लेखनी लिखती है कि-
अर्हत् पथ के पथिक हैं जो
सिद्ध पद के इच्छुक हैं जो
चल रहे हैं अनवरत
बहे रहे हैं जैसे भागीरथ |
गुरु के श्रवण - पुट कुछ तो विशेष हैं
ऊपर से प्रभु वचनों का भी करते हैं श्रवण
तो निचे से पथ भूलों का
सुन लेते है रुदन
तब वे रुके हुए मालूम पड़ते हैं
परन्तु अंतर्पथ पर अरुक अथक
चलते ही रहते हैं।
हाँ, इस शुभ प्रवृत्ति के समय
इनकी दया होती है दर्शनीय
करुणा होती है अनुकरणीय
अनुकंपा होती है आदरणीय
प्रवृत्ति होती है पूज्यनीय;
क्योंकि गुमराहियों को राह दिखाने का
यदि राग उन्हें नहीं आता
तो वीतरागता का मार्ग
उन राहियों को कौन दिखाता ?
लक्ष्य के प्रति लौ कौन जलाता ?
निर्भयता से भला कौन चल पाता ?
यह तो गुरु की ही महिमा है
जिनने नि:शंकता से शिवपथ पर चलकर
"चरैवेति चरैवेति" सार्थक की शब्दावलियाँ हैं
जो स्वयं सत्पथ पर चलकर
चलाते हैं शिष्यों को
ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागर
मिलते कहाँ सबको ?