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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पर्व 10 - उत्तम अाकिञ्चन्य

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    होऊण य' णिस्संगो, णियभाव णिग्गहित्तु सुहदुहदं॥

    णिद्दंदेण दु वट्टदि, अणयारो तस्स कचण्हं॥

    जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहों से रहित होकर और सुख-दुख के देने वाले कर्मजनित निज भावों को रोककर निर्द्धन्द्वता से अर्थात् निश्चिन्तता से आचरण करता है, उसके आकिञ्चन्य धर्म होता है।


    विहाय यः सागरवारिवाससं, वधूमिवेमां वसुधावधूं सतीम्।

    मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान्, प्रभुः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः॥ ३॥

    आदि तीर्थकर भगवान आदिनाथ की स्तुति करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि जिन्होंने सागर तक फैली हुई वसुंधरा को, अपने समस्त राजवैभव को और यशस्वती और सुनन्दा जैसी वधुओं (पत्नियों) को छोड़ दिया और मुमुक्षु बनकर एकाकी वन में विचरण करने का संकल्प ले लिया, संन्यासी हो गये, प्रव्रज्या को अंगीकार कर लिया ऐसे आत्मवान् भगवान इक्ष्वाकु वंश के प्रमुख थे। आपका धैर्य सराहनीय था। आप सहिष्णु थे तथा अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए।

     

    तीर्थकर का यह एक और नियम होता है कि दीक्षा के उपरान्त जब तक केवलज्ञान की उत्पति नहीं हो जाती, तब तक वे किसी से बोलते नहीं है। मौन-साधना में ही उनका काल व्यतीत होता है। आदिनाथ भगवान का काल भी ऐसा ही आत्म-साधना में एकाकी मौन रहकर बीता। एकाकी होकर मुक्ति के मार्ग पर चलना, यही सही प्रव्रज्या है।


    इसी बीच कुछ दिनों के बाद कहते हैं कि नमि और विनमि जो उनके पौत्र थे, वे आये और प्रार्थना करने लगे कि हे पितामह! हमें आपने कुछ नहीं दिया। हम तो कुछ भी पाने से वञ्चित रह गये। हमें भी कुछ दीजियेगा। हमें भी कुछ कहियेगा। जब बहुत देर तक कोई उत्तर नहीं मिला तो सोचा कि ये अपने ध्यान में होंगे, अत: एकदम बार-बार पूछना ठीक नहीं है और अभी जब ध्यान से उठेगे तो पूछ लेंगे। ऐसा सोचकर वे कहीं बैठ गये और संकल्प कर लिया कि कुछ लेकर ही उटेंगे। लेकिन भगवान तो भगवान हैं। वे ध्यान में लीन रहे, कुछ नहीं बोले और कोई संकेत भी नहीं किया। समय बीतता गया। वे दोनों पौत्र भी वहीं बैठे रहे।


    कहते हैं कि इन्द्र देव का सिंहासन हिल गया। वह आया और सारी बात समझकर बोलासुनो कुमार! आप देर से आये। भगवान तो ध्यानस्थ हो गये हैं। अब वे बोलेंगे भी नहीं, पर दीक्षा लेने से पहले वे हमसे कह गये हैं कि तुम दोनों के आने पर कह देना कि भगवान् तुम्हें विजयार्ध का राज्य दे गये हैं। ऐसा इन्द्र ने उन्हें समझा दिया। जैसे आप लोग बोल देते हैं चौके में आकर कि महाराज! हम तो इतई के आयें। बात जम गयी और दोनों ने सोचा कि भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करना चाहिए और वे उठकर विजयार्ध की श्रेणी में पहुँच गये। इन्द्र ने सोचा-चलो, अच्छा हुआ, अन्यथा भगवान् की तपस्या में विध्न हो जाता। हमने विध्न नहीं आने दिया।


