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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. मैं जो कर रहा हूँ, वह आपको पसंद है, मुझे नहीं मालूम, और जो मैं नहीं कर रहा हूँ, उसे आप कराना पसंद करते हैं, मुझे यह भी नहीं मालूम, लेकिन मुझे इतना जरूर मालूम है कि... जो मुझमें हो रहा है, वह सब आप ही की अंत:प्रेरणा से हो रहा है। “मिले गुरु सान्निध्य यदि तो, सुषुप्त शक्ति जागृत हो। कायर भी हो परम तपस्वी, हालाहल विष अमृत हो॥ मूर्ख बने विद्धान शीघ्र ही, दुर्जन सज्जन हो जाता। खिन्न हृदय भी प्रसन्न होता, जब गुरुदर्शन हो जाता।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  2. आपको भगवान् समझकर, भक्ति करने में सुख व आनंद बना रहता है। चाहे आप बोलो या न बोलो, देखो या न देखो, दर्शन दो या न दो, पास बुलाओ या न बुलाओ, भाव कभी नहीं बिगड़ते। जब आपका नाम रटते, पाप कर्म ही कटते, आप सदा भगवान् ही बने रहे, अपने आपमें ही रमे रहें। “सुनते सबका करते मन का, ये तो चेतन राता हैं। राजा जिनके चरण पूजते, गुरुदेव महाराजा हैं। सिद्धों की बस्ती में जाकर,डाला जिनने डेरा है। गुरु विद्यासागर वंदन से, मिटे जगत का फेरा है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  3. मुझे नहीं चाहिए कोई अधिकार , आपही ने समझाया ये सब हैं विकार। विकारो से भरा जीवन है बेकार, क्योंकि अधिकार से उत्पन्न होता है अहंकार, फिर अहंकार की टंकार से उत्पन्न होता है प्रतिकार। हे आत्मीय! मुझे इन सर्व विकारो से दूर, बहुत दूर... ओंकार निराकार में ले चलो। “शरणार्थी को शरणा देकर, शरण प्रदायी कर देते। सब कुछ छुड़वा कर शिष्यों को, आतम धन से भर देते॥ गुरु चारित्र विचित्र जगत में, इसकी महिमा न्यारी है। वृहस्पति भी जान सके ना, गुरु अनंत उपकारी है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  4. बचपन से विद्या के धारक, आप विद्याधर कहलाये। बड़े हुए तो ज्ञानसागर में समा गये, ग्रंथों के गहने धारण कर, स्वयं निग्रंथ बन गये। तब विद्या के सागर कहलाये। आपको ज्ञानसागर कहूँ या विद्यासागर कहूँ, या पंचम युग के अर्हत् गुण रत्नाकर कहूँ, भक्ति में डूबा मन जो कहे वो कहूँ। “न्याय और सिद्धांत शास्त्र पर, गुरुवर का अधिकार रहा। गुरुवर का अध्यात्म विषय में, आतम एकाकार हुआ।। संस्कृत प्राकृत आदिक भाषा, सहज कंठ से निःसृत है। परम प्रतापी गुरुवर मानो, पंचम युग के अर्हत हैं।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  5. आप कहते हैं कि… ईंट का जवाब पत्थर से नहीं देना। क्रोध का सामना बैर से नहीं करना। बैर का सामना हिंसा से नहीं करना। अपमान का सामना गाली से नहीं करना। ईर्ष्या का सामना स्पर्धा से नहीं करना। आत्मशांति के लिए पर को कटु जवाब नहीं देना। स्वच्छ मन के लिए मान कभी नहीं करना। यदि तुम्हें शुद्धात्म स्वरुप को पाना है, तो अग्नि का जवाब नीर से देना है। क्रोध का जवाब क्षमा से देना है। “जग से निराश हुए मनुज को, गुरुवर की ही शरणा है। गुरु का हित उपदेश श्रवण कर, भवसागर से तरना है।। अशरणों के शरण प्रदाता, कलिकाल सर्वज्ञ समान। स्वीकारो यह भाव सहित गुरु, मेरा बारम्बार प्रणाम।