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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पर्व 5 - उत्तम शौच

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    कंखाभावणिवित्तिं,किच्चोवेरग्यभावणाजुत्तो।

    तस्स दु धम्मे हवे सोच्चं॥

    जो परम मुनि इच्छाओं को रोककर और वैराग्य रूप विचारधारा से युक्त होकर आचरण करता है उसको शौच धर्म होता है। जब मैं बैठा था वह समय, सामायिक का था और एक मक्खी अचानक सामने देखने में आयी। उसके पंख थोड़े गीले से लग रहे थे। वह उड़ना चाहती थी पर उसके पंख सहयोग नहीं दे रहे थे। वह अपने शरीर पर भार अनुभव कर रही थी और उस भार के कारण उड़ने की क्षमता होते हुए भी उड़ नहीं पा रही थी। जब कुछ समय के उपरान्त पंख सूख गये तब वह उड़ गयी। मैं सोचता रहा कि वायुयान की रफ्तार जैसी उड़ने की पूरी की पूरी शक्ति ही मानों समाप्त हो गयी। थोड़ी देर के लिए उसे हिलना-डुलना भी मुश्किल हो गया। यही दशा संसारी-प्राणी की है। संसारी-प्राणी ने अपने ऊपर अनावश्यक न जाने कितना भार लाद रखा है और फिर भी आकाश की ऊँचाईयां छूना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति ऊपर उठने की उम्मीद को लेकर नीचे बैठा है। स्वर्ग की बात सोच रहा है लेकिन अपने ऊपर लदे हुए बोझ की ओर नहीं देखता जो उसे ऊपर उठने में बाधक साबित हो रहा है।


    वह यह नहीं सोच पाता कि क्या मैं यह बोझ उठाकर कहीं ले जा पाऊँगा या नहीं? वह तो अपनी मानसिक कल्पनाओं को साकार रूप देने के प्रयास में अहर्निश मन-वचन और काय की चेष्टाओं में लगा रहता है। अमूर्त स्वभाव वाला होकर भी वह मूर्त सा व्यवहार करता है। यूँ कहना चाहिए कि अपने स्वरूप को भूलकर स्वयं भारमय बनकर उड़ने में असमर्थ हो रहा है। ऐसी दशा में वह मात्र लुढ़क सकता है, गिर सकता है और देखा जाए तो निरन्तर गिरता ही आ रहा है। उसका ऊँचाई की ओर बढ़ना तो दूर रहा देखने का साहस भी खो रहा है।


    जैसे जब हम अपने कन्धों पर या सिर पर भार लिये हुए चलते हैं तो केवल नीचे की ओर ही दृष्टि जाती है। सामने भी ठीक से देख नहीं पाते। आसमान की तरफ देखने की तो बात ही नहीं है। ऐसे ही है संसारी प्राणी के लिए मोह का बोझा। मोह उसके सिर पर इतना लदा है, कहो कि उसने लाद रखा है कि मोक्ष की बात करना ही मुश्किल हो गया है।


    विचित्रता तो ये है कि इतना बोझा कन्धों पर होने के बाद भी वह एक दीर्घ श्वांस लेकर कुछ आराम जैसा अनुभव करने लगता है और अपने बोझ को पूरी तरह नीचे रखने की भावना तक नहीं करता। बल्कि उस बोझ को लेकर ही उससे मुक्त हुए बिना ही मोक्ष तक पहुँचने की कल्पना करता है। भगवान के समाने जाकर, गुरुओं के समीप जाकर अपना दुख व्यक्त करता है कि हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता है। आप दीनदयाल हैं। महती करुणा के धारक हैं। दया-सिन्धु, दयापालक हैं। करुणा के आकार हैं, करुणाकार हैं। आपके बिना कौन हमारा मार्ग प्रदर्शित कर सकता है?


    उसके ऐसे दीनता भरे शब्दों को सुनकर और आँखों से अश्रुधारा बहते देखकर सन्त लोग विस्मय और दुख का अनुभव करते हैं। वे सोचते हैं कि कैसी यह संसार की रीत है कि परिग्रह के बोझ को निरन्तर इकट्ठा करके स्वयं दीन-हीन होता हुआ यह संसारी प्राणी संसार से मुक्त नहीं हो
    पाता |

    शुर्चेभार्व: शौच्यम्।' शुचिता अर्थात् पवित्रता का भाव ही शौचधर्म है। अशुचि भाव का विमोचन किये बिना उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। शुचिता क्या है और अशुचिता क्या है? यही बतलाने के लिए आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में एक कारिका के माध्यम से सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन करते हुए कहा है कि


    स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते।

    निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१३)

    शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसमें पवित्रता यदि आती है तो रत्नत्रय से आती है। रत्नत्रय ही पवित्र है। इसलिए रत्नत्रय रूपी गुणों के प्रति प्रीतिभाव रखना चाहिए। रत्नत्रय को धारण करने वाले शरीर के प्रति विचिकित्सा नहीं करना चाहिए।चिकित्सा का अर्थ ग्लानि से है। या कहें कि एक प्रकार से प्रतिकार का भाव ही चिकित्सा है और विचिकित्सा का अर्थ विशेष रूप से चिकित्सा या ग्लानि लिया गया है। विचिकित्सा का अभाव होना ही ‘निर्विचिकित्सा-अंग' है। जीवन में शुचिता इसी अंग के पालन करने से आती है। शरीर तो मल का पिटारा है, घृणास्पद भी है। हमारा ध्यान शरीर की ओर तो जाता है लेकिन उसकी वास्तविक दशा की ओर नहीं जाता। इसी कारण शरीर के प्रति राग का भाव या घृणा का भाव आ जाता है। वासना की ओट में शरीर की उपासना अनादिकाल से यह संसारी प्राणी करता आ रहा है। लेकिन उसी शरीर में बैठे हुए आत्मा की उपासना करने की ओर हमारी दृष्टि नहीं जाती। विषयों में सुख मानकर यह जीव अपनी आत्मा की उपासना को भूल रहा है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रवचनसार में कहा है कि-


    कुलिसायुहचक्कहरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं।

    देहादीण वड़ी करेंति सुहिदा इवाभिरदा॥

    (प्रवचनसार-७७)

    अर्थात् इन्द्र और चक्रवर्ती पुण्य के फलस्वरूप भोगों के द्वारा देहादि की पुष्टि करते हैं और भोगों में लीन रहते हुए सुखी जान पड़ते हैं, लेकिन वास्तविक सुख वह नहीं है। लोभ के वशीभूत हुआ संसारी प्राणी विषय रूपी वासना में लिप्त होने के कारण आत्मिक सुख से वञ्चित हो रहा है। चार कषायों के द्वारा चार गतियों में निरन्तर भटक रहा है। नरकों में विशेष रूप से क्रोध के साथ, तिर्यच्चों में माया के साथ, मनुष्यों में मान के साथ और देवों में लोभ के साथ यह जीव उत्पन्न होता है। वैचित्र्य तो यह है कि और लोभी बनकर आज यह संसारी प्राणी देव बनना चाहता है। एक तरह से और लोभी ही होना चाहता है। देखा जाए तो स्वर्ग में भी सागरोपम आयु वाले इन्द्र और अहमिन्द्र को भी विषय कषाय के अभाव में होने वाली आत्मानुभूति का अनुभव क्षण भर को भी नहीं होता। भले ही उन्हें सुखानुभूति मनुष्यों की अपेक्षा अधिक रही |


    प्रत्येक असंयमी संसारी प्राणी की स्थिति जोंक की तरह है। जैसे जोंक किसी जानवर या गाय/भैंस के थनों (स्तनों) के ऊपर चिपक जाता है और वह सड़े-गले खून को ही चूसता रहता है। ‘वैसे ही स्वर्ग के सुखों की भी ऐसी ही उपमा दी गयी है। ‘आचार्यों ने हमारे लोभ के भिन्न-भिन्न उपाय करते हुए भिन्न-भिन्न उपदेश दिये हैं। किसी भी तरह लोभ का विरेचन हो जाये, यही मुख्य दृष्टिकोण रहता है लेकिन इतने पर भी ऐसा उदाहरण सुनकर भी संसारी प्राणी लोभ का विरेचन करने के लिए तैयार न हो, तो उसका कल्याण कौन कर सकेगा? जिस लोभ को छोड़ना था, उसी लोभ के वशीभूत हुआ। आज संसारी-प्राणी अपनी ख्याति, पूजा, लाभ और यश-कीर्ति चाह रहा है।

    स्वर्गों में सम्यकद्रष्टि के लिए भी ऐसी उपमा देने के पीछे आशय यही है कि विषय भोगों की लालसा यदि मन में है तो वह मुक्ति में बाधक है। आज प्रगति का युग है, विज्ञान का युग है। लेकिन देखा जाये तो दुर्गति का भी युग है। क्योंकि आज आत्मा में निरन्तर कलुषता आती जा रही है। लोभ-लालसा दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। जितने सुविधा के साधन जुटाये जा रहे हैं, उतना ही व्यक्ति में तृष्णा और असन्तोष बढ़ रहा है। कीचड़ के माध्यम से कीचड़ धोना सम्भव नहीं है। कीचड़ को धोने के लिए तो वर्षा होनी चाहिए। पवित्र-जल की वर्षा से ही पवित्रता आयेगी।


    समसंतोसजलेण जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंजु।

    भोयणगिद्धिविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं॥

    निर्मल शौच धर्म उसे ही होता है, जो समता और संतोष रूपी जल के द्वारा अपने तीव्र लोभ रूपी मल के पुञ्ज को धोता है और भोजनादि अन्य पदार्थों में अत्यन्त आसक्त नहीं होता। स्वर्गों में देव पूरी तरह विषय भोगों का परित्याग तो नहीं कर सकते जैसा कि मनुष्य जीवन में कर पाना सम्भव है। लेकिन वे देव भी जहाँ-जहाँ भगवान् के पंचकल्याणक होते हैं वहाँ-वहाँ अवश्य जाते हैं और परिवार सहित विषय-भोग को गौण करके उन महान् आत्माओं की सेवा, आराधना करके अपने आत्मा-स्वरूप की ओर देखने का प्रयास करते हैं।