    लेकिन भगवान् तो इस सबसे बेखबर अपने ध्यान में लीन थे। एकत्व-भावना चल रही थी। कोई भी चला आये, मन में बोलने का भाव नहीं आया। यहाँ जब किञ्चित् भी मेरा नहीं है तो किसी से क्या कुछ कहना। यही है उत्तम-आकिञ्चन्य भावना।


    आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय |

    यूँ कबहुँ इस जीव को साथी सगा न कोय ||

    (भूधरदास कृत बारहभावना)

    अकेले उत्पन्न हुए और अकेले ही मर जाना है। यदि तरना चाहें तो अकेले ही तरना भी है। अकेले होने की बात और मरने की बात ये दोनों बातें संसारी प्राणी को नहीं रुचतीं।


    एक व्यक्ति ज्योतिषी के पास गया और पूछा कि मेरी उम्र कितनी है बताइये? ज्योतिषी ने हाथ देखकर कहा कि क्या बतायें आपकी उम्र तो इतनी लम्बी है कि आपके सामने देखते-देखते आपके परिवार के सभी सदस्य मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे। सुनकर वह व्यक्ति बड़ा नाराज हुआ कहने लगा कि कैसा बोलते हो? और बिना पैसे दिये ही चला आया। पुन: वही दूसरे ज्योतिषी के पास पहुँचा और सारी बात बताकर पूछा कि मेरी उम्र-ठीक-ठीक बताइये, कितनी है? दूसरा ज्योतिषी समझ गया कि सत्य को यह सीधे सुनना नहीं चाहता। इसलिए उसने कहा कि भाई! आपकी उम्र बहुत लम्बी है। आपके घर में ऐसी लम्बी उम्र और किसी को नहीं मिली है, वह व्यक्ति सुनते ही बड़ा प्रसन्न हुआ और उसे पैसे देकर खुशी-खुशी घर लौट आया।

    बन्धुओ! ऐसी ही दशा प्रत्येक संसारी प्राणी की है। वह एकाकी होने से डरता है। वह मरण के नाम से डरता है। लेकिन अनन्तकाल से इस संसार में अकेला ही आ-जा रहा है। अकेला ही जन्म-मरण कर रहा है। आचार्य शुभचन्द्र जी हुए हैं जो ध्यान के महावेत्ता और ध्याता भी थे। उन्होंने अपनी ध्यान की अनुभूतियों को लिखते हुए ज्ञानार्णव में कहा है कि पर्यायबुद्धि अर्थात् शरीर में ममत्व-बुद्धि को छोड़कर साधक को ऐसी धारणा बनाना चाहिए कि मैं अकेला हूँ, नित्य हूँ, अवस्थित हूँ और अरूपी हूँ।‘नित्य' इसलिए क्योंकि आत्मा कभी मिटने वाली नहीं है।' अवस्थित' का अर्थ है- अस्तित्व कभी घटेगा-बढ़ेगा नहीं। एक रूप ही रहेगा और रूप भी वैसा कि अरूपी स्वरूप होगा। ऐसी धारणा बनाने वाला तथा आकिंचन्य भाव को भाने वाला ही ध्यान के द्वारा मुक्ति पा सकता है।


    मन में विचार उठ सकता है कि जब पूरा का पूरा परिग्रह छोड़ दिया, उसका त्याग हो गया एवं अकेले रह गए, तो क्या सोचना चाहिए तथा क्या धारणा बनाना चाहिए? तो कहा गया है कि अग्नि-धारणा, वायु-धारणा और जल-धारणा के माध्यम से ध्यान करना चाहिए। अग्नि-धारणा के माध्यम से कर्मों का ईंधन जल गया है। वायु उसे उड़ा ले गयी है और जल की वृष्टि होने से सारा का सारा वातावरण स्वच्छ हो गया है। आत्मा विशुद्ध हो गयी है। कुछ भी उस पर शेष नहीं रह गया है। एक अकेली आत्मा का साक्षात् अनुभव हो रहा है।


    एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।

    सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥

    (भावपाहुड, ५९) 

