२२-०३-२०१६
खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः)
उन्नत ललाट पर चिंतन की रत्नत्रयी समान्तर रेखाओं में ब्रह्मतेज के धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल विनय वंदन करता हूँ...। हे गुरुवर! ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने आचार्य देशभूषण जी महाराज को क्यों छोड़ा ? इस रहस्य को मैं आज आपको बता रहा हूँ। जैसा विद्याधर के दादा भाई महावीर ने बताया
ऐसे हुई श्रेष्ठ गुरु की खोज
दीक्षा के दूसरे दिन दोपहर में मैं मुनि श्री विद्यासागर जी के पास गया। कन्नड़ भाषा में वार्तालाप की। मैंने पूछा-आपने आचार्य देशभूषण जी महाराज को क्यों छोड़ा ? तब वो बोले- '१३-१४ माह मैं महाराज के साथ रहा। सेवा की, लेकिन ज्ञानार्जन तो कुछ कर ही नहीं पाया। चूलगिरि, जयपुर से गोम्मटेश्वर के लिए विहार हुआ। महाराज के साथ विहार में रहा। तब मुझे रास्ते में आचार्य महाराज ने संघ की व्यवस्था का दायित्व सौंप दिया। मुझे पैसों का पूरा आय-व्यय का हिसाब रखना पड़ता था। तो में इसी में लगा रहता था। स्वाध्याय एवं साधना का समय ही नहीं मिलता था। तब एक दिन मन में विचार आया। मैंने घर किसलिए छोड़ा था। संसार की झंझटों से बचकर आत्मकल्याण की भावना मन में ही रह गई। तब हमने विचार कर निर्णय लिया कि ज्ञान प्राप्ति के लिए हम कोई योग्य श्रेष्ठ गुरु को खोजेंगे।
जब मैं जयपुर से अजमेर संघ के साथ आया। तब मेरी कई बार अजमेर के एक ब्रह्मचारी जी से बात हुई। उन्होंने मुझे बता दिया था कि आपकी ज्ञानार्जन की भूख पूज्य मुनि ज्ञानसागर जी महाराज शान्त कर सकते हैं। वो बड़े ही ज्ञानी हैं। उन्होंने आचार्य वीरसागर जी महाराज एवं आचार्य शिवसागर जी महाराज के संघस्थ मुनि एवं आर्यिकाओं को पढ़ाया है- स्वाध्याय कराया है और संस्कृत के कई ग्रन्थ लिखे हैं। वो महान्। ज्ञानी हैं। सरल स्वभावी हैं। निर्दोष आगम की चर्या करते हैं। कोई परिग्रह आदि नहीं रखते हैं। इतना मैंने उनसे सुना था। तो मैं स्तवनिधि से सीधे मुनि ज्ञानसागर जी गुरु महाराज के पास आ गया।'
तब मैंने पुनः प्रश्न किया। आपके पास पैसे तो थे नहीं, फिर आपके पास पैसे कहाँ से आए ? तो उन्होंने बताया कि मेरे पास कुछ पैसे जो आपने पहले दिए थे वो रखे हुए थे और कुछ पैसे मैंने मित्र मारुति से लिए थे।’ मैंने पूछा कि आप यहाँ तक कैसे पहुँचे? तो उन्होंने बताया-‘स्तवनिधि से बस से कोल्हापुर आया और कोल्हापुर से ट्रेन से बम्बई गया। फिर बम्बई से ट्रेन से अहमदाबाद आया। फिर वहाँ से अजमेर की ट्रेन मिली और मैं अजमेर आ गया।' तो मैंने पूछा-आपको कितने दिन लगे ? बोले-'तीन दिन लगे।' तो मैंने पूछा-रास्ते में भोजन पानी ? बोले-'२ उपवास हो गए।' इस तरह कठिन पुरुषार्थकर विद्याधर विद्यासागर मुनि महाराज बने। आत्मकल्याण की तीव्र। जिजीविषा देख मुझे संतोष हुआ कि उन्होंने सही मार्ग चुना है।" इस प्रकार ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने श्रेष्ठ गुरु की खोज में कठिन पुरुषार्थ किया और मनचाहा वरदान प्राप्त कर लिया। धन्य हैं ऐसे पुरुषार्था जो महापुरुष बन गए। उनके श्री चरणों में नमोस्तु करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य