    भगवान की वीतराग-छवि और वीतराग स्वरूप की महिमा देखकर वे मन ही मन विचार भी करते हैं कि हे भगवन्! आपकी वीतरागता का प्रभाव हमारे ऊपर ऐसा पड़े कि हमारा रागभाव पूरा का पूरा समाप्त हो जाए। आपकी वीतराग छवि से समत्व की ऐसी वर्षा हो कि हम भी थोड़ी देर के लिए शान्ति का अनुभव कर सकें और राग की तपन से बच सकें। यदि देवगति में रहकर देव लोग इस प्रकार की भावना कर सकते हैं तो आप लोग तो देवों के इन्द्र से भी बढ़कर हो। क्योंकि आप लोगों के लिए तो उस मनुष्य काया की प्राप्ति हुई है जिसे पाने के लिए देव लोग भी तरसते हैं। आपकी यह मनुष्य काया की उपलब्धि कम नहीं है, क्योंकि यह मुक्ति का सोपान बन सकती है। लेकिन यह उसे ही सम्भव है जो विषय-भोगों से विराम ले सके। जब तक हम विषय-भोगों से विराम नहीं लेंगे तब तक आत्मा का साक्षात् दर्शन सम्भव नहीं है। पवित्र-आत्मा का दर्शन विषय-भोगों के विमोचन के उपरान्त ही सम्भव है।


    यदि कषायों का पूरी तरह विमोचन नहीं होता तो कम से कम उनका उपशमन तो किया ही जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द और समन्तभद्र जैसे महान् आचार्य धन्य हैं, जिन्होंने इस भौतिक युग में रहते हुए भी जल से भिन्न कमल के समान स्वयं को संसार से निलिप्त रखा और विषयकषाय से बचते हुए अपनी आत्मा की आराधना की। विषय कषाय से बचते हुए वीतराग प्रभु के द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलने का प्रयास किया। रात-दिन अप्रमत्त रहकर, जागृत रहकर उस जागृति के प्रकाश में अपने खोये हुए, भूले हुए आत्मतत्व को ढूँढ़ने का प्रयास किया।


    इतना ही नहीं ऐसे महान् आचार्यों ने हम जैसे मोही, रागी, द्वेषी, लोभी और अज्ञानी संसारी प्राणियों के लिए, जो कि अंधकार में भटक रहे हैं, अपने ज्ञान के आलोक से पथ प्रकाशित करके हमारी आँखें खोलने का प्रयास भी किया है


    अज्ञानतिमिरान्धानाम् ज्ञानाञ्जनशलाकया।

    चक्षुरून्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरूवे नमः॥

    ज्ञानरूपी अञ्जन-शलाका से हमारी ऑखों की खोलकर अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर दिया है। ऐसे परम गुरुओं को हमारा नमस्कार होवे। उनके अपार उपकार का स्मरण करना चाहिए। ऐसे महान् आचार्यों के द्वारा ही हजारों-लाखों वर्षों से चली आ रही अहिंसा-धर्म की परम्परा आज भी जीवन्त है। वस्तुत: ध्वनियाँ क्षणिक हैं, लेकिन जो भीतरी आवाज है, जो दिव्यध्वनि है, जो जिनवाणी है, वही शाश्वत और उपकारी है। एक बार यदि हम अपना उपयोग उस ओर लगा दें तो बाह्य-ध्वनियों की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इस भीतरी ध्वनि के सामने दुनियाँ की सारी बाहरी शक्ति फीकी पड़ जाती है। जैसे प्रभाकर के सामने जुगनू का प्रकाश फीका है, कार्यकारी नहीं है, इस प्रकार उत्तम शौच का पान करने वाले मुनियों के लिए बाह्य-सामग्री कार्यकारी मालूम नहीं पड़ती और वे निरन्तर उसका विमोचन करते रहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार का मंगलाचरण करते हुए कहा है कि-


    वंदितु सव्वसिद्ध ध्रुवमचलमणोवमं गदि पत्तो।

    वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं॥

    हे भव्यजीव! मैं शाश्वत, अचल और समस्त उपमाओं से रहित ऐसी पञ्चमगति को प्राप्त सब सिद्धों को नमस्कार करके श्रुत-केवली भगवान् के द्वारा कहे गये समयप्राभूत ग्रन्थ को कहूँगा। उपनिषदों में शुद्ध तत्व का वर्णन करते हुए जो बात नहीं लिखी गयी, वह आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने लिख दी कि एक सिद्ध भगवान् को नहीं, सारे सिद्ध भगवानों को प्रणाम करके ग्रन्थ का प्रारम्भ करता हूँ। सिद्ध एक ही नहीं हैं, अनन्त हैं। सभी में, प्रत्येक जीवात्मा में सिद्धत्व की शक्ति विद्यमान है। आचार्य महाराज ने भीतर बैठी इसी शुद्धात्मा की शक्ति को दिखाने का प्रयास किया है और कहा है कि यदि थोड़ा-थोड़ा भी, धीरे-धीरे भी लोभ का मल कम करके भीतर झाँकने का प्रयास करोगे तेा जैसे दूध में घृत के दर्शन होते हैं, सुगंधी का पान करते हैं, रस का अनुभव आता है, ऐसे ही शुद्धात्मा का दर्शन, पान और अनुभवन सम्भव है।

