड़ होता है। उसकी गहराई में ज्यादा जड़ें नहीं जाती हैं और बहुत फैली हुई होती हैं। तूफान में जल्दी शीर्षासन कर लेता है किन्तु बबूल के पेड़ और अन्य पेड़ इस ढंग से नहीं होते। वो इतने फैलते नहीं हैं और फैलते भी हैं तो नीचे गहराई में पहुँच जाते हैं। जो नीचे गहराई में नहीं जाता है उसका अवसान निश्चत है, उसका पतन निश्चत है और निश्चत रूप से वह अपयश का पात्र बनेगा। ये ही होने लगा। फिर भी राम कह रहे हैं, रावण! सोच ले! सोच ले! और लक्ष्मण कहता है राम को, विभीषण तो पक्ष में आ गए ठीक है लेकिन रावण के ऊपर भी आपकी कृपा बरस रही है? हमें समझ में नहीं आता। भाभी को जिसने चुराया, हाथ लगाया और उसको आप भाई कह रहे हैं? नहीं! यहाँ तलवार लपलपा रही है और जिह्वा कुछ कहने को आतुर हो रही है। राम कहते हैं- हाँ, अवसान होने के बाद कुछ कहा नहीं जा सकता। पतित होने के उपरान्त पावन बनाने की अपेक्षा, पतन होने से पहले ही उसे बचा दें, यही अच्छा होता है। गिराने के उपरान्त या गिरने के उपरान्त उठाने की अपेक्षा गिरते हुए को संभालना बहुत अच्छा होता है। लक्ष्मण बैठ जाओ तुम थक गये होगे। लक्ष्मण कहता है, बैठ जाऊँ? हाँ! हम आपकी नीति से थके तो हैं ही लेकिन यह थकावट और विशेष रूप से उत्तेजना प्रदान कर रही है क्योंकि जिस व्यक्ति का आज तक विश्वास नहीं है फिर भी आप विश्वस्त हैं। राम कहते हैं जब छोटा भैय्या आ गया तो बड़ा भैय्या क्यों नहीं आ सकता है? सोचने की बात है। एक खून, एक गोत्र, एक जाति इसी का नाम तो संतान है। उसका खून पलट गया तो बड़े भैय्या का क्यों नहीं पलटेगा? परिवर्तनशील है संसार। एक समय के, एक क्षण के उपरान्त हमारे विचारों में अंतर आ सकता है और सामने वाले व्यक्ति के आचार का अवश्य प्रभाव पड़ता है। उच्च आचरण जिसमें अहिंसा पलती रहती है वह उसका प्रतीक रहता है। जैनों के यहाँ विशेष बात कही है कि तुम अहिंसा के चिह्नों को सुरक्षित रखा करो। व्यक्तित्व की कोई बात नहीं है, व्यक्ति की कोई बात नहीं है लेकिन व्यक्तित्व कहाँ पर छिपा होता है? चरण चिहों में रहता है। उन चरण चिहों को बार-बार हम माथे पर लगा लेते हैं, उस चरण रज को हम अपने माथे पर लेते हैं क्योंकि चरण रज में अहिंसा की गंध आती है। अहिंसा की वह सुगंध हमारे जीवन को आमूलचूल परिवर्तित करने वाली होती है। संयम की गंध में जो व्यक्ति रह जाता है, उसका असंयम अपने आप ही परिवर्तित होने लग जाता है। बातों से नहीं, विचारों से नहीं। विचारों के द्वारा हम दूसरों को परिवर्तित तो कर सकते हैं लेकिन एक घंटे के बाद वह पुन: परिवर्तित हो सकता है लेकिन आचार के माध्यम से स्वत: जो परिवर्तन आता है वह ऐसा स्थायी परिवर्तन हो जाता है कि पुन: उसके लिए संबोधन की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि वह अहिंसा के चरण चिहों की गंध हुआ करती है। आप लोगों को ढूँढ़ने की आवश्यकता है। अभी राम के चरण चिह्न कहाँ-कहाँ पर पड़े हुए हैं? ढूँढ़ने की आवश्यकता है कि राम कहाँ-कहाँ से चलकर चले गये हैं? सुनते हैं भारत वर्ष में राम का यत्र-तत्र विचरण हुआ है। जंगल में एक- एक कण में उनके वह संस्कार आज भी पड़े हैं और सिद्ध क्षेत्रों की वंदना हम जब करते हैं और पुनीत पावन क्षेत्रों