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  6. आप गुरु होकर भी कितने लघु हो! ज्ञानी ध्यानी होकर भी गतमानी हो! क्योंकि आप जानते हो और शिष्यों को समझाते भी हो कि... शाश्त्रज्ञान का अहं कभी नहीं करना है। क्योंकि शाश्त्रज्ञान शाश्वत नहीं है, अविनाशी तो आत्मज्ञान है। और जिसके पास यह ज्ञान है वही धनवान है। धीमान है, श्रीमान है, बुद्धिमान है। धन्य हैं मेरे आत्मज्ञानी गुरुदेव! “ज्ञान गगन में विद्यारथ पर, श्री गुरुवर आरूढ़ हुए। रहस्यमय सारे प्रश्नों के, उत्तर जिनके गूढ़ रहें॥ जिनके श्रेष्ठ ज्ञान के आगे, बड़े-बड़े विद्वान थके। ऐसे ज्ञानी गुरु चरणों में, भावसहित मम माथ झुके।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  7. दुनिया को छोड़ आपसे बात करना अच्छा लगता है। आपसे बात करने की अपेक्षा, आपके वीतराग रूप को देखना अच्छा लगता हैं। आपको देखने की अपेक्षा अपने हृदय में, आपको समाना ज्यादा अच्छा लगता है। और अपने आपको इन चरणों में समर्पित कर देना, सबसे अच्छा लगता है। इसीलिए ही तो कर दिया है, आपश्री के चरणों में सर्व समर्पण। आप इसे जाने या न जाने, ढुनिया पहचाने या न पहचाने, मैंने तो अपना मान आपको कर लिया है वंदन। “पुण्य फलों में हर्ष न धरते, साम्यभाव उर रखते हैं। पर्यायों की परिणति लखकर, स्वात्म द्रव्य में रमते हैं।। आत्मभाव के ज्ञायक गुरुवर, परभावों से दूर रहें। गुरुभक्ति की स्वच्छ भागीरथ, मेरे उर में नित्य बहे।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  8. आपने अनंत कृपा कर इस देह में वास किया है। इस उपकार के बदले में क्या दे सकता हूँ? जिस देह में वास किया है, भक्त मन कहता है कि... उसी देह का नाश कर उपकार चुका दूँ। फिर शेष रहेगा शाश्वत आत्मा, जहाँ शाश्वत काल तक सिद्धालय में आप रहेंगे। वहीं में भी स्थिर हो जाऊँगा। आपने भक्त में वास कर जो उपकार किया है, सच गुरुदेव! बहुत बड़ा उपहार दिया है। “गुरु की अभेद रत्नत्रयमय, शुद्धभावना को वंदूँ। स्वानुभूति रस चखने वाले, गुरु के चरणों को वंदूँ।। मन मंदिर के परम देवता, भक्तों पर भी नज़र करो। खाली झोली लेकर आए, कृपा करो उपहार भरो।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  9. गुरु का दर्शन गुरु कृपा से मिलता है। गुरु भक्ति, गुरु श्रद्धा भी गुरुकृपा से ही होती है। प्रभु का दर्शन भी गुरु कृपा से मिलता है। प्रभु भक्ति, प्रभु श्रद्धा भी गुरुकृपा से ही मिलती है। आत्मा का दर्शन आत्मस्थ होने से मिलता है। परमात्मा के निकटस्थ होने से मिलता है। अत: आपने ही हे गुरुदेव! मुझे गुरू से प्रभु और प्रभु से निज शुद्ध आत्मा तक पहुँचाया है। “पर के कर्ता कभी न बनते, निज भावों के कर्ता हैं। शरणागत के दु:ख दूरकर, भय संकट के हर्ता हैं। चउ आराधन आराधक गुरु, स्वात्म चतुष्टय वासी हैं। शिष्य आपसे कुछ ना चाहे, मात्र कृपा अभिलाषी है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  10. मेरे पास ऐसा स्वच्छ सरोवर भी नहीं, जिसकी धार आपके चरणों में बहा सकूँ। मेरे पास ऐसा बाग भी नहीं, जहाँ के सुमन आपके चरणों में अर्पित कर सकूँ। मेरे पास ऐसा चंदन तरू भी नहीं, जिसे घिस- घिस कर आपकी पूजा कर सकूँ। फिर भी हे विशाल हृदय! आपने मुझे भावना पूर्ण करने के लिए, श्रद्धा का सरोवर, ज्ञान का बाग और चारित्र का चंदन दे दिया। “समता धन से भक्त गणों का, गुरु गुजारा करते हैं। पालन-पोषण कर शिष्यों का, संकट सारा हरते हैं।। सब कुछ दे ते कुछ ना लेते, उदार जिनका हृदय रहा। ज्ञानधनी गुरुदेव कृपा से, स्वात्म ज्ञान मम उदय हुआ।