लेखनी लिखती है कि
गुरु को कागजों पर नहीं
हृदय की दीवार पर अंकित करना है,
गुरु की स्तुति अधरों से नहीं
अंदर से करना है;
क्योंकि गुरु जो कर सकते
सारी दुनिया मिलकर भी कर सकती नहीं,
गुरु जो दे सकते
सारी दुनिया मिलकर भी दे सकती नहीं,
गुरु देते हैं अद्रश्य
जो जन जन को दिखाई देता नहीं।
धन की सुरक्षा करना जानते हैं सब
परिवार की सुरक्षा करना जानते हैं सब
शरीर की सुरक्षा करना जानते हैं सब
चल संपत्ति को अचल संपत्ति बनाना जानते हैं सब,
किंतु मन को स्थिर कैसे करना
चेतन को कर्मों से सुरक्षित कैसे करना
नहीं जानते अज्ञ प्राणी।
तब गुरु ही स्वात्म सुरक्षा का
उद्घाटित करते हैं रहस्य,
लक्ष्य विहीन को दिखलाते हैं
जीवन का परम लक्ष्य।
पहले मंजिल की महिमा समझाते हैं
उसे पाने का उपाय बतलाते हैं
फिर मार्ग में सहायक बनकर उसे
मंजिल तक ले जाते हैं।
बिना कुछ लिये सब कुछ दे दें
बिना कुछ कहे सब कुछ कह दें
क्या है कोई ऐसा नि:स्वार्थी जगत् में ?
क्या है कोई ऐसा परमार्थी जगत् में ?
शिष्य का हृदय बोलता है -
हाँ, श्रीविद्यासागरजी गुरुदेव हैं जगत् में
जो रहते हैं अपने में
पर विराजते हैं जन-जन के मन में।
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