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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पत्र क्रमांक - ७८ अजमेर से टेलीग्राम सदलगा पहुँचा

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    २१-०३–२०१६

    खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः)

     

    दर्शन का प्रदर्शन दिगम्बर रूपधारी गुरुवर द्वय के चरणों में त्रिकाल त्रिभक्ति पूर्वक नमोस्तु करता हूँ...

    हे गुरुवर! आज मैं आपको वह बात बताने जा रहा हूँ। जो मन को कातर बनाती है। जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी की दीक्षा का समाचार सदलगा परिजनों के पास पहुँचा और वहाँ जो स्वाभाविक स्थिति बनी। इस सम्बन्ध में विद्याधर जी के अग्रज भाई महावीर जी ने मुझे ०९-११-२०१५ को भीलवाड़ा में बताया। सो मैं आपको बता रहा हूँ

     

    अजमेर से टेलीग्राम सदलगा पहुँचा

    "२६ जून को टेलीग्राम घर पर आया। वह अंग्रेजी में था- ‘Viddyadhar Muni Deeksha going on 30 jun 1968' यह टेलीग्राम पढ़कर हमने माता-पिता को बताया तो तुरन्त ही पिताजी नाराज हो गए। घर में अशान्ति फैल गई। माँ एवं हम सभी भाई-बहिन रोने लगे। काफी देर तक यह स्थिति बनी रही। किसी ने भी भोजन-पानी नहीं किया, क्योंकि विद्याधर से सभी को अत्यधिक प्रेम था। अड़ोस-पड़ोस के लोगों को पता चला। तो वो सब ढाँढस बँधाने के लिए आ गए। पिताजी कहने लगे कि मैं नहीं जाऊँगा तो उसकी दीक्षा नहीं होगी। इस कारण घर से किसी ने भी जाने का विचार नहीं बनाया। तब ऐसी स्थिति में मैंने विचार किया कि विद्याधर का ज्ञान और दिनचर्या से तो लगता है कि वह वैराग्यमार्ग में बढ़ेगा, रुकने वाला नहीं है अत: मुझे जाना चाहिए। एक बार तो उसको मनाऊँगा। नहीं मानेगा तो अपनी आँखों से उसकी दीक्षा तो देखूँगा। यह सोचकर हमने बिना बताये जाने का विचार बनाया। उस वक्त मैं २५ वर्ष का था और कर्नाटक से बाहर महाराष्ट्र में आस-पास ही गया था। अत: इतनी लम्बी यात्रा कैसे की जाए ? यह सोचकर हमने अपने चचेरे भाई के लड़के मल्लू को तैयार किया और इचलकरंजी के व्यापारी जो अजमेर के रहने वाले थे। उनसे पूछा-तो उन्होंने अजमेर जाने के लिए उपाय बताया और सोनी जी की नसियाँ का पता बताया। मैं मल्लू को लेकर गुप्तरूप से घर के बाहर निकल गया और अजमेर २९ जून को शाम को ८ बजे पहुँचा।

     

