२७-०३-२०१६
वीरोदय (बाँसवाड़ा राजः)
कल्पद्रुम महामण्डल विधान
आत्माहूतिनी तपस्या के साधक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के तपस्याचरण को त्रिकाले नमोस्तु करता हूँ...
हे गुरुवर! आपने मुनि श्री विद्यासागर जी को समयसार पढ़ाया तो विद्यासागर जी उस आत्मविद्या को पढ़कर अनुभूति में उतारते चले गए। उनकी वह अनुभूति व्यवहारीजन के अनुभव में आने लगी थी। इस सम्बन्ध में दीपचंद छाबड़ा नांदसी वालों ने ०३-११-२०१५ को मुझे दो संस्मरण सुनाए। वह मैं आपको बता रहा हूँ। जिसे आप जानकर अनुभूत करेंगे कि आपका दिया गया ज्ञानदान और दीक्षा व्यर्थ नहीं गई। आपने जो अपेक्षा रखी थी वह मुनि विद्यासागर जी ने पूर्णत: करके दिखायी है-
निजानुभवी की अध्यात्म दृष्टि
"१९६८ अजमेर श्रावण माह का समय था। मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को जुखाम हो गया था। तब श्री मिलापचंद जी पाटनी ने मुनिराज से कहा-आपको जुखाम हो रखा है, आप खुले में मत बैठो। तब मुनि श्री विद्यासागर जी जो गुरु महाराज से समयसार का अध्ययन कर रहे थे, उस अध्यात्म अमृत को पीकर उनकी भावदशा भी अध्यात्ममय हो गई थी। वे बड़े ही गंभीर भाव में बोले- "क्या मुझे जुखाम हो सकता है?" इस उत्तर को सुनकर पाटनी जी निरुत्तर हो गए और नमस्कार करके चले गए। नीचे आए तो छगनलाल जी पाटनी मिले और उनसे कहा-विद्यासागर जी तो आत्मानुभवी हैं। ये सदा निजानुभवी ही रहेंगे। जिनको जुखाम की अनुभूति भी आत्मानुभव में बाधा नहीं बनती, वे बड़े ही भेदविज्ञानी हैं, ये तो आगे जाकर अध्यात्म का डंका बजायेंगे। उनकी वार्ता सुनकर मैं मुनि विद्यासागर जी से बड़ा ही प्रभावित हुआ।
तत्त्व की अति उत्कण्ठा
इसी तरह एक दिन मैं ब्यावर से अजमेर सोनीजी की नसियाँ मुनि संघ के दर्शन करने पहुँचा। तब वहाँ पर केकड़ी (अजमेर) के विद्वान् श्रीमान् पण्डित दीपचंद जी पाण्ड्या प्राकृत-संस्कृत के भाषाविद् गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज से शास्त्रीय चर्चा कर रहे थे। वहीं पर नवदीक्षित मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज भी बड़े ध्यान से चर्चाएँ सुन रहे थे। कुछ देर बाद चर्चा समाप्त हुई। तो मुनि विद्यासागर जी महाराज बाहर आ गए। उनके पीछे-पीछे पण्डितजी भी आ गए। पण्डित जी साहब ने मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज को नमस्कार करके शास्त्रोक्त श्रुत भक्ति पर चर्चा की। लगभग १५ मिनिट तक दोनों ही ऊहापोह करते रहे। मैं पास में ही खड़े होकर उनकी चर्चा को सुनता रहा। मुनि श्री विद्यासागर जी जो भी बात बोलते पण्डित जी साहब उनकी बात पर हाँ जी-हाँ जी करते और पण्डित जी साहब जो भी बोलते तो मुनि श्री विद्यासागर जी अच्छा-अच्छा। ऐसा कहकर स्वीकारते। उनकी उस दिन की प्रसन्नचित्त होकर हर्षित वातावरण में तत्त्वचर्चा करने से ऐसा प्रतीत हो रहा था। मानो मुनिश्री विद्यासागर जी शास्त्रों के मर्म को शीघ्र ही आत्मसात् करना चाहते हों। उनकी यह चर्चा सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा और मेरे परिणाम भी उनके जैसे बनने के होने लगे।" इस तरह आपके शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी अपने आत्मकल्याण में प्रतिक्षण दत्तचित्त तो रहते ही साथ ही ज्ञान-ध्यान-तत्त्वचर्चा में सदा निरत रहते, जो भी उनको देखता उनके भाव भी उनकी चर्या को देखकर विशुद्ध होने लगते । ऐसे साधक ज्ञानपिपाशु के चरणों में नतमस्तक होता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य