    में एक अकेला शाश्वत आत्मा हूँ, जानना-देखना मेरा स्वभाव है, शेष जो भी भाव हैं, वे सब बाहरी हैं तथा संयोग से उत्पन्न हुए हैं। एक सेठ जी थे। किसी ने मुझे सुनाया था कि वे बड़े अभिमानी थे। उन्होंने दस-बारह खण्ड के भवन का निर्माण कराया। एक बार कोई एक साधु जी उनके यहाँ आये। अतिथि की तरह उनका स्वागत हुआ और भोजन के उपरान्त सेठ जी बड़े चाव से उन्हें साथ लेकर पूरा का पूरा भवन दिखाने लगे और अन्त में दरवाजा आया तो सभी बाहर निकल आये। साधु जी के मुख से अचानक निकल गया कि एक दिन सभी दरवाजे के बाहर निकाल दिये जाते हैं, तुम भी निकाल दिये जाओगे। सेठ जी हतप्रभ खड़े रह गये। साधु जी चले गये। सेठ जी अकेले खड़े-खड़े सोचते रहे कि क्या मुझे भी एक दिन बाहर निकल जाना होगा? भइया! स्वर्ण की नगरी लंका नहीं रही, रावण नहीं रहा, अयोध्या का वैभव नहीं रहा। कृष्णजी नारायण थे लेकिन उनका भी अवसान हुआ, सो वह भी जंगल में। दुनियाँ में सैकड़ों आये और चले गये। ऐसे ही सभी को अकेले-अकेले ही यहाँ से चले जाना होता है।


    चक्रवर्ती दिग्विजय के उपरान्त विजयार्ध पर्वत के उस ओर वृषभगिरि के ऊपर अपनी विजय की प्रशस्ति और अपना नाम लिखने जाते हैं, तब वहाँ पहुँचकर मालूम पड़ता है कि हमसे पहले सैकड़ों चक्रवर्ती हो चुके हैं। पूरे पर्वत पर कोई स्थान खाली नहीं मिलता जहाँ अपना नाम लिखा जा सके। यह संसार ऐसा ही है। अनादिकाल से यह चल रहा है। 'जीव अरु पुद्गल नाचै। यामैं कर्म उपाधि है' (मंगतराय-कृत बारहभावना)इस रहस्य को समझना होगा। इसकी कथा इतनी लम्बी-चौड़ी है कि तीर्थकर भगवान् ही केवलज्ञान से विभूषित होकर इसे जान सकते हैं। इस रहस्य को थोड़ा बहुत जानकर के अपने आपको अकेला समझने का प्रयास करना चाहिए।


    संसार एक ऐसा स्वप्न है जो सत्य सा मालूम पड़ता है। जैसे कोई व्यक्ति नाटक में कोई भी वेश धारण करता है तो उसी रूप में अपने को मानने लगता है और खुश होता है। कभी-कभी वह नाना वेश बदल-बदल कर लोगों के सामने आता है, तब अपने वास्तविक रूप को उस क्षण पहचान नहीं पाता। ऐसे ही संसारी प्राणी संसार में सारे वेषों से रहित होकर अकेले अपने रूप का अनुभव नहीं कर पाता। स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने वाला कोई विरला ही अपने इस आकिञ्चन्य भाव का अनुभव कर पाता है।


    घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।

    शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥

    देवागमस्तोत्र (आप्तमीमांसा) देवागम स्तोत्र में आचार्य समन्तभद्र स्वामी आप्त की मीमांसा करते हुए अन्त में अध्यात्म की ओर ले जाते हैं। शान्ति आत्मा के भीतर जाने में ही है। बाह्य परिधि में चक्कर लगाते रहने से शान्ति नहीं मिलती। स्वर्ण की विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा जो देखता है, वह पर्याय में हर्ष या विषाद को प्राप्त होता है। एक को स्वर्ण के कुम्भ की आवश्यकता थी और दूसरे को स्वर्ण के मुकुट की आवश्यकता थी। मान लीजिये, अभी स्वर्ण, कुम्भ के रूप में था और अब सुनार ने उसे मिटाकर मुकुट का रूप धारण करा दिया तो कुम्भ या घड़ा जिसे चाहिए था वह रोने लगा कि मेरा कुम्भ फूट गया। जिसे मुकुट चाहिए था वह हँसने लगा कि मुझे मुकुट मिल गया। किन्तु जिसे स्वर्ण की आवश्यकता थी, वह दोनों ही स्थितियों में न हँसा न रोया, क्योंकि उसे जो स्वर्ण चाहिए था, वह तो मुकुट हो या कुम्भ हो, दोनों में विद्यमान था। यही तो स्वभाव की ओर दृष्टिपात करने का फल है। हमें विचार करना चाहिए, कि बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है-


