लेखनी लिखती है कि
माना कि क्रोध मानव की कमजोरी है
किंतु गुरु को क्रोध करना मजबूरी है
उनका क्रोध कमजोरी नहीं होता
शिष्य को सुधारने का उपाय ही होता
सर्वप्रथम गुरु अपने आचरण से समझाते
फिर वचन से समझाते
फिर भी न समझे
तो उसे कठोरता से समझाते;
क्योंकि गुरु जानते हैं कि-
सुधार जरूरी है
बिना समझे शिष्य की कहानी अधूरी है।
भले ही क्रोध करते हुए दिखते,
पर पूरी तरह जागृत ही रहते
सामान्य जन की तरह होश खोते नहीं
पर के खातिर रवयं पाप बीज बोते नहीं,
किंतु शिष्य यदि करता है क्रोध
तो कैसे पायेगा बोध
पात्र में भरे हैं पहले से क्रोध के कंकर
तो कैसे उँडेलें गुरु अमृत
नहीं बन सकता वह शांत स्वरूप शंकर।
गुरु जैसा कर रहे
वैसा शिष्य को करना नहीं,
गुरु जैसा कह रहे
वैसा करने वाला शिष्य है सही,
गुरु के क्रोध में भी
शिष्य के लिए उद्बोधन है,
स्वयं झुककर उठा रहे पतित शिष्य को
सच, गुरु ही संकटमोचन हैं।
गुरुवर श्रीविद्यासागरजी भी हैं ऐसे
एक बार उनके होकर देखो
अरे! यह तो हैं भगवन् जैसे
एक बार शरण में आकर देखो।