का दर्शन जब हम करते हैं तो हमारे भीतर सोयी हुई जो चेतना है वह उठने को वाध्य हो जाती और उसके ऊपर ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि हमारे जो तात्कालिक आचार-विचार जो गंदे हैं वे अपने आप शान्त हो जाते हैं। लेकिन यह ध्यान रखिए-विचारों में साम्यता लाइये। पक्ष और प्रतिपक्ष को गौण करके चलिए और सही अहिंसा की राह पर चलने का प्रयास कर लीजिए, निश्चत रूप से आपका कल्याण होगा। राम की कथा ही नहीं सुनना है बल्कि राम की व्यथा को पहचानना है। शरणागत वत्सल के आदशों को जीवित रखना है तथा विभीषण के आदशों को भी आज जीवित रखने की आवश्यकता है। विभीषण की नीति थी कि यदि राजा अन्यायी हो तो उसको छोड़कर न्याय पक्ष में हो जाना चाहिए। सत्य के समर्थन के लिए भाई को भी छोड़ा जा सकता है।
  22. भावों का आदान प्रदान होता चला आया है लेकिन कभी ऐसा समय भी आता है जब भावों की पहचान समाप्त हो जाती है। हमारे संकेत कार्यकारी सिद्ध नहीं होते, शब्दों का आलम्बन अनिवार्य होता है और शब्दों के प्रभाव कम होने लग जाते हैं तो वाक्यों में रसों का प्रयोग किया जाता है, उसके बिना वह निद्रा टूटती नहीं। रणभेरी हुआ करती है तो वह रणभेरी निद्रा को तोड़ने के लिए नहीं हुआ करती किन्तु खून को दौड़ाने के लिए हुआ करती है क्योंकि उसके बिना वह व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता है। शक्ति है, किन्तु उसको उद्धाटित करना अनिवार्य होता है। द्रव्य- क्षेत्र-काल के अनुरूप ये शक्ति काम करती है। कई लोगों की ये धारणा हो सकती है, मनुष्य हमेशा मनुष्य बना रहेगा, उसका पतन नहीं होता, तिर्यञ्च पशु पशु ही रहेंगे, देव देव ही रहेंगे और नारकी नारकी ही रहेंगे। जो जिसको प्राप्त है, उसमें उसी का गुजारा चलेगा लेकिन ऐसा नहीं है। उत्थान पतन भावों के माध्यम से हुआ करता है, बाजार ज्यों का त्यों बना रहता है। क्षेत्र की अपेक्षा बाजार यथावत् रहता है कि उसकी उम्र तक वह बना रहता है। लेकिन फिर भी आप लोगों के मुख से सुनते हैं, कभीकभी आप लोग कहते हो कि अभी तो बाजार डाउन है। मतलब बाजार बैठ गया यानि बाजार भी खड़ा होता है और कभी बैठता भी है। यह बात कुछ समझ में नहीं आती है। महाराज! भावों में तेजी मंदी हुआ करती है, उसी को ऐसा कहा जाता है कि बाजार में अप-डाउन है और वो बाजार में भी तेजी मंदी है वह भावों के कारण है तो वह भाव भी जगाया जा सकता है, हमेशा-हमेशा तेजी का भाव रह जाये, रह सकता है। तो उसी प्रकार अपने को कुछ ऐसे भाव लाना है जिससे हमारा पूरा का पूरा कार्य हो सके। क्या करना है उत्थान के लिए? जब हम अपने कदम आगे बढ़ाते हैं तो अपने बढ़ते हुए कदमों के कारण दूसरों का पतन नहीं होना चाहिए यह एक भाव हमारी दृष्टि में, हमारे हृदय में, हमारे मस्तिष्क में हमेशा बने रहना चाहिए। हमारा भाव हमारे लिए उत्थान का कारण हो और दूसरे के लिए पतन का कारण हो, यह धर्म नहीं माना जाता। हम अपनी उन्नति चाहें और दूसरे की अवनति हो यह संभव ही नहीं हो सकता। यह अनेकान्त नहीं है कि हमारे उन्नति के लिए अहिंसा और दूसरे के पतन के लिए हृदय में हिंसा के भाव जागृत हो जायें। लेकिन हो रहा है, हमारे कदमों में और हमारे में ये भाव हों, हम बहुत