२३-०३-२०१६
खान्दू कॉलोनी, बाँसवाड़ा (राजः)
जगत् विख्यात साधु मंगल, उत्तम, शरण गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में भावार्घ समर्पित करते हुए त्रिकाल वन्दन करता हूँ...
हे गुरुवर! आज मैं विद्याधर के दादा भाई महावीर की वह मन:स्थिति बतला रहा हूँ। जब वो अजमेर से वापस अपने घर जाने लगे। तो वे दुःख एवं खुशी के मिश्रित भावों के साथ विदाई ले रहे थे और मन में होने वाली घर की परिस्थिति को यादकर सशंकित हो रहे थे। पता नहीं संभावना के गर्भ से खेद जन्म लेगा या खुशियाँ जन्म लेगीं। इस आन्दोलित मन से ही उन्होंने मुझे उस दिन का संस्मरण सुनाया। वह मैं आपको लिख रहा हूँ
विदाई में मिला आत्मकल्याण का संदेश
"विद्याधर से बने विद्यासागर मुनि की दीक्षा देखकर दो दिन बाद मैं घर वापस आने लगा तो मैं मुनि विद्यासागर जी महाराज के पास गया। वे गुरु महाराज ज्ञानसागर जी के पास में ही बैठे थे। मैंने पास में बैठकर दोनों महाराज को नमोस्तु किया। तब मेरी आँखों में आँसू आ गए। मन व्याकुलित था। मैंने मुनि विद्यासागर जी से कहा- मैं जा रहा हूँ। तब उनकी मधुर आवाज मेरे कानों में गूँजी वो कह रहे थे- ‘जो मैंने कहा है, उस पर विशेष ध्यान रखना। इसी मुनि भेष से ही जीवन को अन्तिम विदाई देना। मुनि बनकर ही भव से पार होना है।
और माता-पिता को भी धर्म साधना की बात कहना। अन्तिम समय समाधिमरण करके भव सुधारना। ऐसा सभी के लिए मेरा भाव व्यक्त कर देना। फिर बोले-गुरु महाराज से आशीर्वाद ले लो।' तब पास में बैठे गुरु महाराज ज्ञानसागर जी को मैंने नमोस्तु किया और कहा-मैं जा रहा हूँ। तब महाराज बोले- ‘आत्मकल्याण की ओर ध्यान रखना और सभी को धर्ममार्ग पर लगाए रखना एवं विद्यासागर जी ने जो कहा है, उस पर विशेष ध्यान रखना।’ यह अमृत उद्बोधन पाकर मैं और मल्लू (चचेरे भाई का बेटा) सदलगा वापस आ गए।''
इस तरह विद्याधर के दादा भाई महावीर जी भारी मन से सजल नेत्रों से रूँधे हुए गले से विदाई लेकर रेलगाड़ी में बैठ तो गए, किन्तु रास्ते भर विद्याधर की बचपन की बातें आपस में चचेरे भाई से करते हुए दो रात्रि-दो दिन करते रहे। एक पल को भी यदि झपकी लगती तो स्वप्न में विद्याधर या विद्यासागर की झाँकी दिखती। जब वो घर पहुँचे तो मन सशंकित था कि पिताजी बहुत नाराज होंगे... किन्तु परिवार जन की जो मनःस्थिति बनी उसको सुनकर आप समझ जायेंगे कि आपके लाड़ले शिष्य विद्यासागर आसन्न भव्य परिवार के हैं। जैसा मुझे महावीर जी ने बताया वही मैं आपको ज्यों का त्यों बता रहा हूँ...