     


    आप दूध तपाकर मावा बनाते हैं। उसे कहीं-कहीं खोवा या खोया भी कहते हैं। वस्तुत: वह खोया ही है। दूध को 'खोया' तभी मिला खोया। (हँसी) यूँ कहो कि जो खो गया था, वह मिल गया। हमारा आत्म-तत्व मानों खो गया है और कषायों के नीचे दब गया है यदि हम लोभ को खो दें, तो हमारा खोया हुआ आत्म-तत्व हमें मिल जायेगा। तब खोया मिल जायेगा। लोभ की स्थिति बड़ी जटिल है। इसके माध्यम से ही सभी कषायों की सेना आती है। आचार्यों ने लिखा है कि क्रोध, मान, माया और लोभ ये सभी क्रम-क्रम से उपशम या क्षय को प्राप्त होती हैं। सबसे अन्त में लोभ जाता है। लोभ की पकड़ भीतर बहुत गहरी है। इस लोभ के पूरी तरह क्षय होते ही वीतरागता आने में और भगवान बनने में देर नहीं लगती।


    मन में यह जागृति आ जाये कि- "जानूँ कि मैं कौन हूँ" तो सारी सांसारिक लोभ, लिप्सा समाप्त होने लग जाती है। भीतर प्रज्ज्वलित होने वाली आत्म-ज्ञान की ज्योति में अपने स्वभाव की ओर दृष्टि जाने लगती है। हमें ज्ञात हो जाता है कि भले ही मेरी आत्मा के साथ कर्म एकमेक हुए के समान हों और वह शरीरादि बाह्य सामग्री नोकर्म के रूप में मुझे मिली हो। रागद्वेषादि भाव मेरे साथ मिलजुल गये हों। लेकिन इन सभी कर्म, नोकर्म और भाव-कर्म से मैं भिन्न हूँ। वास्तव में, बाहरी संबंधों में अपने को मुक्त कर लेने के उपरान्त हमारी आत्मा की दशा ऐसी हो जाती है कि फिर बाह्य वस्तुओं को पहचानना भी मुश्किल सा लगने लगता है। एक निर्मोही की दृष्टि में बाह्य पदार्थों की जानकारी पाने के लिए उत्सुकता शेष नहीं रह जाती।


    संसारी प्राणियों में बहुत सारी विचित्रताएँ देखने में आती हैं। मनुष्य की विचित्रता यह है कि वह सब कुछ जानते हुए भी अपने जीवन में कल्याण की बात नहीं सोचता। मैं पूछता हूँ आप सभी लोगों से कि आपने कभी परिग्रह को पाप समझा या नहीं? आपने वस्तुओं के प्रति अपने मूछ भाव को पाप समझा है या नहीं? आप सभी यह मानते हैं कि हिंसा को हमारे यहाँ अच्छा नहीं माना गया, झूठ भी पाप है। चोरी करना भी हमारे यहाँ ठीक नहीं बताया। कुशील की तो बात ही नहीं है। इस तरह आप चारों पापों से दूर रहने का दावा करते हैं किन्तु जो पापों का सिरमौर है, जो परम्परा से चला जा रहा है परिग्रह, उसे आप पाप नहीं मानते।


    बात यह है कि उसके माध्यम से सारे के सारे कार्य करके हम अपने आपको धर्म की मूर्ति बताने में सफल हो जाते हैं। भगवान का निर्माण करा सकते हैं, मन्दिर बनवा सकते हैं चार लोगों के बीच अपने को बड़ा बता सकते हैं। इस तरह आपने परिग्रह को पाप का बाप कहा अवश्य है, लेकिन माना नहीं है। बल्कि परिग्रह को ही सब कुछ मान लिया है। सोचते हैं कि यह जब तक है तभी तक हम जीवित हैं या कि तभी तक घर में दीपक जल रहा है। हमें लगता है कि धन के बिना धर्म भी नहीं चल सकता। देखने में भी आता है कि अच्छा मञ्च बनाया है, बड़ा पण्डाल लगाया है तभी तो घण्टों बैठकर प्रवचन सुन पा रहे हैं।


    लेकिन ध्यान रखना धर्म की प्रभावना के लिए धन का उतना महत्व नहीं है जितना कि धन को छोड़ने का महत्व है। यह भगवान् महावीर का धर्म है जिसमें कहा गया है कि जब तक धन की आकांक्षा है, धन की महिमा गायी जा रही है, तब तक धर्म की बात प्रारम्भ ही नहीं हुई है। किसी आँग्ल कवि (इंग्लिश पोयट) ने कहा है कि सुई के छेद से ऊँट पार होना सम्भव है, लेकिन धन के संग्रह की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को मुक्ति सम्भव नहीं है।