    जब मैं अजमेर पहुँचा तब सोनी नसियाँ को ढूढ़ते हुए, मैं और मल्लू सीधे नसियाँ के पास वाले तिराहे पर पहुँचे। वहाँ बहुत भीड़ थी। शाम के ८:३० बज रहे थे और कोई जुलूस निकल रहा था। तब हम दोनों एक दुकान के चबूतरे पर चढ़कर जुलूस को देखने लगे। तब एक सज्जन से पूछा-यह क्या है ? तब उन्होंने बताया-यह बिन्दोरी निकल रही है। हम इसका मतलब समझ नहीं पाये। रंग-बिरंगे जलते हुए ट्यूबलाईट एवं गैस बत्ती के लैम्प सड़क के दोनों ओर लिए लोग चल रहे थे। घोड़े एवं हाथियों पर लोग बैठे हुए, बग्घियों पर सजे हुए लोग बैठे हुए, ऊँट, ढोल, नगाड़े, कई बैण्ड पार्टियाँ और नाचते हुए तरह-तरह के युवाओं की  टोलियों को देखकर लगा कि किसी राजा-महाराजा के बच्चे की शादी है। आगे ६ हाथी निकले और जैसे ही आखिरी सातवाँ हाथी निकला उस पर हमने विद्याधर को देखा, देखते ही उसको पहचान लिया। वह सफेद धोती-दुपट्टा पहने हुए थे और सिर पर सोने-चाँदी का गोल मुकुट चमक रहा था। गले में तरह-तरह की मालाएँ चमक रही थीं। तब भारी भीड़ में मैं भी घुस गया और नाचते हुए युवाओं के बीच में मैं भी नाचने लगा। तभी विद्याधर की दृष्टि मेरी गाँधी टोपी पर पड़ी और उन्होंने मुझे पहचान लिया। तब उनके पीछे बैठे श्रीमान् पण्डित विद्याकुमार जी सेठी को उन्होंने इशारा करके बताया। तब पण्डित जी साहब के कहने से लोगों ने मुझे उठाकर हाथी पर चढ़ा दिया और मैं पण्डित जी के पीछे बैठ गया। तब पण्डित जी बोले-५-७ मिनिट पहले ही हमने ब्रह्मचारी जी से कहा था कि आपके घर से कर्नाटक से कोई नहीं आया ? किन्तु आप आ गए, बड़ी खुशी की बात है। जब गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को पता चलेगा तो वे बहुत खुश होंगे। समाज में भी प्रसन्नता आ जायेगी। धीरे-धीरे जुलूस सोनी नसियाँ पर जाकर समाप्त हुआ। फिर सीधे गुरु महाराज के पास जाकर सभी ने दर्शन किए। तब पण्डित विद्याकुमार जी सेठी ने गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज को मेरा परिचय दिया-महाराज ये विद्याधर के बड़े भाई सदलगा से आ गए और चचेरे भाई का लड़का भी आया है। तब ज्ञानसागर जी महाराज ने हँसते हुए सिर पर पिच्छी लगाकर आशीर्वाद दिया। तब विद्याकुमार जी ने पूछा-‘माताजी-पिताजी नहीं आए?' तो हमने कहा-हाँ वो नहीं आ पाए। फिर हमको समाज के लोग ले गए। 

     

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    दूसरे दिन सुबह ७ बजे मैं गुरुदेव ज्ञानसागर जी महाराज के पास दर्शन हेतु गया। तब वहाँ विद्याधर जी बैठे हुए थे। मुझको देखकर गुरुदेव ज्ञानसागर जी बोले-‘क्यों महावीर! विद्याधर को लेने आए हो?' तो मैंने कहा-हाँ! मुझे माता-पिता ने इसी के लिए भेजा है। आप विद्याधर को मेरे साथ घर भेज दीजिए। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी बोले-'तो विद्याधर से पूछ लो जाना चाहे तो ले जाओ।' तभी मैंने विद्याधर को कन्नड़ भाषा में बड़े प्यार से समझाया-देखो भाई! घर पर दादी माँ, माता-पिता और भाई-बहिन सभी दु:खी हैं। जब से सुना है माँ तो तभी से रो रही है। पिताजी को आप जानते हैं। वे बहुत व्यथित हैं। दोनों छोटे भाई और बहिनें भी रो रहे हैं। दादी की स्थिति तो बहुत खराब है, वह तो दिन-रात ही विलाप करती रहती है और सारे कुटुम्बीजन भी आ-आकर कहते हैं कि विद्याधर को लेकर आओ। थोड़ा विचार करो, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है ? घर पर रहकर खूब धर्म करो, स्वाध्याय करो, साधना करो। आपको तो वैसे भी कोई मना नहीं करता। इसलिए एक बार माता-पिता के पास चलो फिर निर्णय लेना। तब विद्याधर बोले- ‘देखो भाई! मैं पिताजी का स्वभाव जानता हूँ और मैं आपके भरोसे ही निकला हूँ, क्योंकि आप घर के मुखियाँ हैं इसलिए माता-पिता का ध्यान रखना और सेवा करना तथा दोनों भाईयों व दोनों बहिनों को अच्छे ढंग से पढ़ाना-लिखाना और ध्यान रखना अंत में इसी मुनि भेष से ही इस जीवन को अन्तिम विदाई देना है। मुनि बनकर ही इस भव से पार होना है। विद्याधर का यह निर्णय सुनकर मैं मौन रह गया। तब गुरुदेव ज्ञानसागर जी मुनि महाराज ने मुझसे कहा-'भैया हर जीव अपने आत्मकल्याण के लिए स्वतंत्र है।' तब विद्याधर जी समाज वालों के साथ बिन्दोरी के लिए चले गए और गुरु महाराज ने पुन: पूछा-‘माता-पिता क्यों नहीं आए ? क्या उनकी सहमति लेकर आए हो ? या विद्याधर को ही लेने आए हो ? जो भी बात करनी है उससे कर लो। हमने कहा-वह तो आपके सामने ही जाने को मना कर रहा है। आप एक बार घर भेज दीजिए। तब गुरु महाराज ज्ञानसागर जी ने कहा- ‘हमने उसे एक बार कहा था कि माता-पिता से मिल आओ, अनुमति ले आओ। तो उसने मुझसे कहा-घर जाने पर अनुमति नहीं मिलेगी। मुझे तो अपना आत्मकल्याण करना है। सो मैं आपके पास आ गया हूँ।' यह सुनकर मैं हाथ जोड़कर नमोस्तु करके बाहर आ गया।