ही बहुत ही सुकुमारता के साथ अपने पैरों को रखते हैं, कभी कभार कोई भूल हो गाये, चूक हो जाये, असावधानी हो जाये, पश्चाताप होना चाहिए जैसी एक पैर में काँटा गढ़ जाता है। तो कम से कम साढ़े पाँच फीट अंतराल को लिए हुए आँखों में पानी आ जाता है। कौन-सा भाव है वह जो आपकी आँखों में पानी आ गया, पैर में लगे हुए काँटे का दर्द तात्कालिक ऑखों में से पानी बाहर भेज देता है ये तो समझने की बात है। पैरों में काँटा गड़ा है और आँखों में पानी आ जाये, यह बात ठीक है लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि अपना कोई व्यक्ति है और उस व्यक्ति को कहीं बाजार में किसी व्यक्ति ले लूट लिया या कुछ मार पीट कर दी, सुनते हैं, तब हमारी आँखों में से पानी आ जाता है ये क्यों? ये कौन-सा भाव है? अपनत्व के कारण है, उसकी आँखों में पानी आ जाता है चूंकि उस व्यक्ति के प्रति अपनत्व है। इसी प्रकार के धर्मात्मा को संसार के समस्त जीवों से अपनत्व हो जाता है तो जब भी उनको मारा जाता है तो उसकी आँखों में करुणा के आँसू आ जाते हैं। धार्मिक भावनाओं के द्वारा भी बहुत बड़ेबड़े काम किये गये हैं और कर सकते हैं। मैं यही बार-बार सोचता रहता हूँ कि अहिंसा की ओर कदम बढ़ाने वाले हिंसा कम करते चले जाते हैं। हिंसा की जाती है या होती है, अहिंसा का पालन किया जाता है। क्या अहिंसा उद्धाटित होती है? इसके बारे में अपने को कुछ अध्ययन भी करना चाहिए। आचार्यों ने ये कहा है या भगवान् ने ये कहा है कि जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? इसको अपने को देखना चाहिए। हमेशा-हमेशा धार्मिक संस्कृति पूर्व की ओर देखती है। पूर्व की ओर अर्थात् इतिहास की ओर देखती है और जो विज्ञान आज का विज्ञान माना जाता है, वह हमेशा-हमेशा आगे की ओर देखता है। धर्मात्मा अतीत के आदशों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ता है और आज का वैज्ञानिक पूर्वजों के आदशों की उपेक्षा करके आगे बढ़ने की कल्पना करता है। हमारी संस्कृति या हमारे पूर्वजों की परम्परा किस पर टिकी थी, जब इसके बारे में हम अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि आज से ५० वर्ष पूर्व में सत्य और अहिंसा के बल पर आजादी/स्वतन्त्रता मिली थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतन्त्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। ये कहने मात्र से कैसे प्राप्त हो? इसमें स्वाभिमान बहुत काम करता है, अभिमान नहीं। स्वाभिमान से हम इतिहास की ओर देख सकते हैं। अभिमान से हमें पीछे की ओर मुड़ने की स्थिति आती है। यदि हम थोड़ा सा नैतिकता के नाते सोचें कि हम जिन जीवों को मारकर देश का विकास करना चाह रहे तो क्या विकास हो सकता है? अतीत भवों में हमारा जीव भी उन पर्यायों में से गुजर कर आया हो और हमने उस अपनी पर्याय की रक्षा करने का प्रयास किया हो अर्थात तुम्हारी अतीत की पर्याय ही उनकी वर्तमान पर्याय है तो फिर उनका विनाश क्यों? क्योंकि प्रत्येक जीव का विकास क्रम एक निश्चत पर्यायों से गुजरता है। अनादिकाल की भूमिका में जीव निगोद में एकेन्द्रिय के रूप में रहा करता है फिर इसी एकेन्द्रिय के उपभेदों में भ्रमण करता रहता