    हमारे यहाँ धर्म के अर्जन की बात कही गयी है, धन के अर्जन की बात नहीं कही गयी, बल्कि धन के विसर्जन की बात कही गयी है। हम इस मनुष्य पर्याय की दुर्लभता को समझे और यह भी समझे कि हम इस दुर्लभ वस्तु को किस तरह कौड़ियों के दाम बेच रहे हैं। किस तरह धन के पीछे हम अपना मूल्यवान आत्म-धन नष्ट कर रहे हैं। जैसे कोई हमेशा अंधकार में जीता रहे तो उसे कभी दिन का भान नहीं हो पाता, उसे पूर्व और पश्चिम दिशा का ज्ञान भी नहीं हो पाता। ऐसे ही जो व्यक्ति हमेशा धन की आकांक्षा में और विषय भोगों की लालसा में व्यस्त रहता है उसे यह पहचान ही नहीं हो पाती कि भगवान् वीतराग कैसे हैं? उन्होंने किस तरह परिग्रह का विमोचन करके तथा लोभ का त्याग करके पवित्रता, वीतरागता पायी है। ध्यान रखना वीतरागता कभी धन के माध्यम से या लोभ के माध्यम से नहीं मिलती।


    ‘‘परितः समन्तात् गृह्णाति आत्मानम् इति परिग्रहः" जो आत्मा को चारो ओर से अपनी चपेट में ले, वह परिग्रह है। लोग कहते हैं ग्रह दशा ठीक नहीं चल रही, तो मैं सोचता हूँकि परिग्रह से बड़ा भी कोई ग्रह है, जो हमें ग्रसित करे? परिग्रह रूपी ग्रह ही हमें ग्रसित कर रहा है। इसी के कारण हम परमार्थ को भूल रहे हैं और जीवन के वास्तविक सुख को भूलकर इन्द्रिय सुखों को ही सब कुछ मान रहे हैं। जिसके पास जितना परिग्रह है या आता जा रहा है, वह मान रहा है कि परिग्रह (बाह्य पदार्थों का संग्रह) हमारे हाथ में है और हम उसके मालिक हैं। लेकिन ध्यान रखना परिग्रह आपके वश में नहीं है बल्कि आप ही परिग्रह के वशीभूत हैं, परिग्रह ने ही आपको सब ओर से घेर रखा है। तिजोरी के अन्दर धन-सम्पदा बन्द है और आप पहरेदार की तरह पहरा दे रहे हैं और सेठ जी कहला रहे हैं। क्या पहरा देने वाला सेठ जी हो सकता है? वह तो पहरेदार ही कहलायेगा वह मालिक नहीं नौकर ही कहलायेगा। धन संपत्ति मालिक बनी हुई है और आराम से तिजोरी में राज्य कर रही है, आप उसी की आरती उतार रहे हैं और स्वयं को धन्य मान रहे हैं। दीपावली के दिन भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी, लेकिन आज आप लोग परिग्रह रूपी धनसंपत्ति को लक्ष्मी मानकर उसी की पूजा कर रहे हैं, जो अज्ञानता का ही प्रतीक है।

     


    आचार्यों ने परिग्रह संज्ञा को संसार का कारण बताया है और संसारी प्राणी निरन्तर इसी परिग्रह के पीछे अपने सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन को गाँवा रहा है। जिस आत्मा में परमात्मा बनने की, पतित से पावन बनने की क्षमता है वही आत्मा परिग्रह के माध्यम से, लोभ-लिप्सा के माध्यम से संसार में रुल रहा है। एक बार यदि आप अपने भीतरी आत्म-वैभव का दर्शन कर लें तो आपको ज्ञात हो जायेगा कि अविनश्वर सुख-शांति का वैभव तो हमारे भीतर ही है। अनन्त गुणों का भण्डार हमारे भीतर ही है और हम बाहर हाथ पसार रहे हैं।


    कम से कम आज आप ऐसा संकल्प अवश्य लेकर जाइये कि हम अनन्त-काल से चले आ रहे इस अनंतानुबंधी संबंधी अनन्त लोभ का विमोचन अवश्य करेंगे और अपने पवित्र स्वरूप की ओर दृष्टिपात करेंगे। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार में आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि-


    अरसमरूवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।

    जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्विठ्ठसंठाणं॥

    (समयसार- ५४)

    जो रस रहित है, जो रूप-रहित है, जिसकी कोई गन्ध नहीं है, जो इन्द्रियगोचर नहीं है, चेतना-गुण से युक्त है, शब्द रहित है, किसी बाहरी चिह्न या इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार बताया नहीं जा सकता, ऐसा यह जीव है आत्मतत्व है।


    जिन आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र और आचार्य पूज्यपाद जैसे महान् निष्परिग्रही आत्माओं के द्वारा इस आत्मस्वरूप की उपासना की गयी है, उन्हीं निष्परिग्रही आत्माओं के हम भी उपासक हैं, होना भी चाहिए। अभी जैसे आप स्वयं ही अनुभव कर रहे हैं कि देह रूपी परिग्रह तक का ध्यान भूलकर किस तरह तन्मय होकर धर्मलाभ लिया जा सकता है। भाई! अपने जीवन को इसी प्रकार लोभ-मल से बचाकर पवित्र होने का, शौच-धर्म प्राप्त करने का उपाय करना ही सच्चा पुरुषार्थ है।