     

    दोपहर में मुझे सभा के अन्दर मंच पर बुलाया गया और दो शब्द बोलने के लिए ५ मिनिट दे दिए गए लेकिन मुझको मारवाड़ी या हिन्दी का ज्ञान नहीं था और समाज जनों को कन्नड़ समझ न पड़ती तब विद्याधर जी ने हमारी सहायता की थी। वही हमने टूटी-फूटी हिन्दी में बोला था, कुछ-कुछ भाव स्मरण में इस प्रकार है-‘मुनि दीक्षा लेने की खुशी विद्याधर को है और आप सभी को है, परन्तु हमको नहीं है। हमारा भाई हमसे दूर हो जायेगा लेकिन मुनि बनना तो बहुत अच्छा है, बनना ही चाहिए। हम परिवार की ओर से क्षमा माँगते हैं। जय जिनेन्द्र।' इसके बाद विद्याधर जी ने गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से दीक्षा का निवेदन किया। श्रीफल चढ़ाकर नमोस्तु किया और आशीर्वाद लेकर 'नमः सिद्धेभ्यः' बोलकर केशलोंच करना प्रारम्भ कर दिया। मेरे मंच पर खड़े-खड़े देखते हुए आँसू आने लगे। मुझको देखकर बहुत सारे लोगों की आँखे भर आईं, रोने लगे । विद्याधर ने लगभग-एक डेढ़ घण्टे में ही सिर, दाढ़ी-बूंछ के बड़े-बड़े धुंघराले काले बाल उखाड़कर फेंक दिए। उसके बाद गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ने संस्कार किए। पिच्छी-कमण्डलु प्रदान किए, उसके बाद नामकरण किया। नामकरण सुनते ही मेरा ध्यान माँ की बोली पर गया। माँ बोला करती थी कि महामुनि विद्यासागर जी महाराज अक्किवाट की भक्ति का प्रतिफल है विद्याधर और आज यह कैसा संयोग बना? कि गुरुदेव ने इनका नाम भी विद्यासागर ही रख दिया। विद्यासागर की भक्ति ने विद्याधर को बनाया विद्यासागर।" इस तरह अग्रज भाई महावीर जी ने हृदय को बड़ा कठोर करके अपनी ओर से अनुमति प्रदानकर आपका और विद्याधर का मार्ग सुलभ कर दिया था। महान् गुरु एवं महान् शिष्य को प्रणाम करता हुआ....

    आपका

    शिष्यानुशिष्य


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