है। वनस्पति, हवा, अग्नि, जल, धरती के कण आदि इसमें आ जाते हैं। कुछ ऐसे भावों का परिवर्तन हो जाता है, तो एक इन्द्रिय से विकास को प्राप्त होता है उसको दो इन्द्रिय बोलते हैं। जो चलने- फिरने सरकने की क्षमता रखता है, इनको आगम में त्रस संज्ञा दी गई है, पहले जड़ कहा, फिर जंगम कहा। जड़ का अर्थ पुद्गल नहीं, निर्जीव नहीं, जड़ का अर्थ है, अचल और जंगम वह जो त्रस होता है। दो इन्द्रिय के विकास होने से उनको त्रस कहा है। अपनी आकुलता को प्राप्त करने के लिए उसके प्रतिकार हेतु कुछ ऐसा पुरुषार्थ करता है सरकता हुआ चला जाता है। फिर भी वह अपद माना जाता है दो इन्द्रिय की अवस्था में। जब और विकास होता है, भावों के विकास होने के कारण तीन इन्द्रिय हो जाता है, जिसके पास पैर आ जाते हैं। पैर आते हुए भी वह आप जैसे चलता नहीं। उसके पैर अवश्य आ गये। उनके लिए अंधकार कोई बाधक नहीं है और प्रकाश कोई रास्ता बताने वाला सिद्ध नहीं होता। प्रकाश के कारण रास्ता दिखता है। चतुर इन्द्रिय को जब जीव प्राप्त हो जाता है तो आँखें प्राप्त हो जाती है। यहाँ से आँखों का जगत् सामने आ जाता है। रूप सौन्दर्य का वह लाभ लेने लग जाता है, अब इसका विकास और भी होता चला जाता है, पंचेन्द्रिय हो जाता है, तब शब्द वाणी को सुनने की भी क्षमता आ जाती है। उसके बाद मन आ जाता है तथा इसी क्रम से विकास करता हुआ मनुष्य हो जाता है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो बहुत कुछ विकास कर सकता है क्योंकि पशु के पास दो पैर नहीं चार पैर होते हैं लेकिन मनुष्य पैरों का काम ले ले तो ठीक है, यदि हाथ का काम पैरों के स्थान पर ले ले तो वह भी पशुवत् हो जाता है। यह विकास नहीं, उसके विनाश की बात है। या यूँ कह दो कि बुद्धि का प्रयोग नहीं होने के कारण वह कर लेता है। हाथ और पैर यदि दोनों टिका दें तो वह पशु की भाँति ही हो जाता है। तो वह मनुष्य कहाँ-कहाँ पर गलती करता है, अपने भावों के द्वारा इतना विकासशील और विकसित प्राणी होकर भी सबसे ज्यादा विनाशकारी कोई है तो संसार भर में मनुष्य ही है। ये बात अलग है उसकी समीक्षा कौन करता है? स्वयं कर ले तो बहुत अच्छा है। एक व्यक्ति ने एक लड़के को देखा। वह लड़का सुन्दर होने के साथ-साथ इकलौता था और देखने के उपरान्त वह लड़का तो अपने घर चला गया और जाने के उपरान्त माँ से कुछ बात नहीं करता और थोड़ा भोजन मिल जाये ऐसा संकेत करता है। भोजन लाकर के माँ देने लग जाती है और देखती है, क्या बात है? आज लड़के की आँखें चढ़ी हुई हैं। समझ में नहीं आ रहा है। क्यों बेटा! कहाँ से आ रहा है? वहीं से आया हूँ लेकिन आवाज में जोश नहीं है। कहता है, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। अच्छा नहीं लग रहा। तो भोजन नहीं चाहिए? भोजन तो चाहिए लेकिन अच्छा नहीं लग रहा है। अच्छा-हाथ पकड़कर देखती है तो टेम्प्रेचर बढ़ गया। क्या हो गया इस लड़के को? समझ में नहीं आया। तो उसने दूध पानी जो कुछ देना था दे दिया और सोचती है अब क्या करे और उसे झट से याद आ गया और साबुत लाल मिर्च लाई और उसे उतार कर अग्नि में डाल दी और कहा बहुत तेज नजर लग गई बेटे को। मानव ज्वर दूर करने की योग्यता रखता है लेकिन यदि दृष्टि बिगड़ जाये तो स्वस्थ को ज्वर