    आज सीप का नहीं, मोती का, आज दीप का नहीं, ज्योति का स्वागत करना है और अपने जीवन को, आदर्श भास्वत करना है। संसारी प्राणी इस रहस्य को नहीं जान पा रहा है कि शुचि क्या है और अशुचि क्या है? इन दोनों के बीच भेद क्या है? यह क्रम अनादि से चला आ रहा है, लेकिन संसारी प्राणी जैसे इस बात से अनभिज्ञ हैं। जहाँ पर कमल उगता है वही देखा जाए तो नीचे कीचड़ भी देखने में आता है। सीप में से मोती निकलता है और दीप में ज्योति जलती है, प्रकाश होता है। मोती मूल्यवान है तथा प्रकाश की महत्ता है। भगवान् के चरणों में चक्रवर्ती जैसे महापुरुष अज्जुलि भर-भर कर मोती ही चढ़ाते हैं। कीचड़ में उगने वाला कमल भगवान् के चरणों में चढ़ाया जाता है। कीचड़ को कोई छूना भी नहीं चाहता। किन्तु आज उस कमल का, उस ज्योति का और मोती का अनादर किया जा रहा है और अशुचि रूप कीचड़ में ही जीवन लथपथ हो रहा है।


    संसारी प्राणी मोती को छोड़कर सीप में ही चाँदी की कल्पना करके फंसता जा रहा है। इसी प्रकार अशुचि का भण्डार यह शरीर भी है। हम शरीर को ही आदर देते जा रहे हैं। अस्सी साल का वृद्ध भी दिन-भर में कम से कम एक बार दर्पण देखने का अवश्य इच्छुक रहता है। किन्तु आत्मतत्व देखने के लिए आज तक किसी ने विचार नहीं किया। यह कोई नहीं सोचता कि ऐसा कौन सा दर्पण खरीद ले जिसमें मैं अपने आपका वास्तविक रूप देख सकूं। आकर्षण का केन्द्र शरीर न होकर उसमें रहने वाली आत्मा ही आकर्षण का केन्द्र हो जाये। लेकिन संसार की रीत बड़ी विपरीत है। बहुत कम लोगों की दृष्टि इस ओर है।


    गगन का प्यार, धरा से ही नहीं सकता और मदन का प्यार कभी जरा से ही नहीं सकता। यह भी एक नियति है, सत्य है कि सज्जन का प्यार कभी सुरा से हो नहीं सकता। विधवा को कभी अंगराग रुचता नहीं, कभी सधवा को भी संग त्याग रुचता नहीं, संसार से विपरीत रीत, विरलों की ही होती है कि भगवान् को कभी भी राग दाग रुचता नहीं?


    मैं मानता हूँ अशुचिता से अपने आपके जीवन को ऊपर उठाना, हँसी-खेल नहीं है। लेकिन खेल नहीं होते हुए भी उस ओर दृष्टिपात तो अवश्य करना चाहिए। ऐसे-ऐसे व्यक्ति देखने में आते ằ fh vàơi Commentary सुनने में दिन-रात लगा देते हैं और भूख-प्यास सब भूल जाते हैं। शरीर की ओर दृष्टि नहीं जाती। यह एक भीतरी लगन की बात है। जैसे खेल नहीं खेलते हुए भी खेल के प्रति आस्था, आदर और बहुमान होने के कारण यह व्यवहार हो जाता है। उसी प्रकार यदि आज हम स्वयं आत्मतत्व का दर्शन नहीं भी कर पाते, उसे नहीं पहचानते तो कोई बात नहीं। किन्तु जिन्होंने उस आत्म-तत्व को पहचाना है उनके प्रति आस्था, आदर और बहुमान रखकर उनकी बात तो कम से कम सुनना ही चाहिए।


    माँ उस समय चिन्तित हो जाती है, जब लड़का अच्छा खाना नहीं खाता और खेलकूद के लिए भाग जाता है। उसी प्रकार सारे विश्व का हित चाहने वाले आचार्यों को भीतर ही भीतर उस समय चिन्ता और दुख होता है, जब संसारी प्राणी अपने उस स्वभाव से जिसमें वास्तविक आनन्द है जो वास्तविक सम्पदा है, उससे एक समय के लिए भी परिचित नहीं हुआ। आचार्य समन्तभद्र महाराज, जो दर्शन (फिलासफी) के प्रति गहरी रुचि और आस्था रखते थे और जिनकी सिंह गर्जना के सामने हाथियों के समान प्रवादियों का मद (अहकार) गल जाता था। वे कहते हैं संसारी प्राणी ने आज तक पवित्रता का आदर नहीं किया है और अपवित्रता को ही गले लगाया है। यही कारण है कि उसे आत्म-तत्व का परिचय नहीं हुआ। अशुचिमय शरीर में बैठे हुए आत्मा का जो ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है, दर्शन नहीं हुआ।


