लेखनी लिखती है कि
गुरु की शरण में जाकर
शिष्य का पुण्य बढ़ने लगता है
दुनिया की नजरों में
वह उभरने लगता है,
तब पुण्य की चपेट में आ
जग ख्याति की चाह में
भटक जाता है वह राह
गुरु से श्रेष्ट बनने के चक्कर में
जीवन कर देता हैं तबाह |
वह स्वल्प पुण्य में तृप्त हो
एकाकी होना चाहता है
गुरु की पारखी द्रष्टि से दूर हो
मनमानी करना चाहता है
लेकिन एकत्व विभक्त्व आत्म-स्वरूप समझे बिना
भक्तो की भीड़ में खो जाता हैं,
अपने को जाने बिना
अपनों में खो जाता है |
कहाँ समझ पाता है वह अज्ञ की -
गुरु अनेको के बीच रहकर भी
रहेते है अकेले,
दूसरों से बोलते दिखते हुए भी
रहते हैं अनबोले,
सच, गुरु तो होते ही अलबेले।
पुण्य के प्रलोभन में आते नहीं
आत्म प्रयोजन को साधते सही
यही तो गुरु की अंतर परिणति है
इसीलिए गुरु केन्द्र तो शिष्य परिधि है।
चाहे कितना ही पुण्य हवाओं में उड़ने लगे
बदलियों की आकृतियों को पकड़ने लगे
वे नश्वर हैं बिखरेंगी
शिष्य की आत्मा फूट-फूटकर रोयेगी
तब आयेंगे गुरु करुणासागर
समझायेंगे फिर उसे स्नेह से भरकर
जो गुरु करे वो कोई कर नहीं सकता
हर किसी को श्रीविद्यासिंधु-सा गुरु मिल नहीं सकता।