    सो मैं नहीं हूँ

    और वह
    मेरा भी नहीं है

    ये आँखें मुझे

    (आत्मा)को

    देख नहीं सकतीं
    मेरे पास देखने की शक्ति है.....

    (मूकमाटी महाकाव्य) इन आँखों से केवल बाहरी वातावरण ही देखने में आता है। जो इन आँखों से देख रहा है, वह नहीं दिख पाता। उसे ये आँखें देख नहीं पाती। देख भी नहीं सकतीं। तब फिर जो दिखाई पड़ रहा है, आँखों से, वह मैं कैसे हो सकता हूँ और वह मेरा कैसे हो सकता है?


    अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदा रूवी।

    णावि अत्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि॥

    (समयसार ४३) 

    मैं अकेला हूँ। शुद्ध हूँ। आतमरूप हूँ। मैं ज्ञानवान और दर्शनवान हूँ। मैं रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप नहीं हूँ। सदा अरूपी हूँ। कोई भी अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। इस प्रकार की भावना जिसके हृदय घर में हमेशा भरी रहती है, ध्यान रखना, उसका संसार का तट बिल्कुल निकट आ चुका है। इसमें कोई सन्देह नहीं है।


    इस भावना को निरन्तर भाते रहने से ही हमें वैराग्य आ सकता है। इस भावना के द्वारा ही हमारे भीतर के कर्म के बंधन छूट सकते हैं। संसार में कर्तृत्व बुद्धि और भोक्तृत्व बुद्धि, स्वामित्व बुद्धि, इन तीनों प्रकार की बुद्धियों के द्वारा ही संसारी प्राणी की बुद्धि समाप्त हो गयी है। वह बुद्धिमान होकर भी बुद्ध जैसा व्यवहार कर रहा है। अनन्तों बार जन्म-मरण की घटना घट चुकी है और अनन्तों बार जन्म-मरण के समय एकाकी ही इस जीव ने अपनी संसार की यात्रा की है। आज अपने को समझदार मानने वाला भी मझधार में ही है।


    थोड़ा विचार करें तो ज्ञात होगा कि कितनी पर्यायें, कितनी बार हमने धारण की और कितनों का संयोग-वियोग हमारे जीवन में हुआ है। जिसके वियोग में यहाँ पर हम रोते हैं, वह मरण के उपरान्त एक समय में ही अन्यत्र कहीं पहुँचकर जन्म ले लेता है और वहीं रम जाता है। विष्टा का कीड़ा विष्टा में राजी वाली बात है। उसके वियोग में हमारा रोना अज्ञानता ही है। आचार्य कहते हैं कि यह सब पराये को अपना मानने का तथा पर-पदार्थों में एकत्व-बुद्धि रखने का ही परिणाम है। पर के साथ एकत्व बुद्धि छोड़ना ही एक मात्र पुरुषार्थ है। छोड़ते समय जिसे ज्ञान और विवेक जागृत हो जाता है उस की आँख खुल गयी है, ऐसा समझना चाहिए।