सदलगा में खेद-पछतावा-धैर्य-स्वर्णिम उमंग-उत्साह
“अजमेर से जाते समय परिवार जनों को दीक्षा महोत्सव की झाँकी दिखाने के लिए फोटो लेकर गया। रास्तेभर उन फोटो को देखते रहे, मल्लू से अजमेर की या पुरानी बातें करते हुए दो दिन रात कैसे गुजर गए पता नहीं चला, थोड़ी निद्रा आई भी तो स्वप्न में विद्याधर की घटनाएँ दिखती रहीं। सदलगा पहुँचकर जैसे ही हमने दीक्षा की फोटो दिखाई, घर के सभी लोगों ने चित्रों को माँथे से लगाया फिर देख-देखकर रोने लगे। पिताजी बहुत खेदखिन्न हुए आँखों में आँसू भर आए बोले-मैं क्यों नहीं गया, मुझको जाना चाहिए था, मेरे प्यारे बेटे ने वह कार्य कर दिखाया जो मैं नहीं कर सका था, मेरे पिताजी मुझे पकड़कर ले आए थे। मैं विद्याधर को रोक नहीं रहा था, उम्र छोटी होने के कारण और उससे अत्यधिक प्यार होने के कारण चाहता था कि कुछ दिन घर पर ही साधना कर ले... लेकिन वह तो बिना बताए ही चला गया और मैं, मोह के कारण दीक्षा के उत्सव में नहीं गया... मेरे कारण घर के सदस्य भी नहीं जा सके मुझे धिक्कार है...। फिर थोड़ी देर बाद अपने आप को सम्भालते हुए बड़े शान्त भाव से बोले-अपन सभी अजमेर चलेंगे, चौका लगायेंगे, आहार दान देंगे और मेरे से बोले ५-१० दिन में खेती-बाड़ी का सब काम कर लो और चौके की सभी लोग तैयारी करो। तब बहुत रोई । पिताजी समझाते हुए बोले-जो होना था सो हो गया और यह तो पहले से ही लग रहा था कि यह घर में नहीं रुकेगा। तुमने जिसकी भक्ति करके उस लाड़ले को प्राप्त किया था, उसी भक्ति का यह प्रताप है । हम धन्य हुए। फिर मुझसे बोले-तुमको गृहस्थाश्रम अच्छे से सम्भालना है। तो मैंने कहा-विद्यासागर मुनि महाराज ने भी यही बोला है। यह कैसा संयोग है ? तब हमने अजमेर पहुँचने का और बिन्दोरी का जुलूस, दीक्षा महोत्सव एवं पारणा के उत्साह के बारे में सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया। सुनकर सभी लोग बड़े प्रसन्न हुए और नहीं जा पाने के कारण खूब रोये। तब दादी माँ बोली-मेरा पोता इतनी कम उम्र में कैसे मुनिव्रत धारण किया। तूँने मना नहीं किया। अब मुझे दर्शन करने की बहुत उत्कण्ठा हो रही है, लेकिन मेरा दुर्भाग्य है इस जर्जर अवस्था में उनके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे। तो पिताजी बोले-आपका स्वास्थ्य ठीक हो जाये तो लेकर चलूँगा। छोटे भाई-बहिन भी शीघ्र जाने के लिए कहने लगे। तैयारियाँ शुरु हो गईं। तैयारी ऐसी हो रही थीं मानो दीवाली आ गई हो। बड़े ही उमंग एवं उत्साह के साथ हम सभी तैयारी में लगे हुए थे। पिताजी ने विद्याधर की सोने की चैन एवं अंगूठी जो वो पहनते थे। उसको ले जाकर सुनार के यहाँ गलवाकर १०८ स्वर्ण पुष्प बनवाये थे। उन पुष्यों से महाराज की पूजा करने के लिए साथ में ले गए थे।
मेरे आने का समाचार पाकर सभी कुटुम्बीजन और ग्रामवासी, समाजजन घर पर आ-आ करके विद्याधर के बारे में पूछने लगे। मैं उन सबको सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाता । तो सभी लोग बड़े आश्चर्यचकित होकर सुनते । खुश होते और यही कहते तुम लोग तो सभी धन्य हो गए और हम लोग भी धन्य हो गए जो ऐसे महापुरुष के गाँव में जन्म लिया। विद्याधर के मित्रगण भी आकर के मिले सभी लोग आश्चर्य कर रहे थे और उनकी" इस तरह सदलगा में सभी के जीवन में एक परिवर्तन आया और हम सभी श्रद्धा-भक्ति के साथ अपने मुनि महाराज के दर्शन-पूजन-भक्ति-सेवा करने अजमेर पहुँच गए। धन्य हैं, ऐसे भव्यात्मा को प्रणाम |
आपका
शिष्यानुशिष्य