लेखनी लिखती है कि-
जीवन की समूची यात्रा है वर्तुल-सी
जब कोई प्राणी पाता है गुरु - शरण
तो गुरु पहुँचाते हैं प्रभु - शरण
फिर प्रभु ही पहुँचा देते हैं
निज आत्मा की शरण।
कभी-कभी ऐसा भी होता है
भक्त पाता है प्रभु की शरण
फिर प्रभु - भक्ति से ही मिलती गुरु-शरण
तब गुरु ही कराते निज का वरण।
भव - भवांतर की उलझी गुत्थियाँ
गुरु ही सुलझा सकते हैं,
अनंतकाल से होती आई गल्तियाँ
गुरु ही दूर कर सकते हैं,
जो कोई समझा नहीं पाया अब तक
ऐसी गहन बार गुरु ही समझा सकते हैं।
कहना है गुरु का की-
संसार का भ्रमण तजने गुरु जरूरी हैं
पर मुक्ति पाने गुरु तजना भी जरूरी है
जो शिष्य और परमात्मा के बीच
धीरे से हट जाते हैं,
गिरने लगे यदि शिष्य तो
अदृश्य हाथों से थाम लेते हैं।
सच, गुरु की महिमा अकथ है
शिष्य के लिए वही मंजिल वही पथ है
द्रुत गति से गंतव्य तक ले जाने वाला
गुरु-कृपा ही अनुपम रथ है।
गुरु की इस कविता में
श्रीविद्यासागरजी गुरु का ही दर्शन हो आता है
एक बार जो हो गया इनका
वह जग में किसी का कहाँ हो पाता है ?