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  11. आप अपने उपयोग का सदा उपयोग करते हो। बाह्य काम में भी निष्काम ध्येय का ध्यान रखते हो। ज्ञानोपयोग को परभावों से भिन्न रखते हो। मैंने आपको अति भक्ति से निहारा है, आपको अपना ही सहारा है। स्वयं की शरण में रहकर आप, अशरणो की भी हैं शरण। आपही से मिला ये जीवन, और आपकी ही भक्ति से करेगे, शाश्वत मुक्ति का वरण ! “गुरुवर एकाकी निज को ही, निज के द्वारा जान रहे। निज के लिये स्वयं से निज में, शुद्धातम पहचान रहे।। औरों से बातें करते पर, मुझको ऐसा लगता है। निज से निज की चर्चा करते, सुखद नज़ारा लगता है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  12. आपने... स्वभाव की सामर्थ्यता, परभाव की पृथकता, विभाव की विपरीतता को जाना। शुद्धात्म धन को पहचाना, और... आत्मनिधि को पाने में लग गए। कर्मचोर अनमने से रह गए। रत्नत्रय की कुदाली से। पा ली निज संपदा... परम सुखदा ! धन्य हो आत्मदृष्टा! परम यशस्वी मम जीवन स्रष्टा! “दिन में कभी न सोते गुरुवर, निशि में निंद्रा अल्प धरें। शुद्धातम धन की चर्चा में, जागृत ही दिन-रात रहे।। कर्मचोर से सावधान नित, सन्मति युग सी चर्या है। वर्तमान में वर्धमान सी, गुरु के यश की चर्चा है।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  13. मैं जब तक इच्छा रहित न हो जाऊँ, तब तक मुझे अशुभ इच्छा से बचाते रहियेगा। मैं जब तक पूर्णमति को न पाऊँ, तब तक मुझे दुर्गति से बचाते रहियेगा। मैं जब तक मान रहित न हो जाऊँ, तब तक अपमान और सम्मान के विचारों से बचाए रखियेगा। मैं जब तक भगवान न बन जाऊँ, तब तक मुझे अपनी भक्ति से वंचित न कीजियेगा। “तन की माता जन्म दे सके, कर्म नाश ना कर सकती। आतम के भावों को पावन, गुरुवाणी ही कर सकती।। है अनंत उपकार आपका, वचनों से कैसे गाऊँ। गुरुकृपा से गुरु भक्ति कर, स्वात्म गुणों में रम जाऊँ।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  14. दैहिक सुख सुविधा देती है जन्मदायी माँ... आत्मिक शाश्वत सुखदाता है गुरु महात्मा! जिनकी ऊँचाई के आगे बोना है आसमाँ... ऐसे विराट शुरु की ज्ञान गोद में, पलता है जीवन जिस शिष्य का, निश्छल वह कह देता सब दोष। अति शीघ्र बन जाता गुणकोष...निर्दोषः धन्य हो ज्ञानदायिनी माँ... भवतारिणी माँ! “गुरुवर माँ का रूप सलौना, आत्मिक सुख को देता है। तीव्र कर्मवश दोष हुए तो, शिष्य सभी कह देता है। माँ की गोद में बालक जैसे, निशंक लेटा करता है। शिष्य गुरु चरणों में वैसे, सदा जागता रहता है।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  15. आपका शिष्य नहीं चाहता कि, इसकी ख्याति बढे और प्रतिष्ठा मिल जाए। नाम फैले और वाहवाही मिल जाए। सबके सामने आपका स्नेह या मुस्कुराहट मिल जाए। दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठ जाए, नहीं, नहीं इसे यह कुछ नहीं चाहिए। यह तो मात्र यही चाहता है कि, एकाकी आप के दर्शन से आत्मदर्शन मिल जाए। “कुछ ना देकर सब कुछ देते, निजाधीन कर देते हैं। कुछ ना कहकर सब कह देते, आत्म रहस्य प्रगटाते हैं।। निज आतम को देखनहारे, ‘देखो' ही बस कहते हैं। इस रहस्य को वहीं जानते, जो समीप में रहते हैं।