    दुनियाँ के सारे संबंधों के बीच भी मैं अकेला हूँ, यही भाव बना रहना आकिञ्चन्य धर्म का सूचक है। ‘सागर' में एक बार बोली लग रही थी, तब तक बोली तेरा सौ एक रुपये में गयी। हमने तो वही विचार किया कि अच्छा रहस्य खुल गया 'तेरा सो एक' अर्थात् हमारा यदि कुछ है तो वह हमारा यही एकाकी भाव है। इस संसार में किसी का कोई साथी-सगा नहीं है।


    आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय।

    यूँ कबहुँ इस जीव को, साथी सगा न कोय।

    (भूधरदास कृत बारहभावना)

    बन्धुओ! समझ लो एवं सोच ली। यह जो ऊपर पर्याय दिख रही है, यह वास्तव में हमारी नहीं है। हम इसी के लिए निरन्तर अपना मानकर परिश्रम कर रहे हैं, और दुख उठा रहे हैं। विवेक के माध्यम से इस पर्याय को अपने से पृथक् मानकर के यदि इस जीवन को चलाया जाये, जो जीवन आज दुखमय बना है, वही आनन्दमय हो जाएगा। जिसकी तत्व पर दृष्टि चली जाती है, वह फिर पर्याय को अपना आत्म-तत्व नहीं मानता और न ही पर्याय में होने वाले सुख-दुख को भी अपना मानता है। यही आध्यात्मिक उपलब्धि है। इसके अभाव में ही जीव संसार में यहाँ-वहाँ भटकता रहता है और निरन्तर दुखी होता है।


    हमारी इस प्रवृत्ति को देखकर आचार्यों को करुणा आ जाती है। छहढाला की पहली ढाल में कहा है - 'कहें सीख गुरु करुणा धारि' -वे करुणा करके हमें उपदेश देते हैं, शिक्षा देते हैं कि पाँच मिनट के लिए ही सही लेकिन अपनी ओर, अपने आत्म-तत्व की ओर दृष्टि उठाकर तो देखो, जो कुछ संसार में दिखाई दे रहा है, वह सब कर्म का फल है। अज्ञान का फल है। आत्मा के स्वभाव का फल तो जिन्होंने आत्म-स्वभाव को प्राप्त कर लिया है, उसके चरणों में जा कर ही जाना जा सकता है। बाहर के जगत् में सिवा दुख के और कुछ हाथ नहीं आता। भीतर जगत् में जाकर देखें कि भीतर कैसा खेल चल रहा है। कर्म किस तरह आत्मा को सुख-दुख का अनुभव करा रहा है।


    यह आत्म-दृष्टि पाना एकदम सम्भव नहीं है। यह मात्र पढ़ने या सुनने से नहीं आती। इसे प्राप्त करने के लिए जो रत्नत्रय से युक्त हैं, जो वीतरागी हैं, जो तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखते, उनके पास जाकर बैठिये। पूछिये भी मत, मात्र पास जाकर बैठिये तो भी अपने आप ज्ञान हो जायेगा कि वास्तव में सुख तो अन्यत्र कहीं नहीं है। सुख तो अपने भीतर एकाकी होने में है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि-


    सम्मत्तस्स णिमित्तं, जिणसुक्तं तस्स जाणया पुरिसा।

    अंतरहेऊ भणिदा, दंसणमोहस्स खयपहुदी॥५३॥

    अर्थात् सम्यकदर्शन का अंतरंग हेतु तो दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम होता है लेकिन उसके लिए बहिरंग हेतु तो जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे सूत्र- वचन और उन सूत्रों के जानकार ज्ञाता-पुरुषों का उपदेश श्रवण है। इसके सिवाय और कोई ऐसा उपाय नहीं है जिसके माध्यम से हम दर्शन मोहनीय या चारित्र मोहनीय को समाप्त कर सकें और अपने आत्म-स्वरूप को प्रकट कर सकें।


    रागद्वेष रूपी रसायन के माध्यम से यदि कमों का बंध होता है, संसार का निर्माण होता है तो वीतराग भावरूपी रसायन के माध्यम से सारे के सारे कमों का विघटन भी सम्भव है। वीतरागी के चरणों में जाकर हमें अपने रागभाव को विसर्जित करना होगा, 'पर" पदार्थों के प्रति आसक्ति को छोड़ना होगा, तभी एकत्व की अनुभूति हो सकेगी।