    कीचड़ के संयोग से लोहा जंग खा जाता है लेकिन स्वर्ण, कीचड़ का संयोग पाकर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता। ऐसे ही शरीर के साथ रहकर भी आत्मा अपने ज्ञान-दर्शन गुण को नहीं छोड़ता। हाँ, इतना अवश्य है कि स्वर्ण-पाषाण की भाँति हमारा आत्मा अभी अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाया है। जैसे स्वर्ण पाषाण में स्वर्ण है और उसे विधिवत् निकाला जाये तो निकल सकता है, उसी प्रकार आत्म-तत्व को कर्म-मल के बीच से निकालना चाहें तो निकाला जा सकता है। वास्तविक मल तो सही कर्म-मल है जो अनादिकाल से आत्मा के साथ चिपका हुआ है और
    आत्मा में विकार उत्पन्न करता है।


    बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये आत्मा की विभिन्न दशाएँ हैं। इनमें से अपनी परमात्मदशा को विधिवत् निकाल लेना ही सच्चा पुरुषार्थ है और जो ऐसा करता है वह फिर शरीर को महत्व नहीं देता। बल्कि आत्मा को बचाकर पवित्र बनाने का प्रयास करने में जुट जाता है। शरीर का इतना ही महत्व है कि उसके माध्यम से आत्म-तत्व को प्राप्त करना है यह ज्ञानी जानता है और शरीर को सावधानी पूर्वक सुरक्षित रखकर आत्म-तत्व को प्राप्त करने में लग जाता है। हमें जानना चाहिए कि आत्म-तत्व के द्वारा ही शरीर को महत्व मिलता है अन्यथा उसे कोई नहीं चाहता। वह अशुचिमय है और आत्मा से पृथक् है। हमारा कर्तव्य है कि हम उसकी अशुचिता को समझे और उसके प्रति आसक्ति को छोड़कर रत्नत्रय से पवित्र आत्मा के प्रति अनुरक्त हों।


    वीतराग यथाजात दिगम्बर रूप ही पवित्र है, क्योंकि इसी के माध्यम से आत्मा चार प्रकार की आराधना करके मुक्ति को प्राप्त होती है और पवित्र होती है। वस्तुत: पवित्रता शरीराश्रित नहीं है लेकिन यदि आत्मा शरीर के साथ रहकर भी धर्म को अंगीकार कर लेती है तो शरीर भी पवित्र माना जाने लगता है, क्योंकि तब उसमें राग नहीं है और उसमें द्वेष भी नहीं है। वह सप्त-धातु से युक्त होते हुए भी पूज्य हो जाता है। शरीर के साथ जो धर्म के द्वारा संस्कारित आत्मा है, उसका मूल्य है और उस संस्कारित आत्मा के कारण ही शरीर का भी मूल्य बढ़ जाता है।


    जैसे कोई व्यक्ति धागे को गले में नहीं लटकाता किन्तु फूलों की माला के साथ या मोती की माला के साथ वह धागा भी गले में शोभा पाता है और फूल सूख जाने पर फिर कोई उसे धारण नहीं करता। इसी प्रकार यदि धर्म साथ है तो शरीर भी शोभा पाता है। धर्म के अभाव में जीवन शोभा नहीं पाता। उसे कोई मूल्य नहीं देता तथा उसे कोई पूज्य भी नहीं मानता। हमारे यहाँ जड़ का आदर नहीं किया गया। आदर तो चेतना का ही किया जाता है। जो इस चेतना का आदर करता है, उसका परिचय प्राप्त कर लेता है, वही वास्तविक आनन्द को प्राप्त कर लेता है। वही तीन लोक में पूज्यता को प्राप्त होता है।
     


    जैसे कोई अन्धा हो या आँख मूंद कर बैठा हो तो उसे प्रकाश का दर्शन नहीं होता और वह सोच लेता है कि प्रकाश कोई वस्तु नहीं है, अंधकार ही अंधकार है। उसी प्रकार संसारी प्राणी लोभ के कारण अन्ध हुआ है उसे आत्म-तत्व प्रकाशित नहीं हो रहा है। उसे रत्नत्रय का दर्शन नहीं हो पा रहा है और उसका जीवन अंधकारमय हो रहा है। वह सोचता है कि जीवन में आलोक सम्भव ही नहीं है। लेकिन जो अाँख खोल लेता है, लोभ को हटा देता है, विकारों पर विजय पा लेता है, उसे प्रकाश दिखायी पड़ने लग जाता है और उसका जीवन आलोकित हो जाता है। शरीर के प्रति रागभाव हटते ही शरीर में चमकने वाला आत्म-तत्व का प्रकाश दिखायी पड़ने लगता है और वह आत्मा उस औदारिक अशुचिमय शरीर से युक्त होकर परम औदारिक शरीर को प्राप्त कर लेता है। परम पावन हो जाता है।


