विशालता विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- बुद्धि के संकीर्ण उपयोग से व्यापकता विलुप्त होती जाती है।
- विशालता, व्यापकता धारण करके चलने वाला व्यक्ति एक पंथ दो सौ काज कर सकता है।
- व्यवधान को गौण कर व्यापकता, विशालता के साथ चलने वाली आत्माओं के साथ विराट/ विशाल/परम/महान् आदि विशेषण लगाए जाते हैं।
- संकीर्णता सिर्फ बीमारी ही नहीं अपितु महामारी है, जिसको दूर करने की कोई जड़ी-बूटी नहीं होती।
- एक ही वस्तु का उपयोग आत्मलाभ के साथ बहुजन लाभ के लिए किया जा सकता है किन्तु यह तभी संभव है जब चिंतन में व्यापकता हो।
- बुद्धि संकीर्ण होगी तो स्वयं के ललाट तक ही चंदन का लाभ सीमित रह जायेगा। हमें चंदन की सुगंध हवा में घोलने की आवश्यकता है जिससे स्वयं के साथ सभी प्राणी भी उसका लाभ ले सकें।
- सुगध के संचार को सीमित करना संभव नहीं है।
- दुर्गंध से बचने के लिए सुगंध की मात्रा में वृद्धि करना आवश्यक है।
- पक्षी पर प्रतीक चिह्न नहीं है कि वह भारत का है या पाकिस्तान का कोई प्रहरी उसे रोक नहीं सकता। पक्षी किसी देश के पक्ष के नहीं वो कहते सारा जहाँ हमारा किन्तु मनुष्य ने बंधन बना लिए।
- सीमा तो भूमि पर है आकाश असीमित है।
- मेरे सिर में दर्द बना रहे, किन्तु उसका दर्द दूर न हो जाये ऐसी प्रवृत्ति से व्यापकता विनष्ट हो रही है।
- व्यापकता का विभाजन नहीं हो सकता जैसे आकाश को किसी दीवार से विभाजित नहीं कर सकते।
- विशाल हृदय का अर्थ बड़ा हृदय नहीं, किन्तु जिसके विचारों/अभिप्रायों/उद्देश्यों में विशालता आ जाती है वही विशाल हृदयी माना जाता है।
- विषयों के बीच में रहते हुए भी सीमा का उल्लंघन नहीं होता है तो यही सावधानी है और यही सावधानी आगे बढ़ाने का साधन है। परन्तु यदि असावधानी होगी तो वह नीचे ही गिरायेगी।
- प्रत्येक व्यवधान का सावधान होकर सामना करना नूतन अवधान को पाना है।
- मेरा तेरा जहाँ नहीं रहता वहाँ से अखंडता का आनंद आने लगता है, खंडता में वह आनंद नहीं आता जैसे सूर्य दिखता छोटा सा है लेकिन प्रकाश विस्तृत होता है।