शिक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- संयतज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है और वही शिक्षा है। दवाई एक-एक चम्मच लेना ही सही है।
- शिक्षा के लिए परीक्षा एक अंग मात्र है उसके माध्यम से सर्वागीण मूल्यांकन नहीं होता।
- सर्वागीण मूल्यांकन तो उसकी चर्या, व्यवहार से होता है।
- सर्वागीण विकास के लिए अनिवार्य पाँच पक्ष है- १. शारीरिक, २. मानसिक, ३. व्यावहारिक,४. नैतिक और ५. आध्यात्मिक। - १. शारीरिक-रुग्ण रहोगे तो शरीर ठीक काम नहीं करेगा। २. मानसिक-संतुष्टि हो, अस्थिरता न हो, चंचलता का अभाव; शिक्षा के ये गुण हैं। ३. व्यावहारिक-अपने जीवन काल में पुरुषार्थ सही हो। ४. नैतिक-हमारी नीति साफ सुथरी हो, कषाय का अभाव हो। ५. अाध्यात्मिक-अात्म तत्त्व की प्राप्ति ।
- ये पाँचों पक्ष अच्छे तैयार होना चाहिए। जैसे अनिवार्य प्रश्न को हल करना होता है वैसे ही पाँचों पक्ष अनिवार्य हैं।
- जो दिया उसको अच्छी तरह से पचा लेना चाहिए। वह प्राणमय बन जाये, अंदर उतर जाये इससे मनोबल बढ़ता है तो प्रतिभा भी निखरती है।
- जैसे भोजन में हम पचने के लिए तीन घंटे करीब अंतराल रखते है, इसी तरह बच्चों को कुछ शिक्षा दी फिर उसे पचाने के लिए समय मिलना चाहिए।
- पढ़ना तो ज्ञान से नहीं होता है, ध्यान से होता है। ज्ञान जब तक संयत न हो ध्यान नहीं लगता इसलिए ज्ञान से नहीं ध्यान से पढ़ा करो।
- आज सरस्वती की आराधना न होकर वह बेची जाती है, आज आपके बच्चे बिक रहे हैं। आप दहेज के लिए अभिशाप मानते हो, मैं पैकेज को उससे बड़ा महाभूत मानता हूँ।
- आप यदि किसी के वशीभूत हो जायेंगे पैसे के बल पर तो काम नहीं कर पाओगे अपने देश के लिए।
- व्यवहारिकता अथवा कर्तव्यनिष्ठता यदि नहीं है तो कैसी शिक्षा?