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  16. मैं यह नहीं चाहता कि, आप मुझे निर्दोष कहें। मैं यह चाहता हूँ कि, आप मेरे दोष स्वयं कहें। यदि आप मेरे दोष नहीं बतायेंगे तो... मैं निंश्चिंत होकर , महादोषी बन जाऊँगा। यदि दोष बता देंगे तो, प्रायश्चित्त लेकर निर्दोष बन जाऊँगा। गुणकोष बन जाऊँगा। “जननी सम गुरुवर शिष्यों के, कर्म कलंक मिटाते हैं। करुणा से प्रायश्चित्त देकर, आगे उसे बढ़ाते हैं।। स्वच्छ भाव युत शिष्य देख गुरु, फूले नहीं समाते हैं। ऐसे गुरु विद्यासागर जी, मेरे मन को भाते हैं।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  17. यह कैसी मजबूरी है जो, तरस रहे हैं तव दर्शन को। केवल गुरु प्रतिबिम्बों से ही, कर लेते संतुष्ट स्वयं को। कैसे तुम्हें रिझाऊँ गुरुवर, पास नहीं कुछ अर्पण को भी। प्रथम दर्श में तुम्हें देखकर, सर्वस्व दे चुके पास न कुछ भी। ऐसा मंत्र मुझे दो गुरुवर, शीघ्र आपका दर्शन पाऊँ, विरह वेदना पूर्ण नशाऊँ। “भावों से दर्शन मिलते पर, द्रव्य क्षेत्र से निकट नहीं। शिष्यों को गुरु पास बुलालो, सर्व मिटेंगे संकट ही।। ज्ञानसिंधु में डुबकी लगाकर, सारा मल धुल जायेगा। विद्यासागर-विद्यासागर, शिष्य गुरु गुण गायेगा।।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  18. एक दिन सिंहासन पर बैठे-बैठे, आँख मूंदकर आप क्या विचार कर २हे थे? यही ना कि... ये सिंहासन मोक्ष का साधन नहीं है, मुझे सिद्धासन पाना है अतः, इससे एक दिन उतरना ही पड़ेगा। ये संघ, ये पूजकगण, ये मेरे आराधक नहीं, ये मेरे पुण्य फल के आराधक हैं। हे साधक! इसमें लीन मत होना, और आप बहुत दूर अपने, निजात्म असंख्यात प्रदेशों में गहरे- गहरे डूब गए। और हम आपको देखते रह गए। “भाग्य विधाता शिष्यगणों के, किंतु न कर्ता भाव रखे। बाहर में जिन संस्कृति रक्षक, भीतर रस आनंद चखे।। मात्र स्वात्म भावों के कर्ता, परभावों से दूर रहे। परम प्रतापी श्री गुरुवर के, नारे जग में गूंज रहे।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  19. आपके वीतराग स्वरूप के दर्शन से, स्वात्म दर्शन होता है। आपके प्रत्यक्ष प्रवचन श्रवण से, पाप का क्षरण होता है। आपकी कृपा भरी स्नेह करुण दृष्टि से, द्वेष भाव तत्काल भाग जाता है। आपकी आराधना करने से, अंत में स्वानुभूति का गीत गूँजता है। इसमें आपका क्या बिगड़ता है? मेरा सारा जीवन सुधरता है। निज स्वरूप निखरता है। दया दृष्टि रखना...दर्शन से वंचित मत करना। “किसे सुनाएँ मन की पीड़ा, बस्ती सूनी दिखती है। निज आतम से विरह वेदना, दिन-प्रतिदिन ही बढ़ती है।। यहीं अकेलापन हे गुरुवर, क्या निज दर्श कराएगा। अनंत भव से खोई अपनी, आत्मनिधि दिखलाएगा।।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  20. मेरे हृदय के लघु पात्र में , जब आपने अपनी कृपा का सुख रस उड़ेला, तब मैं पुण्य फलों में मानो बेभान हो गया। यह नहीं सोचा कि इतना सारा सुख, मुझे क्यों दिया जा रहा है? और जब तिनके सा ढुःख आया, मानो पहाड़ टूट पड़ा। तब मैं पाप फलों में बेहोश हो गया। यही सोचता रहा कि सारा दु:ख, मुझे ही क्यों दिया जा रहा है? मेरी बुद्धि सम हो! न तव हो, न मम हो! “आप दृष्टि दो जिससे सुख के, सागर में गहरे उतरूँ। पलके बंद न हो लहरों को, अपने दामन में भर लूँ।। स्वाति बूंद बनकर तुम बरसो, मैं विद्या मोती पाऊँ। कर्मों की आँधी-तूफाँ से, किञ्चित् भी ना घबराऊँ।'' आर्यिका पूर्णमती माताजी