चढ़ा दे। एक बालक को ऐसी दृष्टि से देख लिया कि ज्वर चढ़ गया। विज्ञान इसको माने या न माने लेकिन वह माँ उसे मानती है और मिची से नजर उतारने से उसका बेटा ठीक भी हो जाता है, वह दवाई के ऊपर ज्यादा महत्व नहीं देती। इसका स्रोत क्या? इसको देखने का वह प्रयास करती है और स्त्रोत को समाप्त करने का वह प्रयास करती है। भारत हमेशा-हमेशा यंत्र से डरता आया है और यंत्र से डराने का काम भी किया है। लेकिन मंत्र को तंत्र को कभी भी नहीं छेड़ा। आज यांत्रिक युग हो गया यंत्र के पास इतनी शक्ति नहीं है, जितनी मंत्र के पास है। इसलिए मंत्र प्रतिष्ठित हो यंत्र समाप्त हो। यंत्र बंद होना चाहिए क्योंकि कत्लखाने भी एक यंत्र में आ रहे हैं और ये सारा का सारा तूफान खड़ा हो गया। यंत्र को बंद करने के लिए शक्ति चाहिए। अब उस पुद्गल के साथ लड़ने की शक्ति किसके पास है? एक व्यक्ति एक व्यक्ति से तो लड़ सकता है लेकिन एक व्यक्ति यंत्र से कैसे लड़ सकता है? यंत्र के माध्यम से व्यक्ति को लड़ाया जा सकता है लेकिन यंत्र से कैसे लड़े? यंत्र से नहीं लड़ना है, यंत्र को खोलने वाले व्यक्तियों से लड़ना है, उनसे भी लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं, ऐसे ही अहिंसा का मंत्र फ्रैंकने की आवश्यकता है। ऐसे अहिंसा भावों के साथ लाल मिर्च लाकर उसे विधान सभा/लोक सभा में उतारने की आवश्यकता है। जिनके भावों में ज्वर चढ़ा हुआ है वह नीचे उतर जाये। हमें किसी को कुछ भी नहीं करना है। जो भाव विकृत हुए हैं उनको मंत्रों के द्वारा और तंत्रों के द्वारा जो यंत्रों से पाप हो रहा है उस पाप को समाप्त करना है पापी को नहीं क्योंकि पापी जब पाप छोड़ देगा तो वह भगवान् बनने की क्षमता रखता है। पतित से पावन बनने का यही एक मात्र राजमार्ग है, यह पगडंडी है। कोई भी हो वह पतित से पावन इसी प्रकार हो सकता है। दया, अनुकम्पा, शान्ति, वात्सल्य एक दूसरे के पूरक भाव को लेकर के यदि विज्ञान खड़ा हो जाता है तो वह विश्व का बहुत बड़ा हित कर सकता था/कर सकता है लेकिन विज्ञानवाद में इन चारों का अभाव है क्योंकि जड़ की क्रिया में कभी भी करुणा, अनुकम्पा, दया नहीं आ सकती। सुई के द्वारा जो काम किया जा सकता है वह तलवार के द्वारा नहीं किया जा सकता और तलवार के लिए जो खर्च किया जा रहा है वह सब व्यर्थ में किया जा रहा है। सविचारों के माध्यम से हम सुख और शान्ति के साम्राज्य की स्थापना कर सकते हैं लेकिन आज इतने विकास होने पर भी नहीं कर पा रहे हैं। दुख और अशांति का स्रोत बढ़ता ही चला जा रहा है। थोड़ा से थोड़ा विचार करिये। एक दृष्टिपात करने से बालक नौजवान का चेहरा मुरझा गया, नजर लग गई उसकी यह दशा हो गई। हरियाली की ओर देखते हैं तो भी इस तरह क्रूर व्यक्तियों के द्वारा वह हरियाली भी सूख जाती है। ये कैसी बात है विचार करो। ऐसी ही बात है, पानी का सिंचन करते हुए भी वह धरती सूख सकती है क्योंकि मशीन से फेंका जाता है पानी जो वह जाता है। पानी पिलाया जाता है, पानी बहाया नहीं जाता। पानी बहाने की क्रिया विज्ञान की है और पानी के सिंचन करने की क्रिया भारतीय संस्कृति है। पहले मशीन नहीं होते थे किन्तु चरस चलते थे और संगीत चलता था और धरती फूल जाती थी और आज धरती