    बन्धुओ! आज अशुचि का नहीं, शुचिता का आदर करना है। सीप का नहीं, मोती का आदर करना है। दीप का नहीं, ज्योति का स्वागत करना है और अपने जीवन को प्रकाशित करना है। ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने वाले के लिए समन्तभद्र आचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि वह शरीर के बारे में ऐसा विचार करें


    मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं।

    पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति । यो ब्रह्मचारी सः॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१४३)

    ब्रह्मचारी वह है, जो शरीर को मल का बीज मानता है, मल की उत्पति का स्थान मानता है और दुर्गध तथा घृणास्पद चीजों का ढेर मानकर उससे राग नहीं करता। उससे विरक्त रहकर अपने ब्रह्म अर्थात् आत्म-तत्व का ही अवलोकन करने में आनन्द मानता है। जिस शरीर को शुद्ध बनाने के लिए, सुगंधित बनाने के लिए हम नाना प्रकार के उपाय करते हैं, वह शरीर कैसा है उसका विचार करें तो मालूम पड़ेगा कि


    केशर चन्दन पुष्प सुगंधित वस्तु देख सारी।

    देह परसते होय अपावन निशदिन मलझारी।

    (मंगतरायकृत बारहभावना)

    केशर लगाओ, चाहे चन्दन छिड़को या सुगंधित फूलों की माला पहनाओ, यह सब करने के उपरान्त भी शरीर अपावन ही बना रहता है। ये सभी चीजें शरीर का सम्पर्क पाकर अपावन हो जाती है। ऐसा यह शरीर है। शरीर की अशुचिता के बारे में ऐसा विचार किया जाए तो शरीर को सजानेसँवारने के प्रति लोभ कम होगा और आत्म-तत्व की ओर रुचि जागृत होगी।
     


    शरीर की अशुचिता और आत्मा की पवित्रता का चिन्तन करना ही उपादेय है। आप शरीर की सुन्दरता और गठन देखकर मुग्ध हो जाते हैं और कह देते हैं कि क्या पर्सनालिटी है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो व्यक्तित्व, शरीर की सुन्दरता या सुडौलता से नहीं बनता, वह तो भीतरी आत्मा के संस्कारों की पवित्रता से बनता है। अशुचिता हमारे भावों में हो रही है, उसे तो हम नहीं देख रहे हैं और शरीर की शुचिता में लगे हैं। हमें भावों में शुचिता लानी चाहिए। भावों में निर्मलता लानी चाहिए। भावों में मलिनता का कारण शरीर के प्रति बहुत आसक्त होना ही है। इसी की सोहबत में पड़कर आत्मा निरन्तर मलिन होती जा रही है। आत्मा की सुगन्धि खोती जा रही है और आत्मा निरन्तर वैभाविक परिणमन का ही अनुभव कर रही है।


    सम्यकद्रष्टि शरीर को गौण करके आत्मा के रत्नत्रय रूप गुणों को मुख्य बनाता है। वह जानता है कि जब तक शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहेगी, आत्मा का दर्शन उपलब्ध नहीं होगा। इसलिए शरीर के संबंधों को, शरीर के रूप लावण्य को, शरीर के आश्रित होने वाले जाति और कुल के अभिमान को, लोभ को गौण करके एक बार आत्मा के निर्मल दर्पण में झाँकने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है। सिद्ध परमेष्ठी तो पारदर्शी काँच के समान हैं और अहन्त भगवान काँच के पीछे चाँदी का Polish (लेप) लगे हुए दर्पण के समान हैं। लेकिन यह संसारी प्राणी तो दर्प का पुतला बना हुआ है। लोभ का पुतला बना हुआ है। शरीर के प्रति जो दर्प (अभिमान) है उसे छोड़ने के उपरान्त ही दर्पण के समान निर्मल अहन्त पद की प्राप्ति सम्भव


    दर्पण स्वयं कह रहा है कि मुझमें दर्प न अर्थात् अहंकार नहीं रहा। सब उज्ज्वल हो गया। जैसा है वैसा दिखायी पड़ने लगा। बन्धुओ! शरीरवान होना तो संसारी होना है। शरीर से रहित अवस्था ही मुक्ति की अवस्था है। शरीर से रहित अवस्था ही वास्तव में पवित्र अवस्था है। अशरीरी सिद्ध परमात्मा ही वास्तव में परम पवित्रात्मा है। छहढाला की तीसरी ढाल में कहा है


    ज्ञानशरीरी त्रिविधकर्ममल वर्जित सिद्ध महन्ता | 

    ते हैं निकल अमल परमातम भोगें शर्म अनन्ता ||

    ज्ञान ही जिनका शरीर है, जो तीनों प्रकार के कर्ममल-द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म अर्थात् शरीर रूपी मल से रहित हैं ऐसे सिद्ध परमात्मा ही अत्यन्त निर्मल हैं और अनंत सुख का उपभोग करते हैं। हमें भी आगे आकर अपने सिद्धस्वरूप को, आत्मा की निर्मलता को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
     


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    रत्नत्रय की भावना भाओ जीवन में मधुरता , शुद्धता , परिमार्जता अपने आप आ जाएगी

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