  21. आप जिसे कुछ नहीं देते हो, उसे सब कुछ दे देते हो। जिसे कुछ नहीं कहते हो, उससे सब कुछ कह देते हो। लोगों को लगता है, इन्हें कुछ नहीं देते पर, क्या, वचनों से कहना ही सब कहना है? बिन बोले भी तो कुछ कहा जा सकता है। क्या, प्रत्यक्ष देने से ही दिया जा सकता है? कुछ नहीं देना भी तो, सब कुछ देने का प्रतीक हो जाता है। "कुछ ना देते गुरु शिष्य को, अज्ञानी यह कहता हैं। सारा जग जो ना दे पाता, गुरु वह मौलिक दाता हैं।। दृश्य वस्तु को पाकर ही नित, अज्ञ शिष्य संतुष्ट रहे। आत्मभूत उपहार प्राप्त कर, ज्ञानी शिष्य आभीष्ट वरे।” आर्यिका पूर्णमती माताजी
  22. मेरा जीवन तो सीमेन्ट जैसा था, कर्मों की हवाओं में इधर-उधर उड़ने वाला। किंतु जब आपकी पवित्र कृपा का जल मिला, तो हो गया मजबूत... विकारों की आँधियों से लड़ने वाला। कर्म हवा में कभी नहीं उड़ने वाला। विकारों के बहाव में कभी नहीं बहने वाला। कषायों की मार से कभी नहीं टूटने वाला, और ज्ञात हो गया... शक्तिमान! ज्ञानघन! महिमावान! “जीवन शुष्क मरूस्थल सम था, गुरू से ही मधुमास बना। मन खंड़ित वनवासी जैसा, गुरू से भव्य प्रसाद बना।। उठते गिरते इस बालक को, हाथों का अवलंब दिया। ऐसे गुरू विद्यासागर को, मन वच तन से नमन किया।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  23. जब मैं जग को अपना मान रहा था, आपने अपने नयन बंद ही रखे। जब मैंने आपको अपना माना, तब पल भर नयन खोलकर फिर बंद कर लिये। लेकिन जब आपके संकेत को समझकर, मैंने निज आत्मा को ही मात्र अपना माना, तब आप के अंतर्चक्षु मुदित हो गए। मेरे ज्ञान नभ में विद्या रवि उदित हो गए। जब आपके इशारे मुझे समझ में आ गए, तब मुझे लगा... आप मेरे अंतर्नयन हो गए। "चाहे बदले समय चक्र पर, शिष्य समर्पण ना बदले। एकलव्य को द्रोण गुरूजी, चाहे कितना ठुकरा दें।। एकलव्य उत्तीर्ण हो गया, मृण्मय मूरत बनवाकर। शिव्यगणों में हुआ अग्रणी, गुरु दक्षिणा को देकर।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
  24. मैं आपसे यह नहीं चाहता कि, आप मुझे सुखी कर दें। बल्कि .. मैं यह चाहता हूँ कि, कर्मों से पीड़ित मेरी आत्मा को, दु:ख का भान करा दें। क्योकि... इन्द्रिय सुख मुझे सदा सुखी करेगा, इसमें मुझे संशय है। लेकिन ... आत्मिक दु:ख का भान, मुझे अनंत सुखी अवश्य करेगा, इसमें कोई संशय नहीं। “गुरुवर न्यायाधीश हमारे, उचित न्याय कर सुख भर दो। नि:स्वारथ हो वैध हमारे, कर्म व्याधियाँ सब हर लो।। नहीं सुनोगे गुरुवर मेंरी, कौन सुनेगा दुनिया में। दयासिंधु इक नजर देख लो, नीर झर रहा अंखियन में " आर्यिका पूर्णमती माताजी
  25. हीयमान इस अवसर्पिणी काल में भी, आप सदा वर्धमान से लगते हैं। भीड़ में रहते हुए भी, सदा निजात्म में रहते हैं। ऐसे गुरु के आधार बिन, जीवन अधूरा ही रहता है। चाहे कितना ही यश मिल जाये बाहर में, पर गुरु बिन अंदर में खलता है। ज्यों सीप बिन जल बिंदु, मोती रूप नहीं होता। त्यों शुरु बिन जीवन भी, शुरू नहीं होता। "मेरे गुरु साक्षात धरा पर, वर्धमान से लगते हैं। विहार में ऋद्धीधारी सम, भक्त सभी यह कहते हैं।। अग्निभूति गौतम ने भी गुरू, वीर प्रभु को माना था। क्योंकि उन्हें भी महावीर सा, अविनाशी पद पाना था।।" आर्यिका पूर्णमती माताजी
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