की छाती के ऊपर से प्रवाह चला जा रहा है और खेत की मुलायम मिट्टी को लेकर चला जाता है। फसल तो आ जाती है लेकिन अगले साल में वह खेत फसल के योग्य नहीं रहता। उसके लिए और नये आविष्कृत रसायन डालते चले जाओ। यह विज्ञान तो आया लेकिन संस्कृति से हट करके आया। विज्ञान सन्ध्याकालीन सनसेट है और भारतीय संस्कृति प्रातःकालीन सनराईज है। पश्चिम की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं और पूर्व की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो मनोरंजन को देखने की अपेक्षा से दोनों में ऐक्य नजर आता है। सनराईज सनसेट दोनों को ही देखते हैं। मनोरंजन की अपेक्षा से, दोनों में लाली है। थोड़ी सी बात मैं पूछना चाहता हूँ सनसेट होकर कभी डूबते हुए सूर्य नारायण की आरती की कभी किसी ने? नहीं, परन्तु जिस समय पर सूर्य उगता है, उस सूर्य की आरती की जाती है भारत में क्योंकि जीवन प्रदाता है उगता हुआ सूर्य। वही सूर्य पश्चिम की ओर गया तो डूबते सूर्य की कोई आरती नहीं उतारता है, उगते हुए सूर्य की आरती की जाती है। आज विज्ञान जीवन को अस्ताचल की ओर ले जा रहा है। जिस विज्ञान के माध्यम से जीवन का उत्थान होना था वो उत्थान के स्थान पर पतन होता चला जा रहा है। सूर्य दोनों स्थानों में एक है लेकिन एक वह प्रमाद को छोड़ करके उठ रहा है और एक प्रमादी बन करके नीचे की ओर जा रहा है। सूर्य को अस्ताचल में जाने के उपरान्त संसार मोह की नींद में सो जाता है। जैसे-जैसे विकास होता चला जा रहा है वैसे-वैसे प्रमाद का अभाव नहीं हो रहा है। चेतना जागृत नहीं हो रही है किन्तु वह सुप्त होती चली जा रही है। सुप्त इसलिए होती चली जा रही है कि उसकी एनर्जी, उसकी शक्ति सारी की सारी जिसके ऊपर निर्धारित है वे स्त्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। यह समाप्त करने की प्रक्रिया हम लोगों को अभिशाप सिद्ध होती जा रही है। एक बार दृष्टिपात किया बालक की भूख भी बंद हो गयी और ऐसी भी नजर डाली जा सकती है कि भूख और खुल जाये। जितनी भूख खुलेगी उतना वह स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता है लेकिन ज्यादा भूख लगना भी ठीक नहीं है। ज्यादा भूख लगने से फिर राक्षसी वृत्ति होगी, वह भी रोग के अन्तर्गत आ जाता है लेकिन आज बहुत कम व्यक्ति हैं जो ऐसे हैं जिनकी पेट की भूख राक्षसी हो लेकिन यह ध्यान रखना कि मन के माध्यम से इतनी भूख बढ़ चुकी है कि पेट में रखने की गुंजाइश नहीं है लेकिन हम कहीं न कहीं रख देते हैं। तृष्णा की भूख बढ़ रही है जो पेट की भूख से अधिक खतरनाक है। आज मानव की दृष्टि इतनी विकृत हो गई है कि एकेन्द्रिय तक सूख जाती है। मानव जीव को देखकर उससे अर्थ कमाने की सोचने लगता है। यही अर्थ भरी विकृत दृष्टि सर्व स्वाहा किये दे रही है। कोई गाय, हाथी आपको देखे और नजर लग जाये और बुखार आ जाये, आपको ऐसा कभी हुआ? नहीं, वह कहते हैं आप हमसे भयभीत मत होओ, आप अभय रहिए। अपनी दृष्टि से अर्थ निकाल दीजिये और प्यार, करुणा, दया, अहिंसा, वात्सल्य को आँखों में भर लीजिये फिर देखिये इस सृष्टि का वैभव और आपका जीवन और आपका देश का जीवन खुशहाली से भर जायेगा।
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