मेरा जीवन तो सीमेन्ट जैसा था,
कर्मों की हवाओं में इधर-उधर उड़ने वाला।
किंतु जब आपकी पवित्र कृपा का जल मिला,
तो हो गया मजबूत...
विकारों की आँधियों से लड़ने वाला।
कर्म हवा में कभी नहीं उड़ने वाला।
विकारों के बहाव में कभी नहीं बहने वाला।
कषायों की मार से कभी नहीं टूटने वाला,
और ज्ञात हो गया...
शक्तिमान! ज्ञानघन! महिमावान!
“जीवन शुष्क मरूस्थल सम था, गुरू से ही मधुमास बना।
मन खंड़ित वनवासी जैसा, गुरू से भव्य प्रसाद बना।।
उठते गिरते इस बालक को, हाथों का अवलंब दिया।
ऐसे गुरू विद्यासागर को, मन वच तन से नमन किया।।"