    अकेले इच्छा करने मात्र से कोई अकेलेपन को अर्थात् मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। इच्छा मात्र से सुख की प्राप्ति नहीं होती और न ही मृत्यु से डरते रहने से कोई मृत्यु से बच पाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सुपाश्र्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए लिखा है कि-

     

    बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः ।

    तथापि बालो भयकामवश्यो, वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादी:॥ ४॥

    देखो, यह संसारी प्राणी कितना अज्ञानी है कि मृत्यु से हमेशा डरता है। लेकिन मृत्यु से डरने मात्र से कभी मृत्यु से बचा नहीं जा सकता और सुख की इच्छा हमेशा रखता है लेकिन सुख की इच्छा मात्र से सुखी भी नहीं हो सकता। फिर भी यह संसारी प्राणी भय और कामवासना के वशीभूत होकर व्यर्थ ही स्वयं को पीड़ा में डाल देता है। 


    असल में जब तक यह ज्ञान नहीं होता कि शरीर मेरा नहीं है तब तक इस के प्रति रागभाव बना रहता है। यही रागभाव हमारी मुक्ति में बाधक है। इसी के कारण मृत्यु से हम मुक्त नहीं हो पाते और न ही हमें शिव-सुख की प्राप्ति होती है।


    एक बार यदि यह संसारी प्राणी वीतरागी के चरणों में जाकर अपने को अकेला मानकर उनकी शरण को स्वीकार कर ले और भीतर यह भाव जागृत हो जाये कि 'अन्यथा शरण नास्ति त्वमेव शरणां मम' एकमात्र वीतरागता के सिवाय, आकिञ्चन्य धर्म के सिवाय मेरे लिए और कोई शरण नहीं है। शरण यदि संसार में है तो एकमात्र यही है। तब संसार का अभाव होने में देर नहीं लगेगी।


    राग सहित जग में रुल्यो, मिले सरागी देव।

    वीतराग भेट्यो अबै मेटो राग कुटेव॥

    विनयपाठ अभी तक संसार में राग सहित रुलता रहा, भटकता रहा और सरागता को ही अपनाता रहा। रागी व्यक्ति राग को ही खोज लेता है और उसी को अपनाता जाता है। उसी में शरण या सुरक्षा मान लेता है, उसी को अपना संगी-साथी और हितैषी मानकर संसार में रुलता रहता है। अगर मन में ऐसा विचार आ जाये कि संसार में मैं भी सरागता के कारण रुल रहा हूँ। आज बड़े सौभाग्य से वीतरागता का दर्शन हुआ है। वीतरागी के चरण सान्निध्य का सौभाग्य मिला है। वीतरागी से भेंट हो गयी है। अब यही वीतरागता मेरी राग की ओर बार-बार जाने वाली आदत को मिटाने में सहायक होगी तो कल्याण होने में देर नहीं।


    सभी के प्रति रागभाव से मुक्त होकर, एकाकी होकर अपने वीतराग स्वरूप का चिन्तन करना ही आज के आकिञ्चन्य धर्म की उपलब्धि होगी। हमारा क्या है? ऐसा विचार करें तो ज्ञात होगा कि हमारा तो सिद्धत्व है। हमारा तो ज्ञानपना है, दर्शनपना है। हमारा परिवार हम स्वयं ही है। हमारे पिता और माता भी हमीं हैं। हमारी सन्तान, पुत्र आदि भी हमीं हैं। इस संसार में कोई ‘पर' पदार्थ हमारा नहीं है और हो भी कैसे सकता है? ऐसा भाव आप बनाते जाइये, एक समय आयेगा कि जब यह ऊपर का दिखाई पड़ने वाला सम्बन्ध मिट जायेगा और अनन्तकाल के लिए हम एकाकी होकर अपने आत्म-आनन्द में लीनता का अनुभव करेंगे।


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